हरिवंश पुराण - सर्ग 40: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर― युद्ध में भाई का वध सुनकर शोकरूपी सागर में डूबता हुआ जरासंध, शत्रुओं पर उत्पन्न हुए क्रोधरूपी जहाज के द्वारा बचाया गया था । भावार्थ-भाई अपराजित के मरने से जरासंध को जो दुःख हुआ था उससे वह अवश्य ही मर जाता परंतु शत्रुओं से बदला लेने के क्रोध ने उसकी रक्षा कर दी ॥1॥ समस्त नय और पराक्रम में निपुण जरासंध ने समस्त यादवों का नाश करने के लिए मन में पक्का विचार कर लिया और निर्भीक हो शत्रु के सम्मुख जाने के लिए मित्रों के समूह को आज्ञा दे दी ॥2॥ स्वामी की आज्ञा पाकर उसके हित की इच्छा करने वाले नाना देशों के राजा अपनी-अपनी चतुरंग सेनाओं से युक्त हो आ पहुँचे ॥3॥ इधर अनंत सेनारूपी सागर के मध्य में वर्तमान जरासंध ने जब यादवों की ओर प्रयाण किया तब गुप्तचररूपी नेत्रों को धारण करने वाले चतुर यादवों ने शीघ्र ही उसका पता चला लिया ॥4॥ | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर― युद्ध में भाई का वध सुनकर शोकरूपी सागर में डूबता हुआ जरासंध, शत्रुओं पर उत्पन्न हुए क्रोधरूपी जहाज के द्वारा बचाया गया था । भावार्थ-भाई अपराजित के मरने से जरासंध को जो दुःख हुआ था उससे वह अवश्य ही मर जाता परंतु शत्रुओं से बदला लेने के क्रोध ने उसकी रक्षा कर दी ॥1॥<span id="2" /> समस्त नय और पराक्रम में निपुण जरासंध ने समस्त यादवों का नाश करने के लिए मन में पक्का विचार कर लिया और निर्भीक हो शत्रु के सम्मुख जाने के लिए मित्रों के समूह को आज्ञा दे दी ॥2॥<span id="3" /> स्वामी की आज्ञा पाकर उसके हित की इच्छा करने वाले नाना देशों के राजा अपनी-अपनी चतुरंग सेनाओं से युक्त हो आ पहुँचे ॥3॥<span id="4" /> इधर अनंत सेनारूपी सागर के मध्य में वर्तमान जरासंध ने जब यादवों की ओर प्रयाण किया तब गुप्तचररूपी नेत्रों को धारण करने वाले चतुर यादवों ने शीघ्र ही उसका पता चला लिया ॥4॥<span id="5" /> तदनंतर जो शास्त्र और अवस्था में वृद्ध थे तथा पदार्थ का यथार्थ स्वरूप निरूपण करने वाले थे ऐसे वृष्णिवंश एवं भोजवंश के प्रधान पुरुष इस प्रकार मंत्र करने के लिए तत्पर हुए ॥5॥<span id="6" /><span id="7" /><span id="8" /></p> | ||
<p> वे कहने लगे कि तीन खंडों में इसकी आज्ञा अन्य पुरुषों के द्वारा कभी खंडित नहीं हुई । यह अत्यंत उग्र है, इसका शासन भी अत्यंत उग्र है, चक्र, खड̖ग, गदा तथा दंडरत्न आदि अस्त्रों के बल से यह उद्धत है, किये हुए उपकार को मानने वाला है, जो मनुष्य अपराध कर नम्रीभूत हो जाते हैं उन पर यह क्षमा कर देता है, हम लोगों का इसने पहले कभी अपकार नहीं किया, उपकार करने में ही निरंतर तत्पर रहा है किंतु अब जमाता और भाई के वध से उत्पन्न पराभवरूपी रज के मल को दूर करने के लिए क्रोध युक्त हुआ है और भयभीत होते हुए हम लोगों के सम्मुख आ रहा है ॥6-8॥ | <p> वे कहने लगे कि तीन खंडों में इसकी आज्ञा अन्य पुरुषों के द्वारा कभी खंडित नहीं हुई । यह अत्यंत उग्र है, इसका शासन भी अत्यंत उग्र है, चक्र, खड̖ग, गदा तथा दंडरत्न आदि अस्त्रों के बल से यह उद्धत है, किये हुए उपकार को मानने वाला है, जो मनुष्य अपराध कर नम्रीभूत हो जाते हैं उन पर यह क्षमा कर देता है, हम लोगों का इसने पहले कभी अपकार नहीं किया, उपकार करने में ही निरंतर तत्पर रहा है किंतु अब जमाता और भाई के वध से उत्पन्न पराभवरूपी रज के मल को दूर करने के लिए क्रोध युक्त हुआ है और भयभीत होते हुए हम लोगों के सम्मुख आ रहा है ॥6-8॥<span id="9" /> यह इतना अहंकारी है कि हम लोगों की दैव और पुरुषार्थ संबंधी सामर्थ्य को जो कि अत्यंत प्रकट है देखता हुआ भी नहीं देख रहा है ॥9॥<span id="10" /><span id="11" /><span id="12" /><span id="13" /> कृष्ण के पुण्य का सामर्थ्य और बलराम का पौरुष― यह सब परमवैभव बालक अवस्था ही से प्रकट हो रहा है । इंद्रों के आसन को कंपित कर देने वाले नेमिनाथ तीर्थंकर यद्यपि इस समय बालक हैं तथापि उनका प्रभुत्व तीनों जगत् में प्रकट हो चुका है । वह यह भी नहीं सोच रहा है कि जिस तीर्थंकर का पालन करने के लिए समस्त लोकपाल व्यग्र रहते हैं उस तीर्थंकर के कुल का कौन मनुष्य अपकार कर सकेगा? ऐसा कौन अज्ञानी है जो बड़ी-बड़ी ज्वालाओं को धारण करने वाली अग्नि को हाथ से स्पर्श करेगा और ऐसा कौन बलवान् है जो जीतने की इच्छा से तीर्थंकर, बलभद्र और कृष्ण का सामना करेगा? ॥10-13॥<span id="15" /><span id="16" /><span id="17" /> यह राजा जरासंध प्रतिनारायण है और इसके मारने वाले ये बलभद्र तथा नारायण यहां निश्चित ही उत्पन्न हो चुके हैं ॥ 14 ꠰। इसलिए जब तक यह प्रतिनारायण रूपी पतंग, अपने पक्षों (सहायकों, पक्ष में पंखों) के साथ आकर कृष्ण रूपी अग्नि में स्वयं भस्म नहीं हो जाता है, तब तक हम लोग शीघ्र ही विग्रह के बाद अन्यत्र आसन ग्रहण कर शूर-वीर कृष्ण को विजय के सम्मुख करें । इस समय हम लोगों को पश्चिम दिशा का आश्रय कर कुछ दिनों तक चुप बैठ रहना उचित है क्योंकि ऐसा करने से कार्य को सिद्धि निःसंदेह होगी ॥15-17॥<span id="18" /> हम लोग इस तरह शांति से चुप रहेंगे फिर भी यदि जरासंध हमारा सामना करेगा तो हम लोग युद्ध द्वारा सत्कार कर उसे यमराज के पास भेज देंगे ॥18॥<span id="19" /></p> | ||
<p> इस प्रकार परस्पर सलाह कर उन्होंने वह मंत्रणा अपने कटक में प्रकट की और भेरी के शब्द से नगर में प्रस्थान करने की आज्ञा दे दो | <p> इस प्रकार परस्पर सलाह कर उन्होंने वह मंत्रणा अपने कटक में प्रकट की और भेरी के शब्द से नगर में प्रस्थान करने की आज्ञा दे दो ॥19॥<span id="20" /> भेरी का शब्द सुनकर यादव और भोजवंशी राजाओं की चतुरंग सेना चल पड़ी ॥20॥<span id="21" /> मथुरा, शौर्यपुर और वीर्यपुर की प्रजा ने स्वामी के अनुराग से साथ ही प्रस्थान कर दिया ॥21॥<span id="22" /> धर्मात्माजनों से युक्त ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि चारों वर्ण की प्रजा ने राजा, मंत्री आदि प्रकृति के साथ होने वाले उस प्रस्थान को ऐसा माना जैसे अपने स्थान से वनक्रीड़ा के लिए ही जा रहे हैं ॥ 22 ॥<span id="23" /> उस समय अपरिमित धन से युक्त अठारह करोड यादव शौर्यपुर से बाहर निकले थे ॥23॥<span id="26" /> उत्तम तिथि, नक्षत्र, योग और वार आदि को प्राप्त हुए वे उच्चकुलीन राजा, छोटे-छोटे पड़ावों द्वारा गमन करते थे ꠰꠰24꠰꠰ </p> | ||
<p> तदनंतर अनेक देशों का उल्लंघन कर जब वे पश्चिम दिशा की ओर गमन कर रहे थे तो विशाल विध्याचल पर्वत उनके समीपस्थ हुआ अर्थात् क्रमश: गमन करते हुए वे विध्याचल के समीप जा पहुंचे ꠰꠰25꠰꠰ जो हाथियों के वनों से सुंदर था, सिंह और व्याघ्रो से सुशोभित था और अपनी चोटियों से आकाश का चुंबन कर रहा था ऐसे उस विंध्याचल की शोभा ने मनुष्यों का मन हर लिया ॥26॥ मार्ग में पीछे-पीछे जरासंध आ रहा है यह सुनकर अत्यधिक उत्साह से भरे हुए यादव लोग भी युद्ध की इच्छा करते हुए उसकी प्रतीक्षा करने लगे ॥27॥ | <p> तदनंतर अनेक देशों का उल्लंघन कर जब वे पश्चिम दिशा की ओर गमन कर रहे थे तो विशाल विध्याचल पर्वत उनके समीपस्थ हुआ अर्थात् क्रमश: गमन करते हुए वे विध्याचल के समीप जा पहुंचे ꠰꠰25꠰꠰ जो हाथियों के वनों से सुंदर था, सिंह और व्याघ्रो से सुशोभित था और अपनी चोटियों से आकाश का चुंबन कर रहा था ऐसे उस विंध्याचल की शोभा ने मनुष्यों का मन हर लिया ॥26॥<span id="27" /> मार्ग में पीछे-पीछे जरासंध आ रहा है यह सुनकर अत्यधिक उत्साह से भरे हुए यादव लोग भी युद्ध की इच्छा करते हुए उसकी प्रतीक्षा करने लगे ॥27॥<span id="28" /><span id="29" /> उन दोनों की सेनाओं में थोड़ा अंतर देखकर समय और भाग्य के नियोग से अर्ध भरत क्षेत्र में निवास करने वाली देवियों ने अपने दिव्य सामर्थ्य से विक्रिया कर बहुत-सी चिताएँ रच दीं और शत्रु के लिए यह दिखा दिया कि यादव लोग अग्नि की ज्वालाओं से व्याप्त हैं ॥28-29॥<span id="30" /> जरासंध ने ज्वालाओं के समूह से जिसका शरीर व्याप्त था ऐसो जलती हुई चतुरंग सेना को जहाँ तहां देखा ॥30॥<span id="31" /><span id="32" /><span id="33" /> ज्वालाओं से जब जरासंध का मार्ग रुक गया तब उसने अपनी सेना वहीं ठहरा दी और बुढ़िया का रूप धरकर रोती हुई एक देवी से पूछा कि हे वृद्धे ! यह किसका विशाल कटक व्याकुल हो जल रहा है ? और तू यहाँ क्यों रो रही है ? सब ठीक-ठीक कह । उस समय वृद्धा के नेत्र आंसुओं से व्याप्त थे तथा उसका कंठ यद्यपि शोक से रुंधा हुआ था तथापि जरासंध के इस प्रकार पूछने पर बड़ी कठिनाई से शोक को रोककर वह कहने लगी ॥31-33॥<span id="34" /></p> | ||
<p> हे प्रतापी राजन् ! मैंने जो कुछ देखा है वह कहती हूँ क्योंकि यह एक साधारण बात है कि जो मनुष्य महापुरुष के लिए अपना दुःख निवेदन करता है वह बड़े से बड़े दुःख से विमुक्त हो जाता है― छूट जाता है ॥34॥ | <p> हे प्रतापी राजन् ! मैंने जो कुछ देखा है वह कहती हूँ क्योंकि यह एक साधारण बात है कि जो मनुष्य महापुरुष के लिए अपना दुःख निवेदन करता है वह बड़े से बड़े दुःख से विमुक्त हो जाता है― छूट जाता है ॥34॥<span id="35" /> राजगृहनगर में जरासंध नाम का एक वह सत्यप्रतिज्ञ राजा है जो समुद्रांत पृथिवी का शासन करता है ॥35॥<span id="36" /> जान पड़ता है कि उसकी प्रतापरूपी अग्नि की ज्वालाएं शत्रुओं को शांत करने के लिए बड़वानल के छल से समुद्र में भी देदीप्यमान रहती हैं ॥36॥<span id="37" /><span id="38" /> अपने अपराधों की बहुलता से यादव लोग जरासंध की ओर से सदा सशल्य हृदय रहते थे इसलिए उससे भयभीत हो प्राण बचाने के लिए कहीं भाग निकले । परंतु समस्त पृथिवी में जब उन्होंने कहीं किसी को शरण देने वाला नहीं देखा तब वे अग्नि में प्रवेश कर मरण की ही उत्तम शरण में जा पहुंचे अर्थात् अग्नि में जल कर निःशल्य हो गये ॥37-38॥<span id="39" /> मैं उन राजाओं की वंश परंपरा से चली आयी दासी हूँ । मुझे अपना जीवन प्रिय था इसलिए मैं उनके साथ नहीं जल सकी परंतु अपने स्वामी के कुमरण के दुःख से दुःखी होकर रो रही हूँ ॥39 ॥<span id="41" /> जिनके पीछे जरासंध लगा हुआ था ऐसे यदुवंशी, कुरुवंशी तथा भोजवंशी राजाओं की प्रजा अपने मंत्री आदि के साथ अग्नि के मुख में प्रविष्ट हो चुकी है ॥ 40 ꠰। परंतु मुझ अभागिनी को अपने प्राण प्यारे रहे इसलिए मेरा शरीर दुःख के भार का स्थान हो रहा है तथा उन सबके वियोग से दुःखी हो मैं पिशाच से ग्रस्त की तरह सांसें भर रही हूँ-जी रही हूँ॥41॥<span id="42" /></p> | ||
<p> वृद्धा के इस प्रकार वचन सुनकर जरासंध बहुत विस्मित हुआ और उसके वचनों का विश्वास कर अंधकवृष्णियों के वंश का नाश मानने लगा ॥42॥ वह उसी समय अपने स्थान पर वापस लौट आया और वहाँ रहकर मृतक जनों के लिए बंधुजनों के साथ जलांजलि देकर कृतकृत्य की तरह निश्चिंतता से रहने लगा ॥43॥ उधर यादव लोग भी अपनी इच्छानुसार इलायची के वन की लताओं के समागम से सुगंधित वायु के द्वारा वीजित समुद्र के तट पर जा पहुंचे ॥44॥ इस प्रकार पश्चिम समुद्र के पास आकर दूर देश में ठहरे हुए वे सब राजा, प्रजा तथा मंत्री आदि लोग यथायोग्य स्थानों में स्थित हो गये ॥45॥ </p> | <p> वृद्धा के इस प्रकार वचन सुनकर जरासंध बहुत विस्मित हुआ और उसके वचनों का विश्वास कर अंधकवृष्णियों के वंश का नाश मानने लगा ॥42॥<span id="43" /> वह उसी समय अपने स्थान पर वापस लौट आया और वहाँ रहकर मृतक जनों के लिए बंधुजनों के साथ जलांजलि देकर कृतकृत्य की तरह निश्चिंतता से रहने लगा ॥43॥<span id="44" /> उधर यादव लोग भी अपनी इच्छानुसार इलायची के वन की लताओं के समागम से सुगंधित वायु के द्वारा वीजित समुद्र के तट पर जा पहुंचे ॥44॥<span id="45" /> इस प्रकार पश्चिम समुद्र के पास आकर दूर देश में ठहरे हुए वे सब राजा, प्रजा तथा मंत्री आदि लोग यथायोग्य स्थानों में स्थित हो गये ॥45॥<span id="46" /> </p> | ||
<p> गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो, अत्यंत निर्दय और कुपित जरासंध अत्यधिक हठ से मार्ग में यादवों के पीछे लगा और शत्रु का नाश करने तथा स्वयं मरने के लिए शीघ्र दौड़ा परंतु ज्वालाओं से मार्ग रुक जाने के कारण चूंकि लौट आया इसलिए समस्त उत्तम क्रियाओं को करने वाले जिनेंद्र भक्त जन कहते हैं कि वह उन दोनों का पुण्योदय ही श्रवण करने योग्य था । भावार्थ अपने-अपने पुण्योदय से ही दोनों की रक्षा हुई थी ॥46॥</p> | <p> गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो, अत्यंत निर्दय और कुपित जरासंध अत्यधिक हठ से मार्ग में यादवों के पीछे लगा और शत्रु का नाश करने तथा स्वयं मरने के लिए शीघ्र दौड़ा परंतु ज्वालाओं से मार्ग रुक जाने के कारण चूंकि लौट आया इसलिए समस्त उत्तम क्रियाओं को करने वाले जिनेंद्र भक्त जन कहते हैं कि वह उन दोनों का पुण्योदय ही श्रवण करने योग्य था । भावार्थ अपने-अपने पुण्योदय से ही दोनों की रक्षा हुई थी ॥46॥<span id="40" /></p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में हरिवंश और यादवों के प्रस्थान का वर्णन करने वाला चालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥40॥</strong></p> | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में हरिवंश और यादवों के प्रस्थान का वर्णन करने वाला चालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥40॥</strong></p> | ||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर― युद्ध में भाई का वध सुनकर शोकरूपी सागर में डूबता हुआ जरासंध, शत्रुओं पर उत्पन्न हुए क्रोधरूपी जहाज के द्वारा बचाया गया था । भावार्थ-भाई अपराजित के मरने से जरासंध को जो दुःख हुआ था उससे वह अवश्य ही मर जाता परंतु शत्रुओं से बदला लेने के क्रोध ने उसकी रक्षा कर दी ॥1॥ समस्त नय और पराक्रम में निपुण जरासंध ने समस्त यादवों का नाश करने के लिए मन में पक्का विचार कर लिया और निर्भीक हो शत्रु के सम्मुख जाने के लिए मित्रों के समूह को आज्ञा दे दी ॥2॥ स्वामी की आज्ञा पाकर उसके हित की इच्छा करने वाले नाना देशों के राजा अपनी-अपनी चतुरंग सेनाओं से युक्त हो आ पहुँचे ॥3॥ इधर अनंत सेनारूपी सागर के मध्य में वर्तमान जरासंध ने जब यादवों की ओर प्रयाण किया तब गुप्तचररूपी नेत्रों को धारण करने वाले चतुर यादवों ने शीघ्र ही उसका पता चला लिया ॥4॥ तदनंतर जो शास्त्र और अवस्था में वृद्ध थे तथा पदार्थ का यथार्थ स्वरूप निरूपण करने वाले थे ऐसे वृष्णिवंश एवं भोजवंश के प्रधान पुरुष इस प्रकार मंत्र करने के लिए तत्पर हुए ॥5॥
वे कहने लगे कि तीन खंडों में इसकी आज्ञा अन्य पुरुषों के द्वारा कभी खंडित नहीं हुई । यह अत्यंत उग्र है, इसका शासन भी अत्यंत उग्र है, चक्र, खड̖ग, गदा तथा दंडरत्न आदि अस्त्रों के बल से यह उद्धत है, किये हुए उपकार को मानने वाला है, जो मनुष्य अपराध कर नम्रीभूत हो जाते हैं उन पर यह क्षमा कर देता है, हम लोगों का इसने पहले कभी अपकार नहीं किया, उपकार करने में ही निरंतर तत्पर रहा है किंतु अब जमाता और भाई के वध से उत्पन्न पराभवरूपी रज के मल को दूर करने के लिए क्रोध युक्त हुआ है और भयभीत होते हुए हम लोगों के सम्मुख आ रहा है ॥6-8॥ यह इतना अहंकारी है कि हम लोगों की दैव और पुरुषार्थ संबंधी सामर्थ्य को जो कि अत्यंत प्रकट है देखता हुआ भी नहीं देख रहा है ॥9॥ कृष्ण के पुण्य का सामर्थ्य और बलराम का पौरुष― यह सब परमवैभव बालक अवस्था ही से प्रकट हो रहा है । इंद्रों के आसन को कंपित कर देने वाले नेमिनाथ तीर्थंकर यद्यपि इस समय बालक हैं तथापि उनका प्रभुत्व तीनों जगत् में प्रकट हो चुका है । वह यह भी नहीं सोच रहा है कि जिस तीर्थंकर का पालन करने के लिए समस्त लोकपाल व्यग्र रहते हैं उस तीर्थंकर के कुल का कौन मनुष्य अपकार कर सकेगा? ऐसा कौन अज्ञानी है जो बड़ी-बड़ी ज्वालाओं को धारण करने वाली अग्नि को हाथ से स्पर्श करेगा और ऐसा कौन बलवान् है जो जीतने की इच्छा से तीर्थंकर, बलभद्र और कृष्ण का सामना करेगा? ॥10-13॥ यह राजा जरासंध प्रतिनारायण है और इसके मारने वाले ये बलभद्र तथा नारायण यहां निश्चित ही उत्पन्न हो चुके हैं ॥ 14 ꠰। इसलिए जब तक यह प्रतिनारायण रूपी पतंग, अपने पक्षों (सहायकों, पक्ष में पंखों) के साथ आकर कृष्ण रूपी अग्नि में स्वयं भस्म नहीं हो जाता है, तब तक हम लोग शीघ्र ही विग्रह के बाद अन्यत्र आसन ग्रहण कर शूर-वीर कृष्ण को विजय के सम्मुख करें । इस समय हम लोगों को पश्चिम दिशा का आश्रय कर कुछ दिनों तक चुप बैठ रहना उचित है क्योंकि ऐसा करने से कार्य को सिद्धि निःसंदेह होगी ॥15-17॥ हम लोग इस तरह शांति से चुप रहेंगे फिर भी यदि जरासंध हमारा सामना करेगा तो हम लोग युद्ध द्वारा सत्कार कर उसे यमराज के पास भेज देंगे ॥18॥
इस प्रकार परस्पर सलाह कर उन्होंने वह मंत्रणा अपने कटक में प्रकट की और भेरी के शब्द से नगर में प्रस्थान करने की आज्ञा दे दो ॥19॥ भेरी का शब्द सुनकर यादव और भोजवंशी राजाओं की चतुरंग सेना चल पड़ी ॥20॥ मथुरा, शौर्यपुर और वीर्यपुर की प्रजा ने स्वामी के अनुराग से साथ ही प्रस्थान कर दिया ॥21॥ धर्मात्माजनों से युक्त ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि चारों वर्ण की प्रजा ने राजा, मंत्री आदि प्रकृति के साथ होने वाले उस प्रस्थान को ऐसा माना जैसे अपने स्थान से वनक्रीड़ा के लिए ही जा रहे हैं ॥ 22 ॥ उस समय अपरिमित धन से युक्त अठारह करोड यादव शौर्यपुर से बाहर निकले थे ॥23॥ उत्तम तिथि, नक्षत्र, योग और वार आदि को प्राप्त हुए वे उच्चकुलीन राजा, छोटे-छोटे पड़ावों द्वारा गमन करते थे ꠰꠰24꠰꠰
तदनंतर अनेक देशों का उल्लंघन कर जब वे पश्चिम दिशा की ओर गमन कर रहे थे तो विशाल विध्याचल पर्वत उनके समीपस्थ हुआ अर्थात् क्रमश: गमन करते हुए वे विध्याचल के समीप जा पहुंचे ꠰꠰25꠰꠰ जो हाथियों के वनों से सुंदर था, सिंह और व्याघ्रो से सुशोभित था और अपनी चोटियों से आकाश का चुंबन कर रहा था ऐसे उस विंध्याचल की शोभा ने मनुष्यों का मन हर लिया ॥26॥ मार्ग में पीछे-पीछे जरासंध आ रहा है यह सुनकर अत्यधिक उत्साह से भरे हुए यादव लोग भी युद्ध की इच्छा करते हुए उसकी प्रतीक्षा करने लगे ॥27॥ उन दोनों की सेनाओं में थोड़ा अंतर देखकर समय और भाग्य के नियोग से अर्ध भरत क्षेत्र में निवास करने वाली देवियों ने अपने दिव्य सामर्थ्य से विक्रिया कर बहुत-सी चिताएँ रच दीं और शत्रु के लिए यह दिखा दिया कि यादव लोग अग्नि की ज्वालाओं से व्याप्त हैं ॥28-29॥ जरासंध ने ज्वालाओं के समूह से जिसका शरीर व्याप्त था ऐसो जलती हुई चतुरंग सेना को जहाँ तहां देखा ॥30॥ ज्वालाओं से जब जरासंध का मार्ग रुक गया तब उसने अपनी सेना वहीं ठहरा दी और बुढ़िया का रूप धरकर रोती हुई एक देवी से पूछा कि हे वृद्धे ! यह किसका विशाल कटक व्याकुल हो जल रहा है ? और तू यहाँ क्यों रो रही है ? सब ठीक-ठीक कह । उस समय वृद्धा के नेत्र आंसुओं से व्याप्त थे तथा उसका कंठ यद्यपि शोक से रुंधा हुआ था तथापि जरासंध के इस प्रकार पूछने पर बड़ी कठिनाई से शोक को रोककर वह कहने लगी ॥31-33॥
हे प्रतापी राजन् ! मैंने जो कुछ देखा है वह कहती हूँ क्योंकि यह एक साधारण बात है कि जो मनुष्य महापुरुष के लिए अपना दुःख निवेदन करता है वह बड़े से बड़े दुःख से विमुक्त हो जाता है― छूट जाता है ॥34॥ राजगृहनगर में जरासंध नाम का एक वह सत्यप्रतिज्ञ राजा है जो समुद्रांत पृथिवी का शासन करता है ॥35॥ जान पड़ता है कि उसकी प्रतापरूपी अग्नि की ज्वालाएं शत्रुओं को शांत करने के लिए बड़वानल के छल से समुद्र में भी देदीप्यमान रहती हैं ॥36॥ अपने अपराधों की बहुलता से यादव लोग जरासंध की ओर से सदा सशल्य हृदय रहते थे इसलिए उससे भयभीत हो प्राण बचाने के लिए कहीं भाग निकले । परंतु समस्त पृथिवी में जब उन्होंने कहीं किसी को शरण देने वाला नहीं देखा तब वे अग्नि में प्रवेश कर मरण की ही उत्तम शरण में जा पहुंचे अर्थात् अग्नि में जल कर निःशल्य हो गये ॥37-38॥ मैं उन राजाओं की वंश परंपरा से चली आयी दासी हूँ । मुझे अपना जीवन प्रिय था इसलिए मैं उनके साथ नहीं जल सकी परंतु अपने स्वामी के कुमरण के दुःख से दुःखी होकर रो रही हूँ ॥39 ॥ जिनके पीछे जरासंध लगा हुआ था ऐसे यदुवंशी, कुरुवंशी तथा भोजवंशी राजाओं की प्रजा अपने मंत्री आदि के साथ अग्नि के मुख में प्रविष्ट हो चुकी है ॥ 40 ꠰। परंतु मुझ अभागिनी को अपने प्राण प्यारे रहे इसलिए मेरा शरीर दुःख के भार का स्थान हो रहा है तथा उन सबके वियोग से दुःखी हो मैं पिशाच से ग्रस्त की तरह सांसें भर रही हूँ-जी रही हूँ॥41॥
वृद्धा के इस प्रकार वचन सुनकर जरासंध बहुत विस्मित हुआ और उसके वचनों का विश्वास कर अंधकवृष्णियों के वंश का नाश मानने लगा ॥42॥ वह उसी समय अपने स्थान पर वापस लौट आया और वहाँ रहकर मृतक जनों के लिए बंधुजनों के साथ जलांजलि देकर कृतकृत्य की तरह निश्चिंतता से रहने लगा ॥43॥ उधर यादव लोग भी अपनी इच्छानुसार इलायची के वन की लताओं के समागम से सुगंधित वायु के द्वारा वीजित समुद्र के तट पर जा पहुंचे ॥44॥ इस प्रकार पश्चिम समुद्र के पास आकर दूर देश में ठहरे हुए वे सब राजा, प्रजा तथा मंत्री आदि लोग यथायोग्य स्थानों में स्थित हो गये ॥45॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो, अत्यंत निर्दय और कुपित जरासंध अत्यधिक हठ से मार्ग में यादवों के पीछे लगा और शत्रु का नाश करने तथा स्वयं मरने के लिए शीघ्र दौड़ा परंतु ज्वालाओं से मार्ग रुक जाने के कारण चूंकि लौट आया इसलिए समस्त उत्तम क्रियाओं को करने वाले जिनेंद्र भक्त जन कहते हैं कि वह उन दोनों का पुण्योदय ही श्रवण करने योग्य था । भावार्थ अपने-अपने पुण्योदय से ही दोनों की रक्षा हुई थी ॥46॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में हरिवंश और यादवों के प्रस्थान का वर्णन करने वाला चालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥40॥