गुरु: Difference between revisions
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<p class="HindiText">गुरु शब्द का अर्थ महान् होता है। लोक में अध्यापकों को गुरु कहते हैं। माता पिता भी गुरु कहलाते हैं। परन्तु धार्मिक प्रकरण में आचार्य, उपाध्याय व साधु गुरु कहलाते हैं, क्योंकि वे जीव को उपदेश देकर अथवा बिना उपदेश दिये ही केवल अपने जीवन का दर्शन कराकर कल्याण का वह सच्चा मार्ग बताते हैं, जिसे पाकर वह सदा के लिए कृतकृत्य हो जाता है। इसके अतिरिक्त विरक्त चित्त सम्यग्दृष्टि श्रावक भी उपरोक्त कारणवश ही गुरु संज्ञा को प्राप्त होते हैं। दीक्षा गुरु, शिक्षा गुरु, परम गुरु आदि के भेद से गुरु कई प्रकार के होते हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> गुरु निर्देश</strong><br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.1" id="1.1">अर्हन्त भगवान् परम गुरु हैं</strong></span><br /> | |||
प्र.सा./ता.वृ./७९/ प्रक्षेपक गाथा २/१००/२४ <span class="PrakritText">अनन्तज्ञानादिगुरुगुणैस्त्रैलोकस्यापि गुरुस्तं त्रिलोकगुरुं, तमित्थंभूतं भगवंतं...।</span>=<span class="HindiText">अनन्तज्ञानादि महान् गुणों के द्वारा जो तीनों लोकों में भी महान् हैं वे भगवान् अर्हन्त त्रिलोक गुरु हैं। (पं.ध./उ./६२०)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> आचार्य उपाध्याय साधु गुरु हैं</strong></span><br /> | |||
भ.आ./वि./३००/५११/१३ <span class="SanskritText">सुस्सूसया गुरूणं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्गुरुतया गुरव इत्युच्यन्ते आचार्योंपाध्यायसाधव: ।</span>=<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र इन गुणों के द्वारा जो बड़े बन चुके हैं उनको गुरु कहते हैं। अर्थात् आचार्य उपाध्याय और साधु ये तीन परमेष्ठी गुरु कहे जाते हैं।</span><br /> | |||
ज्ञा.सा./५ <span class="SanskritText">पञ्चमहाव्रतकलितो मदमथन: क्रोधलोभभयत्यक्त:। एष गुरुरिति भण्यते तस्माज्जानीहि उपदेशं।५।</span>=<span class="HindiText">पा̐च महाव्रतधारी, मद का मंथन करने वाले, तथा क्रोध लोभ व भय को त्यागने वाले गुरु कहे जाते हैं।</span><br /> | |||
पं.ध./उ./६२१,६३७<span class="SanskritText"> तेभ्योऽर्वागपि छद्मस्थरूपास्तद् रूपधारिण:। गुरव: स्यर्गुरोर्न्यायान्नान्योऽवस्थाविशेषभाक् ।६२१। अथास्त्येक: स सामान्यात्सद्विशेष्यस्त्रिधा मत:। एकोऽप्यग्निर्यथा तार्ण्य: पार्ण्यो दार्व्यस्त्रिधोच्यते।६३७।</span>=<span class="HindiText">उन सिद्ध और अर्हन्तों की अवस्था के पहिले की अवस्थावाले उसी देव के रूपधारी छठे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक रहने वाले मुनि भी गुरु कहलाते हैं, क्योंकि वे भी भावी नैगम नय की अपेक्षा से उक्त गुरु की अवस्था-विशेष को धारण करने वाले हैं, अगुरु नहीं हैं।६३१। वह गुरु यद्यपि सामान्य रूप से एक प्रकार का है परन्तु सत् की विशेष अपेक्षा से तीन प्रकार का माना गया है–(आचार्य, उपाध्याय व साधु) जैसे कि अग्नित्व सामान्य से अग्नि एक प्रकार की होकर भी तृण की, पत्र की तथा लकड़ी की अग्नि इस प्रकार तीन प्रकार की कही जाती है।६३७। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> आचार्य उपाध्याय व साधु–दे०वह वह नाम।</strong><br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> संयत साधु के अतिरिक्त अन्य को गुरु संज्ञा प्राप्त नहीं</strong> </span><br /> | |||
अ.ग.श्रा/१/४३ ये <span class="SanskritText">ज्ञानिनश्चारुचारित्रभाजो ग्राह्या गुरूणां वचनेन तेषां। संदेहमत्यस्य बुधेन धर्मो विकल्पनीयं वचनं परेषां।४३।</span><span class="HindiText"> जे ज्ञानवान सुन्दर चारित्र के धरने वाले हैं, तिनि गुरूनि के वचननिकरि सन्देह छोड़ धर्म ग्रहण करना योग्य है। बहुरि ऐसे गुरुनि बिना औरनिका वचन सन्देह योग्य है।</span><br /> | |||
पं.ध./उ./६५८ <span class="SanskritText">इत्युक्तव्रततप:शीलसंयमादिधरो गणी। नमस्य: स गुरु: साक्षादन्यो न तु गुरुर्गणी।६५८।</span> <span class="HindiText">=इस प्रकार जो आचार्य पूर्वोक्त तपशील और संयमादि को धारण करने वाले हैं, वही साक्षात् गुरु हैं, और नमस्कार करने योग्य हैं, किन्तु उससे भिन्न आचार्य गुरु नहीं हो सकता।</span><br /> | |||
र.क.श्रा./टी./१/१०/<span class="HindiText">पं.सदासुखदास—जो विषयनि का लम्पटी होय सो ओरनिकूं विषयनितै छुड़ाय वीतराग मार्ग में नाहीं प्रवर्तावै। संसारमार्ग में लगाय संसार समुद्र में डुबोय देय है। तातै विषयनि की आशाकै वश नहीं होय सो ही गुरु आराधन करने व वन्दन करने योग्य है। जातैं विषयनि में जाकै अनुराग होय सो तो आत्मज्ञानरहित बहिरात्मा है, गुरु कैसे होय। बहुरि जिसकैं त्रस स्थावर जीवनि का घातक आरम्भ होय तिसकै पाप का भय नहीं, तदि पापिष्ठकै गुरुपना कैसे सम्भवै। बहुरि जो चौदह प्रकार अन्तरंग परिग्रह और दस प्रकार बहिरंग परिग्रहकरि सहित होय सो गुरु कैसे होय ? परिग्रही तो आप ही संसार में फ̐स रह्या, सो अन्य का उद्धार करने वाला गुरु कैसे होय ? <br /> | |||
दे.विनय/४ असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि साधु आदि वन्दने योग्य नहीं है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"> मिथ्यादृष्टि साधु को गुरु मानना मूढ़ता है–देखें - [[ मूढ़ता | मूढ़ता। ]]<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"> कुगुरु निषेध—देखें - [[ कुदेव | कुदेव। ]]<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.4" id="1.4">सदोष साधु भी गुरु नहीं है</strong></span><br /> | |||
/ | पं.ध./उ./६५७<span class="SanskritText"> यद्वा मोहात्मप्रमादाद्वा कुर्याद्यो लौकिकीं क्रियाम् । तावत्कालं स नाचार्योऽप्यस्ति चान्तर्व्रताच्च्युत:।६५७।</span>=<span class="HindiText">जो मोह से अथवा प्रमाद से जितने काल तक लौकिक क्रिया को करता है, उतने काल तक वह आचार्य नहीं है और अन्तरंग में व्रतों से च्युत भी है।६५७।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> निर्यापकाचार्य को शिक्षा गुरु कहते हैं</strong></span><br /> | |||
प्र.सा./ता.वृ./२१०/२८४/१५ <span class="SanskritText">छेदयोर्ये प्रायश्चित्तं दत्वा संवेगवैराग्यजनकपरमागमवचनै: संवरणं कुर्वन्ति ते निर्यापका: शिक्षागुरव: श्रुतगुरवश्चेति भण्यते।</span>=<span class="HindiText">देश व सकल इन दोनों प्रकार के संयम के छेद की शुद्धि के अर्थ प्रायश्चित्त देकर संवेग व वैराग्य जनक परमागम के वचनों द्वारा साधु का संवरण करते हैं वे निर्यापक हैं। उन्हें ही शिक्षा गुरु या श्रुत गुरु भी कहते हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> निश्चय से अपना आत्मा ही गुरु है</strong> </span><br /> | |||
इ.उ./३४<span class="SanskritText"> स्वस्मिन्सदाभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वत:। स्वयं हि प्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मन:।३४।</span>=<span class="HindiText">वास्तव में आत्मा का गुरु आत्मा ही है, क्योंकि वही सदा मोक्ष की अभिलाषा करता है, मोक्ष सुख का ज्ञान करता है और स्वयं ही उसे परम हितकर जान उसकी प्राप्ति में अपने को लगाता है।</span><br /> | |||
स.श./७५ <span class="SanskritText">नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च। गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थत:।७५।</span> =<span class="HindiText">आत्मा ही आत्मा को देहादि में ममत्व करके जन्म मरण कराता है, और आत्मा ही उसे मोक्ष प्राप्त कराता है। इसलिए निश्चय से आत्मा का गुरु आत्मा ही है, दूसरा कोई नहीं।</span><br /> | |||
ज्ञा./३२/८१ <span class="SanskritText">आत्मात्मना भवं मोक्षमात्मन: कुरुते यत:। अतो रिपुर्गुरुश्चायमात्मैव व स्फुटमात्मन:।८१।</span>=<span class="HindiText">यह आत्मा अपने ही द्वारा अपने संसार को या मोक्ष को करता है। इसलिए आप ही अपना शत्रु और आप ही अपना गुरु है।</span><br /> | |||
पं.ध./उ./६२८<span class="SanskritText"> निर्जरादिनिदानं य: शुद्धो भावश्चिदात्मन: । परमार्ह: स एवास्ति तद्वानात्मा परं गुरु:।६२८।</span> =<span class="HindiText">वास्तव में आत्मा का शुद्धभाव ही निर्जरादि का कारण है, वही परमपूज्य है, और उस शुद्धभाव से युक्त आत्मा ही केवल गुरु कहलाता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> उपकारी जनों को भी कदाचित् गुरु माना जाता है</strong></span><br /> | |||
ह.पु./२१/१२८-१३१ <span class="SanskritText">अक्रमस्य तदा हेतुं खेचरौ पर्यपृच्छताम् । देवावृषिमतिक्रम्य प्राग्नतौ श्रावकं कुत:।१२८। त्रिदशावूचतुर्हेतु जिनधर्मोपदेशक:। चारुदत्तो गुरु: साक्षादावयोरिति बुध्यताम् ।१२९। तत्कथं कथमित्युक्ते छागपूर्व: सुरोऽभणीत। श्रूयतां मे कथा तावत कथ्यते खेचरौ ! स्फुटम् ।१३०।</span>=<span class="HindiText">(उस रत्नद्वीप में जब चारण मुनिराज के समक्ष चारुदत्त व दो विद्याधर विनय पूर्वक बैठे थे, तब स्वर्गलोक से दो देव आये जिन्होंने मुनि को छोड़कर पहिले चारुदत्त को नमस्कार किया) विद्याधरों ने उस समय उस अक्रम का कारण पूछा कि हे देवो, तुम दोनों ने मुनिराज को छोड़कर श्रावक को पहिले नमस्कार क्यों किया ? देवों ने इसका कारण कहा कि इस चारुदत्त ने हम दोनों को जिन धर्म का उपदेश दिया है, इसलिए यह हमारा साक्षात् गुरु है। यह समझिए।१२८-१२९। यह कैसे ? इस प्रकार पूछने पर जो पहिले बकरा का जीव था वह बोला कि हे विद्याधरो ! सुनिए मैं अपनी कथा स्पष्ट कहता हू̐।१३०।</span><br /> | |||
म.पु./९/१७२ <span class="SanskritText">महाबलभवेऽप्यासीत् स्वयंबुद्धो गुरो स न:। वितीर्थ दर्शनं सम्यक् अधुना तु विशेषत:।१७२।</span>=<span class="HindiText">महाबल के भव में भी वे मेरे स्वयंबुद्ध (मन्त्री) नामक गुरु हुए थे और आज इस भव में भी सम्यग्दर्शन देकर (प्रीतंकर मुनिराज के रूप में) विशेष गुरु हुए हैं।१७२।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"> अणुव्रती श्रावक भी गृहस्थाचार्य या गुरु संज्ञा को प्राप्त हो जाता है।– देखें - [[ आचार्य#2 | आचार्य / २ ]]।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"> गुरु की विशेषता– देखें - [[ वक्ता#4 | वक्ता / ४ ]]।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> गुरु शिष्य सम्बन्ध</strong><br /> | |||
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/ | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> शिष्य के दोषों के प्रति उपेक्षित मृदु भी ‘गुरु’ गुरु नहीं</strong></span><br /> | ||
मू.आ./१६८ <span class="PrakritGatha">जदि इदरो सोऽजोग्गो छेदमुवट्ठावणं च कादव्वं। जदि णेच्छदि छंडेज्जो अह गेह्णादि सोवि छेदरिहो।१६८।=</span><span class="HindiText">आगन्तुक साधु या चरणकरण से अशुद्ध हो तो संघ के आचार्य को उसे प्रायश्चित्तादि देकर छेदोपस्थापना करना योग्य है। यदि वह छेदोपस्थापना स्वीकार न करे तो उसका त्याग कर देना योग्य है। यदि अयोग्य साधु को भी मोह के कारण ग्रहण करे और उसे प्रायश्चित्त न दे तो वह आचार्य भी प्रायश्चित्त के योग्य है।</span><br /> | |||
भ.आ./मू./४८१/७०३ <span class="PrakritText">जिब्भाए वि लिहंतो ण भद्दओ जत्थ सारणा णत्थि।</span>=<span class="HindiText">जो शिष्यों के दोष देखकर भी उन दोषों को निवारण नहीं करते और जिह्वा से मधुर भाषण बोलते हैं तो भी वे भद्र नहीं है अर्थात् उत्तम गुरु नहीं है।</span><br /> | |||
आ.अनु./१४२ <span class="SanskritText">दोषान् कश्चिन तान्प्रवर्तकतया प्रच्छाद्य गच्छत्ययं सार्धं तै: सहसा प्रियेद्यदि गुरु: पश्चात् करोत्येष किम् । तस्मान्मे न गुरुर्गुरुर्गुरुतरान् कृत्वा लघूंश्च स्फुटं, ब्रूतेय: सततं समीक्ष्य निपुणं सोऽयं खल: सद्गुरु।१४२।=</span><span class="HindiText">जो गुरु शिष्यों के चारित्र में लगते हुए अनेक दोषों को देखकर भी उनकी तरफ दुर्लक्ष्य करता है व उनके महत्त्व को न समझकर उन्हें छिपाता चलता है वह गुरु हमारा गुरु नहीं है। वे दोष तो साफ न हो पाये हों और इतने में ही यदि शिष्य का मरण हो गया तो वह गुरु पीछे से उस शिष्य का सुधार कैसे करेगा ? किन्तु जो दुष्ट होकर भी उसके दोष प्रगट करता है वह उसका परम कल्याण करता है। इसलिए उससे अधिक और कौन उपकारी गुरु हो सकता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> शिष्य के दोषों का निग्रह करने वाला कठोर भी ‘गुरु’ गुरु है</strong></span><br /> | |||
भ.आ./मू./४७९-४८३<span class="PrakritText"> पिल्लेदूण रडंत पि जहा बालस्स मुहं विदारित्ता। पज्जेइ घदं माया तस्सेव हिदं विचितंती।७९। तह आयरिओ वि अणुज्जस्स खवयस्स दोसणीहरणं। कुणदि हिदं से पच्छा होहिदि कडुओसहं वत्ति।८०।...। पाएण वि ताडिंतो स भद्दओ जत्थ सारणा अत्थि।८१। आदट्ठमेव जे चिंतेदुमुटि्ठदा जे परट्ठमवि लोगे। कडुय फरुसेहिं ते हु अदिदुल्लहा लोए।४८३।</span>=<span class="HindiText">जो जिसका हित करना चाहता है वह उसको हित के कार्य में बलात्कार से प्रवृत्त करता है, जैसे हित करने वाली माता अपने रोते हुए भी बालक मु̐ह फाड़कर उसे घी पिलाती है।४७९। उसी प्रकार आचार्य भी मायाचार धारण करने वाले क्षपक को जबरदसती दोषों की आलोचना करने में बाध्य करते हैं तब वह दोष कहता है जिससे कि उसका कल्याण होता है जैसे कि कड़वी औषधी पीने के अनन्तर रोगी का कल्याण होता है।४८०। लातों से शिष्यों को ताड़ते हुए भी जो शिष्य को दोषों से अलिप्त रखता है वही गुरु हित करने वाला समझना चाहिए।४८१। जो पुरुष आत्महित के साथ-साथ, कटु व कठोर शब्द बोलकर परहित भी साधते हैं वे जगत् में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।४८३।<br /> | |||
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/ > | <li><span class="HindiText"> कठोर व हितकारी उपदेश देनेवाला गुरु श्रेष्ठ है– देखें - [[ उपदेश#3 | उपदेश / ३ ]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> गुरु शिष्य के दोषों को अन्य पर प्रगट न करे</strong></span><br /> | |||
भ.आ./मू./४८८ <span class="PrakritText">आयरियाणं वीसत्थदाए भिक्खू कहेदि सगदोसे। कोई पुण णिद्धम्मो अण्णेसिं कहेदि ते दोसे।४८८।</span>=<span class="HindiText">आचार्य पर विश्वास करके ही भिक्षु अपने दोष उससे कह देता है। परन्तु यदि कोई आचार्य उन दोषों को किसी अन्य से कहता है तो उसे जिनधर्म बाह्य समझना चाहिए।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"> गुरु विनय का महात्म्य– देखें - [[ विनय#2 | विनय / २ ]]।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> दीक्षागुरु निर्देश</strong></span> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> दीक्षा गुरु का लक्षण</strong> </span><br /> | |||
प्र.सा./मू./२१०<span class="PrakritText"> लिंगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि।....।</span><br /> | |||
प्र.सा./त.प्र./२१०<span class="SanskritText"> लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन य: किलाचार्य: प्रव्रज्यादायक: स गुरु:। <br /> | |||
प्र.सा./ता.वृ./२१०/२८४/१२ योऽसौ प्रव्रज्यादायक: स एव दीक्षागुरु:।</span>=<span class="HindiText">१. लिंग धारण करते समय जो निर्विकल्प सामायिक चारित्र का प्रतिपादन करके शिष्य को प्रव्रज्या देते हैं वे आचार्य दीक्षा गुरु हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> दीक्षा गुरु ज्ञानी व वीतरागी होना चाहिए</strong></span><br /> | |||
प्र.सा./मू./२५६ <span class="PrakritText">छदुमत्थविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो। ण लहदि अपुणब्भावं सादप्पगं लहदि।२५६। </span><br /> | |||
प्र.सा./ता.वृ./२५६/३४९/१५ <span class="SanskritText">ये केचन निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गं न जानन्ति पुण्यमेव मुक्तिकारणं भणन्ति ते छद्मस्थशब्देन गृह्यन्ते न च गणधरदेवादय:। तैश्छद्मस्थैरज्ञानिभि: शुद्धात्मोपदेशशून्यैर्ये दीक्षितास्तानि छद्मस्थविहितवस्तूनि भण्यन्ते।</span>=<span class="HindiText">जो कोई निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग को तो नहीं जानते और पुण्य को ही मोक्ष का कारण बताते हैं वे यहा̐ ‘छद्मस्थ’ शब्द के द्वारा ग्रहण किये गये हैं। (यहा̐ सिद्धान्त ग्रन्थों में प्ररूपित १२वें गुणस्थान पर्यन्त छद्मस्थ संज्ञा को प्राप्त) गणधरदेवादि से प्रयोजन नहीं हैं। ऐसे शुद्धात्मा के उपदेश से शून्य अज्ञानी छद्मस्थों द्वारा दीक्षा को प्राप्त जो साधु हैं उन्हें छद्मस्थविहित वस्तु कहा गया है। ऐसी छद्मस्थ विहित वस्तुओं में जो पुरुष व्रत, नियम, पठन, ध्यान, दानादि क्रियाओं युक्त है वह पुरुष मोक्ष को नहीं पाता किन्तु पुण्यरूप उत्तम देवमुनष्य पदवी को पाता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"> व्रत धारण में गुरु साक्षी की प्रधानता– देखें - [[ व्रत#1.6 | व्रत / १ / ६ ]]।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.3" id="3.3">स्त्री को दीक्षा देने वाले गुरु की विशेषता</strong></span><br /> | |||
मू.आ./१८३-१८५ <span class="PrakritText">पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरु परिसुद्धो। संगहणुग्गहकुसलो सददं सारक्खणाजुत्तो।१८३। गंभीरों दुद्धरिसो मिदवादी अप्पकोदुहल्लो य ! चिरपव्वइ गिहिदत्थो अज्जाणं गणधरो होदि।१८४।</span>=<span class="HindiText">आर्यकाओं का गणधर ऐसा होना चाहिए, कि उत्तम क्षमादि धर्म जिसको प्रिय हों, दृढ़ धर्मवाला हो, धर्म में हर्ष करने वाला हो, पाप से डरता हो, सब तरह से शुद्ध हो अर्थात् अखण्डित आचरणवाला हो, दीक्षाशिक्षादि उपकारकर नया शिष्य बनाने व उसका उपकार करने में चतुर हो और सदा शुभ क्रियायुक्त हो हितोपदेशी हो।१८३। गुणों कर अगाध हो, परवादियों से दबने वाला न हो, थोड़ा बोलने वाला हो, अल्प विस्मय जिसके हो, बहुत काल का दीक्षित हो, और आचार प्रायश्चित्तादि ग्रन्थों का जानने वाला हो, ऐसा आचार्य आर्यकाओं को उपदेश दे सकता है।१८४। इन पूर्वकथित गुणों से रहित मुनि जो आर्यकाओं का गणधरपना करता हैउसके गणपोषण आदि चारकाल तथा गच्छ आदि की विराधना होती है।१८५। </span></li> | |||
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Revision as of 22:16, 24 December 2013
गुरु शब्द का अर्थ महान् होता है। लोक में अध्यापकों को गुरु कहते हैं। माता पिता भी गुरु कहलाते हैं। परन्तु धार्मिक प्रकरण में आचार्य, उपाध्याय व साधु गुरु कहलाते हैं, क्योंकि वे जीव को उपदेश देकर अथवा बिना उपदेश दिये ही केवल अपने जीवन का दर्शन कराकर कल्याण का वह सच्चा मार्ग बताते हैं, जिसे पाकर वह सदा के लिए कृतकृत्य हो जाता है। इसके अतिरिक्त विरक्त चित्त सम्यग्दृष्टि श्रावक भी उपरोक्त कारणवश ही गुरु संज्ञा को प्राप्त होते हैं। दीक्षा गुरु, शिक्षा गुरु, परम गुरु आदि के भेद से गुरु कई प्रकार के होते हैं।
- गुरु निर्देश
- <a name="1.1" id="1.1">अर्हन्त भगवान् परम गुरु हैं
प्र.सा./ता.वृ./७९/ प्रक्षेपक गाथा २/१००/२४ अनन्तज्ञानादिगुरुगुणैस्त्रैलोकस्यापि गुरुस्तं त्रिलोकगुरुं, तमित्थंभूतं भगवंतं...।=अनन्तज्ञानादि महान् गुणों के द्वारा जो तीनों लोकों में भी महान् हैं वे भगवान् अर्हन्त त्रिलोक गुरु हैं। (पं.ध./उ./६२०)।
- आचार्य उपाध्याय साधु गुरु हैं
भ.आ./वि./३००/५११/१३ सुस्सूसया गुरूणं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्गुरुतया गुरव इत्युच्यन्ते आचार्योंपाध्यायसाधव: ।=सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र इन गुणों के द्वारा जो बड़े बन चुके हैं उनको गुरु कहते हैं। अर्थात् आचार्य उपाध्याय और साधु ये तीन परमेष्ठी गुरु कहे जाते हैं।
ज्ञा.सा./५ पञ्चमहाव्रतकलितो मदमथन: क्रोधलोभभयत्यक्त:। एष गुरुरिति भण्यते तस्माज्जानीहि उपदेशं।५।=पा̐च महाव्रतधारी, मद का मंथन करने वाले, तथा क्रोध लोभ व भय को त्यागने वाले गुरु कहे जाते हैं।
पं.ध./उ./६२१,६३७ तेभ्योऽर्वागपि छद्मस्थरूपास्तद् रूपधारिण:। गुरव: स्यर्गुरोर्न्यायान्नान्योऽवस्थाविशेषभाक् ।६२१। अथास्त्येक: स सामान्यात्सद्विशेष्यस्त्रिधा मत:। एकोऽप्यग्निर्यथा तार्ण्य: पार्ण्यो दार्व्यस्त्रिधोच्यते।६३७।=उन सिद्ध और अर्हन्तों की अवस्था के पहिले की अवस्थावाले उसी देव के रूपधारी छठे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक रहने वाले मुनि भी गुरु कहलाते हैं, क्योंकि वे भी भावी नैगम नय की अपेक्षा से उक्त गुरु की अवस्था-विशेष को धारण करने वाले हैं, अगुरु नहीं हैं।६३१। वह गुरु यद्यपि सामान्य रूप से एक प्रकार का है परन्तु सत् की विशेष अपेक्षा से तीन प्रकार का माना गया है–(आचार्य, उपाध्याय व साधु) जैसे कि अग्नित्व सामान्य से अग्नि एक प्रकार की होकर भी तृण की, पत्र की तथा लकड़ी की अग्नि इस प्रकार तीन प्रकार की कही जाती है।६३७।
- आचार्य उपाध्याय व साधु–दे०वह वह नाम।
- संयत साधु के अतिरिक्त अन्य को गुरु संज्ञा प्राप्त नहीं
अ.ग.श्रा/१/४३ ये ज्ञानिनश्चारुचारित्रभाजो ग्राह्या गुरूणां वचनेन तेषां। संदेहमत्यस्य बुधेन धर्मो विकल्पनीयं वचनं परेषां।४३। जे ज्ञानवान सुन्दर चारित्र के धरने वाले हैं, तिनि गुरूनि के वचननिकरि सन्देह छोड़ धर्म ग्रहण करना योग्य है। बहुरि ऐसे गुरुनि बिना औरनिका वचन सन्देह योग्य है।
पं.ध./उ./६५८ इत्युक्तव्रततप:शीलसंयमादिधरो गणी। नमस्य: स गुरु: साक्षादन्यो न तु गुरुर्गणी।६५८। =इस प्रकार जो आचार्य पूर्वोक्त तपशील और संयमादि को धारण करने वाले हैं, वही साक्षात् गुरु हैं, और नमस्कार करने योग्य हैं, किन्तु उससे भिन्न आचार्य गुरु नहीं हो सकता।
र.क.श्रा./टी./१/१०/पं.सदासुखदास—जो विषयनि का लम्पटी होय सो ओरनिकूं विषयनितै छुड़ाय वीतराग मार्ग में नाहीं प्रवर्तावै। संसारमार्ग में लगाय संसार समुद्र में डुबोय देय है। तातै विषयनि की आशाकै वश नहीं होय सो ही गुरु आराधन करने व वन्दन करने योग्य है। जातैं विषयनि में जाकै अनुराग होय सो तो आत्मज्ञानरहित बहिरात्मा है, गुरु कैसे होय। बहुरि जिसकैं त्रस स्थावर जीवनि का घातक आरम्भ होय तिसकै पाप का भय नहीं, तदि पापिष्ठकै गुरुपना कैसे सम्भवै। बहुरि जो चौदह प्रकार अन्तरंग परिग्रह और दस प्रकार बहिरंग परिग्रहकरि सहित होय सो गुरु कैसे होय ? परिग्रही तो आप ही संसार में फ̐स रह्या, सो अन्य का उद्धार करने वाला गुरु कैसे होय ?
दे.विनय/४ असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि साधु आदि वन्दने योग्य नहीं है।
- <a name="1.4" id="1.4">सदोष साधु भी गुरु नहीं है
पं.ध./उ./६५७ यद्वा मोहात्मप्रमादाद्वा कुर्याद्यो लौकिकीं क्रियाम् । तावत्कालं स नाचार्योऽप्यस्ति चान्तर्व्रताच्च्युत:।६५७।=जो मोह से अथवा प्रमाद से जितने काल तक लौकिक क्रिया को करता है, उतने काल तक वह आचार्य नहीं है और अन्तरंग में व्रतों से च्युत भी है।६५७।
- निर्यापकाचार्य को शिक्षा गुरु कहते हैं
प्र.सा./ता.वृ./२१०/२८४/१५ छेदयोर्ये प्रायश्चित्तं दत्वा संवेगवैराग्यजनकपरमागमवचनै: संवरणं कुर्वन्ति ते निर्यापका: शिक्षागुरव: श्रुतगुरवश्चेति भण्यते।=देश व सकल इन दोनों प्रकार के संयम के छेद की शुद्धि के अर्थ प्रायश्चित्त देकर संवेग व वैराग्य जनक परमागम के वचनों द्वारा साधु का संवरण करते हैं वे निर्यापक हैं। उन्हें ही शिक्षा गुरु या श्रुत गुरु भी कहते हैं।
- निश्चय से अपना आत्मा ही गुरु है
इ.उ./३४ स्वस्मिन्सदाभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वत:। स्वयं हि प्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मन:।३४।=वास्तव में आत्मा का गुरु आत्मा ही है, क्योंकि वही सदा मोक्ष की अभिलाषा करता है, मोक्ष सुख का ज्ञान करता है और स्वयं ही उसे परम हितकर जान उसकी प्राप्ति में अपने को लगाता है।
स.श./७५ नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च। गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थत:।७५। =आत्मा ही आत्मा को देहादि में ममत्व करके जन्म मरण कराता है, और आत्मा ही उसे मोक्ष प्राप्त कराता है। इसलिए निश्चय से आत्मा का गुरु आत्मा ही है, दूसरा कोई नहीं।
ज्ञा./३२/८१ आत्मात्मना भवं मोक्षमात्मन: कुरुते यत:। अतो रिपुर्गुरुश्चायमात्मैव व स्फुटमात्मन:।८१।=यह आत्मा अपने ही द्वारा अपने संसार को या मोक्ष को करता है। इसलिए आप ही अपना शत्रु और आप ही अपना गुरु है।
पं.ध./उ./६२८ निर्जरादिनिदानं य: शुद्धो भावश्चिदात्मन: । परमार्ह: स एवास्ति तद्वानात्मा परं गुरु:।६२८। =वास्तव में आत्मा का शुद्धभाव ही निर्जरादि का कारण है, वही परमपूज्य है, और उस शुद्धभाव से युक्त आत्मा ही केवल गुरु कहलाता है।
- उपकारी जनों को भी कदाचित् गुरु माना जाता है
ह.पु./२१/१२८-१३१ अक्रमस्य तदा हेतुं खेचरौ पर्यपृच्छताम् । देवावृषिमतिक्रम्य प्राग्नतौ श्रावकं कुत:।१२८। त्रिदशावूचतुर्हेतु जिनधर्मोपदेशक:। चारुदत्तो गुरु: साक्षादावयोरिति बुध्यताम् ।१२९। तत्कथं कथमित्युक्ते छागपूर्व: सुरोऽभणीत। श्रूयतां मे कथा तावत कथ्यते खेचरौ ! स्फुटम् ।१३०।=(उस रत्नद्वीप में जब चारण मुनिराज के समक्ष चारुदत्त व दो विद्याधर विनय पूर्वक बैठे थे, तब स्वर्गलोक से दो देव आये जिन्होंने मुनि को छोड़कर पहिले चारुदत्त को नमस्कार किया) विद्याधरों ने उस समय उस अक्रम का कारण पूछा कि हे देवो, तुम दोनों ने मुनिराज को छोड़कर श्रावक को पहिले नमस्कार क्यों किया ? देवों ने इसका कारण कहा कि इस चारुदत्त ने हम दोनों को जिन धर्म का उपदेश दिया है, इसलिए यह हमारा साक्षात् गुरु है। यह समझिए।१२८-१२९। यह कैसे ? इस प्रकार पूछने पर जो पहिले बकरा का जीव था वह बोला कि हे विद्याधरो ! सुनिए मैं अपनी कथा स्पष्ट कहता हू̐।१३०।
म.पु./९/१७२ महाबलभवेऽप्यासीत् स्वयंबुद्धो गुरो स न:। वितीर्थ दर्शनं सम्यक् अधुना तु विशेषत:।१७२।=महाबल के भव में भी वे मेरे स्वयंबुद्ध (मन्त्री) नामक गुरु हुए थे और आज इस भव में भी सम्यग्दर्शन देकर (प्रीतंकर मुनिराज के रूप में) विशेष गुरु हुए हैं।१७२।
- अणुव्रती श्रावक भी गृहस्थाचार्य या गुरु संज्ञा को प्राप्त हो जाता है।– देखें - आचार्य / २ ।
- गुरु की विशेषता– देखें - वक्ता / ४ ।
- <a name="1.1" id="1.1">अर्हन्त भगवान् परम गुरु हैं
- गुरु शिष्य सम्बन्ध
- शिष्य के दोषों के प्रति उपेक्षित मृदु भी ‘गुरु’ गुरु नहीं
मू.आ./१६८ जदि इदरो सोऽजोग्गो छेदमुवट्ठावणं च कादव्वं। जदि णेच्छदि छंडेज्जो अह गेह्णादि सोवि छेदरिहो।१६८।=आगन्तुक साधु या चरणकरण से अशुद्ध हो तो संघ के आचार्य को उसे प्रायश्चित्तादि देकर छेदोपस्थापना करना योग्य है। यदि वह छेदोपस्थापना स्वीकार न करे तो उसका त्याग कर देना योग्य है। यदि अयोग्य साधु को भी मोह के कारण ग्रहण करे और उसे प्रायश्चित्त न दे तो वह आचार्य भी प्रायश्चित्त के योग्य है।
भ.आ./मू./४८१/७०३ जिब्भाए वि लिहंतो ण भद्दओ जत्थ सारणा णत्थि।=जो शिष्यों के दोष देखकर भी उन दोषों को निवारण नहीं करते और जिह्वा से मधुर भाषण बोलते हैं तो भी वे भद्र नहीं है अर्थात् उत्तम गुरु नहीं है।
आ.अनु./१४२ दोषान् कश्चिन तान्प्रवर्तकतया प्रच्छाद्य गच्छत्ययं सार्धं तै: सहसा प्रियेद्यदि गुरु: पश्चात् करोत्येष किम् । तस्मान्मे न गुरुर्गुरुर्गुरुतरान् कृत्वा लघूंश्च स्फुटं, ब्रूतेय: सततं समीक्ष्य निपुणं सोऽयं खल: सद्गुरु।१४२।=जो गुरु शिष्यों के चारित्र में लगते हुए अनेक दोषों को देखकर भी उनकी तरफ दुर्लक्ष्य करता है व उनके महत्त्व को न समझकर उन्हें छिपाता चलता है वह गुरु हमारा गुरु नहीं है। वे दोष तो साफ न हो पाये हों और इतने में ही यदि शिष्य का मरण हो गया तो वह गुरु पीछे से उस शिष्य का सुधार कैसे करेगा ? किन्तु जो दुष्ट होकर भी उसके दोष प्रगट करता है वह उसका परम कल्याण करता है। इसलिए उससे अधिक और कौन उपकारी गुरु हो सकता है।
- शिष्य के दोषों का निग्रह करने वाला कठोर भी ‘गुरु’ गुरु है
भ.आ./मू./४७९-४८३ पिल्लेदूण रडंत पि जहा बालस्स मुहं विदारित्ता। पज्जेइ घदं माया तस्सेव हिदं विचितंती।७९। तह आयरिओ वि अणुज्जस्स खवयस्स दोसणीहरणं। कुणदि हिदं से पच्छा होहिदि कडुओसहं वत्ति।८०।...। पाएण वि ताडिंतो स भद्दओ जत्थ सारणा अत्थि।८१। आदट्ठमेव जे चिंतेदुमुटि्ठदा जे परट्ठमवि लोगे। कडुय फरुसेहिं ते हु अदिदुल्लहा लोए।४८३।=जो जिसका हित करना चाहता है वह उसको हित के कार्य में बलात्कार से प्रवृत्त करता है, जैसे हित करने वाली माता अपने रोते हुए भी बालक मु̐ह फाड़कर उसे घी पिलाती है।४७९। उसी प्रकार आचार्य भी मायाचार धारण करने वाले क्षपक को जबरदसती दोषों की आलोचना करने में बाध्य करते हैं तब वह दोष कहता है जिससे कि उसका कल्याण होता है जैसे कि कड़वी औषधी पीने के अनन्तर रोगी का कल्याण होता है।४८०। लातों से शिष्यों को ताड़ते हुए भी जो शिष्य को दोषों से अलिप्त रखता है वही गुरु हित करने वाला समझना चाहिए।४८१। जो पुरुष आत्महित के साथ-साथ, कटु व कठोर शब्द बोलकर परहित भी साधते हैं वे जगत् में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।४८३।
- कठोर व हितकारी उपदेश देनेवाला गुरु श्रेष्ठ है– देखें - उपदेश / ३ ।
- गुरु शिष्य के दोषों को अन्य पर प्रगट न करे
भ.आ./मू./४८८ आयरियाणं वीसत्थदाए भिक्खू कहेदि सगदोसे। कोई पुण णिद्धम्मो अण्णेसिं कहेदि ते दोसे।४८८।=आचार्य पर विश्वास करके ही भिक्षु अपने दोष उससे कह देता है। परन्तु यदि कोई आचार्य उन दोषों को किसी अन्य से कहता है तो उसे जिनधर्म बाह्य समझना चाहिए।
- शिष्य के दोषों के प्रति उपेक्षित मृदु भी ‘गुरु’ गुरु नहीं
- गुरु विनय का महात्म्य– देखें - विनय / २ ।
- दीक्षागुरु निर्देश
- दीक्षा गुरु का लक्षण
प्र.सा./मू./२१० लिंगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि।....।
प्र.सा./त.प्र./२१० लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन य: किलाचार्य: प्रव्रज्यादायक: स गुरु:।
प्र.सा./ता.वृ./२१०/२८४/१२ योऽसौ प्रव्रज्यादायक: स एव दीक्षागुरु:।=१. लिंग धारण करते समय जो निर्विकल्प सामायिक चारित्र का प्रतिपादन करके शिष्य को प्रव्रज्या देते हैं वे आचार्य दीक्षा गुरु हैं।
- दीक्षा गुरु ज्ञानी व वीतरागी होना चाहिए
प्र.सा./मू./२५६ छदुमत्थविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो। ण लहदि अपुणब्भावं सादप्पगं लहदि।२५६।
प्र.सा./ता.वृ./२५६/३४९/१५ ये केचन निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गं न जानन्ति पुण्यमेव मुक्तिकारणं भणन्ति ते छद्मस्थशब्देन गृह्यन्ते न च गणधरदेवादय:। तैश्छद्मस्थैरज्ञानिभि: शुद्धात्मोपदेशशून्यैर्ये दीक्षितास्तानि छद्मस्थविहितवस्तूनि भण्यन्ते।=जो कोई निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग को तो नहीं जानते और पुण्य को ही मोक्ष का कारण बताते हैं वे यहा̐ ‘छद्मस्थ’ शब्द के द्वारा ग्रहण किये गये हैं। (यहा̐ सिद्धान्त ग्रन्थों में प्ररूपित १२वें गुणस्थान पर्यन्त छद्मस्थ संज्ञा को प्राप्त) गणधरदेवादि से प्रयोजन नहीं हैं। ऐसे शुद्धात्मा के उपदेश से शून्य अज्ञानी छद्मस्थों द्वारा दीक्षा को प्राप्त जो साधु हैं उन्हें छद्मस्थविहित वस्तु कहा गया है। ऐसी छद्मस्थ विहित वस्तुओं में जो पुरुष व्रत, नियम, पठन, ध्यान, दानादि क्रियाओं युक्त है वह पुरुष मोक्ष को नहीं पाता किन्तु पुण्यरूप उत्तम देवमुनष्य पदवी को पाता है।
- दीक्षा गुरु का लक्षण
- व्रत धारण में गुरु साक्षी की प्रधानता– देखें - व्रत / १ / ६ ।
- <a name="3.3" id="3.3">स्त्री को दीक्षा देने वाले गुरु की विशेषता
मू.आ./१८३-१८५ पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरु परिसुद्धो। संगहणुग्गहकुसलो सददं सारक्खणाजुत्तो।१८३। गंभीरों दुद्धरिसो मिदवादी अप्पकोदुहल्लो य ! चिरपव्वइ गिहिदत्थो अज्जाणं गणधरो होदि।१८४।=आर्यकाओं का गणधर ऐसा होना चाहिए, कि उत्तम क्षमादि धर्म जिसको प्रिय हों, दृढ़ धर्मवाला हो, धर्म में हर्ष करने वाला हो, पाप से डरता हो, सब तरह से शुद्ध हो अर्थात् अखण्डित आचरणवाला हो, दीक्षाशिक्षादि उपकारकर नया शिष्य बनाने व उसका उपकार करने में चतुर हो और सदा शुभ क्रियायुक्त हो हितोपदेशी हो।१८३। गुणों कर अगाध हो, परवादियों से दबने वाला न हो, थोड़ा बोलने वाला हो, अल्प विस्मय जिसके हो, बहुत काल का दीक्षित हो, और आचार प्रायश्चित्तादि ग्रन्थों का जानने वाला हो, ऐसा आचार्य आर्यकाओं को उपदेश दे सकता है।१८४। इन पूर्वकथित गुणों से रहित मुनि जो आर्यकाओं का गणधरपना करता हैउसके गणपोषण आदि चारकाल तथा गच्छ आदि की विराधना होती है।१८५।