नियम: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> रत्नत्रय के अर्थ में</strong></span> <br><span class="GRef"> नियमसार/3,120 </span><span class="PrakritText">णियमेण य जं कज्जं तण्णियमं णाणदं सणचरित्तम् ।3। सुहअसुहवयणरयणं रायादिभाववारणं किच्चा। अप्पाणं जो फायदि तस्स दु णियमं हवे णियमा।120।</span> =<span class="HindiText">नियम अर्थात् नियम से जो करणे योग्य हो वह अर्थात् ज्ञान दर्शन चारित्र।3। शुभाशुभवचनरचना का और रागादि भावों का निवारण करके, जो आत्मा को ध्याता है, उसको निश्चित रूप से नियम है।120।</span><br><span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/ गाथा </span><span class="SanskritText">नियमशब्दस्तावत् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु वर्तते।1। य:...स्वभावनंतचतुष्टयात्मक: शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम: स नियम:। नियमेन च निश्चयेन यत्कार्यं प्रयोजनस्वरूपं ज्ञानदर्शनचारित्रम् ।3। नियमेन स्वात्माराधनातत्परता।123।</span> =<span class="HindiText">नियम शब्द सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र में वर्तता है। जो स्वभावानंतचतुष्टयात्मक शुद्धज्ञान चेतनापरिणाम है वह नियम है। नियम से अर्थात् निश्चय से जो किया जाने योग्य है अर्थात् प्रयोजनस्वरूप है ऐसा ज्ञानदर्शनचारित्र नियम है। निज आत्मा की आराधना में तत्परता सो नियम है। </span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> रत्नत्रय के अर्थ में</strong></span> <br><span class="GRef"> नियमसार/3,120 </span><span class="PrakritText">णियमेण य जं कज्जं तण्णियमं णाणदं सणचरित्तम् ।3। सुहअसुहवयणरयणं रायादिभाववारणं किच्चा। अप्पाणं जो फायदि तस्स दु णियमं हवे णियमा।120।</span> =<span class="HindiText">नियम अर्थात् नियम से जो करणे योग्य हो वह अर्थात् ज्ञान दर्शन चारित्र।3। शुभाशुभवचनरचना का और रागादि भावों का निवारण करके, जो आत्मा को ध्याता है, उसको निश्चित रूप से नियम है।120।</span><br><span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/ गाथा </span><span class="SanskritText">नियमशब्दस्तावत् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु वर्तते।1। य:...स्वभावनंतचतुष्टयात्मक: शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम: स नियम:। नियमेन च निश्चयेन यत्कार्यं प्रयोजनस्वरूपं ज्ञानदर्शनचारित्रम् ।3। नियमेन स्वात्माराधनातत्परता।123।</span> =<span class="HindiText">नियम शब्द सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र में वर्तता है। जो स्वभावानंतचतुष्टयात्मक शुद्धज्ञान चेतनापरिणाम है वह नियम है। नियम से अर्थात् निश्चय से जो किया जाने योग्य है अर्थात् प्रयोजनस्वरूप है ऐसा ज्ञानदर्शनचारित्र नियम है। निज आत्मा की आराधना में तत्परता सो नियम है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> वचनरूप नियम स्वाध्याय है</strong></span><br><span class="GRef"> नियमसार/153 </span><span class="PrakritText">वयणमयं पडिकमणं वयणमयं पच्चक्खाणं णियमं च। आलोयणवयणमयं तं सव्वं जाण सज्झाउं।</span> =<span class="HindiText">वचनमयी प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, नियम और आलोचना ये सब स्वाध्याय जानो। </span></li> | <li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> वचनरूप नियम स्वाध्याय है</strong></span><br><span class="GRef"> नियमसार/153 </span><span class="PrakritText">वयणमयं पडिकमणं वयणमयं पच्चक्खाणं णियमं च। आलोयणवयणमयं तं सव्वं जाण सज्झाउं।</span> =<span class="HindiText">वचनमयी प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, नियम और आलोचना ये सब स्वाध्याय जानो। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> सावधि त्याग के अर्थ में</strong></span><br><span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/87-89 | <li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> सावधि त्याग के अर्थ में</strong></span><br><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 87 | रत्नकरंड श्रावकाचार/87]] [[ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 88-89 | 88,89 ]] </span><span class="SanskritText">नियम: परिमितकालो।87। भोजनवाहनशयनस्नानपवित्रांगरागकुसुमेषु। तांबूलवसमनभूषणमन्मथसंगीतगीतेषु।88। अद्य दिवा रजनी वा पक्षो मासस्तथार्तुरयनं वा। इति कालपरिच्छित्त्या प्रत्याख्यानं भवेन्नियम:।89। </span><span class="HindiText">जिस त्याग में काल की मर्यादा है वह नियम कहलाता है।87। भोजन, सवारी, शयन, स्नान, कंकुमादिलेपन, पुष्पमाला, तांबूल, वस्त्र, अलंकार, कामभोग, संगीत और गीत इन विषयों में–आज, एकदिन, एकरात, एकपक्ष, एकमास तथा दो मास, अथवा छहमास इस प्रकार काल के विभाग से त्याग करना सो नियम है।</span> (<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/5/14 </span>)।<br> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/7/3/533/15 </span><span class="SanskritText">इदमेवेत्थमेव वा कर्तव्यमित्यन्यनिवृत्ति: नियम:। </span>=<span class="HindiText">’यह ही तथा ऐसा ही करना है’ इस प्रकार अन्य पदार्थ की निवृत्ति को नियम कहते हैं।</span><BR> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/7/3/533/15 </span><span class="SanskritText">इदमेवेत्थमेव वा कर्तव्यमित्यन्यनिवृत्ति: नियम:। </span>=<span class="HindiText">’यह ही तथा ऐसा ही करना है’ इस प्रकार अन्य पदार्थ की निवृत्ति को नियम कहते हैं।</span><BR> | ||
<span class="GRef"> पद्मपुराण/14/202 </span><span class="SanskritGatha"> मधुतो मद्यतो मांसात् द्यूततो रात्रिभोजनात् । वेश्यासंगमनाच्चास्य विरतिर्नियम: स्मृत:।202।</span> =<span class="HindiText">गृहस्थ मधु, मद्य, मांस, जूआ, रात्रिभोजन और वेश्यासमागम से जो रिक्त होता है, उसे नियम कहा है। </span></li> | <span class="GRef"> पद्मपुराण/14/202 </span><span class="SanskritGatha"> मधुतो मद्यतो मांसात् द्यूततो रात्रिभोजनात् । वेश्यासंगमनाच्चास्य विरतिर्नियम: स्मृत:।202।</span> =<span class="HindiText">गृहस्थ मधु, मद्य, मांस, जूआ, रात्रिभोजन और वेश्यासमागम से जो रिक्त होता है, उसे नियम कहा है। </span></li> |
Revision as of 16:31, 18 June 2023
सिद्धांतकोष से
- रत्नत्रय के अर्थ में
नियमसार/3,120 णियमेण य जं कज्जं तण्णियमं णाणदं सणचरित्तम् ।3। सुहअसुहवयणरयणं रायादिभाववारणं किच्चा। अप्पाणं जो फायदि तस्स दु णियमं हवे णियमा।120। =नियम अर्थात् नियम से जो करणे योग्य हो वह अर्थात् ज्ञान दर्शन चारित्र।3। शुभाशुभवचनरचना का और रागादि भावों का निवारण करके, जो आत्मा को ध्याता है, उसको निश्चित रूप से नियम है।120।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/ गाथा नियमशब्दस्तावत् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु वर्तते।1। य:...स्वभावनंतचतुष्टयात्मक: शुद्धज्ञानचेतनापरिणाम: स नियम:। नियमेन च निश्चयेन यत्कार्यं प्रयोजनस्वरूपं ज्ञानदर्शनचारित्रम् ।3। नियमेन स्वात्माराधनातत्परता।123। =नियम शब्द सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र में वर्तता है। जो स्वभावानंतचतुष्टयात्मक शुद्धज्ञान चेतनापरिणाम है वह नियम है। नियम से अर्थात् निश्चय से जो किया जाने योग्य है अर्थात् प्रयोजनस्वरूप है ऐसा ज्ञानदर्शनचारित्र नियम है। निज आत्मा की आराधना में तत्परता सो नियम है। - वचनरूप नियम स्वाध्याय है
नियमसार/153 वयणमयं पडिकमणं वयणमयं पच्चक्खाणं णियमं च। आलोयणवयणमयं तं सव्वं जाण सज्झाउं। =वचनमयी प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, नियम और आलोचना ये सब स्वाध्याय जानो। - सावधि त्याग के अर्थ में
रत्नकरंड श्रावकाचार/87 88,89 नियम: परिमितकालो।87। भोजनवाहनशयनस्नानपवित्रांगरागकुसुमेषु। तांबूलवसमनभूषणमन्मथसंगीतगीतेषु।88। अद्य दिवा रजनी वा पक्षो मासस्तथार्तुरयनं वा। इति कालपरिच्छित्त्या प्रत्याख्यानं भवेन्नियम:।89। जिस त्याग में काल की मर्यादा है वह नियम कहलाता है।87। भोजन, सवारी, शयन, स्नान, कंकुमादिलेपन, पुष्पमाला, तांबूल, वस्त्र, अलंकार, कामभोग, संगीत और गीत इन विषयों में–आज, एकदिन, एकरात, एकपक्ष, एकमास तथा दो मास, अथवा छहमास इस प्रकार काल के विभाग से त्याग करना सो नियम है। ( सागार धर्मामृत/5/14 )।
राजवार्तिक/1/7/3/533/15 इदमेवेत्थमेव वा कर्तव्यमित्यन्यनिवृत्ति: नियम:। =’यह ही तथा ऐसा ही करना है’ इस प्रकार अन्य पदार्थ की निवृत्ति को नियम कहते हैं।
पद्मपुराण/14/202 मधुतो मद्यतो मांसात् द्यूततो रात्रिभोजनात् । वेश्यासंगमनाच्चास्य विरतिर्नियम: स्मृत:।202। =गृहस्थ मधु, मद्य, मांस, जूआ, रात्रिभोजन और वेश्यासमागम से जो रिक्त होता है, उसे नियम कहा है।
पुराणकोष से
महापुराण , मद्य, मांस, जुआ, रात्रिभोजन और वेश्या-संगम से विरति । नियमवान् जन तपस्वी कहलाते हैं । पद्मपुराण 14.202, 242-243, हरिवंशपुराण 58.157