जितेंद्रिय: Difference between revisions
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<p>स.सा./मू./३१ <span class="PrakritGatha">जो इंदिये जिणित्ता णाणसहावाधिअं मुणदि आदं। तं खलु जिदिंदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू।३१।</span> =<span class="HindiText">जो इन्द्रियों को जीतकर ज्ञानस्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्य से अधिक आत्मा को जानते हैं, उन्हें निश्चयनय में स्थित साधु हैं वे वास्तव में जितेन्द्रिय कहते हैं।</span><br /> | |||
त.अनु./७६ <span class="SanskritGatha">इन्द्रियाणां प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च मन: प्रभु:। मन एव जयेत्तस्माज्जिते तस्मिन् जितेन्द्रिय: ।७६।</span> =<span class="HindiText">इन्द्रियों की प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों में मन प्रभु है, इसलिए मन को ही जीतना चाहिए। मन के जीतने पर मनुष्य जितेन्द्रिय होता है।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong> इन्द्रिय व मन को जीतने का उपाय– देखें - [[ संयम#2 | संयम / २ ]]।</strong></li> | |||
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Revision as of 15:16, 25 December 2013
स.सा./मू./३१ जो इंदिये जिणित्ता णाणसहावाधिअं मुणदि आदं। तं खलु जिदिंदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू।३१। =जो इन्द्रियों को जीतकर ज्ञानस्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्य से अधिक आत्मा को जानते हैं, उन्हें निश्चयनय में स्थित साधु हैं वे वास्तव में जितेन्द्रिय कहते हैं।
त.अनु./७६ इन्द्रियाणां प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च मन: प्रभु:। मन एव जयेत्तस्माज्जिते तस्मिन् जितेन्द्रिय: ।७६। =इन्द्रियों की प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों में मन प्रभु है, इसलिए मन को ही जीतना चाहिए। मन के जीतने पर मनुष्य जितेन्द्रिय होता है।
- इन्द्रिय व मन को जीतने का उपाय– देखें - संयम / २ ।