हरिवंश पुराण - सर्ग 61: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर श्रेणिक का अभिप्राय जानकर गणधरों के अधिपति श्री गौतम स्वामी ने जगत् के द्वारा स्तुत गजकुमार का वृत्तांत इस प्रकार कहना शुरू किया ॥ 1॥ वे कहने लगे कि इस प्रकार गजकुमार<strong>, </strong>तीर्थंकर आदि का चरित्र सुनकर संसार से भयभीत हो गया और पिता<strong>, </strong>पुत्र<strong>, </strong>आदि समस्त बंधुजनों को छोड़कर बड़ी विनय से जिनेंद्र भगवान के समीप पहुँचा और उनसे अनुमति ले दीक्षा ग्रहण कर तप करने के लिए उद्यत हो गया ॥2-3 ॥ गजकुमार के लिए जो प्रभावती आदि कन्याएं निश्चित की गयी थीं उन सभी ने संसार से विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली ॥ 4॥</p> | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर श्रेणिक का अभिप्राय जानकर गणधरों के अधिपति श्री गौतम स्वामी ने जगत् के द्वारा स्तुत गजकुमार का वृत्तांत इस प्रकार कहना शुरू किया ॥ 1॥<span id="2" /><span id="3" /> वे कहने लगे कि इस प्रकार गजकुमार<strong>, </strong>तीर्थंकर आदि का चरित्र सुनकर संसार से भयभीत हो गया और पिता<strong>, </strong>पुत्र<strong>, </strong>आदि समस्त बंधुजनों को छोड़कर बड़ी विनय से जिनेंद्र भगवान के समीप पहुँचा और उनसे अनुमति ले दीक्षा ग्रहण कर तप करने के लिए उद्यत हो गया ॥2-3 ॥<span id="4" /> गजकुमार के लिए जो प्रभावती आदि कन्याएं निश्चित की गयी थीं उन सभी ने संसार से विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली ॥ 4॥<span id="5" /><span id="6" /></p> | ||
<p> तदनंतर किसी दिन गजकुमार मुनि रात्रि के समय एकांत में प्रतिमायोग से विराजमान हो सब प्रकार को बाधाएं सहन कर रहे थे कि सोमशर्मा अपनी पुत्री के त्याग से उत्पन्न क्रोधरूपी अग्नि के कणों से प्रदीप्त हो उनके पास आया और स्थिर चित्त के धारक उन मुनिराज के सिर पर तीव्र अग्नि प्रज्वलित करने लगा ॥ 5-6 ॥ | <p> तदनंतर किसी दिन गजकुमार मुनि रात्रि के समय एकांत में प्रतिमायोग से विराजमान हो सब प्रकार को बाधाएं सहन कर रहे थे कि सोमशर्मा अपनी पुत्री के त्याग से उत्पन्न क्रोधरूपी अग्नि के कणों से प्रदीप्त हो उनके पास आया और स्थिर चित्त के धारक उन मुनिराज के सिर पर तीव्र अग्नि प्रज्वलित करने लगा ॥ 5-6 ॥<span id="7" /> उस अग्नि से उनका शरीर जलने लगा । उसी अवस्था में वे शुक्लध्यान के द्वारा कर्मों का क्षय कर अंतकृत् केवली हो मोक्ष चले गये ॥ 7 ॥<span id="8" /> यक्ष<strong>, </strong>किन्नर<strong>, </strong>गंधर्व और महोरग आदि सुर और असुरों ने आकर उनके शरीर की पूजा की ॥ 8॥<span id="9" /> गजकुमार मुनि का मरण जानकर दुःखी होते हुए बहुत से यादव तथा वसुदेव को छोड़कर शेष समुद्रविजय आदि दशार्ह मोक्ष को इच्छा से दीक्षित हो गये ॥9॥<span id="10" /> शिवा आदि देवियों<strong>, </strong>देव की और रोहिणी को छोड़कर वसुदेव की अन्य स्त्रियों तथा कृष्ण की पुत्रियों ने भी दीक्षा धारण कर ली ॥10॥<span id="11" /></p> | ||
<p> तदनंतर देव और मनुष्यों से पूजित भगवान् नेमिजिनेंद्र ने<strong>, </strong>भव्यजीवों के समूह को प्रबोधित करते हुए<strong>, </strong>नाना देशों में बड़े वैभव के साथ विहार किया ॥11॥ उन्होंने उत्तरदिशा के<strong>, </strong>मध्यदेश के तथा पूर्वदिशा के प्रजा से युक्त अनेक बड़े<strong>-</strong>बड़े राजाओं को धर्म में स्थिर करते हुए विहार किया था ॥12॥ | <p> तदनंतर देव और मनुष्यों से पूजित भगवान् नेमिजिनेंद्र ने<strong>, </strong>भव्यजीवों के समूह को प्रबोधित करते हुए<strong>, </strong>नाना देशों में बड़े वैभव के साथ विहार किया ॥11॥<span id="12" /> उन्होंने उत्तरदिशा के<strong>, </strong>मध्यदेश के तथा पूर्वदिशा के प्रजा से युक्त अनेक बड़े<strong>-</strong>बड़े राजाओं को धर्म में स्थिर करते हुए विहार किया था ॥12॥<span id="13" /> चिरकाल तक विहार कर भगवान् पुनः आये और रैवतक<strong> (</strong>गिरनार<strong>) </strong>पर्वत पर समवसरण को सुशोभित करते हुए विराजमान हो गये ॥13॥<span id="14" /> प्रबल तेज को धारण करने वाले इंद्र वहाँ विराजमान जिनेंद्र भगवान् के पास आये और नमस्कार तथा स्तुति कर अपने-अपने स्थानों पर बैठ गये ॥14॥<span id="17" /></p> | ||
<p> अंतःपुर की रानियों<strong>, </strong>मित्रजन<strong>, </strong>द्वारिका की प्रजा तथा प्रद्युम्न आदि पुत्रों से सहित वसुदेव<strong>, </strong>बलदेव तथा कृष्ण भी बड़ी विभूति के साथ आये और भगवान् नेमिनाथ को नमस्कार कर समवसरण में यथास्थान बैठ भगवान से धर्मश्रवण करने लगे ॥15<strong>-</strong>16॥ तदनंतर धर्मकथा के बाद जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार कर बलदेव ने हाथ जोड़ ललाट से लगा<strong>, </strong>अपने हृदय में स्थित बात पूछी ॥17॥ उन्होंने पूछा कि हे भगवन् ! यह द्वारिकापुरी कुबेर के द्वारा रची गयी है सो इसका अंत कितने समय में होगा । क्योंकि कृत्रिम वस्तुएँ अवश्य ही नश्वर होती हैं ॥18॥ यह द्वारिकापुरी कालांतर में क्या अपने<strong>-</strong>आप ही समुद्र में डूब जावेगी ? अथवा निमित्तांतर के सन्निधान में किसी अन्य निमित्त से विनाश को प्राप्त होगी ? कृष्ण के अपने अंतकाल में निमित्तपने को कौन प्राप्त होगा ? क्योंकि उत्पन्न हुए समस्त जीवों का मरण निश्चित है । हे प्रभो ! मेरा चित्त कृष्ण के स्नेहरूपी महापाश से बंधा हुआ है अतः मुझे संयम को प्राप्ति कितने समय बाद होगी ? ॥19<strong>-</strong>21॥ इस प्रकार बलदेव के पूछने पर समस्त परापर पदार्थों को देखने वाले नेमिजिनेंद्र<strong>, </strong>प्रश्न के अनुसार यथार्थ बात कहने लगे<strong>, </strong>सो ठीक ही है क्योंकि भगवान् प्रश्नों का उत्तर निरूपण करने वाले ही थे ॥22॥</p> | <p> अंतःपुर की रानियों<strong>, </strong>मित्रजन<strong>, </strong>द्वारिका की प्रजा तथा प्रद्युम्न आदि पुत्रों से सहित वसुदेव<strong>, </strong>बलदेव तथा कृष्ण भी बड़ी विभूति के साथ आये और भगवान् नेमिनाथ को नमस्कार कर समवसरण में यथास्थान बैठ भगवान से धर्मश्रवण करने लगे ॥15<strong>-</strong>16॥ तदनंतर धर्मकथा के बाद जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार कर बलदेव ने हाथ जोड़ ललाट से लगा<strong>, </strong>अपने हृदय में स्थित बात पूछी ॥17॥<span id="18" /> उन्होंने पूछा कि हे भगवन् ! यह द्वारिकापुरी कुबेर के द्वारा रची गयी है सो इसका अंत कितने समय में होगा । क्योंकि कृत्रिम वस्तुएँ अवश्य ही नश्वर होती हैं ॥18॥<span id="22" /> यह द्वारिकापुरी कालांतर में क्या अपने<strong>-</strong>आप ही समुद्र में डूब जावेगी ? अथवा निमित्तांतर के सन्निधान में किसी अन्य निमित्त से विनाश को प्राप्त होगी ? कृष्ण के अपने अंतकाल में निमित्तपने को कौन प्राप्त होगा ? क्योंकि उत्पन्न हुए समस्त जीवों का मरण निश्चित है । हे प्रभो ! मेरा चित्त कृष्ण के स्नेहरूपी महापाश से बंधा हुआ है अतः मुझे संयम को प्राप्ति कितने समय बाद होगी ? ॥19<strong>-</strong>21॥ इस प्रकार बलदेव के पूछने पर समस्त परापर पदार्थों को देखने वाले नेमिजिनेंद्र<strong>, </strong>प्रश्न के अनुसार यथार्थ बात कहने लगे<strong>, </strong>सो ठीक ही है क्योंकि भगवान् प्रश्नों का उत्तर निरूपण करने वाले ही थे ॥22॥<span id="23" /></p> | ||
<p> उन्होंने कहा कि हे राम ! यह पुरी बारहवें वर्ष में मदिरा के निमित्त से द्वैपायन मुनि के द्वारा क्रोधवश भस्म होगी ॥23॥ अंतिम समय में श्रीकृष्ण कौशांबी के वन में शयन करेंगे और जरत्कुमार उनके विनाश में कारणपने को प्राप्त होगा ॥24॥ अंतरंग कारण के रहते हुए परिणतिवश बाह्य हेतु जगत् के अभ्युदय तथा क्षय में कारण होते हैं इसलिए वस्तु के स्वभाव को जानने वाले उत्तम मनुष्य अभ्युदय तथा क्षय के समय पृथिवी पर कभी हर्ष और विषाद को प्राप्त नहीं होते ॥25<strong>-</strong>26॥</p> | <p> उन्होंने कहा कि हे राम ! यह पुरी बारहवें वर्ष में मदिरा के निमित्त से द्वैपायन मुनि के द्वारा क्रोधवश भस्म होगी ॥23॥<span id="24" /> अंतिम समय में श्रीकृष्ण कौशांबी के वन में शयन करेंगे और जरत्कुमार उनके विनाश में कारणपने को प्राप्त होगा ॥24॥<span id="27" /> अंतरंग कारण के रहते हुए परिणतिवश बाह्य हेतु जगत् के अभ्युदय तथा क्षय में कारण होते हैं इसलिए वस्तु के स्वभाव को जानने वाले उत्तम मनुष्य अभ्युदय तथा क्षय के समय पृथिवी पर कभी हर्ष और विषाद को प्राप्त नहीं होते ॥25<strong>-</strong>26॥</p> | ||
<p> संसार के मार्ग से भयभीत रहनेवाले आपको भी उसी समय कृष्ण की मृत्यु का निमित्त पाकर तप की प्राप्ति होगी तथा तपकर आप ब्रह्मस्वर्ग में उत्पन्न होंगे ॥27॥ द्वैपायन कुमार रोहिणी का भाई-बलदेव का मामा था सो उस समय भगवान् के वचन सुनकर वह संसार से विरक्त हो मुनि होकर तप करने लगा ॥28॥ वह बारह वर्ष को अवधि को पूर्ण करने के लिए यहाँ से पूर्व देश की ओर चला गया और वहाँ कषाय तथा शरीर को सुखाने वाला तप करने लगा | <p> संसार के मार्ग से भयभीत रहनेवाले आपको भी उसी समय कृष्ण की मृत्यु का निमित्त पाकर तप की प्राप्ति होगी तथा तपकर आप ब्रह्मस्वर्ग में उत्पन्न होंगे ॥27॥<span id="28" /> द्वैपायन कुमार रोहिणी का भाई-बलदेव का मामा था सो उस समय भगवान् के वचन सुनकर वह संसार से विरक्त हो मुनि होकर तप करने लगा ॥28॥<span id="29" /> वह बारह वर्ष को अवधि को पूर्ण करने के लिए यहाँ से पूर्व देश की ओर चला गया और वहाँ कषाय तथा शरीर को सुखाने वाला तप करने लगा ॥ 29॥<span id="30" /> मेरे निमित्त से कृष्ण की मृत्यु होगी यह जानकर जरत्कुमार भी बहुत दुःखी हुआ और दुःख से युक्त भाई बंधुओं की छोड़कर वह कहीं ऐसी जगह चला गया जहाँ कृष्ण दिखाई भी न दें ॥30॥<span id="31" /> जब जरत्कुमार वन में जाकर अकेला रहने लगा तब स्नेह से आकुल श्रीकृष्ण ने अपने-आपमें अपने आपको सूना अनुभव किया ॥31॥<span id="32" /> जो कृष्ण को प्राणों के समान प्यारा था ऐसा जरत्कुमार कहीं प्रिय प्राणों को छोड़ने की इच्छा से अकेला ही मृगों के समान निर्जन वन में भ्रमण करने लगा ॥32॥<span id="33" /> इधर आगामी दुःख के भार की चिंता से जिनके मन संतप्त हो रहे थे ऐसे यादव लोग भगवान् को नमस्कार कर नगरी में प्रविष्ट हुए ॥33 ॥<span id="34" /> बलदेव के साथ कृष्ण ने नगर में यह घोषणा करा दी कि मद्य बनाने के साधन और मद्य शीघ्र ही अलग कर दिये जायें ॥34॥<span id="36" /> घोषणा सुनते ही मद्यपायी लोगों ने पिष्ट<strong>, </strong>किण्व आदि मदिरा बनाने के साधनों के साथ-साथ समस्त मदिरा को शिलाओं के बीच बने हुए कुंड से युक्त कादंबगिरि की गुहा में फेंक दिया ।꠰ 35 ॥ कदंब वन के कुंडों में जो मदिरा छोड़ो गयी थी वह अश्मपाक विशेष के कारण उन कुंडों में भरी रही । भावार्थ― पत्थर की कुंडियों में जिस प्रकार कोई तरल पदार्थ स्थिर रहा आता है उसी प्रकार कदंब वन के शिलाकुंडों में वह मदिरा स्थिर रही आयी ॥ 36 ॥<span id="37" /><span id="38" /> हित की इच्छा रखने वाले कृष्ण ने समस्त स्त्री-पुरुषों के सुनते समय द्वारिकापुरी में दूसरी घोषणा यह दी कि यदि मेरे पिता<strong>, </strong>माता<strong>, </strong>पुत्री अथवा अंतःपुर की स्त्री आदि कोई भी जिनेंद्र भगवान के मत में दीक्षित हो तप करना चाहें तो मैं उन्हें मना नहीं करता हूँ― उन्हें तप करने की मेरी ओर से पूर्ण छूट है ॥37-38॥<span id="39" /> घोषणा सुनते ही प्रद्युम्नकुमार तथा भानुकुमार को आदि लेकर चरम शरीरी कुमार और अन्य बहुत से लोग परिग्रह का त्याग कर तपोवन को चले गये ॥39॥<span id="40" /> रुक्मिणी और सत्यभामा आदि आठ पट्टरानियों ने भी आज्ञा प्राप्त कर पुत्रवधुओं तथा अन्य सौतों के साथ दीक्षा धारण कर ली ॥40॥<span id="41" /> सिद्धार्थ नाम का सारथि जो बलदेव का भाई था जब दीक्षा लेने के लिए उत्सुक हुआ तब बलदेव ने उससे याचना की कि कदाचित् मैं मोहजन्य व्यसन को प्राप्त होऊ मुझे संबोधित करना । बलदेव की इस प्रार्थना को स्वीकृत कर उसने तप ग्रहण कर लिया ॥41॥<span id="42" /></p> | ||
<p> तदनंतर जो भव्यरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान थे ऐसे भगवान् नेमिजिनेंद्र<strong>, </strong>भव्यजीवों को संबोधने के लिए बड़े भारी संघ के साथ पल्लव देश को प्राप्त हुए ॥42॥ उस समय जो राजा<strong>-</strong>रानियों और मनुष्यों का समूह दीक्षित हुआ था वह जिनेंद्र भगवान् के साथ ही साथ उत्तरापथ की ओर चलने के लिए उद्यमी हुआ ॥43॥ द्वारिका के लोग द्वारिका से बाहर जाकर बारह वर्ष तक कहीं इनमें रहते आये परंतु भाग्य की प्रबलता से निवास कर फिर वहीं वापस आ गये ॥44॥ इधर द्वारिका में जो लोग रहते थे वे परलोक के भय से युक्त हो व्रत<strong>, </strong>उपवास तथा पूजा आदि सत्कार्यों में निरंतर संलग्न रहते थे ॥45॥ </p> | <p> तदनंतर जो भव्यरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान थे ऐसे भगवान् नेमिजिनेंद्र<strong>, </strong>भव्यजीवों को संबोधने के लिए बड़े भारी संघ के साथ पल्लव देश को प्राप्त हुए ॥42॥<span id="43" /> उस समय जो राजा<strong>-</strong>रानियों और मनुष्यों का समूह दीक्षित हुआ था वह जिनेंद्र भगवान् के साथ ही साथ उत्तरापथ की ओर चलने के लिए उद्यमी हुआ ॥43॥<span id="44" /> द्वारिका के लोग द्वारिका से बाहर जाकर बारह वर्ष तक कहीं इनमें रहते आये परंतु भाग्य की प्रबलता से निवास कर फिर वहीं वापस आ गये ॥44॥<span id="45" /> इधर द्वारिका में जो लोग रहते थे वे परलोक के भय से युक्त हो व्रत<strong>, </strong>उपवास तथा पूजा आदि सत्कार्यों में निरंतर संलग्न रहते थे ॥45॥<span id="46" /><span id="47" /> </p> | ||
<p> तदनंतर बहुत भारी तप से युक्त जो द्वैपायन मुनि थे वे भी भ्रांतिवश बारहवें वर्ष को व्यतीत हुआ मानते हुए बारहवें वर्ष में वहाँ आ पहुंचे । जिनेंद्र भगवान का आदेश पूरा हो चुका है यह विचारकर जिनकी बुद्धि विमूढ़ हो रही थी तथा जो सम्यग्दर्शन से दुर्बल थे ऐसे द्वैपायन मुनि बारहवें वर्ष में वहीं आ पहुँचे ॥46-47॥ वे किसी समय द्वारिका के बाहर पर्वत के निकट<strong>, </strong>मार्ग में आतापन योग धारण कर प्रतिमायोग से विराजमान थे ॥48॥ उसी समय वनक्रीड़ा से थ के एवं प्यास से पीड़ित शंब आदि कुमारों ने कादंब वन के कुंडों में स्थित उस शराब को पी लिया ॥49॥ कदंब वन में छोड़ी एवं कदंब रूप से डबरों के रूप में स्थित उस मधुर मदिरा को पीकर वे सब कुमार विकार भाव को प्राप्त हो गये ॥50॥ यद्यपि वह मदिरा पुरानी थी तथापि परिपाक के वश से उसने तरुण स्त्री के समान<strong>, </strong>लाल-लाल नेत्रों को धारण करनेवाले उन तरुण कुमारों को अत्यधिक वशीभूत कर लिया ॥51 | <p> तदनंतर बहुत भारी तप से युक्त जो द्वैपायन मुनि थे वे भी भ्रांतिवश बारहवें वर्ष को व्यतीत हुआ मानते हुए बारहवें वर्ष में वहाँ आ पहुंचे । जिनेंद्र भगवान का आदेश पूरा हो चुका है यह विचारकर जिनकी बुद्धि विमूढ़ हो रही थी तथा जो सम्यग्दर्शन से दुर्बल थे ऐसे द्वैपायन मुनि बारहवें वर्ष में वहीं आ पहुँचे ॥46-47॥<span id="48" /> वे किसी समय द्वारिका के बाहर पर्वत के निकट<strong>, </strong>मार्ग में आतापन योग धारण कर प्रतिमायोग से विराजमान थे ॥48॥<span id="49" /> उसी समय वनक्रीड़ा से थ के एवं प्यास से पीड़ित शंब आदि कुमारों ने कादंब वन के कुंडों में स्थित उस शराब को पी लिया ॥49॥<span id="50" /> कदंब वन में छोड़ी एवं कदंब रूप से डबरों के रूप में स्थित उस मधुर मदिरा को पीकर वे सब कुमार विकार भाव को प्राप्त हो गये ॥50॥<span id="51" /> यद्यपि वह मदिरा पुरानी थी तथापि परिपाक के वश से उसने तरुण स्त्री के समान<strong>, </strong>लाल-लाल नेत्रों को धारण करनेवाले उन तरुण कुमारों को अत्यधिक वशीभूत कर लिया ॥51 ॥<span id="52" /> फलस्वरूप वे सब कुमार असंबद्ध गाने लगे<strong>, </strong>लड़खड़ाते पैरों से नाचने लगे<strong>, </strong>उनके केश बिखर गये<strong>, </strong>आभूषण अस्त-व्यस्त हो गये और उन्होंने अपने कंठों में जंगली फूलों की मालाएं पहन लीं ॥52॥<span id="53" /><span id="54" /> जब वे सब नगर की ओर आ रहे थे तब उन्होंने सूर्य के सम्मुख खड़े हुए द्वैपायन मुनि को पहचान लिया । पहचानते ही उनके नेत्र घूमने लगे । उन्होंने आपस में कहा कि यह वही द्वैपायन योगी है जो द्वारिका का नाश करनेवाला होगा । आज यह बेचारा हम लोगों के आगे कहां जायेगा ? ॥53-54॥<span id="55" /> इतना कहकर उन निर्दय कुमारों ने <u>लुड्डों </u>और पत्थरों से उन्हें तब तक मारा जब तक कि वे घायल होकर पृथिवी पर नहीं गिर पड़े ॥ 55 ॥<span id="56" /> तदनंतर क्रोध की अधिकता से मुनि अपना ओठ डंसने लगे तथा यादवों और अपने तप को नष्ट करने के लिए उन्होंने भृकुटी चढ़ा ली ॥56॥<span id="57" /> मदमाते हाथियों के समान अत्यंत चंचल कुमार जब द्वारिकापुरी में प्रविष्ट हुए तब उनमें से किन्हीं ने यह दुर्घटना शीघ्र ही कृष्ण के लिए जा सुनायी ॥57॥<span id="58" /> बलदेव तथा नारायण ने द्वैपायन से संबंध रखने वाली इस घटना को सुनकर समझ लिया कि जिनेंद्र भगवान् ने जो द्वारिका का क्षय बतलाया था वह आ पहुंचा है-अब शीघ्र ही द्वारिका का क्षय होनेवाला है ॥58॥<span id="59" /> बलदेव और नारायण घबड़ाहट वश सब प्रकार का परिकर छोड़<strong>, </strong>क्रोध से अग्नि के समान जलते हुए मुनि को शांत करने के लिए<strong>, </strong>उनसे क्षमा मांगने के लिए उनके पास दौड़े गये ॥59॥<span id="60" /><span id="61" /> जिनकी बुद्धि अत्यंत संक्लेशमय थी<strong>, </strong>भृकुटी के भंग से जिनका मुख विषम हो रहा था<strong>, </strong>जिनके नेत्र दुःख से देखने योग्य थे<strong>, </strong>जिनके प्राण कंठगत हो रहे थे और जो अत्यंत भयंकर थे ऐसे द्वैपायन मुनि को बलदेव और कृष्ण ने देखा । उन्होंने हाथ जोड़कर बड़े आदर से मुनि को प्रणाम किया और हमारी याचना व्यर्थ होगी यह जानते हुए भी मोहवश याचना की ॥60-61 ॥<span id="62" /> उन्होंने कहा कि<strong>, </strong>हे साधो ! आपने चिरकाल से जिसको अत्यधिक रक्षा की है तथा क्षमा ही जिसकी जड़ है ऐसा यह तप का भार क्रोधरूपी अग्नि से जल रहा है सो इसकी रक्षा की जाये<strong>, </strong>रक्षा की जाये ॥62॥<span id="63" /> यह क्रोध मोक्ष के साधनभूत तप को क्षण-भर में दूषित कर देता है<strong>, </strong>यह धर्म<strong>, </strong>अर्थ काम और मोक्ष इन चारों वर्गों का शत्रु है तथा निज और पर को नष्ट करने वाला है ॥63॥<span id="64" /> हे मुनिराज ! प्रमाद से भरे हुए मूर्ख कुमारों ने जो दुष्ट चेष्टा की है उसे क्षमा कीजिए<strong>, </strong>क्षमा कीजिए<strong>, </strong>हम लोगों के लिए प्रसन्न होइए ॥64॥<span id="65" /> इत्यादि प्रियवचन बोलने वाले बलदेव और कृष्ण ने द्वैपायन से बहुत प्रार्थना की पर वे अपने निश्चय से पीछे नहीं हटे । उनकी बुद्धि अत्यंत पापपूर्ण हो गयी थी और वे प्राणियों<strong>-</strong>सहित द्वारिकापुरी के जलाने का निश्चय कर चुके थे ॥65॥<span id="66" /> उन्होंने बलदेव और कृष्ण के लिए दो अंगुलियां दिखायी तथा इशारे से स्पष्ट सूचित किया कि तुम दोनों का ही छुटकारा हो सकता है अन्य का नहीं ॥66॥<span id="67" /></p> | ||
<p> जब बलदेव और कृष्ण को यह विदित हो गया कि इनका क्रोध पीछे हटने वाला नहीं है तब वे द्वारिका का क्षय जान बहुत दुःखी हुए और किंकर्तव्य-विमूढ़ हो नगरी की ओर लौट आये ॥67 | <p> जब बलदेव और कृष्ण को यह विदित हो गया कि इनका क्रोध पीछे हटने वाला नहीं है तब वे द्वारिका का क्षय जान बहुत दुःखी हुए और किंकर्तव्य-विमूढ़ हो नगरी की ओर लौट आये ॥67 ॥<span id="68" /> उस समय शंबकुमार आदि अनेक चरमशरीरी यादव<strong>, </strong>नगरी से निकलकर दीक्षित हो गये तथा पर्वत की गुफा आदि में विराजमान हो गये ॥68॥<span id="69" /> क्रोधरूपी अग्नि के द्वारा जिनका तपरूपी श्रेष्ठ धन भस्म हो चुका था ऐसे द्वैपायन मुनि मरकर अग्निकुमार नामक मिथ्यादृष्टि भवनवासी देव हुए ॥69 ॥<span id="70" /> वहाँ अंतर्मुहूर्त में ही पर्याप्तक होकर उन्होंने यादव कुमारों के द्वारा किये हुए अपने अपकार को विभंगावधिज्ञान के द्वारा जान लिया ॥70॥<span id="71" /><span id="72" /> उन्होंने इस रोद्रध्यान का चिंतवन किया कि<strong>, </strong>देखो<strong>, </strong>मैं निरपराधी तप में लीन था फिर भी इन लोगों ने मेरी हिंसा की अतः मैं इन हिंसकों की समस्त नगरी को सब जीवों के साथ अभी हाल भस्म करता हूं । इस प्रकार ध्यान कर क्रूर परिणामों का धारक वह दुर्वार देव ज्यों ही आता है त्यों ही द्वारिका में क्षय को उत्पन्न करनेवाले बड़े-बड़े उत्पात होने लगे ॥71-72 ॥<span id="73" /> घर-घर में जब प्रजा के लोग रात्रि के समय निश्चिंतता से सो रहे थे तब उन्हें रोमांच खड़े कर देने वाले भय सूचक स्वप्न आने लगे ॥73॥<span id="74" /> अंत में उस पापबुद्धि क्रोधी देव ने जाकर बाहर से लेकर तिर्यंच और मनुष्यों से भरी हुई नगरी को जलाना शुरू कर दिया ॥74 ॥<span id="75" /> वह धूम और अग्नि की ज्वालाओं से आकुल हो नष्ट होते हुए वृद्ध<strong>, </strong>स्त्री<strong>, </strong>बालक<strong>, </strong>पशु तथा पक्षियों को पकड़-पकड़कर अग्नि में फेंकने लगा सो ठीक ही है क्योंकि पापी मनुष्य को दया कहाँ होती है ? ॥75॥<span id="76" /> उस समय अग्नि में जलते हुए समस्त प्राणियों की चिल्लाहट से जो शब्द हुए थे वैसे शब्द इस पृथिवी पर कभी नहीं हुए थे ॥76 ॥<span id="77" /> दिव्य अग्नि के द्वारा जब नगरी जल रही थी तब जान पड़ता था कि देव लोग कहीं चले गये थे सो ठीक ही है क्योंकि भवितव्यता दुर्निवार है ॥77॥<span id="78" /> अन्यथा इंद्र की आज्ञा से कुबेर ने जिस नगरी की रचना की थी तथा कुबेर ही जिसकी रक्षा करता था वह नगरी अग्नि के द्वारा कैसे जल जाती ? ॥78॥<span id="79" /> हे बलदेव और कृष्ण ! हम लोग चिरकाल से अग्नि के भय से पीड़ित हो रहे हैं<strong>, </strong>हमारी रक्षा करो इस प्रकार स्त्री<strong>, </strong>बालक और वृद्धजनों के घबराहट से भरे शब्द सर्वत्र व्याप्त हो रहे थे ॥ 79॥<span id="80" /> घबड़ाये हुए बलदेव और कृष्ण कोट फोड़कर समुद्र के प्रवाहों से उस अग्नि को बुझाने लगे ॥80॥<span id="81" /> बलशाली बलदेव ने अपने हल से समुद्र का जल खींचा परंतु वह तेलरूप में परिणत हो गया और उससे अग्नि अत्यधिक प्रज्वलित हो उठी ॥ 81॥<span id="82" /><span id="83" /> जब बलदेव और कृष्ण को इस बात का निश्चय हो गया कि अग्नि असाध्य है― बुझायी नहीं जा सकती तब उन्होंने दोनों माताओं को<strong>, </strong>पिता को तथा अन्य बहुत से लोगों को रथ पर बैठाकर तथा रथ में हाथी और घोड़े जोतकर रथ को पृथिवी पर चलाया परंतु रथ के पहिये जिस प्रकार कीचड़ में फंस जाते हैं उस प्रकार पृथिवी में फंस गये सो ठीक ही है क्योंकि विपत्ति के समय कहाँ हाथी और कहाँ घोड़े काम आते हैं ? ॥ 82-83 ॥<span id="84" /> हाथी और घोड़ों को बेकार देख जब दोनों भाई स्वयं ही भुजाओं से रथ खींचकर चलने लगे तब उस पापी देव ने वज्रमय कोल से कीलकर रथ को रोक दिया ॥ 84॥<span id="85" /> जब तक बलदेव पैर के आघात से कील को उखाड़ते हैं तब तक उस क्रोधी दैत्य ने नगर का द्वार बंद कर दिया ॥ 85 ॥<span id="86" /> जब दोनों भाइयों ने पैर के आघात से द्वार के कपाट को शीघ्र ही गिरा दिया तब तक शत्रु ने कहा कि तुम दोनों के सिवाय किसी अन्य का निकलना नहीं हो सकता ॥86॥<span id="90" /></p> | ||
<p> तदनंतर अब हम लोगों का विनाश निश्चित है यह जानकर दोनों माताओं और पिता ने दुःखी होकर कहा कि हे पुत्रो ! तुम जाओ । कदाचित् तुम दोनों के जीवित रहते वंश घात को प्राप्त नहीं होगा । इस प्रकार गुरुजनों के वचन मस्तक पर धारण कर दोनों भाई अत्यंत दुःखी हुए तथा दुःख से पीड़ित दीन माता<strong>-</strong>पिता को शांत कर और उनके चरणों में गिरकर उनके वचनों को मानते हुए नगर से बाहर निकल आये | <p> तदनंतर अब हम लोगों का विनाश निश्चित है यह जानकर दोनों माताओं और पिता ने दुःखी होकर कहा कि हे पुत्रो ! तुम जाओ । कदाचित् तुम दोनों के जीवित रहते वंश घात को प्राप्त नहीं होगा । इस प्रकार गुरुजनों के वचन मस्तक पर धारण कर दोनों भाई अत्यंत दुःखी हुए तथा दुःख से पीड़ित दीन माता<strong>-</strong>पिता को शांत कर और उनके चरणों में गिरकर उनके वचनों को मानते हुए नगर से बाहर निकल आये ॥ 87<strong>-</strong>89॥</p> | ||
<p> ज्वालाओं के समूह से जिसके महल जल रहे थे ऐसी नगरी से निकलकर दोनों भाई पहले तो गतिहीन हो गये― इस बात का निश्चय नहीं कर सके कि कहां जाया जाये<strong>? </strong>वे बहुत देर तक एक-दूसरे के कंठ से लगकर रोते रहे । तदनंतर दक्षिण दिशा की ओर चले ॥90॥ इधर वसुदेव आदि यादव तथा उनकी स्त्रियाँ-अनेक लोग संन्यास धारण कर स्वर्ग में उत्पन्न हुए | <p> ज्वालाओं के समूह से जिसके महल जल रहे थे ऐसी नगरी से निकलकर दोनों भाई पहले तो गतिहीन हो गये― इस बात का निश्चय नहीं कर सके कि कहां जाया जाये<strong>? </strong>वे बहुत देर तक एक-दूसरे के कंठ से लगकर रोते रहे । तदनंतर दक्षिण दिशा की ओर चले ॥90॥<span id="91" /> इधर वसुदेव आदि यादव तथा उनकी स्त्रियाँ-अनेक लोग संन्यास धारण कर स्वर्ग में उत्पन्न हुए ॥91॥<span id="92" /> बलदेव के पुत्रों को आदि लेकर जो कुछ चरमशरीरी थे उन्होंने वहीं संयम धारण कर लिया और उन्हें जृंभकदेव जिनेंद्र भगवान् के पास ले गये ॥92॥<span id="93" /><span id="94" /> जिनकी आत्मा धर्मध्यान के वशीभूत थी-जो सम्यक̖दर्शन से शुद्ध थे तथा जिन्होंने प्रायोपगमन नामक संन्यास धारण कर रखा था ऐसे बहुत से यादव और उनकी स्त्रियां यद्यपि अग्नि में जल रही थीं तथापि भयंकर अग्नि केवल उनके शरीर को नष्ट करने वाली हुई<strong>, </strong>ध्यान को नष्ट करने वाली नहीं ॥93-94 ॥<span id="15" /> मनुष्य<strong>, </strong>तियंच<strong>, </strong>देव और जड़ के भेद से चार प्रकार का उपसर्ग प्रायः मिथ्यादृष्टि जीवों को ही आर्तध्यान का करनेवाला होता है<strong>, </strong>सम्यग्दृष्टि जीव को कभी नहीं ॥15॥<span id="16" /> जो मनुष्य जिनशासन को भावना से युक्त हैं वे संभावित और असंभावित किसी भी प्रकार का मरण उपस्थित होने पर कभी मोह को प्राप्त नहीं होते ॥16॥<span id="97" /></p> | ||
<p> मिथ्यादृष्टि जीव का मरण शोक के लिए होता है परंतु सम्यग्दृष्टि जीव का समाधि मरण शोक के लिए नहीं होता ॥97॥ संसार का नियम ही ऐसा है कि जो उत्पन्न होता है उसका मरण अवश्य होता है<strong>,</strong> अतः सदा यह भावना रखनी चाहिए कि उपसर्ग आने पर भी समाधिपूर्वक ही मरण हो ॥98॥ वे मनुष्य धन्य हैं जो अग्नि को शिखाओं के समूह से ग्रस्त शरीर होने पर भी उत्तम समाधि से शरीर छोड़ते हैं ॥99॥ जो तप और मरण निज तथा पर को सुख करने वाला है वही उत्तम है― प्रशंसनीय है<strong>, </strong>जो तप द्वैपायन के समान निज और पर को दुःख का कारण है वह उत्तम नहीं ॥100॥</p> | <p> मिथ्यादृष्टि जीव का मरण शोक के लिए होता है परंतु सम्यग्दृष्टि जीव का समाधि मरण शोक के लिए नहीं होता ॥97॥<span id="98" /> संसार का नियम ही ऐसा है कि जो उत्पन्न होता है उसका मरण अवश्य होता है<strong>,</strong> अतः सदा यह भावना रखनी चाहिए कि उपसर्ग आने पर भी समाधिपूर्वक ही मरण हो ॥98॥<span id="99" /> वे मनुष्य धन्य हैं जो अग्नि को शिखाओं के समूह से ग्रस्त शरीर होने पर भी उत्तम समाधि से शरीर छोड़ते हैं ॥99॥<span id="100" /> जो तप और मरण निज तथा पर को सुख करने वाला है वही उत्तम है― प्रशंसनीय है<strong>, </strong>जो तप द्वैपायन के समान निज और पर को दुःख का कारण है वह उत्तम नहीं ॥100॥<span id="101" /></p> | ||
<p> दूसरे का अपकार करने वाला पापी मनुष्य<strong>, </strong>दूसरे का वध तो एक जन्म में कर पाता है पर उसके फलस्वरूप अपना वध जन्म<strong>-</strong>जन्म में करता है ॥101॥ यह प्राणी दूसरों का वध कर सके अथवा न कर सके परंतु कषाय के वशीभूत हो अपना वध तो भव<strong>-</strong>भव में करता है तथा अपने संसार को बढ़ाता है | <p> दूसरे का अपकार करने वाला पापी मनुष्य<strong>, </strong>दूसरे का वध तो एक जन्म में कर पाता है पर उसके फलस्वरूप अपना वध जन्म<strong>-</strong>जन्म में करता है ॥101॥<span id="102" /> यह प्राणी दूसरों का वध कर सके अथवा न कर सके परंतु कषाय के वशीभूत हो अपना वध तो भव<strong>-</strong>भव में करता है तथा अपने संसार को बढ़ाता है ॥ 102 ॥<span id="103" /> जिस प्रकार तपाये हुए लोहे के पिंड को उठाने वाला मनुष्य पहले अपने-आपको जलाता है पश्चात् दूसरे को जला सके अथवा नहीं<strong>,</strong> उसी प्रकार कषाय के वशीभूत हुआ प्राणी दूसरे का घात करूँ इस विचार के उत्पन्न होते ही पहले अपने-आपका घात करता है पश्चात् दूसरे का घात कर सके या नहीं कर सके ॥103॥<span id="104" /> किन्हीं मनुष्यों के लिए यह परम तप संसार का अंत करनेवाला होता है पर द्वैपायन मुनि के लिए दीर्घ संसार का कारण हुआ ॥104॥<span id="105" /> अथवा इस संसार में अपने कर्म के अनुसार प्रवृत्ति करनेवाले प्राणी का क्या अपराध है ? क्योंकि यत्न करनेवाला प्राणी भी मोहरूपी वैरी के द्वारा मोह को प्राप्त हो जाता है ॥ 105 ॥<span id="106" /> असहनशील पुरुष दूसरे का अपकार किसी तरह कर भी सकता है परंतु उसे अपने-आपका तो इस लोक और परलोक में उपकार ही करना चाहिए ॥106 ॥<span id="107" /> क्योंकि दूसरों को दुःख पहुँचाने से अपने आपको भी दुःख की परंपरा प्राप्त होती है<strong>, </strong>इसलिए क्षमा अवश्यंभावी है― अवश्य ही धारण करने योग्य है ऐसा निश्चय करना चाहिए ॥107॥<span id="108" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो<strong>, </strong>विधि के वशीभूत हुए क्रोध से अंधे द्वीपायन ने जिनेंद्र भगवान् के वचन छोड़कर बालक<strong>, </strong>स्त्री<strong>, </strong>पशु और वृद्धजनों से व्याप्त एवं अनेक द्वारों से युक्त शोभायमान द्वारिका नगरी को छह मास में भस्म कर नष्ट कर दिया सो निज और पर के अपकार का कारण तथा संसार को बढ़ाने वाले इस क्रोध को धिक्कार है ॥ 108॥<span id="61" /> </p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में द्वारिका के</strong> <strong>नाश का वर्णन करने वाला इकसठवाँ सर्ग समाप्त हुआ | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में द्वारिका के</strong> <strong>नाश का वर्णन करने वाला इकसठवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥ 61 ॥</strong></p> | ||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर श्रेणिक का अभिप्राय जानकर गणधरों के अधिपति श्री गौतम स्वामी ने जगत् के द्वारा स्तुत गजकुमार का वृत्तांत इस प्रकार कहना शुरू किया ॥ 1॥ वे कहने लगे कि इस प्रकार गजकुमार, तीर्थंकर आदि का चरित्र सुनकर संसार से भयभीत हो गया और पिता, पुत्र, आदि समस्त बंधुजनों को छोड़कर बड़ी विनय से जिनेंद्र भगवान के समीप पहुँचा और उनसे अनुमति ले दीक्षा ग्रहण कर तप करने के लिए उद्यत हो गया ॥2-3 ॥ गजकुमार के लिए जो प्रभावती आदि कन्याएं निश्चित की गयी थीं उन सभी ने संसार से विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली ॥ 4॥
तदनंतर किसी दिन गजकुमार मुनि रात्रि के समय एकांत में प्रतिमायोग से विराजमान हो सब प्रकार को बाधाएं सहन कर रहे थे कि सोमशर्मा अपनी पुत्री के त्याग से उत्पन्न क्रोधरूपी अग्नि के कणों से प्रदीप्त हो उनके पास आया और स्थिर चित्त के धारक उन मुनिराज के सिर पर तीव्र अग्नि प्रज्वलित करने लगा ॥ 5-6 ॥ उस अग्नि से उनका शरीर जलने लगा । उसी अवस्था में वे शुक्लध्यान के द्वारा कर्मों का क्षय कर अंतकृत् केवली हो मोक्ष चले गये ॥ 7 ॥ यक्ष, किन्नर, गंधर्व और महोरग आदि सुर और असुरों ने आकर उनके शरीर की पूजा की ॥ 8॥ गजकुमार मुनि का मरण जानकर दुःखी होते हुए बहुत से यादव तथा वसुदेव को छोड़कर शेष समुद्रविजय आदि दशार्ह मोक्ष को इच्छा से दीक्षित हो गये ॥9॥ शिवा आदि देवियों, देव की और रोहिणी को छोड़कर वसुदेव की अन्य स्त्रियों तथा कृष्ण की पुत्रियों ने भी दीक्षा धारण कर ली ॥10॥
तदनंतर देव और मनुष्यों से पूजित भगवान् नेमिजिनेंद्र ने, भव्यजीवों के समूह को प्रबोधित करते हुए, नाना देशों में बड़े वैभव के साथ विहार किया ॥11॥ उन्होंने उत्तरदिशा के, मध्यदेश के तथा पूर्वदिशा के प्रजा से युक्त अनेक बड़े-बड़े राजाओं को धर्म में स्थिर करते हुए विहार किया था ॥12॥ चिरकाल तक विहार कर भगवान् पुनः आये और रैवतक (गिरनार) पर्वत पर समवसरण को सुशोभित करते हुए विराजमान हो गये ॥13॥ प्रबल तेज को धारण करने वाले इंद्र वहाँ विराजमान जिनेंद्र भगवान् के पास आये और नमस्कार तथा स्तुति कर अपने-अपने स्थानों पर बैठ गये ॥14॥
अंतःपुर की रानियों, मित्रजन, द्वारिका की प्रजा तथा प्रद्युम्न आदि पुत्रों से सहित वसुदेव, बलदेव तथा कृष्ण भी बड़ी विभूति के साथ आये और भगवान् नेमिनाथ को नमस्कार कर समवसरण में यथास्थान बैठ भगवान से धर्मश्रवण करने लगे ॥15-16॥ तदनंतर धर्मकथा के बाद जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार कर बलदेव ने हाथ जोड़ ललाट से लगा, अपने हृदय में स्थित बात पूछी ॥17॥ उन्होंने पूछा कि हे भगवन् ! यह द्वारिकापुरी कुबेर के द्वारा रची गयी है सो इसका अंत कितने समय में होगा । क्योंकि कृत्रिम वस्तुएँ अवश्य ही नश्वर होती हैं ॥18॥ यह द्वारिकापुरी कालांतर में क्या अपने-आप ही समुद्र में डूब जावेगी ? अथवा निमित्तांतर के सन्निधान में किसी अन्य निमित्त से विनाश को प्राप्त होगी ? कृष्ण के अपने अंतकाल में निमित्तपने को कौन प्राप्त होगा ? क्योंकि उत्पन्न हुए समस्त जीवों का मरण निश्चित है । हे प्रभो ! मेरा चित्त कृष्ण के स्नेहरूपी महापाश से बंधा हुआ है अतः मुझे संयम को प्राप्ति कितने समय बाद होगी ? ॥19-21॥ इस प्रकार बलदेव के पूछने पर समस्त परापर पदार्थों को देखने वाले नेमिजिनेंद्र, प्रश्न के अनुसार यथार्थ बात कहने लगे, सो ठीक ही है क्योंकि भगवान् प्रश्नों का उत्तर निरूपण करने वाले ही थे ॥22॥
उन्होंने कहा कि हे राम ! यह पुरी बारहवें वर्ष में मदिरा के निमित्त से द्वैपायन मुनि के द्वारा क्रोधवश भस्म होगी ॥23॥ अंतिम समय में श्रीकृष्ण कौशांबी के वन में शयन करेंगे और जरत्कुमार उनके विनाश में कारणपने को प्राप्त होगा ॥24॥ अंतरंग कारण के रहते हुए परिणतिवश बाह्य हेतु जगत् के अभ्युदय तथा क्षय में कारण होते हैं इसलिए वस्तु के स्वभाव को जानने वाले उत्तम मनुष्य अभ्युदय तथा क्षय के समय पृथिवी पर कभी हर्ष और विषाद को प्राप्त नहीं होते ॥25-26॥
संसार के मार्ग से भयभीत रहनेवाले आपको भी उसी समय कृष्ण की मृत्यु का निमित्त पाकर तप की प्राप्ति होगी तथा तपकर आप ब्रह्मस्वर्ग में उत्पन्न होंगे ॥27॥ द्वैपायन कुमार रोहिणी का भाई-बलदेव का मामा था सो उस समय भगवान् के वचन सुनकर वह संसार से विरक्त हो मुनि होकर तप करने लगा ॥28॥ वह बारह वर्ष को अवधि को पूर्ण करने के लिए यहाँ से पूर्व देश की ओर चला गया और वहाँ कषाय तथा शरीर को सुखाने वाला तप करने लगा ॥ 29॥ मेरे निमित्त से कृष्ण की मृत्यु होगी यह जानकर जरत्कुमार भी बहुत दुःखी हुआ और दुःख से युक्त भाई बंधुओं की छोड़कर वह कहीं ऐसी जगह चला गया जहाँ कृष्ण दिखाई भी न दें ॥30॥ जब जरत्कुमार वन में जाकर अकेला रहने लगा तब स्नेह से आकुल श्रीकृष्ण ने अपने-आपमें अपने आपको सूना अनुभव किया ॥31॥ जो कृष्ण को प्राणों के समान प्यारा था ऐसा जरत्कुमार कहीं प्रिय प्राणों को छोड़ने की इच्छा से अकेला ही मृगों के समान निर्जन वन में भ्रमण करने लगा ॥32॥ इधर आगामी दुःख के भार की चिंता से जिनके मन संतप्त हो रहे थे ऐसे यादव लोग भगवान् को नमस्कार कर नगरी में प्रविष्ट हुए ॥33 ॥ बलदेव के साथ कृष्ण ने नगर में यह घोषणा करा दी कि मद्य बनाने के साधन और मद्य शीघ्र ही अलग कर दिये जायें ॥34॥ घोषणा सुनते ही मद्यपायी लोगों ने पिष्ट, किण्व आदि मदिरा बनाने के साधनों के साथ-साथ समस्त मदिरा को शिलाओं के बीच बने हुए कुंड से युक्त कादंबगिरि की गुहा में फेंक दिया ।꠰ 35 ॥ कदंब वन के कुंडों में जो मदिरा छोड़ो गयी थी वह अश्मपाक विशेष के कारण उन कुंडों में भरी रही । भावार्थ― पत्थर की कुंडियों में जिस प्रकार कोई तरल पदार्थ स्थिर रहा आता है उसी प्रकार कदंब वन के शिलाकुंडों में वह मदिरा स्थिर रही आयी ॥ 36 ॥ हित की इच्छा रखने वाले कृष्ण ने समस्त स्त्री-पुरुषों के सुनते समय द्वारिकापुरी में दूसरी घोषणा यह दी कि यदि मेरे पिता, माता, पुत्री अथवा अंतःपुर की स्त्री आदि कोई भी जिनेंद्र भगवान के मत में दीक्षित हो तप करना चाहें तो मैं उन्हें मना नहीं करता हूँ― उन्हें तप करने की मेरी ओर से पूर्ण छूट है ॥37-38॥ घोषणा सुनते ही प्रद्युम्नकुमार तथा भानुकुमार को आदि लेकर चरम शरीरी कुमार और अन्य बहुत से लोग परिग्रह का त्याग कर तपोवन को चले गये ॥39॥ रुक्मिणी और सत्यभामा आदि आठ पट्टरानियों ने भी आज्ञा प्राप्त कर पुत्रवधुओं तथा अन्य सौतों के साथ दीक्षा धारण कर ली ॥40॥ सिद्धार्थ नाम का सारथि जो बलदेव का भाई था जब दीक्षा लेने के लिए उत्सुक हुआ तब बलदेव ने उससे याचना की कि कदाचित् मैं मोहजन्य व्यसन को प्राप्त होऊ मुझे संबोधित करना । बलदेव की इस प्रार्थना को स्वीकृत कर उसने तप ग्रहण कर लिया ॥41॥
तदनंतर जो भव्यरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान थे ऐसे भगवान् नेमिजिनेंद्र, भव्यजीवों को संबोधने के लिए बड़े भारी संघ के साथ पल्लव देश को प्राप्त हुए ॥42॥ उस समय जो राजा-रानियों और मनुष्यों का समूह दीक्षित हुआ था वह जिनेंद्र भगवान् के साथ ही साथ उत्तरापथ की ओर चलने के लिए उद्यमी हुआ ॥43॥ द्वारिका के लोग द्वारिका से बाहर जाकर बारह वर्ष तक कहीं इनमें रहते आये परंतु भाग्य की प्रबलता से निवास कर फिर वहीं वापस आ गये ॥44॥ इधर द्वारिका में जो लोग रहते थे वे परलोक के भय से युक्त हो व्रत, उपवास तथा पूजा आदि सत्कार्यों में निरंतर संलग्न रहते थे ॥45॥
तदनंतर बहुत भारी तप से युक्त जो द्वैपायन मुनि थे वे भी भ्रांतिवश बारहवें वर्ष को व्यतीत हुआ मानते हुए बारहवें वर्ष में वहाँ आ पहुंचे । जिनेंद्र भगवान का आदेश पूरा हो चुका है यह विचारकर जिनकी बुद्धि विमूढ़ हो रही थी तथा जो सम्यग्दर्शन से दुर्बल थे ऐसे द्वैपायन मुनि बारहवें वर्ष में वहीं आ पहुँचे ॥46-47॥ वे किसी समय द्वारिका के बाहर पर्वत के निकट, मार्ग में आतापन योग धारण कर प्रतिमायोग से विराजमान थे ॥48॥ उसी समय वनक्रीड़ा से थ के एवं प्यास से पीड़ित शंब आदि कुमारों ने कादंब वन के कुंडों में स्थित उस शराब को पी लिया ॥49॥ कदंब वन में छोड़ी एवं कदंब रूप से डबरों के रूप में स्थित उस मधुर मदिरा को पीकर वे सब कुमार विकार भाव को प्राप्त हो गये ॥50॥ यद्यपि वह मदिरा पुरानी थी तथापि परिपाक के वश से उसने तरुण स्त्री के समान, लाल-लाल नेत्रों को धारण करनेवाले उन तरुण कुमारों को अत्यधिक वशीभूत कर लिया ॥51 ॥ फलस्वरूप वे सब कुमार असंबद्ध गाने लगे, लड़खड़ाते पैरों से नाचने लगे, उनके केश बिखर गये, आभूषण अस्त-व्यस्त हो गये और उन्होंने अपने कंठों में जंगली फूलों की मालाएं पहन लीं ॥52॥ जब वे सब नगर की ओर आ रहे थे तब उन्होंने सूर्य के सम्मुख खड़े हुए द्वैपायन मुनि को पहचान लिया । पहचानते ही उनके नेत्र घूमने लगे । उन्होंने आपस में कहा कि यह वही द्वैपायन योगी है जो द्वारिका का नाश करनेवाला होगा । आज यह बेचारा हम लोगों के आगे कहां जायेगा ? ॥53-54॥ इतना कहकर उन निर्दय कुमारों ने लुड्डों और पत्थरों से उन्हें तब तक मारा जब तक कि वे घायल होकर पृथिवी पर नहीं गिर पड़े ॥ 55 ॥ तदनंतर क्रोध की अधिकता से मुनि अपना ओठ डंसने लगे तथा यादवों और अपने तप को नष्ट करने के लिए उन्होंने भृकुटी चढ़ा ली ॥56॥ मदमाते हाथियों के समान अत्यंत चंचल कुमार जब द्वारिकापुरी में प्रविष्ट हुए तब उनमें से किन्हीं ने यह दुर्घटना शीघ्र ही कृष्ण के लिए जा सुनायी ॥57॥ बलदेव तथा नारायण ने द्वैपायन से संबंध रखने वाली इस घटना को सुनकर समझ लिया कि जिनेंद्र भगवान् ने जो द्वारिका का क्षय बतलाया था वह आ पहुंचा है-अब शीघ्र ही द्वारिका का क्षय होनेवाला है ॥58॥ बलदेव और नारायण घबड़ाहट वश सब प्रकार का परिकर छोड़, क्रोध से अग्नि के समान जलते हुए मुनि को शांत करने के लिए, उनसे क्षमा मांगने के लिए उनके पास दौड़े गये ॥59॥ जिनकी बुद्धि अत्यंत संक्लेशमय थी, भृकुटी के भंग से जिनका मुख विषम हो रहा था, जिनके नेत्र दुःख से देखने योग्य थे, जिनके प्राण कंठगत हो रहे थे और जो अत्यंत भयंकर थे ऐसे द्वैपायन मुनि को बलदेव और कृष्ण ने देखा । उन्होंने हाथ जोड़कर बड़े आदर से मुनि को प्रणाम किया और हमारी याचना व्यर्थ होगी यह जानते हुए भी मोहवश याचना की ॥60-61 ॥ उन्होंने कहा कि, हे साधो ! आपने चिरकाल से जिसको अत्यधिक रक्षा की है तथा क्षमा ही जिसकी जड़ है ऐसा यह तप का भार क्रोधरूपी अग्नि से जल रहा है सो इसकी रक्षा की जाये, रक्षा की जाये ॥62॥ यह क्रोध मोक्ष के साधनभूत तप को क्षण-भर में दूषित कर देता है, यह धर्म, अर्थ काम और मोक्ष इन चारों वर्गों का शत्रु है तथा निज और पर को नष्ट करने वाला है ॥63॥ हे मुनिराज ! प्रमाद से भरे हुए मूर्ख कुमारों ने जो दुष्ट चेष्टा की है उसे क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए, हम लोगों के लिए प्रसन्न होइए ॥64॥ इत्यादि प्रियवचन बोलने वाले बलदेव और कृष्ण ने द्वैपायन से बहुत प्रार्थना की पर वे अपने निश्चय से पीछे नहीं हटे । उनकी बुद्धि अत्यंत पापपूर्ण हो गयी थी और वे प्राणियों-सहित द्वारिकापुरी के जलाने का निश्चय कर चुके थे ॥65॥ उन्होंने बलदेव और कृष्ण के लिए दो अंगुलियां दिखायी तथा इशारे से स्पष्ट सूचित किया कि तुम दोनों का ही छुटकारा हो सकता है अन्य का नहीं ॥66॥
जब बलदेव और कृष्ण को यह विदित हो गया कि इनका क्रोध पीछे हटने वाला नहीं है तब वे द्वारिका का क्षय जान बहुत दुःखी हुए और किंकर्तव्य-विमूढ़ हो नगरी की ओर लौट आये ॥67 ॥ उस समय शंबकुमार आदि अनेक चरमशरीरी यादव, नगरी से निकलकर दीक्षित हो गये तथा पर्वत की गुफा आदि में विराजमान हो गये ॥68॥ क्रोधरूपी अग्नि के द्वारा जिनका तपरूपी श्रेष्ठ धन भस्म हो चुका था ऐसे द्वैपायन मुनि मरकर अग्निकुमार नामक मिथ्यादृष्टि भवनवासी देव हुए ॥69 ॥ वहाँ अंतर्मुहूर्त में ही पर्याप्तक होकर उन्होंने यादव कुमारों के द्वारा किये हुए अपने अपकार को विभंगावधिज्ञान के द्वारा जान लिया ॥70॥ उन्होंने इस रोद्रध्यान का चिंतवन किया कि, देखो, मैं निरपराधी तप में लीन था फिर भी इन लोगों ने मेरी हिंसा की अतः मैं इन हिंसकों की समस्त नगरी को सब जीवों के साथ अभी हाल भस्म करता हूं । इस प्रकार ध्यान कर क्रूर परिणामों का धारक वह दुर्वार देव ज्यों ही आता है त्यों ही द्वारिका में क्षय को उत्पन्न करनेवाले बड़े-बड़े उत्पात होने लगे ॥71-72 ॥ घर-घर में जब प्रजा के लोग रात्रि के समय निश्चिंतता से सो रहे थे तब उन्हें रोमांच खड़े कर देने वाले भय सूचक स्वप्न आने लगे ॥73॥ अंत में उस पापबुद्धि क्रोधी देव ने जाकर बाहर से लेकर तिर्यंच और मनुष्यों से भरी हुई नगरी को जलाना शुरू कर दिया ॥74 ॥ वह धूम और अग्नि की ज्वालाओं से आकुल हो नष्ट होते हुए वृद्ध, स्त्री, बालक, पशु तथा पक्षियों को पकड़-पकड़कर अग्नि में फेंकने लगा सो ठीक ही है क्योंकि पापी मनुष्य को दया कहाँ होती है ? ॥75॥ उस समय अग्नि में जलते हुए समस्त प्राणियों की चिल्लाहट से जो शब्द हुए थे वैसे शब्द इस पृथिवी पर कभी नहीं हुए थे ॥76 ॥ दिव्य अग्नि के द्वारा जब नगरी जल रही थी तब जान पड़ता था कि देव लोग कहीं चले गये थे सो ठीक ही है क्योंकि भवितव्यता दुर्निवार है ॥77॥ अन्यथा इंद्र की आज्ञा से कुबेर ने जिस नगरी की रचना की थी तथा कुबेर ही जिसकी रक्षा करता था वह नगरी अग्नि के द्वारा कैसे जल जाती ? ॥78॥ हे बलदेव और कृष्ण ! हम लोग चिरकाल से अग्नि के भय से पीड़ित हो रहे हैं, हमारी रक्षा करो इस प्रकार स्त्री, बालक और वृद्धजनों के घबराहट से भरे शब्द सर्वत्र व्याप्त हो रहे थे ॥ 79॥ घबड़ाये हुए बलदेव और कृष्ण कोट फोड़कर समुद्र के प्रवाहों से उस अग्नि को बुझाने लगे ॥80॥ बलशाली बलदेव ने अपने हल से समुद्र का जल खींचा परंतु वह तेलरूप में परिणत हो गया और उससे अग्नि अत्यधिक प्रज्वलित हो उठी ॥ 81॥ जब बलदेव और कृष्ण को इस बात का निश्चय हो गया कि अग्नि असाध्य है― बुझायी नहीं जा सकती तब उन्होंने दोनों माताओं को, पिता को तथा अन्य बहुत से लोगों को रथ पर बैठाकर तथा रथ में हाथी और घोड़े जोतकर रथ को पृथिवी पर चलाया परंतु रथ के पहिये जिस प्रकार कीचड़ में फंस जाते हैं उस प्रकार पृथिवी में फंस गये सो ठीक ही है क्योंकि विपत्ति के समय कहाँ हाथी और कहाँ घोड़े काम आते हैं ? ॥ 82-83 ॥ हाथी और घोड़ों को बेकार देख जब दोनों भाई स्वयं ही भुजाओं से रथ खींचकर चलने लगे तब उस पापी देव ने वज्रमय कोल से कीलकर रथ को रोक दिया ॥ 84॥ जब तक बलदेव पैर के आघात से कील को उखाड़ते हैं तब तक उस क्रोधी दैत्य ने नगर का द्वार बंद कर दिया ॥ 85 ॥ जब दोनों भाइयों ने पैर के आघात से द्वार के कपाट को शीघ्र ही गिरा दिया तब तक शत्रु ने कहा कि तुम दोनों के सिवाय किसी अन्य का निकलना नहीं हो सकता ॥86॥
तदनंतर अब हम लोगों का विनाश निश्चित है यह जानकर दोनों माताओं और पिता ने दुःखी होकर कहा कि हे पुत्रो ! तुम जाओ । कदाचित् तुम दोनों के जीवित रहते वंश घात को प्राप्त नहीं होगा । इस प्रकार गुरुजनों के वचन मस्तक पर धारण कर दोनों भाई अत्यंत दुःखी हुए तथा दुःख से पीड़ित दीन माता-पिता को शांत कर और उनके चरणों में गिरकर उनके वचनों को मानते हुए नगर से बाहर निकल आये ॥ 87-89॥
ज्वालाओं के समूह से जिसके महल जल रहे थे ऐसी नगरी से निकलकर दोनों भाई पहले तो गतिहीन हो गये― इस बात का निश्चय नहीं कर सके कि कहां जाया जाये? वे बहुत देर तक एक-दूसरे के कंठ से लगकर रोते रहे । तदनंतर दक्षिण दिशा की ओर चले ॥90॥ इधर वसुदेव आदि यादव तथा उनकी स्त्रियाँ-अनेक लोग संन्यास धारण कर स्वर्ग में उत्पन्न हुए ॥91॥ बलदेव के पुत्रों को आदि लेकर जो कुछ चरमशरीरी थे उन्होंने वहीं संयम धारण कर लिया और उन्हें जृंभकदेव जिनेंद्र भगवान् के पास ले गये ॥92॥ जिनकी आत्मा धर्मध्यान के वशीभूत थी-जो सम्यक̖दर्शन से शुद्ध थे तथा जिन्होंने प्रायोपगमन नामक संन्यास धारण कर रखा था ऐसे बहुत से यादव और उनकी स्त्रियां यद्यपि अग्नि में जल रही थीं तथापि भयंकर अग्नि केवल उनके शरीर को नष्ट करने वाली हुई, ध्यान को नष्ट करने वाली नहीं ॥93-94 ॥ मनुष्य, तियंच, देव और जड़ के भेद से चार प्रकार का उपसर्ग प्रायः मिथ्यादृष्टि जीवों को ही आर्तध्यान का करनेवाला होता है, सम्यग्दृष्टि जीव को कभी नहीं ॥15॥ जो मनुष्य जिनशासन को भावना से युक्त हैं वे संभावित और असंभावित किसी भी प्रकार का मरण उपस्थित होने पर कभी मोह को प्राप्त नहीं होते ॥16॥
मिथ्यादृष्टि जीव का मरण शोक के लिए होता है परंतु सम्यग्दृष्टि जीव का समाधि मरण शोक के लिए नहीं होता ॥97॥ संसार का नियम ही ऐसा है कि जो उत्पन्न होता है उसका मरण अवश्य होता है, अतः सदा यह भावना रखनी चाहिए कि उपसर्ग आने पर भी समाधिपूर्वक ही मरण हो ॥98॥ वे मनुष्य धन्य हैं जो अग्नि को शिखाओं के समूह से ग्रस्त शरीर होने पर भी उत्तम समाधि से शरीर छोड़ते हैं ॥99॥ जो तप और मरण निज तथा पर को सुख करने वाला है वही उत्तम है― प्रशंसनीय है, जो तप द्वैपायन के समान निज और पर को दुःख का कारण है वह उत्तम नहीं ॥100॥
दूसरे का अपकार करने वाला पापी मनुष्य, दूसरे का वध तो एक जन्म में कर पाता है पर उसके फलस्वरूप अपना वध जन्म-जन्म में करता है ॥101॥ यह प्राणी दूसरों का वध कर सके अथवा न कर सके परंतु कषाय के वशीभूत हो अपना वध तो भव-भव में करता है तथा अपने संसार को बढ़ाता है ॥ 102 ॥ जिस प्रकार तपाये हुए लोहे के पिंड को उठाने वाला मनुष्य पहले अपने-आपको जलाता है पश्चात् दूसरे को जला सके अथवा नहीं, उसी प्रकार कषाय के वशीभूत हुआ प्राणी दूसरे का घात करूँ इस विचार के उत्पन्न होते ही पहले अपने-आपका घात करता है पश्चात् दूसरे का घात कर सके या नहीं कर सके ॥103॥ किन्हीं मनुष्यों के लिए यह परम तप संसार का अंत करनेवाला होता है पर द्वैपायन मुनि के लिए दीर्घ संसार का कारण हुआ ॥104॥ अथवा इस संसार में अपने कर्म के अनुसार प्रवृत्ति करनेवाले प्राणी का क्या अपराध है ? क्योंकि यत्न करनेवाला प्राणी भी मोहरूपी वैरी के द्वारा मोह को प्राप्त हो जाता है ॥ 105 ॥ असहनशील पुरुष दूसरे का अपकार किसी तरह कर भी सकता है परंतु उसे अपने-आपका तो इस लोक और परलोक में उपकार ही करना चाहिए ॥106 ॥ क्योंकि दूसरों को दुःख पहुँचाने से अपने आपको भी दुःख की परंपरा प्राप्त होती है, इसलिए क्षमा अवश्यंभावी है― अवश्य ही धारण करने योग्य है ऐसा निश्चय करना चाहिए ॥107॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो, विधि के वशीभूत हुए क्रोध से अंधे द्वीपायन ने जिनेंद्र भगवान् के वचन छोड़कर बालक, स्त्री, पशु और वृद्धजनों से व्याप्त एवं अनेक द्वारों से युक्त शोभायमान द्वारिका नगरी को छह मास में भस्म कर नष्ट कर दिया सो निज और पर के अपकार का कारण तथा संसार को बढ़ाने वाले इस क्रोध को धिक्कार है ॥ 108॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में द्वारिका के नाश का वर्णन करने वाला इकसठवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥ 61 ॥