पद्मपुराण - पर्व 13: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर स्वामी के दुःख से आकुल इंद्र के सामंत, सहस्रार को आगे कर रावण के महल में पहुँचे ।।1।। द्वारपाल के द्वारा समाचार देकर बड़ी विनय से सबने भीतर प्रवेश किया और सब प्रणाम कर दिये हुए आसनों पर यथायोग्य रीति से बैठ गये ।।2।। तदनंतर रावण ने सहस्रार की ओर बड़े गौरव से देखा। तब सहस्रार रावण से बोला कि तूने मेरे पुत्र इंद्र को जीत लिया है अब मेरे कहने से छोड़ दे ।।3।। तूने अपनी भुजाओं और पुण्य की उदार महिमा दिखलायी सो ठीक ही है क्योंकि राजा दूसरे के अहंकार को नष्ट करने की ही चेष्टा करते हैं ।।4।। सहस्रार के ऐसा कहने पर लोकपालों के मुख से भी यही शब्द निकला सो मानो उसके शब्द को प्रतिध्वनि ही निकली थी ।।5।। | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर स्वामी के दुःख से आकुल इंद्र के सामंत, सहस्रार को आगे कर रावण के महल में पहुँचे ।।1।।<span id="2" /> द्वारपाल के द्वारा समाचार देकर बड़ी विनय से सबने भीतर प्रवेश किया और सब प्रणाम कर दिये हुए आसनों पर यथायोग्य रीति से बैठ गये ।।2।।<span id="21" /><span id="3" /> तदनंतर रावण ने सहस्रार की ओर बड़े गौरव से देखा। तब सहस्रार रावण से बोला कि तूने मेरे पुत्र इंद्र को जीत लिया है अब मेरे कहने से छोड़ दे ।।3।।<span id="4" /> तूने अपनी भुजाओं और पुण्य की उदार महिमा दिखलायी सो ठीक ही है क्योंकि राजा दूसरे के अहंकार को नष्ट करने की ही चेष्टा करते हैं ।।4।।<span id="5" /> सहस्रार के ऐसा कहने पर लोकपालों के मुख से भी यही शब्द निकला सो मानो उसके शब्द को प्रतिध्वनि ही निकली थी ।।5।।<span id="6" /> तदनंतर रावण ने हँसकर लोकपालों से कहा कि एक शर्त है उस शर्त से ही मैं इंद्र को छोड़ सकता हूँ ।।6।।<span id="7" /> वह शर्त यह है कि आज से लेकर तुम सब, मेरे नगर के भीतर और बाहर बुहारी देना आदि जो भी कार्य हैं, उन्हें करो ।।7।।<span id="8" /> अब आप सब प्रतिदिन ही यह नगरी धूलि, अशुचि पदार्थ, पत्थर, तृण तथा कंटक आदि से रहित करनी होगी ।।8।।<span id="9" /> तथा इंद्र भी घड़ा लेकर सुगंधित जल से पृथ्वी सींचे। लोक में इसका यही कर्म प्रसिद्ध है ।।9।।<span id="10" /> और सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित इनकी संभ्रांत देवियाँ पंच वर्ण के सुगंधित फूलों से नगरी को सजावें ।।10।।<span id="11" /> यदि आप लोग आदर के साथ इस शर्त से युक्त होकर रहना चाहते हैं तो इंद्र को अभी छोड़ देता हूँ। अन्यथा इसका छूटना कैसे हो सकता हैं ।।11।।<span id="12" /> इतना कह रावण लज्जा से झुके हुए लोकपालों की ओर देखता तथा आप्तजनों के हाथ को अपने हाथों से ताड़ित करता हुआ बार बार हंसने लगा ।।12।।<span id="13" /></p> | ||
<p>तदनंतर उसने विनयावनत होकर सहस्रार से कहा। उस समय रावण सभा के ह्रदय को हरने वाली अपनी मधुर वाणी से मानो अमृत ही झरा रहा था ।।13।। उसने कहा कि हे तात! जिस प्रकार आप इंद्र के पूज्य हैं उसी प्रकार मेरे भी पूज्य हैं, बल्कि उससे भी अधिक। इसलिए मैं आपकी आज्ञा का उल्लंघन कैसे कर सकता हूँ? ।।14।। यदि यथार्थ में आप जैसे गुरुजन न होते तो यह पृथिवी पर्वतों से छोड़ी गयी के समान रसातल को चली जाती ।।15।। चूंकि आप जैसे पूज्य पुरुष मुझे आज्ञा दे रहे हैं अत: मैं पुण्यवान् हूँ। यथार्थ में आप जैसे पुरुषों की आज्ञा के पात्र पुण्यहीन मनुष्य नहीं हो सकते ।।16।। इसलिए हे प्रभो! आज आप विचारकर ऐसा उत्तम कार्य कीजिए जिससे इंद्र और मुझमें सौहार्द्य उत्पन्न हो जाये। इंद्र सुख से रहे और मैं भी सुख से रह सकूँ ।।17।। | <p>तदनंतर उसने विनयावनत होकर सहस्रार से कहा। उस समय रावण सभा के ह्रदय को हरने वाली अपनी मधुर वाणी से मानो अमृत ही झरा रहा था ।।13।।<span id="14" /> उसने कहा कि हे तात! जिस प्रकार आप इंद्र के पूज्य हैं उसी प्रकार मेरे भी पूज्य हैं, बल्कि उससे भी अधिक। इसलिए मैं आपकी आज्ञा का उल्लंघन कैसे कर सकता हूँ? ।।14।।<span id="15" /> यदि यथार्थ में आप जैसे गुरुजन न होते तो यह पृथिवी पर्वतों से छोड़ी गयी के समान रसातल को चली जाती ।।15।।<span id="16" /> चूंकि आप जैसे पूज्य पुरुष मुझे आज्ञा दे रहे हैं अत: मैं पुण्यवान् हूँ। यथार्थ में आप जैसे पुरुषों की आज्ञा के पात्र पुण्यहीन मनुष्य नहीं हो सकते ।।16।।<span id="17" /> इसलिए हे प्रभो! आज आप विचारकर ऐसा उत्तम कार्य कीजिए जिससे इंद्र और मुझमें सौहार्द्य उत्पन्न हो जाये। इंद्र सुख से रहे और मैं भी सुख से रह सकूँ ।।17।।<span id="18" /> यह बलवान् इंद्र मेरा चौथा भाई है, इसे पाकर मैं पृथ्वी को निष्कंटक कर दूँगा ।।18।।<span id="19" /> इसके लोकपाल पहले की तरह ही रहें तथा इसका राज्य भी पहले की तरह ही रहे अथवा उससे भी अधिक ले ले। हम दोनों में भेद की आवश्यकता ही क्या है? ।।19।।<span id="2" /> आप जिस प्रकार इंद्र की आज्ञा देते हैं उसी प्रकार मुझमें करने योग्य कार्य की आज्ञा देते रहें क्योंकि गुरुजनों की आज्ञा ही शेषाक्षत की तरह रक्षा एवं शोभा को करने वाली है ।।2।।<span id="21" /><span id="3" /> आप अपने अभिप्राय के अनुसार यहाँ रहें अथवा रथनूपुर नगर में रहें अथवा जहाँ इच्छा हो वहाँ रहें। हम दोनों आप के सेवक हैं हमारी भूमि ही कौन है? ।।21।।<span id="22" /> इस प्रकार के प्रियवचनरूपी जल से जिसका मन भीग रहा था ऐसा सहस्रार रावण से भी अधिक मधुर वचन बोला ।।22।।<span id="23" /> उसने कहा कि हे भद्र! आप जैसे सज्जनों की उत्पत्ति समस्त लोगों को आनंदित करने वाले गुणों के साथ ही होती है ।।23।।<span id="24" /> हे आयुष्मत्! तुम्हारी यह उत्तम विनय इस संसार में प्रशंसा को प्राप्त है तथा तुम्हारी इस शूरवीरता के आभूषण के समान है ।।24।।<span id="25" /> आपके दर्शन ने मेरे इस जन्म को सार्थक कर दिया। वे माता-पिता धन्य हैं जिन्हें तूने अपनी उत्पत्ति में कारण बनाया है ।।25।।<span id="26" /> जो समर्थ होकर भी क्षमावान है तथा जिसकी कीर्ति कुंद के फूल के समान निर्मल है ऐसे तूने दोषों के उत्पन्न होने की आशंका दूर हटा दी है ।।26।।<span id="27" /> तू जैसा कह रहा है वह ऐसा ही है। तुझ में सर्व कार्य संभव हैं। दिग्गजों की सूंड़ के समान स्थूल तेरी भुजाएँ क्या नहीं कर सकती हैं ।।27।।<span id="28" /> किंतु जिस प्रकार माता नहीं छोड़ी जा सकती उसी प्रकार जन्मभूमि भी नहीं छोड़ी जा सकती क्योंकि वह क्षण-भर के वियोग से चित्त को आकुल करने लगती है ।।28।।<span id="29" /> हम अपनी भूमि को छोड़ने के लिए असमर्थ है क्योंकि वहाँ हमारे मित्र तथा भाई-बांधव चातक की तरह उत्कंठा से युक्त हो मार्ग देखते हुए स्थित होंगे ।।29।।<span id="30" /> हे गुणालय! आप भी तो अपनी कुल परंपरा से चली आयी लंका की सेवा करते हुए परम प्रीति को प्राप्त हो रहे हैं सो बात ही ऐसी है जन्मभूमि के विषय में क्या कहा जाये? ।।30।।<span id="31" /> हम जहाँ महाभोगों की उत्पत्ति होती है अपनी उसी भूमि को जाते हैं। हे देवों के प्रिय! तुम चिरकाल तक संसार की रक्षा करो ।।31।।<span id="32" /> </p> | ||
<p>इतना कहकर सहस्रार इंद्र नामा पुत्र तथा लोकपालों के साथ विजयार्ध पर्वत पर चला गया। रावण भेजने के लिए कुछ दूर तक उसके साथ गया ।।32।। सब लोकपाल पहले की तरह ही अपने अपने स्थानों पर रहने लगे परंतु पराजय के कारण नि:सार हो गये और चलते-फिरते यंत्र के समान जान पड़ने लगे ।।33।। बहुत भारी लज्जा से भरे देव लोगों की ओर जब विजयार्धवासी लोग देखते थे तब वे यह नहीं जान पाते थे कि हम कहां जा रहे हैं? इस तरह देव लोग सदा भोगों से उदास रहते थे ।।34।। | <p>इतना कहकर सहस्रार इंद्र नामा पुत्र तथा लोकपालों के साथ विजयार्ध पर्वत पर चला गया। रावण भेजने के लिए कुछ दूर तक उसके साथ गया ।।32।।<span id="33" /> सब लोकपाल पहले की तरह ही अपने अपने स्थानों पर रहने लगे परंतु पराजय के कारण नि:सार हो गये और चलते-फिरते यंत्र के समान जान पड़ने लगे ।।33।।<span id="34" /> बहुत भारी लज्जा से भरे देव लोगों की ओर जब विजयार्धवासी लोग देखते थे तब वे यह नहीं जान पाते थे कि हम कहां जा रहे हैं? इस तरह देव लोग सदा भोगों से उदास रहते थे ।।34।।<span id="35" /> इंद्र भी न नगर में, न बाग-बगीचों में और न कमलों की पराग से पीले जल वाली वापिकाओं में ही प्रीति को प्राप्त होता था अर्थात् पराजय के कारण उसे कहीं अच्छा नहीं लगता था ।।35।।<span id="36" /> अब वह स्त्रियों पर भी अपनी सरल दृष्टि नहीं डालता था फिर शरीर की तो गिनती ही क्या थी और उसका चित्त सदा लज्जा से भरा रहता था ।।36।।<span id="37" /> यद्यपि लोग अन्यान्य कथाओं के प्रसंग छोड़कर उसके पराजय संबंधी दुःख को भुला देने के लिए सदा अनुकूल चेष्टा करते थे तो भी उसका चित्त स्वस्थ नहीं होता था ।।37।।<span id="38" /> </p> | ||
<p>अथानंतर एक दिन इंद्र, अपने महल को भीतर विद्यमान, एक खंभे के अग्रभाग पर स्थित, गंधमादन पर्वत के शिखर के समान सुशोभित जिनालय में बैठा था ।।38।। विद्वान् लोग उसे घेरकर बैठे थे। वह निरंतर पराजय का स्मरण करता हुआ शरीर को निरादर भाव से धारण कर रहा था। बैठे-बैठे ही उसने इस प्रकार विचार किया कि ।।39।। विद्याओं से संबंध रखनेवाले इस ऐश्वर्य को धिक्कार है जो कि शरद् ऋतु के बादलों के अत्यंत उन्नत समूह के समान क्षण-भर में विलीन हो गया ।।40।। | <p>अथानंतर एक दिन इंद्र, अपने महल को भीतर विद्यमान, एक खंभे के अग्रभाग पर स्थित, गंधमादन पर्वत के शिखर के समान सुशोभित जिनालय में बैठा था ।।38।।<span id="39" /> विद्वान् लोग उसे घेरकर बैठे थे। वह निरंतर पराजय का स्मरण करता हुआ शरीर को निरादर भाव से धारण कर रहा था। बैठे-बैठे ही उसने इस प्रकार विचार किया कि ।।39।।<span id="40" /> विद्याओं से संबंध रखनेवाले इस ऐश्वर्य को धिक्कार है जो कि शरद् ऋतु के बादलों के अत्यंत उन्नत समूह के समान क्षण-भर में विलीन हो गया ।।40।।<span id="41" /> वे शस्त्र, वे हाथी, वे योद्धा और वे घोड़े जो कि पहले मुझे आश्चर्य उत्पन्न करते थे आज सब के सब तृण के समान तुच्छ जान पड़ते हैं ।।41।।<span id="42" /> अथवा कर्मों की इस विचित्रता को अन्यथा करने के लिये कौन मनुष्य समर्थ है? यथार्थ में अन्य सब पदार्थ कर्मों के बल से ही बल धारण करते हैं ।।42।।<span id="43" /> निश्चय ही मेरा पूर्व संचित पुण्यकर्म जो कि नाना भोगों की प्राप्ति कराने में समर्थ है परिक्षीण हो चुका है इसलिए तो यह अवस्था हो रही है ।।43।।<span id="44" /> शत्रु के संकट से भरे युद्ध में यदि मर ही जाता तो अच्छा होता क्योंकि उससे समस्त लोक में फैलने वाली अपकीर्ति तो उत्पन्न नहीं होती ।।44।।<span id="45" /> जिसने शत्रुओं के सिर पर पैर रखकर जीवन विताया वह मैं अब शत्रु द्वारा अनुम लक्ष्मी का कैसे उपभोग करूँ? ।।45।।<span id="46" /> इसलिए अब मैं संसार संबंधी सुख की अभिलाषा छोड़ मोक्ष पद की प्राप्ति के जो कारण है उन्हीं की उपासना करता हूँ ।।46।।<span id="47" /> शत्रु के वेश को धारण करने वाला रावण मेरा महाबंधु बनकर आया था जिसने कि इस असार सुख के स्वाद में लीन मुझ को जागृत कर दिया ।।47।।<span id="48" /> </p> | ||
<p>इसी बीच में गुणी मनुष्यों के योग्य स्थानों में विहार करते हुए निर्वाण संगम नामा चारण रिद्धिधारी मुनि वहाँ आकाश मार्ग से जा रहे थे ।।48।। सो चलते चलते उनकी गति सहसा रुक गई। तदनंतर उन्होंने जब नीचे दृष्टि डाली तो मंदिर के दर्शन हुए ।।49।। प्रत्यक्ष ज्ञान के धारी महामुनि मंदिर में विराजमान जिन प्रतिमा की वंदना करने के लिए शीघ्र ही आकाश से नीचे उतरे ।।50।। राजा इंद्र ने बड़े संतोष से उठकर जिनकी पूजा की थी, ऐसे उन मुनिराज विधिपूर्वक जिन प्रतिमाओं को नमस्कार किया ।।51।। तदनंतर जब मुनिराज जिनेंद्र देव की वंदना कर चुप बैठ गए तब इंद्र उनके चरणों को नमस्कार सामने बैठ गया और अपनी निंदा करने लगा ।।52।। | <p>इसी बीच में गुणी मनुष्यों के योग्य स्थानों में विहार करते हुए निर्वाण संगम नामा चारण रिद्धिधारी मुनि वहाँ आकाश मार्ग से जा रहे थे ।।48।।<span id="49" /> सो चलते चलते उनकी गति सहसा रुक गई। तदनंतर उन्होंने जब नीचे दृष्टि डाली तो मंदिर के दर्शन हुए ।।49।।<span id="50" /> प्रत्यक्ष ज्ञान के धारी महामुनि मंदिर में विराजमान जिन प्रतिमा की वंदना करने के लिए शीघ्र ही आकाश से नीचे उतरे ।।50।।<span id="51" /> राजा इंद्र ने बड़े संतोष से उठकर जिनकी पूजा की थी, ऐसे उन मुनिराज विधिपूर्वक जिन प्रतिमाओं को नमस्कार किया ।।51।।<span id="52" /> तदनंतर जब मुनिराज जिनेंद्र देव की वंदना कर चुप बैठ गए तब इंद्र उनके चरणों को नमस्कार सामने बैठ गया और अपनी निंदा करने लगा ।।52।।<span id="53" /> मुनिराज ने समस्त संसार के वृतांत का अनुभव कराने में अतिशय निपुण उत्कृष्ट वचनों से उसे संतोष प्राप्त कराया ।।53।।<span id="54" /> </p> | ||
<p>अथानांतर इंद्र ने मुनिराज से अपना पूर्व भव पूछा सो गुणों के समूह से विभूषित मुनिराज उसके इस लिए इस प्रकार पूर्व भव कहने लगे ।।54।। हे राजन! चतुर्गति संबंधी अनेक योनियों के दुःखरूपी महावनमें भ्रमण करता हुआ एक जीव शिखापद नामा नगर में मनुष्य गति को प्राप्त हो दरिद्र कुलमें उत्पन्न हुआ। वहाँ स्त्री पर्याय से युक्त हो वह जीव 'कुलवांता' इस सार्थक नामको धारण करनेवाला हुआ ।।55-56।। कुलवांता के नेत्र सदा कीचरसे युक्त रहते थे, उसकी नाक चपटी थी और उसका शरीर सैकड़ों बीमारियों से युक्त था। इतना होनेपर भी उसके भोजन का ठिकाना नहीं था। वह कर्मोदय के कारण जिस किसी तरह लोगों का जूठन खाकर जीवित रहती थी ।।57।। उसके वस्त्र अत्यंत मलिन थे, दौर्भाग्य उसका पीछा कर रहा था, सारा शरीर अत्यंत रूक्ष था, हाथ-पैर आदि अंग फटे हुए थे और खोटे केश बिखरे हुए थे। वह जहाँ जाती थी वहीं लोग उसे तंग करते थे। इस तरह वह कहीं भी सुख नहीं प्राप्त कर सकती थी ।।58।। | <p>अथानांतर इंद्र ने मुनिराज से अपना पूर्व भव पूछा सो गुणों के समूह से विभूषित मुनिराज उसके इस लिए इस प्रकार पूर्व भव कहने लगे ।।54।।<span id="55" /><span id="56" /> हे राजन! चतुर्गति संबंधी अनेक योनियों के दुःखरूपी महावनमें भ्रमण करता हुआ एक जीव शिखापद नामा नगर में मनुष्य गति को प्राप्त हो दरिद्र कुलमें उत्पन्न हुआ। वहाँ स्त्री पर्याय से युक्त हो वह जीव 'कुलवांता' इस सार्थक नामको धारण करनेवाला हुआ ।।55-56।।<span id="57" /> कुलवांता के नेत्र सदा कीचरसे युक्त रहते थे, उसकी नाक चपटी थी और उसका शरीर सैकड़ों बीमारियों से युक्त था। इतना होनेपर भी उसके भोजन का ठिकाना नहीं था। वह कर्मोदय के कारण जिस किसी तरह लोगों का जूठन खाकर जीवित रहती थी ।।57।।<span id="58" /> उसके वस्त्र अत्यंत मलिन थे, दौर्भाग्य उसका पीछा कर रहा था, सारा शरीर अत्यंत रूक्ष था, हाथ-पैर आदि अंग फटे हुए थे और खोटे केश बिखरे हुए थे। वह जहाँ जाती थी वहीं लोग उसे तंग करते थे। इस तरह वह कहीं भी सुख नहीं प्राप्त कर सकती थी ।।58।।<span id="59" /> अंत समय शुभमति हो उसने एक मुहूर्त के लिए अन्न का त्याग कर अनशन धारण किया जिससे शरीर त्याग कर किंपुरुषनामा देव की क्षीरधारा नामकी स्त्री हुई ।।59।।<span id="60" /> वहाँ से च्युत होकर रत्नपुर नगर में धरणी और गोमुख नामा दंपतीके सहस्रभाग नामक पुत्र हुआ ।।60।।<span id="61" /> वहाँ उत्कृष्ट सम्यग्दर्शन प्राप्त कर अणुव्रतों का धारी हुआ और अंत में मरकर शुक्र नामा स्वर्ग में उत्तम देव हुआ ।।61।।<span id="62" /> वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्रके रत्नसंचयनामा नगरमें मणिनामक मंत्री की गुणावली नामक स्त्रीसे सामंतवर्धन नामक पुत्र हुआ ।।62।।<span id="63" /><span id="64" /><span id="65" /><span id="66" /> सामंतवर्धन अपने राजाके साथ विरक्त हो महाव्रत का धारक हुआ। वहाँ उसने अत्यंत कठिन तपश्चरण किया, तत्त्वार्थके चिंतन में निरंतर मन लगाया, अच्छी तरह परीषह सहन किये, निर्मल सम्यग्दर्शन प्राप्त किया और कषायोंपर विजय प्राप्त की। अंत समय मरकर वह ग्रैवेयक गया सो अहमिद्र होकर चिरकाल तक वहाँ के सुख भोगता रहा। अंत समय में वहाँ से च्युत हो रथनूपुर नगरमें सहस्रार नामक विद्याधर की हृदयसुंदरी रानीसे इंद्र नामको धारण करनेवाला तू विद्याधरों का राजा हुआ है। पूर्वं अभ्यास के कारण ही तेरा मन इंद्र के सुखमें लीन रहा है ।।63-66।।<span id="67" /> सो हे इंद्र! ‘मैं विद्याओं से युक्त होता हुआ भी शत्रु से हार गया हूँ’, इस प्रकार अपने आपके विषयमें अनादर को धारण करता हुआ तू विषाद युक्त हो व्यर्थं ही क्यों संताप कर रहा है ।।67।।<span id="68" /> अरे निर्बुद्धि! तू कोदों बोकर धान की व्यर्थ ही इच्छा करता है। प्राणियों को सदा कर्मों के अनुकूल ही फल प्राप्त होता है ।।68।।<span id="69" /> तुम्हारे भोगोपभोग का साधन जो पूर्वोपार्जित कर्म था वह अब क्षीण हो गया है सो कारणके बिना कार्य नहीं होता है इसमें आश्चर्य ही क्या है? ।।69।।<span id="70" /> तेरे इस पराभव में रावण तो निमित्त मात्र है। तूने इसी जन्म में कर्म किये हैं उन्हीं से यह पराभव प्राप्त हुआ है ।।70।।<span id="71" /> तूने पहले क्रीड़ा करते समय जो अन्याय किया है उसका स्मरण क्यों नहीं करता है ? ऐश्वर्य से उत्पन्न हुआ तेरा मद चूंकि अब नष्ट हो चुका है इसलिए अब तो पिछली बात का स्मरण कर ।।71।।<span id="72" /> जान पड़ता है कि बहुत समय हो जाने के कारण वह वृत्तांत स्वयं तेरी बुद्धिमें नहीं आ रहा है इसलिए एकाग्रचित्त होकर सुन, मैं कहता हूँ ।।72।।<span id="73" /> </p> | ||
<p>अरिंजयपुर नगरमें वह्निवेग नामा विद्याधर राजा था सो उसने वेगवती रानी से उत्पन्न आहल्या नामक पुत्री का स्वयंवर रचा था ।।73।। उत्सुकता से भरे तथा यथायोग्य वैभव से शोभित समस्त विद्याधर दक्षिण श्रेणी छोड़-छोड़कर उस स्वयंवर में आये थे ।।74।। | <p>अरिंजयपुर नगरमें वह्निवेग नामा विद्याधर राजा था सो उसने वेगवती रानी से उत्पन्न आहल्या नामक पुत्री का स्वयंवर रचा था ।।73।।<span id="74" /> उत्सुकता से भरे तथा यथायोग्य वैभव से शोभित समस्त विद्याधर दक्षिण श्रेणी छोड़-छोड़कर उस स्वयंवर में आये थे ।।74।।<span id="75" /> उत्कृष्ट संपदा से युक्त होकर आप भी वहाँ गये थे तथा चंद्रावर्त नगरका राजा आनंदमाल भी वहां आया था ।।75।।<span id="76" /> सर्वांग सुंदरी कन्या ने पूर्व कर्म के प्रभाव से समस्त विद्याधरों को छोड़कर आनंदमाल को वरा ।।76।।<span id="77" /> सो आनंदमाल उसे विवाह कर इच्छा करते ही प्राप्त होने वाले भोगों का उस तरह उपभोग करने लगा जिस तरह कि इंद्र स्वर्ग में प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होने वाले भोगों का उपभोग करता है ।।77।।<span id="78" /> ईर्ष्या जन्य बहुत भारी क्रोध के कारण तू उसी समय से उसके साथ अत्यधिक शत्रुता करने लगा ।।78।।<span id="79" /> तदनंतर कर्मों की अनुकूलता के कारण आनंदमाल को सहसा यह बुद्धि उत्पन्न हुई कि यह शरीर अनित्य है अतः इससे मुझे कुछ प्रयोजन नहीं है ।।79।।<span id="80" /> मैं तो तप करता हूँ जिससे संसार संबंधी दुःखका नाश होगा| धोखा देने वाले भोगों में क्या आशा रखना है? ।।80।।<span id="81" /> प्रबोध को प्राप्त हुई अंतरात्मा से ऐसा विचारकर उसने सर्व परिग्रह का त्यागकर उत्कृष्ट तप धारण कर लिया ।।81।।<span id="82" /></p> | ||
<p>एक दिन हंसावली नदी के किनारे रथावर्त नामा पर्वतपर वह प्रतिमा योगसे विराजमान था सो तूने पहचान लिया ।।82।। दर्शनरूपी ईंधनसे जिसकी पिछली क्रोधाग्नि भड़क उठी थी ऐसे तूने क्रीड़ा करते हुए अहंकार वश उसकी बार-बार हँसी की थी ।।83।। तू कह रहा था कि अरे! तू तो कामभोग का अतिशय प्रेमी आहल्या का पति है, इस समय यहाँ इस तरह क्यों बैठा है? ।।84।। ऐसा कहकर तूने उन्हें रस्सियों से कसकर लपेट लिया फिर भी उनका शरीर पर्वत के समान निष्कंप बना रहा और उनका मन तत्त्वार्थ की चिंतना में लीन होने से स्थिर रहा आया ।।85।। इस प्रकार आनंदमाल मुनि तो निर्विकार रहे पर उन्हीं के समीप कल्याण नामक दूसरे मुनि बैठे थे जो कि उनके भाई थे। तेरे द्वारा उन्हें अनादृत होता देख क्रोध से दुःखी हो गये ।।86।। | <p>एक दिन हंसावली नदी के किनारे रथावर्त नामा पर्वतपर वह प्रतिमा योगसे विराजमान था सो तूने पहचान लिया ।।82।।<span id="83" /> दर्शनरूपी ईंधनसे जिसकी पिछली क्रोधाग्नि भड़क उठी थी ऐसे तूने क्रीड़ा करते हुए अहंकार वश उसकी बार-बार हँसी की थी ।।83।।<span id="84" /> तू कह रहा था कि अरे! तू तो कामभोग का अतिशय प्रेमी आहल्या का पति है, इस समय यहाँ इस तरह क्यों बैठा है? ।।84।।<span id="85" /> ऐसा कहकर तूने उन्हें रस्सियों से कसकर लपेट लिया फिर भी उनका शरीर पर्वत के समान निष्कंप बना रहा और उनका मन तत्त्वार्थ की चिंतना में लीन होने से स्थिर रहा आया ।।85।।<span id="86" /> इस प्रकार आनंदमाल मुनि तो निर्विकार रहे पर उन्हीं के समीप कल्याण नामक दूसरे मुनि बैठे थे जो कि उनके भाई थे। तेरे द्वारा उन्हें अनादृत होता देख क्रोध से दुःखी हो गये ।।86।।<span id="87" /> वे मुनि ऋद्धिधारी थे तथा प्रतिमा योग से विराजमान थे सो तेरे कुकृत्य से दुःखी होकर उन्होंने प्रतिमा योग का संकोच कर तथा लंबी और गरम श्वास भरकर तेरे लिए इस प्रकार शाप दी ।।87।।<span id="88" /> कि चूँकि तूने इन निरपराध मुनिराजका तिरस्कार किया है इसलिए तू भी बहुत भारी तिरस्कार को प्राप्त होगा ।।88।।<span id="89" /> वे मुनि अपनी अपरिमित श्वास से तुझे भस्म ही कर देना चाहते थे पर तेरी सर्वश्री नामक स्त्री ने उन्हें शांत कर लिया ।।89।।<span id="90" /> वह सर्वश्री सम्यग्दर्शन से युक्त तथा मुनिजनों की पूजा करने वाली थी इसलिए उत्तम हृदयके धारक मुनि भी उसकी बात मानते थे ।।90।।<span id="91" /> यदि वह साध्वी उन मुनिराज को शांत नहीं करती तो उनकी क्रोधाग्नि को कौन रोक सकता था? ।।91।।<span id="92" /> तीनों लोकों में वह कार्य नहीं है जो तप से सिद्ध नहीं होता हो। यथार्थ में तप का बल सब बलों के शिर पर स्थित है अर्थात् सबसे श्रेष्ठ है ।।92।।<span id="93" /> इच्छानुकूल कार्य करनेवाले तपस्वी साधु की जैसी शक्ति, कांति, द्युति, अथवा घृति होती है वैसी इंद्र को भी संभव नहीं है ।।93।।<span id="94" /> जो मनुष्य साधु जनों का तिरस्कार करते हैं वे तिर्यंच गति और नरक गति में महान् दुःख पाते हैं ।।94।।<span id="95" /> जो मनुष्य मन से भी साधु जनों का पराभव करता है वह पराभव उसे परलोक तथा इस लोक में परम दुःख देता है ।।95।।<span id="96" /> जो दुष्ट चित्त का धारी मनुष्य निर्ग्रंथ मुनि को गाली देता है अथवा मारता है, उस पापी मनुष्य के विषय में क्या कहा जाय? ।।96।।<span id="97" /> मनुष्य मन वचन काय से जो कर्म करते हैं वे छूटते नहीं हैं और प्राणियों को अवश्य ही फल देते हैं ।।97।।<span id="98" /> इस प्रकार कर्मोके पुण्य पाप रूप फल का विचार कर अपनी बुद्धि धर्म में धारण करो और अपने आपको दुःखों से बचाओ ।।98।।<span id="99" /> इस प्रकार मुनिराज के कहने पर इंद्र को अपने पूर्व जन्मों का स्मरण हो आया। उन्हें स्मरण करता हुआ वह आश्चर्य को प्राप्त हुआ। </p> | ||
<p>तदनंतर बहुत भारी आदर से भरे इंद्र ने निग्रंथ मुनिराज को नमस्कार कर कहा कि ।।99।। हे भगवन्! आपके प्रसाद से मुझे उत्कृष्ट रत्नत्रय की प्राप्ति हुई है इसलिए मैं मानता हूँ कि अब मेरे समस्त पाप मानो क्षण भर में ही छूट जानेवाले हैं ।।100।। जो बोधि अनेक जन्मों में भी प्राप्त नहीं हुई वह साधु समागम से प्राप्त हो जाती है इसलिए कहना पड़ता है कि साधु समागम से संसार में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती ।।101।। इतना कहकर निर्वाण संगम मुनिराज तो उधर इंद्र के द्वारा वंदित हो यथेच्छ स्थान पर चले गये, इधर इंद्र भी गृहवास से अत्यंत निर्वेद को प्राप्त हो गया ।।102।। उसने जान लिया कि रावण पुण्य कर्म के उदय से परम अभ्युदय को प्राप्त हुआ है। उसने महापर्वत के तट पर विद्यमान वीर्यदंष्ट्रकी बार-बार स्तुति की ।।103।। </p> | <p>तदनंतर बहुत भारी आदर से भरे इंद्र ने निग्रंथ मुनिराज को नमस्कार कर कहा कि ।।99।।<span id="100" /> हे भगवन्! आपके प्रसाद से मुझे उत्कृष्ट रत्नत्रय की प्राप्ति हुई है इसलिए मैं मानता हूँ कि अब मेरे समस्त पाप मानो क्षण भर में ही छूट जानेवाले हैं ।।100।।<span id="101" /> जो बोधि अनेक जन्मों में भी प्राप्त नहीं हुई वह साधु समागम से प्राप्त हो जाती है इसलिए कहना पड़ता है कि साधु समागम से संसार में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती ।।101।।<span id="102" /> इतना कहकर निर्वाण संगम मुनिराज तो उधर इंद्र के द्वारा वंदित हो यथेच्छ स्थान पर चले गये, इधर इंद्र भी गृहवास से अत्यंत निर्वेद को प्राप्त हो गया ।।102।।<span id="103" /> उसने जान लिया कि रावण पुण्य कर्म के उदय से परम अभ्युदय को प्राप्त हुआ है। उसने महापर्वत के तट पर विद्यमान वीर्यदंष्ट्रकी बार-बार स्तुति की ।।103।।<span id="104" /> </p> | ||
<p>मनुष्य पर्याय को जल के बबूला के समान निःसार जानकर उसने धर्म में अपनी बुद्धि निश्चल की। अपने पाप कार्यों की बार-बार निंदा की ।।104।। | <p>मनुष्य पर्याय को जल के बबूला के समान निःसार जानकर उसने धर्म में अपनी बुद्धि निश्चल की। अपने पाप कार्यों की बार-बार निंदा की ।।104।।<span id="105" /><span id="106" /> इस प्रकार महापुरुष इंद्रने रथनुपुर नगर में पुत्र के लिए राज्य-संपदा सौंपकर अन्य अनेक पुत्रों तथा लोकपालों के समूह के साथ समस्त कर्मों को करने वाली जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। उस समय उसका मन अत्यंत विशुद्ध था तथा समस्त परिग्रहका उसने त्याग कर दिया था ।।105-106।।<span id="107" /> यद्यपि उसका शरीर इंद्र के समान लोकोत्तर भोगों से लालित हुआ था तो भी उसने अन्य जन जिसे धारण करने में असमर्थ थे ऐसा तप का भार धारण किया था ।।107।।<span id="108" /> प्रायः करके महापुरुषों की रुद्र कार्यों में जैसी अद्भुत शक्ति होती है वैसी ही शक्ति विशुद्ध कार्यों में भी उत्पन्न हो जाती है ।।108।।<span id="109" /> तदनंतर दीर्घ काल तक तप कर शुक्ल ध्यान के प्रभाव से कर्मों का क्षय कर इंद्र निर्वाण धाम को प्राप्त हुआ ।।109।।<span id="110" /> </p> | ||
<p>गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि राजन्! देखो, बड़े पुरुषों के चरित्र अतिशय शक्ति से संपन्न तथा आश्चर्य उत्पन्न करने वाले हैं। ये चिर काल तक भोगों का उपार्जन करते हैं और अंत में उत्तम सुख से युक्त निर्वाण पद को प्राप्त हो जाते हैं ।।110।। इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है कि बड़े पुरुष समस्त परिग्रह का संग छोड़कर ध्यान के बल से क्षण-भर में पापों का नाश कर देते हैं ।।111।। क्या बहुत काल से इकट्ठी को हुई ईंधन की बड़ी राशि को कण मात्र अग्नि क्षणभर में विशाल महिमा को प्राप्त हो भस्म नहीं कर देती? ।।112।। ऐसा जानकर हे भव्यजनों! यत्नमें तत्पर हो अंतःकरण को अत्यंत निर्मल करो। मृत्यु का दिन आने पर कोई भी पीछे नहीं हट सकते अर्थात् मृत्यु का अवसर आने पर सबको मरना पड़ता है। इसलिए सम्यग्ज्ञान रूपी सूर्य की प्राप्ति करो ।।113।। </p> | <p>गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि राजन्! देखो, बड़े पुरुषों के चरित्र अतिशय शक्ति से संपन्न तथा आश्चर्य उत्पन्न करने वाले हैं। ये चिर काल तक भोगों का उपार्जन करते हैं और अंत में उत्तम सुख से युक्त निर्वाण पद को प्राप्त हो जाते हैं ।।110।।<span id="111" /> इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है कि बड़े पुरुष समस्त परिग्रह का संग छोड़कर ध्यान के बल से क्षण-भर में पापों का नाश कर देते हैं ।।111।।<span id="112" /> क्या बहुत काल से इकट्ठी को हुई ईंधन की बड़ी राशि को कण मात्र अग्नि क्षणभर में विशाल महिमा को प्राप्त हो भस्म नहीं कर देती? ।।112।।<span id="113" /> ऐसा जानकर हे भव्यजनों! यत्नमें तत्पर हो अंतःकरण को अत्यंत निर्मल करो। मृत्यु का दिन आने पर कोई भी पीछे नहीं हट सकते अर्थात् मृत्यु का अवसर आने पर सबको मरना पड़ता है। इसलिए सम्यग्ज्ञान रूपी सूर्य की प्राप्ति करो ।।113।।<span id="13" /> </p> | ||
<p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में इंद्र के निर्वाण का कथन करने वाला तेरहवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।13।।</p> | <p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में इंद्र के निर्वाण का कथन करने वाला तेरहवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।13।।<span id="14" /></p> | ||
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Latest revision as of 21:50, 9 August 2023
अथानंतर स्वामी के दुःख से आकुल इंद्र के सामंत, सहस्रार को आगे कर रावण के महल में पहुँचे ।।1।। द्वारपाल के द्वारा समाचार देकर बड़ी विनय से सबने भीतर प्रवेश किया और सब प्रणाम कर दिये हुए आसनों पर यथायोग्य रीति से बैठ गये ।।2।। तदनंतर रावण ने सहस्रार की ओर बड़े गौरव से देखा। तब सहस्रार रावण से बोला कि तूने मेरे पुत्र इंद्र को जीत लिया है अब मेरे कहने से छोड़ दे ।।3।। तूने अपनी भुजाओं और पुण्य की उदार महिमा दिखलायी सो ठीक ही है क्योंकि राजा दूसरे के अहंकार को नष्ट करने की ही चेष्टा करते हैं ।।4।। सहस्रार के ऐसा कहने पर लोकपालों के मुख से भी यही शब्द निकला सो मानो उसके शब्द को प्रतिध्वनि ही निकली थी ।।5।। तदनंतर रावण ने हँसकर लोकपालों से कहा कि एक शर्त है उस शर्त से ही मैं इंद्र को छोड़ सकता हूँ ।।6।। वह शर्त यह है कि आज से लेकर तुम सब, मेरे नगर के भीतर और बाहर बुहारी देना आदि जो भी कार्य हैं, उन्हें करो ।।7।। अब आप सब प्रतिदिन ही यह नगरी धूलि, अशुचि पदार्थ, पत्थर, तृण तथा कंटक आदि से रहित करनी होगी ।।8।। तथा इंद्र भी घड़ा लेकर सुगंधित जल से पृथ्वी सींचे। लोक में इसका यही कर्म प्रसिद्ध है ।।9।। और सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित इनकी संभ्रांत देवियाँ पंच वर्ण के सुगंधित फूलों से नगरी को सजावें ।।10।। यदि आप लोग आदर के साथ इस शर्त से युक्त होकर रहना चाहते हैं तो इंद्र को अभी छोड़ देता हूँ। अन्यथा इसका छूटना कैसे हो सकता हैं ।।11।। इतना कह रावण लज्जा से झुके हुए लोकपालों की ओर देखता तथा आप्तजनों के हाथ को अपने हाथों से ताड़ित करता हुआ बार बार हंसने लगा ।।12।।
तदनंतर उसने विनयावनत होकर सहस्रार से कहा। उस समय रावण सभा के ह्रदय को हरने वाली अपनी मधुर वाणी से मानो अमृत ही झरा रहा था ।।13।। उसने कहा कि हे तात! जिस प्रकार आप इंद्र के पूज्य हैं उसी प्रकार मेरे भी पूज्य हैं, बल्कि उससे भी अधिक। इसलिए मैं आपकी आज्ञा का उल्लंघन कैसे कर सकता हूँ? ।।14।। यदि यथार्थ में आप जैसे गुरुजन न होते तो यह पृथिवी पर्वतों से छोड़ी गयी के समान रसातल को चली जाती ।।15।। चूंकि आप जैसे पूज्य पुरुष मुझे आज्ञा दे रहे हैं अत: मैं पुण्यवान् हूँ। यथार्थ में आप जैसे पुरुषों की आज्ञा के पात्र पुण्यहीन मनुष्य नहीं हो सकते ।।16।। इसलिए हे प्रभो! आज आप विचारकर ऐसा उत्तम कार्य कीजिए जिससे इंद्र और मुझमें सौहार्द्य उत्पन्न हो जाये। इंद्र सुख से रहे और मैं भी सुख से रह सकूँ ।।17।। यह बलवान् इंद्र मेरा चौथा भाई है, इसे पाकर मैं पृथ्वी को निष्कंटक कर दूँगा ।।18।। इसके लोकपाल पहले की तरह ही रहें तथा इसका राज्य भी पहले की तरह ही रहे अथवा उससे भी अधिक ले ले। हम दोनों में भेद की आवश्यकता ही क्या है? ।।19।। आप जिस प्रकार इंद्र की आज्ञा देते हैं उसी प्रकार मुझमें करने योग्य कार्य की आज्ञा देते रहें क्योंकि गुरुजनों की आज्ञा ही शेषाक्षत की तरह रक्षा एवं शोभा को करने वाली है ।।2।। आप अपने अभिप्राय के अनुसार यहाँ रहें अथवा रथनूपुर नगर में रहें अथवा जहाँ इच्छा हो वहाँ रहें। हम दोनों आप के सेवक हैं हमारी भूमि ही कौन है? ।।21।। इस प्रकार के प्रियवचनरूपी जल से जिसका मन भीग रहा था ऐसा सहस्रार रावण से भी अधिक मधुर वचन बोला ।।22।। उसने कहा कि हे भद्र! आप जैसे सज्जनों की उत्पत्ति समस्त लोगों को आनंदित करने वाले गुणों के साथ ही होती है ।।23।। हे आयुष्मत्! तुम्हारी यह उत्तम विनय इस संसार में प्रशंसा को प्राप्त है तथा तुम्हारी इस शूरवीरता के आभूषण के समान है ।।24।। आपके दर्शन ने मेरे इस जन्म को सार्थक कर दिया। वे माता-पिता धन्य हैं जिन्हें तूने अपनी उत्पत्ति में कारण बनाया है ।।25।। जो समर्थ होकर भी क्षमावान है तथा जिसकी कीर्ति कुंद के फूल के समान निर्मल है ऐसे तूने दोषों के उत्पन्न होने की आशंका दूर हटा दी है ।।26।। तू जैसा कह रहा है वह ऐसा ही है। तुझ में सर्व कार्य संभव हैं। दिग्गजों की सूंड़ के समान स्थूल तेरी भुजाएँ क्या नहीं कर सकती हैं ।।27।। किंतु जिस प्रकार माता नहीं छोड़ी जा सकती उसी प्रकार जन्मभूमि भी नहीं छोड़ी जा सकती क्योंकि वह क्षण-भर के वियोग से चित्त को आकुल करने लगती है ।।28।। हम अपनी भूमि को छोड़ने के लिए असमर्थ है क्योंकि वहाँ हमारे मित्र तथा भाई-बांधव चातक की तरह उत्कंठा से युक्त हो मार्ग देखते हुए स्थित होंगे ।।29।। हे गुणालय! आप भी तो अपनी कुल परंपरा से चली आयी लंका की सेवा करते हुए परम प्रीति को प्राप्त हो रहे हैं सो बात ही ऐसी है जन्मभूमि के विषय में क्या कहा जाये? ।।30।। हम जहाँ महाभोगों की उत्पत्ति होती है अपनी उसी भूमि को जाते हैं। हे देवों के प्रिय! तुम चिरकाल तक संसार की रक्षा करो ।।31।।
इतना कहकर सहस्रार इंद्र नामा पुत्र तथा लोकपालों के साथ विजयार्ध पर्वत पर चला गया। रावण भेजने के लिए कुछ दूर तक उसके साथ गया ।।32।। सब लोकपाल पहले की तरह ही अपने अपने स्थानों पर रहने लगे परंतु पराजय के कारण नि:सार हो गये और चलते-फिरते यंत्र के समान जान पड़ने लगे ।।33।। बहुत भारी लज्जा से भरे देव लोगों की ओर जब विजयार्धवासी लोग देखते थे तब वे यह नहीं जान पाते थे कि हम कहां जा रहे हैं? इस तरह देव लोग सदा भोगों से उदास रहते थे ।।34।। इंद्र भी न नगर में, न बाग-बगीचों में और न कमलों की पराग से पीले जल वाली वापिकाओं में ही प्रीति को प्राप्त होता था अर्थात् पराजय के कारण उसे कहीं अच्छा नहीं लगता था ।।35।। अब वह स्त्रियों पर भी अपनी सरल दृष्टि नहीं डालता था फिर शरीर की तो गिनती ही क्या थी और उसका चित्त सदा लज्जा से भरा रहता था ।।36।। यद्यपि लोग अन्यान्य कथाओं के प्रसंग छोड़कर उसके पराजय संबंधी दुःख को भुला देने के लिए सदा अनुकूल चेष्टा करते थे तो भी उसका चित्त स्वस्थ नहीं होता था ।।37।।
अथानंतर एक दिन इंद्र, अपने महल को भीतर विद्यमान, एक खंभे के अग्रभाग पर स्थित, गंधमादन पर्वत के शिखर के समान सुशोभित जिनालय में बैठा था ।।38।। विद्वान् लोग उसे घेरकर बैठे थे। वह निरंतर पराजय का स्मरण करता हुआ शरीर को निरादर भाव से धारण कर रहा था। बैठे-बैठे ही उसने इस प्रकार विचार किया कि ।।39।। विद्याओं से संबंध रखनेवाले इस ऐश्वर्य को धिक्कार है जो कि शरद् ऋतु के बादलों के अत्यंत उन्नत समूह के समान क्षण-भर में विलीन हो गया ।।40।। वे शस्त्र, वे हाथी, वे योद्धा और वे घोड़े जो कि पहले मुझे आश्चर्य उत्पन्न करते थे आज सब के सब तृण के समान तुच्छ जान पड़ते हैं ।।41।। अथवा कर्मों की इस विचित्रता को अन्यथा करने के लिये कौन मनुष्य समर्थ है? यथार्थ में अन्य सब पदार्थ कर्मों के बल से ही बल धारण करते हैं ।।42।। निश्चय ही मेरा पूर्व संचित पुण्यकर्म जो कि नाना भोगों की प्राप्ति कराने में समर्थ है परिक्षीण हो चुका है इसलिए तो यह अवस्था हो रही है ।।43।। शत्रु के संकट से भरे युद्ध में यदि मर ही जाता तो अच्छा होता क्योंकि उससे समस्त लोक में फैलने वाली अपकीर्ति तो उत्पन्न नहीं होती ।।44।। जिसने शत्रुओं के सिर पर पैर रखकर जीवन विताया वह मैं अब शत्रु द्वारा अनुम लक्ष्मी का कैसे उपभोग करूँ? ।।45।। इसलिए अब मैं संसार संबंधी सुख की अभिलाषा छोड़ मोक्ष पद की प्राप्ति के जो कारण है उन्हीं की उपासना करता हूँ ।।46।। शत्रु के वेश को धारण करने वाला रावण मेरा महाबंधु बनकर आया था जिसने कि इस असार सुख के स्वाद में लीन मुझ को जागृत कर दिया ।।47।।
इसी बीच में गुणी मनुष्यों के योग्य स्थानों में विहार करते हुए निर्वाण संगम नामा चारण रिद्धिधारी मुनि वहाँ आकाश मार्ग से जा रहे थे ।।48।। सो चलते चलते उनकी गति सहसा रुक गई। तदनंतर उन्होंने जब नीचे दृष्टि डाली तो मंदिर के दर्शन हुए ।।49।। प्रत्यक्ष ज्ञान के धारी महामुनि मंदिर में विराजमान जिन प्रतिमा की वंदना करने के लिए शीघ्र ही आकाश से नीचे उतरे ।।50।। राजा इंद्र ने बड़े संतोष से उठकर जिनकी पूजा की थी, ऐसे उन मुनिराज विधिपूर्वक जिन प्रतिमाओं को नमस्कार किया ।।51।। तदनंतर जब मुनिराज जिनेंद्र देव की वंदना कर चुप बैठ गए तब इंद्र उनके चरणों को नमस्कार सामने बैठ गया और अपनी निंदा करने लगा ।।52।। मुनिराज ने समस्त संसार के वृतांत का अनुभव कराने में अतिशय निपुण उत्कृष्ट वचनों से उसे संतोष प्राप्त कराया ।।53।।
अथानांतर इंद्र ने मुनिराज से अपना पूर्व भव पूछा सो गुणों के समूह से विभूषित मुनिराज उसके इस लिए इस प्रकार पूर्व भव कहने लगे ।।54।। हे राजन! चतुर्गति संबंधी अनेक योनियों के दुःखरूपी महावनमें भ्रमण करता हुआ एक जीव शिखापद नामा नगर में मनुष्य गति को प्राप्त हो दरिद्र कुलमें उत्पन्न हुआ। वहाँ स्त्री पर्याय से युक्त हो वह जीव 'कुलवांता' इस सार्थक नामको धारण करनेवाला हुआ ।।55-56।। कुलवांता के नेत्र सदा कीचरसे युक्त रहते थे, उसकी नाक चपटी थी और उसका शरीर सैकड़ों बीमारियों से युक्त था। इतना होनेपर भी उसके भोजन का ठिकाना नहीं था। वह कर्मोदय के कारण जिस किसी तरह लोगों का जूठन खाकर जीवित रहती थी ।।57।। उसके वस्त्र अत्यंत मलिन थे, दौर्भाग्य उसका पीछा कर रहा था, सारा शरीर अत्यंत रूक्ष था, हाथ-पैर आदि अंग फटे हुए थे और खोटे केश बिखरे हुए थे। वह जहाँ जाती थी वहीं लोग उसे तंग करते थे। इस तरह वह कहीं भी सुख नहीं प्राप्त कर सकती थी ।।58।। अंत समय शुभमति हो उसने एक मुहूर्त के लिए अन्न का त्याग कर अनशन धारण किया जिससे शरीर त्याग कर किंपुरुषनामा देव की क्षीरधारा नामकी स्त्री हुई ।।59।। वहाँ से च्युत होकर रत्नपुर नगर में धरणी और गोमुख नामा दंपतीके सहस्रभाग नामक पुत्र हुआ ।।60।। वहाँ उत्कृष्ट सम्यग्दर्शन प्राप्त कर अणुव्रतों का धारी हुआ और अंत में मरकर शुक्र नामा स्वर्ग में उत्तम देव हुआ ।।61।। वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्रके रत्नसंचयनामा नगरमें मणिनामक मंत्री की गुणावली नामक स्त्रीसे सामंतवर्धन नामक पुत्र हुआ ।।62।। सामंतवर्धन अपने राजाके साथ विरक्त हो महाव्रत का धारक हुआ। वहाँ उसने अत्यंत कठिन तपश्चरण किया, तत्त्वार्थके चिंतन में निरंतर मन लगाया, अच्छी तरह परीषह सहन किये, निर्मल सम्यग्दर्शन प्राप्त किया और कषायोंपर विजय प्राप्त की। अंत समय मरकर वह ग्रैवेयक गया सो अहमिद्र होकर चिरकाल तक वहाँ के सुख भोगता रहा। अंत समय में वहाँ से च्युत हो रथनूपुर नगरमें सहस्रार नामक विद्याधर की हृदयसुंदरी रानीसे इंद्र नामको धारण करनेवाला तू विद्याधरों का राजा हुआ है। पूर्वं अभ्यास के कारण ही तेरा मन इंद्र के सुखमें लीन रहा है ।।63-66।। सो हे इंद्र! ‘मैं विद्याओं से युक्त होता हुआ भी शत्रु से हार गया हूँ’, इस प्रकार अपने आपके विषयमें अनादर को धारण करता हुआ तू विषाद युक्त हो व्यर्थं ही क्यों संताप कर रहा है ।।67।। अरे निर्बुद्धि! तू कोदों बोकर धान की व्यर्थ ही इच्छा करता है। प्राणियों को सदा कर्मों के अनुकूल ही फल प्राप्त होता है ।।68।। तुम्हारे भोगोपभोग का साधन जो पूर्वोपार्जित कर्म था वह अब क्षीण हो गया है सो कारणके बिना कार्य नहीं होता है इसमें आश्चर्य ही क्या है? ।।69।। तेरे इस पराभव में रावण तो निमित्त मात्र है। तूने इसी जन्म में कर्म किये हैं उन्हीं से यह पराभव प्राप्त हुआ है ।।70।। तूने पहले क्रीड़ा करते समय जो अन्याय किया है उसका स्मरण क्यों नहीं करता है ? ऐश्वर्य से उत्पन्न हुआ तेरा मद चूंकि अब नष्ट हो चुका है इसलिए अब तो पिछली बात का स्मरण कर ।।71।। जान पड़ता है कि बहुत समय हो जाने के कारण वह वृत्तांत स्वयं तेरी बुद्धिमें नहीं आ रहा है इसलिए एकाग्रचित्त होकर सुन, मैं कहता हूँ ।।72।।
अरिंजयपुर नगरमें वह्निवेग नामा विद्याधर राजा था सो उसने वेगवती रानी से उत्पन्न आहल्या नामक पुत्री का स्वयंवर रचा था ।।73।। उत्सुकता से भरे तथा यथायोग्य वैभव से शोभित समस्त विद्याधर दक्षिण श्रेणी छोड़-छोड़कर उस स्वयंवर में आये थे ।।74।। उत्कृष्ट संपदा से युक्त होकर आप भी वहाँ गये थे तथा चंद्रावर्त नगरका राजा आनंदमाल भी वहां आया था ।।75।। सर्वांग सुंदरी कन्या ने पूर्व कर्म के प्रभाव से समस्त विद्याधरों को छोड़कर आनंदमाल को वरा ।।76।। सो आनंदमाल उसे विवाह कर इच्छा करते ही प्राप्त होने वाले भोगों का उस तरह उपभोग करने लगा जिस तरह कि इंद्र स्वर्ग में प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होने वाले भोगों का उपभोग करता है ।।77।। ईर्ष्या जन्य बहुत भारी क्रोध के कारण तू उसी समय से उसके साथ अत्यधिक शत्रुता करने लगा ।।78।। तदनंतर कर्मों की अनुकूलता के कारण आनंदमाल को सहसा यह बुद्धि उत्पन्न हुई कि यह शरीर अनित्य है अतः इससे मुझे कुछ प्रयोजन नहीं है ।।79।। मैं तो तप करता हूँ जिससे संसार संबंधी दुःखका नाश होगा| धोखा देने वाले भोगों में क्या आशा रखना है? ।।80।। प्रबोध को प्राप्त हुई अंतरात्मा से ऐसा विचारकर उसने सर्व परिग्रह का त्यागकर उत्कृष्ट तप धारण कर लिया ।।81।।
एक दिन हंसावली नदी के किनारे रथावर्त नामा पर्वतपर वह प्रतिमा योगसे विराजमान था सो तूने पहचान लिया ।।82।। दर्शनरूपी ईंधनसे जिसकी पिछली क्रोधाग्नि भड़क उठी थी ऐसे तूने क्रीड़ा करते हुए अहंकार वश उसकी बार-बार हँसी की थी ।।83।। तू कह रहा था कि अरे! तू तो कामभोग का अतिशय प्रेमी आहल्या का पति है, इस समय यहाँ इस तरह क्यों बैठा है? ।।84।। ऐसा कहकर तूने उन्हें रस्सियों से कसकर लपेट लिया फिर भी उनका शरीर पर्वत के समान निष्कंप बना रहा और उनका मन तत्त्वार्थ की चिंतना में लीन होने से स्थिर रहा आया ।।85।। इस प्रकार आनंदमाल मुनि तो निर्विकार रहे पर उन्हीं के समीप कल्याण नामक दूसरे मुनि बैठे थे जो कि उनके भाई थे। तेरे द्वारा उन्हें अनादृत होता देख क्रोध से दुःखी हो गये ।।86।। वे मुनि ऋद्धिधारी थे तथा प्रतिमा योग से विराजमान थे सो तेरे कुकृत्य से दुःखी होकर उन्होंने प्रतिमा योग का संकोच कर तथा लंबी और गरम श्वास भरकर तेरे लिए इस प्रकार शाप दी ।।87।। कि चूँकि तूने इन निरपराध मुनिराजका तिरस्कार किया है इसलिए तू भी बहुत भारी तिरस्कार को प्राप्त होगा ।।88।। वे मुनि अपनी अपरिमित श्वास से तुझे भस्म ही कर देना चाहते थे पर तेरी सर्वश्री नामक स्त्री ने उन्हें शांत कर लिया ।।89।। वह सर्वश्री सम्यग्दर्शन से युक्त तथा मुनिजनों की पूजा करने वाली थी इसलिए उत्तम हृदयके धारक मुनि भी उसकी बात मानते थे ।।90।। यदि वह साध्वी उन मुनिराज को शांत नहीं करती तो उनकी क्रोधाग्नि को कौन रोक सकता था? ।।91।। तीनों लोकों में वह कार्य नहीं है जो तप से सिद्ध नहीं होता हो। यथार्थ में तप का बल सब बलों के शिर पर स्थित है अर्थात् सबसे श्रेष्ठ है ।।92।। इच्छानुकूल कार्य करनेवाले तपस्वी साधु की जैसी शक्ति, कांति, द्युति, अथवा घृति होती है वैसी इंद्र को भी संभव नहीं है ।।93।। जो मनुष्य साधु जनों का तिरस्कार करते हैं वे तिर्यंच गति और नरक गति में महान् दुःख पाते हैं ।।94।। जो मनुष्य मन से भी साधु जनों का पराभव करता है वह पराभव उसे परलोक तथा इस लोक में परम दुःख देता है ।।95।। जो दुष्ट चित्त का धारी मनुष्य निर्ग्रंथ मुनि को गाली देता है अथवा मारता है, उस पापी मनुष्य के विषय में क्या कहा जाय? ।।96।। मनुष्य मन वचन काय से जो कर्म करते हैं वे छूटते नहीं हैं और प्राणियों को अवश्य ही फल देते हैं ।।97।। इस प्रकार कर्मोके पुण्य पाप रूप फल का विचार कर अपनी बुद्धि धर्म में धारण करो और अपने आपको दुःखों से बचाओ ।।98।। इस प्रकार मुनिराज के कहने पर इंद्र को अपने पूर्व जन्मों का स्मरण हो आया। उन्हें स्मरण करता हुआ वह आश्चर्य को प्राप्त हुआ।
तदनंतर बहुत भारी आदर से भरे इंद्र ने निग्रंथ मुनिराज को नमस्कार कर कहा कि ।।99।। हे भगवन्! आपके प्रसाद से मुझे उत्कृष्ट रत्नत्रय की प्राप्ति हुई है इसलिए मैं मानता हूँ कि अब मेरे समस्त पाप मानो क्षण भर में ही छूट जानेवाले हैं ।।100।। जो बोधि अनेक जन्मों में भी प्राप्त नहीं हुई वह साधु समागम से प्राप्त हो जाती है इसलिए कहना पड़ता है कि साधु समागम से संसार में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती ।।101।। इतना कहकर निर्वाण संगम मुनिराज तो उधर इंद्र के द्वारा वंदित हो यथेच्छ स्थान पर चले गये, इधर इंद्र भी गृहवास से अत्यंत निर्वेद को प्राप्त हो गया ।।102।। उसने जान लिया कि रावण पुण्य कर्म के उदय से परम अभ्युदय को प्राप्त हुआ है। उसने महापर्वत के तट पर विद्यमान वीर्यदंष्ट्रकी बार-बार स्तुति की ।।103।।
मनुष्य पर्याय को जल के बबूला के समान निःसार जानकर उसने धर्म में अपनी बुद्धि निश्चल की। अपने पाप कार्यों की बार-बार निंदा की ।।104।। इस प्रकार महापुरुष इंद्रने रथनुपुर नगर में पुत्र के लिए राज्य-संपदा सौंपकर अन्य अनेक पुत्रों तथा लोकपालों के समूह के साथ समस्त कर्मों को करने वाली जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। उस समय उसका मन अत्यंत विशुद्ध था तथा समस्त परिग्रहका उसने त्याग कर दिया था ।।105-106।। यद्यपि उसका शरीर इंद्र के समान लोकोत्तर भोगों से लालित हुआ था तो भी उसने अन्य जन जिसे धारण करने में असमर्थ थे ऐसा तप का भार धारण किया था ।।107।। प्रायः करके महापुरुषों की रुद्र कार्यों में जैसी अद्भुत शक्ति होती है वैसी ही शक्ति विशुद्ध कार्यों में भी उत्पन्न हो जाती है ।।108।। तदनंतर दीर्घ काल तक तप कर शुक्ल ध्यान के प्रभाव से कर्मों का क्षय कर इंद्र निर्वाण धाम को प्राप्त हुआ ।।109।।
गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि राजन्! देखो, बड़े पुरुषों के चरित्र अतिशय शक्ति से संपन्न तथा आश्चर्य उत्पन्न करने वाले हैं। ये चिर काल तक भोगों का उपार्जन करते हैं और अंत में उत्तम सुख से युक्त निर्वाण पद को प्राप्त हो जाते हैं ।।110।। इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है कि बड़े पुरुष समस्त परिग्रह का संग छोड़कर ध्यान के बल से क्षण-भर में पापों का नाश कर देते हैं ।।111।। क्या बहुत काल से इकट्ठी को हुई ईंधन की बड़ी राशि को कण मात्र अग्नि क्षणभर में विशाल महिमा को प्राप्त हो भस्म नहीं कर देती? ।।112।। ऐसा जानकर हे भव्यजनों! यत्नमें तत्पर हो अंतःकरण को अत्यंत निर्मल करो। मृत्यु का दिन आने पर कोई भी पीछे नहीं हट सकते अर्थात् मृत्यु का अवसर आने पर सबको मरना पड़ता है। इसलिए सम्यग्ज्ञान रूपी सूर्य की प्राप्ति करो ।।113।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में इंद्र के निर्वाण का कथन करने वाला तेरहवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।13।।