पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 30-31 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p><span class=" | <p><span class="SansWord">[अगुरुलहुगा अणंता]</span> प्रत्येक षट्स्थान-पतित हानि-वृद्धि रूप अनंत अविभाग प्रतिच्छेदों से सहित अगुरुलघु गुण अनंत हैं। <span class="SansWord">[तेहिं अणंतेहिं परिणदा सव्वे]</span> उन पूर्वोक्त अनन्तगुणों द्वारा सभी परिणमित हैं। सभी कौन हैं? सभी से, वे सभी जीव इसप्रकार सम्बन्ध है। <span class="SansWord">[देसेहिं असंखादा]</span> लोकाकाशप्रमाण अखण्ड प्रदेशों से सहित होने के कारण वे असंख्येय प्रदेश युक्त हैं । <span class="SansWord">[सियलोगं सव्वमावण्णा]</span> स्यात् / कथंचित्, लोकपूरण अवस्था की अपेक्षा लोकव्यापक है; अथवा सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा लोक व्यापक है; वैसा ही कहा भी है 'सूक्ष्म जीवों से लोक निरंतर भरा है ।' वे जीव और कैसे हैं ? <span class="SansWord">[केचितु अणावण्णा]</span> तथा लोक पूरण अवस्था से रहित अथवा बादर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय आदि कुछ अव्यापक है । वे जीव और किस विशेषता वाले हैं? <span class="SansWord">[मिच्छादंसाणकसाय जोग जुदा]</span> ऱागादि रहित परमानन्द एक स्वभावी शुद्ध जीवास्तिकाय से विलक्षण मिथ्यादर्शन, कषाय, योग से यथा-सम्भव युक्त हैं । मात्र युक्त ही नहीं है अपितु कुछ <span class="SansWord">[विजुदायतेहिं]</span> उन्हीं मिथ्यादर्शन, कषाय, योग से रहित हैं । दोनों ही कितनी संख्या वाले हैं? <span class="SansWord">[बहुगा]</span> बहुत, अनन्त संख्या वाले हैं । वे और कैसे हैं ? <span class="SansWord">[सिद्धा संसारिणो]</span> जो मिथ्यादर्शन, कषाय, योग से विमुक्त / रहित हैं, वे सिद्ध हैं; और जो उनसे सहित हैं वे संसारी हैं ।</p> | ||
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<p>इसप्रकार पूर्वोक्त <span class=" | <p>इसप्रकार पूर्वोक्त <span class="SansWord">[वच्छरक्खं]</span> नौ दृष्टान्तों द्वारा चार्वाक मतानुसारी शिष्य के सम्बोधन-हेतु जीव-सिद्धि की मुख्यता से तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।</p> | ||
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Latest revision as of 13:16, 30 June 2023
अब अगुरुलघुत्व, असंख्यात प्रदेशत्व, व्यापकत्व, अव्यापकत्व, मुक्त और अमुक्तत्व का प्रतिपादन करते हैं--
[अगुरुलहुगा अणंता] प्रत्येक षट्स्थान-पतित हानि-वृद्धि रूप अनंत अविभाग प्रतिच्छेदों से सहित अगुरुलघु गुण अनंत हैं। [तेहिं अणंतेहिं परिणदा सव्वे] उन पूर्वोक्त अनन्तगुणों द्वारा सभी परिणमित हैं। सभी कौन हैं? सभी से, वे सभी जीव इसप्रकार सम्बन्ध है। [देसेहिं असंखादा] लोकाकाशप्रमाण अखण्ड प्रदेशों से सहित होने के कारण वे असंख्येय प्रदेश युक्त हैं । [सियलोगं सव्वमावण्णा] स्यात् / कथंचित्, लोकपूरण अवस्था की अपेक्षा लोकव्यापक है; अथवा सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा लोक व्यापक है; वैसा ही कहा भी है 'सूक्ष्म जीवों से लोक निरंतर भरा है ।' वे जीव और कैसे हैं ? [केचितु अणावण्णा] तथा लोक पूरण अवस्था से रहित अथवा बादर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय आदि कुछ अव्यापक है । वे जीव और किस विशेषता वाले हैं? [मिच्छादंसाणकसाय जोग जुदा] ऱागादि रहित परमानन्द एक स्वभावी शुद्ध जीवास्तिकाय से विलक्षण मिथ्यादर्शन, कषाय, योग से यथा-सम्भव युक्त हैं । मात्र युक्त ही नहीं है अपितु कुछ [विजुदायतेहिं] उन्हीं मिथ्यादर्शन, कषाय, योग से रहित हैं । दोनों ही कितनी संख्या वाले हैं? [बहुगा] बहुत, अनन्त संख्या वाले हैं । वे और कैसे हैं ? [सिद्धा संसारिणो] जो मिथ्यादर्शन, कषाय, योग से विमुक्त / रहित हैं, वे सिद्ध हैं; और जो उनसे सहित हैं वे संसारी हैं ।
यहाँ जीवित (जीवन की) आशा रूप रागादि विकल्पों के त्याग द्वारा सिद्ध जीवों के समान परम आह्लाद रूप सुख-रसास्वाद से परिणत / तन्मय निज शुद्ध जीवास्तिकाय ही उपादेय है -- यह भावार्थ है ॥३१-३२॥
इसप्रकार पूर्वोक्त [वच्छरक्खं] नौ दृष्टान्तों द्वारा चार्वाक मतानुसारी शिष्य के सम्बोधन-हेतु जीव-सिद्धि की मुख्यता से तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।