पर्याय: Difference between revisions
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == |
Revision as of 22:15, 18 April 2023
सिद्धांतकोष से
पर्याय का वास्तविक अर्थ वस्तु का अंश है। ध्रुव अन्वयी या सहभूह तथा क्षणिक व्यतिरेकी या क्रमभावी के भेद से वे अंश दो प्रकार के होते हैं। अन्वयी को गुण और व्यतिरेकी को पर्याय कहते हैं। वे गुण के विशेष परिणमनरूप होती हैं। अंश की अपेक्षा यद्यपि दोनों ही अंश पर्याय हैं, पर रूढ़ि से केवल व्यतिरेकी अंश को ही पर्याय कहना प्रसिद्ध है। वह पर्याय भी दो प्रकार की होती हैं - अर्थ व व्यंजन। अर्थ पर्याय तो छहों द्रव्यों में समान रूप से होनेवाले क्षणस्थायी सूक्ष्म परिणमन को कहते हैं। व्यंजन पर्याय जीव व पुद्गल की संयोगी अवस्थाओं को कहते हैं। अथवा भावात्मक पर्यायों को अर्थ-पर्याय और प्रदेशात्मक आकारों को व्यंजनपर्याय कहते हैं। दोनों ही स्वभाव व विभाव के भेद से दो प्रकार की होती हैं। शुद्ध द्रव्य व गुणों की पर्याय स्वाभाविक और अशुद्ध द्रव्य व गुणों की विभाविक होती हैं। इन ध्रुव व क्षणिक दोनों अंशों से ही उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप वस्तु की अर्थ क्रिया सिद्ध होती है।
- भेद व लक्षण
- पर्याय सामान्य का लक्षण अंश व विकार।
- पर्याय के भेद (द्रव्य-गुण; अर्थ-व्यंजन; स्वभाव-विभाव; कारण-कार्य)।
-
कर्म का अर्थ पर्याय - देखें अर्थ - 1.1।
- पर्याय सामान्य का लक्षण अंश व विकार।
- पर्याय सामान्य का निर्देश
-
पर्याय में परस्पर व्यतिरेक प्रदर्शन - देखें सप्तभंगी - 5.3।
- पर्याय द्रव्य के क्रम भावी अंश हैं।
- पर्याय स्वतंत्र है।
- पर्याय व क्रिया में अंतर।
- पर्याय निर्देश का प्रयोजन।
- स्वभाव-विभाव अर्थ व्यंजन व द्रव्य गुण पर्याय निर्देश
- अर्थ व व्यंजन पर्याय के लक्षण व उदाहरण।
- अर्थ व गुणपर्याय एकार्थवाची हैं।
- व्यंजन व द्रव्य पर्याय एकार्थवाची हैं।
- द्रव्य व गुणपर्याय से पृथक् अर्थ व व्यंजन पर्याय के निर्देश का कारण।
- सब गुण पर्याय ही हैं फिर द्रव्य पर्याय का निर्देश क्यों।
- अर्थ व व्यंजन पर्याय का स्वामित्व।
- व्यंजन पर्याय के अभाव का नियम नहीं।
- अर्थ व व्यंजन पर्यायों की सूक्ष्मता स्थूलता - (दोनों का काल; 2 व्यंजन पर्याय में अर्थपर्याय; स्थूल; व सूक्ष्म पर्यायों की सिद्धि)।
- स्वभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय।
- विभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय।
- स्वभाव गुण व अर्थपर्याय।
- विभाव गुण व अर्थपर्याय।
- स्वभाव व विभाव गुण व्यंजन पर्याय।
- स्वभाव व विभाव पर्यायों का स्वामित्व।
-
सादि-अनादि व सदृश-विसदृश परिणमन। - देखें परिणाम ।
- अर्थ व व्यंजन पर्याय के लक्षण व उदाहरण।
-
ऊर्ध्व क्रम व ऊर्ध्व प्रचय। - देखें क्रम ।
-
पर्याय पर्यायी में कथंचित् भेदाभेद - देखें द्रव्य - 4।
पर्यायों को द्रव्यगुण तथा उन्हें पर्यायों से लक्षित करना। - देखें उपचार - 3।
परिणमन का अस्तित्व द्रव्य में या द्रव्यांशों में या पर्यायों में। - देखें उत्पाद - 3।
पर्याय का कथंचित् सत्पना या नित्यानित्यपना। देखें उत्पाद - 3।
- भेद व लक्षण
- पर्याय सामान्य का लक्षण
- निरुक्ति अर्थ
राजवार्तिक/1/33/1/95/6 परि समंतादायः पर्यायः। = जो सर्व ओर से भेद को प्राप्त करे सो पर्याय है। ( धवला 1/1,1,1/84/1 ); ( कषायपाहुड़ 1/1,13-14/ §181/217/1); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति 14 )।
आलापपद्धति/6 स्वभावविभावरूपतया याति पर्येति परिणमतीति पर्याय इति पर्यायस्य व्युत्पत्तिः। = जो स्वभाव विभाव रूप से गमन करती है पर्येति अर्थात् परिणमन करती है, वह पर्याय है। यह पर्याय की व्युत्पत्ति है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 57)
- द्रव्यांश या वस्तु विशेष के अर्थ में
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/1 पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरिव्यर्थः। = पर्याय का अर्थ - विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति है।
राजवार्तिक/1/29/4/89/4 तस्य मिथो भवनं प्रति विरोध्यविरोधिनां धर्माणामुपात्तानुपात्तहेतुकानां शब्दांतरात्मलाभनिमित्तत्वाद् अर्पितव्यवहारविषयोऽवस्थाविशेषः पर्यायः। 4। = स्वाभाविक या नैमित्तिक विरोधी या अविरोधी धर्मों में अमुक शब्द व्यवहार के लिए विवक्षित द्रव्य की अवस्था विशेष को पर्याय कहते हैं।
धवला 9/4,1,45/170/2 एष एव सदादिरविभागप्रतिच्छेदनपर्यंतः संग्रह-प्रस्तारः क्षणिकत्वेन विवक्षितः वाचकभेदेन च भेदमापन्नः विशेष-विस्तारः पर्यायः। = सत् को आदि लेकर अविभाग प्रतिच्छेद पर्यंत यही संग्रह प्रस्तार क्षणिक रूप से विवक्षित व शब्द भेद से भेद को प्राप्त हुआ विशेष प्रस्तार या पर्याय है।
समयसार / आत्मख्याति/345 -348 क्षणिकत्वेऽपि वृत्त्यंशानाम्। = वृत्त्यंशों अर्थात् पर्यायों का क्षणिकत्व होने पर भी।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/26, 117 पर्यायाणामेतद्धर्म यत्त्वंशकल्पनं द्रव्ये। 26। स च परिणामोऽवस्था तेषामेव (गुणानामेव)। 117। = द्रव्य में जो अंश कल्पना की जाती है यही तो पर्यायों का स्वरूप है। 26। परिणमन गुणों की ही अवस्था है अर्थात् गुणों की प्रतिसमय होनेवाली अवस्था का नाम पर्याय है।
- द्रव्य विकार के अर्थ में
तत्त्वार्थसूत्र/5/42 तद्भावः परिणामः। 42। = उसका होना अर्थात् प्रतिसमय बदलते रहना परिणाम है। (अर्थात् गुणों के परिणमन को पर्याय कहते हैं।)
सर्वार्थसिद्धि/5/38/309-310/7 दव्व विकारी हि पज्जवो भणिदो। तेषां विकारा विशेषात्मना भिद्यमानाः पर्यायाः। =- द्रव्य के विकार को पर्याय कहते हैं।
- द्रव्य के विकार विशेष रूप से भेद को प्राप्त होते हैं इसलिए वे पर्याय कहलाते हैं। ( नयचक्र बृहद्/17 )।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृष्ठ 57 सामान्यविशेषगुणा एकस्मिन् धर्मणि वस्तुत्व-निष्पादकास्तेषां परिणामः पर्यायः। = सामान्य विशेषात्मक गुण एक द्रव्य में वस्तुत्व के बतलानेवाले हैं उनका परिणाम पर्याय है।
- पर्याय के एकार्थवाची नाम
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141 पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः। = पर्याय का अर्थ विशेष, अपवाद और व्यावृत्ति है।
गोम्मटसार जीवकांड/572/1016 ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओत्ति एयट्ठो। 572। = व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय ये सब एकार्थ हैं। 572।
स्याद्वाद मंजरी/23/272/11 पर्ययः पर्यवः पर्याय इत्यनर्थांतरम्। = पर्यय, पर्यव और पर्याय ये एकार्थवाची हैं।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/60 अपि चांशः पर्यायो भागो हारोविधा प्रकारश्च। भेदश्छेदो भंगः शब्दाश्चैकार्थवाचका एते। 60। = अंश, पर्याय, भाग, हार, विधा, प्रकार तथा भेद, छेद और भंग ये सब एक ही अर्थ के वाचक हैं। 60।
- निरुक्ति अर्थ
- पर्याय के दो भेद
- सहभावी व क्रमभावी
श्लोकवार्तिक/4/1/33/60/245/1 यः पर्यायः स द्विविधः क्रमभावी सहभावी चेति। = जो पर्याय है वह क्रमभावी और सहभावी इस ढंग से दो प्रकार है।
- द्रव्य व गुण पर्याय
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/93 पर्यायास्तु... द्रव्यात्मका अपि गुणात्मका अपि। = पर्याय गुणात्मक भी हैं और द्रव्यात्मक भी। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/25, 62-63, 135 )।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/35/12 द्विधा पर्याया द्रव्यपर्याया गुणपर्यायाश्च। = पर्याय दो प्रकार की होती हैं - द्रव्य पर्याय और गुणपर्याय। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/112 )।
- अर्थ-पर्याय व व्यंजन-पर्याय
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/8 अथवा द्वितीयप्रकारेणार्थव्यंजनपर्यायरूपेण द्विधा पर्याया भवंति। = अथवा दूसरे प्रकार से अर्थ-पर्याय व व्यंजन-पर्यायरूप से पर्याय दो प्रकार की होती हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड/581 ) ( न्यायदीपिका/3/ §77/120)।
- स्वभाव पर्याय व विभाव पर्याय
नयचक्र बृहद्/17-19 पज्जयं द्विविधः। 17। सब्भावं खुविहावं दव्वाणं पज्जयं जिणुद्दिट्ठं। 18। दव्वगुणाण सहावा पज्जायंतह विहावदो णेयं। 19। = पर्याय दो प्रकार की होती हैं - स्वभाव व विभाव। तहाँ द्रव्य व गुण दोनों की ही पर्याय स्वभाव व विभाव के भेद से दो-दो प्रकार की जाननी चाहिए। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/16 )।
आलापपद्धति/3 पर्यायास्तु द्वेधा स्वभावविभावपर्यायभेदात्। ...विभावद्रव्य-व्यंजनपर्यायः... विभावगुणव्यंजनपर्यायः... स्वभावद्रव्यव्यंजनपर्यायः ...स्वभावगुणव्यंजनपर्यायः। = पर्याय दो प्रकार की होती हैं - स्वभाव व विभाव। ये दोनों भी दो प्रकार की होती हैं यथा - विभाव-द्रव्य व्यंजनपर्याय, विभावगुण व्यंजनपर्याय, स्वभाव द्रव्य-व्यंजन पर्याय व स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय। ( परमात्मप्रकाश टीका/1/57 )।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/93 द्रव्यपर्यायः। स द्विविधः, समानजातीयोऽसमानजातीयश्च। ...गुणपर्यायः। सोऽपि द्विविधः स्वभावपर्यायो विभावंपर्यायश्च। = द्रव्यपर्याय दो प्रकार की होती है - समानजातीय और असमानजातीय। ...गुणपर्याय दो प्रकार की है - स्वभाव पर्याय व विभाव पर्याय। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/35/13 )।
- कारण शुद्ध पर्याय व कार्य शुद्ध पर्याय
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति 15 स्वभावविभावपर्य्यायाणां मध्ये स्वभावपर्यायस्तावत् द्विप्रकारेणोच्यते। कारणशुद्धपर्य्यायः कार्यशुद्धपर्य्यायश्चेति। = स्वभाव पर्यायों व विभाव पर्यायों के बीच प्रथम स्वभाव पर्याय दो प्रकार से कही जाती है - कारण शुद्धपर्याय, और कार्यशुद्धपर्याय।
- सहभावी व क्रमभावी
- द्रव्य पर्याय सामान्य का लक्षण
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/92 तत्रानेकद्रव्यात्मकैक्यप्रतिपत्तिनिबंधनो द्रव्यपर्यायः। = अनेक द्रव्यात्मक एकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत द्रव्य पर्याय है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/35/12 )।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/135 यतरे प्रदेशभागास्ततरे द्रव्यस्य पर्यया नाम्ना। 135। = द्रव्य के जितने प्रदेश रूप अंश हैं, उतने वे सब नाम से द्रव्यपर्याय हैं।
- समान व असमान जातीय द्रव्यपर्याय का लक्षण
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/93 तत्र समानजातीयो नाम यथा अनेकपुद्गलात्मको द्वयणुकस्त्र्यणुक इत्यादि, असमानजातीयो नाम यथा जीवपुद्गलात्मको देवो मनुष्य इत्यादि। = समानजातीय वह है - जैसे कि अनेक पुद्गलात्मक द्विअणुक, त्रिअणुक, इत्यादि; असमानजातीय वह है - जैसे कि जीव पुद्गलात्मक देव, मनुष्य इत्यादि।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/52 स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चितस्यैकस्यार्थस्य स्वलक्षणभूतस्वरूपास्तित्वनिश्चित एवान्यस्मिन्नर्थे विशिष्टरूपतया संभावितात्मलाभोऽर्थोऽनेकद्रव्यात्मकः पर्यायः। ...जीवस्य पुद्गले संस्थानादिविशिष्टतया समुपजायमानः संभाव्यत एव। = स्वलक्षण भूत स्वरूपास्तित्व से निश्चित अन्य अर्थ में विशिष्ट (भिन्न-भिन्न) रूप से उत्पन्न होता हुआ अर्थ (असमानजातीय) अनेक द्रव्यात्मक पर्याय है। ...जो कि जीव की पुद्गल में संस्थानादि से विशिष्टतया उत्पन्न होती हुई अनुभव में आती है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/35/14 द्वे त्रीणि वा चत्वारीत्यादिपरमाणुपुद्गल-द्रव्याणि मिलित्वा स्कंधा भवंतीत्यचेतनस्यापरेणाचेतनेन संबंधा-त्समानजातीयो भण्यते। असमानजातीयः कथ्यते-जीवस्य भवांतर-गतस्य शरीरनोकर्मपुद्गलेन सह मनुष्यदेवादिपर्यायोत्पत्तिचेतन-जीवस्याचेतनपुद्गलद्रव्येण सह मेलापकादसमानजातीयः द्रव्य-पर्यायो भण्यते। = दो, तीन वा चार इत्यादि परमाणु रूप पुद्गल द्रव्य मिलकर स्कंध बनते हैं, तो यह एक अचेतन की दूसरे अचेतन द्रव्य के संबंध से उत्पन्न होनेवाली समानजातीय द्रव्य पर्याय कही जाती है। अब असमान जातीय द्रव्य पर्याय कहते हैं - भवांतर को प्राप्त हुए जीव के शरीर नोकर्म रूप पुद्गल के साथ मनुष्य, देवादि पर्याय रूप जो उत्पत्ति है वह चेतन जीव की अचेतन पुद्गल द्रव्य के साथ मेल से होने के कारण असमानजातीय द्रव्य पर्याय कही जाती है।
- गुणपर्याय सामान्य का लक्षण
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/93 गुणद्वारेणायतनैक्यप्रतिपत्तिनिबंधनो गुणपर्यायः। 93। = गुण द्वारा आयत की अनेकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत गुणपर्याय है। 93।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/4 गुणद्वारेणान्वयरूपाया एकत्वप्रतिपत्तेर्निबंधनं कारणभूतो गुणपर्यायः। = जिन पर्यायों में गुणों के द्वारा अन्वयरूप एकत्व का ज्ञान होता है, उन्हें गुणपर्याय कहते हैं।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/135 यतरे च विशेषांस्ततरे गुणपर्यया भवंत्येव। 135। = जितने गुण के अंश हैं, उतने वे सब गुणपर्याय ही कहे जाते हैं। 135। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/61 )।
- गुणपर्याय एक द्रव्यात्मक ही होती हैं
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/105 एकद्रव्यपर्याया हि गुणपर्यायाः गुणपर्यायाणामेक-द्रव्यत्वात्। एकद्रव्यत्वं हि तेषां सहकारफलवत्। = गुणपर्यायें एक द्रव्यपर्यायें हैं, क्योंकि गुणपर्यायों को एक द्रव्यत्व है तथा वह द्रव्यत्व आम्रफल की भाँति हैं।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/5 गुणपर्यायः स चैकद्रव्यगत एव सहकारफले हरितपांडुरादिवर्णवत्। = गुणपर्याय एक द्रव्यगत ही होती है, आम्र में हरे व पीले रंग की भाँति।
- स्व व पर पर्याय के लक्षण
मोक्ष पंचाशत/23-25 केवलिप्रज्ञया तस्या जघन्योऽशंस्तु पर्य्ययः। तदाऽनंत्येन निष्पन्नं सा द्युतिर्निजपर्य्ययाः। 23। क्षयोपशम-वैचित्र्यं ज्ञेयवैचित्र्यमेव वा। जीवस्य परपर्यायाः षट्स्थनपतितामी। 25। = केवलज्ञान के द्वारा निष्पन्न जो अनंत अंतर्द्युति या अंतर्तेज है वही निज पर्याय है। 23। और क्षयोपशम के द्वारा व ज्ञेयों के द्वारा चित्र-विचित्र जो पर्याय है, सो परपर्याय है। दोनों ही षट्स्थान पतित वृद्धि हानि युक्त है। 25।
- कारण व कार्य शुद्ध पर्याय के लक्षण
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/15 इह हि सहजशुद्धनिश्चयेन अनाद्यनिधनामूर्ता-तींद्रियस्वभावशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शन-सहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्मकशुद्धांतस्तत्त्वस्वरूपस्वभावानंतचतुष्टयस्वरूपेण सहांचितपंचमभावपरिणतिरेव कारणशुद्धपर्याय इत्यर्थः। साद्यतिधनामूर्तातींद्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञान-केवलदर्शनकेवल-सुखकेवलशक्तियुक्तफलरूपानंतचतुष्टयेन सार्द्धं परमोत्कृष्टक्षायिकभावस्य शुद्धपरिणतिरेव कार्यशुद्धपर्य्यायश्च। = सहज शुद्ध निश्चय से, अनादि अनंत, अमूर्त, अतींद्रिय स्वभाववाले और शुद्ध ऐसे सहजज्ञान-सहजदर्शन-सहजचारित्र-सहजपरमवीतरागसुखात्मक शुद्ध अंतस्तत्त्व रूप जो स्वभाव अनंतचतुष्टय का स्वरूप उसके साथ की जो पूजित पंचम भाव परिणति वही कारण शुद्धपर्याय है। सादि-अनंत, अमूर्त अतींद्रिय स्वभाववाले, शुद्धसद्भूत व्यवहार से, केवलज्ञान-केवलदर्शन-केवलसुख-केवलशक्तियुक्त फलरूप अनंत चतुष्टय के साथ की परमोत्कृष्ट क्षायिक भाव की जो शुद्ध परिणति वही कार्य शुद्ध पर्याय है।
- पर्याय सामान्य का लक्षण
- स्वभाव विभाव, अर्थ व्यंजन व द्रव्य गुण पर्याय निर्देश
- अर्थ व व्यंजन पर्याय के लक्षण व उदाहरण
धवला 4/1,5,4/337/8 वज्जसिलाथंभादिसु वंजणसण्णिदस्स अवट्ठाणुवलंभादो। मिच्छत्तं पि वंजणपज्जाओ। = वज्रशिला, स्तंभादि में व्यंजन संज्ञिक उत्पन्न हुई पर्याय का अवस्थान पाया जाता है। मिथ्यात्व भी व्यंजन पर्याय है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/87 द्रव्याणि क्रमपरिणामेनेयतिद्रव्यैः क्रमपरिणामेनार्यंत इति वा अर्थ पर्यायाः। = जो द्रव्य को क्रम परिणाम से प्राप्त करते हैं, अथवा जो द्रव्यों के द्वारा क्रम परिणाम से प्राप्त किये जाते हैं, ऐसे ‘अर्थपर्याय’ हैं।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/गाथा षड्ढानिवृद्धिरूपाः सूक्ष्माः परमागमप्रामाण्यादभ्युपगमाः अर्थपर्य्यायाः। 168। व्यज्यते प्रकृटीक्रियते अनेनेति व्यंजनपर्यायः। कुतः, लोचनगोचरत्वात् पटादिवत्। अथवा सादिसनि-धनमूर्तविजातीयविभावस्वभावत्वात्, दृश्यमानविनाशस्वरूपत्वात्। 15। नरनारकादिव्यंजनपर्याया जीवानां पंचसंसारप्रपंचानां, पुद्गलानां स्थूलस्थूलादिस्कंधपर्य्यायाः। 168। = षट् हानि वृद्धि रूप, सूक्ष्म, परमागम प्रमाण से स्वीकार करने योग्य अर्थपर्यायें (होती हैं)। 168। जिससे व्यक्त हो - प्रगट हो वह व्यंजनपर्याय है। किस कारण? पटादि की भाँति चक्षु गोचर होने से (प्रगट होती हैं) अथवा सादि-सांत मूर्त विजातीय विभाव-स्वभाववाली होने से दिखकर नष्ट होनेवाले स्वरूपवाली होने से (प्रगट होती हैं।) नर-नारकादि व्यंजन पर्याय पाँच प्रकार की संसार प्रपंच वाले जीवों के होती हैं। पुद्गलों को स्थूल-स्थूल आदि स्कंध पर्यायें (व्यंजन पर्यायें) होती हैं। 168। ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/15 )
वसुनंदी श्रावकाचार/25 सुहुमा अवायविसया खणरवइणो अत्थपज्जया द्रिट्ठा। वंजणपज्जायां पुण थूलागिरगोयरा चिरविवत्था। 25। = अर्थ पर्याय सूक्ष्म है, अवाय (ज्ञान) विषयक है, अतः शब्द से नहीं कही जा सकती हैं और क्षण-क्षण में बदलती हैं, किंतु व्यंजन पर्याय स्थूल है, शब्द गोचर है अर्थात् शब्द से कही जा सकती है और चिरस्थायी है। 25। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/9 )।
न्यायदीपिका/3/ §77/120/6 अर्थपर्यायो भूतत्वभविष्यत्वसंस्पर्शरहित-शुद्धवर्तमानकालावच्छिन्नवस्तुस्वरूपम्। तदेतदृजुसूत्रनयविषयमामनंत्यभिुयक्ताः। ...व्यंजनं व्यक्तिः प्रवृत्तिनिवृत्तिनिबंधनं जलानयनाद्यर्थक्रियाकारित्वम्। तेनोपलक्षितः पर्यायो व्यंजनपर्यायः, मृदादेर्पिंड-स्थास-कोश-कुशूल-घट-कपालादयः पर्यायाः। = भूत और भविष्यत् के उल्लेखरहित केवल वर्तमान कालीन वस्तु-स्वरूप को अर्थपर्याय कहते हैं। आचार्यों ने इसे ऋजुसूत्र नय का विषय माना है। व्यक्ति का नाम व्यंजन है और जो प्रवृत्ति-निवृत्ति में कारणभूत जल के ले आने आदि रूप अर्थ क्रियाकारिता है वह व्यक्ति है उस व्यक्ति से युक्त पर्याय को व्यंजनपर्याय कहते हैं। जैसे - मिट्टी आदि की पिंड, स्थास, कोश, कुशूल, घट और कपाल आदि पर्यायें हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/80/101/17 शरीराकारेण यदात्मप्रदेशानामवस्थानं स व्यंजनपर्यायः, अगुरुलघुगुणषड्वृद्धिहानिरूपेण प्रतिक्षणं प्रवर्तमानाः अर्थपर्यायाः। = शरीर के आकाररूप से जो आत्म-प्रदेशों का अवस्थान है वह व्यंजन पर्याय कहलाती है। और अगुरुलघु गुण की षट्वृद्धि और हानिरूप तथा प्रतिक्षण बदलती हैं, वे अर्थपर्याय होती हैं।
- अर्थ व गुण पर्याय एकार्थवाची हैं
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/62 गुणपर्यायाणामिह केचिंनामांतरं वदंति बुधाः। अर्थो गुण इति वा स्यादेकार्थादर्थपर्याया इति च। 62। = यहाँ पर कोई-कोई विद्वान् अर्थ कहो या गुण कहो इन दोनों का एक ही अर्थ होने से अर्थ पर्यायों को ही गुणपर्यायों का दूसरा नाम कहते हैं। 62।
- व्यंजन व द्रव्य पर्याय एकार्थवाची हैं
धवला 4/1,5,4/337/6 वंजणपज्जायस्स दव्वत्तब्भुवगमादो। = व्यंजन पर्याय के द्रव्यपना माना गया है। ( गोम्मटसार जीवकांड 582 )।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/63 अपि चोद्दिष्टानामिह देशांशैर्द्रव्यपर्यायाणां हि। व्यंजन-पर्याया इति केचिंनामांतरे वदंति बुधाः। 63। = कोई-कोई विद्वान् यहाँ पर देशांशों के द्वारा निर्दिष्ट द्रव्यपर्यायों का ही व्यंजन पर्याय यह दूसरा नाम कहते हैं। 63।
- द्रव्य व गुण पर्याय से पृथक् अर्थ व व्यंजन पर्याय के निर्देश का कारण
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/16 एते चार्थव्यंजनपर्यायाः...। अत्र गाथायां च ये द्रव्यपर्यायाः गुणपर्यायाश्च भणितास्तेषु च मध्ये तिष्ठंति। तर्हि किमर्थं पृथक्कथिता इति चेदेकसमयवर्तिनोऽर्थपर्याया भण्यंते चिरकालस्थायिनो व्यंजनपर्याया भण्यंते इति कालकृतभेदज्ञापनार्थम्। = प्रश्न - यह जो अर्थ व व्यंजन पर्याय कही गयी हैं वे इस गाथा में कथित द्रव्य व गुण पर्यायों में ही समाविष्ट हैं, फिर इन्हें पृथक् क्यों कहा गया? उत्तर - अर्थ पर्याय एक समय स्थायी होती है और व्यंजन पर्याय चिरकाल स्थायी होती है, ऐसा काल कृत भेद दर्शाने के लिए ही इनका पृथक् निर्देश किया गया है।
- सब गुण पर्याय ही हैं फिर द्रव्य पर्याय का निर्देश क्यों
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/132-135 ननु चैवं सति नियमादिह पर्यायाः भवंति यावंतः। सर्वे गुणपर्याया वाच्या न द्रव्यपर्यायाः केचित्। 132। तत्र यतोऽस्ति विशेषः सति च गुणानां गुणत्ववत्वेऽपि। चिदचिद्यथा तथा स्यात् क्रियावती शक्तिरथ च भाववती। 133। यतरे प्रदेशभागस्ततरे द्रव्यस्य पर्यया नाम्ना। यतरे च विशेषांस्ततरे गुणपर्यया भवंत्येव। 135। = प्रश्न - गुणों के समुदायात्मक द्रव्य के मानने पर यहाँ पर नियम से जितनी भी पर्यायें होती हैं, वे सब गुण पर्याय कही जानी चाहिए, किसी को भी द्रव्य पर्याय नहीं कहना चाहिए। 132। उत्तर - यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि सामान्यपने से गुणवत्व के सदृश रहते हुए भी गुणों में विशेष भेद है, जैसे - आत्मा के चिदात्मक शक्तिरूप गुण और अजीव द्रव्यों के अचिदात्मक शक्तिरूप गुण ऐसे तथा वैसे ही द्रव्य के क्रियावती शक्तिरूप गुण और भाववती शक्तिरूप गुण ऐसे गुणों के दो भेद हैं। 133। जितने द्रव्य के प्रदेशरूप अंश हैं, वे सब नाम से द्रव्य पर्याय हैं और जितने गुण के अंश हैं वे सब गुण पर्याय कहे जाते हैं। 135। भावार्थ - ‘अमुक द्रव्य के इतने प्रदेश हैं’, इस कल्पना को द्रव्यपर्याय कहते हैं। और प्रत्येक द्रव्य संबंधी जो अनंतानंत गुण हैं उनकी प्रतिसमय होनेवाली षट्गुणी हानि-वृद्धि से तरतमरूप अवस्था को गुणपर्याय कहते हैं।
- अर्थ व व्यंजन पर्याय का स्वामित्व
ज्ञानार्णव/6/40 धर्माधर्मनभःकाला अर्थपर्यायगोचराः। व्यंजनाख्यस्य संबंधौ द्वावन्यौ जीवपुद्गलौ। 40। = धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार पदार्थ तो अर्थ पर्याय गोचर हैं, और अन्य दो अर्थात् जीव पुद्गल व्यंजन पर्याय के संबंध रूप हैं। 40।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/129/181/21 धर्माधर्माकाशकालानां मुख्यवृत्त्यैकसमयवर्तिनोऽर्थपर्याया एव जीवपुद्गलानामर्थपर्याय-व्यंजनपर्यायाश्च। = धर्म, अधर्म, आकाश, काल की तो मुख्य वृत्ति से एक समयवर्ती अर्थ पर्याय ही होती हैं और जीव व पुद्गल में अर्थ व व्यंजन दोनों पर्याय होती हैं। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/220/154/6 )।
- व्यंजन पर्याय के अभाव होने का नियम नहीं है
धवला 7/2,2,187/178/3 अभविय भावो णाम वियंजणपज्जाओ, तेणेदस्स विणासेण होदव्वमण्णहो दव्वत्तप्पसंगादो त्ति? होदु वियंजणपज्जाओ, ण च वियंजणपज्जायस्स सव्वस्स विणासेण होदव्वमिदि णियमो अत्थि, एयंतवादप्पसंगादो। ण च ण विणस्सदि त्ति दव्वं होदि उप्पाय-ट्ठिदि-भंग-संगयस्स दव्वभावब्भुवगमादो। = प्रश्न - अभव्य भाव जीव की व्यंजन पर्याय का नाम है, इसलिए उसका विनाश अवश्य होना चाहिए, नहीं तो अभव्यत्व के द्रव्यत्व होने का प्रसंग आ जायेगा? उत्तर - अभव्यत्व जीव की व्यंजनपर्याय भले ही हो, पर सभी व्यंजनपर्याय का अवश्य नाश होना चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से एकांतवाद का प्रसंग आ जायेगा। ऐसा भी नहीं है कि जो वस्तु विनष्ट नहीं होती वह द्रव्य ही होना चाहिए, क्योंकि जिसमें उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय पाये जाते हैं, उसे द्रव्यरूप से स्वीकार किया गया है।
- अर्थ व व्यंजन पर्यायों की स्थूलता सूक्ष्मता
- दोनों का काल
धवला 9/4,1,48/242-244/9 अत्थ पज्जाओ एगादिसमयावट्ठाणो सण्णा संबंध वज्जिओ अप्पकालावट्ठाणादो अहविसोसादो वा। तत्थ जो सो जहण्णुक्सेहिं अंतोमुहूत्तासंखेज्जलोगमैत्त कालावट्ठाणो अणाइ-अणंतो वा। 242-243। असुद्धो उजुसुदणओ सो चक्खुपासियवेंजण-पज्जयविसओ। तेसिं कालो जहण्णेण अंतोमुहूत्तमुक्कस्सेण छम्मासा संखेज्जा वासाणि वा। कुदो? चक्खिंदियगेज्झवेंजण-पज्जायाणाम-प्पहाणीभूदव्वाणमेत्तियं कालमवट्ठाणुवलंभादो। =- अर्थ पर्याय थोड़े समय तक रहने से अथवा प्रतिसमय विशेष होने से एक आदि समय तक रहनेवाली और संज्ञा-संज्ञी संबंध से रहित है। और व्यंजन पर्याय जघन्य और उत्कर्ष से क्रमशः अंतर्मुहूर्त और असंख्यात लोक मात्र काल तक रहनेवाली अथवा अनादि अनंत हैं। (पृ. 242-243)
- अशुद्ध ऋजुसूत्र नय चक्षुरिंद्रिय की विषयभूत व्यंजन पर्याय को विषय करनेवाला है। उन पर्यायों का काल जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से छह मास अथवा संख्यातवर्ष है क्योंकि चक्षुरिंद्रिय से ग्राह्य व्यंजन पर्यायें द्रव्य की प्रधानता से रहित होती हुई इतने काल तक अवस्थित पायी जाती हैं।
वसुनंदी श्रावकाचार/25 खणखइणो अत्थपज्जया दिट्ठा। 25। = अर्थ पर्याय क्षण-क्षण में विनाश होनेवाली होती हैं अर्थात् एकसमयवर्ति होती हैं। ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/7/101/18 ); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/39/9 व 18)।
- व्यंजनपर्याय में विलीन अर्थपर्याय
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/54/64/1 (द्रव्य, क्षेत्र, काल)भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायांतर्लीनसूक्ष्मपर्यायेषु सर्वेष्वपि... द्रष्ट्टत्वं प्रत्यक्षत्वात्। = (द्रव्य, क्षेत्र, काल) व भावप्रच्छन्न स्थूलपर्यायों में अंतर्लीन सूक्ष्म पर्यायें हैं... वास्तव में वह उस अतींद्रिय ज्ञान के द्रष्टापन (दृष्टिगोचर) हैं।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/171 स्थूलेष्विव पर्यायेष्वंतर्लीनाश्च पर्ययाः सूक्ष्माः। 175। = स्थूलों में सूक्ष्म की तरह स्थूल पर्यायों में भी सूक्ष्म पर्यायें अंतर्लीन होती हैं।
- स्थूल व सूक्ष्म पर्यायों की सिद्धि
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/172,173,180 का भावार्थ - तत्र व्यतिरेकः स्यात् परस्परा भावलक्षणेन यथा। अंशविभागः पृथगिति सदृशांशानां सतामेव। 172। तस्मात् व्यतिरेकत्वं तस्य स्यात् स्थूलपर्ययः स्थूलः। सोऽयं भवति न सोऽयं यस्मादेतावतैव संसिद्धिः। 173। तदिदं यथा स जीवो देवो मनुजाद्भवन्नथाप्यन्यः। कथमन्यथात्वभावं न लभेत स गोरसोऽपि नयात्। 180। = नरकादि रूप व्यंजन पर्यायें स्थूल हैं, क्योंकि उनमें एकजातिपने की अपेक्षा सदृशता रहते हुए भी व्यतिरेक देखा जाता हैं। अर्थात् ‘यह वह है’ ‘यह वही नहीं है’, ऐसा लक्षण घटित होता है। 172-173। परंतु अर्थ पर्यायें सूक्ष्म हैं। क्योंकि, यद्यपि नित्यता तथा अनित्यता होते हुए भी क्रम में कथंचित् सदृशता तथा विसदृशता होती है। परंतु उसका काल सूक्ष्म होने के कारण क्रम प्रतिसमय लक्ष्य में नहीं आता। इसलिए ‘यह वह नहीं है’ तथा ‘वह ऐसा नहीं है’ ऐसी विवक्षा बन नहीं सकती।
- दोनों का काल
- स्वभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय
नियमसार/15, 28 कम्मोपाधिविवज्जिय पज्जाया ते सहावमिदि भणिया। 15। अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जावो। 28। = कर्मोपाधि रहित पर्यायें वे स्वभाव (द्रव्य) पर्यायें कही गयी हैं। 15। अन्य की अपेक्षा से रहित जो (परमाणु का) परिणाम वह (पुद्गल द्रव्य की) स्वभाव पर्याय है। 28।
नयचक्र बृहद्/21,25,30 दव्वाणं खु पयेसा जे जे सहाव संठिया लोए। ते ते पुण पज्जाया जाण तुमं दविणसब्भावं। 21। देहायारपएसा जे थक्का उहयकम्मणिम्मुक्का। जीवस्स णिच्चला खलु ते सुद्धा दव्व-पज्जाया। 25। जो खलु अणाइणिहणो कारणरूवो हु कज्जरूवो वा। परमाणुपोग्गलाणं सो दव्वसहावपज्जाओ। 30। = सब द्रव्यों की जो अपने-अपने प्रदेशों की स्वाभाविक स्थिति है वही द्रव्य की स्वभाव पर्याय जानो। 21। कर्मों से निर्मुक्त सिद्ध जीवों में जो देहाकाररूप से प्रदेशों की निश्चल स्थिति है, वह जीव की शुद्ध या स्वभाव द्रव्य पर्याय है। 25। निश्चय से जो अनादि-निधन कारणरूप तथा कार्यरूप परमाणु है वही पुद्गल द्रव्य की स्वभाव द्रव्य पर्याय है। 30। ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/28 ), ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14/13 ), ( परमात्मप्रकाश टी./57)।
आलापपद्धति/3 स्वभावद्रव्यव्यंजनपर्यायाश्चरमशरीरात् किंचिन्न्यूनसिद्ध-पर्यायाः। ....अविभागीपुद्गलपरमाणुः स्वभावद्रव्यव्यंजनपर्यायः। = चरम शरीर से किंचित् न्यून जो सिद्ध पर्याय है वह (जीव द्रव्य की) स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय है। अविभागी पुद्गल परमाणु द्रव्य की स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/24/69/11 )।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/11 स्वभावव्यंजनपर्यायो जीवस्य सिद्धरूपः। = जीव की सिद्धरूप पर्याय स्वभाव व्यंजन पर्याय है।
- विभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय
नियमसार/15, 28 णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विभावमिदि भणिदा। 15। खंधसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जाओ। 28। = मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देवरूप पर्यायें, वे (जीव द्रव्य की) विभाव पर्यायें कही गयी हैं। 15। तथा स्कंधरूप परिणाम वह (पुद्गल द्रव्य की) विभाव पर्याय कही गयी है।
नयचक्र बृहद्/23,33 जं चदुगदिदेहीणं देहायारं पदेसपरिमाणं। अह विग्गहगइजीवे तं दव्वविहावपज्जायं। 23। जे संखाई खंधा परिणामिआ दुअणुआदिखंधेहिं। ते विय दव्वविहावा जाण तुमं पोग्गलाणं च। 33। = जो चारों गति के जीवों का तथा विग्रहगति में जीवों का देहाकार रूप से प्रदेशों का प्रमाण है, वह जीव की विभाव द्रव्य पर्याय है। 23। और जो दो अणु आदि स्कंधों से परिणामित संख्यात स्कंध हैं वे पुद्गलों की विभाव द्रव्य पर्याय तुम जानो। 33। ( परमात्मप्रकाश टीका/57 ), ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14/13 )।
आलापपद्धति/3 विभावद्रव्यव्यंजनपर्यायाश्चतुर्विधा नरनारकादिपर्याया अथवा चतुरशीतिलक्षा योनयः। ...पुद्गलस्य तु द्वयणुकादयो विभावद्रव्यव्यंजनपर्यायाः। = चार प्रकार की नर नारकादि पर्यायें अथवा चौरासी लाख योनियाँ जीव द्रव्य की विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय हैं। ...तथा दो अणुकादि पुद्गलद्रव्य की विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय हैं। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/10,11 )।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/16 सुरनारकतिर्यङ्मनुष्यलक्षणाः परद्रव्यसंबंधनिर्वृत्त-त्वादशुद्धाश्चेति। = देव-नारक-तियच-मनुष्य-स्वरूप पर्यायें परद्रव्य के संबंध से उत्पन्न होती हैं इसलिए अशुद्ध पर्यायें हैं। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/35/18 )।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/28 स्कंधपर्यायः स्वजातीयबंधलक्षणलक्षित्वादशुद्धः इति। = स्कंध पर्याय स्व जातीय बंधरूप लक्षण से लक्षित होने के कारण अशुद्ध है।
- स्वभाव गुण व अर्थ पर्याय
नयचक्र बृहद्/22,27,31 अगुरुलहुगा अणंता समयं समयं स समुब्भवा जे वि। दव्वाणं ते भणिया सहावगुणपज्जया जाणं। 22। णाणं दंसण सुह बीरियं च जं उहयकम्मपरिहीणं। तं सुद्ध जाण तुमं जीवे गुणपज्जयं सव्वं। 26। रूवरसगंधफासा जे थक्का जेसु अणुकदव्वेसु। ते चेव पोग्गलाणं सहावगुणपज्जया णेया। 31। = द्रव्यों के अगुरुलघु गुण के अनंत अविभाग प्रतिच्छेदों की समय-समय उत्पन्न होनेवाली पर्यायें हैं, वह द्रव्यों की स्वभाव गुणपर्याय कही गयी है, ऐसा तुम जानो। 22। द्रव्य व भावकर्म से रहित शुद्ध ज्ञान, दर्शन, सुख व वीर्य जीव द्रव्य की स्वभाव गुणपर्याय जानो। 23। ( परमात्मप्रकाश टीका/1/57 ) एक अणु रूप पुद्गल द्रव्य में स्थित रूप, रस, गंध व वर्ण है, वह पुद्गल द्रव्य की स्वभाव गुण पर्याय जानो। 31। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14-15/13 )।
आलापपद्धति/3 अगुरुलघुविकाराः स्वभावपर्यायास्ते द्वादशधा षड्वृद्धिरूपा षड्हानिरूपाः। = अगुरुलघु गुण के विकार रूप स्वभाव पर्याय होती हैं। वे 12 प्रकार की होती हैं, छह वृद्धि रूप और छह हानिरूप।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/93 स्वभावपर्यायो नाम समस्तद्रव्याणामात्मीयात्मीयागुरुलघुगुणद्वारेण प्रतिसमयसमुदीयमानषट्स्थानपतित-वृद्धिहानिनानात्वानुभूतिः। = समस्त द्रव्यों के अपने-अपने अगुरुलघुगुण द्वारा प्रति समय प्रगट होनेवाली षट् स्थानपतित हानिवृद्धि रूप अनेकत्व की अनुभूति स्वभाव गुण पर्याय है। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/16 ); (परमात्मप्रताश/टीका/1/57); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/7 )।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/गाथा /पृष्ठ / पंक्ति - परमाणु....वर्णादिभ्यो वर्णांतरादि-परिणमनं स्वभावगुणपर्याय (5/14/14) शुद्धार्थ पर्याया अगुरुलघुगुण-षड्ढानिवृद्धिरूपेण पूर्वमेव स्वभावगुणपर्यायव्याख्यानकाले सर्व-द्रव्याणां कथिताः (16/16/14) = वर्ण से वर्णांतर परिणमन करना यह परमाणु की स्वभाव गुण पर्याय है। (5/14/14)। शुद्धगुण पर्याय की भाँति सर्व द्रव्यों की अगुरुलघुगुण की षट् हानि वृद्धि रूप से शुद्ध अर्थ पर्याय होती हैं।
- विभाव गुण व अर्थ पर्याय
नयचक्र/24,34/ मदिसुदओहीमणपज्जयं च अण्णाणं तिण्णि जे भणिया। एवं जीवस्स इमे विभावगुणपज्जया सव्वे। 24। रूपाइय जे उत्ता जे दिट्ठा दुअणुआइखंधम्मि। ते पुग्गलाण भणिया विहावगुणपज्जया सव्वे। 24। = मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्यय ये चार ज्ञान तथा तीन अज्ञान जो कहे गये हैं ये सब जीव द्रव्य की विभावगुण पर्याय है। (24) द्वि अणुकादि स्कंधों में जो रूपादिक कहे गये हैं, अथवा देखे गये हैं वे सब पुद्गल द्रव्य की विभाव गुण पर्याय हैं। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14/12 ), ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/5 ), ( परमात्मप्रकाश टीका/1/57 )।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/93 विभावपर्यायो नाम रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्वपर-प्रत्ययवर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतीर्णतारतम्योप-दर्शितस्वभावविशेषानेकत्वापत्तिः। = रूपादि के वा ज्ञानादि के स्व-पर के कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होनेवाले तारतम्य के कारण देखने में आनेवाले स्वभावविशेष रूप अनेकत्व की आपत्ति विभाव गुणपर्याय है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/12 अशुद्धार्थपर्याया जीवस्य षट्स्थनगत-कषायहानिवृद्धिविशुद्धिसंक्लेशरूपशुभाशुभलेश्यास्थानेषु ज्ञातव्याः। पुद्गलस्य विभावार्थपर्याया द्वयणुकादिस्कंधेष्वेव चिरकाल-स्थायिनो ज्ञातव्याः। = जीव द्रव्य की विभाव अर्थ पर्याय, कषाय, तथा विशुद्धि संक्लेश रूप शुभ व अशुभलेश्यास्थानों में षट् स्थानगत हानि-वृद्धि रूप जाननी चाहिए। द्वि-अणुक आदि स्कंधों में ही रहनेवाली, तथा चिर काल स्थायी रूप, रसादि रूप पुद्गल द्रव्य की विभाव अर्थ पर्याय जाननी चाहिए।
- स्वभाव व विभाव गुण व्यंजन पर्याय
आलापपद्धति/3 विभावगुणव्यंजनपर्याया मत्यादयः। ...स्वभावगुणव्यंजनपर्याया अनंतचतुष्टयस्वरूपा जीवस्य। ...रसरसांतरगंधगंधांतरादिविभावगुणव्यंजनपर्यायाः। ...वर्णगंधरसैकैकाविरुद्धस्पर्शद्वयं स्वभावगुणव्यंजनपर्यायाः। = मति आदि ज्ञान जीव द्रव्य की विभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं, तथा केवलज्ञानादि अनंत चतुष्टय स्वरूप जीव की स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं। ...रस से रसांतर तथा गंध से गंधांतर पुद्गल द्रव्य की विभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं। तथा परमाणु में रहने वाले एक वर्ण, एक गंध, एक रस तथा अविरुद्ध दो स्पर्श पुद्गल द्रव्य की स्वभाव गुण व्यंजनपर्याय हैं।
- स्वभाव व विभाव पर्यायों का स्वामित्व
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/56/14 परिणामिनौ जीवपुद्गलौ स्वभावविभावपरिणामाभ्यां शेषचत्वारि द्रव्याणि विभावव्यंजनपर्यायाभावाद् मुख्यवृत्त्या अपरिणामीनि।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/34/17 एते समानजातीया असमानजातीयाश्च अनेकद्रव्यात्मिकैकरूपा द्रव्यपर्याया जीवपुद्गलयोरेव भवंति अशुद्धा एव भवंति। कस्मादिति चेत्। अनेकद्रव्याणां परस्परसंश्लेषरूपेण संबंधात्। धर्माद्यन्यद्रव्याणां परस्परसंश्लेषसंबंधेन पर्यायो न घटते परस्परसंबंधेनाशुद्धपर्यायोऽपि न घटते। =- स्वभाव तथा विभाव पर्यायों द्वारा जीव व पुद्गल द्रव्य परिणामी हैं। शेष चार द्रव्य विभाव व्यंजन पर्याय के अभाव की मुख्यता से अपरिणामी हैं। 27।
- ये समान जातीय और असमान जातीय अनेक द्रव्यात्मक एक रूप द्रव्य पर्याय जीव पुद्गल में ही होती हैं, तथा अशुद्ध ही होती हैं। क्योंकि ये अनेक द्रव्यों के परस्पर संश्लेश रूप संबंध से होती हैं। धर्मादिक द्रव्यों की परस्पर संश्लेषरूप संबंध से पर्याय घटित नहीं होती, इसलिए परस्पर संबंध से अशुद्ध पर्याय भी उनमें घटित नहीं होती।
पं.प्र./टी./1/57 धर्माधर्माकाशकालानां... विभावपर्यायास्तूपचारेण घटाकाशमित्यादि। = धर्माधर्म, आकाश तथा काल द्रव्यों के विभाव गुणपर्याय नहीं हैं। आकाश के घटाकाश, महाकाश इत्यादि की जो कहावत है, वह उपचारमात्र है।
- अर्थ व व्यंजन पर्याय के लक्षण व उदाहरण
पुराणकोष से
(1) द्रव्य में प्रति समय होने वाला गुणों का परिणमन । महापुराण 3. 5-8
(2) श्रुतज्ञान के बीस भेदों में प्रथम भेद । यह ज्ञान गम निगोदिया लब्धपर्याप्तक जीवों के होता है और श्रुतज्ञानावरण पर होने वाले आवरण से रहित होता है । हरिवंशपुराण 10.12, 16