पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 165 - तात्पर्य-वृत्ति: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
जस्स हिदयेणुमेत्तं वा परदव्वम्हि विज्जदे रागो । (165)
सो ण विजाणदि समयं सगस्स सव्वागमधरोवि ॥175॥
अर्थ:
जिसके हृदय में परद्रव्य के प्रति अणु मात्र भी राग विद्यमान है, वह सर्व आगमधर होने पर भी अपने समय को नहीं जानता है ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[जस्स हिदये] जिसके हृदय, मन में, [अणुमेत्तं वा] परमाणुमात्र भी [परदव्वं] शुभाशुभ परद्रव्यों के साथ [हु] वास्तव में [विज्जदे रागो] राग विद्यमान है; सो वह [ण विजाणदि] नहीं जानता है । वह किसे नहीं जानता है ? [समयं] वह समय को नहीं जानता है । वह किसके समय को नहीं जानता है ? [सगस्स] अपने आत्मा सम्बन्धी समय को नहीं जानता है ? कैसा होने पर भी उसे नहीं जानता है ? [सव्वागमधरोवि] सम्पूर्ण शास्त्रों का पारगामी होने पर भी वह उसे नहीं जानता है ।
वह इसप्रकार -- निरुपराग परमात्मा से विपरीत राग जिसके विद्यमान है, वह अपने शुद्धात्मा में अनुचरणमय स्व-स्वरूप को नहीं जानता है; उस कारण पहले विषयानुराग को छोड़कर, तत्पश्चात् गुणस्थान-सोपान (वीतरागता की वृद्धि के) क्रम से रागादि रहित निज शुद्धात्मा में स्थिति कर अरहन्त आदि के विषय में राग छोडने योग्य है, ऐसा अभिप्राय है ॥१७५॥