पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 88 - समय-व्याख्या: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
विज्जदि जेसिं गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि । (88)
ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति ॥96॥
अर्थ:
जिनके गमन होता है, उनके ही स्थिति सम्भव है; वे (गति-स्थितिमान पदार्थ) अपने परिणामों से ही गति और स्थिति करते हैं।
समय-व्याख्या:
धर्माधर्मयोरौदासीन्ये हेतूपन्यासोऽयम् ।
धर्मः किल न जीवपुद्गलानां कदाचिद्गतिहेतुत्वमभ्यस्यति, न कदाचित्स्थिति-हेतुत्वमधर्मः । तौ हि परेषां गतिस्थित्योर्यदि मुख्यहेतू स्यातां तदा येषां गतिस्तेषांगतिरेव, न स्थितिः, येषां स्थितिस्तेषां स्थितिरेव, न गतिः । तत एकेषामपिगतिस्थितिदर्शनादनुमीयते न तौ तयोर्मुख्यहेतू । किन्तु व्यवहारनयव्यवस्थापितौउदासीनौ । कथमेवं गतिस्थितिमतां पदार्थानां गतिस्थिती भवत इति चेत्, सर्वे हि गतिस्थितिमन्तः पदार्थाः स्वपरिणामैरेव निश्चयेन गतिस्थिती कुर्वन्तीति ॥८८॥
- इति धर्माधर्मद्रव्यास्तिकायव्याख्यानं समाप्तम् ।
अथ आकाशद्रव्यास्तिकायव्याख्यानम् ।
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, धर्म और अधर्म की उदासीनता के सम्बन्ध में हेतु कहा गया है ।
वास्तव में (निश्चय से) धर्म जीव-पुद्गलों को कभी गति हेतु नहीं होता, अधर्म कभी स्थिति हेतु नहीं होता, क्योंकि वे पर को गति-स्थिति के यदि मुख्य हेतु (निश्चय हेतु) हों, तो जिन्हें गति हो उन्हें गति ही रहना चाहिए, स्थिति नहीं होना चाहिए, और जिन्हें स्थिति हो उन्हें स्थिति ही रहना चाहिए, गति नहीं होना चाहिए । किन्तु एक को ही (उसी एक पदार्थ को) गति और स्थिति देखने में आती है, इसलिए अनुमान हो सकता है की वे (धर्म-अधर्म) गति-स्थिति के मुख्य हेतु नहीं हैं, किन्तु व्यवहार-नय स्थापित (व्यवहारनय द्वारा स्थापित - कथित) उदासीन हेतु हैं ।
प्रश्न - ऐसा हो तो गति-स्थिति-मान पदार्थों को गति-स्थिति किस प्रकार होती है ?
उत्तर - वास्तव में समस्त गति-स्थिति-मान पदार्थ अपने परिणामों से ही निश्चय से गति-स्थिति करते हैं ॥८८॥
इस प्रकार धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का व्याख्यान समाप्त हुआ ।
अब आकाश द्रव्यास्तिकाय का व्याख्यान है ।