पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 1 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p>अब इसे ही विस्तार से कहते हैं -- वे सौ इन्द्रों से पूजित हैं - इसके द्वारा उनके प्रति पूजातिशयता का प्रतिपादन करने के लिए (यह विशेषण दिया गया है) । इससे क्या कहा गया है ? वे ही सौ इन्द्रों द्वारा नमस्कार करने-योग्य हैं, अन्य नहीं । अन्य नमस्कार करने-योग्य क्यों नहीं हैं ? उन देव, असुर आदि के युद्ध दिखाई देने से वे नमस्कार-योग्य नहीं हैं । </p> | <p>अब इसे ही विस्तार से कहते हैं -- वे सौ इन्द्रों से पूजित हैं - इसके द्वारा उनके प्रति पूजातिशयता का प्रतिपादन करने के लिए (यह विशेषण दिया गया है) । इससे क्या कहा गया है ? वे ही सौ इन्द्रों द्वारा नमस्कार करने-योग्य हैं, अन्य नहीं । अन्य नमस्कार करने-योग्य क्यों नहीं हैं ? उन देव, असुर आदि के युद्ध दिखाई देने से वे नमस्कार-योग्य नहीं हैं । </p> | ||
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<p>मं=पाप को, गल=गलाता है, नष्ट करता है, वह मंगल है; अथवा मंग=पुण्य या सुख को, ल=लाता है, देता है, ग्रहण कराता है, वह मंगल है। </p> | <p>मं=पाप को, गल=गलाता है, नष्ट करता है, वह मंगल है; अथवा मंग=पुण्य या सुख को, ल=लाता है, देता है, ग्रहण कराता है, वह मंगल है। </p> | ||
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<p>'जैसे जिनवर कर्म-शत्रुओं को जीतकर मोक्ष प्राप्त करते हैं; उसीप्रकार चतुरंगिणी शत्रुसेना को घोड़ा के माध्यम से जीता जाता है; अत: उसे भी मंगल कहा गया है।' (वही, २१)</p> | <p>'जैसे जिनवर कर्म-शत्रुओं को जीतकर मोक्ष प्राप्त करते हैं; उसीप्रकार चतुरंगिणी शत्रुसेना को घोड़ा के माध्यम से जीता जाता है; अत: उसे भी मंगल कहा गया है।' (वही, २१)</p> | ||
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<p>अथवा निबद्ध और अनिबद्ध के भेद से मंगल दो प्रकार का है। उन्हीं ग्रंथकार द्वारा किया गया मंगल निबद्ध मंगल है। जैसे <span class=" | <p>अथवा निबद्ध और अनिबद्ध के भेद से मंगल दो प्रकार का है। उन्हीं ग्रंथकार द्वारा किया गया मंगल निबद्ध मंगल है। जैसे <span class="SansWord">[मोक्षमार्गस्य नेतारं..]</span> इत्यादि। दूसरे ग्रंथ से लाया गया नमस्कार अनिबद्ध मंगल है। जैसे <span class="SansWord">[जगत्त्रयनाथाय..]</span> इत्यादि।</p> | ||
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<p>इस प्रसंग में शिष्य पूर्वपक्ष ( प्रश्न ) करता है शास्त्र के प्रारम्भ में शास्त्रकार मंगल के लिए परमेष्ठी गुणों का स्तोत्र किसलिये करते हैं, जो शास्त्र प्रारम्भ किया है उसे ही कहना चाहिए, मंगल की आवश्यकता नहीं है; तथा (आपको) ऐसा भी नहीं कहना चाहिए कि मंगल नमस्कार से पुण्य होता है और पुण्य से (कार्य) निर्विघ्न हो जाता है। ऐसा क्यों नहीं कहना चाहिए? यदि आपका ऐसा प्रश्न हो तो (मेरा कहना यह है कि इसमें) व्यभिचार (दोष) होने के कारण ऐसा नहीं कहना चाहिए । वह इसप्रकार -- कभी / कहीं पर नमस्कार, दान, पूजा आदि करने पर भी विघ्न दिखाई देते हैं और कभी / कहीं पर दान, पूजा, नमस्कार का अभाव होने पर भी निर्विघ्न दिखाई देता है ।</p> | <p>इस प्रसंग में शिष्य पूर्वपक्ष ( प्रश्न ) करता है शास्त्र के प्रारम्भ में शास्त्रकार मंगल के लिए परमेष्ठी गुणों का स्तोत्र किसलिये करते हैं, जो शास्त्र प्रारम्भ किया है उसे ही कहना चाहिए, मंगल की आवश्यकता नहीं है; तथा (आपको) ऐसा भी नहीं कहना चाहिए कि मंगल नमस्कार से पुण्य होता है और पुण्य से (कार्य) निर्विघ्न हो जाता है। ऐसा क्यों नहीं कहना चाहिए? यदि आपका ऐसा प्रश्न हो तो (मेरा कहना यह है कि इसमें) व्यभिचार (दोष) होने के कारण ऐसा नहीं कहना चाहिए । वह इसप्रकार -- कभी / कहीं पर नमस्कार, दान, पूजा आदि करने पर भी विघ्न दिखाई देते हैं और कभी / कहीं पर दान, पूजा, नमस्कार का अभाव होने पर भी निर्विघ्न दिखाई देता है ।</p> |
Latest revision as of 13:16, 30 June 2023
अब सर्वप्रथम शास्त्र के प्रारंभ में [इंद्रशतवंदितेभ्य:] आदि द्वारा जिनेन्द्र भगवान को भाव नमस्काररूप असाधारण मंगल कहता / करता हूँ। - इस अभिप्राय को मन में धारणकर यह गाथा-सूत्र प्रतिपादित करते हैं --
[णमो जिणाणं..] इत्यादि पदों का पद-खण्डनरूप से व्याख्यान (एक-एक पद का पृथक्-पृथक् विशेष स्पष्टीकरण) किया जाता है ।
[णमो] नमस्कार हो । किन्हें नमस्कार हो ? [जिणाणं] जिन (जिनेन्द्र भगवान) को नमस्कार हो। वे कैसे हैं ? [इंदसदवंदियाणं] सौ इन्द्रों से वंदित हैं । वे और कैसे हैं? [तिहुवणहिदमधुरविसदवक्काणं] तीनों लोकों को हितकर, मधुर और विशद वाक्यों से सहित हैं। वे और किन विशेषताओं से सहित हैं? [अंतातीदगुणाणं] वे अनन्त गुण सम्पन्न हैं तथा [जिदभवाणं] उन्होंने भव को जीत लिया है उन जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार हो । -- इसप्रकार क्रियाकारक सम्बन्ध जानना। इसकी संस्कृत छाया इसप्रकार है --
((इंद्रशतवंदितेभ्य: त्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्य:
अन्तातीतगुणेभ्यो नमो जिनेभ्यो जितभवेभ्य:॥१॥))
[पदयोर्विवक्षित: सुबिनसमासान्तरयो:] सुबन्त और समास के अलावा विवक्षित पदों के बीच सन्धि होती है इस परिभाषा-सूत्र के बल से यहाँ सन्धि होना सुनिश्चित होने पर भी प्राथमिक शिष्य को सुखपूर्वक (सरलता से) ज्ञान कराने के लिए इस ग्रंथ में सन्धि का नियम नहीं है ऐसा सर्वत्र जान लेना चाहिए । इसप्रकार चार विशेषणों से युक्त 'जिन' को नमस्कार हो । इसके द्वारा मंगल के लिए अनन्त ज्ञानादि के स्मरण-रूप भाव नमस्कार हो । -- ऐसा यह संग्रह (संक्षिप्त) वाक्य है ।
अब इसे ही विस्तार से कहते हैं -- वे सौ इन्द्रों से पूजित हैं - इसके द्वारा उनके प्रति पूजातिशयता का प्रतिपादन करने के लिए (यह विशेषण दिया गया है) । इससे क्या कहा गया है ? वे ही सौ इन्द्रों द्वारा नमस्कार करने-योग्य हैं, अन्य नहीं । अन्य नमस्कार करने-योग्य क्यों नहीं हैं ? उन देव, असुर आदि के युद्ध दिखाई देने से वे नमस्कार-योग्य नहीं हैं ।
- तीनों लोकों के जीवों हेतु शुद्धात्म-स्वरूप की प्राप्ति के उपाय की प्रतिपादक होने से वाणी हितकारी है ।
- वीतराग निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न, सहज अपूर्व परमानन्द-रूप पारमार्थिक सुखरस के आस्वाद से, परम समरसी भाव के रसिक-जनों का मन मोहित करनेवाली होने से, मधुर है ।
- चंचल ज्ञानरूप संशय, गमन करते समय हुए तृणस्पर्श (के सम्बन्ध में विशेष जिज्ञासा से रहित) के समान विमोह और सीप में चाँदी के ज्ञान के समान विभ्रम से रहित होने के कारण शुद्ध जीवास्तिकाय आदि सात तत्त्व, नव पदार्थ, छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय की प्रतिपादक होने से; अथवा
- पूर्वापर (आगे-पीछे परस्पर में) विरोधादि दोषों से रहित होने के कारण; अथवा
- कर्णाट, मागध, मालव, लाट, गोड, गुर्जर -- इनमें से प्रत्येक की तीन-तीन -- इसप्रकार अठारह महाभाषाओं और सात सौ लघु भाषाओं तथा उनके भी अंतर्भेदगत बहु भाषारूप से एक साथ सभी जीवों को अपनी-अपनी भाषा द्वारा स्पष्ट अर्थ की प्रतिपादक होने से, ज्ञान करानेवाली होने से,
- सभी जीवों को समझाने वाली होने से
वैसा ही कहा भी है 'जो (दिव्यध्वनि) सभी आत्माओं को हितकर है, वर्णरहित निरक्षरी है, जिसमें दोनों ओठों का कंपन नहीं है, इच्छा सहित नहीं है (बिना इच्छा के प्रगट होती है), दोषों से मलिन नहीं है, श्वासोच्छ्वास रुकने से होनेवाला क्रम जिसमें नहीं है, क्रोधरूपी विष जिनका शान्त हो गया है ऐसे पशुगण भी एक साथ जिसे कानों से सुनते हैं ऐसे सभी विप्रतिपत्तिओं--विसम्वादों से रहित वे सर्वज्ञ भगवान के अपूर्व वचन हमारी रक्षा करें।'
इसप्रकार वचनों की अतिशयता प्रतिपादित होने से वे वचन ही प्रमाण हैं; एकान्त से अपौरुषेय वचन और अनेक कथाओं युक्त कल्पित पुराण वचन प्रमाण नहीं हैं इससे यह कहा गया है ।
अन्तरहित अनन्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को जाननेवाला होने से केवलज्ञान गुण अन्तरहित अनन्त है । वह जिनके है वे अनन्त गुण सम्पन्न हैं, उन्हें नमस्कार हो । इसके द्वारा ज्ञान की अतिशयता प्रतिपादित होने से, बुद्धि आदि सात ऋद्धि और मतिज्ञानादि चार प्रकार के ज्ञानों से सम्पन्न गणधर देवादि योगीन्द्रों से भी वे पूज्य हैं यह कहा गया है ।
(द्रव्य आदि पंच परावर्तनरूप) पाँच प्रकार का संसार आजवंजव (आवागमन) जिनने जीत लिया है, उन्हें नमस्कार हो । इसके द्वारा घातिकर्मों के नाश से अतिशय का प्रतिपादन होने से कृतकृत्यता प्रगट हो जाने के कारण अन्य अकृतकृत्यों के लिए वे ही शरण हैं, अन्य नहीं -- यह प्रतिपादित है ।
इसप्रकार के चार विशेषणों से सहित 'जिन' को नमस्कार हो । इसके द्वारा मंगल के लिए अनन्त ज्ञानादि गुणों के स्मरणरूप भाव नमस्कार किया है । अनेक भव-रूपी वन और विषय-रूपी दु:खों को प्राप्त कराने में कारणभूत कर्मरूपी शत्रुओं को जो जीतते हैं, वे 'जिन' हैं; व्युत्पत्ति पक्ष में सफेद शंख के समान स्वरूप का कथन करने के लिए तथा अव्युत्पत्तिपक्ष में नाम निक्षेपरूप 'जिन' का निराकरण करने के लिए उन 'जिन' के ये चार विशेषण हैं। इसप्रकार विशेष्य-विशेषण सम्बन्ध-रूप से शब्दार्थ कहा ।
अनन्त ज्ञानादि गुणों के स्मरणरूप भाव नमस्कार अशुद्ध निश्चयनय से, 'जिन को नमस्कार हो' -- इसप्रकार वचनात्मक द्रव्य नमस्कार भी असद्भूत व्यवहारनय से तथा शुद्ध निश्चयनय से अपने में ही आराध्य-आराधक भाव है इसप्रकार नयार्थ भी कहा गया ।
वे ही नमस्कार करने-योग्य हैं; अन्य नहीं -- इत्यादि रूप से मतार्थ भी कहा गया है ।
सौ इन्द्रों से पूजित हैं ऐसा आगमार्थ प्रसिद्ध ही है ।
अनंत ज्ञानादि गुण युक्त शुद्ध जीवास्तिकाय ही उपादेय है यह भावार्थ है । इसप्रकार (इस गाथा का) शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थ है ।
इसीप्रकार शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ, भावार्थ व्याख्यानकाल में सर्वत्र लगा लेना चाहिए ।
इसप्रकार संक्षेप में मंगल के लिए इष्ट देवता को नमस्कार किया । यहाँ मंगल उपलक्षण (संकेत मात्र) है; अत: निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्तारूप पाँच अधिकार यथा-संभव कह देना चाहिए ।
अब विस्तार रुचिवाले शिष्यों को व्यवहारनय का आश्रय लेकर यथाक्रम से मंगल आदि छह अधिकारों का इयत्ता, परिमित, विशेषणरूप से व्याख्यान किया जाता है
'मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ता इन छह का व्याख्यान करने के बाद ही आचार्य शास्त्र का व्याख्यान करें। (धवला पुस्तक १, गाथा १)
[वक्खाणऊ] व्याख्यान करें । कर्तारूप कौन व्याख्यान करें ? [आइरिओ] आचार्य व्याख्यान करें । किसका कब व्याख्यान करें ? [सत्थं पच्छा] शास्त्र का बाद में व्याख्यान करें । पहले क्या करके बाद में करें ? [वागरिय] व्याख्या करके फिर करें । किनकी व्याख्या करके करें ? [छप्पि मंगलनिमित्तहेऊ परिमाणा णाम तह य कत्तारं] मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम, कर्तृत्व इन छह अधिकारों की व्याख्याकर बाद में करें। वह इसप्रकार --
मं=पाप को, गल=गलाता है, नष्ट करता है, वह मंगल है; अथवा मंग=पुण्य या सुख को, ल=लाता है, देता है, ग्रहण कराता है, वह मंगल है।
चार फल के इच्छुक ग्रन्थकार मंगल के लिए शास्त्र के प्रारंभ में तीन प्रकार के देवताओं को तीन प्रकार से नमस्कार करते हैं -- नास्तिकता के निराकरणार्थ, शिष्टाचार का प्रपालन करने-हेतु, पुण्य-प्राप्ति और निर्विघ्न-समाप्ति के लिए आचार्य शास्त्र के प्रारंभ में स्तुति करते हैं ।
देवता तीन प्रकार के कहे गए हैं । कौन कौन से तीन प्रकार के हैं ? इष्टदेवता, अधिकृतदेवता और अभिमत देवता के भेद से वे तीन प्रकार के हैं । आशीर्वादात्मक, वस्तु-कथन-रूप और नमस्कार के भेद से नमस्कार तीन प्रकार के हैं ।
मुख्य और अमुख्य के भेद से वह मंगल भी दो प्रकार का है। उसमें से मुख्य मंगल कहते हैं --
'निर्विघ्नता की प्रकृष्ट-सिद्धि के लिए जिनेन्द्र भगवान के गुण-स्तोत्ररूप मंगल बुद्धिमानों द्वारा (शास्त्र के) आदि, मध्य और अंत में करने-हेतु कहा गया है।' (धवला पु. १, श्लोक २२)
वैसा ही कहा है 'जिनेन्द्र भगवान का गुणगान करने से विघ्न नष्ट हो जाते हैं, किंचित् भी भय नहीं रहते, क्षुद्र देव उल्लंघन नहीं करते, यथेष्ट अर्थों को प्राप्त करते हैं।' (वही, श्लोक २१)
'प्रारम्भ में मंगल करने से शिष्य शीघ्रता से (विद्या के) पारगामी होते हैं। मध्य में मंगल करने से विद्या की व्युच्छित्ति नहीं होती, निर्विघ्न रहती है। अंत में मंगल करने से विद्या का फल प्राप्त होता है।' (वही, गाथा २०)
अमुख्य (औपचारिक) मंगल कहते हैं-- 'सिद्धार्थ, पूर्णकुम्भ, वंदनमाला, श्वेतछत्र, श्वेत वर्ण, आदर्श (दर्पण), नाथ (राजा), कन्या, उत्तम जाति का घोड़ा।' (वही, गाथा १३)
'व्रत, नियम, संयम गुणों के द्वारा जिनवरों ने परमार्थ का साधन किया है तथा जिनकी सिद्ध संज्ञा है ; इसलिए वे सिद्धार्थ (सफेद सरसों) मंगल हैं।' (वही, १४)
'जो मनोरथों से पूर्ण हैं, केवलज्ञान से भी पूर्ण हैं ऐसे अरहंत इस लोक में पूर्णकुंभरूप सुमंगल हैं।' (वही, १५)
'निकलते हुए या प्रवेश करते हुए वे चौबीसों तीर्थंकर वंदनीय हैं; अत: भरत ने वंदनमाला की थी, वह वंदनमाला भी मंगल है।' (वही, १६)
'सभी जीवों के लिए मोक्ष का मार्ग बतानेवाले अरहंत भगवान जगत को छत्र समान हैं, सिद्ध भी छत्राकार हैं, इससे वह छत्र भी मंगल है।' (वही, १७)
'शेष रहे अघाति कर्मों से सहित अरहंत भगवान के श्वेत वर्ण के समान ध्यान और लेश्या अर्थात् शुक्लध्यान और शुक्ललेश्या है, इसलिए लोक में श्वेत वर्ण भी सुमंगल है।' (वही, १८)
'जैसे जिनेन्द्र के केवलज्ञान में लोकालोक दिखाई देता है; उसीप्रकार दर्पण में भी बिम्ब दिखता है; अत: उसे भी मंगल माना गया है।' (वही, १९)
'जैसे वीतराग सर्वज्ञ जिनवर लोक में मंगल हैं; उसीप्रकार घोड़ा, राजा और बालकन्या को भी मंगल जानो।' (वही, २०)
'जैसे जिनवर कर्म-शत्रुओं को जीतकर मोक्ष प्राप्त करते हैं; उसीप्रकार चतुरंगिणी शत्रुसेना को घोड़ा के माध्यम से जीता जाता है; अत: उसे भी मंगल कहा गया है।' (वही, २१)
अथवा निबद्ध और अनिबद्ध के भेद से मंगल दो प्रकार का है। उन्हीं ग्रंथकार द्वारा किया गया मंगल निबद्ध मंगल है। जैसे [मोक्षमार्गस्य नेतारं..] इत्यादि। दूसरे ग्रंथ से लाया गया नमस्कार अनिबद्ध मंगल है। जैसे [जगत्त्रयनाथाय..] इत्यादि।
इस प्रसंग में शिष्य पूर्वपक्ष ( प्रश्न ) करता है शास्त्र के प्रारम्भ में शास्त्रकार मंगल के लिए परमेष्ठी गुणों का स्तोत्र किसलिये करते हैं, जो शास्त्र प्रारम्भ किया है उसे ही कहना चाहिए, मंगल की आवश्यकता नहीं है; तथा (आपको) ऐसा भी नहीं कहना चाहिए कि मंगल नमस्कार से पुण्य होता है और पुण्य से (कार्य) निर्विघ्न हो जाता है। ऐसा क्यों नहीं कहना चाहिए? यदि आपका ऐसा प्रश्न हो तो (मेरा कहना यह है कि इसमें) व्यभिचार (दोष) होने के कारण ऐसा नहीं कहना चाहिए । वह इसप्रकार -- कभी / कहीं पर नमस्कार, दान, पूजा आदि करने पर भी विघ्न दिखाई देते हैं और कभी / कहीं पर दान, पूजा, नमस्कार का अभाव होने पर भी निर्विघ्न दिखाई देता है ।
आचार्य परिहार करते हैं -- यह तुम्हारा कथन उचित नहीं है । पूर्वाचार्य इष्ट देवता को नमस्कार करके ही कार्य करते हैं। और जो आपने कहा कि नमस्कार करने से पुण्य होता है, पुण्य से निर्विघ्न होता है ऐसा नहीं कहना चाहिए; वह भी उचित नहीं है। वह उचित क्यों नहीं है? देवता को नमस्कार करने से पुण्य होता है, उससे निर्विघ्न होता है ऐसा तर्कादि शास्त्रों में सम्यक् प्रकार से स्थापित / सिद्ध किया गया होने से वह उचित नहीं है । और जो तुमने कहा तथा व्यभिचार (दोष) दिखाया, वह भी उचित नहीं है। वह उचित क्यों नहीं है? जहाँ देवता नमस्कार, दान, पूजादि धर्म करने पर भी विघ्न होता है; वहाँ यह जानना चाहिए कि पूर्वकृत पाप का फल है, धर्म का दोष नहीं है;
तथा जहाँ देवता नमस्कार, दान, पूजादि धर्म का अभाव होने पर भी निर्विघ्न दिखाई देता है, वहाँ यह जानना चाहिए कि वह पूर्वकृत धर्म का फल है, पाप का नहीं ।
पुन: शिष्य कहता है कि शास्त्र मंगल हैं या अमंगल? यदि मंगल हैं तो मंगल को मंगल का क्या प्रयोजन रहा? और यदि अमंगल हैं तो उस शास्त्र से क्या प्रयोजन रहा ?
आचार्य परिहार करते हैं कि -- भक्ति के कारण मंगल का भी मंगल किया जाता है । वैसा कहा भी है
'जैसे दीपक से सूर्य की, जल से महासागर की, वाणी से वाणीश्वरी (जिनवाणी) की पूजा करते हो, उसीप्रकार मंगल से मंगल भी करो ।' ॥१॥
दूसरी बात यह है कि इष्ट देवता को नमस्कार करने से, हमारे प्रति किए गए उनके उपकारों की स्वीकृति होती है । वैसा ही कहा है -- परमेष्ठियों के प्रसाद से श्रेयोमार्ग की सम्यक् सिद्धि होती है, इसलिए शास्त्र के प्रारंभ में उनके गुणों का स्तोत्र (स्तवन) मुनिपुंगव / मुनिश्रेष्ठ आचार्यादि करते हैं ॥आप्तपरीक्षा-२॥
इष्ट-फल की सिद्धि का उपाय सम्यग्ज्ञान है, वह सुशास्त्र से होता है, उसकी उत्पत्ति आप्त से होती है इसलिए उनके द्वारा प्रबुद्ध हुए जीवों द्वारा वे पूज्य हो जाते हैं; क्योंकि सज्जन किए गए उपकार को विस्मृत नहीं होते / भूलते नहीं हैं ॥त.श्लोकवार्तिक-११॥
इसप्रकार संक्षेप में मंगल का व्याख्यान किया ।
निमित्त का कथन करते हैं -- निमित्त अर्थात् कारण। वीतराग-सर्वज्ञ की दिव्यध्वनि रूपी शास्त्र-प्रवृत्ति में कारण क्या है? भव्य जीवों के पुण्य की प्रेरणा से उनकी प्रवृत्ति होती है । वैसा ही कहा है -- भव्य जीव श्रुतज्ञानरूपी सूर्य के दिव्य तेज द्वारा छह द्रव्य, नव पदार्थों को देखें, एतदर्थ श्रुतरूपी सूर्य का उदय होता है ॥ध.पु. १, गाथा ३५॥
इस प्रस्तुत ग्रन्थ में शिवकुमार महाराज निमित्त हैं, अन्यत्र द्रव्यसंग्रह आदि में सोमाश्रेष्ठी आदि जानना चाहिये। इसप्रकार संक्षेप में निमित्त का कथन किया।
अब हेतु का व्याख्यान करते हैं -- हेतु अर्थात् फल। हेतु शब्द से फल कैसे कहा जाता है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- फल का कारण होने से उसे उपचार से फल कहते हैं। वह फल प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है । प्रत्यक्ष फल भी साक्षात् और परम्परा के भेद से दो प्रकार का है । साक्षात् प्रत्यक्ष फल क्या है ? अज्ञान का निराकरण, सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति, असंख्यात गुणश्रेणी कर्म-निर्जरा इत्यादि साक्षात् प्रत्यक्ष फल हैं । परम्परा प्रत्यक्षफल क्या है? शिष्य-प्रतिशिष्य से पूजा-प्रशंसा प्राप्त होना, शिष्यों की निष्पत्ति, प्राप्ति आदि परम्परा प्रत्यक्ष फल है। इसप्रकार संक्षेप में प्रत्यक्षफल कहा ।
अब परोक्षफल कहते हैं वह भी अभ्युदय और नि:श्रेयस सुख के भेद से दो प्रकार का है। अभ्युदय सुख का वर्णन करते हैं -- राजा, अधिराजा, महाराजा, अर्धमंडलीक, मंडलीक, महामंडलीक, अर्धचक्रवर्ती, सकलचक्रवर्ती, इन्द्र, गणधरदेव, तीन कल्याण पर्यंत तीर्थंकर परमदेव (पदों की प्राप्तिरूप ) अभ्युदय सुख है। राजा आदि का लक्षण कहते हैं एक करोड प्राकारि (कोट) अठारह श्रेणियों का स्वामी ही मुकुटधर कहलाता है, पाँच सौ मुकुट बद्ध राजाओं का अधिपति अधिराजा है, उससे दूने-दूने क्रम से सकल चक्रवर्ती पर्यंत होना अभ्युदय सुख है ।
नि:श्रेयस (मोक्ष) सुख का वर्णन करते हैं -- अर्हंत पद को कहते हैं घन रूप घाति कर्मों से रहित, चौंतीस अतिशयों, पाँच-कल्याणों और आठ महा-प्रातिहार्यों से सम्पन्न अरहंत मेरा मंगल करें ।
सिद्धपद का कथन करते हैं -- मूलोत्तर कर्मप्रकृतियों के बंध-उदय-सत्त्व से रहित, आठ गुण सहित, संसार से अतीत / रहित सिद्ध भगवान मंगलभूत हैं ।
इसप्रकार संक्षेप से अभ्युदय और नि:श्रेयस का वर्णन किया। यहाँ तात्पर्य यह है कि जो कोई भी वीतराग-सर्वज्ञ प्रणीत पंचास्तिकाय संग्रह आदि शास्त्र को पढ़ता है, उनकी श्रद्धा करता है, भावना करता है; वह इसप्रकार के सुख को प्राप्त होता है ऐसा अर्थ है ।
अब परिमाण का प्रतिपादन करते हैं -- वह भी ग्रन्थ और अर्थ के भेद से दो प्रकार का है । यथासम्भव ग्रन्थ की शब्द संख्या आदि ग्रन्थ परिमाण है। अर्थपरिमाण अनन्त है । इसप्रकार संक्षेप में परिमाण कहा ।
नाम का वर्णन करते हैं -- अन्वयार्थ (सार्थक), यदृच्छ (ऐच्छिक) के भेद से नाम दो प्रकार का है । अन्वर्थ नाम क्या है? जैसा नाम वैसा ही अर्थ, जैसे जो तपता है वह तपन / सूर्य ऐसा अर्थ है; अथवा पंचास्तिकायों का वर्णन जिस शास्त्र में है वह पंचास्तिकाय, द्रव्यों का संग्रह द्रव्यसंग्रह इत्यादि। यदृच्छ नाम-काष्ठाभार से ईश्वर (काष्ठ का भार / ढोने वाले को ईश्वर कहना) इत्यादि ।
कर्ता का वर्णन करते हैं -- मूल तंत्रकर्ता, उत्तर तन्त्रकर्ता, उत्तरोत्तर तंत्रकर्ता के भेद से वह तीन प्रकार का है। काल की अपेक्षा (वर्तमान काल सम्बंधी) मूल तंत्रकर्ता अठारह दोषों से रहित अनंत चतुष्टय सम्पन्न श्री वर्धमान-स्वामी हैं, उत्तर तंत्रकर्ता चार-ज्ञान-धारी और सात ऋद्धि से सम्पन्न श्री गौतम-स्वामी गणधर-देव हैं, उत्तरोत्तर तंत्रकर्ता यथा संभव अनेकों होते हैं ।
कर्ता का उल्लेख किसलिये किया जाता है? कर्ता की प्रमाणता से वचनों में प्रामाणिकता का ज्ञान कराने के लिए कर्ता का उल्लेख किया जाता है ।
इसप्रकार संक्षेप में मंगल आदि छह अधिकारों का प्रतिपादन व्याख्यान किया गया ॥१॥
इसप्रकार मंगल के लिए इष्टदेवता नमस्कार परक गाथा पूर्ण हुई ॥