पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 40.4 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p><span class=" | <p><span class="SansWord">[मण्णाणं]</span> यह आत्मा मन: पर्ययज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर परकीय मनोगत मूर्त वस्तु को जिस प्रत्यक्ष से जानता है, वह मन: पर्ययज्ञान है । वह कितने प्रकार का है ? <span class="SansWord">[विउलमदी पुण णाणं अज्जवणाणं च दुविह मण्णाणं]</span> ऋजुमति और विपुलमति के भेद से मन: पर्यय ज्ञान दो प्रकार का है; वहाँ विपुलमति ज्ञान परकीय मन-वचन-काय सम्बन्धी वक्रावक्र (वक्र और सीधे) पदार्थ को जानता है और ऋजुमति प्राञ्जल (सीधे) को ही जानता है। विपुलमति निर्विकार आत्मोपलब्धि भावना से सहित चरम शरीरी मुनियों के होता है । <span class="SansWord">[एदे संजमलद्धी]</span> दोनों मन: पर्ययज्ञान संयम-लब्धि-रूप उपेक्षा संयम के होने पर होते हैं; वे दोनों संयम लब्धि हैं जिनके, वे संयम लब्धिवान हैं उन्हें मन: पर्ययज्ञान होते हैं । वे दोनों किस समय उत्पन्न होते हैं ? <span class="SansWord">[उवओगे]</span> उपयोग में, विशुद्ध परिणाम में उत्पन्न होते हैं । वे किसे होते हैं ? <span class="SansWord">[अप्पमत्तस्स]</span> वीतरागी आत्म-तत्त्व की सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठान रूप भावना से सहित तथा 'विकथा, कषाय...' इत्यादि गाथा में कहे गए पंद्रह प्रमादों से रहित अप्रमत्त मुनि के होते हैं । यहाँ उत्पत्ति के समय ही अप्रमत्त का नियम है, बाद में प्रमत्त के भी रहता है -- ऐसा भावार्थ है ॥४५॥</p> | ||
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Latest revision as of 13:16, 30 June 2023
[मण्णाणं] यह आत्मा मन: पर्ययज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर परकीय मनोगत मूर्त वस्तु को जिस प्रत्यक्ष से जानता है, वह मन: पर्ययज्ञान है । वह कितने प्रकार का है ? [विउलमदी पुण णाणं अज्जवणाणं च दुविह मण्णाणं] ऋजुमति और विपुलमति के भेद से मन: पर्यय ज्ञान दो प्रकार का है; वहाँ विपुलमति ज्ञान परकीय मन-वचन-काय सम्बन्धी वक्रावक्र (वक्र और सीधे) पदार्थ को जानता है और ऋजुमति प्राञ्जल (सीधे) को ही जानता है। विपुलमति निर्विकार आत्मोपलब्धि भावना से सहित चरम शरीरी मुनियों के होता है । [एदे संजमलद्धी] दोनों मन: पर्ययज्ञान संयम-लब्धि-रूप उपेक्षा संयम के होने पर होते हैं; वे दोनों संयम लब्धि हैं जिनके, वे संयम लब्धिवान हैं उन्हें मन: पर्ययज्ञान होते हैं । वे दोनों किस समय उत्पन्न होते हैं ? [उवओगे] उपयोग में, विशुद्ध परिणाम में उत्पन्न होते हैं । वे किसे होते हैं ? [अप्पमत्तस्स] वीतरागी आत्म-तत्त्व की सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठान रूप भावना से सहित तथा 'विकथा, कषाय...' इत्यादि गाथा में कहे गए पंद्रह प्रमादों से रहित अप्रमत्त मुनि के होते हैं । यहाँ उत्पत्ति के समय ही अप्रमत्त का नियम है, बाद में प्रमत्त के भी रहता है -- ऐसा भावार्थ है ॥४५॥