हरिवंश पुराण - सर्ग 33: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर राजा वसुदेव<strong>, </strong>श्रेष्ठ राजपुत्रों द्वारा प्रार्थित होने पर उन्हें शस्त्र विद्या का उपदेश देते हुए सूर्यपुर में रहने लगे ॥1॥ किसी दिन कुमार वसुदेव<strong>, </strong>धनुर्विद्या में प्रवीण अपने कंस आदि शिष्यों के साथ<strong>, </strong>राजा जरासंध को देखने की इच्छा से राजगृह नगर गये ॥2॥ उस समय वह राजगृह नगर बाहर से आये हुए अनेक राजाओं के समूह से शोभित था । उसी समय वहाँ सावधान होकर श्रवण करने वाले लोगों के लिए राजा जरासंध की ओर से निम्नांकित घोषणा दी गयी थी जिसे वसुदेव ने भी सूना | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर राजा वसुदेव<strong>, </strong>श्रेष्ठ राजपुत्रों द्वारा प्रार्थित होने पर उन्हें शस्त्र विद्या का उपदेश देते हुए सूर्यपुर में रहने लगे ॥1॥<span id="2" /> किसी दिन कुमार वसुदेव<strong>, </strong>धनुर्विद्या में प्रवीण अपने कंस आदि शिष्यों के साथ<strong>, </strong>राजा जरासंध को देखने की इच्छा से राजगृह नगर गये ॥2॥<span id="3" /> उस समय वह राजगृह नगर बाहर से आये हुए अनेक राजाओं के समूह से शोभित था । उसी समय वहाँ सावधान होकर श्रवण करने वाले लोगों के लिए राजा जरासंध की ओर से निम्नांकित घोषणा दी गयी थी जिसे वसुदेव ने भी सूना ॥3॥<span id="4" /><span id="5" /> घोषणा में कहा गया था कि "सिंहपुर का स्वामी राजा सिंहरथ उद्दंड है<strong>, </strong>वह वास्तविक सिंहों के रथ पर सवारी करता है और उत्कट पराक्रम का धारक है । जो मनुष्य उसे जीवित पकड़कर हमारे सामने दिखावेगा वही पुरुष संसार में शूर और अतिशय शूरवीर समझा जावेगा ॥4-5 ॥<span id="6" /> शत्रु के यशरूपी सागर को पीने वाले उस पुरुष को सम्मानरूपी धन तो समर्पित किया ही जावेगा उसके बाद यह अन्य जन दुर्लभ आनुषंगिक फल भी प्राप्त होगा ॥6 ॥<span id="7" /> गुणों के कारण जिसका यश दिशाओं के अंत में विश्राम कर रहा है तथा जो अद्वितीय सुंदरी है ऐसी अपनी जीवंद्यशा नाम की पुत्री भी मैं उसे इच्छित देश के साथ दूंगा" ॥7॥<span id="8" /></p> | ||
<p> उस हृदयहारी घोषणा को सुनकर वीर-रस में पगे हुए धीर-वीर वसुदेव ने कंस से पताका ग्रहण करवायी । भावार्थ― वसुदेव ने प्रेरित कर कंस से<strong>, </strong>सिंहरथ को पकड़ने की प्रतिज्ञा स्वरूप पताका उठवायी | <p> उस हृदयहारी घोषणा को सुनकर वीर-रस में पगे हुए धीर-वीर वसुदेव ने कंस से पताका ग्रहण करवायी । भावार्थ― वसुदेव ने प्रेरित कर कंस से<strong>, </strong>सिंहरथ को पकड़ने की प्रतिज्ञा स्वरूप पताका उठवायी ॥ 8 ॥<span id="9" /> तदनंतर वसुदेव<strong>, </strong>कंस को साथ ले विद्या निर्मित सिंहों के रथ पर सवार हो सिंहपुर गये । जब सिंहरथ<strong>, </strong>सिंहों के रथ पर बैठकर युद्ध के लिए वसुदेव के सामने आया तब उन्होंने बाणों के द्वारा उसके सिंहों की रास काट डाली जिससे उसके सिंह भाग गये ॥9॥<span id="10" /><span id="11" /> उसी समय कंस ने गुरु की आज्ञा से उछलकर शत्रु को बाँध लिया । कंस को चतुराई देख वसुदेव ने उससे कहा कि वर मांग । कंस ने उत्तर दिया कि हे आर्य ! अभी वर आपके ही घर रहने दीजिए । वसुदेव ने शत्रु को ले जाकर जरासंध को दिखा दिया ॥10-11॥<span id="12" /> शत्रु को सामने देख जरासंध संतुष्ट हुआ और वसुदेव से बोला कि तुम पुत्री जीवंद्यशा के साथ विवाह करो । इसके उत्तर में वसुदेव ने कह दिया कि शत्रु को कंस ने पकड़ा है मैंने नहीं ॥12॥<span id="13" /> राजा जरासंध ने जब कंस से उसकी जाति पूछी तब उसने कहा कि हे राजन् ! मेरी माता मंजोदरी कौशांबी में रहती है और मदिरा बनाने का काम करती है ॥13 ॥<span id="14" /> तदनंतर कंस के वचन सुनकर राजा इस प्रकार विचार करने लगा कि इसकी आकृति कहती है कि यह मदिरा बनाने वाली का पुत्र नहीं है ॥14॥<span id="15" /> तत्पश्चात् राजा जरासंध ने अपने आदमी भेजकर शीघ्र ही कौशांबी से मंजोदरी को बुलाया और मंजोदरी<strong>,</strong> मंजूषा तथा नाम की मुद्रिका लेकर वहाँ आ पहुंची ॥ 15 ॥<span id="16" /> राजा ने उससे पूर्वा पर कारण पूछा तो वह कहने लगी कि हे प्रभो! मैंने यमुना के प्रवाह में इसे मंजूषा के साथ पाया था ॥16॥<span id="17" /> हे राजन्<strong>, </strong>इस शिशु को देखकर मुझे दया आ गयो अतः पीछे चलकर हजारों उपालंभों का पात्र बनकर भी मैंने इसका पालन-पोषण किया ॥17॥<span id="18" /><span id="19" /> यह बालक स्वभाव से ही उग्रमुख है-कठोर शब्द बकने वाला है । यद्यपि यह पुण्यवान् है तो भी अभागा जान पड़ता है । यह बच्चों के साथ खेलता था तो उनके सिर में थप्पड़ लगाये बिना नहीं खेलता था । मदिरा खरीदने के लिए घर पर वेश्याओं की लड़कियां आती थीं तो हाथ से उनकी चोटियां खींचकर तथा उन्हें तंग कर के ही छोड़ता था ॥18-19 ॥<span id="20" /> इसकी इस दुष्प्रवृत्ति से मेरे पास लोगों के उलाहने आने लगे जिनसे डरकर मैंने इसे निकाल दिया । यह शस्त्र विद्या सीखना चाहता था इसलिए किसी का शिष्य बन गया ॥20॥<span id="21" /><span id="22" /> यह कांसे की मंजूषा ही इसकी माता है मैं नहीं हूँ अतः इसके गुण अथवा दोषों से मेरा कोई संबंध नहीं है । लीजिए यह मंजूषा है― यह कहकर उसने साथ लायी हुई मंजूषा राजा को दिखा दी । जब मंजूषा खोली गयी तो उसमें उसके नाम की मुद्रिका दिखी । राजा जरासंध उसे लेकर बाँचने लगा ॥21-22॥<span id="23" /> उसमें लिखा था कि यह राजा उग्रसेन और रानी पद्मावती का पुत्र है । जब यह गर्भ में स्थित था तभी से अत्यंत उग्र था । इसकी उग्रता से भयभीत होकर ही इसे छोड़ा गया है<strong>, </strong>यह जीवित रहे तथा इसके अपने कर्म ही इसकी रक्षा करें ॥23॥<span id="24" /> मुद्रिका को बांचकर राजा जरासंध समझ गया कि यह हमारा भानजा है अतः उसने हर्षित होकर उसे गुणरूपी संपदा से संपन्न अपनी जीवंद्यशा पुत्री दे दी ॥24॥<span id="25" /><span id="26" /> पिता ने मुझे उत्पन्न होते ही नदी में छोड़ दिया था । यह जानकर कंस को बड़ा क्रोध आया इसलिए उसने जरासंध से मथुरा का राज्य मांगा और जरासंध ने दे भी दिया । उसे पाकर सब प्रकार की सेना से युक्त कंस जीवंद्यशा के साथ मथुरा गया । वह निर्दय तो था ही इसलिए वहाँ जाकर उसने पिता उग्रसेन के साथ युद्ध ठान दिया तथा युद्ध में उन्हें जीतकर शीघ्र ही बांध लिया ॥25-26 ॥<span id="27" /> तत्पश्चात् जो प्रकृति का अत्यंत उग्र था और जिसकी आशाएँ अत्यंत क्षुद्र थीं ऐसे उस कंस ने अपने पिता राजा उग्रसेन का इधर-उधर जाना बंद कर उन्हें नगर के मुख्य द्वार के ऊपर कैद कर दिया ॥27॥<span id="28" /></p> | ||
<p> वसुदेव के उपकार का आभारी होने से कंस उनका प्रत्युपकार तो करना चाहता था पर यह नहीं निर्णय कर पाता था कि मैं इनका क्या प्रत्युपकार करूँ । वह सदा अपने-आपको वसुदेव का किंकर समझता था ॥28 | <p> वसुदेव के उपकार का आभारी होने से कंस उनका प्रत्युपकार तो करना चाहता था पर यह नहीं निर्णय कर पाता था कि मैं इनका क्या प्रत्युपकार करूँ । वह सदा अपने-आपको वसुदेव का किंकर समझता था ॥28 ॥<span id="29" /> एक दिन वह प्रार्थना पूर्वक बड़ी भक्ति से गुरु वसुदेव को मथुरा ले आया और वहाँ लाकर उसने उन्हें गुरु-दक्षिणा स्वरूप अपनी देव की नामक बहन प्रदान कर दी ॥ 29 ॥<span id="30" /> तदनंतर वसुदेव<strong>, </strong>कस के आग्रह से<strong>, </strong>सुंदर कांति की धारक एवं मधुर वचन बोलने वाली देवकी के साथ क्रीड़ा करते हुए मथुरा में ही रहने लगे ॥30॥<span id="31" /> शत्रुओं को संतप्त करने वाला एवं जरासंध को अतिशय प्रिय कंस<strong>, </strong>शूरसेन नामक विशाल देश की राजधानी मथुरा का शासन करने लगा ॥31 ॥<span id="36" /> </p> | ||
<p> एक दिन कंस के बड़े भाई अतिमुक्तक मुनि आहार के समय राजमंदिर आये सो कंस की स्त्री जीवंद्यशा नमस्कार कर विभ्रम दिखाती हुई उनके सामने खड़ी हो गयी और हँसती हुई क्रीड़ा भाव से कहने लगी कि यह आपकी बहन देवकी का आनंद वस्त्र है इसे देखिए ॥32<strong>-</strong>33 | <p> एक दिन कंस के बड़े भाई अतिमुक्तक मुनि आहार के समय राजमंदिर आये सो कंस की स्त्री जीवंद्यशा नमस्कार कर विभ्रम दिखाती हुई उनके सामने खड़ी हो गयी और हँसती हुई क्रीड़ा भाव से कहने लगी कि यह आपकी बहन देवकी का आनंद वस्त्र है इसे देखिए ॥32<strong>-</strong>33 ॥ संसार की स्थिति को जानने वाले मुनिराज<strong>, </strong>उस निमर्याद चित्त की धारक एवं राज्य वैभव से मत्त जीवंद्यशा को रोकने के लिए अपनी वचन गुप्ति तोड़कर बोले कि अहो ! तू हँसी कर रही है परंतु यह तेरी बड़ी मूर्खता है । तू दुःखदायक शोक के स्थान में भी आनंद प्राप्त कर रही है ॥ 34<strong>-</strong>35 ॥ तू वह निश्चित समझ<strong>, </strong>कि इस देवकी के गर्भ से जो पुत्र होगा वह तेरे पति और पिता को मारने वाला होगा । यह ऐसी ही होनहार है― इसे कोई टाल नहीं सकता ॥36॥<span id="37" /></p> | ||
<p> यह सुनते ही जीवंद्यशा भयभीत हो उठी<strong>, </strong>उसके नेत्रों से आंसू निकलने लगे । वह उसी समय मुनिराज को छोड़ पति के पास गयी और मुनि के वचन सत्य ही निकलते हैं यह विश्वास जमाकर उसने सब समाचार कह सुनाया ॥37॥ स्त्री के मुख से यह समाचार सुनकर कंस को भी शंका हो गयी । वह तीक्ष्ण बुद्धि का धारक तो था ही इसलिए शीघ्र ही उपाय सोचकर सत्यवादी वसुदेव के पास गया और चरणों में नम्रीभूत होकर वर मांगने लगा ॥38॥ उसने कहा कि हे स्वामिन् ! मेरा जो वर आपके पास धरोहर है उसे दे दीजिए और वह वर यही चाहता हूँ कि प्रसूति के समय देवकी का निवास मेरे ही घर में रहा | <p> यह सुनते ही जीवंद्यशा भयभीत हो उठी<strong>, </strong>उसके नेत्रों से आंसू निकलने लगे । वह उसी समय मुनिराज को छोड़ पति के पास गयी और मुनि के वचन सत्य ही निकलते हैं यह विश्वास जमाकर उसने सब समाचार कह सुनाया ॥37॥<span id="38" /> स्त्री के मुख से यह समाचार सुनकर कंस को भी शंका हो गयी । वह तीक्ष्ण बुद्धि का धारक तो था ही इसलिए शीघ्र ही उपाय सोचकर सत्यवादी वसुदेव के पास गया और चरणों में नम्रीभूत होकर वर मांगने लगा ॥38॥<span id="39" /> उसने कहा कि हे स्वामिन् ! मेरा जो वर आपके पास धरोहर है उसे दे दीजिए और वह वर यही चाहता हूँ कि प्रसूति के समय देवकी का निवास मेरे ही घर में रहा करे॥39॥<span id="40" /> वसुदेव को इस वृत्तांत का कुछ भी ज्ञान नहीं था इसलिए उन्होंने निर्बुद्धि होकर कंस के लिए वह वर दे दिया । भाई के घर बहन को कोई आपत्ति आ सकती है यह शंका भी तो नहीं की जा सकती ? ॥40॥<span id="41" /><span id="42" /> पीछे जब उन्हें इस वृत्तांत का पता चला तो उनका हृदय पश्चात्ताप से बहुत दुःखी हुआ । वे उसी समय आम्रवन के मध्य में स्थित चारण ऋद्धिधारी अतिमुक्तक मुनिराज के पास गये और देवकी के साथ प्रणाम कर समीप में बैठ गये । मुनिराज ने दोनों को आशीर्वाद दिया । तदनंतर वसुदेव ने उनसे अपने हृदय में स्थित निम्नांकित प्रश्न पूछा ॥41-42 ॥<span id="43" /> </p> | ||
<p> हे भगवन् ! कंस ने अन्य जन्म में ऐसा कौन-सा कर्म किया कि जिससे वह दुर्बुद्धि अपने पिता का हो शत्रु हुआ । इसी प्रकार हे नाथ ! मेरा पुत्र इस पापी कंस का विघात करने वाला कैसे होगा<strong>? </strong>यह मैं जानना चाहता हूँ सो कृपा कर कहिए ॥43 | <p> हे भगवन् ! कंस ने अन्य जन्म में ऐसा कौन-सा कर्म किया कि जिससे वह दुर्बुद्धि अपने पिता का हो शत्रु हुआ । इसी प्रकार हे नाथ ! मेरा पुत्र इस पापी कंस का विघात करने वाला कैसे होगा<strong>? </strong>यह मैं जानना चाहता हूँ सो कृपा कर कहिए ॥43 ॥<span id="44" /> अतिमुक्तक मुनिराज देदीप्यमान अवधिज्ञानरूपी नेत्र के धारक थे और अवधिज्ञानरूपी दिव्य नेत्र के धारक पुरुषों की वाणी चूंकि संशय को नष्ट करने वाली होती है इसलिए कुमार वसुदेव के पूछने पर मुनिराज कहने लगे ॥44॥<span id="45" /></p> | ||
<p> हे देवों के प्रिय ! राजन् ! सुन<strong>, </strong>तेरा प्रश्न सब लोगों के लिए प्रिय है इसलिए मैं तेरे प्रश्न के अनुसार तेरी जिज्ञासित वस्तु को कहता हूँ ॥45॥ इसी मथुरा नगरी में जब राजा उग्रसेन राज्य करता था तब पहले पंचाग्नि तप तपने वाला एक वशिष्ठ नामक तापस रहता था ॥46॥ वह अज्ञानी यमुना नदी के किनारे तप तपता था<strong>, </strong>एक पांव से खड़ा रहता था<strong>, </strong>ऊपर की ओर भुजा उठाये रहता था और बड़ी-बड़ी जटाओं को धारण करता था ॥47॥ वहां पर लोगों की पनिहारिनें पानी के लिए आती थीं । एक दिन जिनदास सेठ की प्रियंगुलतिका नाम की पनिहारिन भी वहाँ आयी । हित को बुद्धि रखने वालो अन्य पनिहारिनों ने प्रियंगुलतिका से कहा कि हे प्रियंगुलतिके ! तु शीघ्र ही इस साधु को नमस्कार कर । उत्तर में प्रियंगुलतिका ने कहा कि इसके ऊपर मेरी भक्ति बिलकुल नहीं है । मैं क्या करूं <strong>? </strong>॥48-49॥ तदनंतर अन्य पनिहारिनों ने प्रियंगुलतिका को जबरदस्ती उस साधु के चरणों में नमा दिया । प्रियंगुलतिका ने रुष्ट होकर कहा कि अहो ! तुम लोगों ने मुझे धीवर के चरणों में गिरा दिया । प्रियंगुलतिका के उक्त वचन सुनते ही मूर्ख साधु कुपित हो उठा ॥50-51꠰ वह सीधा राजा उग्रसेन के पास गया और कहने लगा कि हे प्रभो! जिनदत्त सेठ ने मुझे बिना कारण ही गाली दी है | <p> हे देवों के प्रिय ! राजन् ! सुन<strong>, </strong>तेरा प्रश्न सब लोगों के लिए प्रिय है इसलिए मैं तेरे प्रश्न के अनुसार तेरी जिज्ञासित वस्तु को कहता हूँ ॥45॥<span id="46" /> इसी मथुरा नगरी में जब राजा उग्रसेन राज्य करता था तब पहले पंचाग्नि तप तपने वाला एक वशिष्ठ नामक तापस रहता था ॥46॥<span id="47" /> वह अज्ञानी यमुना नदी के किनारे तप तपता था<strong>, </strong>एक पांव से खड़ा रहता था<strong>, </strong>ऊपर की ओर भुजा उठाये रहता था और बड़ी-बड़ी जटाओं को धारण करता था ॥47॥<span id="48" /><span id="49" /> वहां पर लोगों की पनिहारिनें पानी के लिए आती थीं । एक दिन जिनदास सेठ की प्रियंगुलतिका नाम की पनिहारिन भी वहाँ आयी । हित को बुद्धि रखने वालो अन्य पनिहारिनों ने प्रियंगुलतिका से कहा कि हे प्रियंगुलतिके ! तु शीघ्र ही इस साधु को नमस्कार कर । उत्तर में प्रियंगुलतिका ने कहा कि इसके ऊपर मेरी भक्ति बिलकुल नहीं है । मैं क्या करूं <strong>? </strong>॥48-49॥<span id="52" /> तदनंतर अन्य पनिहारिनों ने प्रियंगुलतिका को जबरदस्ती उस साधु के चरणों में नमा दिया । प्रियंगुलतिका ने रुष्ट होकर कहा कि अहो ! तुम लोगों ने मुझे धीवर के चरणों में गिरा दिया । प्रियंगुलतिका के उक्त वचन सुनते ही मूर्ख साधु कुपित हो उठा ॥50-51꠰ वह सीधा राजा उग्रसेन के पास गया और कहने लगा कि हे प्रभो! जिनदत्त सेठ ने मुझे बिना कारण ही गाली दी है ॥ 52 ॥<span id="53" /><span id="54" /> राजा ने जिनदत्त सेठ को बुलाकर पूछा तो उसने कहा कि नाथ ! मैंने तो इसे देखा भी नहीं है फिर गाली तो दूर रही है । इसके उत्तर में साधु ने कहा कि इसकी दासी ने गाली दी है । राजा ने दासी को बुलाकर क्रोध दिखाते हुए पूछा कि अरी पापिन ! तू इस साधु को नमस्कार क्यों नहीं करती ? उलटी निंदा करती है ? ॥53-54 ॥<span id="55" /></p> | ||
<p> दासी ने कहा कि प्रभो ! यह साधु नहीं है यह तो मूर्ख धीवर है । इसकी जटाओं में कहीं भी शुद्धता नहीं दिखाई देती ॥55॥ साधु की जटाएं शोधी गयीं तो उनसे बहुत-सी छोटी-छोटी मछलियां निकल पड़ी । इससे साधु बहुत लज्जित हुआ और यह असत्यवादी है यह कहकर लोगों ने उसकी बहुत हँसी उड़ायी | <p> दासी ने कहा कि प्रभो ! यह साधु नहीं है यह तो मूर्ख धीवर है । इसकी जटाओं में कहीं भी शुद्धता नहीं दिखाई देती ॥55॥<span id="56" /> साधु की जटाएं शोधी गयीं तो उनसे बहुत-सी छोटी-छोटी मछलियां निकल पड़ी । इससे साधु बहुत लज्जित हुआ और यह असत्यवादी है यह कहकर लोगों ने उसकी बहुत हँसी उड़ायी ॥ 56 ॥<span id="57" /> जब राजा ने उसकी परीक्षा ली तो वह क्रोध कर अपना अज्ञान प्रकट करता हुआ मथुरा से बाहर चला गया ॥ 57 ॥<span id="58" /> और बनारस जाकर वहाँ रहने का उसने निश्चय कर लिया । अब वह बनारस के बाहर जाकर गंगा के किनारे तप करने लगा ॥ 58 ॥<span id="59" /><span id="60" /> किसी एक दिन वहाँ अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ वीरभद्र मुनिराज आये । उनके संघ के एक नवदीक्षित मुनि ने वशिष्ठ की तपस्या देख<strong>, ‘</strong>अहा ! यह घोर तपस्वी वशिष्ठ है<strong>’</strong> इस प्रकार उसकी प्रशंसा की । अरे अज्ञानी का तप कैसा ? यह कहते हुए आचार्य ने उस नवदीक्षित मुनि को प्रशंसा करने से रो का ॥ 59-60॥<span id="611" /> वशिष्ठ ने पूछा कि मैं अज्ञानी कैसे हूँ ? इसके उत्तर में आचार्य ने कहा कि तुम छह काय के जीवों को पीड़ा पहुंचाते हो इसलिए अज्ञानी हो ॥611॥<span id="62" /> पंचाग्नि तप में अग्नि का संसर्ग अवश्य रहता है और उस अग्नि के द्वारा पंचेंद्रिय<strong>, </strong>विकलेंद्रिय तथा एकेंद्रिय जीव अवश्य जलते हैं ॥62॥<span id="63" /> पृथिवी<strong>, </strong>जल<strong>, </strong>अग्नि<strong>, </strong>वायु और वनस्पति इन पांच स्थावरों तथा अन्य त्रस प्राणियों का विघात होने से अज्ञानी जीव के प्राणिसंयम कैसे हो सकता है ॥63॥<span id="64" /> इसी प्रकार जो विरक्त होकर भी मिथ्यादर्शन<strong>, </strong>मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को मानने वाला है उसके सम्यग्ज्ञानपूर्वक होने वाला इंद्रिय संयम भी कैसे हो सकता है ? ॥64॥<span id="65" /> जो केवल कायक्लेश तप को प्राप्त है<strong>, </strong>मान से भरा हुआ है और समीचीन संयम से रहित है उसकी तपस्या मुक्ति के लिए कैसे हो सकती है ? ॥65 ॥<span id="66" /> एक जैन मार्ग हो सन्मार्ग है<strong>, </strong>उसी में संयम<strong>, </strong>तप<strong>, </strong>दर्शन<strong>, </strong>चारित्र और समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाला ज्ञान प्राप्त हो सकता है ॥66॥<span id="67" /> हे तापस ! तुम जानते हो तुम्हारा पिता मरकर साँप हुआ है और ज्वालाओं तथा धूम की पंक्ति से व्याप्त इसी ईंधन में जल रहा है ॥67॥<span id="68" /> आचार्य के इस प्रकार कहने पर तापस ने कुल्हाड़ा से उस काष्ठ को चीरकर देखा तो उसके अंदर सांप जलता हुआ छटपटा रहा था ॥68॥<span id="69" /><span id="70" /> तदनंतर आचार्य ने फिर कहा कि तेरे पिता का नाम ब्रह्मा था और वह तेरे ही समान तापस के धर्म का पालन करता था । उसी से उसकी यह कुगति हुई है । आचार्य के मुख से यह सब जानकर वशिष्ठ तापस को जान पड़ा कि मैं अज्ञानी हूं और जैनधर्म सम्यग्ज्ञान से परिपूर्ण है । अतः उसने उन्हीं वीरभद्र गुरु के पास जैन दीक्षा धारण कर ली ॥69-70॥<span id="71" /> उनके साथ अनेक मुनि तपस्या करते थे परंतु लाभांतराय कर्म के उदय से उन सबमें एक वशिष्ठ मुनि ही भिक्षा के लाभ से वर्जित रह जाते थे अर्थात् उन्हें भिक्षा की प्राप्ति बहुत कम होती थी ॥71 ॥<span id="72" /> तदनंतर वीरभद्र गुरु ने सेवा के निमित्त और आगम का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने के लिए वशिष्ठ मुनि को यत्नपूर्वक शिवगुप्त यति को सौंप दिया ॥ 72 ॥<span id="73" /> छह महीने तक तप करने के बाद शिवगुप्तयति ने वशिष्ठ मुनि को वीरदत्त नामक मुनिराज के लिए सौंप दिया । वीरदत्त मुनि ने भी छह माह अपने पास रखकर उन्हें सुमति नामक मुनि के लिए सौंप दिया और सुमति मुनि ने भी छह माह तक उनका अच्छी तरह पालन किया ॥73 ॥<span id="74" /> तदनंतर अनेक गुरुओं के पास रहने से जो मुनि-धर्म को विधि को अच्छी तरह जानने लगे थे और परीषह सहन करने का जिन्हें अच्छा अभ्यास हो गया था ऐसे वशिष्ठ मुनि पृथिवी पर प्रसिद्ध एक विहारी हो गये― अकेले ही विचरण करने लगे ॥74॥<span id="75" /></p> | ||
<p> अथानंतर महातपस्वी वशिष्ठ मुनि कदाचित् विहार करते हुए मथुरा आये सो राजा तथा प्रजा ने बड़ी प्रतिष्ठा के साथ उनकी पूजा की ॥75॥ एक समय वे बड़ी प्रसन्नता से पर्वत के मस्तक पर आतापन योग धारण कर विराजमान थे कि उनके तप से वशीभूत हुई सात देवियां पास आकर कहने लगी कि हम लोग आपका क्या कार्य करें <strong>? </strong>॥76॥ | <p> अथानंतर महातपस्वी वशिष्ठ मुनि कदाचित् विहार करते हुए मथुरा आये सो राजा तथा प्रजा ने बड़ी प्रतिष्ठा के साथ उनकी पूजा की ॥75॥<span id="76" /> एक समय वे बड़ी प्रसन्नता से पर्वत के मस्तक पर आतापन योग धारण कर विराजमान थे कि उनके तप से वशीभूत हुई सात देवियां पास आकर कहने लगी कि हम लोग आपका क्या कार्य करें <strong>? </strong>॥76॥<span id="77" /> तपोधन वशिष्ठ मुनि ने यह कहकर उन देवियों को वापस कर दिया कि मेरा कोई काम नहीं है । अंत में उनके अधीन हुई वे वन-देवियाँ चली गयीं ॥77॥<span id="78" /> आहार की इच्छा से रहित वशिष्ठ मुनि एक मास के उपवास का नियम लेकर तपस्या कर रहे थे<strong>, </strong>इसलिए समस्त प्रजा पारणाओं के समय उन्हें आहार देना चाहती थी ॥78॥<span id="79" /> परंतु राजा उग्रसेन ने किसी समय नगरवासियों से यह याचना की कि मासोपवासी मुनिराज के लिए पारणाओं के समय मैं ही आहार दूंगा और इसी भावना से उसने मथुरा में रहने वाले सब दाताओं को आहार देने से रोक दिया ॥79॥<span id="80" /> मुनिराज एक-एक मास बाद तीन बार पारणाओं के लिए आये परंतु तीनों बार राजा प्रमादी बन आहार देना भूल गया । पहली पारणा के समय जरासंध का दूत आया था सो उसकी व्यवस्था में निमग्न हो आहार देना भूल गया । दूसरी पारणा के समय आग लग गयी सो उसकी व्यवस्था में संलग्न होने से प्रमादी हो गया और तीसरी पारणा के समय नगर में हाथी ने क्षोभ मचा दिया इसलिए उसके व्यासंग से प्रमादी हो आहार देना भूल गया ॥80॥<span id="81" /> मुनि आहार के लिए समस्त मथुरा नगरी में घूमे परंतु कहीं आहार प्राप्त नहीं हुआ । अंत में श्रम से पीड़ित हो नगर के द्वार में विश्राम करने लगे ॥81॥<span id="82" /> उन्हें देख किसी नगरवासी ने कहा कि हाय बड़े खेद की बात राजा ने कर रक्खी है― इन मुनिराज के लिए वह स्वयं आहार देता नहीं है तथा दूसरों को मना कर रखा है ॥ 82॥<span id="83" /> यह सुनकर मुनिराज को क्रोध आ गया । उन्होंने उसी समय पहले आयी हुई देवियों का स्मरण किया । स्मरण करते ही देवियां आ गयीं । उन्हें देख मुनि ने कहा कि आप लोग अन्य जन्म में मेरा काम करें । मुनि की आज्ञा स्वीकृत कर देवियाँ वापस चली गयी और मुनि वन को ओर प्रस्थान कर गये ॥ 83॥<span id="84" /> राजा उग्रसेन का अपमान करने के लिए वशिष्ठ मुनि ने यह उग्र निदान बाँध लिया कि मैं उग्रसेन का पुत्र होकर इसका बदला लूं । निदान के कारण वे मुनि पद से भ्रष्ट हो मिथ्यात्व गुणस्थान में आ गये और उसी समय मरकर राजा उग्रसेन की रानी पद्मावती के उदर में निवास करने लगे ॥84॥<span id="85" /> जब कंस का जीव पद्मावती के गर्भ में था तब पद्मावती का शरीर एकदम दुर्बल हो गया । एक दिन राजा ने उससे एकांत में पूछा कि कांते ! तुम्हारा दोहला क्या है ? जिसके कारण तुम सूखकर कांटा हुई जा रही हो ॥85॥<span id="86" /> पद्मावती ने कहा कि हे नाथ ! गर्भ के दोष से मुझे जो दोहला हुआ है वह न तो कहने योग्य है और न विचार करने योग्य है । रानी के इस प्रकार कहने पर राजा ने कहा कि वह दोहला तुम्हें अवश्य कहना चाहिए ॥86॥<span id="87" /> राजा का हठ देख उसने दुःख से गद्गद वाणी द्वारा कहा कि हे नाथ ! मेरी इच्छा है कि मैं आपका पेट फाड़कर आपका रुधिर पीऊँ ॥ 87॥<span id="88" /> तदनंतर मंत्रियों के उपाय से उसका दोहला पूर्ण किया गया । नौ माह बाद रानी पद्मावती ने ऐसा पुत्र उत्पन्न किया जिसका मुख भौंहों से अत्यंत कुटिल था ॥88॥<span id="89" /> चूंकि वह बालक गर्भ से ही अत्यंत रोद्र था इसलिए रानी पद्मावती ने भय से उसे कांस को मंजूषा में बंद कर एकांत में यमुना के प्रवाह में छुड़वा दिया ॥ 89 ॥<span id="90" /> वह मंजूषा बहती-बहती कौशांबी नगरी पहुंची । वहाँ एक कलारिन ने उसे पाकर पुत्र का कंस नाम रखा तथा उसका पालन-पोषण किया । हे राजन् ! इसके आगे का सब समाचार तुम्हें विदित ही है ॥90॥<span id="91" /> निदान के दोष से दूषित होकर इसने पिता का निग्रह किया है । आगे चलकर तुम्हारा पुत्र उसे मारेगा और उसके पिता राजा उग्रसेन को भी बंधन से छुड़ावेगा ॥91॥<span id="92" /> हे राजन् ! कंस ने अपने पिता को बंधन में क्यों डाला इसका कारण बतलाने वाला कंस का वृत्तांत कहा । अब तेरे पुत्रों का वृत्तांत कहता हूँ सो मन को स्थिर कर सुन ॥92॥<span id="93" /></p> | ||
<p> देवकी का सातवां पुत्र शंख<strong>, </strong>चक्र<strong>, </strong>गदा तथा खड्ग को धारण करने वाला होगा और वह कंस आदि शत्रुओं को मारकर समस्त पृथिवी का पालन करेगा ॥93॥ शेष छहों पुत्र चरम<strong>-</strong>शरीरी होंगे । उनकी अपमृत्यु नहीं हो सकेगी<strong>, </strong>अतःचिंतारूपी व्याधि का त्याग करो ॥94॥ मैं रामभद्र (बलदेव) सहित उन सबके पूर्वभव तुम्हें कहता हूँ सो अपनी स्त्री के साथ श्रवण करो । अवश्य ही उन सबके पूर्व भव तेरे चित्त को प्रीति करने वाले होंगे ॥95 | <p> देवकी का सातवां पुत्र शंख<strong>, </strong>चक्र<strong>, </strong>गदा तथा खड्ग को धारण करने वाला होगा और वह कंस आदि शत्रुओं को मारकर समस्त पृथिवी का पालन करेगा ॥93॥<span id="94" /> शेष छहों पुत्र चरम<strong>-</strong>शरीरी होंगे । उनकी अपमृत्यु नहीं हो सकेगी<strong>, </strong>अतःचिंतारूपी व्याधि का त्याग करो ॥94॥<span id="95" /> मैं रामभद्र (बलदेव) सहित उन सबके पूर्वभव तुम्हें कहता हूँ सो अपनी स्त्री के साथ श्रवण करो । अवश्य ही उन सबके पूर्व भव तेरे चित्त को प्रीति करने वाले होंगे ॥95 ॥<span id="96" /> </p> | ||
<p> जब राजा शूरसेन मथुरापुरी को रक्षा करते थे तब यहाँ बारह करोड़ मुद्राओं का अधिपति भानु नाम का सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम यमुना था ॥96 | <p> जब राजा शूरसेन मथुरापुरी को रक्षा करते थे तब यहाँ बारह करोड़ मुद्राओं का अधिपति भानु नाम का सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम यमुना था ॥96 ॥<span id="97" /><span id="98" /> उन दोनों के सुभानु<strong>, </strong>भानुकीर्ति<strong>, </strong>भानुषेण<strong>, </strong>शूर<strong>, </strong>सूरदेव<strong>, </strong>शूरदत्त और शूरसेन ये सात पुत्र उत्पन्न हुए । ये सातों भाई अत्यंत सुंदर तथा स्वभाव से ही एक दूसरे के अनुगामी थे ॥97-98॥<span id="99" /> उन सातों पुत्रों की क्रम से कालिंदी<strong>, </strong>तिलका<strong>, </strong>कांता<strong>, </strong>श्रीकांता<strong>, </strong>सुंदरी<strong>, </strong>द्युति और चंद्रकांता ये सात स्त्रियाँ थीं जो उच्च कुलों की कन्याएँ थीं ॥99॥<span id="100" /> कदाचित् भानु सेठ ने अभयनंदी गुरु के समीप और उसकी स्त्री यमुना ने जिनदत्ता आर्यिका के समीप दीक्षा ले ली ॥100॥<span id="101" /> सातों भाइयों ने जुआ और वेश्या व्यसन में फंसकर पिता का सब धन नष्ट कर दिया । जब उनके पास कुछ भी नहीं रहा तब सब भाई चोरी करने के लिए उज्जयिनी नगरी गये ॥101॥<span id="102" /> उज्जयिनी के बाहर एक महाकाल नाम का वन है । वहाँ संतति की रक्षा के लिए छोटे भाई को रखकर शेष छहों भाई निःशंक हो रात्रि के समय नगरी में प्रविष्ट हुए ॥102 ॥<span id="103" /><span id="104" /> उस समय उज्जयिनी का राजा वृषभध्वज था । उसकी स्त्री का नाम कमला था । राजा वृषभध्वज का दृढ़मुष्टि नाम का एक उत्तम योद्धा था । उसकी स्त्री का नाम वप्रश्री था । उन दोनों को वज्रमुष्टि नाम का पुत्र था । युवा होने पर जब वह काम से पीडित हुआ तब उसने विमलचंद्र से उनकी विमला रानी से उत्पन्न मंगी नामक पुत्री उसके लिए दिलवा दी ॥103-104॥<span id="105" /><span id="106" /><span id="107" /> मंगी वज्रमुष्टि के लिए बहुत प्यारी थी । वह वीणा की तरह सदा उसी के साथ रहती थी और शुश्रूषा सेवा से युक्त हो सास के अनुकूल आचरण नहीं करती थी अर्थात् सास की कभी सेवा नहीं करती थी । इसलिए उसकी सास मन ही मन बहुत कलुषित रहती थी और निरंतर उसके नाश का उपाय सोचती रहती थी । एक दिन वह छल से उसके मारने का उपाय सोचती हुई बैठी थी कि इतने में वसंतोत्सव का समय आ गया और उसका पुत्र वज्रमुष्टि प्रमदवन में क्रीड़ा करने के लिए राजा के साथ पहले चला गया तथा मंगी से कह गया कि हे मंगि ! तू शीघ्र ही मेरे पीछे आ जाना ॥ 105-107 ॥<span id="108" /> इधर सास ने मंगी को वसंतोत्सव में नहीं जाने दिया । उस दुर्बुद्धि ने एक घड़े में धूपिन जाति का जहरीला सांप पहले से बुला रखा था । अवसर देख उसने मंगी से कहा कि तू वसंतोत्सव में नहीं जा सकी है इसलिए दुःखी न हो । मैंने तेरे लिए पहले से ही सुंदर माला बुला रखी है । जा उस घड़े में से निकालकर पहिन ले । भोली-भाली मंगी ने माला के लोभ से घड़े में ज्यों ही हाथ डाला त्योंही उस धूपिन सर्प ने उसे डंस लिया ॥108 ॥<span id="109" /> मंगी विष के वेग से तुरंत ही मूर्च्छित हो गयी और सास ने उसे अपने भृत्यों द्वारा उस महाकाल नामक श्मशान में जो यमराज के लिए भी भय उत्पन्न करने वाला था छुड़वा दिया ॥109 ॥<span id="110" /> </p> | ||
<p> वज्रमुष्टि जब रात्रि को घर आया और सब वृत्तांत उसे मालूम हुआ तो वह बड़े स्नेह से अपनी प्रिया मंगी को ढूँढ़ने के लिए महाकाल श्मशान में जा घुसा ॥110॥ उस समय उसके हाथ में एक चमकती हुई तलवार थी । उसी के बल पर वह निःशंक होकर श्मशान में घुसा जा रहा था । आगे चलकर उसने उस श्मशान में रात्रि<strong>-</strong>भर के लिए प्रतिमा योग लेकर विराजमान वरधर्म नामक मुनिराज को देखा ॥111 | <p> वज्रमुष्टि जब रात्रि को घर आया और सब वृत्तांत उसे मालूम हुआ तो वह बड़े स्नेह से अपनी प्रिया मंगी को ढूँढ़ने के लिए महाकाल श्मशान में जा घुसा ॥110॥<span id="111" /> उस समय उसके हाथ में एक चमकती हुई तलवार थी । उसी के बल पर वह निःशंक होकर श्मशान में घुसा जा रहा था । आगे चलकर उसने उस श्मशान में रात्रि<strong>-</strong>भर के लिए प्रतिमा योग लेकर विराजमान वरधर्म नामक मुनिराज को देखा ॥111 ॥<span id="112" /> उसने तीन प्रदक्षिणाएँ देकर मुनिराज को नमस्कार किया और कहा कि हे मुनिराज ! यदि मैं मंगी को प्राप्त कर सका तो एक हजार कमलों से आपके चरणों की पूजा करूंगा ॥112 ॥<span id="113" /> इस प्रकार कहकर वह ज्यों ही आगे बढ़ा त्यों ही उसे उसकी स्त्री मंगी मिल गयी । वह उसे मुनिराज के पास ले आया और उनके चरणों के स्पर्श से उसने उसे विषरहित कर लिया ॥113 ॥<span id="114" /> तदनंतर जब तक मैं न आ जाऊँ तब तक तुम मुनिराज के चरणों के समीप बैठना इस प्रकार मंगी से कहकर वज्रमुष्टि कमल लाने को इच्छा से सुदर्शन नामक सरोवर की ओर चला गया ॥114॥<span id="115" /> पास ही छिपा हुआ शूरसेन मंगी के प्रति वज्रमुष्टि का महान् स्नेह देख चुका था इसलिए उसने उसके मन का भाव जानने की इच्छा से उसे अपना रूप दिखाया । वह सुंदर तो था ही ॥115 ॥<span id="116" /> वह अपने अभिप्राय को छिपाकर उसके साथ मीठी<strong>-</strong>मीठी बातचीत और गुप्त सलाह करने लगा । मंगी उसे देखते ही काम से विह्वल हो गयी ॥116 ॥<span id="120" /> उसी विह्वल दशा में उसने शूरसेन के पास जाकर कहा कि हे देव ! आप कृपा कर मुझे स्वीकृत कीजिए । मंगी की प्रार्थना सुनकर शूरसेन ने कहा कि जब तक तुम्हारा पति जीवित है तब तक मैं ऐसा कैसे कर सकता हूं ? हे प्रिये ! मैं इस शक्तिशाली सुभट से अवश्य ही डरता हूँ । इसके उत्तर में अनुराग से भरी मंगी ने कहा कि हे नाथ ! आप इसका भय नहीं कीजिए । मैं इसे तो तलवार से अभी मार डालती हूँ । शूरसेन ने उत्तर दिया कि यदि ऐसा है तो मुझे स्वीकार है । इस प्रकार कहकर वह उसका वह कार्य देखने की इच्छा से वहीं छिपकर खड़ा हो गया ॥ 117<strong>-</strong>119 ॥</p> | ||
<p> तदनंतर वज्रमुष्टि ने आकर मुनिराज के चरणों की पूजा की और पूजा करने के बाद ज्यों ही वह नमस्कार करने लगा त्यों ही मंगी ने उसके सिर पर तलवार छोड़ना चाही<strong>, </strong>परंतु शूरसेन ने शीघ्र ही आकर तलवार छीन ली ॥120 | <p> तदनंतर वज्रमुष्टि ने आकर मुनिराज के चरणों की पूजा की और पूजा करने के बाद ज्यों ही वह नमस्कार करने लगा त्यों ही मंगी ने उसके सिर पर तलवार छोड़ना चाही<strong>, </strong>परंतु शूरसेन ने शीघ्र ही आकर तलवार छीन ली ॥120 ॥<span id="124" /> शूरसेन को यह दृश्य देखकर संसार से वैराग्य हो आया<strong>, </strong>इसलिए वह अपने<strong>-</strong>आपको प्रकट किये बिना ही वहाँ से चला गया । मंगी उसके स्पर्श से शंकित हो गयी<strong>,</strong> इसलिए अपना दोष छिपाने के लिए वह माया बताती हुई पृथिवी तल पर गिर पड़ी । वज्रमुष्टि को मंगी के इस दुष्कृत्य का पता नहीं चल पाया । इसलिए वह उससे पूछता है कि प्रिये ! क्या यहाँ तुम्हें किसी ने डरा दिया है ! यहाँ भय का तो कुछ भी कारण दिखाई नहीं देता । इस प्रकार भय से पीड़ित मंगी को सचेत कर वज्रमुष्टि ने मुनिराज को नमस्कार किया और तदुपरांत वह स्त्री को साथ ले घर चला गया ॥121<strong>-</strong>123 ॥</p> | ||
<p> तदनंतर शूरसेन के जो छह भाई चोरी करने के लिए गये थे उन्होंने चोरी से प्राप्त हुए धन के बराबर हिस्से कर शूरसेन से कहा कि अपना हिस्सा उठा लो ॥124॥ शूरसेन ने हिस्सा लेने के प्रति अनिच्छा प्रकट करते हुए कहा कि लोग स्त्रियों के पीछे ही नाना प्रकार के अनर्थ करते हैं और स्त्रियाँ वज्रमुष्टि की स्त्री के समान होती हैं ॥125॥ इस वृत्तांत को देख<strong>-</strong>सुनकर छह छोटे भाइयों ने विरक्त होकर उसी समय वरधर्म गुरु के समीप दीक्षा ले ली और बड़ा भाई स्त्रियों के पास धन ले गया ॥126 | <p> तदनंतर शूरसेन के जो छह भाई चोरी करने के लिए गये थे उन्होंने चोरी से प्राप्त हुए धन के बराबर हिस्से कर शूरसेन से कहा कि अपना हिस्सा उठा लो ॥124॥<span id="125" /> शूरसेन ने हिस्सा लेने के प्रति अनिच्छा प्रकट करते हुए कहा कि लोग स्त्रियों के पीछे ही नाना प्रकार के अनर्थ करते हैं और स्त्रियाँ वज्रमुष्टि की स्त्री के समान होती हैं ॥125॥<span id="126" /> इस वृत्तांत को देख<strong>-</strong>सुनकर छह छोटे भाइयों ने विरक्त होकर उसी समय वरधर्म गुरु के समीप दीक्षा ले ली और बड़ा भाई स्त्रियों के पास धन ले गया ॥126 ॥<span id="127" /> जब उन भाइयों की सातों स्त्रियों ने यह वृत्तांत सुना तो उन्होंने भी विरक्त हो दीक्षा ले ली । अंत में बड़े भाई सुभानु की बुद्धि भी ठिकाने आ गयी इसलिए उसने भी उन्हीं वरधर्म गुरु के पास दीक्षा ली ॥127॥<span id="128" /> </p> | ||
<p> अथानंतर किसी समय अपने गुरु के साथ विहार करते हुए वे सातों मुनि उज्जयिनी आये । उनके दर्शन कर वज्रमुष्टि ने उनसे दीक्षा लेने का कारण पूछा । उत्तर में उन्होंने वज्रमुष्टि और मंगी का सब वृत्तांत कह सुनाया जिसे सुन वज्रमुष्टि को बहुत खेद हुआ तथा उसी समय उसने दीक्षा ले ली ॥128॥ उसी समय आर्यिका जिनदत्ता के साथ विहार करती हुई पूर्वोक्त सात आर्यिकाएं भी उज्जयिनी आयीं । मंगी ने उनसे दीक्षा का कारण पूछा । उन्होंने जो उत्तर दिया उसे सुनकर मंगी को अपना पिछला सब वृत्तांत स्मृत हो गया इसलिए उसने भी दृढ़ व्रत धारण कर दीक्षा ले ली ॥129 | <p> अथानंतर किसी समय अपने गुरु के साथ विहार करते हुए वे सातों मुनि उज्जयिनी आये । उनके दर्शन कर वज्रमुष्टि ने उनसे दीक्षा लेने का कारण पूछा । उत्तर में उन्होंने वज्रमुष्टि और मंगी का सब वृत्तांत कह सुनाया जिसे सुन वज्रमुष्टि को बहुत खेद हुआ तथा उसी समय उसने दीक्षा ले ली ॥128॥<span id="129" /> उसी समय आर्यिका जिनदत्ता के साथ विहार करती हुई पूर्वोक्त सात आर्यिकाएं भी उज्जयिनी आयीं । मंगी ने उनसे दीक्षा का कारण पूछा । उन्होंने जो उत्तर दिया उसे सुनकर मंगी को अपना पिछला सब वृत्तांत स्मृत हो गया इसलिए उसने भी दृढ़ व्रत धारण कर दीक्षा ले ली ॥129 ॥<span id="130" /> तदनंतर घोर तप के भार को धारण करने वाले सातों मुनिराज आयु के अंत में समाधिमरण कर सौधर्म स्वर्ग में एक सागर को आयु वाले त्रायस्त्रिंश जाति के उत्तम देव हुए ॥130॥<span id="131" /> धातकीखंड द्वीप के पूर्व भरतक्षेत्र में जो विजयार्ध पर्वत है उसको दक्षिण श्रेणी में एक नित्यालोक नाम का नगर है ॥131॥<span id="132" /><span id="133" /> उसमें किसी समय राजा चित्रचूल राज्य करता था उसकी स्त्री का नाम मनोहरी था । बड़े भाई सुभानु का जीव उन्हीं दोनों के चित्रांगद नाम का पुत्र हुआ और शेष छह भाइयों के जीव भी उन्हीं के क्रम-क्रम से तीन युगलों के रूप में गरुडकांत<strong>, </strong>सेनकांत<strong>, </strong>गरुडध्वज<strong>, </strong>गरुडवाहन<strong>, </strong>मणिचूल और हिमचूल नाम के छह पुत्र हुए । ये सभी आकाश में आनंद से विचरण करते थे तथा अत्यंत उत्कृष्ट थे ॥132-133॥<span id="134" /> चित्रचूल के ये सभी पुत्र अत्यंत सुंदर थे<strong>, </strong>अनेक विद्याओं के प्राप्त करने में उद्यत थे और मनुष्यों के मस्तक पर चूडामणि के समान स्थित थे ॥134॥<span id="135" /> उसी समय मेघपुर नगर में सर्वश्री नाम का स्त्री का स्वामी धनंजय नाम का राजा राज्य करता था । राजा धनंजय और रानी सर्वश्री के एक धनश्री नाम को अत्यंत रूपवती कन्या थी ॥135 ॥<span id="136" /> धनश्री का किसी समय स्वयंवर किया गया<strong>, </strong>स्वयंवर में समस्त विद्याधरों के पुत्र गये परंतु कन्या ने उनमें अपने पिता के भानजे हरिवाहन को वरा ॥136॥<span id="137" /> जब इसे अपने संबंधी के साथ ही विवाह करना था तो स्वयंवर के बहाने छलपूर्वक हम लोगों को क्यों बुलाया― यह कहते हुए अन्य विद्याधर कन्या के पिता पर क्रुद्ध हो गये ॥137॥<span id="138" /><span id="139" /> तदनंतर उस कन्या की इच्छा रखते हुए वे विद्याधर परस्पर एक-दूसरे का वध करने लगे । राजा चित्रचूल के पुत्र भी स्वयंवर में गये थे । इस निंदनीय क्षत्रिय-वध को देखकर वे विचार करने लगे कि अहो ! ये इंद्रियों के विषम विषय ही पाप के कारण हैं । इस प्रकार इंद्रियों के विषयों की निंदा कर भूतानंद जिनराज के समीप दीक्षित हो गये ॥138-139॥<span id="140" /> सातों मुनिराज अंत में समाधि धारण कर माहेंद्र स्वर्ग में सात सागर को आयु के धारक सामानिक जाति के देव हुए और वहाँ की विभूति से चिरकाल तक सुख भोगते रहे ॥140॥<span id="141" /></p> | ||
<p> तदनंतर वहाँ से च्युत होकर बड़े भाई का जीव इसी भरतक्षेत्र के हस्तिनापुर नगर में किसी सेठ की बंधुमती स्त्री से शंख नाम का पुत्र हुआ ॥141॥ शेष छह भाइयों के जीव इसी नगर के राजा गंगदेव की नंदयशा रानी से तीन युगल के रूप में गंग<strong>, </strong>गंगदत्त<strong>, </strong>गंगरक्षित<strong>, </strong>नंद<strong>, </strong>सुनंद और नंदिषेण नाम के छह सुंदर पुत्र हुए ॥142-143॥ रानी नंदयशा के गर्भ में जब सातवां पुत्र आया तब उसके अत्यंत दुर्भाग्य का उदय आ गया । उससे दु:खी होकर उससे उत्पन्न होने पर उस पुत्र को छोड़ दिया<strong>, </strong>निदान<strong>, </strong>रेवती नामक धाय ने पालन-पोषण कर उसे बड़ा किया ॥144॥ रानी नंदयशा के इस त्याज्य पुत्र का नाम निर्नामक था । यह निर्नामक<strong>, </strong>श्रेष्ठीपुत्र शंख को बड़ा प्रिय था । एक दिन शंख<strong>, </strong>निर्नामक को साथ लेकर नागरिक मनुष्यों से भरे हुए मनोहर उद्यान में गया | <p> तदनंतर वहाँ से च्युत होकर बड़े भाई का जीव इसी भरतक्षेत्र के हस्तिनापुर नगर में किसी सेठ की बंधुमती स्त्री से शंख नाम का पुत्र हुआ ॥141॥<span id="142" /><span id="143" /> शेष छह भाइयों के जीव इसी नगर के राजा गंगदेव की नंदयशा रानी से तीन युगल के रूप में गंग<strong>, </strong>गंगदत्त<strong>, </strong>गंगरक्षित<strong>, </strong>नंद<strong>, </strong>सुनंद और नंदिषेण नाम के छह सुंदर पुत्र हुए ॥142-143॥<span id="144" /> रानी नंदयशा के गर्भ में जब सातवां पुत्र आया तब उसके अत्यंत दुर्भाग्य का उदय आ गया । उससे दु:खी होकर उससे उत्पन्न होने पर उस पुत्र को छोड़ दिया<strong>, </strong>निदान<strong>, </strong>रेवती नामक धाय ने पालन-पोषण कर उसे बड़ा किया ॥144॥<span id="145" /> रानी नंदयशा के इस त्याज्य पुत्र का नाम निर्नामक था । यह निर्नामक<strong>, </strong>श्रेष्ठीपुत्र शंख को बड़ा प्रिय था । एक दिन शंख<strong>, </strong>निर्नामक को साथ लेकर नागरिक मनुष्यों से भरे हुए मनोहर उद्यान में गया ॥145 ॥<span id="146" /> वहाँ राजा गंगदेव के छहों पुत्र एक साथ भोजन कर रहे थे । उन्हें देख शंख ने कहा कि यह निर्नामक भी तो तुम्हारा छोटा भाई है<strong>, </strong>इसे भोजन करने के लिए क्यों नहीं बुलाते ? ॥146 ॥<span id="147" /> शंख की बात सुन राजपुत्रों ने निर्नामक को बुला लिया और वह भाइयों के साथ भोजन करने के लिए बैठ गया । उसी समय उसकी माता रानी नंदयशा कहीं से आ गयी और उसने क्रोध से आग बबूला हो उसे लात मार दी ॥147 ॥<span id="148" /> इस घटना से शंख को बड़ा दुःख हुआ । वह कहने लगा कि मेरे निमित्त से ही निर्नामक को यह दुःख उठाना पड़ा है अतः मुझे धिक्कार है । अंत में वह दु:खी</p> | ||
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<p>होता हआ निर्नामक को लेकर राजा आदि के साथ वन में गया | <p>होता हआ निर्नामक को लेकर राजा आदि के साथ वन में गया ॥148॥<span id="149" /> वहाँ एकांत में द्रुमषेण नामक मुनिराज को देखकर शंख ने उनसे निर्नामक के पूर्वभव पूछे । मुनिराज अवधिज्ञानी थे अतः उसके भवांतर इस प्रकार कहने लगे ॥149 ॥<span id="150" /></p> | ||
<p>गिरिनगर नामक नगर में राजा चित्ररथ रहता था, उसकी कनकमालिनी नाम की गुणवती एवं सुंदरी स्त्री थी ॥150॥ राजा चित्ररथ मांस खाने का बड़ा प्रेमी था, उसका एक अमृतरसायन नाम का रसोइया था जो मांस पकाना बहुत अच्छा जानता था । उसकी कला से प्रसन्न होकर राजा ने उसे दश ग्रामों का स्वामी बना दिया था ॥151 | <p>गिरिनगर नामक नगर में राजा चित्ररथ रहता था, उसकी कनकमालिनी नाम की गुणवती एवं सुंदरी स्त्री थी ॥150॥<span id="151" /> राजा चित्ररथ मांस खाने का बड़ा प्रेमी था, उसका एक अमृतरसायन नाम का रसोइया था जो मांस पकाना बहुत अच्छा जानता था । उसकी कला से प्रसन्न होकर राजा ने उसे दश ग्रामों का स्वामी बना दिया था ॥151 ॥<span id="152" /> एक दिन राजा ने सुधर्म नामक मुनिराज से मांस खाने के दोष सूने जिससे प्रभावित होकर उसने राज्य-लक्ष्मी को मेघरथ नामक पुत्र के लिए सौंप दी और स्वयं मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा से तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली ॥152॥<span id="153" /> नवीन राजा मेघरथ श्रावक बन गया इसलिए उसने मांस पकाने वाले रसोइया को अपमानित कर केवल एक ग्राम का स्वामी कर दिया ॥153॥<span id="154" /> इस घटना से रसोइया बड़ा कुपित हुआ । उसने सोचा कि मेरे अपमान का कारण मांस का निषेध करने वाले ये मुनि ही हैं इस लिए उसने कड़वी तूमड़ी का विषमय आहार देकर मुनि को प्राण रहित कर दिया ॥154 ॥<span id="155" /> मुनिराज का समाधिमरण ऊर्जयंतगिरि पर हुआ था । प्रबल आत्मध्यान के प्रभाव से वे मरकर अपराजित नामक अनुत्तर विमान में बत्तीस सागर की आयु के धारक अहमिंद्र हुए ॥155॥<span id="156" /> रसोइया मरकर तीसरी बालुकाप्रभा पृथिवी में गया और वहाँ तीन सागर तक नरक के तीव्र दुःख भोगता रहा ॥156 ॥<span id="157" /><span id="158" /> वहाँ से निकलकर तिर्यंच गतिरूपी महा अटवी में भ्रमण करता रहा । एक बार वह मलय देश के अंतर्गत पलाश नामक ग्राम में रहने वाले यक्षदत्त और यक्षिला नामक दंपती के यक्षलिक नाम का पुत्र हुआ । यह यक्षलिक स्वभाव से ही मूर्ख था । और यक्षस्व नामक बड़े भाई से छोटा था ॥157-158॥<span id="159" /><span id="160" /> एक बार दुष्ट यक्षलिक गाड़ी पर बैठा कहीं जा रहा था । सामने मार्ग में एक अंधी सर्पिणी पड़ी थी । बड़े भाई के रोकने पर अनिष्टकारी यक्षलिक ने उस पर गाड़ी चढ़ा दी जिससे उसका पग कट गया त दुःख से वह मरणोन्मुख हो गयी । उसी समय अकामनिर्जरा के कारण उसने मनुष्यगति का बंध कर लिया ॥159-160॥<span id="161" /> तदनंतर सर्पिणी मरकर श्वेतांबिका पुरी में वहाँ के राजा वासव की स्त्री वसुंधरा के गर्भ में नंदयशा नाम की पुत्री हुई ॥161 ॥<span id="162" /> और यक्षलिक निर्नामक हुआ, इस यक्षलिक ने रसोइया की पर्याय में मुनिराज को मारा था तथा सर्पिणी के साथ अत्यंत निर्दयता का व्यवहार किया था इसलिए माता नंदयशा के साथ विद्वेष को प्राप्त हुआ है ॥162॥<span id="163" /> यह सुनकर राजा गंगदेव संसार से भयभीत हो गया और अपने देवनंद नामक पुत्र को राज्यलक्ष्मी सौंपकर दो सौ राजाओं के साथ उन्हीं मुनि के समीप उसने दीक्षा धारण कर ली ॥163 ॥<span id="164" /> समस्त राजपुत्रों और श्रेष्ठीपुत्र शंख ने भी दीक्षा ले ली तथा सब संसारचक्र से निवृत्त होने के लिए निर्मल तप करने लगे ॥164॥<span id="165" /> रानी नंदयशा ने रेवती धाय और बंधुमती सेठानी के साथ सुव्रता नामक आर्यिका के समीप उत्तम व्रतों के समूह से सुशोभित दीक्षा धारण कर ली ॥165॥<span id="166" /> निर्नामक ने मुनि होकर सिंहनिष्क्रीडित नामक कठिन तप किया था और यह निदान बाँध लिया कि मैं जंमांतर में नारायण होऊं ॥166॥<span id="167" /> रेवती धाय मनुष्य पर्याय प्राप्त कर भद्रिलसा नगर में सुदृष्टि नामक सेठ की अलका नाम की स्त्री हुई है ॥167॥<span id="168" /> गंग आदि छह पुत्रों के जीव युगलिया रूप से देवकी के गर्भ में क्रम-क्रम से उत्पन्न होंगे और वे पराक्रम के महासागर-अत्यंत पराक्रमी होंगे ॥168॥<span id="169" /> इंद्र का आज्ञाकारी हारी नाम का देव उन पुत्रों को उत्पन्न होते ही धाय के जीव अलका के पास पहुंचा देगा, वहीं वे यौवन को प्राप्त करेंगे ॥ 169 ॥<span id="170" /><span id="171" /> उन पुत्रों में बड़ा पुत्र नृपदत्त, दूसरा देवपाल, तीसरा अनीकदत्त, चौथा अनीकपालक, पांचवां शत्रुघ्न और छठा जितशत्रु नाम से प्रसिद्ध होगा । तुम्हारे ये सभी पुत्र रूप से अत्यंत सदृश होंगे अर्थात् समान रूप के धारक होंगे ॥170-171 ॥<span id="172" /> ये सभी कुमार हरिवंश के चंद्रमा, तीन जगत् के गुरु श्री नेमिनाथ भगवान् की शिष्यता को प्राप्त कर मोक्ष जावेंगे ॥172॥<span id="173" /> निर्नामक का जीव देवकी के गर्भ में आकर सातवाँ पुत्र होगा । वह अत्यंत वीर होगा तथा इस भरत क्षेत्र में नौवाँ नारायण होगा ॥173 ॥<span id="174" /></p> | ||
<p>जिनमत को लक्ष्मी की प्रशंसा करने वाले कालज्ञ वसुदेव, मुनिराज के मुख से कंस के भवांतर तथा पुण्य के उदय से प्राप्त हुए उसके अभ्युदय को सुनकर उसके साथ उपेक्षा पूर्ण मित्रता को प्राप्त हुए अर्थात् उन्होंने मित्रता तो पूर्ववत् बनाये रखो परंतु उसमें उपेक्षा का भाव आ गया । वे अपने आठों पुत्र तथा प्रिया देवकी के पूर्वभव एवं वर्तमान भव संबंधी चरित को सुनकर अत्यधिक हर्ष को प्राप्त हुए ॥174॥</p> | <p>जिनमत को लक्ष्मी की प्रशंसा करने वाले कालज्ञ वसुदेव, मुनिराज के मुख से कंस के भवांतर तथा पुण्य के उदय से प्राप्त हुए उसके अभ्युदय को सुनकर उसके साथ उपेक्षा पूर्ण मित्रता को प्राप्त हुए अर्थात् उन्होंने मित्रता तो पूर्ववत् बनाये रखो परंतु उसमें उपेक्षा का भाव आ गया । वे अपने आठों पुत्र तथा प्रिया देवकी के पूर्वभव एवं वर्तमान भव संबंधी चरित को सुनकर अत्यधिक हर्ष को प्राप्त हुए ॥174॥<span id="33" /></p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में </strong></p> | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में </strong></p> | ||
<p><strong>कंस का उपाख्यान तथा बलदेव, वासुदेव और देवकी के अन्य पुत्रों के गृहचरित का </strong></p> | <p><strong>कंस का उपाख्यान तथा बलदेव, वासुदेव और देवकी के अन्य पुत्रों के गृहचरित का </strong></p> |
Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर राजा वसुदेव, श्रेष्ठ राजपुत्रों द्वारा प्रार्थित होने पर उन्हें शस्त्र विद्या का उपदेश देते हुए सूर्यपुर में रहने लगे ॥1॥ किसी दिन कुमार वसुदेव, धनुर्विद्या में प्रवीण अपने कंस आदि शिष्यों के साथ, राजा जरासंध को देखने की इच्छा से राजगृह नगर गये ॥2॥ उस समय वह राजगृह नगर बाहर से आये हुए अनेक राजाओं के समूह से शोभित था । उसी समय वहाँ सावधान होकर श्रवण करने वाले लोगों के लिए राजा जरासंध की ओर से निम्नांकित घोषणा दी गयी थी जिसे वसुदेव ने भी सूना ॥3॥ घोषणा में कहा गया था कि "सिंहपुर का स्वामी राजा सिंहरथ उद्दंड है, वह वास्तविक सिंहों के रथ पर सवारी करता है और उत्कट पराक्रम का धारक है । जो मनुष्य उसे जीवित पकड़कर हमारे सामने दिखावेगा वही पुरुष संसार में शूर और अतिशय शूरवीर समझा जावेगा ॥4-5 ॥ शत्रु के यशरूपी सागर को पीने वाले उस पुरुष को सम्मानरूपी धन तो समर्पित किया ही जावेगा उसके बाद यह अन्य जन दुर्लभ आनुषंगिक फल भी प्राप्त होगा ॥6 ॥ गुणों के कारण जिसका यश दिशाओं के अंत में विश्राम कर रहा है तथा जो अद्वितीय सुंदरी है ऐसी अपनी जीवंद्यशा नाम की पुत्री भी मैं उसे इच्छित देश के साथ दूंगा" ॥7॥
उस हृदयहारी घोषणा को सुनकर वीर-रस में पगे हुए धीर-वीर वसुदेव ने कंस से पताका ग्रहण करवायी । भावार्थ― वसुदेव ने प्रेरित कर कंस से, सिंहरथ को पकड़ने की प्रतिज्ञा स्वरूप पताका उठवायी ॥ 8 ॥ तदनंतर वसुदेव, कंस को साथ ले विद्या निर्मित सिंहों के रथ पर सवार हो सिंहपुर गये । जब सिंहरथ, सिंहों के रथ पर बैठकर युद्ध के लिए वसुदेव के सामने आया तब उन्होंने बाणों के द्वारा उसके सिंहों की रास काट डाली जिससे उसके सिंह भाग गये ॥9॥ उसी समय कंस ने गुरु की आज्ञा से उछलकर शत्रु को बाँध लिया । कंस को चतुराई देख वसुदेव ने उससे कहा कि वर मांग । कंस ने उत्तर दिया कि हे आर्य ! अभी वर आपके ही घर रहने दीजिए । वसुदेव ने शत्रु को ले जाकर जरासंध को दिखा दिया ॥10-11॥ शत्रु को सामने देख जरासंध संतुष्ट हुआ और वसुदेव से बोला कि तुम पुत्री जीवंद्यशा के साथ विवाह करो । इसके उत्तर में वसुदेव ने कह दिया कि शत्रु को कंस ने पकड़ा है मैंने नहीं ॥12॥ राजा जरासंध ने जब कंस से उसकी जाति पूछी तब उसने कहा कि हे राजन् ! मेरी माता मंजोदरी कौशांबी में रहती है और मदिरा बनाने का काम करती है ॥13 ॥ तदनंतर कंस के वचन सुनकर राजा इस प्रकार विचार करने लगा कि इसकी आकृति कहती है कि यह मदिरा बनाने वाली का पुत्र नहीं है ॥14॥ तत्पश्चात् राजा जरासंध ने अपने आदमी भेजकर शीघ्र ही कौशांबी से मंजोदरी को बुलाया और मंजोदरी, मंजूषा तथा नाम की मुद्रिका लेकर वहाँ आ पहुंची ॥ 15 ॥ राजा ने उससे पूर्वा पर कारण पूछा तो वह कहने लगी कि हे प्रभो! मैंने यमुना के प्रवाह में इसे मंजूषा के साथ पाया था ॥16॥ हे राजन्, इस शिशु को देखकर मुझे दया आ गयो अतः पीछे चलकर हजारों उपालंभों का पात्र बनकर भी मैंने इसका पालन-पोषण किया ॥17॥ यह बालक स्वभाव से ही उग्रमुख है-कठोर शब्द बकने वाला है । यद्यपि यह पुण्यवान् है तो भी अभागा जान पड़ता है । यह बच्चों के साथ खेलता था तो उनके सिर में थप्पड़ लगाये बिना नहीं खेलता था । मदिरा खरीदने के लिए घर पर वेश्याओं की लड़कियां आती थीं तो हाथ से उनकी चोटियां खींचकर तथा उन्हें तंग कर के ही छोड़ता था ॥18-19 ॥ इसकी इस दुष्प्रवृत्ति से मेरे पास लोगों के उलाहने आने लगे जिनसे डरकर मैंने इसे निकाल दिया । यह शस्त्र विद्या सीखना चाहता था इसलिए किसी का शिष्य बन गया ॥20॥ यह कांसे की मंजूषा ही इसकी माता है मैं नहीं हूँ अतः इसके गुण अथवा दोषों से मेरा कोई संबंध नहीं है । लीजिए यह मंजूषा है― यह कहकर उसने साथ लायी हुई मंजूषा राजा को दिखा दी । जब मंजूषा खोली गयी तो उसमें उसके नाम की मुद्रिका दिखी । राजा जरासंध उसे लेकर बाँचने लगा ॥21-22॥ उसमें लिखा था कि यह राजा उग्रसेन और रानी पद्मावती का पुत्र है । जब यह गर्भ में स्थित था तभी से अत्यंत उग्र था । इसकी उग्रता से भयभीत होकर ही इसे छोड़ा गया है, यह जीवित रहे तथा इसके अपने कर्म ही इसकी रक्षा करें ॥23॥ मुद्रिका को बांचकर राजा जरासंध समझ गया कि यह हमारा भानजा है अतः उसने हर्षित होकर उसे गुणरूपी संपदा से संपन्न अपनी जीवंद्यशा पुत्री दे दी ॥24॥ पिता ने मुझे उत्पन्न होते ही नदी में छोड़ दिया था । यह जानकर कंस को बड़ा क्रोध आया इसलिए उसने जरासंध से मथुरा का राज्य मांगा और जरासंध ने दे भी दिया । उसे पाकर सब प्रकार की सेना से युक्त कंस जीवंद्यशा के साथ मथुरा गया । वह निर्दय तो था ही इसलिए वहाँ जाकर उसने पिता उग्रसेन के साथ युद्ध ठान दिया तथा युद्ध में उन्हें जीतकर शीघ्र ही बांध लिया ॥25-26 ॥ तत्पश्चात् जो प्रकृति का अत्यंत उग्र था और जिसकी आशाएँ अत्यंत क्षुद्र थीं ऐसे उस कंस ने अपने पिता राजा उग्रसेन का इधर-उधर जाना बंद कर उन्हें नगर के मुख्य द्वार के ऊपर कैद कर दिया ॥27॥
वसुदेव के उपकार का आभारी होने से कंस उनका प्रत्युपकार तो करना चाहता था पर यह नहीं निर्णय कर पाता था कि मैं इनका क्या प्रत्युपकार करूँ । वह सदा अपने-आपको वसुदेव का किंकर समझता था ॥28 ॥ एक दिन वह प्रार्थना पूर्वक बड़ी भक्ति से गुरु वसुदेव को मथुरा ले आया और वहाँ लाकर उसने उन्हें गुरु-दक्षिणा स्वरूप अपनी देव की नामक बहन प्रदान कर दी ॥ 29 ॥ तदनंतर वसुदेव, कस के आग्रह से, सुंदर कांति की धारक एवं मधुर वचन बोलने वाली देवकी के साथ क्रीड़ा करते हुए मथुरा में ही रहने लगे ॥30॥ शत्रुओं को संतप्त करने वाला एवं जरासंध को अतिशय प्रिय कंस, शूरसेन नामक विशाल देश की राजधानी मथुरा का शासन करने लगा ॥31 ॥
एक दिन कंस के बड़े भाई अतिमुक्तक मुनि आहार के समय राजमंदिर आये सो कंस की स्त्री जीवंद्यशा नमस्कार कर विभ्रम दिखाती हुई उनके सामने खड़ी हो गयी और हँसती हुई क्रीड़ा भाव से कहने लगी कि यह आपकी बहन देवकी का आनंद वस्त्र है इसे देखिए ॥32-33 ॥ संसार की स्थिति को जानने वाले मुनिराज, उस निमर्याद चित्त की धारक एवं राज्य वैभव से मत्त जीवंद्यशा को रोकने के लिए अपनी वचन गुप्ति तोड़कर बोले कि अहो ! तू हँसी कर रही है परंतु यह तेरी बड़ी मूर्खता है । तू दुःखदायक शोक के स्थान में भी आनंद प्राप्त कर रही है ॥ 34-35 ॥ तू वह निश्चित समझ, कि इस देवकी के गर्भ से जो पुत्र होगा वह तेरे पति और पिता को मारने वाला होगा । यह ऐसी ही होनहार है― इसे कोई टाल नहीं सकता ॥36॥
यह सुनते ही जीवंद्यशा भयभीत हो उठी, उसके नेत्रों से आंसू निकलने लगे । वह उसी समय मुनिराज को छोड़ पति के पास गयी और मुनि के वचन सत्य ही निकलते हैं यह विश्वास जमाकर उसने सब समाचार कह सुनाया ॥37॥ स्त्री के मुख से यह समाचार सुनकर कंस को भी शंका हो गयी । वह तीक्ष्ण बुद्धि का धारक तो था ही इसलिए शीघ्र ही उपाय सोचकर सत्यवादी वसुदेव के पास गया और चरणों में नम्रीभूत होकर वर मांगने लगा ॥38॥ उसने कहा कि हे स्वामिन् ! मेरा जो वर आपके पास धरोहर है उसे दे दीजिए और वह वर यही चाहता हूँ कि प्रसूति के समय देवकी का निवास मेरे ही घर में रहा करे॥39॥ वसुदेव को इस वृत्तांत का कुछ भी ज्ञान नहीं था इसलिए उन्होंने निर्बुद्धि होकर कंस के लिए वह वर दे दिया । भाई के घर बहन को कोई आपत्ति आ सकती है यह शंका भी तो नहीं की जा सकती ? ॥40॥ पीछे जब उन्हें इस वृत्तांत का पता चला तो उनका हृदय पश्चात्ताप से बहुत दुःखी हुआ । वे उसी समय आम्रवन के मध्य में स्थित चारण ऋद्धिधारी अतिमुक्तक मुनिराज के पास गये और देवकी के साथ प्रणाम कर समीप में बैठ गये । मुनिराज ने दोनों को आशीर्वाद दिया । तदनंतर वसुदेव ने उनसे अपने हृदय में स्थित निम्नांकित प्रश्न पूछा ॥41-42 ॥
हे भगवन् ! कंस ने अन्य जन्म में ऐसा कौन-सा कर्म किया कि जिससे वह दुर्बुद्धि अपने पिता का हो शत्रु हुआ । इसी प्रकार हे नाथ ! मेरा पुत्र इस पापी कंस का विघात करने वाला कैसे होगा? यह मैं जानना चाहता हूँ सो कृपा कर कहिए ॥43 ॥ अतिमुक्तक मुनिराज देदीप्यमान अवधिज्ञानरूपी नेत्र के धारक थे और अवधिज्ञानरूपी दिव्य नेत्र के धारक पुरुषों की वाणी चूंकि संशय को नष्ट करने वाली होती है इसलिए कुमार वसुदेव के पूछने पर मुनिराज कहने लगे ॥44॥
हे देवों के प्रिय ! राजन् ! सुन, तेरा प्रश्न सब लोगों के लिए प्रिय है इसलिए मैं तेरे प्रश्न के अनुसार तेरी जिज्ञासित वस्तु को कहता हूँ ॥45॥ इसी मथुरा नगरी में जब राजा उग्रसेन राज्य करता था तब पहले पंचाग्नि तप तपने वाला एक वशिष्ठ नामक तापस रहता था ॥46॥ वह अज्ञानी यमुना नदी के किनारे तप तपता था, एक पांव से खड़ा रहता था, ऊपर की ओर भुजा उठाये रहता था और बड़ी-बड़ी जटाओं को धारण करता था ॥47॥ वहां पर लोगों की पनिहारिनें पानी के लिए आती थीं । एक दिन जिनदास सेठ की प्रियंगुलतिका नाम की पनिहारिन भी वहाँ आयी । हित को बुद्धि रखने वालो अन्य पनिहारिनों ने प्रियंगुलतिका से कहा कि हे प्रियंगुलतिके ! तु शीघ्र ही इस साधु को नमस्कार कर । उत्तर में प्रियंगुलतिका ने कहा कि इसके ऊपर मेरी भक्ति बिलकुल नहीं है । मैं क्या करूं ? ॥48-49॥ तदनंतर अन्य पनिहारिनों ने प्रियंगुलतिका को जबरदस्ती उस साधु के चरणों में नमा दिया । प्रियंगुलतिका ने रुष्ट होकर कहा कि अहो ! तुम लोगों ने मुझे धीवर के चरणों में गिरा दिया । प्रियंगुलतिका के उक्त वचन सुनते ही मूर्ख साधु कुपित हो उठा ॥50-51꠰ वह सीधा राजा उग्रसेन के पास गया और कहने लगा कि हे प्रभो! जिनदत्त सेठ ने मुझे बिना कारण ही गाली दी है ॥ 52 ॥ राजा ने जिनदत्त सेठ को बुलाकर पूछा तो उसने कहा कि नाथ ! मैंने तो इसे देखा भी नहीं है फिर गाली तो दूर रही है । इसके उत्तर में साधु ने कहा कि इसकी दासी ने गाली दी है । राजा ने दासी को बुलाकर क्रोध दिखाते हुए पूछा कि अरी पापिन ! तू इस साधु को नमस्कार क्यों नहीं करती ? उलटी निंदा करती है ? ॥53-54 ॥
दासी ने कहा कि प्रभो ! यह साधु नहीं है यह तो मूर्ख धीवर है । इसकी जटाओं में कहीं भी शुद्धता नहीं दिखाई देती ॥55॥ साधु की जटाएं शोधी गयीं तो उनसे बहुत-सी छोटी-छोटी मछलियां निकल पड़ी । इससे साधु बहुत लज्जित हुआ और यह असत्यवादी है यह कहकर लोगों ने उसकी बहुत हँसी उड़ायी ॥ 56 ॥ जब राजा ने उसकी परीक्षा ली तो वह क्रोध कर अपना अज्ञान प्रकट करता हुआ मथुरा से बाहर चला गया ॥ 57 ॥ और बनारस जाकर वहाँ रहने का उसने निश्चय कर लिया । अब वह बनारस के बाहर जाकर गंगा के किनारे तप करने लगा ॥ 58 ॥ किसी एक दिन वहाँ अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ वीरभद्र मुनिराज आये । उनके संघ के एक नवदीक्षित मुनि ने वशिष्ठ की तपस्या देख, ‘अहा ! यह घोर तपस्वी वशिष्ठ है’ इस प्रकार उसकी प्रशंसा की । अरे अज्ञानी का तप कैसा ? यह कहते हुए आचार्य ने उस नवदीक्षित मुनि को प्रशंसा करने से रो का ॥ 59-60॥ वशिष्ठ ने पूछा कि मैं अज्ञानी कैसे हूँ ? इसके उत्तर में आचार्य ने कहा कि तुम छह काय के जीवों को पीड़ा पहुंचाते हो इसलिए अज्ञानी हो ॥611॥ पंचाग्नि तप में अग्नि का संसर्ग अवश्य रहता है और उस अग्नि के द्वारा पंचेंद्रिय, विकलेंद्रिय तथा एकेंद्रिय जीव अवश्य जलते हैं ॥62॥ पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पांच स्थावरों तथा अन्य त्रस प्राणियों का विघात होने से अज्ञानी जीव के प्राणिसंयम कैसे हो सकता है ॥63॥ इसी प्रकार जो विरक्त होकर भी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को मानने वाला है उसके सम्यग्ज्ञानपूर्वक होने वाला इंद्रिय संयम भी कैसे हो सकता है ? ॥64॥ जो केवल कायक्लेश तप को प्राप्त है, मान से भरा हुआ है और समीचीन संयम से रहित है उसकी तपस्या मुक्ति के लिए कैसे हो सकती है ? ॥65 ॥ एक जैन मार्ग हो सन्मार्ग है, उसी में संयम, तप, दर्शन, चारित्र और समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाला ज्ञान प्राप्त हो सकता है ॥66॥ हे तापस ! तुम जानते हो तुम्हारा पिता मरकर साँप हुआ है और ज्वालाओं तथा धूम की पंक्ति से व्याप्त इसी ईंधन में जल रहा है ॥67॥ आचार्य के इस प्रकार कहने पर तापस ने कुल्हाड़ा से उस काष्ठ को चीरकर देखा तो उसके अंदर सांप जलता हुआ छटपटा रहा था ॥68॥ तदनंतर आचार्य ने फिर कहा कि तेरे पिता का नाम ब्रह्मा था और वह तेरे ही समान तापस के धर्म का पालन करता था । उसी से उसकी यह कुगति हुई है । आचार्य के मुख से यह सब जानकर वशिष्ठ तापस को जान पड़ा कि मैं अज्ञानी हूं और जैनधर्म सम्यग्ज्ञान से परिपूर्ण है । अतः उसने उन्हीं वीरभद्र गुरु के पास जैन दीक्षा धारण कर ली ॥69-70॥ उनके साथ अनेक मुनि तपस्या करते थे परंतु लाभांतराय कर्म के उदय से उन सबमें एक वशिष्ठ मुनि ही भिक्षा के लाभ से वर्जित रह जाते थे अर्थात् उन्हें भिक्षा की प्राप्ति बहुत कम होती थी ॥71 ॥ तदनंतर वीरभद्र गुरु ने सेवा के निमित्त और आगम का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने के लिए वशिष्ठ मुनि को यत्नपूर्वक शिवगुप्त यति को सौंप दिया ॥ 72 ॥ छह महीने तक तप करने के बाद शिवगुप्तयति ने वशिष्ठ मुनि को वीरदत्त नामक मुनिराज के लिए सौंप दिया । वीरदत्त मुनि ने भी छह माह अपने पास रखकर उन्हें सुमति नामक मुनि के लिए सौंप दिया और सुमति मुनि ने भी छह माह तक उनका अच्छी तरह पालन किया ॥73 ॥ तदनंतर अनेक गुरुओं के पास रहने से जो मुनि-धर्म को विधि को अच्छी तरह जानने लगे थे और परीषह सहन करने का जिन्हें अच्छा अभ्यास हो गया था ऐसे वशिष्ठ मुनि पृथिवी पर प्रसिद्ध एक विहारी हो गये― अकेले ही विचरण करने लगे ॥74॥
अथानंतर महातपस्वी वशिष्ठ मुनि कदाचित् विहार करते हुए मथुरा आये सो राजा तथा प्रजा ने बड़ी प्रतिष्ठा के साथ उनकी पूजा की ॥75॥ एक समय वे बड़ी प्रसन्नता से पर्वत के मस्तक पर आतापन योग धारण कर विराजमान थे कि उनके तप से वशीभूत हुई सात देवियां पास आकर कहने लगी कि हम लोग आपका क्या कार्य करें ? ॥76॥ तपोधन वशिष्ठ मुनि ने यह कहकर उन देवियों को वापस कर दिया कि मेरा कोई काम नहीं है । अंत में उनके अधीन हुई वे वन-देवियाँ चली गयीं ॥77॥ आहार की इच्छा से रहित वशिष्ठ मुनि एक मास के उपवास का नियम लेकर तपस्या कर रहे थे, इसलिए समस्त प्रजा पारणाओं के समय उन्हें आहार देना चाहती थी ॥78॥ परंतु राजा उग्रसेन ने किसी समय नगरवासियों से यह याचना की कि मासोपवासी मुनिराज के लिए पारणाओं के समय मैं ही आहार दूंगा और इसी भावना से उसने मथुरा में रहने वाले सब दाताओं को आहार देने से रोक दिया ॥79॥ मुनिराज एक-एक मास बाद तीन बार पारणाओं के लिए आये परंतु तीनों बार राजा प्रमादी बन आहार देना भूल गया । पहली पारणा के समय जरासंध का दूत आया था सो उसकी व्यवस्था में निमग्न हो आहार देना भूल गया । दूसरी पारणा के समय आग लग गयी सो उसकी व्यवस्था में संलग्न होने से प्रमादी हो गया और तीसरी पारणा के समय नगर में हाथी ने क्षोभ मचा दिया इसलिए उसके व्यासंग से प्रमादी हो आहार देना भूल गया ॥80॥ मुनि आहार के लिए समस्त मथुरा नगरी में घूमे परंतु कहीं आहार प्राप्त नहीं हुआ । अंत में श्रम से पीड़ित हो नगर के द्वार में विश्राम करने लगे ॥81॥ उन्हें देख किसी नगरवासी ने कहा कि हाय बड़े खेद की बात राजा ने कर रक्खी है― इन मुनिराज के लिए वह स्वयं आहार देता नहीं है तथा दूसरों को मना कर रखा है ॥ 82॥ यह सुनकर मुनिराज को क्रोध आ गया । उन्होंने उसी समय पहले आयी हुई देवियों का स्मरण किया । स्मरण करते ही देवियां आ गयीं । उन्हें देख मुनि ने कहा कि आप लोग अन्य जन्म में मेरा काम करें । मुनि की आज्ञा स्वीकृत कर देवियाँ वापस चली गयी और मुनि वन को ओर प्रस्थान कर गये ॥ 83॥ राजा उग्रसेन का अपमान करने के लिए वशिष्ठ मुनि ने यह उग्र निदान बाँध लिया कि मैं उग्रसेन का पुत्र होकर इसका बदला लूं । निदान के कारण वे मुनि पद से भ्रष्ट हो मिथ्यात्व गुणस्थान में आ गये और उसी समय मरकर राजा उग्रसेन की रानी पद्मावती के उदर में निवास करने लगे ॥84॥ जब कंस का जीव पद्मावती के गर्भ में था तब पद्मावती का शरीर एकदम दुर्बल हो गया । एक दिन राजा ने उससे एकांत में पूछा कि कांते ! तुम्हारा दोहला क्या है ? जिसके कारण तुम सूखकर कांटा हुई जा रही हो ॥85॥ पद्मावती ने कहा कि हे नाथ ! गर्भ के दोष से मुझे जो दोहला हुआ है वह न तो कहने योग्य है और न विचार करने योग्य है । रानी के इस प्रकार कहने पर राजा ने कहा कि वह दोहला तुम्हें अवश्य कहना चाहिए ॥86॥ राजा का हठ देख उसने दुःख से गद्गद वाणी द्वारा कहा कि हे नाथ ! मेरी इच्छा है कि मैं आपका पेट फाड़कर आपका रुधिर पीऊँ ॥ 87॥ तदनंतर मंत्रियों के उपाय से उसका दोहला पूर्ण किया गया । नौ माह बाद रानी पद्मावती ने ऐसा पुत्र उत्पन्न किया जिसका मुख भौंहों से अत्यंत कुटिल था ॥88॥ चूंकि वह बालक गर्भ से ही अत्यंत रोद्र था इसलिए रानी पद्मावती ने भय से उसे कांस को मंजूषा में बंद कर एकांत में यमुना के प्रवाह में छुड़वा दिया ॥ 89 ॥ वह मंजूषा बहती-बहती कौशांबी नगरी पहुंची । वहाँ एक कलारिन ने उसे पाकर पुत्र का कंस नाम रखा तथा उसका पालन-पोषण किया । हे राजन् ! इसके आगे का सब समाचार तुम्हें विदित ही है ॥90॥ निदान के दोष से दूषित होकर इसने पिता का निग्रह किया है । आगे चलकर तुम्हारा पुत्र उसे मारेगा और उसके पिता राजा उग्रसेन को भी बंधन से छुड़ावेगा ॥91॥ हे राजन् ! कंस ने अपने पिता को बंधन में क्यों डाला इसका कारण बतलाने वाला कंस का वृत्तांत कहा । अब तेरे पुत्रों का वृत्तांत कहता हूँ सो मन को स्थिर कर सुन ॥92॥
देवकी का सातवां पुत्र शंख, चक्र, गदा तथा खड्ग को धारण करने वाला होगा और वह कंस आदि शत्रुओं को मारकर समस्त पृथिवी का पालन करेगा ॥93॥ शेष छहों पुत्र चरम-शरीरी होंगे । उनकी अपमृत्यु नहीं हो सकेगी, अतःचिंतारूपी व्याधि का त्याग करो ॥94॥ मैं रामभद्र (बलदेव) सहित उन सबके पूर्वभव तुम्हें कहता हूँ सो अपनी स्त्री के साथ श्रवण करो । अवश्य ही उन सबके पूर्व भव तेरे चित्त को प्रीति करने वाले होंगे ॥95 ॥
जब राजा शूरसेन मथुरापुरी को रक्षा करते थे तब यहाँ बारह करोड़ मुद्राओं का अधिपति भानु नाम का सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम यमुना था ॥96 ॥ उन दोनों के सुभानु, भानुकीर्ति, भानुषेण, शूर, सूरदेव, शूरदत्त और शूरसेन ये सात पुत्र उत्पन्न हुए । ये सातों भाई अत्यंत सुंदर तथा स्वभाव से ही एक दूसरे के अनुगामी थे ॥97-98॥ उन सातों पुत्रों की क्रम से कालिंदी, तिलका, कांता, श्रीकांता, सुंदरी, द्युति और चंद्रकांता ये सात स्त्रियाँ थीं जो उच्च कुलों की कन्याएँ थीं ॥99॥ कदाचित् भानु सेठ ने अभयनंदी गुरु के समीप और उसकी स्त्री यमुना ने जिनदत्ता आर्यिका के समीप दीक्षा ले ली ॥100॥ सातों भाइयों ने जुआ और वेश्या व्यसन में फंसकर पिता का सब धन नष्ट कर दिया । जब उनके पास कुछ भी नहीं रहा तब सब भाई चोरी करने के लिए उज्जयिनी नगरी गये ॥101॥ उज्जयिनी के बाहर एक महाकाल नाम का वन है । वहाँ संतति की रक्षा के लिए छोटे भाई को रखकर शेष छहों भाई निःशंक हो रात्रि के समय नगरी में प्रविष्ट हुए ॥102 ॥ उस समय उज्जयिनी का राजा वृषभध्वज था । उसकी स्त्री का नाम कमला था । राजा वृषभध्वज का दृढ़मुष्टि नाम का एक उत्तम योद्धा था । उसकी स्त्री का नाम वप्रश्री था । उन दोनों को वज्रमुष्टि नाम का पुत्र था । युवा होने पर जब वह काम से पीडित हुआ तब उसने विमलचंद्र से उनकी विमला रानी से उत्पन्न मंगी नामक पुत्री उसके लिए दिलवा दी ॥103-104॥ मंगी वज्रमुष्टि के लिए बहुत प्यारी थी । वह वीणा की तरह सदा उसी के साथ रहती थी और शुश्रूषा सेवा से युक्त हो सास के अनुकूल आचरण नहीं करती थी अर्थात् सास की कभी सेवा नहीं करती थी । इसलिए उसकी सास मन ही मन बहुत कलुषित रहती थी और निरंतर उसके नाश का उपाय सोचती रहती थी । एक दिन वह छल से उसके मारने का उपाय सोचती हुई बैठी थी कि इतने में वसंतोत्सव का समय आ गया और उसका पुत्र वज्रमुष्टि प्रमदवन में क्रीड़ा करने के लिए राजा के साथ पहले चला गया तथा मंगी से कह गया कि हे मंगि ! तू शीघ्र ही मेरे पीछे आ जाना ॥ 105-107 ॥ इधर सास ने मंगी को वसंतोत्सव में नहीं जाने दिया । उस दुर्बुद्धि ने एक घड़े में धूपिन जाति का जहरीला सांप पहले से बुला रखा था । अवसर देख उसने मंगी से कहा कि तू वसंतोत्सव में नहीं जा सकी है इसलिए दुःखी न हो । मैंने तेरे लिए पहले से ही सुंदर माला बुला रखी है । जा उस घड़े में से निकालकर पहिन ले । भोली-भाली मंगी ने माला के लोभ से घड़े में ज्यों ही हाथ डाला त्योंही उस धूपिन सर्प ने उसे डंस लिया ॥108 ॥ मंगी विष के वेग से तुरंत ही मूर्च्छित हो गयी और सास ने उसे अपने भृत्यों द्वारा उस महाकाल नामक श्मशान में जो यमराज के लिए भी भय उत्पन्न करने वाला था छुड़वा दिया ॥109 ॥
वज्रमुष्टि जब रात्रि को घर आया और सब वृत्तांत उसे मालूम हुआ तो वह बड़े स्नेह से अपनी प्रिया मंगी को ढूँढ़ने के लिए महाकाल श्मशान में जा घुसा ॥110॥ उस समय उसके हाथ में एक चमकती हुई तलवार थी । उसी के बल पर वह निःशंक होकर श्मशान में घुसा जा रहा था । आगे चलकर उसने उस श्मशान में रात्रि-भर के लिए प्रतिमा योग लेकर विराजमान वरधर्म नामक मुनिराज को देखा ॥111 ॥ उसने तीन प्रदक्षिणाएँ देकर मुनिराज को नमस्कार किया और कहा कि हे मुनिराज ! यदि मैं मंगी को प्राप्त कर सका तो एक हजार कमलों से आपके चरणों की पूजा करूंगा ॥112 ॥ इस प्रकार कहकर वह ज्यों ही आगे बढ़ा त्यों ही उसे उसकी स्त्री मंगी मिल गयी । वह उसे मुनिराज के पास ले आया और उनके चरणों के स्पर्श से उसने उसे विषरहित कर लिया ॥113 ॥ तदनंतर जब तक मैं न आ जाऊँ तब तक तुम मुनिराज के चरणों के समीप बैठना इस प्रकार मंगी से कहकर वज्रमुष्टि कमल लाने को इच्छा से सुदर्शन नामक सरोवर की ओर चला गया ॥114॥ पास ही छिपा हुआ शूरसेन मंगी के प्रति वज्रमुष्टि का महान् स्नेह देख चुका था इसलिए उसने उसके मन का भाव जानने की इच्छा से उसे अपना रूप दिखाया । वह सुंदर तो था ही ॥115 ॥ वह अपने अभिप्राय को छिपाकर उसके साथ मीठी-मीठी बातचीत और गुप्त सलाह करने लगा । मंगी उसे देखते ही काम से विह्वल हो गयी ॥116 ॥ उसी विह्वल दशा में उसने शूरसेन के पास जाकर कहा कि हे देव ! आप कृपा कर मुझे स्वीकृत कीजिए । मंगी की प्रार्थना सुनकर शूरसेन ने कहा कि जब तक तुम्हारा पति जीवित है तब तक मैं ऐसा कैसे कर सकता हूं ? हे प्रिये ! मैं इस शक्तिशाली सुभट से अवश्य ही डरता हूँ । इसके उत्तर में अनुराग से भरी मंगी ने कहा कि हे नाथ ! आप इसका भय नहीं कीजिए । मैं इसे तो तलवार से अभी मार डालती हूँ । शूरसेन ने उत्तर दिया कि यदि ऐसा है तो मुझे स्वीकार है । इस प्रकार कहकर वह उसका वह कार्य देखने की इच्छा से वहीं छिपकर खड़ा हो गया ॥ 117-119 ॥
तदनंतर वज्रमुष्टि ने आकर मुनिराज के चरणों की पूजा की और पूजा करने के बाद ज्यों ही वह नमस्कार करने लगा त्यों ही मंगी ने उसके सिर पर तलवार छोड़ना चाही, परंतु शूरसेन ने शीघ्र ही आकर तलवार छीन ली ॥120 ॥ शूरसेन को यह दृश्य देखकर संसार से वैराग्य हो आया, इसलिए वह अपने-आपको प्रकट किये बिना ही वहाँ से चला गया । मंगी उसके स्पर्श से शंकित हो गयी, इसलिए अपना दोष छिपाने के लिए वह माया बताती हुई पृथिवी तल पर गिर पड़ी । वज्रमुष्टि को मंगी के इस दुष्कृत्य का पता नहीं चल पाया । इसलिए वह उससे पूछता है कि प्रिये ! क्या यहाँ तुम्हें किसी ने डरा दिया है ! यहाँ भय का तो कुछ भी कारण दिखाई नहीं देता । इस प्रकार भय से पीड़ित मंगी को सचेत कर वज्रमुष्टि ने मुनिराज को नमस्कार किया और तदुपरांत वह स्त्री को साथ ले घर चला गया ॥121-123 ॥
तदनंतर शूरसेन के जो छह भाई चोरी करने के लिए गये थे उन्होंने चोरी से प्राप्त हुए धन के बराबर हिस्से कर शूरसेन से कहा कि अपना हिस्सा उठा लो ॥124॥ शूरसेन ने हिस्सा लेने के प्रति अनिच्छा प्रकट करते हुए कहा कि लोग स्त्रियों के पीछे ही नाना प्रकार के अनर्थ करते हैं और स्त्रियाँ वज्रमुष्टि की स्त्री के समान होती हैं ॥125॥ इस वृत्तांत को देख-सुनकर छह छोटे भाइयों ने विरक्त होकर उसी समय वरधर्म गुरु के समीप दीक्षा ले ली और बड़ा भाई स्त्रियों के पास धन ले गया ॥126 ॥ जब उन भाइयों की सातों स्त्रियों ने यह वृत्तांत सुना तो उन्होंने भी विरक्त हो दीक्षा ले ली । अंत में बड़े भाई सुभानु की बुद्धि भी ठिकाने आ गयी इसलिए उसने भी उन्हीं वरधर्म गुरु के पास दीक्षा ली ॥127॥
अथानंतर किसी समय अपने गुरु के साथ विहार करते हुए वे सातों मुनि उज्जयिनी आये । उनके दर्शन कर वज्रमुष्टि ने उनसे दीक्षा लेने का कारण पूछा । उत्तर में उन्होंने वज्रमुष्टि और मंगी का सब वृत्तांत कह सुनाया जिसे सुन वज्रमुष्टि को बहुत खेद हुआ तथा उसी समय उसने दीक्षा ले ली ॥128॥ उसी समय आर्यिका जिनदत्ता के साथ विहार करती हुई पूर्वोक्त सात आर्यिकाएं भी उज्जयिनी आयीं । मंगी ने उनसे दीक्षा का कारण पूछा । उन्होंने जो उत्तर दिया उसे सुनकर मंगी को अपना पिछला सब वृत्तांत स्मृत हो गया इसलिए उसने भी दृढ़ व्रत धारण कर दीक्षा ले ली ॥129 ॥ तदनंतर घोर तप के भार को धारण करने वाले सातों मुनिराज आयु के अंत में समाधिमरण कर सौधर्म स्वर्ग में एक सागर को आयु वाले त्रायस्त्रिंश जाति के उत्तम देव हुए ॥130॥ धातकीखंड द्वीप के पूर्व भरतक्षेत्र में जो विजयार्ध पर्वत है उसको दक्षिण श्रेणी में एक नित्यालोक नाम का नगर है ॥131॥ उसमें किसी समय राजा चित्रचूल राज्य करता था उसकी स्त्री का नाम मनोहरी था । बड़े भाई सुभानु का जीव उन्हीं दोनों के चित्रांगद नाम का पुत्र हुआ और शेष छह भाइयों के जीव भी उन्हीं के क्रम-क्रम से तीन युगलों के रूप में गरुडकांत, सेनकांत, गरुडध्वज, गरुडवाहन, मणिचूल और हिमचूल नाम के छह पुत्र हुए । ये सभी आकाश में आनंद से विचरण करते थे तथा अत्यंत उत्कृष्ट थे ॥132-133॥ चित्रचूल के ये सभी पुत्र अत्यंत सुंदर थे, अनेक विद्याओं के प्राप्त करने में उद्यत थे और मनुष्यों के मस्तक पर चूडामणि के समान स्थित थे ॥134॥ उसी समय मेघपुर नगर में सर्वश्री नाम का स्त्री का स्वामी धनंजय नाम का राजा राज्य करता था । राजा धनंजय और रानी सर्वश्री के एक धनश्री नाम को अत्यंत रूपवती कन्या थी ॥135 ॥ धनश्री का किसी समय स्वयंवर किया गया, स्वयंवर में समस्त विद्याधरों के पुत्र गये परंतु कन्या ने उनमें अपने पिता के भानजे हरिवाहन को वरा ॥136॥ जब इसे अपने संबंधी के साथ ही विवाह करना था तो स्वयंवर के बहाने छलपूर्वक हम लोगों को क्यों बुलाया― यह कहते हुए अन्य विद्याधर कन्या के पिता पर क्रुद्ध हो गये ॥137॥ तदनंतर उस कन्या की इच्छा रखते हुए वे विद्याधर परस्पर एक-दूसरे का वध करने लगे । राजा चित्रचूल के पुत्र भी स्वयंवर में गये थे । इस निंदनीय क्षत्रिय-वध को देखकर वे विचार करने लगे कि अहो ! ये इंद्रियों के विषम विषय ही पाप के कारण हैं । इस प्रकार इंद्रियों के विषयों की निंदा कर भूतानंद जिनराज के समीप दीक्षित हो गये ॥138-139॥ सातों मुनिराज अंत में समाधि धारण कर माहेंद्र स्वर्ग में सात सागर को आयु के धारक सामानिक जाति के देव हुए और वहाँ की विभूति से चिरकाल तक सुख भोगते रहे ॥140॥
तदनंतर वहाँ से च्युत होकर बड़े भाई का जीव इसी भरतक्षेत्र के हस्तिनापुर नगर में किसी सेठ की बंधुमती स्त्री से शंख नाम का पुत्र हुआ ॥141॥ शेष छह भाइयों के जीव इसी नगर के राजा गंगदेव की नंदयशा रानी से तीन युगल के रूप में गंग, गंगदत्त, गंगरक्षित, नंद, सुनंद और नंदिषेण नाम के छह सुंदर पुत्र हुए ॥142-143॥ रानी नंदयशा के गर्भ में जब सातवां पुत्र आया तब उसके अत्यंत दुर्भाग्य का उदय आ गया । उससे दु:खी होकर उससे उत्पन्न होने पर उस पुत्र को छोड़ दिया, निदान, रेवती नामक धाय ने पालन-पोषण कर उसे बड़ा किया ॥144॥ रानी नंदयशा के इस त्याज्य पुत्र का नाम निर्नामक था । यह निर्नामक, श्रेष्ठीपुत्र शंख को बड़ा प्रिय था । एक दिन शंख, निर्नामक को साथ लेकर नागरिक मनुष्यों से भरे हुए मनोहर उद्यान में गया ॥145 ॥ वहाँ राजा गंगदेव के छहों पुत्र एक साथ भोजन कर रहे थे । उन्हें देख शंख ने कहा कि यह निर्नामक भी तो तुम्हारा छोटा भाई है, इसे भोजन करने के लिए क्यों नहीं बुलाते ? ॥146 ॥ शंख की बात सुन राजपुत्रों ने निर्नामक को बुला लिया और वह भाइयों के साथ भोजन करने के लिए बैठ गया । उसी समय उसकी माता रानी नंदयशा कहीं से आ गयी और उसने क्रोध से आग बबूला हो उसे लात मार दी ॥147 ॥ इस घटना से शंख को बड़ा दुःख हुआ । वह कहने लगा कि मेरे निमित्त से ही निर्नामक को यह दुःख उठाना पड़ा है अतः मुझे धिक्कार है । अंत में वह दु:खी
होता हआ निर्नामक को लेकर राजा आदि के साथ वन में गया ॥148॥ वहाँ एकांत में द्रुमषेण नामक मुनिराज को देखकर शंख ने उनसे निर्नामक के पूर्वभव पूछे । मुनिराज अवधिज्ञानी थे अतः उसके भवांतर इस प्रकार कहने लगे ॥149 ॥
गिरिनगर नामक नगर में राजा चित्ररथ रहता था, उसकी कनकमालिनी नाम की गुणवती एवं सुंदरी स्त्री थी ॥150॥ राजा चित्ररथ मांस खाने का बड़ा प्रेमी था, उसका एक अमृतरसायन नाम का रसोइया था जो मांस पकाना बहुत अच्छा जानता था । उसकी कला से प्रसन्न होकर राजा ने उसे दश ग्रामों का स्वामी बना दिया था ॥151 ॥ एक दिन राजा ने सुधर्म नामक मुनिराज से मांस खाने के दोष सूने जिससे प्रभावित होकर उसने राज्य-लक्ष्मी को मेघरथ नामक पुत्र के लिए सौंप दी और स्वयं मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा से तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली ॥152॥ नवीन राजा मेघरथ श्रावक बन गया इसलिए उसने मांस पकाने वाले रसोइया को अपमानित कर केवल एक ग्राम का स्वामी कर दिया ॥153॥ इस घटना से रसोइया बड़ा कुपित हुआ । उसने सोचा कि मेरे अपमान का कारण मांस का निषेध करने वाले ये मुनि ही हैं इस लिए उसने कड़वी तूमड़ी का विषमय आहार देकर मुनि को प्राण रहित कर दिया ॥154 ॥ मुनिराज का समाधिमरण ऊर्जयंतगिरि पर हुआ था । प्रबल आत्मध्यान के प्रभाव से वे मरकर अपराजित नामक अनुत्तर विमान में बत्तीस सागर की आयु के धारक अहमिंद्र हुए ॥155॥ रसोइया मरकर तीसरी बालुकाप्रभा पृथिवी में गया और वहाँ तीन सागर तक नरक के तीव्र दुःख भोगता रहा ॥156 ॥ वहाँ से निकलकर तिर्यंच गतिरूपी महा अटवी में भ्रमण करता रहा । एक बार वह मलय देश के अंतर्गत पलाश नामक ग्राम में रहने वाले यक्षदत्त और यक्षिला नामक दंपती के यक्षलिक नाम का पुत्र हुआ । यह यक्षलिक स्वभाव से ही मूर्ख था । और यक्षस्व नामक बड़े भाई से छोटा था ॥157-158॥ एक बार दुष्ट यक्षलिक गाड़ी पर बैठा कहीं जा रहा था । सामने मार्ग में एक अंधी सर्पिणी पड़ी थी । बड़े भाई के रोकने पर अनिष्टकारी यक्षलिक ने उस पर गाड़ी चढ़ा दी जिससे उसका पग कट गया त दुःख से वह मरणोन्मुख हो गयी । उसी समय अकामनिर्जरा के कारण उसने मनुष्यगति का बंध कर लिया ॥159-160॥ तदनंतर सर्पिणी मरकर श्वेतांबिका पुरी में वहाँ के राजा वासव की स्त्री वसुंधरा के गर्भ में नंदयशा नाम की पुत्री हुई ॥161 ॥ और यक्षलिक निर्नामक हुआ, इस यक्षलिक ने रसोइया की पर्याय में मुनिराज को मारा था तथा सर्पिणी के साथ अत्यंत निर्दयता का व्यवहार किया था इसलिए माता नंदयशा के साथ विद्वेष को प्राप्त हुआ है ॥162॥ यह सुनकर राजा गंगदेव संसार से भयभीत हो गया और अपने देवनंद नामक पुत्र को राज्यलक्ष्मी सौंपकर दो सौ राजाओं के साथ उन्हीं मुनि के समीप उसने दीक्षा धारण कर ली ॥163 ॥ समस्त राजपुत्रों और श्रेष्ठीपुत्र शंख ने भी दीक्षा ले ली तथा सब संसारचक्र से निवृत्त होने के लिए निर्मल तप करने लगे ॥164॥ रानी नंदयशा ने रेवती धाय और बंधुमती सेठानी के साथ सुव्रता नामक आर्यिका के समीप उत्तम व्रतों के समूह से सुशोभित दीक्षा धारण कर ली ॥165॥ निर्नामक ने मुनि होकर सिंहनिष्क्रीडित नामक कठिन तप किया था और यह निदान बाँध लिया कि मैं जंमांतर में नारायण होऊं ॥166॥ रेवती धाय मनुष्य पर्याय प्राप्त कर भद्रिलसा नगर में सुदृष्टि नामक सेठ की अलका नाम की स्त्री हुई है ॥167॥ गंग आदि छह पुत्रों के जीव युगलिया रूप से देवकी के गर्भ में क्रम-क्रम से उत्पन्न होंगे और वे पराक्रम के महासागर-अत्यंत पराक्रमी होंगे ॥168॥ इंद्र का आज्ञाकारी हारी नाम का देव उन पुत्रों को उत्पन्न होते ही धाय के जीव अलका के पास पहुंचा देगा, वहीं वे यौवन को प्राप्त करेंगे ॥ 169 ॥ उन पुत्रों में बड़ा पुत्र नृपदत्त, दूसरा देवपाल, तीसरा अनीकदत्त, चौथा अनीकपालक, पांचवां शत्रुघ्न और छठा जितशत्रु नाम से प्रसिद्ध होगा । तुम्हारे ये सभी पुत्र रूप से अत्यंत सदृश होंगे अर्थात् समान रूप के धारक होंगे ॥170-171 ॥ ये सभी कुमार हरिवंश के चंद्रमा, तीन जगत् के गुरु श्री नेमिनाथ भगवान् की शिष्यता को प्राप्त कर मोक्ष जावेंगे ॥172॥ निर्नामक का जीव देवकी के गर्भ में आकर सातवाँ पुत्र होगा । वह अत्यंत वीर होगा तथा इस भरत क्षेत्र में नौवाँ नारायण होगा ॥173 ॥
जिनमत को लक्ष्मी की प्रशंसा करने वाले कालज्ञ वसुदेव, मुनिराज के मुख से कंस के भवांतर तथा पुण्य के उदय से प्राप्त हुए उसके अभ्युदय को सुनकर उसके साथ उपेक्षा पूर्ण मित्रता को प्राप्त हुए अर्थात् उन्होंने मित्रता तो पूर्ववत् बनाये रखो परंतु उसमें उपेक्षा का भाव आ गया । वे अपने आठों पुत्र तथा प्रिया देवकी के पूर्वभव एवं वर्तमान भव संबंधी चरित को सुनकर अत्यधिक हर्ष को प्राप्त हुए ॥174॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में
कंस का उपाख्यान तथा बलदेव, वासुदेव और देवकी के अन्य पुत्रों के गृहचरित का
वर्णन करने वाला तैंतीसवां सर्ग समाप्त हुआ ॥33॥