प्रभावना: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">व्यवहार की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">व्यवहार की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> रत्नकरंड श्रावकाचार/18 | <span class="GRef"> [[ ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 18 | रत्नकरंड श्रावकाचार/18]] </span><span class="SanskritText">अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ।18।</span> = <span class="HindiText">अज्ञानरूपी अंधकार के विनाश को जिस प्रकार बने उस प्रकार दूर करके जिनमार्ग का समस्त मतावलंबियों में प्रभाव प्रकट करना सो प्रभावना नाम का आठवाँ अंग है ।18। (<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/422-423 </span>) </span><br /> | ||
मू.आ./264 <span class="PrakritGatha">धम्मकहाकहणेण य वाहिरजोगेहिं चाविणवज्जेहिं । धम्मो पहाविदव्वो जीवेसु दयाणुकंपाए ।264।</span> = <span class="HindiText">महापुराणादि धर्मकथा के व्याख्यान करने से हिंसादोष रहित तपश्चरण कर, जीवों की दया व अनुकंपा कर जैन धर्म की प्रभावना करनी चाहिए । आदि शब्द से परवादियों को जीतना, अष्टांगनिमित ज्ञान, पूजा, दान आदि से भी प्रभावना करनी चाहिए ।264।</span><br /> | मू.आ./264 <span class="PrakritGatha">धम्मकहाकहणेण य वाहिरजोगेहिं चाविणवज्जेहिं । धम्मो पहाविदव्वो जीवेसु दयाणुकंपाए ।264।</span> = <span class="HindiText">महापुराणादि धर्मकथा के व्याख्यान करने से हिंसादोष रहित तपश्चरण कर, जीवों की दया व अनुकंपा कर जैन धर्म की प्रभावना करनी चाहिए । आदि शब्द से परवादियों को जीतना, अष्टांगनिमित ज्ञान, पूजा, दान आदि से भी प्रभावना करनी चाहिए ।264।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/6/24/12/530/17 </span><span class="SanskritText">ज्ञानरविप्रभया परसमयखद्योतोद्योततिरस्कारिण्या, सत्तपसा महोपवासादिलक्ष्णेन सुरपतिविष्टरप्रकंपनहेतुना, जिनपूजया वा भव्यजनकमलषंडप्रबोधनप्रभया, सद्धर्मप्रकाशनं मार्गप्रभावनमिति संभाव्यते । </span>= <span class="HindiText">पर समयरूपी जुगुनुओं के प्रकाश को पराभूत करने वाले ज्ञानरवि की प्रभा से इंद्र के सिंहासन को कँपा देने वाले महोपवास आदि सम्यक् तपों से तथा भव्यजनरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्यप्रभा के समान जिन पूजा के द्वारा सद्धर्म का प्रकाश करना मार्ग प्रभावना है । <span class="GRef"> ( सर्वार्थसिद्धि/6/24/339/5); (पू.सि.पु./30); (चारित्रसार/5/3); (द्रव्यसंग्रह टीका/41/177/2); (भावपाहुड़ टीका/77/221/19)</span></span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/6/24/12/530/17 </span><span class="SanskritText">ज्ञानरविप्रभया परसमयखद्योतोद्योततिरस्कारिण्या, सत्तपसा महोपवासादिलक्ष्णेन सुरपतिविष्टरप्रकंपनहेतुना, जिनपूजया वा भव्यजनकमलषंडप्रबोधनप्रभया, सद्धर्मप्रकाशनं मार्गप्रभावनमिति संभाव्यते । </span>= <span class="HindiText">पर समयरूपी जुगुनुओं के प्रकाश को पराभूत करने वाले ज्ञानरवि की प्रभा से इंद्र के सिंहासन को कँपा देने वाले महोपवास आदि सम्यक् तपों से तथा भव्यजनरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्यप्रभा के समान जिन पूजा के द्वारा सद्धर्म का प्रकाश करना मार्ग प्रभावना है । <span class="GRef"> ( सर्वार्थसिद्धि/6/24/339/5); (पू.सि.पु./30); (चारित्रसार/5/3); (द्रव्यसंग्रह टीका/41/177/2); (भावपाहुड़ टीका/77/221/19)</span></span><br /> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == |
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सिद्धांतकोष से
- प्रभावना अंग का लक्षण
- निश्चय की अपेक्षा
समयसार/236 विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा । सो जिणणाणपहावी सम्मदिट्ठा मुणेयव्वो ।236। = जो चेतयिता विद्यारूपी रथ परआरूढ हुआ मनरूपी रथ में (ज्ञानरूपी रथ के चलने के मार्ग में ) भ्रमण करता है, उसे जिनेंद्र भगवान् के ज्ञान की प्रभावना करने वाला सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए ।236।
राजवार्तिक/6/24/1/529/15 सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररत्नत्रयप्रभावेन आत्मनः प्रकाशनं प्रभावनम् । = सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय के प्रभाव से आत्मा को प्रकाशमान करना प्रभावना है । ( चारित्रसार/5/4 ) ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/30 ) ।
द्रव्यसंग्रह टीका/41/177/9 निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारप्रभावना गुणस्य बलेन मिथ्यात्वविषयकषायप्रभूतिसमस्तविभावपरिणामरूपपरसमयानां प्रभावं हत्वा शुद्धोपयोगलक्षणस्वसंवेदनज्ञानेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजशुद्धात्मनः प्रकाशनमनुभवनमेव प्रभावनेति । = व्यवहार प्रभावना गुण के बल से मिथ्यात्व, विषय, कषाय आदि संपूर्ण विभाव परिणामरूप परसमय के प्रभाव को नष्ट करके शुद्धपयोग लक्षण वाले स्वसंवदेन ज्ञान से, निर्मलज्ञान-दर्शनरूप स्वभाव वाली निज शुद्धात्मा का जो प्रकाशन अथवा अनुभवन, वह निश्चय से प्रभावना है ।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/816 मोहारतिक्षतेः शुद्धः शुद्धाच्छुद्धतरस्ततः । जीवः शुद्धतमः कश्चिदस्तीत्यात्मप्रभावना ।816। = कोई जीव मोहरूपी शत्रु के नाश होने से शुद्ध और कोई जीव शुद्ध से शुद्धतर तथा कोई जीव शुद्धतम हो जाता है , इसी तरह उत्तरोत्तर शुद्धता का प्रकर्ष ही आत्मप्रभावना कहलाती है ।816।
समयसार/पं. जयचंद/236 प्रभावना का अर्थ प्रकट करना है, उद्योत करना है इत्यादि; इसलिए जो अपने ज्ञान को निरंतर प्रकट करता है - बढ़ाता है, उसके प्रभावना अंग होता है ।
- व्यवहार की अपेक्षा
रत्नकरंड श्रावकाचार/18 अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ।18। = अज्ञानरूपी अंधकार के विनाश को जिस प्रकार बने उस प्रकार दूर करके जिनमार्ग का समस्त मतावलंबियों में प्रभाव प्रकट करना सो प्रभावना नाम का आठवाँ अंग है ।18। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/422-423 )
मू.आ./264 धम्मकहाकहणेण य वाहिरजोगेहिं चाविणवज्जेहिं । धम्मो पहाविदव्वो जीवेसु दयाणुकंपाए ।264। = महापुराणादि धर्मकथा के व्याख्यान करने से हिंसादोष रहित तपश्चरण कर, जीवों की दया व अनुकंपा कर जैन धर्म की प्रभावना करनी चाहिए । आदि शब्द से परवादियों को जीतना, अष्टांगनिमित ज्ञान, पूजा, दान आदि से भी प्रभावना करनी चाहिए ।264।
राजवार्तिक/6/24/12/530/17 ज्ञानरविप्रभया परसमयखद्योतोद्योततिरस्कारिण्या, सत्तपसा महोपवासादिलक्ष्णेन सुरपतिविष्टरप्रकंपनहेतुना, जिनपूजया वा भव्यजनकमलषंडप्रबोधनप्रभया, सद्धर्मप्रकाशनं मार्गप्रभावनमिति संभाव्यते । = पर समयरूपी जुगुनुओं के प्रकाश को पराभूत करने वाले ज्ञानरवि की प्रभा से इंद्र के सिंहासन को कँपा देने वाले महोपवास आदि सम्यक् तपों से तथा भव्यजनरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्यप्रभा के समान जिन पूजा के द्वारा सद्धर्म का प्रकाश करना मार्ग प्रभावना है । ( सर्वार्थसिद्धि/6/24/339/5); (पू.सि.पु./30); (चारित्रसार/5/3); (द्रव्यसंग्रह टीका/41/177/2); (भावपाहुड़ टीका/77/221/19)
धवला 8/3,41/91/1 आगमट्ठस्स पवयणमिदि सण्णा । तस्स पहावणं णाम वण्णजणणं तव्वुडिढ्करणं च, तस्स भावो पवयणप्पहावणदा । = आगमार्थ का नाम प्रवचन है, उसके वर्णजनन अर्थात् कीर्ति-विस्तार या वृद्धि करने को प्रवचन की प्रभावना और उसके भाव को प्रवचन प्रभावना कहते हैं ।
भा.आ./वि./45/150/5 धर्मस्थेषु मातरि पितरी भ्रातरी वानुरागो वात्सल्यं, रत्नत्रयादरो वात्मनः । प्रभावना माहत्म्यप्रकाशनं रत्नत्रयस्य तद्वतां वा । = रत्नत्रय और उसके धारक श्रावक और मुनिगण का महत्त्व बतलाना, यह प्रभावना गुण है । ऐसे गुणों से सम्यक्त्व की वृद्धि होती है ।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/818-819 बाह्यः प्रभावनांगोऽस्ति विद्यामंत्रादिभिर्बलैः । तपोदानादिभिर्जैनधर्मोत्कर्षो विधीयताम् ।818। परेषामपकर्षाय मिथ्यात्वोत्कर्षशालिनाम् । चमत्कारकरं किंचित्तद्विधेयं महात्मभिः ।819। = विद्या और मंत्रों के द्वारा, बल के द्वारा, तथा तप और दान के द्वारा जो जैन धर्म का उत्कर्ष किया जाता है, वह प्रभावना अंग कहलाता है । तत्त्वज्ञानियों को यह करना चाहिए ।818। मिथ्यात्व के उत्कर्ष को बढ़ाने वाले मिथ्यादृष्टियों का अपकर्ष करने के लिए जो कुछ चमत्कारिक क्रियाएँ हैं, वे भी महात्माओं को करनी चाहिए । 819।
- निश्चय की अपेक्षा
- इस एक भावना में शेष 15 भावनाओं का समावेश
धवला 8/3,41/91/3 उक्कट्ठपवयणप्पहावणस्स दंसणविसुज्झदादीहि अविणाभावादो । तेणेदं पण्णरसमं कारणं = क्योंकि उत्कृष्ट प्रवचन प्रभावना का दर्शनविशुद्धितादि कों के साथ अविनाभाव है, इसलिए यह पंद्रहवाँ कारण है ।
- एक मार्ग प्रभावना से तीर्थंकरत्व बंध संभव देखें - भावना - 2.2
पुराणकोष से
सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में एक अंग । इसके द्वारा जिनेंद्र के द्वारा प्रदर्शित मोक्षमार्ग के माहात्म्य को प्रकाशित और प्रसारित किया जाता है । महापुराण 63.320