पद्मपुराण - पर्व 18: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं मगध देश के मंडन स्वरूप श्रेणिक! यह तो मैंने तुम्हारे लिए महात्मा श्री शैल के जन्म का वृत्तांत कहा। अब पवनंजय का वृत्तांत सुनो ।।1।। पवनंजय वायु के समान शीघ्र ही रावण के पास गया और उसकी आज्ञा पाकर नाना शस्त्रों से व्याप्त युद्ध क्षेत्र में वरुण के साथ युद्ध करने लगा ।।2।। चिरकाल तक युद्ध करने के बाद वरुण खेद खिन्न हो गया सो पवनंजय ने उसे पकड़ लिया। खर-दूषण को वरुण ने पहले पकड़ रखा था सो उसे छुड़ाया और वरुण को रावण के समीप ले जाकर तथा संधि कराकर उसका आज्ञाकारी किया। रावण ने पवनंजय का बड़ा सम्मान किया ।।3-4।। तदनंतर रावण की आज्ञा लेकर हृदय में कांता को धारण करता हुआ पवनंजय महासामंतों के साथ शीघ्र ही अपने नगर में वापस आ गया ।।5।। उत्तमोत्तम मंगल द्रव्यों को धारण करने वाले नगरवासी जनों ने जिसकी अगवानी की थी ऐसा पवनंजय देदीप्यमान ध्वजाओं, तोरणों तथा मालाओं से अलंकृत नगर में प्रविष्ट हुआ ।।6।। तदनंतर अपना प्रारंभ किया हुआ कर्म छोड़ झरोखों में आकर खड़ी हुई नगरवासिनी स्त्रियो के समूह जिसे बड़े हर्ष से देख रहे थे ऐसा पवनंजय अपने महल की ओर चला ।।7।। तत्पश्चात् जिसका अर्थ आदि के द्वारा सम्मान किया गया था और आत्मीयजनों ने मंगलमय वचनों से जिसका अभिनंदन किया था ऐसे पवनंजय ने महल में प्रवेश किया ।।8।। वहाँ जाकर इसने गुरुजनों को नमस्कार किया और अन्य जनों ने इसे नमस्कार किया। फिर कुशल वार्ता करता हुआ क्षणभर के लिए सभामंडप में बैठा ।।9।।</p> | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं मगध देश के मंडन स्वरूप श्रेणिक! यह तो मैंने तुम्हारे लिए महात्मा श्री शैल के जन्म का वृत्तांत कहा। अब पवनंजय का वृत्तांत सुनो ।।1।।<span id="2" /> पवनंजय वायु के समान शीघ्र ही रावण के पास गया और उसकी आज्ञा पाकर नाना शस्त्रों से व्याप्त युद्ध क्षेत्र में वरुण के साथ युद्ध करने लगा ।।2।।<span id="3" /><span id="4" /> चिरकाल तक युद्ध करने के बाद वरुण खेद खिन्न हो गया सो पवनंजय ने उसे पकड़ लिया। खर-दूषण को वरुण ने पहले पकड़ रखा था सो उसे छुड़ाया और वरुण को रावण के समीप ले जाकर तथा संधि कराकर उसका आज्ञाकारी किया। रावण ने पवनंजय का बड़ा सम्मान किया ।।3-4।।<span id="5" /> तदनंतर रावण की आज्ञा लेकर हृदय में कांता को धारण करता हुआ पवनंजय महासामंतों के साथ शीघ्र ही अपने नगर में वापस आ गया ।।5।।<span id="6" /> उत्तमोत्तम मंगल द्रव्यों को धारण करने वाले नगरवासी जनों ने जिसकी अगवानी की थी ऐसा पवनंजय देदीप्यमान ध्वजाओं, तोरणों तथा मालाओं से अलंकृत नगर में प्रविष्ट हुआ ।।6।।<span id="7" /> तदनंतर अपना प्रारंभ किया हुआ कर्म छोड़ झरोखों में आकर खड़ी हुई नगरवासिनी स्त्रियो के समूह जिसे बड़े हर्ष से देख रहे थे ऐसा पवनंजय अपने महल की ओर चला ।।7।।<span id="8" /> तत्पश्चात् जिसका अर्थ आदि के द्वारा सम्मान किया गया था और आत्मीयजनों ने मंगलमय वचनों से जिसका अभिनंदन किया था ऐसे पवनंजय ने महल में प्रवेश किया ।।8।।<span id="9" /> वहाँ जाकर इसने गुरुजनों को नमस्कार किया और अन्य जनों ने इसे नमस्कार किया। फिर कुशल वार्ता करता हुआ क्षणभर के लिए सभामंडप में बैठा ।।9।।<span id="10" /></p> | ||
<p>तदनंतर उत्कंठित होता हुआ अंजना के महल में चढ़ा। उस समय वह पहले की भावना से युक्त था और अकेला प्रहसित मित्र ही उस के साथ था ।।10।। वहाँ जाकर जब उसने महल को प्राण-वल्लभा से रहित देखा तो उसका मन क्षण एक में ही निर्जीव शरीर की तरह नीचे गिर गया ।।11।। उसने प्रहसित से कहा कि मित्र! यह क्या है? यहाँ कमल-नयना अंजना सुंदरी नहीं दिख रही है ।।12।। उसके बिना यह घर मुझे वन अथवा आकाश के समान जान पड़ता है। अत: शीघ्र ही उसका समाचार मालूम किया जाये ।।13।। तदनंतर आप्त वर्ग से सब समाचार जानकर प्रहसित ने हृदय को क्षुभित करनेवाला सब समाचार ज्यों का त्यों पवनंजय को सुना दिया ।।14।। उसे सुन, पवनंजय आत्मीयजनों को छोड़ उसी क्षण मित्र के साथ उत्कंठित होता हुआ महेंद्रनगर जाने के लिए उद्यत हुआ ।।15।। महेंद्रनगर के निकट पहुँचकर पवनंजय, प्रिया को गोद में आयी समझ हर्षित होता हुआ मित्र से बोला कि हे मित्र! देखो, इस नगर की सुंदरता देखो जहाँ सुंदर विभ्रमों को धारण करने वाली प्रिया विद्यमान है ।।16-17।। और जहाँ वर्षाऋतु के मेघों के समान कांति के धारक उद्यान के वृक्षों से घिरी महलों की पंक्तियाँ कैलास पर्वत के शिखरों के समान जान पड़ती है ।।18।। इस प्रकार कहता और अभिन्न चित्त के धारक मित्र के साथ वार्तालाप करता हुआ वह महेंद्रनगर में पहुँचा ।।19।।</p> | <p>तदनंतर उत्कंठित होता हुआ अंजना के महल में चढ़ा। उस समय वह पहले की भावना से युक्त था और अकेला प्रहसित मित्र ही उस के साथ था ।।10।।<span id="11" /> वहाँ जाकर जब उसने महल को प्राण-वल्लभा से रहित देखा तो उसका मन क्षण एक में ही निर्जीव शरीर की तरह नीचे गिर गया ।।11।।<span id="12" /> उसने प्रहसित से कहा कि मित्र! यह क्या है? यहाँ कमल-नयना अंजना सुंदरी नहीं दिख रही है ।।12।।<span id="13" /> उसके बिना यह घर मुझे वन अथवा आकाश के समान जान पड़ता है। अत: शीघ्र ही उसका समाचार मालूम किया जाये ।।13।।<span id="14" /> तदनंतर आप्त वर्ग से सब समाचार जानकर प्रहसित ने हृदय को क्षुभित करनेवाला सब समाचार ज्यों का त्यों पवनंजय को सुना दिया ।।14।।<span id="15" /> उसे सुन, पवनंजय आत्मीयजनों को छोड़ उसी क्षण मित्र के साथ उत्कंठित होता हुआ महेंद्रनगर जाने के लिए उद्यत हुआ ।।15।।<span id="16" /><span id="17" /> महेंद्रनगर के निकट पहुँचकर पवनंजय, प्रिया को गोद में आयी समझ हर्षित होता हुआ मित्र से बोला कि हे मित्र! देखो, इस नगर की सुंदरता देखो जहाँ सुंदर विभ्रमों को धारण करने वाली प्रिया विद्यमान है ।।16-17।।<span id="18" /> और जहाँ वर्षाऋतु के मेघों के समान कांति के धारक उद्यान के वृक्षों से घिरी महलों की पंक्तियाँ कैलास पर्वत के शिखरों के समान जान पड़ती है ।।18।।<span id="19" /> इस प्रकार कहता और अभिन्न चित्त के धारक मित्र के साथ वार्तालाप करता हुआ वह महेंद्रनगर में पहुँचा ।।19।।<span id="20" /></p> | ||
<p>तदनंतर लोगों के समूह से पवनंजय को आया सुन इसका श्वसुर अर्घादि की भेंट लेकर आया ।।20।। आगे चलते हुए श्वसुर ने प्रेमपूर्ण मन से उसे अपने स्थान में प्रविष्ट किया और नगरवासी लोगों ने उसे बड़े आदर से देखा ।।21।। प्रिया के दर्शन की लालसा से इसने श्वसुर के घर में प्रवेश किया। वहाँ यह परस्पर वार्तालाप करता हुआ मुहूर्त भर बैठा ।।22।। परंतु वहाँ भी जब इसने कांता को नहीं देखा तब विरह से आतुर होकर इसने महल के भीतर रहने वाली किसी बालिका से पूछा कि हे बाले! क्या तू जानती है कि यहाँ मेरी प्रिया अंजना है? बालिका ने यही दुःख दायी उत्तर दिया कि यहाँ तुम्हारी प्रिया नहीं है ।।23-24।। तदनंतर इस उत्तर से पवनंजय का हृदय मानो वज्र से ही चूर्ण हो गया, कान तपाये हुए खारे पानी से मानो भर गये और वह स्वयं निर्जीव की भाँति निश्चल रह गया। शोक रूपी तुषार के संपर्क से उसका मुखकमल कांतिरहित हो गया ।।25-26।। </p> | <p>तदनंतर लोगों के समूह से पवनंजय को आया सुन इसका श्वसुर अर्घादि की भेंट लेकर आया ।।20।।<span id="21" /> आगे चलते हुए श्वसुर ने प्रेमपूर्ण मन से उसे अपने स्थान में प्रविष्ट किया और नगरवासी लोगों ने उसे बड़े आदर से देखा ।।21।।<span id="22" /> प्रिया के दर्शन की लालसा से इसने श्वसुर के घर में प्रवेश किया। वहाँ यह परस्पर वार्तालाप करता हुआ मुहूर्त भर बैठा ।।22।।<span id="23" /><span id="24" /> परंतु वहाँ भी जब इसने कांता को नहीं देखा तब विरह से आतुर होकर इसने महल के भीतर रहने वाली किसी बालिका से पूछा कि हे बाले! क्या तू जानती है कि यहाँ मेरी प्रिया अंजना है? बालिका ने यही दुःख दायी उत्तर दिया कि यहाँ तुम्हारी प्रिया नहीं है ।।23-24।।<span id="25" /><span id="26" /> तदनंतर इस उत्तर से पवनंजय का हृदय मानो वज्र से ही चूर्ण हो गया, कान तपाये हुए खारे पानी से मानो भर गये और वह स्वयं निर्जीव की भाँति निश्चल रह गया। शोक रूपी तुषार के संपर्क से उसका मुखकमल कांतिरहित हो गया ।।25-26।।<span id="27" /> </p> | ||
<p>तदनंतर वह किसी छल से श्वसुर के नगर से निकलकर अपनी प्रिया का समाचार जानने के लिए पृथिवी में भ्रमण करने लगा ।।27।। | <p>तदनंतर वह किसी छल से श्वसुर के नगर से निकलकर अपनी प्रिया का समाचार जानने के लिए पृथिवी में भ्रमण करने लगा ।।27।।<span id="28" /><span id="29" /> इधर जब प्रहसित मित्र को मालूम हुआ कि पवनंजय मानो वायु की बीमारी से ही दुःखी हो रहा है तब उसके दुःख से अत्यंत दुःखी होते हुए उसने सांतवना के साथ कहा कि हे मित्र! खिन्न क्यों होते हो? चित्त को निराकुल करो। तुम्हें शीघ्र ही प्रिया दिखलाई देगी अथवा यह पृथिवी है ही कितनी-सी? ।।28-29।।<span id="30" /> पवनंजय ने कहा कि है मित्र! तुम शीघ्र ही सूर्यपुर जाओ और वहाँ गुरुजनों को मेरा यह समाचार बतला दो ।।30।।<span id="31" /> मैं पृथिवी की अनन्य सुंदरी प्रिया को प्राप्त किये बिना अपना जीवन नहीं मानता इसलिए उसे खोजने के लिए समस्त पृथिवी में भ्रमण करूँगा ।।31।।<span id="32" /> यह कहने पर प्रहसित बड़े दुःख से किसी तरह पवनंजय को छोड़कर दीन होता हुआ सूर्यपुर की ओर गया ।।32।।<span id="33" /><span id="34" /> इधर पवनंजय भी अंबरगोचर हाथी पर सवार होकर समस्त पृथिवी में विचरण करता हुआ ऐसा विचार करने लगा कि जिसका कमल के समान कोमल शरीर शोक रूपी आताप से मुरझा गया होगा ऐसी मेरी प्रिया हृदय से मुझे धारण करती हुई कहाँ गयी होगी? ।।33-34।।<span id="35" /> जो विधुरता रूपी अटवी के मध्य में स्थित थी, विरहाग्नि से जल रही थी और निरंतर भयभीत रहती थी ऐसी वह बेचारी किस दिशा में गयी होगी? ।।35।।<span id="36" /> वह सती थी, सरलता से सहित थी तथा गर्भ का भार धारण करने वाली थी। ऐसा न हुआ हो कि वसंतमाला ने उसे महावन में अकेली छोड़ दी हो ।।36।।<span id="37" /> जिसके नेत्र शोक से अंधे हो रहे होंगे ऐसी वह प्रिया विषम मार्ग में जाती हुई कदाचित् किसी पुराने कुएँ में गिर गयी हो अथवा किसी भूखे अजगर के मुँह में जा पड़ी हो ।।37।।<span id="38" /> अथवा गर्भ के भार से क्लेशित तो थी ही जंगली जानवरों का भयंकर शब्द सुन भयभीत हो उसने प्राण छोड़ दिये हों ।।38।।<span id="39" /> अथवा विंध्याचल के निर्जल वन में प्यास से पीड़ित होने के कारण जिसके तालु और कंठ सूख रहे होंगे ऐसी मेरी प्राण तुल्य प्रिया प्राण रहित हो गयी होगी ।।39।।<span id="40" /> अथवा वह बड़ी भोली थी कदाचित् अनेक मगरमच्छों से भरी गंगा में उतरी हो और तीव्र वेग वाला पानी उसे बहा ले गया हो ।।40।।<span id="41" /> अथवा डाभ की अनियों से विदीर्ण हुए जिसके पैरों से रुधिर बह रहा होगा ऐसी प्रिया एक डग भी चलने के लिए असमर्थ हो मर गयी होगी ।।41।।<span id="42" /> अथवा कोई आकाशगामी दुष्ट विद्याधर हर ले गया हो। बड़े खेद की बात है कि कोई मेरे लिए उसका समाचार भी नहीं बतलाता ।।42।।<span id="43" /> अथवा दुःख के कारण गर्भ-भ्रष्ट हो आर्यिकाओं के स्थान में चली गयी हो? धर्मानुगामिनी तो वह थी ही ।।43।।<span id="44" /> इस प्रकार विचार करते हुए बुद्धि-विह्वल पवनंजय ने पृथिवी में विहारकर जब समस्त इंद्रियों और मन को हरने वाली प्रिया को नहीं देखा ।।44।।<span id="45" /> तब विरह से जलते हुए उसने समस्त संसार को सूना देख चित्त में मरने का दृढ़ निश्चय किया ।।45।।<span id="46" /> अंजना ही पवनंजय की सर्वस्वभूत थी अतः उसके बिना उसे न पर्वतों में आनंद आता था, न वृक्षों में और न मनोहर नदियों में ही ।।46।।<span id="47" /> योंही पवनंजय ने उसका समाचार जानने के लिए वृक्षों से भी पूछा सो ठीक ही है क्योंकि दुःखी जन विवेक से रहित हो ही जाते हैं ।।47।।<span id="48" /></p> | ||
<p>अथानंतर भूतरव नामक वन में जाकर वह हाथी से उतरा और प्रिया का ध्यान करता हुआ क्षण भर के लिए मुनि के समान स्थिर बैठ गया ।।48।। सघन वृक्षों की शाखाओं के अग्रभाग उस पर पड़ते हुए घाम को रो के हुए थे। वहाँ उसने शस्त्र तथा कवच उतारकर अनादर से पृथिवी पर फेंक दिये ।।49।। अंबरगोचर नाम का हाथी बड़ी विनय से उसके सामने बैठा था और पवनंजय अत्यधिक थकावट से युक्त थे। उन्होंने अत्यंत मधुर वाणी में हाथी से कहा कि ।।50।। हे गजराज! अब तुम जाओ, जहाँ तुम्हारी इच्छा चाहे भ्रमण करो, अंजना का समाचार जानने के लिए मोह से युक्त होकर मैंने तुम्हारा जो पराभव किया है उसे क्षमा करो ।।51।। इस नदी के किनारे हरी-हरी घास और शल्य के वृक्ष के पल्लवों को खाते हुए तुम हस्तिनियों के झुंड के साथ यथेच्छ भ्रमण करो ।।52।। पवनंजय ने हाथी से यह सब कहा अवश्य पर वह किये हुए उपकार को जाननेवाला था और स्वामी के साथ स्नेह करने में उदार था इसलिए उसने उत्तम बंधु की तरह शोक पीड़ित स्वामी का समीप्य नहीं छोड़ा ।।53।। पवनंजय ने यह निश्चय कर लिया था कि यदि मैं उस मनोहारिणी प्रिया को नहीं पाऊँगा तो इस वन में मर जाऊंगा ।।54।। जिसका मन प्रिया में लग रहा था ऐसे पवनंजय की नाना संकल्पों से युक्त एक रात्रि वन में चार वर्ष से भी अधिक बड़ी मालूम हुई थी ।।55।। गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! यह वृत्तांत तो मैंने तुझ से कहा। अब पवनंजय के घर से चले जाने से माता-पिता की क्या चेष्टा हुई यह कहता हूँ सो सुन ।।56।।</p> | <p>अथानंतर भूतरव नामक वन में जाकर वह हाथी से उतरा और प्रिया का ध्यान करता हुआ क्षण भर के लिए मुनि के समान स्थिर बैठ गया ।।48।।<span id="49" /> सघन वृक्षों की शाखाओं के अग्रभाग उस पर पड़ते हुए घाम को रो के हुए थे। वहाँ उसने शस्त्र तथा कवच उतारकर अनादर से पृथिवी पर फेंक दिये ।।49।।<span id="50" /> अंबरगोचर नाम का हाथी बड़ी विनय से उसके सामने बैठा था और पवनंजय अत्यधिक थकावट से युक्त थे। उन्होंने अत्यंत मधुर वाणी में हाथी से कहा कि ।।50।।<span id="51" /> हे गजराज! अब तुम जाओ, जहाँ तुम्हारी इच्छा चाहे भ्रमण करो, अंजना का समाचार जानने के लिए मोह से युक्त होकर मैंने तुम्हारा जो पराभव किया है उसे क्षमा करो ।।51।।<span id="52" /> इस नदी के किनारे हरी-हरी घास और शल्य के वृक्ष के पल्लवों को खाते हुए तुम हस्तिनियों के झुंड के साथ यथेच्छ भ्रमण करो ।।52।।<span id="53" /> पवनंजय ने हाथी से यह सब कहा अवश्य पर वह किये हुए उपकार को जाननेवाला था और स्वामी के साथ स्नेह करने में उदार था इसलिए उसने उत्तम बंधु की तरह शोक पीड़ित स्वामी का समीप्य नहीं छोड़ा ।।53।।<span id="54" /> पवनंजय ने यह निश्चय कर लिया था कि यदि मैं उस मनोहारिणी प्रिया को नहीं पाऊँगा तो इस वन में मर जाऊंगा ।।54।।<span id="55" /> जिसका मन प्रिया में लग रहा था ऐसे पवनंजय की नाना संकल्पों से युक्त एक रात्रि वन में चार वर्ष से भी अधिक बड़ी मालूम हुई थी ।।55।।<span id="56" /> गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! यह वृत्तांत तो मैंने तुझ से कहा। अब पवनंजय के घर से चले जाने से माता-पिता की क्या चेष्टा हुई यह कहता हूँ सो सुन ।।56।।<span id="57" /></p> | ||
<p>मित्र ने जाकर जब पवनंजय का वृत्तांत कहा तब उसके समस्त भाई-बंधु परम शोक को प्राप्त हुए ।।57।। अथानंतर पुत्र के शोक से पीडित केतुमती अश्रुओं की धारा से दुर्दिन उपजाती हुई प्रहसित से बोली कि हे प्रहसित! क्या तुझे ऐसा करना उचित था जो तू मेरे पुत्र को छोड़कर अकेला आ गया ।।58-59।। इसके उत्तर में प्रहसित ने कहा कि हे अंबर! उसी ने प्रयत्न कर मुझे भेजा है। उसने मुझे किसी भी भाव से वहाँ नहीं ठहरने दिया ।।60।। केतुमती ने कहा कि वह कहाँ गया है? प्रहसित ने कहा कि जहाँ अंजना है। अंजना कहाँ है ऐसा केतुमती ने पुन: पूछा तो प्रहसित ने उत्तर दिया कि मैं नहीं जानता हूँ। जो मनुष्य बिना परीक्षा किये सहसा कार्य कर बैठते हैं उन्हें पश्चात्ताप होता ही है ।।61-62।। प्रहसित ने केतुमती से यह भी कहा कि तुम्हारे पुत्र ने यह निश्चित प्रतिज्ञा की है कि यदि मैं प्रिया को नहीं देखूंगा तो अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त होऊंगा ।।63।। यह सुनकर केतुमती अत्यंत दुःखी होकर विलाप करने लगी। उस समय जिनके नेत्रों से अश्रु झर रहे थे ऐसी स्त्रियों का समूह उसे घेरकर बैठा था ।।64।। वह कहने लगी कि सत्य को जाने बिना मुझ पापिनी ने क्या कर डाला जिससे पुत्र जीवन के संशय को प्राप्त हो गया ।।65।। क्रूर अभिप्राय को धारण करने वाली कुटिल चित्त तथा बिना विचारे कार्य करने वाली मुझ मूर्खा ने क्या कर डाला? ।।66।। वायु कुमार के द्वारा छोड़ा हुआ यह नगर शोभा नहीं देता। यही नगर क्यों? विजयार्ध पर्वत ही शोभा नहीं देता और न रावण की सेना ही उसके बिना सुशोभित है ।।67।। जो रावण के भी कठिन थी ऐसी संधि युद्ध में जिसने करा दी मेरे उस पुत्र के समान पृथ्वी पर दूसरा मनुष्य है ही कौन? ।।68।। हाय बेटा! तू तो विनय का आधार था, गुरुजनों की पूजा करने में सदा तत्पर रहता था, जगत्-भर में अद्वितीय सुंदर था और तेरे गुण सर्वत्र प्रसिद्ध थे फिर भी तू कहा चला गया ।।69।। हे मातृ वत्सल! जो तेरे दु:खरूपी अग्नि से संतप्त हो रही है ऐसी अपनी माता को प्रत्युत्तर देकर शोक रहित कर ।।70।। इस प्रकार विलाप करती और अत्यधिक छाती कुटती हुई केतुमती को राजा प्रह्लाद सांतवना दे रहे थे पर शोक के कारण उनके नेत्रों से भी टप-टप आँसू गिरते जाते थे ।।71।। </p> | <p>मित्र ने जाकर जब पवनंजय का वृत्तांत कहा तब उसके समस्त भाई-बंधु परम शोक को प्राप्त हुए ।।57।।<span id="58" /><span id="59" /> अथानंतर पुत्र के शोक से पीडित केतुमती अश्रुओं की धारा से दुर्दिन उपजाती हुई प्रहसित से बोली कि हे प्रहसित! क्या तुझे ऐसा करना उचित था जो तू मेरे पुत्र को छोड़कर अकेला आ गया ।।58-59।।<span id="60" /> इसके उत्तर में प्रहसित ने कहा कि हे अंबर! उसी ने प्रयत्न कर मुझे भेजा है। उसने मुझे किसी भी भाव से वहाँ नहीं ठहरने दिया ।।60।।<span id="61" /><span id="62" /> केतुमती ने कहा कि वह कहाँ गया है? प्रहसित ने कहा कि जहाँ अंजना है। अंजना कहाँ है ऐसा केतुमती ने पुन: पूछा तो प्रहसित ने उत्तर दिया कि मैं नहीं जानता हूँ। जो मनुष्य बिना परीक्षा किये सहसा कार्य कर बैठते हैं उन्हें पश्चात्ताप होता ही है ।।61-62।।<span id="63" /> प्रहसित ने केतुमती से यह भी कहा कि तुम्हारे पुत्र ने यह निश्चित प्रतिज्ञा की है कि यदि मैं प्रिया को नहीं देखूंगा तो अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त होऊंगा ।।63।।<span id="64" /> यह सुनकर केतुमती अत्यंत दुःखी होकर विलाप करने लगी। उस समय जिनके नेत्रों से अश्रु झर रहे थे ऐसी स्त्रियों का समूह उसे घेरकर बैठा था ।।64।।<span id="65" /> वह कहने लगी कि सत्य को जाने बिना मुझ पापिनी ने क्या कर डाला जिससे पुत्र जीवन के संशय को प्राप्त हो गया ।।65।।<span id="66" /> क्रूर अभिप्राय को धारण करने वाली कुटिल चित्त तथा बिना विचारे कार्य करने वाली मुझ मूर्खा ने क्या कर डाला? ।।66।।<span id="67" /> वायु कुमार के द्वारा छोड़ा हुआ यह नगर शोभा नहीं देता। यही नगर क्यों? विजयार्ध पर्वत ही शोभा नहीं देता और न रावण की सेना ही उसके बिना सुशोभित है ।।67।।<span id="68" /> जो रावण के भी कठिन थी ऐसी संधि युद्ध में जिसने करा दी मेरे उस पुत्र के समान पृथ्वी पर दूसरा मनुष्य है ही कौन? ।।68।।<span id="69" /> हाय बेटा! तू तो विनय का आधार था, गुरुजनों की पूजा करने में सदा तत्पर रहता था, जगत्-भर में अद्वितीय सुंदर था और तेरे गुण सर्वत्र प्रसिद्ध थे फिर भी तू कहा चला गया ।।69।।<span id="70" /> हे मातृ वत्सल! जो तेरे दु:खरूपी अग्नि से संतप्त हो रही है ऐसी अपनी माता को प्रत्युत्तर देकर शोक रहित कर ।।70।।<span id="71" /> इस प्रकार विलाप करती और अत्यधिक छाती कुटती हुई केतुमती को राजा प्रह्लाद सांतवना दे रहे थे पर शोक के कारण उनके नेत्रों से भी टप-टप आँसू गिरते जाते थे ।।71।।<span id="72" /> </p> | ||
<p>तदनंतर पुत्र को पाने के लिए उत्सुक राजा प्रह्लाद समस्त बंधुजनों के साथ प्रहसित को आगे कर अपने नगर से निकले ।।72।। उन्होंने दौनों श्रेणियों में रहनेवाले समस्त विद्याधरों को बुलवाया सो अपने-अपने परिवार सहित समस्त विद्याधर प्रेमपूर्वक आ गये ।।73।। जिनके नाना प्रकार के वाहन आकाश में देदीप्यमान हो रहे थे और जिनके नेत्र नीचे गुफाओं में पड़ रहे थे ऐसे वे समस्त विद्याधर बड़े यत्न से पृथ्वी की खोज करने लगे ।।74।। इधर प्रह्लाद के दूत से राजा प्रतिसूर्य को जब यह समाचार मालूम हुआ तो हृदय से शोक धारण करते हुए उसने यह समाचार अंजना से कहा ।।75।। अंजना पहले से ही दुःखी थी अब इस भारी दुःख से और भी अधिक दुःखी होकर वह करुण विलाप करने लगी। विलाप करते समय उसका मुख अश्रुओं से धुल रहा था ।।76।। वह कहने लगी कि हाय नाथ! आप ही तो मेरे हृदय के बंधन थे फिर निरंतर क्लेश भोगने वाली अबला को छोड़कर आप कहां चले गये? ।।77।। क्या आज भी आप उस पुरातन क्रोध को नहीं छोड़ रहे हैं जिससे समस्त विद्याधरों के लिए अदृश्य हो गये हैं ।।78।। है नाथ! मेरे लिए अमृत तुल्य एक भी प्रत्युत्तर दीजिए क्योंकि महापुरुष आपत्ति में पड़े हुए प्राणियों का हित करना कभी नहीं छोड़ते ।।79।। मैंने अब तक आपके दर्शन की आकांक्षा से ही प्राण धारण किये हैं। अब मुझे इन पापी प्राणों से क्या प्रयोजन है? ।।80।। मैं पति के साथ समागम को प्राप्त होऊँगी, ऐसे जो मनोरथ मैंने किये थे वे आज दैव के द्वारा निष्फल कर दिये गये ।।81।। मुझ मंदभागिनी के लिए प्रिय उस अवस्था को प्राप्त हुए होंगे जिसकी कि यह क्रूर हृदय बार-बार आशंका करता रहा है ।।82।। वसंतमाले! देख तो यह क्या हो रहा है? मुझे असह्य विरह के अंगार रूपी शय्या पर कैसे लोटना पड़ रहा है ।।83।। वसंतमाला ने कहा कि हे देवि! ऐसी अमांगलिक रट मत लगाओ। मैं निश्चित कहती हूँ कि भर्ता तुम्हारे समीप आयेगा ।।84।। हे कल्याणि! मैं तेरे भर्ता की अभी हाल ले आता हूँ, इस प्रकार अंजना को बड़े दुःख से आश्वासन देकर राजा प्रतिसूर्य मन के समान तीव्र वेग वाले सुंदर विमान में चढ़कर आकाश में उड़ गया। वह पृथिवी को अच्छी तरह देखता हुआ जा रहा था ।।85-86।। इस प्रकार विजयार्ध वासी विद्याधर और त्रिकूटा चल वासी राक्षस राजा प्रतिसूर्य के साथ मिलकर बड़े प्रयत्न से पृथिवी का अवलोकन करने लगे ।।87।।</p> | <p>तदनंतर पुत्र को पाने के लिए उत्सुक राजा प्रह्लाद समस्त बंधुजनों के साथ प्रहसित को आगे कर अपने नगर से निकले ।।72।।<span id="73" /> उन्होंने दौनों श्रेणियों में रहनेवाले समस्त विद्याधरों को बुलवाया सो अपने-अपने परिवार सहित समस्त विद्याधर प्रेमपूर्वक आ गये ।।73।।<span id="74" /> जिनके नाना प्रकार के वाहन आकाश में देदीप्यमान हो रहे थे और जिनके नेत्र नीचे गुफाओं में पड़ रहे थे ऐसे वे समस्त विद्याधर बड़े यत्न से पृथ्वी की खोज करने लगे ।।74।।<span id="75" /> इधर प्रह्लाद के दूत से राजा प्रतिसूर्य को जब यह समाचार मालूम हुआ तो हृदय से शोक धारण करते हुए उसने यह समाचार अंजना से कहा ।।75।।<span id="76" /> अंजना पहले से ही दुःखी थी अब इस भारी दुःख से और भी अधिक दुःखी होकर वह करुण विलाप करने लगी। विलाप करते समय उसका मुख अश्रुओं से धुल रहा था ।।76।।<span id="77" /> वह कहने लगी कि हाय नाथ! आप ही तो मेरे हृदय के बंधन थे फिर निरंतर क्लेश भोगने वाली अबला को छोड़कर आप कहां चले गये? ।।77।।<span id="78" /> क्या आज भी आप उस पुरातन क्रोध को नहीं छोड़ रहे हैं जिससे समस्त विद्याधरों के लिए अदृश्य हो गये हैं ।।78।।<span id="79" /> है नाथ! मेरे लिए अमृत तुल्य एक भी प्रत्युत्तर दीजिए क्योंकि महापुरुष आपत्ति में पड़े हुए प्राणियों का हित करना कभी नहीं छोड़ते ।।79।।<span id="80" /> मैंने अब तक आपके दर्शन की आकांक्षा से ही प्राण धारण किये हैं। अब मुझे इन पापी प्राणों से क्या प्रयोजन है? ।।80।।<span id="81" /> मैं पति के साथ समागम को प्राप्त होऊँगी, ऐसे जो मनोरथ मैंने किये थे वे आज दैव के द्वारा निष्फल कर दिये गये ।।81।।<span id="82" /> मुझ मंदभागिनी के लिए प्रिय उस अवस्था को प्राप्त हुए होंगे जिसकी कि यह क्रूर हृदय बार-बार आशंका करता रहा है ।।82।।<span id="83" /> वसंतमाले! देख तो यह क्या हो रहा है? मुझे असह्य विरह के अंगार रूपी शय्या पर कैसे लोटना पड़ रहा है ।।83।।<span id="84" /> वसंतमाला ने कहा कि हे देवि! ऐसी अमांगलिक रट मत लगाओ। मैं निश्चित कहती हूँ कि भर्ता तुम्हारे समीप आयेगा ।।84।।<span id="85" /><span id="86" /> हे कल्याणि! मैं तेरे भर्ता की अभी हाल ले आता हूँ, इस प्रकार अंजना को बड़े दुःख से आश्वासन देकर राजा प्रतिसूर्य मन के समान तीव्र वेग वाले सुंदर विमान में चढ़कर आकाश में उड़ गया। वह पृथिवी को अच्छी तरह देखता हुआ जा रहा था ।।85-86।।<span id="87" /> इस प्रकार विजयार्ध वासी विद्याधर और त्रिकूटा चल वासी राक्षस राजा प्रतिसूर्य के साथ मिलकर बड़े प्रयत्न से पृथिवी का अवलोकन करने लगे ।।87।।<span id="88" /></p> | ||
<p>अथानंतर उन्होंने भूतरव नामक अटवी में वर्षा ऋतु के मेघ के समान विशाल आकार को धारण करनेवाला एक बड़ा हाथी देखा ।।88।। उस हाथी को उन्होंने पहले अनेक बार देखा था इसलिए यह पवन कुमार का काल मेध नामक हाथी है इस प्रकार पहचान लिया ।।89।। यह वही हाथी है इस प्रकार सब विद्याधर हर्षित हो जोर से हल्ला करते हुए परस्पर एक दूसरे से कहने लगे ।।90।। जो नील गिरि अथवा अंजनगिरि के समान सफेद है तथा जिसकी सूँड योग्य प्रमाण से सहित है ऐसा यह हाथी जिस स्थान में है नि:संदेह उसी स्थान में पवनंजय को होना चाहिए क्योंकि यह हाथी मित्र के समान सदा उसके समीप ही रहता है ।।91-92।। इस प्रकार कहते हुए सब विद्याधर उस हाथी के पास गये। चूंकि वह हाथी निरंकुश था इसलिए विद्याधरों का मन कुछ कुछ भयभीत हो रहा था ।।93।। उन विद्याधरों के महाशब्द से वह महान् हाथी सचमुच ही क्षुभित हो गया। उस समय उसका रोकना कठिन था, उसका समस्त भयंकर शरीर चंचल हो रहा था और वेग अत्यंत तीव्र था ।।94।। उसके दोनों कपोल मद से भीगे हुए थे, कान खड़े थे और वह जोर-जोर से गर्जना कर रहा था। वह जिस दिशा में देखता था उसी दिशा के विद्याधर क्षुभित हो जाते थे- भय से भागने लगते थे ।।95।। उस जनसमूह को देखकर स्वामी की रक्षा करने में तत्पर हाथी पवनंजय की समीपता को नहीं छोड़ रहा था ।।96।। वह लीला सहित सूँड को घुमाता और अपने तीक्ष्ण दशन से ही समस्त विद्याधरों को भयभीत करता हुआ पवनंजय के चारों ओर मंडलाकार भ्रमण कर रहा था ।।97।। </p> | <p>अथानंतर उन्होंने भूतरव नामक अटवी में वर्षा ऋतु के मेघ के समान विशाल आकार को धारण करनेवाला एक बड़ा हाथी देखा ।।88।।<span id="89" /> उस हाथी को उन्होंने पहले अनेक बार देखा था इसलिए यह पवन कुमार का काल मेध नामक हाथी है इस प्रकार पहचान लिया ।।89।।<span id="90" /> यह वही हाथी है इस प्रकार सब विद्याधर हर्षित हो जोर से हल्ला करते हुए परस्पर एक दूसरे से कहने लगे ।।90।।<span id="91" /><span id="92" /> जो नील गिरि अथवा अंजनगिरि के समान सफेद है तथा जिसकी सूँड योग्य प्रमाण से सहित है ऐसा यह हाथी जिस स्थान में है नि:संदेह उसी स्थान में पवनंजय को होना चाहिए क्योंकि यह हाथी मित्र के समान सदा उसके समीप ही रहता है ।।91-92।।<span id="93" /> इस प्रकार कहते हुए सब विद्याधर उस हाथी के पास गये। चूंकि वह हाथी निरंकुश था इसलिए विद्याधरों का मन कुछ कुछ भयभीत हो रहा था ।।93।।<span id="94" /> उन विद्याधरों के महाशब्द से वह महान् हाथी सचमुच ही क्षुभित हो गया। उस समय उसका रोकना कठिन था, उसका समस्त भयंकर शरीर चंचल हो रहा था और वेग अत्यंत तीव्र था ।।94।।<span id="95" /> उसके दोनों कपोल मद से भीगे हुए थे, कान खड़े थे और वह जोर-जोर से गर्जना कर रहा था। वह जिस दिशा में देखता था उसी दिशा के विद्याधर क्षुभित हो जाते थे- भय से भागने लगते थे ।।95।।<span id="96" /> उस जनसमूह को देखकर स्वामी की रक्षा करने में तत्पर हाथी पवनंजय की समीपता को नहीं छोड़ रहा था ।।96।।<span id="97" /> वह लीला सहित सूँड को घुमाता और अपने तीक्ष्ण दशन से ही समस्त विद्याधरों को भयभीत करता हुआ पवनंजय के चारों ओर मंडलाकार भ्रमण कर रहा था ।।97।।<span id="98" /> </p> | ||
<p>तदनंतर विद्याधर यत्न पूर्वक हस्तिनीयों से उस हाथी को घेर कर तथा वक्ष में कर उत्सुक होते हुए उस स्थान पर उतरे ।।98।। वशीकरण के समस्त उपायों में स्त्री समागम को छोड़कर और दूसरा उत्तम उपाय नहीं है ।।99।। अथानंतर जिसका समस्त शरीर ढीला हो रहा था, चित्र लिखित के समान जिसका आकार था और जो मौन से बैठा था ऐसे पवनंजय को विद्याधरों ने देखा ।।100।। यद्यपि सब विद्याधरों ने उसका यथायोग्य उपचार किया तो भी वह मुनि के समान चिंता में निमग्न बैठा रहा- किसी से कुछ नहीं कहा ।।101।। माता-पिता ने पुत्र की प्रीति से उसका मस्तक सूंघा, बार-बार आलिंगन किया और इस हर्ष से उनके नेत्र आँसुओं से आच्छादित हो गये ।।102।। उन्होंने कहा भी कि हे बेटा! तुम माता-पिता को छोड़कर ऐसी चेष्टा क्यों करते हो? तुम तो विनीत मनुष्यों में सब से आगे थे ।।103।। तुम्हारा शरीर उत्कृष्ट शय्या पर पड़ने के योग्य है पर तुमने आज इसे भयंकर एवं निर्जन वन के बीच वृक्ष की कोटर में क्यों डाल रखा है? ।।104।। माता-पिता के इस प्रकार कहने पर भी उसने एक शब्द नहीं कहा। केवल इशारे से यह बता दिया कि मैं मरने का निश्चय कर चुका हूँ ।।105।। मैंने यह व्रत कर रखा है कि अंजना को पाये बिना मैं न भोजन करूँगा और न बोलूँगा। फिर इस समय वह व्रत कैसे तोड़ दूँ? ।।106।। अथवा प्रिया की बात जाने दो, सत्यव्रत की रक्षा करता हुआ मैं इन माता-पिता को किस प्रकार संतुष्ट करूँ यह सोचता हुआ वह कुछ व्याकुल हुआ ।।107।। </p> | <p>तदनंतर विद्याधर यत्न पूर्वक हस्तिनीयों से उस हाथी को घेर कर तथा वक्ष में कर उत्सुक होते हुए उस स्थान पर उतरे ।।98।।<span id="99" /> वशीकरण के समस्त उपायों में स्त्री समागम को छोड़कर और दूसरा उत्तम उपाय नहीं है ।।99।।<span id="100" /> अथानंतर जिसका समस्त शरीर ढीला हो रहा था, चित्र लिखित के समान जिसका आकार था और जो मौन से बैठा था ऐसे पवनंजय को विद्याधरों ने देखा ।।100।।<span id="101" /> यद्यपि सब विद्याधरों ने उसका यथायोग्य उपचार किया तो भी वह मुनि के समान चिंता में निमग्न बैठा रहा- किसी से कुछ नहीं कहा ।।101।।<span id="102" /> माता-पिता ने पुत्र की प्रीति से उसका मस्तक सूंघा, बार-बार आलिंगन किया और इस हर्ष से उनके नेत्र आँसुओं से आच्छादित हो गये ।।102।।<span id="103" /> उन्होंने कहा भी कि हे बेटा! तुम माता-पिता को छोड़कर ऐसी चेष्टा क्यों करते हो? तुम तो विनीत मनुष्यों में सब से आगे थे ।।103।।<span id="104" /> तुम्हारा शरीर उत्कृष्ट शय्या पर पड़ने के योग्य है पर तुमने आज इसे भयंकर एवं निर्जन वन के बीच वृक्ष की कोटर में क्यों डाल रखा है? ।।104।।<span id="105" /> माता-पिता के इस प्रकार कहने पर भी उसने एक शब्द नहीं कहा। केवल इशारे से यह बता दिया कि मैं मरने का निश्चय कर चुका हूँ ।।105।।<span id="106" /> मैंने यह व्रत कर रखा है कि अंजना को पाये बिना मैं न भोजन करूँगा और न बोलूँगा। फिर इस समय वह व्रत कैसे तोड़ दूँ? ।।106।।<span id="107" /> अथवा प्रिया की बात जाने दो, सत्यव्रत की रक्षा करता हुआ मैं इन माता-पिता को किस प्रकार संतुष्ट करूँ यह सोचता हुआ वह कुछ व्याकुल हुआ ।।107।।<span id="108" /> </p> | ||
<p>तदनंतर जिसका मस्तक नीचे की ओर झुक रहा था और जो मौन से चुपचाप बैठा था ऐसे पवनंजय को मरने के लिए कृतनिश्चय जानकर विद्याधर शोक को प्राप्त हुए ।।108।। जिनके हृदय अत्यंत दीन थे और जो स्वेद को धारण करने वाले हाथों से पवनंजय के शरीर का स्पर्श कर रहे थे ऐसे सब विद्याधर उसके माता-पिता के साथ विलाप करने लगे ।।109।। तदनंतर हँसते हुए प्रतिसूर्य ने सब विद्याधरों से कहा कि आप लोग दुःखी न हों। मैं आप लोगों से पवन कुमार को बुलवाता हूँ ।।110।। तथा पवनंजय का आलिंगन कर क्रमानुसार उससे कहा कि हे कुमार! सुनो, जो कुछ भी वृत्तांत हुआ है वह सब मैं कहता हूँ ।।111।। संध्याभ्र नामक मनोहर पर्वत पर अनंगवीचि नामक मुनिराज को इंद्रों में क्षोभ उत्पन्न करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था ।।112।। मैं उनकी वंदना कर दीपक के सहारे रात्रि को चला आ रहा था कि मैंने वीणा के शब्द के समान किसी स्त्री के रोने का शब्द सुना ।।113।। मैं उस शब्द को लक्ष्य कर पर्वत की ऊँची चोटी पर गया। वहाँ मुझे पर्यंक नाम की गुफा में अंजना दिखी ।।114।। इसके निवास का कारण जो बताया गया था उसे जानकर शोक से विह्वल होकर रोती हुई उस बाला को मैंने सांतवना दी ।।115।। उसी गुफा में उसने शुभ लक्षणों से युक्त ऐसा पुत्र उत्पन्न किया कि जिसकी प्रभा से वह गुफा सुवर्ण से बनी हुई के समान हो गयी ।।116।। अंजना के पुत्र हो चुका है यह जानकर पवनंजय परम संतोष को प्राप्त हुआ और फिर क्या हुआ? फिर क्या हुआ? यह शीघ्रता से पूछने लगा ।।117।। प्रतिसूर्य ने कहा कि उसके बाद अंजना के उस सुंदर चेष्टाओं के धारक पुत्र को विमान में बैठाया जा रहा था कि वह पर्वत की गुफा में गिर गया ।।118।। यह सुनकर हाहाकार करता हुआ पवनंजय विद्याधरों की सेना के साथ पुनः विषाद को प्राप्त हुआ ।।119।। तब प्रतिसूर्य ने कहा कि शोक को प्राप्त मत होओ। जो कुछ वृत्तांत हुआ वह सब सुनो। हे पवन! पूरा वृत्तांत तुम्हारे दुःख को दूर कर देगा ।।120।। प्रतिसूर्य कहता जाता है कि तदनंतर हाहाकार से दिशाओं को शब्दायमान करते हुए हम लोगों ने नीचे उतरकर पर्वत के बीच उस निर्दोष बालक को देखा ।।121।। चूँकि उस बालक ने गिरकर पर्वत को चूर-चूर कर डाला था इसलिए हम लोगों ने विस्मित होकर उसकी श्री शैल इस नाम से स्तुति की ।।122।। तदनंतर पुत्र सहित अंजना को वसंतमाला के साथ विमान में बैठाकर मैं अपने नगर ले गया ।।123।। आगे चलकर चूंकि उसका हनुरुह द्वीप में संवर्धन हुआ है इसलिए हनूमान यह दूसरा नाम भी रखा गया है ।।124।। इस तरह आपने जिसका कथन किया है वह शीलवती अंजना आश्चर्यजनक कार्य करने वाले पुत्र के साथ मेरे नगर में रह रही है सो ज्ञात कीजिए ।।125।। </p> | <p>तदनंतर जिसका मस्तक नीचे की ओर झुक रहा था और जो मौन से चुपचाप बैठा था ऐसे पवनंजय को मरने के लिए कृतनिश्चय जानकर विद्याधर शोक को प्राप्त हुए ।।108।।<span id="109" /> जिनके हृदय अत्यंत दीन थे और जो स्वेद को धारण करने वाले हाथों से पवनंजय के शरीर का स्पर्श कर रहे थे ऐसे सब विद्याधर उसके माता-पिता के साथ विलाप करने लगे ।।109।।<span id="110" /> तदनंतर हँसते हुए प्रतिसूर्य ने सब विद्याधरों से कहा कि आप लोग दुःखी न हों। मैं आप लोगों से पवन कुमार को बुलवाता हूँ ।।110।।<span id="111" /> तथा पवनंजय का आलिंगन कर क्रमानुसार उससे कहा कि हे कुमार! सुनो, जो कुछ भी वृत्तांत हुआ है वह सब मैं कहता हूँ ।।111।।<span id="112" /> संध्याभ्र नामक मनोहर पर्वत पर अनंगवीचि नामक मुनिराज को इंद्रों में क्षोभ उत्पन्न करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था ।।112।।<span id="113" /> मैं उनकी वंदना कर दीपक के सहारे रात्रि को चला आ रहा था कि मैंने वीणा के शब्द के समान किसी स्त्री के रोने का शब्द सुना ।।113।।<span id="114" /> मैं उस शब्द को लक्ष्य कर पर्वत की ऊँची चोटी पर गया। वहाँ मुझे पर्यंक नाम की गुफा में अंजना दिखी ।।114।।<span id="115" /> इसके निवास का कारण जो बताया गया था उसे जानकर शोक से विह्वल होकर रोती हुई उस बाला को मैंने सांतवना दी ।।115।।<span id="116" /> उसी गुफा में उसने शुभ लक्षणों से युक्त ऐसा पुत्र उत्पन्न किया कि जिसकी प्रभा से वह गुफा सुवर्ण से बनी हुई के समान हो गयी ।।116।।<span id="117" /> अंजना के पुत्र हो चुका है यह जानकर पवनंजय परम संतोष को प्राप्त हुआ और फिर क्या हुआ? फिर क्या हुआ? यह शीघ्रता से पूछने लगा ।।117।।<span id="118" /> प्रतिसूर्य ने कहा कि उसके बाद अंजना के उस सुंदर चेष्टाओं के धारक पुत्र को विमान में बैठाया जा रहा था कि वह पर्वत की गुफा में गिर गया ।।118।।<span id="119" /> यह सुनकर हाहाकार करता हुआ पवनंजय विद्याधरों की सेना के साथ पुनः विषाद को प्राप्त हुआ ।।119।।<span id="120" /> तब प्रतिसूर्य ने कहा कि शोक को प्राप्त मत होओ। जो कुछ वृत्तांत हुआ वह सब सुनो। हे पवन! पूरा वृत्तांत तुम्हारे दुःख को दूर कर देगा ।।120।।<span id="121" /> प्रतिसूर्य कहता जाता है कि तदनंतर हाहाकार से दिशाओं को शब्दायमान करते हुए हम लोगों ने नीचे उतरकर पर्वत के बीच उस निर्दोष बालक को देखा ।।121।।<span id="122" /> चूँकि उस बालक ने गिरकर पर्वत को चूर-चूर कर डाला था इसलिए हम लोगों ने विस्मित होकर उसकी श्री शैल इस नाम से स्तुति की ।।122।।<span id="123" /> तदनंतर पुत्र सहित अंजना को वसंतमाला के साथ विमान में बैठाकर मैं अपने नगर ले गया ।।123।।<span id="124" /> आगे चलकर चूंकि उसका हनुरुह द्वीप में संवर्धन हुआ है इसलिए हनूमान यह दूसरा नाम भी रखा गया है ।।124।।<span id="125" /> इस तरह आपने जिसका कथन किया है वह शीलवती अंजना आश्चर्यजनक कार्य करने वाले पुत्र के साथ मेरे नगर में रह रही है सो ज्ञात कीजिए ।।125।।<span id="126" /> </p> | ||
<p>तदनंतर हर्ष से भरे विद्याधर अंजना के देखने के लिए उत्सुक हो पवनंजय को आगे कर शीघ्र ही हनुरुह नगर गये ।।126।। वहाँ अंजना और पवनंजय का समागम हो जाने से विद्याधरों को महान् उत्सव हुआ। दोनों दंपतियों को जो उत्सव हुआ वह स्वसंवेदन से ही जाना जा सकता था विशेषकर उसका कहना अशक्य था ।।127।। वहाँ विद्याधरों ने प्रसन्नचित्त से दो महीने व्यतीत किये। तदनंतर पूछकर सम्मान प्राप्त करते हुए सब यथास्थान चले गये ।। 128।। चिरकाल के बाद पत्नी को पाकर पवनंजय की चेष्टाएं भी ठीक हो गयीं और वह पुत्र की चेष्टाओं से आनंदित होता हुआ वहाँ देव की तरह रमण करने लगा ।।129।। हनुमान भी वहाँ उत्तम यौवन लक्ष्मी को पाकर सबके चित्त को चुराने लगा तथा उसका शरीर मेरु पर्वत के शिखर के समान देदीप्यमान हो गया ।।130।। उसे समस्त विद्याएँ सिद्ध हो गयी थीं, प्रभाव उसका निराला ही था, विनय का वह जानकार था, महाबलवान् था, समस्त शास्त्रों का अर्थ करने में कुशल था, परोपकार करने में उदार था, स्वर्ग में भोगने से बाकी बचे पुण्य का भोगने वाला था और गुरुजनों की पूजा करने में तत्पर था। इस तरह वह उस नगर में बड़े आनंद से क्रीड़ा करता था ।।131-132।। गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! जो हनूमान के साथ-साथ नाना रसों से आश्चर्य उत्पन्न करने वाले इस अंजना और पवनंजय के संगम को भाव से सुनता है उसे संसार की समस्त विधि का ज्ञान हो जाता है तथा उस ज्ञान के प्रभाव से उसे आत्म-ज्ञान उत्पन्न हो जाता है जिससे वह उत्तम कार्य ही प्रारंभ करता है और अशुभ कार्य में उसकी बुद्धि प्रवृत्त नहीं होती ।।133।। वह दीर्घ आयु, उदार विभ्रमों से युक्त, सुंदर नीरोग शरीर, समस्त शास्त्रों के पार को विषय करने वाली बुद्धि, चंद्रमा के समान निर्मल कीर्ति, स्वर्ग-सुख का उपभोग करने में चतुर, पुण्य तथा लोक में जो कुछ भी दुर्लभ पदार्थ हैं उन सबको एक बार उस तरह प्राप्त कर लेता है जिस प्रकार कि सूर्य देदीप्यमान कांति के मंडल को ।।134।।</p> | <p>तदनंतर हर्ष से भरे विद्याधर अंजना के देखने के लिए उत्सुक हो पवनंजय को आगे कर शीघ्र ही हनुरुह नगर गये ।।126।।<span id="127" /> वहाँ अंजना और पवनंजय का समागम हो जाने से विद्याधरों को महान् उत्सव हुआ। दोनों दंपतियों को जो उत्सव हुआ वह स्वसंवेदन से ही जाना जा सकता था विशेषकर उसका कहना अशक्य था ।।127।।<span id="128" /> वहाँ विद्याधरों ने प्रसन्नचित्त से दो महीने व्यतीत किये। तदनंतर पूछकर सम्मान प्राप्त करते हुए सब यथास्थान चले गये ।। 128।।<span id="129" /> चिरकाल के बाद पत्नी को पाकर पवनंजय की चेष्टाएं भी ठीक हो गयीं और वह पुत्र की चेष्टाओं से आनंदित होता हुआ वहाँ देव की तरह रमण करने लगा ।।129।।<span id="130" /> हनुमान भी वहाँ उत्तम यौवन लक्ष्मी को पाकर सबके चित्त को चुराने लगा तथा उसका शरीर मेरु पर्वत के शिखर के समान देदीप्यमान हो गया ।।130।।<span id="131" /><span id="132" /> उसे समस्त विद्याएँ सिद्ध हो गयी थीं, प्रभाव उसका निराला ही था, विनय का वह जानकार था, महाबलवान् था, समस्त शास्त्रों का अर्थ करने में कुशल था, परोपकार करने में उदार था, स्वर्ग में भोगने से बाकी बचे पुण्य का भोगने वाला था और गुरुजनों की पूजा करने में तत्पर था। इस तरह वह उस नगर में बड़े आनंद से क्रीड़ा करता था ।।131-132।।<span id="133" /> गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! जो हनूमान के साथ-साथ नाना रसों से आश्चर्य उत्पन्न करने वाले इस अंजना और पवनंजय के संगम को भाव से सुनता है उसे संसार की समस्त विधि का ज्ञान हो जाता है तथा उस ज्ञान के प्रभाव से उसे आत्म-ज्ञान उत्पन्न हो जाता है जिससे वह उत्तम कार्य ही प्रारंभ करता है और अशुभ कार्य में उसकी बुद्धि प्रवृत्त नहीं होती ।।133।।<span id="134" /> वह दीर्घ आयु, उदार विभ्रमों से युक्त, सुंदर नीरोग शरीर, समस्त शास्त्रों के पार को विषय करने वाली बुद्धि, चंद्रमा के समान निर्मल कीर्ति, स्वर्ग-सुख का उपभोग करने में चतुर, पुण्य तथा लोक में जो कुछ भी दुर्लभ पदार्थ हैं उन सबको एक बार उस तरह प्राप्त कर लेता है जिस प्रकार कि सूर्य देदीप्यमान कांति के मंडल को ।।134।।<span id="18" /></p> | ||
<p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मचरित में पवनंजय और अंजना के समागम का वर्णन करनेवाला अठारहवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।18।।</p> | <p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मचरित में पवनंजय और अंजना के समागम का वर्णन करनेवाला अठारहवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।18।।<span id="19" /></p> | ||
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Latest revision as of 21:50, 9 August 2023
अथानंतर गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं मगध देश के मंडन स्वरूप श्रेणिक! यह तो मैंने तुम्हारे लिए महात्मा श्री शैल के जन्म का वृत्तांत कहा। अब पवनंजय का वृत्तांत सुनो ।।1।। पवनंजय वायु के समान शीघ्र ही रावण के पास गया और उसकी आज्ञा पाकर नाना शस्त्रों से व्याप्त युद्ध क्षेत्र में वरुण के साथ युद्ध करने लगा ।।2।। चिरकाल तक युद्ध करने के बाद वरुण खेद खिन्न हो गया सो पवनंजय ने उसे पकड़ लिया। खर-दूषण को वरुण ने पहले पकड़ रखा था सो उसे छुड़ाया और वरुण को रावण के समीप ले जाकर तथा संधि कराकर उसका आज्ञाकारी किया। रावण ने पवनंजय का बड़ा सम्मान किया ।।3-4।। तदनंतर रावण की आज्ञा लेकर हृदय में कांता को धारण करता हुआ पवनंजय महासामंतों के साथ शीघ्र ही अपने नगर में वापस आ गया ।।5।। उत्तमोत्तम मंगल द्रव्यों को धारण करने वाले नगरवासी जनों ने जिसकी अगवानी की थी ऐसा पवनंजय देदीप्यमान ध्वजाओं, तोरणों तथा मालाओं से अलंकृत नगर में प्रविष्ट हुआ ।।6।। तदनंतर अपना प्रारंभ किया हुआ कर्म छोड़ झरोखों में आकर खड़ी हुई नगरवासिनी स्त्रियो के समूह जिसे बड़े हर्ष से देख रहे थे ऐसा पवनंजय अपने महल की ओर चला ।।7।। तत्पश्चात् जिसका अर्थ आदि के द्वारा सम्मान किया गया था और आत्मीयजनों ने मंगलमय वचनों से जिसका अभिनंदन किया था ऐसे पवनंजय ने महल में प्रवेश किया ।।8।। वहाँ जाकर इसने गुरुजनों को नमस्कार किया और अन्य जनों ने इसे नमस्कार किया। फिर कुशल वार्ता करता हुआ क्षणभर के लिए सभामंडप में बैठा ।।9।।
तदनंतर उत्कंठित होता हुआ अंजना के महल में चढ़ा। उस समय वह पहले की भावना से युक्त था और अकेला प्रहसित मित्र ही उस के साथ था ।।10।। वहाँ जाकर जब उसने महल को प्राण-वल्लभा से रहित देखा तो उसका मन क्षण एक में ही निर्जीव शरीर की तरह नीचे गिर गया ।।11।। उसने प्रहसित से कहा कि मित्र! यह क्या है? यहाँ कमल-नयना अंजना सुंदरी नहीं दिख रही है ।।12।। उसके बिना यह घर मुझे वन अथवा आकाश के समान जान पड़ता है। अत: शीघ्र ही उसका समाचार मालूम किया जाये ।।13।। तदनंतर आप्त वर्ग से सब समाचार जानकर प्रहसित ने हृदय को क्षुभित करनेवाला सब समाचार ज्यों का त्यों पवनंजय को सुना दिया ।।14।। उसे सुन, पवनंजय आत्मीयजनों को छोड़ उसी क्षण मित्र के साथ उत्कंठित होता हुआ महेंद्रनगर जाने के लिए उद्यत हुआ ।।15।। महेंद्रनगर के निकट पहुँचकर पवनंजय, प्रिया को गोद में आयी समझ हर्षित होता हुआ मित्र से बोला कि हे मित्र! देखो, इस नगर की सुंदरता देखो जहाँ सुंदर विभ्रमों को धारण करने वाली प्रिया विद्यमान है ।।16-17।। और जहाँ वर्षाऋतु के मेघों के समान कांति के धारक उद्यान के वृक्षों से घिरी महलों की पंक्तियाँ कैलास पर्वत के शिखरों के समान जान पड़ती है ।।18।। इस प्रकार कहता और अभिन्न चित्त के धारक मित्र के साथ वार्तालाप करता हुआ वह महेंद्रनगर में पहुँचा ।।19।।
तदनंतर लोगों के समूह से पवनंजय को आया सुन इसका श्वसुर अर्घादि की भेंट लेकर आया ।।20।। आगे चलते हुए श्वसुर ने प्रेमपूर्ण मन से उसे अपने स्थान में प्रविष्ट किया और नगरवासी लोगों ने उसे बड़े आदर से देखा ।।21।। प्रिया के दर्शन की लालसा से इसने श्वसुर के घर में प्रवेश किया। वहाँ यह परस्पर वार्तालाप करता हुआ मुहूर्त भर बैठा ।।22।। परंतु वहाँ भी जब इसने कांता को नहीं देखा तब विरह से आतुर होकर इसने महल के भीतर रहने वाली किसी बालिका से पूछा कि हे बाले! क्या तू जानती है कि यहाँ मेरी प्रिया अंजना है? बालिका ने यही दुःख दायी उत्तर दिया कि यहाँ तुम्हारी प्रिया नहीं है ।।23-24।। तदनंतर इस उत्तर से पवनंजय का हृदय मानो वज्र से ही चूर्ण हो गया, कान तपाये हुए खारे पानी से मानो भर गये और वह स्वयं निर्जीव की भाँति निश्चल रह गया। शोक रूपी तुषार के संपर्क से उसका मुखकमल कांतिरहित हो गया ।।25-26।।
तदनंतर वह किसी छल से श्वसुर के नगर से निकलकर अपनी प्रिया का समाचार जानने के लिए पृथिवी में भ्रमण करने लगा ।।27।। इधर जब प्रहसित मित्र को मालूम हुआ कि पवनंजय मानो वायु की बीमारी से ही दुःखी हो रहा है तब उसके दुःख से अत्यंत दुःखी होते हुए उसने सांतवना के साथ कहा कि हे मित्र! खिन्न क्यों होते हो? चित्त को निराकुल करो। तुम्हें शीघ्र ही प्रिया दिखलाई देगी अथवा यह पृथिवी है ही कितनी-सी? ।।28-29।। पवनंजय ने कहा कि है मित्र! तुम शीघ्र ही सूर्यपुर जाओ और वहाँ गुरुजनों को मेरा यह समाचार बतला दो ।।30।। मैं पृथिवी की अनन्य सुंदरी प्रिया को प्राप्त किये बिना अपना जीवन नहीं मानता इसलिए उसे खोजने के लिए समस्त पृथिवी में भ्रमण करूँगा ।।31।। यह कहने पर प्रहसित बड़े दुःख से किसी तरह पवनंजय को छोड़कर दीन होता हुआ सूर्यपुर की ओर गया ।।32।। इधर पवनंजय भी अंबरगोचर हाथी पर सवार होकर समस्त पृथिवी में विचरण करता हुआ ऐसा विचार करने लगा कि जिसका कमल के समान कोमल शरीर शोक रूपी आताप से मुरझा गया होगा ऐसी मेरी प्रिया हृदय से मुझे धारण करती हुई कहाँ गयी होगी? ।।33-34।। जो विधुरता रूपी अटवी के मध्य में स्थित थी, विरहाग्नि से जल रही थी और निरंतर भयभीत रहती थी ऐसी वह बेचारी किस दिशा में गयी होगी? ।।35।। वह सती थी, सरलता से सहित थी तथा गर्भ का भार धारण करने वाली थी। ऐसा न हुआ हो कि वसंतमाला ने उसे महावन में अकेली छोड़ दी हो ।।36।। जिसके नेत्र शोक से अंधे हो रहे होंगे ऐसी वह प्रिया विषम मार्ग में जाती हुई कदाचित् किसी पुराने कुएँ में गिर गयी हो अथवा किसी भूखे अजगर के मुँह में जा पड़ी हो ।।37।। अथवा गर्भ के भार से क्लेशित तो थी ही जंगली जानवरों का भयंकर शब्द सुन भयभीत हो उसने प्राण छोड़ दिये हों ।।38।। अथवा विंध्याचल के निर्जल वन में प्यास से पीड़ित होने के कारण जिसके तालु और कंठ सूख रहे होंगे ऐसी मेरी प्राण तुल्य प्रिया प्राण रहित हो गयी होगी ।।39।। अथवा वह बड़ी भोली थी कदाचित् अनेक मगरमच्छों से भरी गंगा में उतरी हो और तीव्र वेग वाला पानी उसे बहा ले गया हो ।।40।। अथवा डाभ की अनियों से विदीर्ण हुए जिसके पैरों से रुधिर बह रहा होगा ऐसी प्रिया एक डग भी चलने के लिए असमर्थ हो मर गयी होगी ।।41।। अथवा कोई आकाशगामी दुष्ट विद्याधर हर ले गया हो। बड़े खेद की बात है कि कोई मेरे लिए उसका समाचार भी नहीं बतलाता ।।42।। अथवा दुःख के कारण गर्भ-भ्रष्ट हो आर्यिकाओं के स्थान में चली गयी हो? धर्मानुगामिनी तो वह थी ही ।।43।। इस प्रकार विचार करते हुए बुद्धि-विह्वल पवनंजय ने पृथिवी में विहारकर जब समस्त इंद्रियों और मन को हरने वाली प्रिया को नहीं देखा ।।44।। तब विरह से जलते हुए उसने समस्त संसार को सूना देख चित्त में मरने का दृढ़ निश्चय किया ।।45।। अंजना ही पवनंजय की सर्वस्वभूत थी अतः उसके बिना उसे न पर्वतों में आनंद आता था, न वृक्षों में और न मनोहर नदियों में ही ।।46।। योंही पवनंजय ने उसका समाचार जानने के लिए वृक्षों से भी पूछा सो ठीक ही है क्योंकि दुःखी जन विवेक से रहित हो ही जाते हैं ।।47।।
अथानंतर भूतरव नामक वन में जाकर वह हाथी से उतरा और प्रिया का ध्यान करता हुआ क्षण भर के लिए मुनि के समान स्थिर बैठ गया ।।48।। सघन वृक्षों की शाखाओं के अग्रभाग उस पर पड़ते हुए घाम को रो के हुए थे। वहाँ उसने शस्त्र तथा कवच उतारकर अनादर से पृथिवी पर फेंक दिये ।।49।। अंबरगोचर नाम का हाथी बड़ी विनय से उसके सामने बैठा था और पवनंजय अत्यधिक थकावट से युक्त थे। उन्होंने अत्यंत मधुर वाणी में हाथी से कहा कि ।।50।। हे गजराज! अब तुम जाओ, जहाँ तुम्हारी इच्छा चाहे भ्रमण करो, अंजना का समाचार जानने के लिए मोह से युक्त होकर मैंने तुम्हारा जो पराभव किया है उसे क्षमा करो ।।51।। इस नदी के किनारे हरी-हरी घास और शल्य के वृक्ष के पल्लवों को खाते हुए तुम हस्तिनियों के झुंड के साथ यथेच्छ भ्रमण करो ।।52।। पवनंजय ने हाथी से यह सब कहा अवश्य पर वह किये हुए उपकार को जाननेवाला था और स्वामी के साथ स्नेह करने में उदार था इसलिए उसने उत्तम बंधु की तरह शोक पीड़ित स्वामी का समीप्य नहीं छोड़ा ।।53।। पवनंजय ने यह निश्चय कर लिया था कि यदि मैं उस मनोहारिणी प्रिया को नहीं पाऊँगा तो इस वन में मर जाऊंगा ।।54।। जिसका मन प्रिया में लग रहा था ऐसे पवनंजय की नाना संकल्पों से युक्त एक रात्रि वन में चार वर्ष से भी अधिक बड़ी मालूम हुई थी ।।55।। गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! यह वृत्तांत तो मैंने तुझ से कहा। अब पवनंजय के घर से चले जाने से माता-पिता की क्या चेष्टा हुई यह कहता हूँ सो सुन ।।56।।
मित्र ने जाकर जब पवनंजय का वृत्तांत कहा तब उसके समस्त भाई-बंधु परम शोक को प्राप्त हुए ।।57।। अथानंतर पुत्र के शोक से पीडित केतुमती अश्रुओं की धारा से दुर्दिन उपजाती हुई प्रहसित से बोली कि हे प्रहसित! क्या तुझे ऐसा करना उचित था जो तू मेरे पुत्र को छोड़कर अकेला आ गया ।।58-59।। इसके उत्तर में प्रहसित ने कहा कि हे अंबर! उसी ने प्रयत्न कर मुझे भेजा है। उसने मुझे किसी भी भाव से वहाँ नहीं ठहरने दिया ।।60।। केतुमती ने कहा कि वह कहाँ गया है? प्रहसित ने कहा कि जहाँ अंजना है। अंजना कहाँ है ऐसा केतुमती ने पुन: पूछा तो प्रहसित ने उत्तर दिया कि मैं नहीं जानता हूँ। जो मनुष्य बिना परीक्षा किये सहसा कार्य कर बैठते हैं उन्हें पश्चात्ताप होता ही है ।।61-62।। प्रहसित ने केतुमती से यह भी कहा कि तुम्हारे पुत्र ने यह निश्चित प्रतिज्ञा की है कि यदि मैं प्रिया को नहीं देखूंगा तो अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त होऊंगा ।।63।। यह सुनकर केतुमती अत्यंत दुःखी होकर विलाप करने लगी। उस समय जिनके नेत्रों से अश्रु झर रहे थे ऐसी स्त्रियों का समूह उसे घेरकर बैठा था ।।64।। वह कहने लगी कि सत्य को जाने बिना मुझ पापिनी ने क्या कर डाला जिससे पुत्र जीवन के संशय को प्राप्त हो गया ।।65।। क्रूर अभिप्राय को धारण करने वाली कुटिल चित्त तथा बिना विचारे कार्य करने वाली मुझ मूर्खा ने क्या कर डाला? ।।66।। वायु कुमार के द्वारा छोड़ा हुआ यह नगर शोभा नहीं देता। यही नगर क्यों? विजयार्ध पर्वत ही शोभा नहीं देता और न रावण की सेना ही उसके बिना सुशोभित है ।।67।। जो रावण के भी कठिन थी ऐसी संधि युद्ध में जिसने करा दी मेरे उस पुत्र के समान पृथ्वी पर दूसरा मनुष्य है ही कौन? ।।68।। हाय बेटा! तू तो विनय का आधार था, गुरुजनों की पूजा करने में सदा तत्पर रहता था, जगत्-भर में अद्वितीय सुंदर था और तेरे गुण सर्वत्र प्रसिद्ध थे फिर भी तू कहा चला गया ।।69।। हे मातृ वत्सल! जो तेरे दु:खरूपी अग्नि से संतप्त हो रही है ऐसी अपनी माता को प्रत्युत्तर देकर शोक रहित कर ।।70।। इस प्रकार विलाप करती और अत्यधिक छाती कुटती हुई केतुमती को राजा प्रह्लाद सांतवना दे रहे थे पर शोक के कारण उनके नेत्रों से भी टप-टप आँसू गिरते जाते थे ।।71।।
तदनंतर पुत्र को पाने के लिए उत्सुक राजा प्रह्लाद समस्त बंधुजनों के साथ प्रहसित को आगे कर अपने नगर से निकले ।।72।। उन्होंने दौनों श्रेणियों में रहनेवाले समस्त विद्याधरों को बुलवाया सो अपने-अपने परिवार सहित समस्त विद्याधर प्रेमपूर्वक आ गये ।।73।। जिनके नाना प्रकार के वाहन आकाश में देदीप्यमान हो रहे थे और जिनके नेत्र नीचे गुफाओं में पड़ रहे थे ऐसे वे समस्त विद्याधर बड़े यत्न से पृथ्वी की खोज करने लगे ।।74।। इधर प्रह्लाद के दूत से राजा प्रतिसूर्य को जब यह समाचार मालूम हुआ तो हृदय से शोक धारण करते हुए उसने यह समाचार अंजना से कहा ।।75।। अंजना पहले से ही दुःखी थी अब इस भारी दुःख से और भी अधिक दुःखी होकर वह करुण विलाप करने लगी। विलाप करते समय उसका मुख अश्रुओं से धुल रहा था ।।76।। वह कहने लगी कि हाय नाथ! आप ही तो मेरे हृदय के बंधन थे फिर निरंतर क्लेश भोगने वाली अबला को छोड़कर आप कहां चले गये? ।।77।। क्या आज भी आप उस पुरातन क्रोध को नहीं छोड़ रहे हैं जिससे समस्त विद्याधरों के लिए अदृश्य हो गये हैं ।।78।। है नाथ! मेरे लिए अमृत तुल्य एक भी प्रत्युत्तर दीजिए क्योंकि महापुरुष आपत्ति में पड़े हुए प्राणियों का हित करना कभी नहीं छोड़ते ।।79।। मैंने अब तक आपके दर्शन की आकांक्षा से ही प्राण धारण किये हैं। अब मुझे इन पापी प्राणों से क्या प्रयोजन है? ।।80।। मैं पति के साथ समागम को प्राप्त होऊँगी, ऐसे जो मनोरथ मैंने किये थे वे आज दैव के द्वारा निष्फल कर दिये गये ।।81।। मुझ मंदभागिनी के लिए प्रिय उस अवस्था को प्राप्त हुए होंगे जिसकी कि यह क्रूर हृदय बार-बार आशंका करता रहा है ।।82।। वसंतमाले! देख तो यह क्या हो रहा है? मुझे असह्य विरह के अंगार रूपी शय्या पर कैसे लोटना पड़ रहा है ।।83।। वसंतमाला ने कहा कि हे देवि! ऐसी अमांगलिक रट मत लगाओ। मैं निश्चित कहती हूँ कि भर्ता तुम्हारे समीप आयेगा ।।84।। हे कल्याणि! मैं तेरे भर्ता की अभी हाल ले आता हूँ, इस प्रकार अंजना को बड़े दुःख से आश्वासन देकर राजा प्रतिसूर्य मन के समान तीव्र वेग वाले सुंदर विमान में चढ़कर आकाश में उड़ गया। वह पृथिवी को अच्छी तरह देखता हुआ जा रहा था ।।85-86।। इस प्रकार विजयार्ध वासी विद्याधर और त्रिकूटा चल वासी राक्षस राजा प्रतिसूर्य के साथ मिलकर बड़े प्रयत्न से पृथिवी का अवलोकन करने लगे ।।87।।
अथानंतर उन्होंने भूतरव नामक अटवी में वर्षा ऋतु के मेघ के समान विशाल आकार को धारण करनेवाला एक बड़ा हाथी देखा ।।88।। उस हाथी को उन्होंने पहले अनेक बार देखा था इसलिए यह पवन कुमार का काल मेध नामक हाथी है इस प्रकार पहचान लिया ।।89।। यह वही हाथी है इस प्रकार सब विद्याधर हर्षित हो जोर से हल्ला करते हुए परस्पर एक दूसरे से कहने लगे ।।90।। जो नील गिरि अथवा अंजनगिरि के समान सफेद है तथा जिसकी सूँड योग्य प्रमाण से सहित है ऐसा यह हाथी जिस स्थान में है नि:संदेह उसी स्थान में पवनंजय को होना चाहिए क्योंकि यह हाथी मित्र के समान सदा उसके समीप ही रहता है ।।91-92।। इस प्रकार कहते हुए सब विद्याधर उस हाथी के पास गये। चूंकि वह हाथी निरंकुश था इसलिए विद्याधरों का मन कुछ कुछ भयभीत हो रहा था ।।93।। उन विद्याधरों के महाशब्द से वह महान् हाथी सचमुच ही क्षुभित हो गया। उस समय उसका रोकना कठिन था, उसका समस्त भयंकर शरीर चंचल हो रहा था और वेग अत्यंत तीव्र था ।।94।। उसके दोनों कपोल मद से भीगे हुए थे, कान खड़े थे और वह जोर-जोर से गर्जना कर रहा था। वह जिस दिशा में देखता था उसी दिशा के विद्याधर क्षुभित हो जाते थे- भय से भागने लगते थे ।।95।। उस जनसमूह को देखकर स्वामी की रक्षा करने में तत्पर हाथी पवनंजय की समीपता को नहीं छोड़ रहा था ।।96।। वह लीला सहित सूँड को घुमाता और अपने तीक्ष्ण दशन से ही समस्त विद्याधरों को भयभीत करता हुआ पवनंजय के चारों ओर मंडलाकार भ्रमण कर रहा था ।।97।।
तदनंतर विद्याधर यत्न पूर्वक हस्तिनीयों से उस हाथी को घेर कर तथा वक्ष में कर उत्सुक होते हुए उस स्थान पर उतरे ।।98।। वशीकरण के समस्त उपायों में स्त्री समागम को छोड़कर और दूसरा उत्तम उपाय नहीं है ।।99।। अथानंतर जिसका समस्त शरीर ढीला हो रहा था, चित्र लिखित के समान जिसका आकार था और जो मौन से बैठा था ऐसे पवनंजय को विद्याधरों ने देखा ।।100।। यद्यपि सब विद्याधरों ने उसका यथायोग्य उपचार किया तो भी वह मुनि के समान चिंता में निमग्न बैठा रहा- किसी से कुछ नहीं कहा ।।101।। माता-पिता ने पुत्र की प्रीति से उसका मस्तक सूंघा, बार-बार आलिंगन किया और इस हर्ष से उनके नेत्र आँसुओं से आच्छादित हो गये ।।102।। उन्होंने कहा भी कि हे बेटा! तुम माता-पिता को छोड़कर ऐसी चेष्टा क्यों करते हो? तुम तो विनीत मनुष्यों में सब से आगे थे ।।103।। तुम्हारा शरीर उत्कृष्ट शय्या पर पड़ने के योग्य है पर तुमने आज इसे भयंकर एवं निर्जन वन के बीच वृक्ष की कोटर में क्यों डाल रखा है? ।।104।। माता-पिता के इस प्रकार कहने पर भी उसने एक शब्द नहीं कहा। केवल इशारे से यह बता दिया कि मैं मरने का निश्चय कर चुका हूँ ।।105।। मैंने यह व्रत कर रखा है कि अंजना को पाये बिना मैं न भोजन करूँगा और न बोलूँगा। फिर इस समय वह व्रत कैसे तोड़ दूँ? ।।106।। अथवा प्रिया की बात जाने दो, सत्यव्रत की रक्षा करता हुआ मैं इन माता-पिता को किस प्रकार संतुष्ट करूँ यह सोचता हुआ वह कुछ व्याकुल हुआ ।।107।।
तदनंतर जिसका मस्तक नीचे की ओर झुक रहा था और जो मौन से चुपचाप बैठा था ऐसे पवनंजय को मरने के लिए कृतनिश्चय जानकर विद्याधर शोक को प्राप्त हुए ।।108।। जिनके हृदय अत्यंत दीन थे और जो स्वेद को धारण करने वाले हाथों से पवनंजय के शरीर का स्पर्श कर रहे थे ऐसे सब विद्याधर उसके माता-पिता के साथ विलाप करने लगे ।।109।। तदनंतर हँसते हुए प्रतिसूर्य ने सब विद्याधरों से कहा कि आप लोग दुःखी न हों। मैं आप लोगों से पवन कुमार को बुलवाता हूँ ।।110।। तथा पवनंजय का आलिंगन कर क्रमानुसार उससे कहा कि हे कुमार! सुनो, जो कुछ भी वृत्तांत हुआ है वह सब मैं कहता हूँ ।।111।। संध्याभ्र नामक मनोहर पर्वत पर अनंगवीचि नामक मुनिराज को इंद्रों में क्षोभ उत्पन्न करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था ।।112।। मैं उनकी वंदना कर दीपक के सहारे रात्रि को चला आ रहा था कि मैंने वीणा के शब्द के समान किसी स्त्री के रोने का शब्द सुना ।।113।। मैं उस शब्द को लक्ष्य कर पर्वत की ऊँची चोटी पर गया। वहाँ मुझे पर्यंक नाम की गुफा में अंजना दिखी ।।114।। इसके निवास का कारण जो बताया गया था उसे जानकर शोक से विह्वल होकर रोती हुई उस बाला को मैंने सांतवना दी ।।115।। उसी गुफा में उसने शुभ लक्षणों से युक्त ऐसा पुत्र उत्पन्न किया कि जिसकी प्रभा से वह गुफा सुवर्ण से बनी हुई के समान हो गयी ।।116।। अंजना के पुत्र हो चुका है यह जानकर पवनंजय परम संतोष को प्राप्त हुआ और फिर क्या हुआ? फिर क्या हुआ? यह शीघ्रता से पूछने लगा ।।117।। प्रतिसूर्य ने कहा कि उसके बाद अंजना के उस सुंदर चेष्टाओं के धारक पुत्र को विमान में बैठाया जा रहा था कि वह पर्वत की गुफा में गिर गया ।।118।। यह सुनकर हाहाकार करता हुआ पवनंजय विद्याधरों की सेना के साथ पुनः विषाद को प्राप्त हुआ ।।119।। तब प्रतिसूर्य ने कहा कि शोक को प्राप्त मत होओ। जो कुछ वृत्तांत हुआ वह सब सुनो। हे पवन! पूरा वृत्तांत तुम्हारे दुःख को दूर कर देगा ।।120।। प्रतिसूर्य कहता जाता है कि तदनंतर हाहाकार से दिशाओं को शब्दायमान करते हुए हम लोगों ने नीचे उतरकर पर्वत के बीच उस निर्दोष बालक को देखा ।।121।। चूँकि उस बालक ने गिरकर पर्वत को चूर-चूर कर डाला था इसलिए हम लोगों ने विस्मित होकर उसकी श्री शैल इस नाम से स्तुति की ।।122।। तदनंतर पुत्र सहित अंजना को वसंतमाला के साथ विमान में बैठाकर मैं अपने नगर ले गया ।।123।। आगे चलकर चूंकि उसका हनुरुह द्वीप में संवर्धन हुआ है इसलिए हनूमान यह दूसरा नाम भी रखा गया है ।।124।। इस तरह आपने जिसका कथन किया है वह शीलवती अंजना आश्चर्यजनक कार्य करने वाले पुत्र के साथ मेरे नगर में रह रही है सो ज्ञात कीजिए ।।125।।
तदनंतर हर्ष से भरे विद्याधर अंजना के देखने के लिए उत्सुक हो पवनंजय को आगे कर शीघ्र ही हनुरुह नगर गये ।।126।। वहाँ अंजना और पवनंजय का समागम हो जाने से विद्याधरों को महान् उत्सव हुआ। दोनों दंपतियों को जो उत्सव हुआ वह स्वसंवेदन से ही जाना जा सकता था विशेषकर उसका कहना अशक्य था ।।127।। वहाँ विद्याधरों ने प्रसन्नचित्त से दो महीने व्यतीत किये। तदनंतर पूछकर सम्मान प्राप्त करते हुए सब यथास्थान चले गये ।। 128।। चिरकाल के बाद पत्नी को पाकर पवनंजय की चेष्टाएं भी ठीक हो गयीं और वह पुत्र की चेष्टाओं से आनंदित होता हुआ वहाँ देव की तरह रमण करने लगा ।।129।। हनुमान भी वहाँ उत्तम यौवन लक्ष्मी को पाकर सबके चित्त को चुराने लगा तथा उसका शरीर मेरु पर्वत के शिखर के समान देदीप्यमान हो गया ।।130।। उसे समस्त विद्याएँ सिद्ध हो गयी थीं, प्रभाव उसका निराला ही था, विनय का वह जानकार था, महाबलवान् था, समस्त शास्त्रों का अर्थ करने में कुशल था, परोपकार करने में उदार था, स्वर्ग में भोगने से बाकी बचे पुण्य का भोगने वाला था और गुरुजनों की पूजा करने में तत्पर था। इस तरह वह उस नगर में बड़े आनंद से क्रीड़ा करता था ।।131-132।। गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! जो हनूमान के साथ-साथ नाना रसों से आश्चर्य उत्पन्न करने वाले इस अंजना और पवनंजय के संगम को भाव से सुनता है उसे संसार की समस्त विधि का ज्ञान हो जाता है तथा उस ज्ञान के प्रभाव से उसे आत्म-ज्ञान उत्पन्न हो जाता है जिससे वह उत्तम कार्य ही प्रारंभ करता है और अशुभ कार्य में उसकी बुद्धि प्रवृत्त नहीं होती ।।133।। वह दीर्घ आयु, उदार विभ्रमों से युक्त, सुंदर नीरोग शरीर, समस्त शास्त्रों के पार को विषय करने वाली बुद्धि, चंद्रमा के समान निर्मल कीर्ति, स्वर्ग-सुख का उपभोग करने में चतुर, पुण्य तथा लोक में जो कुछ भी दुर्लभ पदार्थ हैं उन सबको एक बार उस तरह प्राप्त कर लेता है जिस प्रकार कि सूर्य देदीप्यमान कांति के मंडल को ।।134।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मचरित में पवनंजय और अंजना के समागम का वर्णन करनेवाला अठारहवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।18।।