पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 156 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<div class="G_HindiText"> | <div class="G_HindiText"> | ||
<p>जो इत्यादि पदखण्डना रूप से व्याख्यान करते हैं -- <span class=" | <p>जो इत्यादि पदखण्डना रूप से व्याख्यान करते हैं -- <span class="SansWord">[सो]</span> कर्ता रूप वह <span class="SansWord">[सगचरियं चरदि]</span> निजशुद्धात्मा की सम्वित्ति, अनुचरणरूप, परमागम भाषा से वीतराग परम सामायिक नामक स्वचारित्रमय आचरण करता है, अनुभव करता है । ऐसा करने वाला कौन है ? <span class="SansWord">[जीवो]</span> वह जीव है । वह कैसा जीव है ? <span class="SansWord">[जो सव्वसंगमुक्को]</span> जो सर्वसंग से मुक्त है; तीन लोक-तीन काल में होने पर भी मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा समस्त बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त, रहित, शून्य होते हुए भी निस्संग परमात्मा की भावना से उत्पन्न सुन्दर आनन्द स्यंदि परमानन्द एक लक्षण सुख-सुधारस के आस्वाद से पूर्ण भरे हुए कलश के समान सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में भरितावस्थ है । और वह किस विशेषता वाला है ? <span class="SansWord">[अणण्णमणो]</span> अनन्य मन है; कापोतलेश्या आदि सम्बंधी दृष्ट, श्रुत, अनुभूत भोगों की आकांक्षा आदि समस्त परभावों से उत्पन्न विकल्पजालों से रहित होने के कारण एकाग्र मन वाला है । ऐसा वह और क्या करता है? <span class="SansWord">[जाणदि]</span> जानता है; स्व-पर को परिच्छित्ति के आकार से प्राप्त करता है / जानता है। <span class="SansWord">[पस्सदि]</span> देखता है; निर्विकल्प रूप से अवलोकन करता है । <span class="SansWord">[णियदं]</span> निश्चित रूप में । वह किसे जानता-देखता है? <span class="SansWord">[अप्पणं]</span> निज आत्मा को जानता-देखता है । उसे किससे जानता-देखता है ? <span class="SansWord">[सहावेण]</span> स्वभाव से, निर्विकार चैतन्य चमत्कार रूप प्रकाश से जानता-देखता है ।</p> | ||
<p></p> | <p></p> | ||
<p>इससे यह निश्चित हुआ कि विशुद्ध ज्ञान-दर्शन लक्षण जीव-स्वभाव में निश्चल अवस्थान मोक्षमार्ग है ॥१६६॥</p> | <p>इससे यह निश्चित हुआ कि विशुद्ध ज्ञान-दर्शन लक्षण जीव-स्वभाव में निश्चल अवस्थान मोक्षमार्ग है ॥१६६॥</p> | ||
</div> | </div> |
Latest revision as of 13:16, 30 June 2023
जो इत्यादि पदखण्डना रूप से व्याख्यान करते हैं -- [सो] कर्ता रूप वह [सगचरियं चरदि] निजशुद्धात्मा की सम्वित्ति, अनुचरणरूप, परमागम भाषा से वीतराग परम सामायिक नामक स्वचारित्रमय आचरण करता है, अनुभव करता है । ऐसा करने वाला कौन है ? [जीवो] वह जीव है । वह कैसा जीव है ? [जो सव्वसंगमुक्को] जो सर्वसंग से मुक्त है; तीन लोक-तीन काल में होने पर भी मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा समस्त बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त, रहित, शून्य होते हुए भी निस्संग परमात्मा की भावना से उत्पन्न सुन्दर आनन्द स्यंदि परमानन्द एक लक्षण सुख-सुधारस के आस्वाद से पूर्ण भरे हुए कलश के समान सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में भरितावस्थ है । और वह किस विशेषता वाला है ? [अणण्णमणो] अनन्य मन है; कापोतलेश्या आदि सम्बंधी दृष्ट, श्रुत, अनुभूत भोगों की आकांक्षा आदि समस्त परभावों से उत्पन्न विकल्पजालों से रहित होने के कारण एकाग्र मन वाला है । ऐसा वह और क्या करता है? [जाणदि] जानता है; स्व-पर को परिच्छित्ति के आकार से प्राप्त करता है / जानता है। [पस्सदि] देखता है; निर्विकल्प रूप से अवलोकन करता है । [णियदं] निश्चित रूप में । वह किसे जानता-देखता है? [अप्पणं] निज आत्मा को जानता-देखता है । उसे किससे जानता-देखता है ? [सहावेण] स्वभाव से, निर्विकार चैतन्य चमत्कार रूप प्रकाश से जानता-देखता है ।
इससे यह निश्चित हुआ कि विशुद्ध ज्ञान-दर्शन लक्षण जीव-स्वभाव में निश्चल अवस्थान मोक्षमार्ग है ॥१६६॥