रौद्रध्यान: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> रौद्र ध्यान के भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> रौद्र ध्यान के भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> चारित्रसार/170/2 </span><span class="SanskritText">तीव्रकषायानुरंजनं हिंसानंदं प्रथमरौद्रम्। स्वबुद्धिविकल्पितयुक्तिभिः परेषां श्रद्धेयरूपाभिः परवंंचनं प्रति मृषाकथने संकल्पाध्यवसानं मृषानंदं द्वितीयरौद्रम्। हठात्कारेण प्रमादप्रतीक्षया वा परस्वापहरणं प्रति संकल्पाध्यवसानं तृतीयरौद्रम्। चेतनाचेतन लक्षणे स्वपरिग्रह ममेवेदं स्वमहमेवास्य स्वामीत्यभिनिवेशात्तदपहारकव्यापादनेन संरक्षणं प्रति संकल्पाध्यवसानं संरक्षणानंदं चतुर्थं रौद्रम्।</span> = <span class="HindiText">तीव्रकषाय के उदय से हिंसा में आनंद मानना पहला रौद्रध्यान है। जिन पर दूसरों को श्रद्धा न हो सके ऐसी अपनी बुद्धि के द्वारा कल्पना की हुई युक्तियों के द्वारा दूसरों को ठगने के लिए झूठ बोलने के संकल्प का बार-बार चिंतवन करना मृषानंद रौद्र ध्यान है। जबरदस्ती अथवा प्रमाद की प्रतीक्षापूर्वक दूसरे के धन को हरण करने के संकल्प का बार-बार चिंतवन करना तीसरा रौद्रध्यान है। चेतन-अचेतनरूप अपने परिग्रह में यह मेरा परिग्रह है, मैं इसका स्वामी हूँ, इस प्रकार ममत्व रखकर उसके अपहरण करने वाले का नाश कर उसकी रक्षा करने के संकल्प का बार-बार चिंतवन करना विषय संरक्षणानंद नाम का चौथा रौद्र ध्यान है। </span><br /> | <span class="GRef"> चारित्रसार/170/2 </span><span class="SanskritText">तीव्रकषायानुरंजनं हिंसानंदं प्रथमरौद्रम्। स्वबुद्धिविकल्पितयुक्तिभिः परेषां श्रद्धेयरूपाभिः परवंंचनं प्रति मृषाकथने संकल्पाध्यवसानं मृषानंदं द्वितीयरौद्रम्। हठात्कारेण प्रमादप्रतीक्षया वा परस्वापहरणं प्रति संकल्पाध्यवसानं तृतीयरौद्रम्। चेतनाचेतन लक्षणे स्वपरिग्रह ममेवेदं स्वमहमेवास्य स्वामीत्यभिनिवेशात्तदपहारकव्यापादनेन संरक्षणं प्रति संकल्पाध्यवसानं संरक्षणानंदं चतुर्थं रौद्रम्।</span> = <span class="HindiText">तीव्रकषाय के उदय से हिंसा में आनंद मानना पहला रौद्रध्यान है। जिन पर दूसरों को श्रद्धा न हो सके ऐसी अपनी बुद्धि के द्वारा कल्पना की हुई युक्तियों के द्वारा दूसरों को ठगने के लिए झूठ बोलने के संकल्प का बार-बार चिंतवन करना मृषानंद रौद्र ध्यान है। जबरदस्ती अथवा प्रमाद की प्रतीक्षापूर्वक दूसरे के धन को हरण करने के संकल्प का बार-बार चिंतवन करना तीसरा रौद्रध्यान है। चेतन-अचेतनरूप अपने परिग्रह में यह मेरा परिग्रह है, मैं इसका स्वामी हूँ, इस प्रकार ममत्व रखकर उसके अपहरण करने वाले का नाश कर उसकी रक्षा करने के संकल्प का बार-बार चिंतवन करना विषय संरक्षणानंद नाम का चौथा रौद्र ध्यान है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/475-476 </span><span class="PrakritGatha"> हिंसाणंदेण जुदो असच्च-वयणेण परिणदो जो हु। तत्थेव अथिर-चित्तोसद्दं झाणं हवे तस्स।475। पर-विसय-हरण-सीतोसगीय-विसए सुरक्खणे दुक्खो। तग्गय-चिंताविट्ठो णिरंतरं तं पि रुद्दं पि।476। </span>= <span class="HindiText">जो हिंसा में आनंद मानता है और असत्य बोलने में आनंद मानता है तथा उसी में जिसका चित्त विक्षिप्त रहता है, उसके रौद्र ध्यान होता है।476। जो पुरुष दूसरों की विषय सामग्री को हरने का स्वभाव वाला है और अपनी विषय सामग्री की रक्षा करने में चतुर है तथा निरंतर जिसका | <span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/475-476 </span><span class="PrakritGatha"> हिंसाणंदेण जुदो असच्च-वयणेण परिणदो जो हु। तत्थेव अथिर-चित्तोसद्दं झाणं हवे तस्स।475। पर-विसय-हरण-सीतोसगीय-विसए सुरक्खणे दुक्खो। तग्गय-चिंताविट्ठो णिरंतरं तं पि रुद्दं पि।476। </span>= <span class="HindiText">जो हिंसा में आनंद मानता है और असत्य बोलने में आनंद मानता है तथा उसी में जिसका चित्त विक्षिप्त रहता है, उसके रौद्र ध्यान होता है।476। जो पुरुष दूसरों की विषय सामग्री को हरने का स्वभाव वाला है और अपनी विषय सामग्री की रक्षा करने में चतुर है तथा निरंतर जिसका चित्त इन कामों में लगा रहता है वह भी रौद्र ध्यानी है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/26/4-34 का भावार्थ </span> -<span class="SanskritText"> हते निष्पीडिते ध्वस्ते जंतुजाते कदर्थिते। स्वेन चान्येन यो हर्षस्तद्धिंसारौद्रमुच्यते।4। असत्यकल्पना-जालकश्मलीकृतमानसः। चेष्टते यज्जनस्तद्धि मृषारौद्रं प्रकीर्तितम्।16। यच्चौर्याय शरीरिणामहरहश्चिंता समुत्पद्यते−कृत्वा चौर्यमपि प्रमोदमतुलं कुर्वंति यत्संततम्। चौर्येणापि हृते परैः परधने यज्जायते संभ्रम−स्तच्चौर्यप्रभवं वदंति निपुणा रौद्रं सुनिंदास्पदम्।25। बह्वारंभपरिग्रहेषु नियतं रक्षार्थमभ्युद्यते−यत्संकल्प-परंपरां वितनुते प्राणीह रौद्राशयः। यच्चालंब्य महत्त्वमुन्नतमना राजेत्यहं मन्यते−तत्तुर्यं प्रवदंति निर्मलधियो रौद्रं भवाशंसिनाम्।29। </span>= | <span class="GRef"> ज्ञानार्णव/26/4-34 का भावार्थ </span> -<span class="SanskritText"> हते निष्पीडिते ध्वस्ते जंतुजाते कदर्थिते। स्वेन चान्येन यो हर्षस्तद्धिंसारौद्रमुच्यते।4। असत्यकल्पना-जालकश्मलीकृतमानसः। चेष्टते यज्जनस्तद्धि मृषारौद्रं प्रकीर्तितम्।16। यच्चौर्याय शरीरिणामहरहश्चिंता समुत्पद्यते−कृत्वा चौर्यमपि प्रमोदमतुलं कुर्वंति यत्संततम्। चौर्येणापि हृते परैः परधने यज्जायते संभ्रम−स्तच्चौर्यप्रभवं वदंति निपुणा रौद्रं सुनिंदास्पदम्।25। बह्वारंभपरिग्रहेषु नियतं रक्षार्थमभ्युद्यते−यत्संकल्प-परंपरां वितनुते प्राणीह रौद्राशयः। यच्चालंब्य महत्त्वमुन्नतमना राजेत्यहं मन्यते−तत्तुर्यं प्रवदंति निर्मलधियो रौद्रं भवाशंसिनाम्।29। </span>= | ||
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<li class="HindiText"> जीवों के समूह को अपने से तथा अन्य के द्वारा मरे जाने पर तथा पीड़ित किये जाने पर तथा ध्वंस करने पर और घात करने के संबंध मिलाये जाने पर जो हर्ष माना जाये उसे हिंसानंदनामा रौद्र ध्यान कहते हैं।4। बलि आदि देकर यशलाभ का चिंतवन करना।7। जीवों को खंड करने व दग्ध करने आदि को देखकर खुश होना।8। युद्ध में हार-जीत संबंधी भावना करना।10। वैरी से बदला लेने की भावना।11। परलोक में बदला लेने की भावना करना।12। हिंसानंदी रौद्र ध्यान है। (<span class="GRef"> महापुराण/21/45 </span>)। </li> | <li class="HindiText"> जीवों के समूह को अपने से तथा अन्य के द्वारा मरे जाने पर तथा पीड़ित किये जाने पर तथा ध्वंस करने पर और घात करने के संबंध मिलाये जाने पर जो हर्ष माना जाये उसे हिंसानंदनामा रौद्र ध्यान कहते हैं।4। बलि आदि देकर यशलाभ का चिंतवन करना।7। जीवों को खंड करने व दग्ध करने आदि को देखकर खुश होना।8। युद्ध में हार-जीत संबंधी भावना करना।10। वैरी से बदला लेने की भावना।11। परलोक में बदला लेने की भावना करना।12। हिंसानंदी रौद्र ध्यान है। (<span class="GRef"> महापुराण/21/45 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> जो मनुष्य असत्य झूठी कल्पनाओं के समूह से पापरूपी मैल से मलिनचित्त होकर जो कुछ चेष्टा करै उसे निश्चय करके मृषानंद नामा रौद्र ध्यान कहा है।16। जो ठगाई के शास्त्र रचने आदि के द्वारा दूसरों को आपदा में डालकर धन आदि संचय करे।17-19। असत्य बोलकर अपने शत्रु को दंड दिलाये।20। वचन चातुर्य से मनवांछित प्रयोजनों की सिद्धि तथा अन्य व्यक्तियों को ठगने की।21-22। भावनाएँ बनाये रखना मृषानंदी रौद्र ध्यान है। </li> | <li class="HindiText"> जो मनुष्य असत्य झूठी कल्पनाओं के समूह से पापरूपी मैल से मलिनचित्त होकर जो कुछ चेष्टा करै उसे निश्चय करके मृषानंद नामा रौद्र ध्यान कहा है।16। जो ठगाई के शास्त्र रचने आदि के द्वारा दूसरों को आपदा में डालकर धन आदि संचय करे।17-19। असत्य बोलकर अपने शत्रु को दंड दिलाये।20। वचन चातुर्य से मनवांछित प्रयोजनों की सिद्धि तथा अन्य व्यक्तियों को ठगने की।21-22। भावनाएँ बनाये रखना मृषानंदी रौद्र ध्यान है। </li> | ||
<li class="HindiText"> जीवों के चौर्यकर्म के लिए निरंतर चिंता उत्पन्न हो तथा चोरी कर्म करके भी निरंतर अतुल हर्ष मानैं आनंदित हो अन्य कोई चोरी के द्वारा परधन की हरै उसमें हर्ष मानै उसे निपुण पुरुष चौर्यकर्म से उत्पन्न हुआ रौद्र ध्यान कहते हैं, यह ध्यान अतिशय निंदा का कारण है।25। अमुक स्थान में बहुत धन है जिसे मैं तुरंत हरण करके लाने में समर्थ हूँ।26। दूसरों के द्वीपादि सबको मेरे ही आधीन समझो, क्योंकि मैं जब चाहूँ उनको शरण | <li class="HindiText"> जीवों के चौर्यकर्म के लिए निरंतर चिंता उत्पन्न हो तथा चोरी कर्म करके भी निरंतर अतुल हर्ष मानैं आनंदित हो अन्य कोई चोरी के द्वारा परधन की हरै उसमें हर्ष मानै उसे निपुण पुरुष चौर्यकर्म से उत्पन्न हुआ रौद्र ध्यान कहते हैं, यह ध्यान अतिशय निंदा का कारण है।25। अमुक स्थान में बहुत धन है जिसे मैं तुरंत हरण करके लाने में समर्थ हूँ।26। दूसरों के द्वीपादि सबको मेरे ही आधीन समझो, क्योंकि मैं जब चाहूँ उनको शरण करके जा सकता हूँ।27-28। इत्यादि रूपचिंतन चौर्यानंद रौद्र ध्यान है।</li> | ||
<li class="HindiText"> यह प्राणी रौद्र (क्रूर) चित्त होकर बहुत आरंभ परिग्रहों में रक्षार्थ नियम से उद्यम करै और उसमें ही संकल्प की परंपरा को विस्तारै तथा रौद्रचित्त होकर ही महत्ता का अवलंबन करके उन्नतचित्त हो, ऐसा मानै कि मैं राजा हूँ, ऐसे परिणाम को निर्मल बुद्धि वाले महापुरुष संसार की वांछा करने वाले जीवों के चौथा रौद्र ध्यान है।29। मैं बाहुबल से सैन्य बल से संपूर्ण पुर ग्रामों को दग्ध करके असाध्य ऐश्वर्य को प्राप्त कर सकता हूँ।30। मेरे धन पर दृष्टि रखने वालों को मैं क्षण भर में दग्ध कर दूँगा।31। मैंने यह राज्य शत्रु के मस्तक पर पाँव रखकर उसके दुर्ग में प्रवेश करके पाया है।33। इसके अतिरिक्त जल, अग्नि, सर्प, विषादि के प्रयोगों द्वारा भी मैं समस्त शत्रु-समूह को नाश करके अपना प्रताप स्फुरायमान कर सकता हूँ।34। इस प्रकार चिंतवन करना विषय | <li class="HindiText"> यह प्राणी रौद्र (क्रूर) चित्त होकर बहुत आरंभ परिग्रहों में रक्षार्थ नियम से उद्यम करै और उसमें ही संकल्प की परंपरा को विस्तारै तथा रौद्रचित्त होकर ही महत्ता का अवलंबन करके उन्नतचित्त हो, ऐसा मानै कि मैं राजा हूँ, ऐसे परिणाम को निर्मल बुद्धि वाले महापुरुष संसार की वांछा करने वाले जीवों के चौथा रौद्र ध्यान है।29। मैं बाहुबल से सैन्य बल से संपूर्ण पुर ग्रामों को दग्ध करके असाध्य ऐश्वर्य को प्राप्त कर सकता हूँ।30। मेरे धन पर दृष्टि रखने वालों को मैं क्षण भर में दग्ध कर दूँगा।31। मैंने यह राज्य शत्रु के मस्तक पर पाँव रखकर उसके दुर्ग में प्रवेश करके पाया है।33। इसके अतिरिक्त जल, अग्नि, सर्प, विषादि के प्रयोगों द्वारा भी मैं समस्त शत्रु-समूह को नाश करके अपना प्रताप स्फुरायमान कर सकता हूँ।34। इस प्रकार चिंतवन करना विषय संरक्षणानंद है। <br /> | ||
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<span class="GRef"> महापुराण/21/49-53 </span><span class="SanskritText">अनानृशंस्यं हिंसोपकरणादानतत्कथाः। निसर्गहिंस्रता चेति लिंगान्यस्य स्मृतानि वै।49।....वाक्पारुष्यादिलिंग तद् द्वितीयं रौद्रमिष्यते।50।.....प्रतीतलिंगमेवैतद् रौद्रध्यानद्वयं भुवि....।52। बाह्यंतु लिंगमस्याहुः भ्रूभंगं मुखविक्रियाम्। प्रस्वेदमंगकंपं च नेत्रयोश्चातिताम्रताम्।53।</span> = <span class="HindiText">क्रूर होना, हिंसा के उपकरण तलवार आदि को धारण करना, हिंसा की ही कथा करना और स्वभाव से ही हिंसक होना ये हिंसानंद रौद्रध्यान के चिन्ह माने गये हैं।49। कठोर वचन आदि बोलना द्वितीय रौद्र ध्यान के चिन्ह हैं।50। स्तेयानंद और संरक्षणानंद रौद्र ध्यान के बाह्यचिन्ह संसार में प्रसिद्ध हैं।52। भौंह टेढ़ी हो जाना, मुख का विकृत हो जाना, पसीना आने लगना, शरीर काँपने लगना और नेत्रों का अतिशय लाल हो जाना आदि रौद्रध्यान के बाह्य चिन्ह हैं।53। (<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/26/37-38 </span>)। </span><br /> | <span class="GRef"> महापुराण/21/49-53 </span><span class="SanskritText">अनानृशंस्यं हिंसोपकरणादानतत्कथाः। निसर्गहिंस्रता चेति लिंगान्यस्य स्मृतानि वै।49।....वाक्पारुष्यादिलिंग तद् द्वितीयं रौद्रमिष्यते।50।.....प्रतीतलिंगमेवैतद् रौद्रध्यानद्वयं भुवि....।52। बाह्यंतु लिंगमस्याहुः भ्रूभंगं मुखविक्रियाम्। प्रस्वेदमंगकंपं च नेत्रयोश्चातिताम्रताम्।53।</span> = <span class="HindiText">क्रूर होना, हिंसा के उपकरण तलवार आदि को धारण करना, हिंसा की ही कथा करना और स्वभाव से ही हिंसक होना ये हिंसानंद रौद्रध्यान के चिन्ह माने गये हैं।49। कठोर वचन आदि बोलना द्वितीय रौद्र ध्यान के चिन्ह हैं।50। स्तेयानंद और संरक्षणानंद रौद्र ध्यान के बाह्यचिन्ह संसार में प्रसिद्ध हैं।52। भौंह टेढ़ी हो जाना, मुख का विकृत हो जाना, पसीना आने लगना, शरीर काँपने लगना और नेत्रों का अतिशय लाल हो जाना आदि रौद्रध्यान के बाह्य चिन्ह हैं।53। (<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/26/37-38 </span>)। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> चारित्रसार/107 </span>।1 <span class="SanskritText">परानुमेयं परुषनिष्ठुराक्रोशननिर्भर्त्सनबंधनतर्जनताडनपीडनपरदारातिक्रमणादिलक्षणम्।</span> = <span class="HindiText">कठोर वचन, मर्मभेदी वचन, आक्रोश वचन, तिरस्कार करना, बाँधना, तर्जन करना, ताडन करना तथा परस्त्री पर अतिक्रमण करना आदि बाह्य रौद्रध्यान कहलाता है। </span><br /> | <span class="GRef"> चारित्रसार/107 </span>।1 <span class="SanskritText">परानुमेयं परुषनिष्ठुराक्रोशननिर्भर्त्सनबंधनतर्जनताडनपीडनपरदारातिक्रमणादिलक्षणम्।</span> = <span class="HindiText">कठोर वचन, मर्मभेदी वचन, आक्रोश वचन, तिरस्कार करना, बाँधना, तर्जन करना, ताडन करना तथा परस्त्री पर अतिक्रमण करना आदि बाह्य रौद्रध्यान कहलाता है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/26/5-15 </span><span class="SanskritText">अनारतं निष्करुणस्वभावः स्वभावतः क्रोधकषायदीप्तः। मदोद्धतः पापमतिः कुशीलः स्यान्नास्तिको यः स हि रौद्रधामा।5। अभिलषति नितांतं यत्परस्यापकारं, व्यसनविशिखभिन्नं वीक्ष्य यत्तोषमेति। यदिह गुणगरिष्ठं द्वेष्टि दृष्टवान्यभूतिं, भवति हृदि सशल्यस्तद्धि रौद्रस्य लिंगम्।13। हिंसोपकरणादानं क्रूरसत्त्वेष्वनुग्रहम्। निस्त्रिंशतादिलिंगानि रौद्रे बाह्यानि देहिनः।15। </span>= <span class="HindiText">जो पुरुष निरंतर निर्दय स्वभाव वाला हो तथा स्वभाव से ही क्रोध कषाय से प्रज्वलित हो तथा मद से उद्धत हो, जिसकी बुद्धि पाप रूप हो, तथा कुशीला हो, व्यभिचारी हो, नास्तिक हो वह रौद्र ध्यान का घर है।5। (<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/26/6 </span>)। जो अन्य का बुरा चाहे तथा पर को कष्ट आपदारूप बाणों से | <span class="GRef"> ज्ञानार्णव/26/5-15 </span><span class="SanskritText">अनारतं निष्करुणस्वभावः स्वभावतः क्रोधकषायदीप्तः। मदोद्धतः पापमतिः कुशीलः स्यान्नास्तिको यः स हि रौद्रधामा।5। अभिलषति नितांतं यत्परस्यापकारं, व्यसनविशिखभिन्नं वीक्ष्य यत्तोषमेति। यदिह गुणगरिष्ठं द्वेष्टि दृष्टवान्यभूतिं, भवति हृदि सशल्यस्तद्धि रौद्रस्य लिंगम्।13। हिंसोपकरणादानं क्रूरसत्त्वेष्वनुग्रहम्। निस्त्रिंशतादिलिंगानि रौद्रे बाह्यानि देहिनः।15। </span>= <span class="HindiText">जो पुरुष निरंतर निर्दय स्वभाव वाला हो तथा स्वभाव से ही क्रोध कषाय से प्रज्वलित हो तथा मद से उद्धत हो, जिसकी बुद्धि पाप रूप हो, तथा कुशीला हो, व्यभिचारी हो, नास्तिक हो वह रौद्र ध्यान का घर है।5। (<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/26/6 </span>)। जो अन्य का बुरा चाहे तथा पर को कष्ट आपदारूप बाणों से भेदा हुआ दुःखी देखकर संतुष्ट हो तथा गुणों से गरुवा देखकर अथवा अन्य की संपदा देखकर द्वेष रूप हो, अपने हृदय में शल्य सहित हो सो निश्चय करके रौद्रध्यान का चिह्न है।13। हिंसा के उपकरण शस्त्रादिक का संग्रह करना, क्रूर जीवों का अनुग्रह करना और निर्दयतादिकभाव रौद्रध्यान के देहधारियों के बाह्य चिह्न हैं।15। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> रौद्रध्यान में | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> रौद्रध्यान में संभव भाव व लेश्या</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/21/44 </span><span class="SanskritText">प्रकृष्टतरदुर्लेश्यात्रयोपोद्बलवृंहितम्। अंतर्मुहूर्तकालोत्थं पूर्ववद्भाव इष्यते।44। (परोक्षज्ञानत्वादौदयिकभावं वा भावलेश्याकषायप्रधान्यात्। <span class="GRef"> चारित्रसार </span>)। </span>= <span class="HindiText">यह रौद्र ध्यान अत्यंत अशुभ है, कृष्ण आदि तीन खोटी लेश्याओं के बल से उत्पन्न होता है। अंतर्मुहूर्त काल तक रहता है और पहले आर्तध्यान के समान इसका क्षयोपशमिक भाव होता है।44। | <span class="GRef"> महापुराण/21/44 </span><span class="SanskritText">प्रकृष्टतरदुर्लेश्यात्रयोपोद्बलवृंहितम्। अंतर्मुहूर्तकालोत्थं पूर्ववद्भाव इष्यते।44। (परोक्षज्ञानत्वादौदयिकभावं वा भावलेश्याकषायप्रधान्यात्। <span class="GRef"> चारित्रसार </span>)। </span>= <span class="HindiText">यह रौद्र ध्यान अत्यंत अशुभ है, कृष्ण आदि तीन खोटी लेश्याओं के बल से उत्पन्न होता है। अंतर्मुहूर्त काल तक रहता है और पहले आर्तध्यान के समान इसका क्षयोपशमिक भाव होता है।44। <span class="GRef"> (ज्ञानार्णव/26/36, 39) </span> अथवा भावलेश्या और कषायों की प्रधानता होने से औदयिक भाव है। <span class="GRef"> (चारित्रसार/170/5 </span> <br /> | ||
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Revision as of 08:42, 19 August 2023
सिद्धांतकोष से
हिंसा आदि पाप कार्य करके गर्वपूर्वक डींगे मारते रहने का भाव रौद्रध्यान कहलाता है। यह अत्यंत अनिष्टकारी है। हीनाधिक रूप से पंचम गुणस्थान तक ही होना संभव है, आगे नहीं।
- रौद्र सामान्य का लक्षण
भगवती आराधना/1703/1528 तेणिक्कमोससारक्खणेसु तह चेव छव्विहारंभे। रुद्दं कसायसहियं झाणं भणियं समासेण।1703। = दूसरे के द्रव्य लेने का अभिप्राय, झूठ बोलने में आनंद मानना, दूसरे के मारने का अभिप्राय, छहकाय के जीवों की विराधना अथवा असिमसि आदि परिग्रह के आरंभ व संग्रह करने में आनंद मानना इनमें जो कषाय सहित मन को करना वह संक्षेप से रौद्रध्यान कहा गया है।1703। (मूलाचार/396)।
सर्वार्थसिद्धि/9/28/445/10 रुद्रः क्रूराशयस्तस्य कर्म तत्र भवं वा रौद्रम्। = रुद्र का अर्थ क्रूर आशय है, इसका कर्म या इसमें होने वाला (भाव) रौद्र है। ( राजवार्तिक/9/28/2/627/28 ); ( ज्ञानार्णव/26/2 ); ( भावपाहुड़ टीका/78/226/17 )।
महापुराण/21/42 प्राणिनां रोदनाद् रुद्रः क्रूरः सत्त्वेषु निर्घृणः। पुमांस्तत्र भवं रौद्रं विद्धि ध्यानं चतुर्विधम्।42। = जो पुरुष प्राणियों को रुलाता है वह रुद्र क्रूर अथवा सब जीवों में निर्दय कहलाता है। ऐसे पुरुष में जो ध्यान होता है उसे रौद्रध्यान कहते हैं।42। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1702/1530 पर उद्धृत)।
चारित्रसार/170/2 स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकं (रौद्रध्यानम्)। = जिसे अपना ही आत्मा जान सके उसे आध्यात्मिक रौद्रध्यान कहते हैं।
नियमसार/तात्पर्यवृति/89 चौरजारशात्रवजनवधबंधनसन्निबद्धमहदद्वेषजनित रौद्रध्यानम्। = चोर−जार-शत्रुजनों के वध - बंधन संबंधी महाद्वेष से उत्पन्न होने वाला जो रौद्रध्यान.....।
- रौद्र ध्यान के भेद
तत्त्वार्थसूत्र/9/35 हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रम्....।35। = हिंसा, असत्य, चोरी और विषय संरक्षण के लिए सतत् चिंतन करना रौद्र ध्यान है।35।
महापुराण/21/43 हिंसानंदमृषानंदस्तेयसंरक्षणात्मकम्।43। = हिंसानंद, मृषानंद, स्तेयानंद और संरक्षणानंद अर्थात् परिग्रह की रक्षा में रात-दिन लगा रहकर आनंद मानना ये रौद्र ध्यान के चार भेद हैं।35। ( चारित्रसार/170/2 ); ( ज्ञानार्णव/26/3 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/473-474 )।
चारित्रसार/170/1 रौद्रं च बाह्याध्यात्मिकभेदेन द्विविधिम्। = रौद्र ध्यान भी बाह्य और आध्यात्मिक के भेद से दो प्रकार का है।
- रौद्र ध्यान के भेदों के लक्षण
चारित्रसार/170/2 तीव्रकषायानुरंजनं हिंसानंदं प्रथमरौद्रम्। स्वबुद्धिविकल्पितयुक्तिभिः परेषां श्रद्धेयरूपाभिः परवंंचनं प्रति मृषाकथने संकल्पाध्यवसानं मृषानंदं द्वितीयरौद्रम्। हठात्कारेण प्रमादप्रतीक्षया वा परस्वापहरणं प्रति संकल्पाध्यवसानं तृतीयरौद्रम्। चेतनाचेतन लक्षणे स्वपरिग्रह ममेवेदं स्वमहमेवास्य स्वामीत्यभिनिवेशात्तदपहारकव्यापादनेन संरक्षणं प्रति संकल्पाध्यवसानं संरक्षणानंदं चतुर्थं रौद्रम्। = तीव्रकषाय के उदय से हिंसा में आनंद मानना पहला रौद्रध्यान है। जिन पर दूसरों को श्रद्धा न हो सके ऐसी अपनी बुद्धि के द्वारा कल्पना की हुई युक्तियों के द्वारा दूसरों को ठगने के लिए झूठ बोलने के संकल्प का बार-बार चिंतवन करना मृषानंद रौद्र ध्यान है। जबरदस्ती अथवा प्रमाद की प्रतीक्षापूर्वक दूसरे के धन को हरण करने के संकल्प का बार-बार चिंतवन करना तीसरा रौद्रध्यान है। चेतन-अचेतनरूप अपने परिग्रह में यह मेरा परिग्रह है, मैं इसका स्वामी हूँ, इस प्रकार ममत्व रखकर उसके अपहरण करने वाले का नाश कर उसकी रक्षा करने के संकल्प का बार-बार चिंतवन करना विषय संरक्षणानंद नाम का चौथा रौद्र ध्यान है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/475-476 हिंसाणंदेण जुदो असच्च-वयणेण परिणदो जो हु। तत्थेव अथिर-चित्तोसद्दं झाणं हवे तस्स।475। पर-विसय-हरण-सीतोसगीय-विसए सुरक्खणे दुक्खो। तग्गय-चिंताविट्ठो णिरंतरं तं पि रुद्दं पि।476। = जो हिंसा में आनंद मानता है और असत्य बोलने में आनंद मानता है तथा उसी में जिसका चित्त विक्षिप्त रहता है, उसके रौद्र ध्यान होता है।476। जो पुरुष दूसरों की विषय सामग्री को हरने का स्वभाव वाला है और अपनी विषय सामग्री की रक्षा करने में चतुर है तथा निरंतर जिसका चित्त इन कामों में लगा रहता है वह भी रौद्र ध्यानी है।
ज्ञानार्णव/26/4-34 का भावार्थ - हते निष्पीडिते ध्वस्ते जंतुजाते कदर्थिते। स्वेन चान्येन यो हर्षस्तद्धिंसारौद्रमुच्यते।4। असत्यकल्पना-जालकश्मलीकृतमानसः। चेष्टते यज्जनस्तद्धि मृषारौद्रं प्रकीर्तितम्।16। यच्चौर्याय शरीरिणामहरहश्चिंता समुत्पद्यते−कृत्वा चौर्यमपि प्रमोदमतुलं कुर्वंति यत्संततम्। चौर्येणापि हृते परैः परधने यज्जायते संभ्रम−स्तच्चौर्यप्रभवं वदंति निपुणा रौद्रं सुनिंदास्पदम्।25। बह्वारंभपरिग्रहेषु नियतं रक्षार्थमभ्युद्यते−यत्संकल्प-परंपरां वितनुते प्राणीह रौद्राशयः। यच्चालंब्य महत्त्वमुन्नतमना राजेत्यहं मन्यते−तत्तुर्यं प्रवदंति निर्मलधियो रौद्रं भवाशंसिनाम्।29। =- जीवों के समूह को अपने से तथा अन्य के द्वारा मरे जाने पर तथा पीड़ित किये जाने पर तथा ध्वंस करने पर और घात करने के संबंध मिलाये जाने पर जो हर्ष माना जाये उसे हिंसानंदनामा रौद्र ध्यान कहते हैं।4। बलि आदि देकर यशलाभ का चिंतवन करना।7। जीवों को खंड करने व दग्ध करने आदि को देखकर खुश होना।8। युद्ध में हार-जीत संबंधी भावना करना।10। वैरी से बदला लेने की भावना।11। परलोक में बदला लेने की भावना करना।12। हिंसानंदी रौद्र ध्यान है। ( महापुराण/21/45 )।
- जो मनुष्य असत्य झूठी कल्पनाओं के समूह से पापरूपी मैल से मलिनचित्त होकर जो कुछ चेष्टा करै उसे निश्चय करके मृषानंद नामा रौद्र ध्यान कहा है।16। जो ठगाई के शास्त्र रचने आदि के द्वारा दूसरों को आपदा में डालकर धन आदि संचय करे।17-19। असत्य बोलकर अपने शत्रु को दंड दिलाये।20। वचन चातुर्य से मनवांछित प्रयोजनों की सिद्धि तथा अन्य व्यक्तियों को ठगने की।21-22। भावनाएँ बनाये रखना मृषानंदी रौद्र ध्यान है।
- जीवों के चौर्यकर्म के लिए निरंतर चिंता उत्पन्न हो तथा चोरी कर्म करके भी निरंतर अतुल हर्ष मानैं आनंदित हो अन्य कोई चोरी के द्वारा परधन की हरै उसमें हर्ष मानै उसे निपुण पुरुष चौर्यकर्म से उत्पन्न हुआ रौद्र ध्यान कहते हैं, यह ध्यान अतिशय निंदा का कारण है।25। अमुक स्थान में बहुत धन है जिसे मैं तुरंत हरण करके लाने में समर्थ हूँ।26। दूसरों के द्वीपादि सबको मेरे ही आधीन समझो, क्योंकि मैं जब चाहूँ उनको शरण करके जा सकता हूँ।27-28। इत्यादि रूपचिंतन चौर्यानंद रौद्र ध्यान है।
- यह प्राणी रौद्र (क्रूर) चित्त होकर बहुत आरंभ परिग्रहों में रक्षार्थ नियम से उद्यम करै और उसमें ही संकल्प की परंपरा को विस्तारै तथा रौद्रचित्त होकर ही महत्ता का अवलंबन करके उन्नतचित्त हो, ऐसा मानै कि मैं राजा हूँ, ऐसे परिणाम को निर्मल बुद्धि वाले महापुरुष संसार की वांछा करने वाले जीवों के चौथा रौद्र ध्यान है।29। मैं बाहुबल से सैन्य बल से संपूर्ण पुर ग्रामों को दग्ध करके असाध्य ऐश्वर्य को प्राप्त कर सकता हूँ।30। मेरे धन पर दृष्टि रखने वालों को मैं क्षण भर में दग्ध कर दूँगा।31। मैंने यह राज्य शत्रु के मस्तक पर पाँव रखकर उसके दुर्ग में प्रवेश करके पाया है।33। इसके अतिरिक्त जल, अग्नि, सर्प, विषादि के प्रयोगों द्वारा भी मैं समस्त शत्रु-समूह को नाश करके अपना प्रताप स्फुरायमान कर सकता हूँ।34। इस प्रकार चिंतवन करना विषय संरक्षणानंद है।
- रौद्रध्यान के बाह्य चिह्न
महापुराण/21/49-53 अनानृशंस्यं हिंसोपकरणादानतत्कथाः। निसर्गहिंस्रता चेति लिंगान्यस्य स्मृतानि वै।49।....वाक्पारुष्यादिलिंग तद् द्वितीयं रौद्रमिष्यते।50।.....प्रतीतलिंगमेवैतद् रौद्रध्यानद्वयं भुवि....।52। बाह्यंतु लिंगमस्याहुः भ्रूभंगं मुखविक्रियाम्। प्रस्वेदमंगकंपं च नेत्रयोश्चातिताम्रताम्।53। = क्रूर होना, हिंसा के उपकरण तलवार आदि को धारण करना, हिंसा की ही कथा करना और स्वभाव से ही हिंसक होना ये हिंसानंद रौद्रध्यान के चिन्ह माने गये हैं।49। कठोर वचन आदि बोलना द्वितीय रौद्र ध्यान के चिन्ह हैं।50। स्तेयानंद और संरक्षणानंद रौद्र ध्यान के बाह्यचिन्ह संसार में प्रसिद्ध हैं।52। भौंह टेढ़ी हो जाना, मुख का विकृत हो जाना, पसीना आने लगना, शरीर काँपने लगना और नेत्रों का अतिशय लाल हो जाना आदि रौद्रध्यान के बाह्य चिन्ह हैं।53। ( ज्ञानार्णव/26/37-38 )।
चारित्रसार/107 ।1 परानुमेयं परुषनिष्ठुराक्रोशननिर्भर्त्सनबंधनतर्जनताडनपीडनपरदारातिक्रमणादिलक्षणम्। = कठोर वचन, मर्मभेदी वचन, आक्रोश वचन, तिरस्कार करना, बाँधना, तर्जन करना, ताडन करना तथा परस्त्री पर अतिक्रमण करना आदि बाह्य रौद्रध्यान कहलाता है।
ज्ञानार्णव/26/5-15 अनारतं निष्करुणस्वभावः स्वभावतः क्रोधकषायदीप्तः। मदोद्धतः पापमतिः कुशीलः स्यान्नास्तिको यः स हि रौद्रधामा।5। अभिलषति नितांतं यत्परस्यापकारं, व्यसनविशिखभिन्नं वीक्ष्य यत्तोषमेति। यदिह गुणगरिष्ठं द्वेष्टि दृष्टवान्यभूतिं, भवति हृदि सशल्यस्तद्धि रौद्रस्य लिंगम्।13। हिंसोपकरणादानं क्रूरसत्त्वेष्वनुग्रहम्। निस्त्रिंशतादिलिंगानि रौद्रे बाह्यानि देहिनः।15। = जो पुरुष निरंतर निर्दय स्वभाव वाला हो तथा स्वभाव से ही क्रोध कषाय से प्रज्वलित हो तथा मद से उद्धत हो, जिसकी बुद्धि पाप रूप हो, तथा कुशीला हो, व्यभिचारी हो, नास्तिक हो वह रौद्र ध्यान का घर है।5। ( ज्ञानार्णव/26/6 )। जो अन्य का बुरा चाहे तथा पर को कष्ट आपदारूप बाणों से भेदा हुआ दुःखी देखकर संतुष्ट हो तथा गुणों से गरुवा देखकर अथवा अन्य की संपदा देखकर द्वेष रूप हो, अपने हृदय में शल्य सहित हो सो निश्चय करके रौद्रध्यान का चिह्न है।13। हिंसा के उपकरण शस्त्रादिक का संग्रह करना, क्रूर जीवों का अनुग्रह करना और निर्दयतादिकभाव रौद्रध्यान के देहधारियों के बाह्य चिह्न हैं।15।
- रौद्रध्यान में संभव भाव व लेश्या
महापुराण/21/44 प्रकृष्टतरदुर्लेश्यात्रयोपोद्बलवृंहितम्। अंतर्मुहूर्तकालोत्थं पूर्ववद्भाव इष्यते।44। (परोक्षज्ञानत्वादौदयिकभावं वा भावलेश्याकषायप्रधान्यात्। चारित्रसार )। = यह रौद्र ध्यान अत्यंत अशुभ है, कृष्ण आदि तीन खोटी लेश्याओं के बल से उत्पन्न होता है। अंतर्मुहूर्त काल तक रहता है और पहले आर्तध्यान के समान इसका क्षयोपशमिक भाव होता है।44। (ज्ञानार्णव/26/36, 39) अथवा भावलेश्या और कषायों की प्रधानता होने से औदयिक भाव है। (चारित्रसार/170/5
- रौद्रध्यान का फल−देखें आर्त - 2।
- रौद्रध्यान में संभव गुणस्थान
तत्त्वार्थसूत्र/9/35 ....रौद्रमविरतदेशविरतयोः।35। वह रौद्रध्यान अविरत और देशविरत के होता है।
महापुराण/21/43 षष्ठात्तु तदगुणस्थानात् प्राक् पंचगुण भूमिकम्। = यह ध्यान छठवें गुणस्थान के पहले-पहले पाँच गुणस्थानों में होता है। ( चारित्रसार/171/1 ); ( ज्ञानार्णव/26/36 )।
द्रव्यसंग्रह टीका/48/201/9 रौद्रध्यानं...तारतम्येन मिथ्यादृष्टयादिपंचमगुणस्थानवर्त्तिजीवसंभवम्। = यह रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि से पंचम गुणस्थान तक के जीवों के तारतमता से होता है।
- देशव्रती को कैसे संभव है ?
सर्वार्थसिद्धि/9/3/448/8 अविरतस्य भवतु रौद्रध्यानं, देशविरतस्य कथम्। तस्यापि हिंसाद्यावेशाद्वित्तादिसंरक्षणतंत्रत्वाच्च कदाचिद् भवितुमर्हति। तत्पुनर्नारकादीनामकारणं; सम्यग्दर्शनसामर्थ्यात्। = प्रश्न−रौद्र ध्यान अविरत के होओ, देशविरत के कैसे हो सकता है ? उत्तर−हिंसादि के आवेश से या वित्तादि के संरक्षण के परतंत्र होने से कदाचित् उसके भी हो सकता है। किंतु देशविरत के होने वाला रौद्रध्यान नरकादि दुर्गतियों का कारण नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन की ऐसी ही सामर्थ्य है। ( राजवार्तिक/9/35/3/629/19 ); ( ज्ञानार्णव/26/36/भाषा )।
- साधु को कदापि संभव नहीं
सर्वार्थसिद्धि/9/35/448/10 संयतस्य तु न भवत्येव; तदारंभे संयमप्रच्युते। = परंतु यह संयत के तो होता ही नहीं है; क्योंकि उसका आरंभ होने पर संयम से पतन हो जाता है। ( राजवार्तिक/9/35/4/629/22 )।
पुराणकोष से
क्रूर और निर्दयी लोगों का आततायी ध्यान । इसके चार भेद हैं― हिंसानंद, मृषानंद, स्तेयानंद और संरक्षणानंद । यह पाँचवें गुणस्थान तक होता है । कृष्ण आदि तीन खोटी लेश्याओं से उत्पन्न होकर यह अंतर्मुहूर्त काल तक रहता है । पहले आर्तध्यान के समान इसका क्षायोपशमिक भाव होता है । नरकगति के दुःख प्राप्त होना इसका फल है । भौहें टेढ़ी हो जाना, मुख का विकृत हो जाना, पसीना आने लगना, शरीर काँपने लगना और नेत्रों का लाल हो जाना इसके बाह्य चिह्न है । महापुराण 21. 41-44, 52-53, पद्मपुराण 14.31, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.49-50