त्रस: Difference between revisions
From जैनकोष
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<p class="HindiText">अपनी रक्षार्थ स्वयं चलने-फिरने की शक्तिवाले जीव त्रस कहलाते हैं। दो इन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक अर्थात् लट्, चींटी आदि से लेकर मनुष्य देव आदि सब त्रस हैं। ये जीव यद्यपि अपर्याप्त होने सम्भव हैं पर सूक्ष्म कभी नहीं होते। लोक के मध्य में १ राजू विस्तृत और १४ राजू लम्बी जो त्रस नाली कल्पित की गयी है, उससे बाहर में ये नहीं रहते, न ही जा सकते हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> त्रस जीव निर्देश</strong><br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> त्रस जीव का लक्षण</strong> </span><br /> | |||
स.सि./२/१२/१७१/३<span class="SanskritText"> त्रसनामकर्मोदयवशीकृतात्रसा:। =</span><span class="HindiText">जिनके त्रस नामकर्म का उदय है वे त्रस कहलाते हैं।</span><br /> | |||
रा.वा./२/१२/१/१२६<span class="SanskritText"> जीवनामकर्मणो जीवविपाकिन उदयापादित वृत्तिविशेषा: त्रसा इति व्यपदिश्यन्ते। </span>=<span class="HindiText">जीवविपाकी त्रस नामकर्म के उदय से उत्पन्न वृत्ति विशेष वाले जीव त्रस कहे जाते हैं। (ध.१/१,१,३९/२६५/८)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> त्रस जीवों के भेद</strong></span><br /> | |||
त.सू./२/१४<span class="SanskritText"> द्वीन्द्रियादयस्त्रसा:।१४। </span>=<span class="HindiText">दो इन्द्रिय आदिक जीव त्रस हैं।१४।</span><br /> | |||
मू.आ./२१८ <span class="PrakritGatha">दुविधा तसा य उत्ता विगला सगलेंदिया मुणेयव्वा। वितिचउरिंदिय विगला सेसा सगलिंदिया जीवा।२१८। </span><span class="HindiText">=त्रसकाय दो प्रकार कहे हैं–विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय। दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय इन तीनों को विकलेन्द्रिय जानना और शेष पंचेन्द्रिय जीवों को सकलेन्द्रिय जानना।२१८। (ति.प./५/२८०); (रा.वा./३/३९/४/२०९); (का.अ./१२८)</span><br /> | |||
पं.सं./प्रा./१/८६<span class="PrakritGatha"> विहिं तिहिं चऊहिं पंचहिं सहिया जे इंदिएहिं लोयम्हि। ते तस काया जीवा णेया वीरोवदेसेण।८६। </span>=<span class="HindiText">लोक में जो दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाच इन्द्रिय से सहित जीव दिखाई देते हैं उन्हें वीर भगवान् के उपदेश से त्रसकायिक जानना चाहिए।८६। (ध.१/१,१,४६/गा.१५४/२७४) (पं.सं./सं./१/१६०); (गो.जी./मू./१९८); (द्र.सं./मू./११)</span><br /> | |||
न.च./१२३...।...<span class="PrakritText">चदु तसा तह य।१२३।</span> =<span class="HindiText">त्रस जीव चार प्रकार के हैं–दो, तीन व चार तथा पाच इन्द्रिय।<br /> | |||
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/ | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> सकलेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./२१९ <span class="PrakritGatha">संखो गोभी भमरादिआ दु विकलिंदिया मुणेदव्वा। सकलिंदिया य जलथलखचरा सुरणारयणरा य।२१९। </span>=<span class="HindiText">शंख आदि, गोपालिका चींटी आदि, भौंरा आदि, जीव दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय विकलेन्द्रिय जानना। तथा सिंह आदि स्थलचर, मच्छ आदि जलचर, हंस आदि आकाशचर तिर्यंच और देव, नारकी, मनुष्य–ये सब पंचेन्द्रिय हैं।२१९।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> त्रस दो प्रकार हैं—पर्याप्त और अपर्याप्त</strong> </span><br /> | |||
ष.खं./११/सू.४२/२७२ <span class="PrakritText">तसकाइया दुविहा, पज्जता अपज्जता।४२।</span> =<span class="HindiText">त्रस कायिक जीव दो प्रकार होते हैं पर्याप्त अपर्याप्त।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> त्रस जीव बादर ही होते हैं</strong> </span><br /> | |||
ध.१/१,१,४२/२७२<span class="SanskritText"> किं त्रसा: सूक्ष्मा उत बादरा इति। बादरा एव न सूक्ष्मा:। कुत:। तत्सौक्ष्म्यविधायकार्षाभावात् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–त्रस जीव क्या सूक्ष्म होते हैं अथवा बादर? <strong>उत्तर</strong>–त्रस जीव बादर ही होते हैं, सूक्ष्म नहीं होते। <strong>प्रश्न</strong>–यह कैसे जाना जाये ? <strong>उत्तर</strong>–क्योंकि, त्रस जीव सूक्ष्म होते हैं, इस प्रकार कथन करने वाला आगम प्रमाण नहीं पाया जाता है। (ध./९/४,१,७१/३४३/९); (का.अ./मू./१२५)</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> त्रस जीवों में कथंचित् सूक्ष्मत्व</strong> </span><br> | |||
ध.१०/४,२,४,१४/४७/८ <span class="PrakritText">सुहुमणामकम्मोदयजणिदसुहुमत्तेण विणा विग्गहगदीए वट्टमाणतसाणं सुहुमत्तब्भुवगमादो। कधं ते सुहुमा। अणंताणंतविस्ससोवचएहि उवचियओरालियणोकम्मक्खंधादो विणिग्गयदेहत्तादो। </span>=<span class="HindiText">यहा पर सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जो सूक्ष्मता उत्पन्न होती है, उसके बिना विग्रहगति में वर्तमान त्रसों की सूक्ष्मता स्वीकार की गयी है। <strong>प्रश्न</strong>–वे सूक्ष्म कैसे हैं ? <strong>उत्तर</strong>–क्योंकि उनका शरीर अनन्तानन्त विस्रसोपचयों से उपचित औदारिक नोकर्मस्कन्धों से रहित है, अत: वे सूक्ष्म हैं।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> त्रसों में गुणस्थान का स्वामित्व</strong> </span><br> | |||
ष.खं./१/१,१/सू.३६-४४ <span class="PrakritText">एइंदिया बीइंदिया तीइंदिया चउरिंदिया असण्णिपंचिंदिया एक्कम्मि चेव मिच्छाइट्ठिट्ठाणे।३६। पंचिंदिया असण्णि पंचिंदिय-मिच्छत्तप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।३७। तसकाइयाबीइंदिया-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।४४। </span>=<span class="HindiText">एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थानो में ही होते हैं।३६। असंज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवलि गुणस्थान तक पंचेन्द्रिय जीव होते हैं।३७। द्वीन्द्रियादि से लेकर अयोगिकेवली तक त्रसजीव होते हैं।४४।</span><br>रा.वा./९/७/११/६०५/२४ <span class="SanskritText">एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु एकमेव गुणस्थानमाद्यम् । पञ्चेन्द्रियेषु संज्ञिषु चतुर्दशापि सन्ति। </span>=<span class="HindiText">एकेन्द्रिय, द्विन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में एक ही पहला मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। पंचेन्द्रिय संज्ञियों में चौदह ही गुणस्थान होते हैं। गो.जी./जी.प्र./६९५/११३१/१३ सासादने बादरैकद्वित्रिचतुरिन्द्रियसंज्ञ्यपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ता: सप्त। =सासादन विषै बादर एकेन्द्रिय, बेन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व संज्ञी और असंज्ञी पर्याप्त ए सात पाइए। (गो.जी./जी.प्र./७०३/११३७/१४); (गो.क./जी.प्र./५५१/७५३/७) (विशेष देखें - [[ जन्म#4 | जन्म / ४ ]])</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> त्रस के लक्षण सम्बन्धी शंका समाधान</strong> </span><br> | |||
रा.वा./२/१२/२/१२६/२७ <span class="SanskritText">स्यान्मतम्-त्रसेरुद्वेजनक्रियस्य त्रस्यन्तीति त्रसा इति। तन्न; किं कारणम् । गर्भादिषु तदभावात् । अत्र सत्वप्रसङ्गात् । गर्भाण्डजमूर्च्छितसुषुप्तादीनां त्रसानां बाह्यभयनिमित्तोपनिपाते सति चलनाभावादत्र सत्त्वं स्यात् । कथं तर्ह्यस्य निष्पत्ति: ‘त्रस्यन्तीति त्रसा:’ इति। व्युत्पत्तिमात्रमेव नार्थ: प्राधान्येनाश्रीयते गोशब्दप्रवृत्तिवत् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–भयभीत होकर गति करे सो त्रस ऐसा लक्षण क्यों नहीं करते ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि ऐसा लक्षण करने से गर्भस्थ, अण्डस्थ, मूर्च्छित, सुषुप्त आदि में अत्रसत्व का प्रसंग आ जायेगा। अर्थात् त्रस जीवों में बाह्यभय के निमित्त मिलने पर भी हलन-चलन नहीं होता अत: इनमें अत्रसत्व प्राप्त हो जायेगा। <strong>प्रश्न</strong>–तो फिर भयभीत होकर गति करे सो त्रस, ऐसी निष्पत्ति क्यों की गयी ? <strong>उत्तर</strong>–यह केवल रूढिवश ग्रहण की गयी है। ‘जो चले सो गऊ’ ऐसी व्युत्पत्ति मात्र है। इसलिए चलन और अचलन की अपेक्षा त्रस और स्थावर व्यवहार नहीं किया जा सकता। कर्मोदय की अपेक्षा से ही किया गया है। यह बात सिद्ध है। (स.सि./२/१२/१७१/४); (ध.१/१,१,४०/२६६/२)।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.9" id="1.9">अन्य सम्बन्धित विषय</strong> | |||
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<li><span class="HindiText"> त्रसजीव के भेद-प्रभेदों का लोक में अवस्थान।–देखें - [[ इन्द्रिय | इन्द्रिय ]], काय, मनुष्यादि।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"> वायु व अग्निकायिकों में कथंचित् त्रसपना।– देखें - [[ स्थावर#6 | स्थावर / ६ ]]। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"> त्रसजीवों में कर्मों का बन्ध, उदय व सत्त्व।–दे०वह वह नाम।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"> मार्गणा प्रकरण में भावमार्गणा की इष्टता और वहा के आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम।–देखें - [[ मार्गणा | मार्गणा। ]] </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"> त्रसजीवों के स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान जीवसमास, मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाए।–देखें - [[ सत् | सत् । ]]</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"> त्रसजीवों में प्राणों का स्वामित्व।– देखें - [[ प्राण#1 | प्राण / १ ]]। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"> त्रसजीवों के सत् (अस्तित्व) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प–बहुत्वरूप आठ प्ररूपणाए।–दे०वह वह नाम।</span></li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> त्रस नामकर्म व त्रसलोक</strong> <strong> </strong> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> त्रस नामकर्म का लक्षण</strong></span><br>स.सि./८/११/३९१/१० <span class="PrakritText">यदुदयाद् द्वीन्द्रियादिषु जन्म तत् त्रसनाम। </span>=<span class="HindiText">जिसके उदय से द्वीन्द्रियादिक में जन्म होता है वह त्रस नामकर्म है। (रा.वा./८/१२/२१/५७८/२७) (ध.६/१,९-१,२८/६१/४) (गो.जी./जी.प्र./३३/२९/३३)</span> ध.१३/५,५,१०१/३६५/३<span class="PrakritText"> जस्स कम्मस्सुदएण जीवाणं संचरणासंचरणभावो होदि तं कम्मं तसणामं। </span>=<span class="HindiText">जिस कर्म के उदय से जीव के गमनागमनभाव होता है वह त्रस नामकर्म है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.2" id="2.2">त्रसलोक निर्देश</strong> </span><br> | |||
ति.प./५/६<span class="PrakritGatha"> मंदरगिरिमूलादो इगिलक्खजोयणाणि बहलम्मि। रज्जूय पदरखेत्ते चिट्ठेदि तिरियतसलोओ।६।</span> =<span class="HindiText">मन्दरपर्वत के मूल से एक लाख योजन बाहल्यरूप राजुप्रतर अर्थात् एक राजू लम्बे-चौड़े क्षेत्र में तिर्यक् त्रसलोक स्थित है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.3" id="2.3">त्रसनाली निर्देश</strong></span><br> ति.प./२/६ <span class="PrakritGatha">लोयबहुमज्झदेसे तरुम्मि सारं व रज्जुपदरजुदा। तेरसरज्जुच्छेहा किंचूणा होदि तसणाली।६।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार ठीक मध्यभाग में सार हुआ करता है, उसी प्रकार लोक के बहु मध्यभाग अर्थात् बीच में एक राजु लम्बी चौड़ी और कुछ कम तेरह राजु ऊची त्रसनाली (त्रस जीवों का निवासक्षेत्र) है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> त्रसजीव त्रसनाली से बाहर नहीं रहते</strong></span><br> ध.४/१,४,४/१४९/९ <span class="PrakritText">तसजीवलोगणालीए अब्भंतरे चेव होंति, णो बहिद्धा। </span>=<span class="HindiText">त्रसजीव त्रसनाली के भीतर होते हैं बाहर नहीं। (का.अ./मू./१२२)</span><br>गो.जी./मू./१९९ <span class="PrakritGatha">उववादमारणंतियपरिणदतसमुज्झिऊण सेसतसा। तसणालिबाहिरम्मि य णत्थित्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठं।१९९। </span>=<span class="HindiText">उपपाद और मारणान्तिक समुद्घात के सिवाय शेष त्रसजीव त्रसनाली से बाहर नहीं हैं, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> कथंचित् सारा लोक त्रसनाली है</strong> </span><br> | |||
ति.प./२/८ <span class="PrakritGatha">उववादमारणंतियपरिणदतसलोयपूरणेण गदो। केवलिणो अवलंबिय सव्वजगो होदि तसनाली।८। </span>=<span class="HindiText">उपपाद और मारणान्तिक समुद्घात में परिणत त्रस तथा लोकपूरण समुद्घात को प्राप्त केवली का आश्रय करके सारा लोक ही त्रसनाली है।८। </span></li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> त्रस नामकर्म की बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणाए–दे०वह वह नाम।</strong></span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong>त्रस नामकर्म के असंख्यातों भेद सम्भव हैं–देखें - [[ नामकर्म | नामकर्म। ]]</strong></span></li> | |||
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Revision as of 16:15, 25 December 2013
अपनी रक्षार्थ स्वयं चलने-फिरने की शक्तिवाले जीव त्रस कहलाते हैं। दो इन्द्रिय से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक अर्थात् लट्, चींटी आदि से लेकर मनुष्य देव आदि सब त्रस हैं। ये जीव यद्यपि अपर्याप्त होने सम्भव हैं पर सूक्ष्म कभी नहीं होते। लोक के मध्य में १ राजू विस्तृत और १४ राजू लम्बी जो त्रस नाली कल्पित की गयी है, उससे बाहर में ये नहीं रहते, न ही जा सकते हैं।
- त्रस जीव निर्देश
- त्रस जीव का लक्षण
स.सि./२/१२/१७१/३ त्रसनामकर्मोदयवशीकृतात्रसा:। =जिनके त्रस नामकर्म का उदय है वे त्रस कहलाते हैं।
रा.वा./२/१२/१/१२६ जीवनामकर्मणो जीवविपाकिन उदयापादित वृत्तिविशेषा: त्रसा इति व्यपदिश्यन्ते। =जीवविपाकी त्रस नामकर्म के उदय से उत्पन्न वृत्ति विशेष वाले जीव त्रस कहे जाते हैं। (ध.१/१,१,३९/२६५/८)
- त्रस जीवों के भेद
त.सू./२/१४ द्वीन्द्रियादयस्त्रसा:।१४। =दो इन्द्रिय आदिक जीव त्रस हैं।१४।
मू.आ./२१८ दुविधा तसा य उत्ता विगला सगलेंदिया मुणेयव्वा। वितिचउरिंदिय विगला सेसा सगलिंदिया जीवा।२१८। =त्रसकाय दो प्रकार कहे हैं–विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय। दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय इन तीनों को विकलेन्द्रिय जानना और शेष पंचेन्द्रिय जीवों को सकलेन्द्रिय जानना।२१८। (ति.प./५/२८०); (रा.वा./३/३९/४/२०९); (का.अ./१२८)
पं.सं./प्रा./१/८६ विहिं तिहिं चऊहिं पंचहिं सहिया जे इंदिएहिं लोयम्हि। ते तस काया जीवा णेया वीरोवदेसेण।८६। =लोक में जो दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाच इन्द्रिय से सहित जीव दिखाई देते हैं उन्हें वीर भगवान् के उपदेश से त्रसकायिक जानना चाहिए।८६। (ध.१/१,१,४६/गा.१५४/२७४) (पं.सं./सं./१/१६०); (गो.जी./मू./१९८); (द्र.सं./मू./११)
न.च./१२३...।...चदु तसा तह य।१२३। =त्रस जीव चार प्रकार के हैं–दो, तीन व चार तथा पाच इन्द्रिय।
- सकलेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय के लक्षण
मू.आ./२१९ संखो गोभी भमरादिआ दु विकलिंदिया मुणेदव्वा। सकलिंदिया य जलथलखचरा सुरणारयणरा य।२१९। =शंख आदि, गोपालिका चींटी आदि, भौंरा आदि, जीव दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय विकलेन्द्रिय जानना। तथा सिंह आदि स्थलचर, मच्छ आदि जलचर, हंस आदि आकाशचर तिर्यंच और देव, नारकी, मनुष्य–ये सब पंचेन्द्रिय हैं।२१९।
- त्रस दो प्रकार हैं—पर्याप्त और अपर्याप्त
ष.खं./११/सू.४२/२७२ तसकाइया दुविहा, पज्जता अपज्जता।४२। =त्रस कायिक जीव दो प्रकार होते हैं पर्याप्त अपर्याप्त।
- त्रस जीव बादर ही होते हैं
ध.१/१,१,४२/२७२ किं त्रसा: सूक्ष्मा उत बादरा इति। बादरा एव न सूक्ष्मा:। कुत:। तत्सौक्ष्म्यविधायकार्षाभावात् । =प्रश्न–त्रस जीव क्या सूक्ष्म होते हैं अथवा बादर? उत्तर–त्रस जीव बादर ही होते हैं, सूक्ष्म नहीं होते। प्रश्न–यह कैसे जाना जाये ? उत्तर–क्योंकि, त्रस जीव सूक्ष्म होते हैं, इस प्रकार कथन करने वाला आगम प्रमाण नहीं पाया जाता है। (ध./९/४,१,७१/३४३/९); (का.अ./मू./१२५) - त्रस जीवों में कथंचित् सूक्ष्मत्व
ध.१०/४,२,४,१४/४७/८ सुहुमणामकम्मोदयजणिदसुहुमत्तेण विणा विग्गहगदीए वट्टमाणतसाणं सुहुमत्तब्भुवगमादो। कधं ते सुहुमा। अणंताणंतविस्ससोवचएहि उवचियओरालियणोकम्मक्खंधादो विणिग्गयदेहत्तादो। =यहा पर सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जो सूक्ष्मता उत्पन्न होती है, उसके बिना विग्रहगति में वर्तमान त्रसों की सूक्ष्मता स्वीकार की गयी है। प्रश्न–वे सूक्ष्म कैसे हैं ? उत्तर–क्योंकि उनका शरीर अनन्तानन्त विस्रसोपचयों से उपचित औदारिक नोकर्मस्कन्धों से रहित है, अत: वे सूक्ष्म हैं। - त्रसों में गुणस्थान का स्वामित्व
ष.खं./१/१,१/सू.३६-४४ एइंदिया बीइंदिया तीइंदिया चउरिंदिया असण्णिपंचिंदिया एक्कम्मि चेव मिच्छाइट्ठिट्ठाणे।३६। पंचिंदिया असण्णि पंचिंदिय-मिच्छत्तप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।३७। तसकाइयाबीइंदिया-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।४४। =एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थानो में ही होते हैं।३६। असंज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवलि गुणस्थान तक पंचेन्द्रिय जीव होते हैं।३७। द्वीन्द्रियादि से लेकर अयोगिकेवली तक त्रसजीव होते हैं।४४।
रा.वा./९/७/११/६०५/२४ एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु एकमेव गुणस्थानमाद्यम् । पञ्चेन्द्रियेषु संज्ञिषु चतुर्दशापि सन्ति। =एकेन्द्रिय, द्विन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में एक ही पहला मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। पंचेन्द्रिय संज्ञियों में चौदह ही गुणस्थान होते हैं। गो.जी./जी.प्र./६९५/११३१/१३ सासादने बादरैकद्वित्रिचतुरिन्द्रियसंज्ञ्यपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ता: सप्त। =सासादन विषै बादर एकेन्द्रिय, बेन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व संज्ञी और असंज्ञी पर्याप्त ए सात पाइए। (गो.जी./जी.प्र./७०३/११३७/१४); (गो.क./जी.प्र./५५१/७५३/७) (विशेष देखें - जन्म / ४ ) - त्रस के लक्षण सम्बन्धी शंका समाधान
रा.वा./२/१२/२/१२६/२७ स्यान्मतम्-त्रसेरुद्वेजनक्रियस्य त्रस्यन्तीति त्रसा इति। तन्न; किं कारणम् । गर्भादिषु तदभावात् । अत्र सत्वप्रसङ्गात् । गर्भाण्डजमूर्च्छितसुषुप्तादीनां त्रसानां बाह्यभयनिमित्तोपनिपाते सति चलनाभावादत्र सत्त्वं स्यात् । कथं तर्ह्यस्य निष्पत्ति: ‘त्रस्यन्तीति त्रसा:’ इति। व्युत्पत्तिमात्रमेव नार्थ: प्राधान्येनाश्रीयते गोशब्दप्रवृत्तिवत् । =प्रश्न–भयभीत होकर गति करे सो त्रस ऐसा लक्षण क्यों नहीं करते ? उत्तर–नहीं, क्योंकि ऐसा लक्षण करने से गर्भस्थ, अण्डस्थ, मूर्च्छित, सुषुप्त आदि में अत्रसत्व का प्रसंग आ जायेगा। अर्थात् त्रस जीवों में बाह्यभय के निमित्त मिलने पर भी हलन-चलन नहीं होता अत: इनमें अत्रसत्व प्राप्त हो जायेगा। प्रश्न–तो फिर भयभीत होकर गति करे सो त्रस, ऐसी निष्पत्ति क्यों की गयी ? उत्तर–यह केवल रूढिवश ग्रहण की गयी है। ‘जो चले सो गऊ’ ऐसी व्युत्पत्ति मात्र है। इसलिए चलन और अचलन की अपेक्षा त्रस और स्थावर व्यवहार नहीं किया जा सकता। कर्मोदय की अपेक्षा से ही किया गया है। यह बात सिद्ध है। (स.सि./२/१२/१७१/४); (ध.१/१,१,४०/२६६/२)। - <a name="1.9" id="1.9">अन्य सम्बन्धित विषय
- त्रसजीव के भेद-प्रभेदों का लोक में अवस्थान।–देखें - इन्द्रिय , काय, मनुष्यादि।
- वायु व अग्निकायिकों में कथंचित् त्रसपना।– देखें - स्थावर / ६ ।
- त्रसजीवों में कर्मों का बन्ध, उदय व सत्त्व।–दे०वह वह नाम।
- मार्गणा प्रकरण में भावमार्गणा की इष्टता और वहा के आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम।–देखें - मार्गणा।
- त्रसजीवों के स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान जीवसमास, मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाए।–देखें - सत् ।
- त्रसजीवों में प्राणों का स्वामित्व।– देखें - प्राण / १ ।
- त्रसजीवों के सत् (अस्तित्व) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प–बहुत्वरूप आठ प्ररूपणाए।–दे०वह वह नाम।
- त्रस जीव का लक्षण
- त्रस नामकर्म व त्रसलोक
- त्रस नामकर्म का लक्षण
स.सि./८/११/३९१/१० यदुदयाद् द्वीन्द्रियादिषु जन्म तत् त्रसनाम। =जिसके उदय से द्वीन्द्रियादिक में जन्म होता है वह त्रस नामकर्म है। (रा.वा./८/१२/२१/५७८/२७) (ध.६/१,९-१,२८/६१/४) (गो.जी./जी.प्र./३३/२९/३३) ध.१३/५,५,१०१/३६५/३ जस्स कम्मस्सुदएण जीवाणं संचरणासंचरणभावो होदि तं कम्मं तसणामं। =जिस कर्म के उदय से जीव के गमनागमनभाव होता है वह त्रस नामकर्म है। - <a name="2.2" id="2.2">त्रसलोक निर्देश
ति.प./५/६ मंदरगिरिमूलादो इगिलक्खजोयणाणि बहलम्मि। रज्जूय पदरखेत्ते चिट्ठेदि तिरियतसलोओ।६। =मन्दरपर्वत के मूल से एक लाख योजन बाहल्यरूप राजुप्रतर अर्थात् एक राजू लम्बे-चौड़े क्षेत्र में तिर्यक् त्रसलोक स्थित है। - <a name="2.3" id="2.3">त्रसनाली निर्देश
ति.प./२/६ लोयबहुमज्झदेसे तरुम्मि सारं व रज्जुपदरजुदा। तेरसरज्जुच्छेहा किंचूणा होदि तसणाली।६। =जिस प्रकार ठीक मध्यभाग में सार हुआ करता है, उसी प्रकार लोक के बहु मध्यभाग अर्थात् बीच में एक राजु लम्बी चौड़ी और कुछ कम तेरह राजु ऊची त्रसनाली (त्रस जीवों का निवासक्षेत्र) है। - त्रसजीव त्रसनाली से बाहर नहीं रहते
ध.४/१,४,४/१४९/९ तसजीवलोगणालीए अब्भंतरे चेव होंति, णो बहिद्धा। =त्रसजीव त्रसनाली के भीतर होते हैं बाहर नहीं। (का.अ./मू./१२२)
गो.जी./मू./१९९ उववादमारणंतियपरिणदतसमुज्झिऊण सेसतसा। तसणालिबाहिरम्मि य णत्थित्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठं।१९९। =उपपाद और मारणान्तिक समुद्घात के सिवाय शेष त्रसजीव त्रसनाली से बाहर नहीं हैं, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। - कथंचित् सारा लोक त्रसनाली है
ति.प./२/८ उववादमारणंतियपरिणदतसलोयपूरणेण गदो। केवलिणो अवलंबिय सव्वजगो होदि तसनाली।८। =उपपाद और मारणान्तिक समुद्घात में परिणत त्रस तथा लोकपूरण समुद्घात को प्राप्त केवली का आश्रय करके सारा लोक ही त्रसनाली है।८।
- त्रस नामकर्म की बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणाए–दे०वह वह नाम।
- त्रस नामकर्म के असंख्यातों भेद सम्भव हैं–देखें - नामकर्म।
- त्रस नामकर्म का लक्षण