हरिवंश पुराण - सर्ग 12: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर चक्रवर्ती भरत समवसरण में जाकर निरंतर भगवान् वृषभदेव को नमस्कार करते थे और त्रेसठ शलाकापुरुषों के पुराण विस्तार के साथ सुनते थे॥1 । उन्होंने चौबीस तीर्थ की वंदना के लिए अपने महलों के द्वार पर सिर क स्पर्श करने वाली वंदन मालाएं बंधवायी थीं । भावार्थ-चक्रवर्ती भरत ने अपने महलों के द्वार पर रत्ननिर्मित चौबीस घंटियों से सहित ऐसी वंदन-मालाएं बँधवायी थीं जिनका निकलते समय सिर से स्पर्श होता था । घंटियों को आवाज सुनकर भरत को चौबीस तीर्थंकरों का स्मरण हो आता था जिससे वह उन्हें परोक्ष नमस्कार करता था | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर चक्रवर्ती भरत समवसरण में जाकर निरंतर भगवान् वृषभदेव को नमस्कार करते थे और त्रेसठ शलाकापुरुषों के पुराण विस्तार के साथ सुनते थे॥1 ।<span id="2" /> उन्होंने चौबीस तीर्थ की वंदना के लिए अपने महलों के द्वार पर सिर क स्पर्श करने वाली वंदन मालाएं बंधवायी थीं । भावार्थ-चक्रवर्ती भरत ने अपने महलों के द्वार पर रत्ननिर्मित चौबीस घंटियों से सहित ऐसी वंदन-मालाएं बँधवायी थीं जिनका निकलते समय सिर से स्पर्श होता था । घंटियों को आवाज सुनकर भरत को चौबीस तीर्थंकरों का स्मरण हो आता था जिससे वह उन्हें परोक्ष नमस्कार करता था ॥ 2 ॥<span id="3" /><span id="4" /><span id="5" /> किसी समय चक्रवर्ती के साथ विवर्द्धन कुमार आदि नौ सौ तेईस राजकुमार भगवान के समवसरण में प्रविष्ट हुए । उन्होंने पहले कभी तीर्थंकर के दर्शन नहीं किये थे । वे अनादि मिथ्यादृष्टि थे और अनादि काल से ही स्थावर कायों में जन्ममरण कर क्लेश को प्राप्त हुए थे । भगवान् की लक्ष्मी देखकर वे सब परम आश्चर्य को प्राप्त हुए और अंतर्मुहूर्त में ही उन्होंने संयम प्राप्त कर लिया ॥3-5॥<span id="7" /><span id="8" /><span id="9" /> चक्रवर्ती ने उन सब कुमारों की तथा जिनेंद्रदेव के शासन की प्रशंसा की और अंत में वे श्रीजिनेंद्र भगवान् तथा मुनिसंघ को नमस्कार कर प्रसन्न होते हुए अयोध्या नगरी में प्रविष्ट हुए ।꠰ 6 ॥ </p> | ||
<p> तदनंतर धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर लोगों की रक्षा करने वाले एवं चतुर्वर्ग के वास्तविक ज्ञानरूपी जल से प्रक्षालित चित्त के धारक महाराज भरत के साम्राज्य में सर्व प्रथम स्वयंवर प्रथा का प्रारंभ हुआ । स्वयंवर मंडप में अनेक भूमिगोचरी तथा विद्याधर इकट्ठे हुए । बनारस के राजा अकंपन की पुत्री सुलोचना ने हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ के पुत्र मेघेश्वर जयकुमार को वरा । अर्ककीर्ति और जयकुमार का युद्ध हुआ जिसमें जयकुमार ने अर्ककीर्ति को बाँध लिया । पश्चात् अकंपन की प्रेरणा से जयकुमार ने अर्ककीर्ति को छोड़ दिया एवं उसका संस्कार किया और चक्रवर्ती ने सुलोचना के पति जयकुमार का सत्कार किया ॥7-9 | <p> तदनंतर धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर लोगों की रक्षा करने वाले एवं चतुर्वर्ग के वास्तविक ज्ञानरूपी जल से प्रक्षालित चित्त के धारक महाराज भरत के साम्राज्य में सर्व प्रथम स्वयंवर प्रथा का प्रारंभ हुआ । स्वयंवर मंडप में अनेक भूमिगोचरी तथा विद्याधर इकट्ठे हुए । बनारस के राजा अकंपन की पुत्री सुलोचना ने हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ के पुत्र मेघेश्वर जयकुमार को वरा । अर्ककीर्ति और जयकुमार का युद्ध हुआ जिसमें जयकुमार ने अर्ककीर्ति को बाँध लिया । पश्चात् अकंपन की प्रेरणा से जयकुमार ने अर्ककीर्ति को छोड़ दिया एवं उसका संस्कार किया और चक्रवर्ती ने सुलोचना के पति जयकुमार का सत्कार किया ॥7-9 ॥<span id="10" /> </p> | ||
<p> तदनंतर किसी समय हस्तिनापुर का राजा जयकुमार स्त्रियों से घिरा महल की छत पर बैठा था कि आकाश में जाते हुए विद्याधर और विद्याधरी को देखकर अकस्मात् मूर्च्छित हो गया ॥10॥ घबड़ायी हुई अंतःपुर की स्त्रियों ने उसकी मूर्छा का उपचार किया जिससे सचेत होकर वह कहने लगा कि हाय ! प्रभावति ! तू कहाँ गयी ? ॥11॥ उधर विद्याधर और विद्याधरी को देखकर जयकुमार को जाति स्मरण हुआ और इधर महल के छज्जे पर क्रीड़ा करते हुए कबूतर और कबूतरी का युगल देखने से सुलोचना को भी जाति स्मरण हो गया जिससे वह भी मूर्च्छित हो गयी । पश्चात् मूर्छा का उपचार प्राप्त कर सुलोचना हिरण्यवर्मा का नाम लेती हुई उठी ॥12- | <p> तदनंतर किसी समय हस्तिनापुर का राजा जयकुमार स्त्रियों से घिरा महल की छत पर बैठा था कि आकाश में जाते हुए विद्याधर और विद्याधरी को देखकर अकस्मात् मूर्च्छित हो गया ॥10॥<span id="11" /> घबड़ायी हुई अंतःपुर की स्त्रियों ने उसकी मूर्छा का उपचार किया जिससे सचेत होकर वह कहने लगा कि हाय ! प्रभावति ! तू कहाँ गयी ? ॥11॥<span id="12" /><span id="13" /> उधर विद्याधर और विद्याधरी को देखकर जयकुमार को जाति स्मरण हुआ और इधर महल के छज्जे पर क्रीड़ा करते हुए कबूतर और कबूतरी का युगल देखने से सुलोचना को भी जाति स्मरण हो गया जिससे वह भी मूर्च्छित हो गयी । पश्चात् मूर्छा का उपचार प्राप्त कर सुलोचना हिरण्यवर्मा का नाम लेती हुई उठी ॥12-13॥<span id="14" /> प्रिया के मुख से हिरण्यवर्मा का नाम सुनकर जयकुमार ने उससे कहा कि पहले मैं ही हिरण्यवर्मा था । इसके उत्तर में सुलोचना ने भी प्रसन्न होती हुई कहा कि वह प्रभावती मैं ही हूँ ॥14॥<span id="15" /> इस प्रकार पति पत्नी दोनों ने अनेक चिह्नों से हम पहले विद्याधर थे, इसका स्पष्ट निर्णय कर लिया ॥15॥<span id="16" /><span id="17" /></p> | ||
<p> तदनंतर जिसका चित्त कौतुक से व्याप्त हो रहा था ऐसे अंतःपुर के समस्त लोगों की यह क्या है इस जिज्ञासा को दूर करने के लिए जयकुमार की प्रेरणा पाकर सुलोचना ने दोनों के पिछले चार भवों से संबंध रखने वाला चरित कहना शुरू किया । उनका वह चरित सुख और दुःखरूपी रस से मिला हुआ था तथा संयोग संबंधी सुख से सहित था ॥16-17॥ उसने बताया कि सुकांत और रतिवेगा नामक दंपति के साथ उम्रिटिकारि का क्या संबंध था तथा किस प्रकार उसने उक्त दोनों दंपतियों को जलाकर उनका करुणापूर्ण मरण किया था । उदिटिकारि मरकर बिलाव हुआ और सुकांत तथा रतिवेगा मरकर कबूतर-कबूतरी हुए तो उट्टिटिकारि ने कबूतर-कबूतरी का भक्षण किया । जिससे उन्हें मरते समय बड़ा दुःख उठाना पड़ा ॥18- | <p> तदनंतर जिसका चित्त कौतुक से व्याप्त हो रहा था ऐसे अंतःपुर के समस्त लोगों की यह क्या है इस जिज्ञासा को दूर करने के लिए जयकुमार की प्रेरणा पाकर सुलोचना ने दोनों के पिछले चार भवों से संबंध रखने वाला चरित कहना शुरू किया । उनका वह चरित सुख और दुःखरूपी रस से मिला हुआ था तथा संयोग संबंधी सुख से सहित था ॥16-17॥<span id="18" /><span id="19" /> उसने बताया कि सुकांत और रतिवेगा नामक दंपति के साथ उम्रिटिकारि का क्या संबंध था तथा किस प्रकार उसने उक्त दोनों दंपतियों को जलाकर उनका करुणापूर्ण मरण किया था । उदिटिकारि मरकर बिलाव हुआ और सुकांत तथा रतिवेगा मरकर कबूतर-कबूतरी हुए तो उट्टिटिकारि ने कबूतर-कबूतरी का भक्षण किया । जिससे उन्हें मरते समय बड़ा दुःख उठाना पड़ा ॥18-19॥<span id="20" /><span id="21" /><span id="22" /><span id="23" /> मुनिदान की अनुमोदना से कबूतरी का जीव प्रभावती नाम की विद्याधरी हुई और कबूतर का जीव हिरण्यवर्मा नाम का विद्याधर हुआ तथा दोनों ही विद्याधरों की लक्ष्मी का उपभोग करते रहे । कदाचित् हिरण्यवर्मा और प्रभावती वन में तपस्या करते थे, उसी समय अपने पूर्व भव के वैरी-मार्जार के जीव (विद्युद्वेग नामक चोर) ने उन्हें अग्नि में जला दिया । संक्लिष्ट परिणामों के कारण हिरण्यवर्मा और प्रभावती मरकर प्रथम स्वर्ग में देव-देवी हुए और विद्युद्वेग चोर का जीव मरकर नरक गया । किसी समय उक्त देव-देवियों का युगल क्रीड़ा के लिए पृथिवी पर आया था और विद्युद्वेग का जीव नरक से निकलकर भीम नाम का साधु हुआ था । सो कारण पाकर तीनों जीवों ने परस्पर क्षमाभाव धारण किया । काल पाकर भीम मुनि तो मोक्ष चले गये और देवदंपती स्वर्ग से च्युत होकर हम दोनों हुए हैं । इस प्रकार स्वर्ग से च्युत होने पर्यंत देवदंपती का चरित जैसा देखा, सुना अथवा अनुभव किया था वैसा सुलोचना ने विस्तार के साथ वर्णन किया ॥ 20-23॥<span id="24" /></p> | ||
<p> तदनंतर जयकुमार की आज्ञा पाकर सुलोचना ने श्रीपाल चक्रवर्ती का भी चरित कहा जिसे अंतःपुर के साथ-साथ सुनकर जयकुमार परम आश्चर्य को प्राप्त हुए ॥24॥ जो पांच भवों के संबंध से समुत्पन्न स्नेहरूपी सागर में निमग्न थे ऐसे जयकुमार और सुलोचना को स्मरण मात्र से ही पूर्व भव संबंधी विद्याएँ प्राप्त हो गयीं ॥25॥ तदनंतर विद्या के प्रभाव से विद्याधर और विद्याधरियों की शोभा को जीतते हुए वे दोनों विद्याधरों के लोक में विहार करने लगे ॥26॥ धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग को पुष्ट करने वाला जयकुमार कभी जिनेंद्र भगवान् की वंदना कर सुमेरुपर्वत की गुफाओं में सुलोचना के साथ रमण करता था और कभी जहां किन्नर देव गाते थे ऐसे कुलाचलों के नितंबों पर विशाल नितंबों से सुशोभित सुंदरी सुलोचना के साथ क्रीड़ा करता था | <p> तदनंतर जयकुमार की आज्ञा पाकर सुलोचना ने श्रीपाल चक्रवर्ती का भी चरित कहा जिसे अंतःपुर के साथ-साथ सुनकर जयकुमार परम आश्चर्य को प्राप्त हुए ॥24॥<span id="25" /> जो पांच भवों के संबंध से समुत्पन्न स्नेहरूपी सागर में निमग्न थे ऐसे जयकुमार और सुलोचना को स्मरण मात्र से ही पूर्व भव संबंधी विद्याएँ प्राप्त हो गयीं ॥25॥<span id="26" /> तदनंतर विद्या के प्रभाव से विद्याधर और विद्याधरियों की शोभा को जीतते हुए वे दोनों विद्याधरों के लोक में विहार करने लगे ॥26॥<span id="27" /><span id="28" /> धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग को पुष्ट करने वाला जयकुमार कभी जिनेंद्र भगवान् की वंदना कर सुमेरुपर्वत की गुफाओं में सुलोचना के साथ रमण करता था और कभी जहां किन्नर देव गाते थे ऐसे कुलाचलों के नितंबों पर विशाल नितंबों से सुशोभित सुंदरी सुलोचना के साथ क्रीड़ा करता था ॥ 27-28॥<span id="29" /> वह यद्यपि कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ था तथापि कला गुण में विदग्ध आर्य दंपती के समान भोगभूमियों में इच्छानुसार क्रीड़ा करता था ॥29॥<span id="30" /></p> | ||
<p> किसी समय इंद्र के द्वारा की हुई प्रशंसा से प्रेरित होकर रतिप्रभ नामक देव ने अपनी स्त्री के साथ सुमेरुपर्वत पर जयकुमार के शील की परीक्षा की और परीक्षा करने के बाद उसकी पूजा की ॥30॥ सो ठीक ही है क्योंकि सब प्रकार की शुद्धियों में शील शुद्धि ही प्रशंसनीय है । जो मनुष्य शील की शुद्धि से विशुद्ध हैं उनके देव भी किंकर हो जाते हैं ॥31॥ बहुत पत्नियों और बहुत पुत्रों से सुशोभित जयकुमार अपने छोटे भाई विजय के साथ उत्तमोत्तम भोग भोगता रहा ॥32॥</p> | <p> किसी समय इंद्र के द्वारा की हुई प्रशंसा से प्रेरित होकर रतिप्रभ नामक देव ने अपनी स्त्री के साथ सुमेरुपर्वत पर जयकुमार के शील की परीक्षा की और परीक्षा करने के बाद उसकी पूजा की ॥30॥<span id="31" /> सो ठीक ही है क्योंकि सब प्रकार की शुद्धियों में शील शुद्धि ही प्रशंसनीय है । जो मनुष्य शील की शुद्धि से विशुद्ध हैं उनके देव भी किंकर हो जाते हैं ॥31॥<span id="32" /> बहुत पत्नियों और बहुत पुत्रों से सुशोभित जयकुमार अपने छोटे भाई विजय के साथ उत्तमोत्तम भोग भोगता रहा ॥32॥<span id="33" /></p> | ||
<p> तदनंतर किसी दिन वह सुलोचना के साथ पर्वतों पर क्रीड़ा कर श्री वृषभ जिनेंद्र की वंदना के लिए समवसरण गया ॥33॥ समवसरण के समीप पहुँचकर उसने पास में खड़ी सुलोचना से कहा कि प्रिये ! तीन लोक के जीवों से घिरे हुए जिनेंद्रदेव को देखो ॥34॥ ये त्रिलोकीनाथ आठ प्रातिहार्यों से सहित हैं तथा चौंतीस अतिशयों से सुशोभित हो रहे हैं ॥35॥ हे प्रिये ! ये सौधर्म आदि चारों निकाय के देव और इनकी देवियाँ मस्तक झुका-झुकाकर जिनेंद्रदेव को प्रणाम कर रही हैं ॥36॥ ये भगवान् ऋषभदेव के समीप नाना ऋद्धियों के धारक मुनियों से युक्त वृषभसेन आदि सत्तर गणधर सुशोभित हो रहे हैं ॥37॥ | <p> तदनंतर किसी दिन वह सुलोचना के साथ पर्वतों पर क्रीड़ा कर श्री वृषभ जिनेंद्र की वंदना के लिए समवसरण गया ॥33॥<span id="34" /> समवसरण के समीप पहुँचकर उसने पास में खड़ी सुलोचना से कहा कि प्रिये ! तीन लोक के जीवों से घिरे हुए जिनेंद्रदेव को देखो ॥34॥<span id="35" /> ये त्रिलोकीनाथ आठ प्रातिहार्यों से सहित हैं तथा चौंतीस अतिशयों से सुशोभित हो रहे हैं ॥35॥<span id="36" /> हे प्रिये ! ये सौधर्म आदि चारों निकाय के देव और इनकी देवियाँ मस्तक झुका-झुकाकर जिनेंद्रदेव को प्रणाम कर रही हैं ॥36॥<span id="37" /> ये भगवान् ऋषभदेव के समीप नाना ऋद्धियों के धारक मुनियों से युक्त वृषभसेन आदि सत्तर गणधर सुशोभित हो रहे हैं ॥37॥<span id="38" /> हे कांते! यहाँ ये केवलज्ञानी जटाधारी बाहुबली भगवान् विराजमान हैं । ये मुनि अवस्था को प्राप्त हुए अपने भाइयों से घिरे हुए हैं और अनेक वृक्षों से घिरे वटवृक्ष के समान सुशोभित हो रहे हैं ॥38॥<span id="39" /> हे देवि ! इधर ये तपरूपी लक्ष्मी से घिरे हुए हमारे पिता सोमप्रभ मुनिराज, अपने छोटे भाई श्रेयान्स के साथ सुशोभित हो रहे हैं ॥39 ॥<span id="40" /> इधर ये तुम्हारे पिता अकंपन महाराज एक हजार पुत्रों के साथ तप में लीन हैं तथा तपोलक्ष्मी से अत्यधिक सुशोभित हो रहे हैं ॥40॥<span id="41" /> हे कांते ! इधर ये तुम्हारे स्वयंवर में युद्ध करने वाले दुर्मर्षण आदि बड़े-बड़े राजा शांत चित्त होकर तपस्या कर रहे हैं ॥41॥<span id="42" /> हे प्रिये ! यह समस्त आर्यिकाओं की अग्रणी ब्राह्मी है और यह सुंदरी है । इन दोनों ने कुमारी अवस्था में ही कामदेव को पराजित कर दिया है ॥ 42॥<span id="43" /> इधर यह जिनेंद्र भगवान् के समीप अनेक राजाओं के साथ भरत चक्रवर्ती बैठा है और उधर दूसरी ओर उसको सुभद्रा आदि रानियाँ अवस्थित हैं ॥ 43॥<span id="44" /> हे प्रिये ! देखो-देखो, कैसा आश्चर्य है कि ये परस्पर के विरोधी तिर्यंच यहाँ एक साथ मित्र की तरह बैठे हैं ॥44॥<span id="45" /><span id="46" /> </p> | ||
< | <p> इस प्रकार प्राणवल्लभा― सुलोचना के लिए अरहंत भगवान् का समवसरण दिखाता हुआ नीति का वेत्ता कुमार आकाश से नीचे उतरा और जिनेंद्र भगवान् की स्तुति करता हुआ विनय-पूर्वक चक्रवर्ती के पास बैठ गया तथा सुलोचना सुभद्रा के पास जाकर बैठ गयी ॥45-46 ॥<span id="47" /> जयकुमार का मोह अत्यंत सूक्ष्म रह गया था इसलिए वहाँ विस्तृत कथारूपी अमृत से सहित धर्म का उपदेश सुनकर उसने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक̖चारित्ररूपी बोधि का लाभ प्राप्त किया ॥47॥<span id="48" /><span id="49" /> तदनंतर अतिशय बुद्धिमान् जयकुमार ने स्नेहरूपी सुदृढ़ बंधन को छेदकर सुलोचना को समझाया, अनंतवीर्य नामक पुत्र के लिए अपना राज्य दिया और स्नेह के वशवर्ती चक्रवर्ती के मना करने पर भी छोटे भाई विजय के साथ जिनेंद्रदेव के समीप दीक्षा ले ली ॥48-49 ॥<span id="50" /> उस समय जयकुमार के साथ एक सौ आठ राजाओं ने स्त्री, पुत्र, मित्र तथा राज्य को छोड़कर दीक्षा धारण कर ली ॥50॥<span id="51" /> दुष्ट संसार के स्वभाव को जानने वाली सुलोचना ने अपनी सपत्नियों के साथ सफेद वस्त्र धारण कर लिये और ब्राह्मी तथा सुंदरी के पास जाकर दीक्षा ले ली ॥51॥<span id="52" /> मेघेश्वर जयकुमार शीघ्र ही द्वादशांग के पाठी होकर भगवान् के गणधर हो गये और आर्यिका सुलोचना भी ग्यारह अंगों की धारक हो गयी ॥52 ॥<span id="53" /><span id="54" /> </p> | ||
< | <p> तदनंतर अनेक भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओं ने जब दोषवती स्त्रियों के समान लक्ष्मी का त्यागकर दीक्षा धारण कर ली तब भगवान् के चौरासी गणधर हो गये और गणों की संख्या चौरासी हजार हो गयी ॥53-54 ॥<span id="55" /><span id="56" /><span id="57" /><span id="58" /><span id="59" /><span id="60" /><span id="61" /><span id="62" /><span id="63" /><span id="64" /><span id="65" /><span id="66" /><span id="67" /><span id="68" /><span id="69" /><span id="70" /> उनमें चौरासी गणधरों के नाम ये हैं― 1 वृषभसेन, 2 कुंभ, 3 दृढ़रथ, 4 शत्रुदमन, 5 देवशमा, 6 धनदेव, 7 नंदन, 8 सोमदत्त, 9 सूरदत्त, 10 वायुशमा, 11 सुबाहु, 12 देवाग्नि, 13 अग्निदेव, 14 अग्निभूति, 15 तेजस्वी, 16 अग्निमित्र, 17 हलधर, 18 महीधर, 19 माहेंद्र, 20 वसुदेव, 21 वसुंधर, 22 अचल, 23 मेरु, 24 भूति, 25 सर्वसह, 26 यज्ञ, 27 सर्वगुप्त, 28 सर्वप्रिय, 29 सर्वदेव, 30 विजय, 31 विजयगुप्त, 32 विजयमित्र, 33 विजयश्री, 34 पराख्य, 35 अपराजित, 36 वसुमित्र, 37 वसुसेन, 38 साधुसेन, 39 सत्यदेव, 40 सत्यवेद, 41 सर्वगुप्त, 42 मित्र, 43 सत्यवान्, 44 विनीत, 45 संवर, 46 ऋषिगुप्त, 47 ऋषिदत्त, 48 यज्ञदेव, 49 यज्ञगुप्त, 50 यज्ञमित्र, 51 यज्ञदत्त, 52 स्वयंभुव, 53 भागदत्त, 54 भागफल्गु, 55 गुप्त, 56 गुप्तफल्गु, 57 मित्रफल्गु, 58 प्रजापति, 59 सत्ययश, 60 वरुण, 61 धनवाहिक, 62 महेंद्रदत्त, 63 तेजोराशि, 64 महारथ, 65 विजय-श्रुति, 66 महाबल, 67 सुविशाल, 68 वज्र, 69 वैर, 70 चंद्रचूड, 71 मेघेश्वर, 72 कच्छ, 73 महाकच्छ, 74 सुकच्छ, 75 अतिबल, 76 भद्रावलि, 77 नमि, 78 विनमि, 79 भद्रबल, 80 नंदी, 81 महानुभाव, 82 नंदिमित्र, 83 कामदेव और 84 अनुपम । भगवान् वृषभदेव के ये चौरासी गणधर थे ॥ 55-70॥<span id="71" /> भगवान् वृषभ देव की सभा में नाना प्रकार के गुणों से पूर्ण मुनियों का सात प्रकार का संघ था ॥71 ।<span id="72" /> उनमें चार हजार सात सौ पचास महाभाग तो पूर्वधर थे ॥72॥<span id="73" /> चार हजार सात सौ पचास मुनिश्रुत के शिक्षक थे, ये सब मुनि इंद्रियों को वश करने वाले थे ॥73 ॥<span id="74" /><span id="75" /><span id="76" /><span id="77" /><span id="78" /> नौ हजार मुनि अवधिज्ञानी थे, बीस हजार केवलज्ञानी थे, बीस हजार छह सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक थे, ये मुनि अपनी विक्रिया शक्ति के योग से इंद्र को भी अच्छी तरह जीतने वाले थे, बीस हजार सात सौ पचास विपुलमति मन:पर्ययज्ञान के धारक थे, बीस हजार सात सौ पचास ही असंख्यात गुणों के धारक; हेतुवाद के ज्ञाता तथा प्रतिवादियों को जीतने वाले वादी थे शुद्ध आत्मतत्त्व को जानने वाली पचास हजार आर्यिकाएँ थीं, पांच लाख श्राविकाएँ थी और तीन लाख श्रावक थे ॥ 74-78॥<span id="79" /></p> | ||
<p> भगवान की कुल आयु चौरासी लाख पूर्व की थी, उसमें से छद्मस्थ काल के तेरासी लाख पूर्व कम कर देने पर एक लाख पूर्व तक उन्होंने अनेक भव्य जीवों को संसार-सागर से पार कराते हुए पृथिवी पर विहार किया था ॥79॥<span id="80" /> इस प्रकार मुनिगण और देवों के समूह से पूजित चरणों के धारक श्री वृषभ जिनेंद्र, संसार रूपी सागर के जल से पार करने में समर्थ रत्नत्रयरूप भाव तीर्थ का प्रवर्तन कर कल्पांत काल तक स्थिर रहने वाले एवं त्रिभुवन जनहितकारी क्षेत्र तीर्थ को प्रवर्तन के लिए स्वभाववश (इच्छा के बिना ही) कैलास पर्वतपर उस तरह आरूढ़ हो गये जिस तरह कि देदीप्यमान प्रभा का धारक वृष का सूर्य निषधाचल पर आरूढ़ होता है ॥ 80॥<span id="81" /> स्फटिक मणि की शिलाओं के समूह से रमणीय उस कैलास पर्वतपर आरूढ़ होकर भगवान् ने एक हजार राजाओं के साथ योग निरोध किया और अंत में चार अघातिया कर्मों का अंत कर निर्मल मालाओं के धारक देवों से पूजित हो अनंत सुख के स्थानभूत मोक्षस्थान को प्राप्त किया ॥81 ॥<span id="82" /> मोक्षप्राप्ति के अनंतर मुनियों का श्रेष्ठ संघ, देवों का समूह और चक्रवर्ती आदि प्रमुख राजाओं का समूह― इन सबने तीव्र भक्तिवश आकर गंध, पुष्प, सुगंधित धूप, उज्ज्वल अक्षत और देदीप्यमान दीपक के द्वारा त्रिजगद् गुरु देवादिदेव वृषभदेव के शरीर की पूजा कर तथा अच्छी तरह नमस्कार कर यही याचना की कि हम लोगों को श्री ऋषभजिनेंद्र के गुण लक्ष्मीरूपी फल की प्राप्ति होवे ॥82॥<span id="12" /></p> | |||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में श्रीवृषभदेव की निर्वाण-प्राप्ति का वर्णन करने वाला बारहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥12॥</strong></p> | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में श्रीवृषभदेव की निर्वाण-प्राप्ति का वर्णन करने वाला बारहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥12॥</strong></p> | ||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर चक्रवर्ती भरत समवसरण में जाकर निरंतर भगवान् वृषभदेव को नमस्कार करते थे और त्रेसठ शलाकापुरुषों के पुराण विस्तार के साथ सुनते थे॥1 । उन्होंने चौबीस तीर्थ की वंदना के लिए अपने महलों के द्वार पर सिर क स्पर्श करने वाली वंदन मालाएं बंधवायी थीं । भावार्थ-चक्रवर्ती भरत ने अपने महलों के द्वार पर रत्ननिर्मित चौबीस घंटियों से सहित ऐसी वंदन-मालाएं बँधवायी थीं जिनका निकलते समय सिर से स्पर्श होता था । घंटियों को आवाज सुनकर भरत को चौबीस तीर्थंकरों का स्मरण हो आता था जिससे वह उन्हें परोक्ष नमस्कार करता था ॥ 2 ॥ किसी समय चक्रवर्ती के साथ विवर्द्धन कुमार आदि नौ सौ तेईस राजकुमार भगवान के समवसरण में प्रविष्ट हुए । उन्होंने पहले कभी तीर्थंकर के दर्शन नहीं किये थे । वे अनादि मिथ्यादृष्टि थे और अनादि काल से ही स्थावर कायों में जन्ममरण कर क्लेश को प्राप्त हुए थे । भगवान् की लक्ष्मी देखकर वे सब परम आश्चर्य को प्राप्त हुए और अंतर्मुहूर्त में ही उन्होंने संयम प्राप्त कर लिया ॥3-5॥ चक्रवर्ती ने उन सब कुमारों की तथा जिनेंद्रदेव के शासन की प्रशंसा की और अंत में वे श्रीजिनेंद्र भगवान् तथा मुनिसंघ को नमस्कार कर प्रसन्न होते हुए अयोध्या नगरी में प्रविष्ट हुए ।꠰ 6 ॥
तदनंतर धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर लोगों की रक्षा करने वाले एवं चतुर्वर्ग के वास्तविक ज्ञानरूपी जल से प्रक्षालित चित्त के धारक महाराज भरत के साम्राज्य में सर्व प्रथम स्वयंवर प्रथा का प्रारंभ हुआ । स्वयंवर मंडप में अनेक भूमिगोचरी तथा विद्याधर इकट्ठे हुए । बनारस के राजा अकंपन की पुत्री सुलोचना ने हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ के पुत्र मेघेश्वर जयकुमार को वरा । अर्ककीर्ति और जयकुमार का युद्ध हुआ जिसमें जयकुमार ने अर्ककीर्ति को बाँध लिया । पश्चात् अकंपन की प्रेरणा से जयकुमार ने अर्ककीर्ति को छोड़ दिया एवं उसका संस्कार किया और चक्रवर्ती ने सुलोचना के पति जयकुमार का सत्कार किया ॥7-9 ॥
तदनंतर किसी समय हस्तिनापुर का राजा जयकुमार स्त्रियों से घिरा महल की छत पर बैठा था कि आकाश में जाते हुए विद्याधर और विद्याधरी को देखकर अकस्मात् मूर्च्छित हो गया ॥10॥ घबड़ायी हुई अंतःपुर की स्त्रियों ने उसकी मूर्छा का उपचार किया जिससे सचेत होकर वह कहने लगा कि हाय ! प्रभावति ! तू कहाँ गयी ? ॥11॥ उधर विद्याधर और विद्याधरी को देखकर जयकुमार को जाति स्मरण हुआ और इधर महल के छज्जे पर क्रीड़ा करते हुए कबूतर और कबूतरी का युगल देखने से सुलोचना को भी जाति स्मरण हो गया जिससे वह भी मूर्च्छित हो गयी । पश्चात् मूर्छा का उपचार प्राप्त कर सुलोचना हिरण्यवर्मा का नाम लेती हुई उठी ॥12-13॥ प्रिया के मुख से हिरण्यवर्मा का नाम सुनकर जयकुमार ने उससे कहा कि पहले मैं ही हिरण्यवर्मा था । इसके उत्तर में सुलोचना ने भी प्रसन्न होती हुई कहा कि वह प्रभावती मैं ही हूँ ॥14॥ इस प्रकार पति पत्नी दोनों ने अनेक चिह्नों से हम पहले विद्याधर थे, इसका स्पष्ट निर्णय कर लिया ॥15॥
तदनंतर जिसका चित्त कौतुक से व्याप्त हो रहा था ऐसे अंतःपुर के समस्त लोगों की यह क्या है इस जिज्ञासा को दूर करने के लिए जयकुमार की प्रेरणा पाकर सुलोचना ने दोनों के पिछले चार भवों से संबंध रखने वाला चरित कहना शुरू किया । उनका वह चरित सुख और दुःखरूपी रस से मिला हुआ था तथा संयोग संबंधी सुख से सहित था ॥16-17॥ उसने बताया कि सुकांत और रतिवेगा नामक दंपति के साथ उम्रिटिकारि का क्या संबंध था तथा किस प्रकार उसने उक्त दोनों दंपतियों को जलाकर उनका करुणापूर्ण मरण किया था । उदिटिकारि मरकर बिलाव हुआ और सुकांत तथा रतिवेगा मरकर कबूतर-कबूतरी हुए तो उट्टिटिकारि ने कबूतर-कबूतरी का भक्षण किया । जिससे उन्हें मरते समय बड़ा दुःख उठाना पड़ा ॥18-19॥ मुनिदान की अनुमोदना से कबूतरी का जीव प्रभावती नाम की विद्याधरी हुई और कबूतर का जीव हिरण्यवर्मा नाम का विद्याधर हुआ तथा दोनों ही विद्याधरों की लक्ष्मी का उपभोग करते रहे । कदाचित् हिरण्यवर्मा और प्रभावती वन में तपस्या करते थे, उसी समय अपने पूर्व भव के वैरी-मार्जार के जीव (विद्युद्वेग नामक चोर) ने उन्हें अग्नि में जला दिया । संक्लिष्ट परिणामों के कारण हिरण्यवर्मा और प्रभावती मरकर प्रथम स्वर्ग में देव-देवी हुए और विद्युद्वेग चोर का जीव मरकर नरक गया । किसी समय उक्त देव-देवियों का युगल क्रीड़ा के लिए पृथिवी पर आया था और विद्युद्वेग का जीव नरक से निकलकर भीम नाम का साधु हुआ था । सो कारण पाकर तीनों जीवों ने परस्पर क्षमाभाव धारण किया । काल पाकर भीम मुनि तो मोक्ष चले गये और देवदंपती स्वर्ग से च्युत होकर हम दोनों हुए हैं । इस प्रकार स्वर्ग से च्युत होने पर्यंत देवदंपती का चरित जैसा देखा, सुना अथवा अनुभव किया था वैसा सुलोचना ने विस्तार के साथ वर्णन किया ॥ 20-23॥
तदनंतर जयकुमार की आज्ञा पाकर सुलोचना ने श्रीपाल चक्रवर्ती का भी चरित कहा जिसे अंतःपुर के साथ-साथ सुनकर जयकुमार परम आश्चर्य को प्राप्त हुए ॥24॥ जो पांच भवों के संबंध से समुत्पन्न स्नेहरूपी सागर में निमग्न थे ऐसे जयकुमार और सुलोचना को स्मरण मात्र से ही पूर्व भव संबंधी विद्याएँ प्राप्त हो गयीं ॥25॥ तदनंतर विद्या के प्रभाव से विद्याधर और विद्याधरियों की शोभा को जीतते हुए वे दोनों विद्याधरों के लोक में विहार करने लगे ॥26॥ धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग को पुष्ट करने वाला जयकुमार कभी जिनेंद्र भगवान् की वंदना कर सुमेरुपर्वत की गुफाओं में सुलोचना के साथ रमण करता था और कभी जहां किन्नर देव गाते थे ऐसे कुलाचलों के नितंबों पर विशाल नितंबों से सुशोभित सुंदरी सुलोचना के साथ क्रीड़ा करता था ॥ 27-28॥ वह यद्यपि कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ था तथापि कला गुण में विदग्ध आर्य दंपती के समान भोगभूमियों में इच्छानुसार क्रीड़ा करता था ॥29॥
किसी समय इंद्र के द्वारा की हुई प्रशंसा से प्रेरित होकर रतिप्रभ नामक देव ने अपनी स्त्री के साथ सुमेरुपर्वत पर जयकुमार के शील की परीक्षा की और परीक्षा करने के बाद उसकी पूजा की ॥30॥ सो ठीक ही है क्योंकि सब प्रकार की शुद्धियों में शील शुद्धि ही प्रशंसनीय है । जो मनुष्य शील की शुद्धि से विशुद्ध हैं उनके देव भी किंकर हो जाते हैं ॥31॥ बहुत पत्नियों और बहुत पुत्रों से सुशोभित जयकुमार अपने छोटे भाई विजय के साथ उत्तमोत्तम भोग भोगता रहा ॥32॥
तदनंतर किसी दिन वह सुलोचना के साथ पर्वतों पर क्रीड़ा कर श्री वृषभ जिनेंद्र की वंदना के लिए समवसरण गया ॥33॥ समवसरण के समीप पहुँचकर उसने पास में खड़ी सुलोचना से कहा कि प्रिये ! तीन लोक के जीवों से घिरे हुए जिनेंद्रदेव को देखो ॥34॥ ये त्रिलोकीनाथ आठ प्रातिहार्यों से सहित हैं तथा चौंतीस अतिशयों से सुशोभित हो रहे हैं ॥35॥ हे प्रिये ! ये सौधर्म आदि चारों निकाय के देव और इनकी देवियाँ मस्तक झुका-झुकाकर जिनेंद्रदेव को प्रणाम कर रही हैं ॥36॥ ये भगवान् ऋषभदेव के समीप नाना ऋद्धियों के धारक मुनियों से युक्त वृषभसेन आदि सत्तर गणधर सुशोभित हो रहे हैं ॥37॥ हे कांते! यहाँ ये केवलज्ञानी जटाधारी बाहुबली भगवान् विराजमान हैं । ये मुनि अवस्था को प्राप्त हुए अपने भाइयों से घिरे हुए हैं और अनेक वृक्षों से घिरे वटवृक्ष के समान सुशोभित हो रहे हैं ॥38॥ हे देवि ! इधर ये तपरूपी लक्ष्मी से घिरे हुए हमारे पिता सोमप्रभ मुनिराज, अपने छोटे भाई श्रेयान्स के साथ सुशोभित हो रहे हैं ॥39 ॥ इधर ये तुम्हारे पिता अकंपन महाराज एक हजार पुत्रों के साथ तप में लीन हैं तथा तपोलक्ष्मी से अत्यधिक सुशोभित हो रहे हैं ॥40॥ हे कांते ! इधर ये तुम्हारे स्वयंवर में युद्ध करने वाले दुर्मर्षण आदि बड़े-बड़े राजा शांत चित्त होकर तपस्या कर रहे हैं ॥41॥ हे प्रिये ! यह समस्त आर्यिकाओं की अग्रणी ब्राह्मी है और यह सुंदरी है । इन दोनों ने कुमारी अवस्था में ही कामदेव को पराजित कर दिया है ॥ 42॥ इधर यह जिनेंद्र भगवान् के समीप अनेक राजाओं के साथ भरत चक्रवर्ती बैठा है और उधर दूसरी ओर उसको सुभद्रा आदि रानियाँ अवस्थित हैं ॥ 43॥ हे प्रिये ! देखो-देखो, कैसा आश्चर्य है कि ये परस्पर के विरोधी तिर्यंच यहाँ एक साथ मित्र की तरह बैठे हैं ॥44॥
इस प्रकार प्राणवल्लभा― सुलोचना के लिए अरहंत भगवान् का समवसरण दिखाता हुआ नीति का वेत्ता कुमार आकाश से नीचे उतरा और जिनेंद्र भगवान् की स्तुति करता हुआ विनय-पूर्वक चक्रवर्ती के पास बैठ गया तथा सुलोचना सुभद्रा के पास जाकर बैठ गयी ॥45-46 ॥ जयकुमार का मोह अत्यंत सूक्ष्म रह गया था इसलिए वहाँ विस्तृत कथारूपी अमृत से सहित धर्म का उपदेश सुनकर उसने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक̖चारित्ररूपी बोधि का लाभ प्राप्त किया ॥47॥ तदनंतर अतिशय बुद्धिमान् जयकुमार ने स्नेहरूपी सुदृढ़ बंधन को छेदकर सुलोचना को समझाया, अनंतवीर्य नामक पुत्र के लिए अपना राज्य दिया और स्नेह के वशवर्ती चक्रवर्ती के मना करने पर भी छोटे भाई विजय के साथ जिनेंद्रदेव के समीप दीक्षा ले ली ॥48-49 ॥ उस समय जयकुमार के साथ एक सौ आठ राजाओं ने स्त्री, पुत्र, मित्र तथा राज्य को छोड़कर दीक्षा धारण कर ली ॥50॥ दुष्ट संसार के स्वभाव को जानने वाली सुलोचना ने अपनी सपत्नियों के साथ सफेद वस्त्र धारण कर लिये और ब्राह्मी तथा सुंदरी के पास जाकर दीक्षा ले ली ॥51॥ मेघेश्वर जयकुमार शीघ्र ही द्वादशांग के पाठी होकर भगवान् के गणधर हो गये और आर्यिका सुलोचना भी ग्यारह अंगों की धारक हो गयी ॥52 ॥
तदनंतर अनेक भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओं ने जब दोषवती स्त्रियों के समान लक्ष्मी का त्यागकर दीक्षा धारण कर ली तब भगवान् के चौरासी गणधर हो गये और गणों की संख्या चौरासी हजार हो गयी ॥53-54 ॥ उनमें चौरासी गणधरों के नाम ये हैं― 1 वृषभसेन, 2 कुंभ, 3 दृढ़रथ, 4 शत्रुदमन, 5 देवशमा, 6 धनदेव, 7 नंदन, 8 सोमदत्त, 9 सूरदत्त, 10 वायुशमा, 11 सुबाहु, 12 देवाग्नि, 13 अग्निदेव, 14 अग्निभूति, 15 तेजस्वी, 16 अग्निमित्र, 17 हलधर, 18 महीधर, 19 माहेंद्र, 20 वसुदेव, 21 वसुंधर, 22 अचल, 23 मेरु, 24 भूति, 25 सर्वसह, 26 यज्ञ, 27 सर्वगुप्त, 28 सर्वप्रिय, 29 सर्वदेव, 30 विजय, 31 विजयगुप्त, 32 विजयमित्र, 33 विजयश्री, 34 पराख्य, 35 अपराजित, 36 वसुमित्र, 37 वसुसेन, 38 साधुसेन, 39 सत्यदेव, 40 सत्यवेद, 41 सर्वगुप्त, 42 मित्र, 43 सत्यवान्, 44 विनीत, 45 संवर, 46 ऋषिगुप्त, 47 ऋषिदत्त, 48 यज्ञदेव, 49 यज्ञगुप्त, 50 यज्ञमित्र, 51 यज्ञदत्त, 52 स्वयंभुव, 53 भागदत्त, 54 भागफल्गु, 55 गुप्त, 56 गुप्तफल्गु, 57 मित्रफल्गु, 58 प्रजापति, 59 सत्ययश, 60 वरुण, 61 धनवाहिक, 62 महेंद्रदत्त, 63 तेजोराशि, 64 महारथ, 65 विजय-श्रुति, 66 महाबल, 67 सुविशाल, 68 वज्र, 69 वैर, 70 चंद्रचूड, 71 मेघेश्वर, 72 कच्छ, 73 महाकच्छ, 74 सुकच्छ, 75 अतिबल, 76 भद्रावलि, 77 नमि, 78 विनमि, 79 भद्रबल, 80 नंदी, 81 महानुभाव, 82 नंदिमित्र, 83 कामदेव और 84 अनुपम । भगवान् वृषभदेव के ये चौरासी गणधर थे ॥ 55-70॥ भगवान् वृषभ देव की सभा में नाना प्रकार के गुणों से पूर्ण मुनियों का सात प्रकार का संघ था ॥71 । उनमें चार हजार सात सौ पचास महाभाग तो पूर्वधर थे ॥72॥ चार हजार सात सौ पचास मुनिश्रुत के शिक्षक थे, ये सब मुनि इंद्रियों को वश करने वाले थे ॥73 ॥ नौ हजार मुनि अवधिज्ञानी थे, बीस हजार केवलज्ञानी थे, बीस हजार छह सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक थे, ये मुनि अपनी विक्रिया शक्ति के योग से इंद्र को भी अच्छी तरह जीतने वाले थे, बीस हजार सात सौ पचास विपुलमति मन:पर्ययज्ञान के धारक थे, बीस हजार सात सौ पचास ही असंख्यात गुणों के धारक; हेतुवाद के ज्ञाता तथा प्रतिवादियों को जीतने वाले वादी थे शुद्ध आत्मतत्त्व को जानने वाली पचास हजार आर्यिकाएँ थीं, पांच लाख श्राविकाएँ थी और तीन लाख श्रावक थे ॥ 74-78॥
भगवान की कुल आयु चौरासी लाख पूर्व की थी, उसमें से छद्मस्थ काल के तेरासी लाख पूर्व कम कर देने पर एक लाख पूर्व तक उन्होंने अनेक भव्य जीवों को संसार-सागर से पार कराते हुए पृथिवी पर विहार किया था ॥79॥ इस प्रकार मुनिगण और देवों के समूह से पूजित चरणों के धारक श्री वृषभ जिनेंद्र, संसार रूपी सागर के जल से पार करने में समर्थ रत्नत्रयरूप भाव तीर्थ का प्रवर्तन कर कल्पांत काल तक स्थिर रहने वाले एवं त्रिभुवन जनहितकारी क्षेत्र तीर्थ को प्रवर्तन के लिए स्वभाववश (इच्छा के बिना ही) कैलास पर्वतपर उस तरह आरूढ़ हो गये जिस तरह कि देदीप्यमान प्रभा का धारक वृष का सूर्य निषधाचल पर आरूढ़ होता है ॥ 80॥ स्फटिक मणि की शिलाओं के समूह से रमणीय उस कैलास पर्वतपर आरूढ़ होकर भगवान् ने एक हजार राजाओं के साथ योग निरोध किया और अंत में चार अघातिया कर्मों का अंत कर निर्मल मालाओं के धारक देवों से पूजित हो अनंत सुख के स्थानभूत मोक्षस्थान को प्राप्त किया ॥81 ॥ मोक्षप्राप्ति के अनंतर मुनियों का श्रेष्ठ संघ, देवों का समूह और चक्रवर्ती आदि प्रमुख राजाओं का समूह― इन सबने तीव्र भक्तिवश आकर गंध, पुष्प, सुगंधित धूप, उज्ज्वल अक्षत और देदीप्यमान दीपक के द्वारा त्रिजगद् गुरु देवादिदेव वृषभदेव के शरीर की पूजा कर तथा अच्छी तरह नमस्कार कर यही याचना की कि हम लोगों को श्री ऋषभजिनेंद्र के गुण लक्ष्मीरूपी फल की प्राप्ति होवे ॥82॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में श्रीवृषभदेव की निर्वाण-प्राप्ति का वर्णन करने वाला बारहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥12॥