पद्मपुराण - पर्व 44: Difference between revisions
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<span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर जब अनिच्छा से चंद्रनखा का काम नष्ट हो गया तब तट को भग्न करने वाले नद के समान दुःख का पूर उसे पुनः प्राप्त हो गया ॥1॥<span id="2" /> जिसका शरीर शोकरूपी अग्नि से संतप्त हो रहा था ऐसी चंद्रनखा, मृतवत्सा गाय के समान व्याकुल होकर नाना प्रकार का विलाप करने लगी ।। 2 ।।<span id="3" /> जो पूर्वोक्त अपमान को धारण कर रही थी, जिसका मन क्रोध और दीनता में स्थित था तया जिसके नेत्रों से अश्रु झर रहे थे ऐसी चंद्रनखा को खरदूषण ने देखा ।।3।।<span id="8" /> जिसका धैर्य नष्ट हो गया था, जो पृथिवी की धूलि से धूसरित थी, जिसके केशों का समूह बिखरा हुआ था, जिसकी मेखला ढीली हो गयी थी, जिसकी बगलों, जाँघों तथा स्तनों की भूमि नखों से विक्षत थी, जो रुधिर से युक्त थी, जिसके कर्णाभरण गिर गये थे, जो हार और लावण्य से रहित थी,जिसकी चोली फट गयी थी, जिसके शरीर का स्वाभाविक तेज नष्ट हो गया था, और जो मदोन्मत्त हाथी के द्वारा मुदित कमलिनी के समान जान पड़ती थी ऐसी चंद्रनखा को सांत्वना देकर खरदूषण ने पूछा कि हे प्रिये ! शीघ्र ही बताओ तुम किस दुष्ट के द्वारा इस अवस्था को प्राप्त करायी गयी हो ? ꠰꠰4-7 ।। आज किसका आठवाँ चंद्रमा है ? मृत्यु के द्वारा कौन देखा गया है ? पहाड़ की चोटी पर कौन सो रहा है और कौन मूर्ख सर्प के साथ क्रीड़ा कर रहा है ? ॥8॥<span id="9" /> कौन अंधा कुएँ में आकर पड़ा है ? किसका देव अशुभ है ? और मेरी प्रज्वलित क्रोधाग्नि में कौन पतंग बनकर गिरना चाहता है ? ।। 9 ।।<span id="10" /> जिसका मन विवेक से रहित है, जो अपवित्र आचरण करने वाला है और जिसने दोनों लोकों को दूषित किया है उस पशुतुल्य पापी को धिक्कार है ।। 10॥<span id="11" /> रोना व्यर्थ है तुम अन्य साधारण स्त्री के समान थोड़े ही हो । वडवानल की शिखा के समान जिसने तुम्हें छुआ है उसका नाम कहो ।। 11 ।।<span id="12" /> निरंकुश हाथी को सिंह के समान मैं आज ही उसे हस्ततल से पीसकर यमराज के घर भेज दूंगा ।। 12 ।।<span id="13" /> इस प्रकार कहने पर कड़े कष्ट से रोना छोड़कर वह गद्गद वाणी में बोली । उस समय उसके कपोल आंसूओं से भीग रहे थे तथा बिखरे हुए बालों से आच्छन्न थे ॥13॥<span id="14" /> उसने कहा कि मैं अभी वन के मध्य में स्थित पुत्र को देखने के लिए गयी थी सो मैंने देखा कि उसका मस्तक अभी हाल | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर जब अनिच्छा से चंद्रनखा का काम नष्ट हो गया तब तट को भग्न करने वाले नद के समान दुःख का पूर उसे पुनः प्राप्त हो गया ॥1॥<span id="2" /> जिसका शरीर शोकरूपी अग्नि से संतप्त हो रहा था ऐसी चंद्रनखा, मृतवत्सा गाय के समान व्याकुल होकर नाना प्रकार का विलाप करने लगी ।। 2 ।।<span id="3" /> जो पूर्वोक्त अपमान को धारण कर रही थी, जिसका मन क्रोध और दीनता में स्थित था तया जिसके नेत्रों से अश्रु झर रहे थे ऐसी चंद्रनखा को खरदूषण ने देखा ।।3।।<span id="8" /> जिसका धैर्य नष्ट हो गया था, जो पृथिवी की धूलि से धूसरित थी, जिसके केशों का समूह बिखरा हुआ था, जिसकी मेखला ढीली हो गयी थी, जिसकी बगलों, जाँघों तथा स्तनों की भूमि नखों से विक्षत थी, जो रुधिर से युक्त थी, जिसके कर्णाभरण गिर गये थे, जो हार और लावण्य से रहित थी,जिसकी चोली फट गयी थी, जिसके शरीर का स्वाभाविक तेज नष्ट हो गया था, और जो मदोन्मत्त हाथी के द्वारा मुदित कमलिनी के समान जान पड़ती थी ऐसी चंद्रनखा को सांत्वना देकर खरदूषण ने पूछा कि हे प्रिये ! शीघ्र ही बताओ तुम किस दुष्ट के द्वारा इस अवस्था को प्राप्त करायी गयी हो ? ꠰꠰4-7 ।। आज किसका आठवाँ चंद्रमा है ? मृत्यु के द्वारा कौन देखा गया है ? पहाड़ की चोटी पर कौन सो रहा है और कौन मूर्ख सर्प के साथ क्रीड़ा कर रहा है ? ॥8॥<span id="9" /> कौन अंधा कुएँ में आकर पड़ा है ? किसका देव अशुभ है ? और मेरी प्रज्वलित क्रोधाग्नि में कौन पतंग बनकर गिरना चाहता है ? ।। 9 ।।<span id="10" /> जिसका मन विवेक से रहित है, जो अपवित्र आचरण करने वाला है और जिसने दोनों लोकों को दूषित किया है उस पशुतुल्य पापी को धिक्कार है ।। 10॥<span id="11" /> रोना व्यर्थ है तुम अन्य साधारण स्त्री के समान थोड़े ही हो । वडवानल की शिखा के समान जिसने तुम्हें छुआ है उसका नाम कहो ।। 11 ।।<span id="12" /> निरंकुश हाथी को सिंह के समान मैं आज ही उसे हस्ततल से पीसकर यमराज के घर भेज दूंगा ।। 12 ।।<span id="13" /> इस प्रकार कहने पर कड़े कष्ट से रोना छोड़कर वह गद्गद वाणी में बोली । उस समय उसके कपोल आंसूओं से भीग रहे थे तथा बिखरे हुए बालों से आच्छन्न थे ॥13॥<span id="14" /> उसने कहा कि मैं अभी वन के मध्य में स्थित पुत्र को देखने के लिए गयी थी सो मैंने देखा कि उसका मस्तक अभी हाल किसी ने काट डाला है ॥14॥<span id="15" /> निरंतर निकली हुई रुधिर की धाराओं से वंशस्थल का मूल भाग अग्नि से प्रज्वलित के समान दिखाई देता है ।। 15 ।।<span id="16" /> शांति से बैठे हुए मेरे सुपुत्र को किसी ने मारकर पूजा के साथ-साथ प्राप्त हुआ वह खड̖ग रत्न ले लिया है ॥16॥<span id="17" /> जो हजारों दुःखों का पात्र तथा भाग्य से हीन है ऐसी मैं पुत्र के मस्तक को गोद में रखकर विलाप कर रही थी ॥17॥<span id="18" /> कि शंबूक का वध करने वाले उस दुष्ट ने दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया तथा कुछ अनर्थ करने की इच्छा की ॥18॥<span id="19" /> यद्यपि मैंने उससे कहा कि मुझे छोड़-छोड़ तो भी वह कोई नीच कुलोत्पन्न पुरुष था इसलिए गाढ़ स्पर्श के वशीभूत हुए उसने मुझे छोड़ा नहीं ॥19॥<span id="20" /> उसने उस निर्जन वन में नखों तथा दांतों से छिन्न-भिन्न कर मुझे इस दशा को प्राप्त कराया है सो आप ही सोचिए कि अबला कहां और बलवान् पुरुष कहाँ ? ॥20॥<span id="21" /> इतना सब होनेपर भी किसी अवशिष्ट पुण्य ने मेरी रक्षा की और मैं चारित्र को अखंडित रखती हुई बड़े कष्ट से आज उससे बचकर निकल सकी हूँ ।। 21 ।।<span id="22" /><span id="23" /> जो समस्त विद्याधरों का स्वामी है, तीन लोक के क्षोभ का कारण है, और इंद्र भी जिसे पराजित नहीं कर सका ऐसा प्रसिद्ध रावण मेरा भाई है तथा तुम खरदूषण नामधारी अद्भुत पुरुष मेरे भर्ता हो फिर भी दैवयोग से मैं इस अवस्था को प्राप्त हुई हैं ॥22-23॥<span id="24" /></p> | ||
<p> तदनंतर चंद्रनखा के वचन सुनकर शोक और क्रोध से ताड़ित हुए महावेगशाली खरदूषण ने स्वयं जाकर पुत्र को मरा देखा ॥24॥<span id="25" /> यद्यपि वह पहले मृग के समान नेत्रों को धारण करने वाला और पूर्ण चंद्रमा के समान उज्ज्वल था तो भी पुत्र को मरा देख ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकालीन सूर्य के समान भयंकर हो गया ॥25 ।।<span id="26" /> उसने शीघ्र ही वापस आकर और अपने भवन में प्रवेश कर मित्रों के साथ स्वल्पकालीन मंत्रणा की ।। 26 ।।<span id="27" /><span id="28" /> उनमें से कठोर अभिप्राय के धारक तथा सेवा में तत्पर रहने वाले कितने ही मंत्री राजा का अभिप्राय जानकर शीघ्र हो कहने लगे कि जिसने शंबुक को मारा है तथा खड̖ग रत्न हथिया लिया है । हे राजन् ! यदि उसकी उपेक्षा की जायेगी तो वह क्या नहीं करेगा? ॥27-28 ।।<span id="29" /> कुछ विवेकी मंत्री इस प्रकार बोले कि हे नाथ! यह कार्य जल्दी करने का नहीं है इसलिए सब सामंतों को बुलाओ और रावण को भी खबर दी जाये ।। 29 ।<span id="30" /> जिसे खड̖ग रत्न प्राप्त हुआ है वह सुखपूर्वक वश में कैसे किया जा सकता है ? इसलिए मिलकर समूह के द्वारा करने योग्य इस कार्य में उतावली करना ठीक नहीं है ॥30॥<span id="31" /></p> | <p> तदनंतर चंद्रनखा के वचन सुनकर शोक और क्रोध से ताड़ित हुए महावेगशाली खरदूषण ने स्वयं जाकर पुत्र को मरा देखा ॥24॥<span id="25" /> यद्यपि वह पहले मृग के समान नेत्रों को धारण करने वाला और पूर्ण चंद्रमा के समान उज्ज्वल था तो भी पुत्र को मरा देख ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकालीन सूर्य के समान भयंकर हो गया ॥25 ।।<span id="26" /> उसने शीघ्र ही वापस आकर और अपने भवन में प्रवेश कर मित्रों के साथ स्वल्पकालीन मंत्रणा की ।। 26 ।।<span id="27" /><span id="28" /> उनमें से कठोर अभिप्राय के धारक तथा सेवा में तत्पर रहने वाले कितने ही मंत्री राजा का अभिप्राय जानकर शीघ्र हो कहने लगे कि जिसने शंबुक को मारा है तथा खड̖ग रत्न हथिया लिया है । हे राजन् ! यदि उसकी उपेक्षा की जायेगी तो वह क्या नहीं करेगा? ॥27-28 ।।<span id="29" /> कुछ विवेकी मंत्री इस प्रकार बोले कि हे नाथ! यह कार्य जल्दी करने का नहीं है इसलिए सब सामंतों को बुलाओ और रावण को भी खबर दी जाये ।। 29 ।<span id="30" /> जिसे खड̖ग रत्न प्राप्त हुआ है वह सुखपूर्वक वश में कैसे किया जा सकता है ? इसलिए मिलकर समूह के द्वारा करने योग्य इस कार्य में उतावली करना ठीक नहीं है ॥30॥<span id="31" /></p> | ||
<p> तदनंतर उसने गुरुजनों के वचनों के अनुरोध से रावण को खबर देने के लिए एक तरुण तथा वेगशाली दूत लंका को भेजा ॥31॥<span id="32" /> उधर कार्य सिद्ध करने में तत्पर रहने वाला वह दूत, किसी राज्य धैर्य के कारण चिर काल तक रावण के पास बैठा रहा ॥32॥<span id="33" /><span id="34" /> इधर तीन क्रोध से जिसकी आत्मा व्याप्त हो रही थी तथा जिसका मन पुत्र के गुणों में बार-बार जा रहा था ऐसा खरदूषण पुनः बोला कि माया से रहित क्षुद्र भूमिगोचरी प्राणियों के द्वारा, क्षोभ को प्राप्त हुआ दिव्य सेनारूपी सागर नहीं तैरा जा सकता ॥33-34॥<span id="35" /> हमारी इस शूरवीरता को धिक्कार है जो अन्य सहायकों की वांछा करती है । मेरी वह भुजा किस काम को जो अपनी ही दूसरी भुजा की इच्छा करती है ॥35॥<span id="36" /> इस प्रकार कहकर जो परम अभिमान को धारण कर रहा था तथा क्रोध के कारण जिसका मुख कंपित हो रहा था ऐसा शीघ्रता से भरा खरदूषण मित्रों के बीच से उठकर आकाश में जा उड़ा ॥36।।<span id="37" /> उसे हठ में तत्पर देख उसके चौदह हजार मित्र जो पहले से तैयार थे क्षण भर में नगर से बाहर निकल पड़े ॥37।।<span id="38" /> राक्षसों की उस सेना के, क्षोभ को प्राप्त हुए सागर के समान शब्द वाले वादित्रों का शब्द सुनकर सीता सय को प्राप्त हई ॥38॥<span id="39" /> हे नाथ ! यह क्या है ? क्या है ? इस प्रकार शब्दों का उच्चारण करती हुई वह भर्तार से उस प्रकार लिपट गयी जिस प्रकार कि लता कल्प वृक्ष से लिपट जाती है ।। 39 ।।<span id="40" /> नहीं डरना चाहिए, नहीं डरना चाहिए इस प्रकार उसे सांत्वना देकर राम ने विचार किया कि यह अत्यंत दुर्धर शब्द किसका होना चाहिए ? ।।40 ।।<span id="41" /> क्या यह सिंह का शब्द है या मेघ को ध्वनि है अथवा समुद्र की गर्जना समस्त आकाश को व्याप्त कर रही है ॥41 ।।<span id="42" /> उन्होंने सीता से कहा कि हे प्रिये ! जान पड़ता है ये मनोहर गमन करने वाले तथा पंखों को हिलाने वाले राजहंस पक्षी आकाशरूपी आँगन में शब्द करते हुए जा रहे हैं ।। 42 ।।<span id="43" /> अथवा तुझे भय उत्पन्न करने वाले कोई दूसरे दुष्ट पक्षी ही जा रहे हैं । हे प्रिये ! धनुष देओ, जिससे मैं इन्हें प्रलय को प्राप्त करा दूं ॥43॥<span id="44" /><span id="45" /> तदनंतर नाना प्रकार के शस्त्रों से युक्त, वायु से प्रेरित मेघसमूह के समान दिखने वालो बड़ी भारी सेना को समीप में आती देख राम ने कहा कि क्या ये महातेज के धारक देव भक्तिपूर्वक जिनेंद्र देव की वंदना करने के लिए नंदीश्वर द्वीप को जा रहे हैं ।। 44-45 ।।<span id="46" /> अथवा बाँस के भिड़े को छेदकर तथा किसी मनुष्य को मारकर यह खड̖गरत्न लक्ष्मण ने लिया है सो मायावी शत्रु ही आ पहुंचे हैं ॥46॥<span id="47" /> अथवा जान पड़ता है कि उस दुराचारिणी मायाविनी स्त्री ने हम लोगों को दुःख देने के लिए आत्मीय जनों को क्षोभित किया है ।। 47 ।।<span id="48" /> अब निकट में आयी हुई सेना की उपेक्षा करना उचित नहीं है ऐसा कहकर राम ने कवच और धनुष पर दृष्टि डाली ॥48॥<span id="49" /> तब लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर कहा कि हे देव! मेरे रहते हुए आपका क्रोध करना शोभा नहीं देता ॥49।।<span id="50" /> आप राजपुत्री की रक्षा कीजिए और मैं शत्रु की ओर जाता हूँ । यदि मुझ पर आपत्ति आवेगी तो मेरे सिंहनाद से उसे समझ लेना ॥50॥<span id="51" /> इतना कहकर जो कवच से आच्छादित हैं तथा जिसने महाशस्त्र धारण किये हैं ऐसे लक्ष्मण युद्ध के लिए तत्पर हो शत्रु की ओर मुख कर खड़े हो गये ।। 51 ।।<span id="52" /> उत्तम आकार के धारक, मनुष्यों में श्रेष्ठ तथा अतिशय शूरवीर उन लक्ष्मण को देखकर आकाश में स्थित विद्याधरों ने उन्हें इस प्रकार घेर लिया जिस प्रकार कि मेघ किसी पर्वत को घेर लेते हैं ।। 52 ।।<span id="53" /> विद्याधरों के द्वारा चलाये हुए शक्ति, मुद्गर, चक्र, भाले और बाणों का लक्ष्मण ने अपने शस्त्रों से अच्छी तरह निवारण कर दिया ॥53 ।।<span id="54" /> तदनंतर वे विद्याधरों के द्वारा चलाये हुए समस्त शस्त्रों को रोककर उनकी ओर वज्रमय बाण छोड़ने को तत्पर हुए ।। 54।।<span id="55" /> अकेले लक्ष्मण ने विद्याधरों की वह बड़ी भारी सेना अपने बाणों से उस प्रकार रोक लो जिस प्रकार कि मुनि विशिष्ट ज्ञान के द्वारा खोटी इच्छा को रोक लेते हैं ॥55 ।।<span id="56" /> मणिखंडों से युक्त तथा कुंडलों से सुशोभित शत्रुओं के शिर आकाशरूपी सरोवर के कमलों के समान कट-कटकर आकाश से पृथिवी पर गिरने लगे ॥56॥<span id="57" /> पर्वतों के समान बड़े-बड़े हाथी-घोड़ों के साथ-साथ नीचे गिरने लगे तथा ओठों को डंसने वाले बड़े-बड़े योद्धा भयंकर शब्द करने लगे ॥57 ।<span id="58" /> उन सबको मारते हुए लक्ष्मण को यह बड़ा लाभ हुआ कि वे ऊपर की ओर जाने वाले बाणों से योद्धाओं को उनके वाहनों के साथ ही छेद देते थे अर्थात् एक ही प्रहार में वाहन और उनके ऊपर स्थित योद्धाओं को नष्ट कर देते थे ॥58॥<span id="59" /></p> | <p> तदनंतर उसने गुरुजनों के वचनों के अनुरोध से रावण को खबर देने के लिए एक तरुण तथा वेगशाली दूत लंका को भेजा ॥31॥<span id="32" /> उधर कार्य सिद्ध करने में तत्पर रहने वाला वह दूत, किसी राज्य धैर्य के कारण चिर काल तक रावण के पास बैठा रहा ॥32॥<span id="33" /><span id="34" /> इधर तीन क्रोध से जिसकी आत्मा व्याप्त हो रही थी तथा जिसका मन पुत्र के गुणों में बार-बार जा रहा था ऐसा खरदूषण पुनः बोला कि माया से रहित क्षुद्र भूमिगोचरी प्राणियों के द्वारा, क्षोभ को प्राप्त हुआ दिव्य सेनारूपी सागर नहीं तैरा जा सकता ॥33-34॥<span id="35" /> हमारी इस शूरवीरता को धिक्कार है जो अन्य सहायकों की वांछा करती है । मेरी वह भुजा किस काम को जो अपनी ही दूसरी भुजा की इच्छा करती है ॥35॥<span id="36" /> इस प्रकार कहकर जो परम अभिमान को धारण कर रहा था तथा क्रोध के कारण जिसका मुख कंपित हो रहा था ऐसा शीघ्रता से भरा खरदूषण मित्रों के बीच से उठकर आकाश में जा उड़ा ॥36।।<span id="37" /> उसे हठ में तत्पर देख उसके चौदह हजार मित्र जो पहले से तैयार थे क्षण भर में नगर से बाहर निकल पड़े ॥37।।<span id="38" /> राक्षसों की उस सेना के, क्षोभ को प्राप्त हुए सागर के समान शब्द वाले वादित्रों का शब्द सुनकर सीता सय को प्राप्त हई ॥38॥<span id="39" /> हे नाथ ! यह क्या है ? क्या है ? इस प्रकार शब्दों का उच्चारण करती हुई वह भर्तार से उस प्रकार लिपट गयी जिस प्रकार कि लता कल्प वृक्ष से लिपट जाती है ।। 39 ।।<span id="40" /> नहीं डरना चाहिए, नहीं डरना चाहिए इस प्रकार उसे सांत्वना देकर राम ने विचार किया कि यह अत्यंत दुर्धर शब्द किसका होना चाहिए ? ।।40 ।।<span id="41" /> क्या यह सिंह का शब्द है या मेघ को ध्वनि है अथवा समुद्र की गर्जना समस्त आकाश को व्याप्त कर रही है ॥41 ।।<span id="42" /> उन्होंने सीता से कहा कि हे प्रिये ! जान पड़ता है ये मनोहर गमन करने वाले तथा पंखों को हिलाने वाले राजहंस पक्षी आकाशरूपी आँगन में शब्द करते हुए जा रहे हैं ।। 42 ।।<span id="43" /> अथवा तुझे भय उत्पन्न करने वाले कोई दूसरे दुष्ट पक्षी ही जा रहे हैं । हे प्रिये ! धनुष देओ, जिससे मैं इन्हें प्रलय को प्राप्त करा दूं ॥43॥<span id="44" /><span id="45" /> तदनंतर नाना प्रकार के शस्त्रों से युक्त, वायु से प्रेरित मेघसमूह के समान दिखने वालो बड़ी भारी सेना को समीप में आती देख राम ने कहा कि क्या ये महातेज के धारक देव भक्तिपूर्वक जिनेंद्र देव की वंदना करने के लिए नंदीश्वर द्वीप को जा रहे हैं ।। 44-45 ।।<span id="46" /> अथवा बाँस के भिड़े को छेदकर तथा किसी मनुष्य को मारकर यह खड̖गरत्न लक्ष्मण ने लिया है सो मायावी शत्रु ही आ पहुंचे हैं ॥46॥<span id="47" /> अथवा जान पड़ता है कि उस दुराचारिणी मायाविनी स्त्री ने हम लोगों को दुःख देने के लिए आत्मीय जनों को क्षोभित किया है ।। 47 ।।<span id="48" /> अब निकट में आयी हुई सेना की उपेक्षा करना उचित नहीं है ऐसा कहकर राम ने कवच और धनुष पर दृष्टि डाली ॥48॥<span id="49" /> तब लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर कहा कि हे देव! मेरे रहते हुए आपका क्रोध करना शोभा नहीं देता ॥49।।<span id="50" /> आप राजपुत्री की रक्षा कीजिए और मैं शत्रु की ओर जाता हूँ । यदि मुझ पर आपत्ति आवेगी तो मेरे सिंहनाद से उसे समझ लेना ॥50॥<span id="51" /> इतना कहकर जो कवच से आच्छादित हैं तथा जिसने महाशस्त्र धारण किये हैं ऐसे लक्ष्मण युद्ध के लिए तत्पर हो शत्रु की ओर मुख कर खड़े हो गये ।। 51 ।।<span id="52" /> उत्तम आकार के धारक, मनुष्यों में श्रेष्ठ तथा अतिशय शूरवीर उन लक्ष्मण को देखकर आकाश में स्थित विद्याधरों ने उन्हें इस प्रकार घेर लिया जिस प्रकार कि मेघ किसी पर्वत को घेर लेते हैं ।। 52 ।।<span id="53" /> विद्याधरों के द्वारा चलाये हुए शक्ति, मुद्गर, चक्र, भाले और बाणों का लक्ष्मण ने अपने शस्त्रों से अच्छी तरह निवारण कर दिया ॥53 ।।<span id="54" /> तदनंतर वे विद्याधरों के द्वारा चलाये हुए समस्त शस्त्रों को रोककर उनकी ओर वज्रमय बाण छोड़ने को तत्पर हुए ।। 54।।<span id="55" /> अकेले लक्ष्मण ने विद्याधरों की वह बड़ी भारी सेना अपने बाणों से उस प्रकार रोक लो जिस प्रकार कि मुनि विशिष्ट ज्ञान के द्वारा खोटी इच्छा को रोक लेते हैं ॥55 ।।<span id="56" /> मणिखंडों से युक्त तथा कुंडलों से सुशोभित शत्रुओं के शिर आकाशरूपी सरोवर के कमलों के समान कट-कटकर आकाश से पृथिवी पर गिरने लगे ॥56॥<span id="57" /> पर्वतों के समान बड़े-बड़े हाथी-घोड़ों के साथ-साथ नीचे गिरने लगे तथा ओठों को डंसने वाले बड़े-बड़े योद्धा भयंकर शब्द करने लगे ॥57 ।<span id="58" /> उन सबको मारते हुए लक्ष्मण को यह बड़ा लाभ हुआ कि वे ऊपर की ओर जाने वाले बाणों से योद्धाओं को उनके वाहनों के साथ ही छेद देते थे अर्थात् एक ही प्रहार में वाहन और उनके ऊपर स्थित योद्धाओं को नष्ट कर देते थे ॥58॥<span id="59" /></p> | ||
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<p> अथानंतर जब लक्ष्मण और खरदूषण के बीच शस्त्रों के अंधकार से युक्त महायुद्ध हो रह था तब रावण ने सिंहनाद कर बार-बार राम ! राम ।। इस प्रकार उच्चारण किया ॥78॥<span id="79" /> उस सिंहनाद को सुनकर राम ने समझा कि यह लक्ष्मण ने ही किया है ऐसा विचारकर वे प्रीतिवश व्याकुलित चित्त हो अरति को प्राप्त हुए ॥79 ।।<span id="80" /> तदनंतर उन्होंने सीता को अत्यधिक मालाओं से अच्छी तरह ढक दिया और कहा कि हे प्रिये ! तुम क्षण-भर यहाँ ठहरो, भय मत करो ॥80 ।<span id="81" /> सीता से इतना कहने के बाद उन्होंने जटायु से भी कहा कि हे भद्र ! यदि तुम मेरे द्वारा किये हुए उपकार का स्मरण रखते हो तो मित्र को स्त्री की प्रयत्न पूर्वक रक्षा करना ॥81॥<span id="82" /> इतना कहकर यद्यपि क्रंदन करने वाले पक्षियों ने उन्हें रो का भी था तो भी वे निर्जन वन में सीता को छोड़कर वेग से युद्ध में प्रविष्ट हो गये ॥82॥<span id="83" /><span id="84" /></p> | <p> अथानंतर जब लक्ष्मण और खरदूषण के बीच शस्त्रों के अंधकार से युक्त महायुद्ध हो रह था तब रावण ने सिंहनाद कर बार-बार राम ! राम ।। इस प्रकार उच्चारण किया ॥78॥<span id="79" /> उस सिंहनाद को सुनकर राम ने समझा कि यह लक्ष्मण ने ही किया है ऐसा विचारकर वे प्रीतिवश व्याकुलित चित्त हो अरति को प्राप्त हुए ॥79 ।।<span id="80" /> तदनंतर उन्होंने सीता को अत्यधिक मालाओं से अच्छी तरह ढक दिया और कहा कि हे प्रिये ! तुम क्षण-भर यहाँ ठहरो, भय मत करो ॥80 ।<span id="81" /> सीता से इतना कहने के बाद उन्होंने जटायु से भी कहा कि हे भद्र ! यदि तुम मेरे द्वारा किये हुए उपकार का स्मरण रखते हो तो मित्र को स्त्री की प्रयत्न पूर्वक रक्षा करना ॥81॥<span id="82" /> इतना कहकर यद्यपि क्रंदन करने वाले पक्षियों ने उन्हें रो का भी था तो भी वे निर्जन वन में सीता को छोड़कर वेग से युद्ध में प्रविष्ट हो गये ॥82॥<span id="83" /><span id="84" /></p> | ||
<p> इसी बीच में विद्या के आलोक से निपुण रावण, कपालिनी को हाथी के समान दोनों भुजाओं से सीता को उठाकर आकाश में स्थित पुष्पक विमान में चढ़ाने का प्रयत्न करने लगा । उस समय उसकी आत्मा काम की दाह से दग्ध हो रही थी तथा उसने समस्त धर्मबुद्धि को भुला दिया था ॥83-84॥<span id="85" /><span id="86" /> तदनंतर स्वामी को प्रिय वनिता को हरी जाती देख जिसकी आत्मा क्रोधाग्नि से प्रज्वलित हो रही थी ऐसा जटायु, वेग से आकाश में उड़कर खून से गीले रावण के वक्षःस्थलरूपी खेत को अत्यंत तीक्ष्ण अग्रभाग को धारण करने वाले नखरूपी हलों के द्वारा जोतने लगा ॥85-86 ।।<span id="87" /> तत्पश्चात् अतिशय बलवान् जटायु ने वायु के द्वारा वस्त्रों को फाड़ने वाले कठोर तथा वेगशाली पंखों के आघात से रावण के समस्त शरीर को छिन्न-भिन्न कर डाला ।।87॥<span id="88" /> तदनंतर इष्ट वस्तु में बाधा डालने से क्रोध को प्राप्त हुए रावण ने हस्ततल के प्रहार से ही जटायु को मारकर पृथ्वीतल पर भेज दिया अर्थात् नीचे गिरा दिया ।। 88 ।।<span id="89" /> तदनंतर कठोर प्रहार से जिसका मन अत्यंत विकल हो रहा था ऐसा दुःख से भरा जटायु पक्षी कें-कें करता हुआ मूर्च्छित हो गया ।। 89 ।।<span id="90" /> तत्पश्चात् बिना किसी विघ्न-बाधा के सीता को पुष्पक विमान पर चढ़ाकर काम को ठीक जानने वाला रावण इच्छानुसार चला गया ॥90।।<span id="11" /> सीता का राम में अत्यधिक राग था इसलिए अपने आपको अपहृत जान शोक के वशीभूत हो वह आर्तनाद करती हुई विलाप करने लगी ॥11॥<span id="92" /> तदनंतर अपने भर्ता में जिसका चित्त आसक्त था ऐसी सीता को रोती देख रावण कुछ विरक्त-सा हो गया ॥92 ।।<span id="93" /> वह विचार करने लगा कि इसके हृदय में मेरे लिए आदर ही क्या है यह तो किसी दूसरे के लिए ही करुण रुदन कर रही है उसमें ही इसके प्राण आसक्त हैं तथा उसी के विरह से आकुल हो रही है ॥93 ।।<span id="94" /> सत्पुरुषों को इष्ट हैं ऐसे अन्य पुरुष संबंधी गुणों का बार-बार कथन करती हुई यह अत्यंत शोक के धारण करने में तत्पर है ।। 94 ।।<span id="95" /> तो क्या इस खड̖ग से इस मूर्खा को मार डालूँ अथवा नहीं, स्त्री को मारने के लिए चित्त प्रवृत्त नहीं होता ॥95 ।।<span id="96" /><span id="97" /> अथवा अधीर होने की बात नहीं है क्योंकि जो राजा कुपित होता है उसे शीघ्र ही प्रसन्न नहीं किया जा सकता । इसी प्रकार इष्टवस्तु का पाना, कांति अथवा कीर्ति का प्राप्त करना अभीष्ट विद्या, पारलौकिकी क्रिया, मन को आनंद देने वाली भार्या अथवा ओर भी जो कुछ अभिलषित पदार्थ हैं वे सहसा प्राप्त नहीं हो जाते― उन्हें प्राप्त करने के लिए समय लगता ही है ।। 96-97 ।।<span id="28" /> मैंने साधुओं के समक्ष पहले यह नियम लिया था कि जो परस्त्री मुझे नहीं चाहेगी, मुझ पर प्रसन्न नहीं रहेगी मैं उसका उपभोग नहीं करूंगा ॥28॥<span id="99" /> इसलिए इस व्रत की रक्षा करता हुआ मैं इसे प्रसन्नता को प्राप्त कराता हूँ, संभव है कि यह समय पाकर मेरी संपदा के कारण मेरे अनुकूल हो जावेगी ॥99।।<span id="100" /> ऐसा विचार कर रावण ने सीता को गोद से हटाकर अपने समीप ही बैठा दिया सो ठीक ही है क्योंकि कर्म से प्रेरित मृत्यु उसके योग्य समय की प्रतीक्षा करती ही है ॥100॥<span id="101" /></p> | <p> इसी बीच में विद्या के आलोक से निपुण रावण, कपालिनी को हाथी के समान दोनों भुजाओं से सीता को उठाकर आकाश में स्थित पुष्पक विमान में चढ़ाने का प्रयत्न करने लगा । उस समय उसकी आत्मा काम की दाह से दग्ध हो रही थी तथा उसने समस्त धर्मबुद्धि को भुला दिया था ॥83-84॥<span id="85" /><span id="86" /> तदनंतर स्वामी को प्रिय वनिता को हरी जाती देख जिसकी आत्मा क्रोधाग्नि से प्रज्वलित हो रही थी ऐसा जटायु, वेग से आकाश में उड़कर खून से गीले रावण के वक्षःस्थलरूपी खेत को अत्यंत तीक्ष्ण अग्रभाग को धारण करने वाले नखरूपी हलों के द्वारा जोतने लगा ॥85-86 ।।<span id="87" /> तत्पश्चात् अतिशय बलवान् जटायु ने वायु के द्वारा वस्त्रों को फाड़ने वाले कठोर तथा वेगशाली पंखों के आघात से रावण के समस्त शरीर को छिन्न-भिन्न कर डाला ।।87॥<span id="88" /> तदनंतर इष्ट वस्तु में बाधा डालने से क्रोध को प्राप्त हुए रावण ने हस्ततल के प्रहार से ही जटायु को मारकर पृथ्वीतल पर भेज दिया अर्थात् नीचे गिरा दिया ।। 88 ।।<span id="89" /> तदनंतर कठोर प्रहार से जिसका मन अत्यंत विकल हो रहा था ऐसा दुःख से भरा जटायु पक्षी कें-कें करता हुआ मूर्च्छित हो गया ।। 89 ।।<span id="90" /> तत्पश्चात् बिना किसी विघ्न-बाधा के सीता को पुष्पक विमान पर चढ़ाकर काम को ठीक जानने वाला रावण इच्छानुसार चला गया ॥90।।<span id="11" /> सीता का राम में अत्यधिक राग था इसलिए अपने आपको अपहृत जान शोक के वशीभूत हो वह आर्तनाद करती हुई विलाप करने लगी ॥11॥<span id="92" /> तदनंतर अपने भर्ता में जिसका चित्त आसक्त था ऐसी सीता को रोती देख रावण कुछ विरक्त-सा हो गया ॥92 ।।<span id="93" /> वह विचार करने लगा कि इसके हृदय में मेरे लिए आदर ही क्या है यह तो किसी दूसरे के लिए ही करुण रुदन कर रही है उसमें ही इसके प्राण आसक्त हैं तथा उसी के विरह से आकुल हो रही है ॥93 ।।<span id="94" /> सत्पुरुषों को इष्ट हैं ऐसे अन्य पुरुष संबंधी गुणों का बार-बार कथन करती हुई यह अत्यंत शोक के धारण करने में तत्पर है ।। 94 ।।<span id="95" /> तो क्या इस खड̖ग से इस मूर्खा को मार डालूँ अथवा नहीं, स्त्री को मारने के लिए चित्त प्रवृत्त नहीं होता ॥95 ।।<span id="96" /><span id="97" /> अथवा अधीर होने की बात नहीं है क्योंकि जो राजा कुपित होता है उसे शीघ्र ही प्रसन्न नहीं किया जा सकता । इसी प्रकार इष्टवस्तु का पाना, कांति अथवा कीर्ति का प्राप्त करना अभीष्ट विद्या, पारलौकिकी क्रिया, मन को आनंद देने वाली भार्या अथवा ओर भी जो कुछ अभिलषित पदार्थ हैं वे सहसा प्राप्त नहीं हो जाते― उन्हें प्राप्त करने के लिए समय लगता ही है ।। 96-97 ।।<span id="28" /> मैंने साधुओं के समक्ष पहले यह नियम लिया था कि जो परस्त्री मुझे नहीं चाहेगी, मुझ पर प्रसन्न नहीं रहेगी मैं उसका उपभोग नहीं करूंगा ॥28॥<span id="99" /> इसलिए इस व्रत की रक्षा करता हुआ मैं इसे प्रसन्नता को प्राप्त कराता हूँ, संभव है कि यह समय पाकर मेरी संपदा के कारण मेरे अनुकूल हो जावेगी ॥99।।<span id="100" /> ऐसा विचार कर रावण ने सीता को गोद से हटाकर अपने समीप ही बैठा दिया सो ठीक ही है क्योंकि कर्म से प्रेरित मृत्यु उसके योग्य समय की प्रतीक्षा करती ही है ॥100॥<span id="101" /></p> | ||
<p> अथानंतर बाणरूपी जल की धाराओं से आकुल युद्ध के मैदान में राम को प्रविष्ट देख लक्ष्मण ने कहा ।। 101 ।।<span id="102" /> कि हाय देव ! बड़े दुःख की बात है आप विघ्नों से व्याप्त वन में सीता को अकेली छोड़ इस भूमि में किस लिए आये ? ॥102॥<span id="103" /> राम ने कहा कि मैं तुम्हारा शब्द सुनकर शीघ्रता से यहाँ आया हूँ । इसके उत्तर में लक्ष्मण ने कहा कि आप शीघ्र ही | <p> अथानंतर बाणरूपी जल की धाराओं से आकुल युद्ध के मैदान में राम को प्रविष्ट देख लक्ष्मण ने कहा ।। 101 ।।<span id="102" /> कि हाय देव ! बड़े दुःख की बात है आप विघ्नों से व्याप्त वन में सीता को अकेली छोड़ इस भूमि में किस लिए आये ? ॥102॥<span id="103" /> राम ने कहा कि मैं तुम्हारा शब्द सुनकर शीघ्रता से यहाँ आया हूँ । इसके उत्तर में लक्ष्मण ने कहा कि आप शीघ्र ही चले जाइए, आपने अच्छा नहीं किया ।। 103 ।।<span id="104" /> परम उत्साह से भरे हुए तुम बलवान् शत्रु को सब प्रकार से जीतो इस प्रकार कह कर शंका से युक्त तथा चंचल चित्त के धारक राम जानकी की ओर वापस चले गये ॥104 ।।<span id="105" /> जब गम क्षण-भर में वहाँ वापस लौटे तब उन्हें सीता नहीं दिखाई दी । इस घटना से राम ने अपने वित्त को नष्ट हुआ-सा अथवा च्युत हुआ-सा माना ॥105 ।।<span id="106" /> हा सीते! इस प्रकार कहकर राम मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़े और भर्ता के द्वारा आलिंगित भूमि सुशोभित हो उठी ।। 106 ।।<span id="107" /> तदनंतर जब संज्ञा को प्राप्त हुए तब वृक्षों से व्याप्त वन में इधर-उधर दृष्टि डालते हुए प्रेमपूर्ण आत्मा के धारक राम, अत्यंत व्याकुल होते हुए इस प्रकार कहने लगे ॥107॥<span id="108" /> कि हे देवि ! तुम कहाँ चली गयी हो ? शीघ्र ही वचन देओ । चिरकाल तक हँसी करने से क्या लाभ है ? मैंने तुम्हें वृक्षों के मध्य चलती हुई देखा है ।। 108॥<span id="109" /> हे प्रिये ! आओ-आओ, मैं प्रयाण कर रहा हूँ, क्रोध करने से क्या प्रयोजन है ? हे देवि ! तुम यह जानती ही हो कि दीर्घकाल तक तुम्हारे क्रोध करने से मुझे सुख नहीं होता है ॥109 ।।<span id="110" /> इस प्रकार शब्द करने तथा गुफाओं से युक्त उस स्थान में भ्रमण करते हुए राम ने धोरे-धीरे कें-कें करते हुए मरणोन्मुख जटायु को देखा ॥110 ।।<span id="111" /> तदनंतर अत्यंत दुःखित होकर राम ने उस मरणोन्मुख पक्षो के कान में णमोकार मंत्र का जाप दिया और उसके प्रभाव से वह पक्षी देवपर्याय को प्राप्त हुआ ॥111 ।।<span id="112" /> वियोगाग्नि से व्याप्त राम उस पक्षी के मरने पर शोक से पीड़ित हो निर्जन वन में पुनः मूर्च्छा को प्राप्त हो गये ॥112॥<span id="113" /> जब सचेत हुए तब सब ओर दृष्टि डालकर निराशता के कारण व्याकुल तथा खिन्न चित्त होकर करुण विलाप करने लगे ॥113॥<span id="114" /> वे कहने लगे कि हाय-हाय भयंकर वन में छिद्र पाकर कठोर कार्य करने वाले किसी दुष्ट ने सीता का हरण कर मुझे नष्ट किया है ॥114।।<span id="115" /> अब बिछुड़ी हुई उस सीता को दिखाकर समस्त शोक को दूर करता हुआ कौन व्यक्ति इस वन में मेरे परम बांधवपने को प्राप्त होगा ।। 115 ।।<span id="116" /><span id="117" /> हे वृक्षो ! क्या तुमने कोई ऐसी स्त्री देखी है ? जिसकी चंपा के फूल के समान कांति है, कमलदल के समान जिनके नेत्र हैं, जिसका शरीर अत्यंत सुकुमार है, जो स्वभाव से भीरु है, उत्तम गति से युक्त है, हृदय में आनंद उत्पन्न करने वाली है, जिसके मुख की वायु कमल की पराग के समान सुगंधित है तथा जो स्त्रीविषयक अपूर्व सृष्टि है ।। 116-117 ।।<span id="118" /> अरे तुम लोग निरुत्तर क्यों हो ? इस प्रकार कहकर उसके गुणों से आकृष्ट हुए राम पुनः मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़े ॥118 ।।<span id="119" /><span id="120" /> जब सचेत हुए तब कुपित हो वज्रावर्त नामक महाधनुष को चढ़ाकर टंकार का विशाल शब्द करते हुए आस्फालन करने लगे । उसी समय नरश्रेष्ठ राम ने बार-बार अत्यंत तीक्ष्ण सिंहनाद किया । उनका वह सिंहनाद सिंहों को भय उत्पन्न करने वाला था तथा हाथियों ने कान खड़े कर उसे डरते-डरते सुना था ॥119-120 ।।<span id="121" /> पुनः विषाद को प्राप्त होकर तथा धनुष और उत्तरच्छद को उतारकर बैठ गये और तत्काल ही फल देने वाले अपने प्रमाद के प्रति शोक करने लगे ॥121॥<span id="122" /> हाय-हाय जिस प्रकार मोही मनुष्य धर्मबुद्धि को हरा देता है उसी प्रकार लक्ष्मण के सिंहनाद को अच्छी तरह नहीं श्रवण कर विचार के बिना ही शीघ्रता से जाते हुए मैंने प्रिया को हरा दिया है ॥122॥<span id="123" /><span id="124" /> जिस प्रकार संसाररूपी वन में एक बार छूटा हुआ मनुष्य भव, अशुभ कार्य करने वाले प्राणी को पुनः प्राप्त करना कठिन है उसी प्रकार प्रिया का पुनः पाना कठिन है । अथवा समुद्र में गिरे हुए त्रिलोकी मूल्य रत्न को कौन भाग्यशाली मनुष्य दीर्घकाल में भी पुनः प्राप्त कर सकता है ? ॥123-124॥<span id="125" /> यह महागुणों से युक्त वनितारूपी अमृत मेरे हाथ में स्थित होनेपर भी नष्ट हो गया है सो अब पुनः किस उपाय से प्राप्त हो सकेगा? ॥125 ।।<span id="126" /> इस निर्जन वन में किसे दोष दिया जाये ? जान पड़ता है कि मैं उसे छोड़कर गया था इसी क्रोध से वह बेचारी कहीं चली गयी है ॥126 ।।<span id="127" /> मैं पापचारी निर्जन वन में किसके पास जाकर तथा उसे प्रसन्न कर पूछ जो मुझे प्रिया का समाचार बता सके ।। 127 ।।<span id="128" /> "यह तुम्हारी प्राणतुल्य प्रिया है" इस प्रकार अमृत को प्रदान करने वाले वचन से कौन पुरुष मेरे मन और कानों को परम आनंद प्रदान कर सकता है ? ।।128॥<span id="129" /> इस संसार में ऐसा कौन दयालु श्रेष्ठ पुरुष है जो मेरी मुसकुराती हुई निष्पाप कांता को मुझे दिखला सकता है ? ॥129॥<span id="130" /> प्रिया के विरहरूपी अग्नि से जलते हुए मेरे हृदयरूपी घर को कौन मनुष्य समाचार रूपी जल देकर शांत करेगा ? ॥130॥<span id="131" /> इस प्रकार कहकर जो परम उद्वेग को प्राप्त थे, पृथ्वी पर जिनके नेत्र लग रहे थे, और जिनका शरीर अत्यंत निश्चल था ऐसे राम बार-बार कुछ ध्यान करते हुए बैठे थे ॥131।।<span id="132" /> अथानंतर कुछ ही दूरी पर उन्होंने चकवी का मनोहर शब्द सुना सो सुनकर उस दिशा में दृष्टि तथा कान दोनों ही लगाये ॥132॥<span id="133" /> वे विचार करने लगे कि इस पर्वत के समीप ही गंध से सूचित होने वाला कमलवन है सो क्या वह कुतूहल वश उस कमलवन में गयी होगी ? ॥133॥<span id="134" /> नाना प्रकार के फूलों से व्याप्त तथा मन को हरण करने वाला वह स्थान उसका पहले से देखा हुआ है सो संभव है कि वह कदाचित् क्षण-भर के लिए उसके चित्त को हर रहा हो ॥134।।<span id="135" /> ऐसा विचारकर वे उस स्थान पर गये जहाँ चकवी थी । फिर मेरे बिना वह कहाँ जाती है यह विचारकर वे पुनः उद्वेग को प्राप्त हो गये ॥135॥<span id="136" /> अब वे पर्वत को लक्ष्य कर कहने लगे कि हे नाना प्रकार की धातुओं से व्याप्त पर्वत राज ! राजा दशरथ का पुत्र पद्म ( राम ) तुम से पूछता है ।।136॥<span id="137" /> कि जिसका शरीर स्थूल स्तनों से नम्रीभूत है, जिसके ओठ बिंब के समान हैं । जो हंस के समान चलती है तथा जिसके उत्तम नितंब हैं ऐसी मन को आनंद देने वाली सीता क्या आपने देखी है ? ॥137 ।।<span id="138" /> उसी समय पर्वत से टकराकर राम के शब्दों की प्रतिध्वनि निकली जिसे सुनकर उन्होंने कहा कि क्या तुम यह कह रहे हो कि हाँ देखी है देखी है तो बताओ वह कहाँ है? कहाँ है ? कुछ समय बाद निश्चय होने पर उन्होंने कहा कि तुम तो केवल ऐसा ही कहते हो जैसा कि मैं कह रहा हूँ जान पड़ता है यह इस प्रकार को प्रतिध्वनि ही है ॥138॥<span id="139" /><span id="140" /> इतना कहकर वे पुनः विचार करने लगे कि वह सती बाला दुर्दैव से प्रेरित होकर कहाँ गयी होगी ? जिस प्रकार को इच्छा विद्या को हर लेती है उसी प्रकार जिसमें बड़ी-बड़ी तीक्ष्ण तरंगें उठ रही हैं । जो अत्यंत वेग से बहती है तथा जिसमें विवेक नहीं है ऐसी नदी ने कहीं प्रिया को नहीं हर लिया हो ॥139-140।।<span id="141" /> अथवा अत्यंत भूख से पीड़ित तथा अतिशय क्रूर चित्त के धारक किसी सिंह ने साधुओं के साथ स्नेह करने वाली उस प्रिया को खा लिया है ।। 141॥<span id="142" /></p> | ||
<p> जिसका कार्य अत्यंत भयंकर है तथा जिसकी गरदन के बाल खड़े हुए हैं ऐसे सिंह के देखने मात्र से नखादि के स्पर्श के बिना ही वह मर गयी होगी ॥142॥<span id="143" /> मेरा भाई लक्ष्मण भयंकर युद्ध में संशय को प्राप्त है और इधर यह सीता के साथ विरह या पडा है इससे मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता ॥143॥<span id="144" /></p> | <p> जिसका कार्य अत्यंत भयंकर है तथा जिसकी गरदन के बाल खड़े हुए हैं ऐसे सिंह के देखने मात्र से नखादि के स्पर्श के बिना ही वह मर गयी होगी ॥142॥<span id="143" /> मेरा भाई लक्ष्मण भयंकर युद्ध में संशय को प्राप्त है और इधर यह सीता के साथ विरह या पडा है इससे मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता ॥143॥<span id="144" /></p> | ||
<p> मैं इस समस्त संसार को संशय में पडा जानता हूँ अथवा ऐसा जान पड़ता है कि समस्त संसार शून्य दशा को प्राप्त हुआ है सो ठीक ही है क्योंकि दुःख की बड़ी विचित्रता है ॥144॥<span id="145" /> जब तक मैं एक दुःख के अंत को प्राप्त नहीं हो पाता हूँ तब तक दूसरा दुःख आ पड़ता है । अहो ! यह दुःखरूपी सागर बहुत विशाल है ॥145 ।।<span id="146" /> </p> | <p> मैं इस समस्त संसार को संशय में पडा जानता हूँ अथवा ऐसा जान पड़ता है कि समस्त संसार शून्य दशा को प्राप्त हुआ है सो ठीक ही है क्योंकि दुःख की बड़ी विचित्रता है ॥144॥<span id="145" /> जब तक मैं एक दुःख के अंत को प्राप्त नहीं हो पाता हूँ तब तक दूसरा दुःख आ पड़ता है । अहो ! यह दुःखरूपी सागर बहुत विशाल है ॥145 ।।<span id="146" /> </p> |
Revision as of 16:37, 5 November 2023
अथानंतर जब अनिच्छा से चंद्रनखा का काम नष्ट हो गया तब तट को भग्न करने वाले नद के समान दुःख का पूर उसे पुनः प्राप्त हो गया ॥1॥ जिसका शरीर शोकरूपी अग्नि से संतप्त हो रहा था ऐसी चंद्रनखा, मृतवत्सा गाय के समान व्याकुल होकर नाना प्रकार का विलाप करने लगी ।। 2 ।। जो पूर्वोक्त अपमान को धारण कर रही थी, जिसका मन क्रोध और दीनता में स्थित था तया जिसके नेत्रों से अश्रु झर रहे थे ऐसी चंद्रनखा को खरदूषण ने देखा ।।3।। जिसका धैर्य नष्ट हो गया था, जो पृथिवी की धूलि से धूसरित थी, जिसके केशों का समूह बिखरा हुआ था, जिसकी मेखला ढीली हो गयी थी, जिसकी बगलों, जाँघों तथा स्तनों की भूमि नखों से विक्षत थी, जो रुधिर से युक्त थी, जिसके कर्णाभरण गिर गये थे, जो हार और लावण्य से रहित थी,जिसकी चोली फट गयी थी, जिसके शरीर का स्वाभाविक तेज नष्ट हो गया था, और जो मदोन्मत्त हाथी के द्वारा मुदित कमलिनी के समान जान पड़ती थी ऐसी चंद्रनखा को सांत्वना देकर खरदूषण ने पूछा कि हे प्रिये ! शीघ्र ही बताओ तुम किस दुष्ट के द्वारा इस अवस्था को प्राप्त करायी गयी हो ? ꠰꠰4-7 ।। आज किसका आठवाँ चंद्रमा है ? मृत्यु के द्वारा कौन देखा गया है ? पहाड़ की चोटी पर कौन सो रहा है और कौन मूर्ख सर्प के साथ क्रीड़ा कर रहा है ? ॥8॥ कौन अंधा कुएँ में आकर पड़ा है ? किसका देव अशुभ है ? और मेरी प्रज्वलित क्रोधाग्नि में कौन पतंग बनकर गिरना चाहता है ? ।। 9 ।। जिसका मन विवेक से रहित है, जो अपवित्र आचरण करने वाला है और जिसने दोनों लोकों को दूषित किया है उस पशुतुल्य पापी को धिक्कार है ।। 10॥ रोना व्यर्थ है तुम अन्य साधारण स्त्री के समान थोड़े ही हो । वडवानल की शिखा के समान जिसने तुम्हें छुआ है उसका नाम कहो ।। 11 ।। निरंकुश हाथी को सिंह के समान मैं आज ही उसे हस्ततल से पीसकर यमराज के घर भेज दूंगा ।। 12 ।। इस प्रकार कहने पर कड़े कष्ट से रोना छोड़कर वह गद्गद वाणी में बोली । उस समय उसके कपोल आंसूओं से भीग रहे थे तथा बिखरे हुए बालों से आच्छन्न थे ॥13॥ उसने कहा कि मैं अभी वन के मध्य में स्थित पुत्र को देखने के लिए गयी थी सो मैंने देखा कि उसका मस्तक अभी हाल किसी ने काट डाला है ॥14॥ निरंतर निकली हुई रुधिर की धाराओं से वंशस्थल का मूल भाग अग्नि से प्रज्वलित के समान दिखाई देता है ।। 15 ।। शांति से बैठे हुए मेरे सुपुत्र को किसी ने मारकर पूजा के साथ-साथ प्राप्त हुआ वह खड̖ग रत्न ले लिया है ॥16॥ जो हजारों दुःखों का पात्र तथा भाग्य से हीन है ऐसी मैं पुत्र के मस्तक को गोद में रखकर विलाप कर रही थी ॥17॥ कि शंबूक का वध करने वाले उस दुष्ट ने दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया तथा कुछ अनर्थ करने की इच्छा की ॥18॥ यद्यपि मैंने उससे कहा कि मुझे छोड़-छोड़ तो भी वह कोई नीच कुलोत्पन्न पुरुष था इसलिए गाढ़ स्पर्श के वशीभूत हुए उसने मुझे छोड़ा नहीं ॥19॥ उसने उस निर्जन वन में नखों तथा दांतों से छिन्न-भिन्न कर मुझे इस दशा को प्राप्त कराया है सो आप ही सोचिए कि अबला कहां और बलवान् पुरुष कहाँ ? ॥20॥ इतना सब होनेपर भी किसी अवशिष्ट पुण्य ने मेरी रक्षा की और मैं चारित्र को अखंडित रखती हुई बड़े कष्ट से आज उससे बचकर निकल सकी हूँ ।। 21 ।। जो समस्त विद्याधरों का स्वामी है, तीन लोक के क्षोभ का कारण है, और इंद्र भी जिसे पराजित नहीं कर सका ऐसा प्रसिद्ध रावण मेरा भाई है तथा तुम खरदूषण नामधारी अद्भुत पुरुष मेरे भर्ता हो फिर भी दैवयोग से मैं इस अवस्था को प्राप्त हुई हैं ॥22-23॥
तदनंतर चंद्रनखा के वचन सुनकर शोक और क्रोध से ताड़ित हुए महावेगशाली खरदूषण ने स्वयं जाकर पुत्र को मरा देखा ॥24॥ यद्यपि वह पहले मृग के समान नेत्रों को धारण करने वाला और पूर्ण चंद्रमा के समान उज्ज्वल था तो भी पुत्र को मरा देख ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकालीन सूर्य के समान भयंकर हो गया ॥25 ।। उसने शीघ्र ही वापस आकर और अपने भवन में प्रवेश कर मित्रों के साथ स्वल्पकालीन मंत्रणा की ।। 26 ।। उनमें से कठोर अभिप्राय के धारक तथा सेवा में तत्पर रहने वाले कितने ही मंत्री राजा का अभिप्राय जानकर शीघ्र हो कहने लगे कि जिसने शंबुक को मारा है तथा खड̖ग रत्न हथिया लिया है । हे राजन् ! यदि उसकी उपेक्षा की जायेगी तो वह क्या नहीं करेगा? ॥27-28 ।। कुछ विवेकी मंत्री इस प्रकार बोले कि हे नाथ! यह कार्य जल्दी करने का नहीं है इसलिए सब सामंतों को बुलाओ और रावण को भी खबर दी जाये ।। 29 । जिसे खड̖ग रत्न प्राप्त हुआ है वह सुखपूर्वक वश में कैसे किया जा सकता है ? इसलिए मिलकर समूह के द्वारा करने योग्य इस कार्य में उतावली करना ठीक नहीं है ॥30॥
तदनंतर उसने गुरुजनों के वचनों के अनुरोध से रावण को खबर देने के लिए एक तरुण तथा वेगशाली दूत लंका को भेजा ॥31॥ उधर कार्य सिद्ध करने में तत्पर रहने वाला वह दूत, किसी राज्य धैर्य के कारण चिर काल तक रावण के पास बैठा रहा ॥32॥ इधर तीन क्रोध से जिसकी आत्मा व्याप्त हो रही थी तथा जिसका मन पुत्र के गुणों में बार-बार जा रहा था ऐसा खरदूषण पुनः बोला कि माया से रहित क्षुद्र भूमिगोचरी प्राणियों के द्वारा, क्षोभ को प्राप्त हुआ दिव्य सेनारूपी सागर नहीं तैरा जा सकता ॥33-34॥ हमारी इस शूरवीरता को धिक्कार है जो अन्य सहायकों की वांछा करती है । मेरी वह भुजा किस काम को जो अपनी ही दूसरी भुजा की इच्छा करती है ॥35॥ इस प्रकार कहकर जो परम अभिमान को धारण कर रहा था तथा क्रोध के कारण जिसका मुख कंपित हो रहा था ऐसा शीघ्रता से भरा खरदूषण मित्रों के बीच से उठकर आकाश में जा उड़ा ॥36।। उसे हठ में तत्पर देख उसके चौदह हजार मित्र जो पहले से तैयार थे क्षण भर में नगर से बाहर निकल पड़े ॥37।। राक्षसों की उस सेना के, क्षोभ को प्राप्त हुए सागर के समान शब्द वाले वादित्रों का शब्द सुनकर सीता सय को प्राप्त हई ॥38॥ हे नाथ ! यह क्या है ? क्या है ? इस प्रकार शब्दों का उच्चारण करती हुई वह भर्तार से उस प्रकार लिपट गयी जिस प्रकार कि लता कल्प वृक्ष से लिपट जाती है ।। 39 ।। नहीं डरना चाहिए, नहीं डरना चाहिए इस प्रकार उसे सांत्वना देकर राम ने विचार किया कि यह अत्यंत दुर्धर शब्द किसका होना चाहिए ? ।।40 ।। क्या यह सिंह का शब्द है या मेघ को ध्वनि है अथवा समुद्र की गर्जना समस्त आकाश को व्याप्त कर रही है ॥41 ।। उन्होंने सीता से कहा कि हे प्रिये ! जान पड़ता है ये मनोहर गमन करने वाले तथा पंखों को हिलाने वाले राजहंस पक्षी आकाशरूपी आँगन में शब्द करते हुए जा रहे हैं ।। 42 ।। अथवा तुझे भय उत्पन्न करने वाले कोई दूसरे दुष्ट पक्षी ही जा रहे हैं । हे प्रिये ! धनुष देओ, जिससे मैं इन्हें प्रलय को प्राप्त करा दूं ॥43॥ तदनंतर नाना प्रकार के शस्त्रों से युक्त, वायु से प्रेरित मेघसमूह के समान दिखने वालो बड़ी भारी सेना को समीप में आती देख राम ने कहा कि क्या ये महातेज के धारक देव भक्तिपूर्वक जिनेंद्र देव की वंदना करने के लिए नंदीश्वर द्वीप को जा रहे हैं ।। 44-45 ।। अथवा बाँस के भिड़े को छेदकर तथा किसी मनुष्य को मारकर यह खड̖गरत्न लक्ष्मण ने लिया है सो मायावी शत्रु ही आ पहुंचे हैं ॥46॥ अथवा जान पड़ता है कि उस दुराचारिणी मायाविनी स्त्री ने हम लोगों को दुःख देने के लिए आत्मीय जनों को क्षोभित किया है ।। 47 ।। अब निकट में आयी हुई सेना की उपेक्षा करना उचित नहीं है ऐसा कहकर राम ने कवच और धनुष पर दृष्टि डाली ॥48॥ तब लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर कहा कि हे देव! मेरे रहते हुए आपका क्रोध करना शोभा नहीं देता ॥49।। आप राजपुत्री की रक्षा कीजिए और मैं शत्रु की ओर जाता हूँ । यदि मुझ पर आपत्ति आवेगी तो मेरे सिंहनाद से उसे समझ लेना ॥50॥ इतना कहकर जो कवच से आच्छादित हैं तथा जिसने महाशस्त्र धारण किये हैं ऐसे लक्ष्मण युद्ध के लिए तत्पर हो शत्रु की ओर मुख कर खड़े हो गये ।। 51 ।। उत्तम आकार के धारक, मनुष्यों में श्रेष्ठ तथा अतिशय शूरवीर उन लक्ष्मण को देखकर आकाश में स्थित विद्याधरों ने उन्हें इस प्रकार घेर लिया जिस प्रकार कि मेघ किसी पर्वत को घेर लेते हैं ।। 52 ।। विद्याधरों के द्वारा चलाये हुए शक्ति, मुद्गर, चक्र, भाले और बाणों का लक्ष्मण ने अपने शस्त्रों से अच्छी तरह निवारण कर दिया ॥53 ।। तदनंतर वे विद्याधरों के द्वारा चलाये हुए समस्त शस्त्रों को रोककर उनकी ओर वज्रमय बाण छोड़ने को तत्पर हुए ।। 54।। अकेले लक्ष्मण ने विद्याधरों की वह बड़ी भारी सेना अपने बाणों से उस प्रकार रोक लो जिस प्रकार कि मुनि विशिष्ट ज्ञान के द्वारा खोटी इच्छा को रोक लेते हैं ॥55 ।। मणिखंडों से युक्त तथा कुंडलों से सुशोभित शत्रुओं के शिर आकाशरूपी सरोवर के कमलों के समान कट-कटकर आकाश से पृथिवी पर गिरने लगे ॥56॥ पर्वतों के समान बड़े-बड़े हाथी-घोड़ों के साथ-साथ नीचे गिरने लगे तथा ओठों को डंसने वाले बड़े-बड़े योद्धा भयंकर शब्द करने लगे ॥57 । उन सबको मारते हुए लक्ष्मण को यह बड़ा लाभ हुआ कि वे ऊपर की ओर जाने वाले बाणों से योद्धाओं को उनके वाहनों के साथ ही छेद देते थे अर्थात् एक ही प्रहार में वाहन और उनके ऊपर स्थित योद्धाओं को नष्ट कर देते थे ॥58॥
तदनंतर इसी बीच में शंबूक के वधकर्ता को मारने के लिए विचार करने वाला, क्रोध से भरा रावण पुष्पक विमान में बैठकर वहाँ आया ॥59।। आते ही उसने महामोह में प्रवेश कराने वाली तथा रति और अरति को धारण करने वाली साक्षात् लक्ष्मी के समान स्थित सीता को देखा ॥60॥ उस सीता का मुख चंद्रमा के समान सुंदर था, वह बंधक पुष्प के समान उत्तम ओष्ठों को धारण करने वाली थी, कृशांगी थी, लक्ष्मी के समान थी, कमलदल के समान उसके नेत्र थे॥61 ।। किसी बड़े हाथी के गंडस्थल के अग्रभाग के समान उन्नत तथा स्थूल स्तन थे, वह यौवन के उदय से संपन्न तथा समस्त स्त्री गुणों से सहित थी ॥62 ।। वह ऐसी जान पड़ती थी मानो इच्छित पुरुष को अनायास ही मारने के लिए कामदेव के द्वारा धारण की हुई अपनी धनुषरूपी लता ही हो । कांति ही उस धनुष रूपी लता की डोरी थी और नेत्र ही उस पर चढ़ाये हुए बाण थे ॥63।। वह सबकी स्मृति को चुराने वाली थी, अत्यंत रूपवती थी और कामरूपी महाज्वर को उत्पन्न करने वाली थी ॥64 ।। उसे देखते ही रावण का क्रोध नष्ट हो गया और दूसरा ही भाव उत्पन्न हो गया सो ठीक ही है क्योंकि मन की गति विचित्र है ॥65॥ वह विचार करने लगा कि इसके बिना मेरा जीवन क्या है ? और इसके विना मेरे घर की शोभा क्या है ? ॥66 ।। इसलिए जब तक कोई मेरा आना नहीं जान लेता है तब तक आज ही मैं इस अनुपम, नवयौवना सुंदरी का अपहरण करता हूँ ॥67 ।। यद्यपि इस कार्य को बलपूर्वक सिद्ध करने की शक्ति मुझ में विद्यमान है किंतु यह कार्य ही ऐसा है कि छिपाने के योग्य है ॥68॥ लोक में अपने गुणों को प्रकट करने वाला मनुष्य भी अत्यधिक लघुता को प्राप्त होता है फिर जो इस प्रकार के दोषों को प्रकट करने वाला है वह प्रिय कैसे हो सकता है ? ॥69॥ मेरी चंद्रमा की किरणों के समान निर्मल कीर्ति समस्त संसार में व्याप्त होकर स्थित है सो वह ऐसा काम करनेपर मलिन न हो जाये ॥70॥ इसलिए अकीर्ति की उत्पत्ति को बचाता हुआ वह स्वार्थ सिद्ध करने में तत्पर हो एकांत में प्रयत्न करता है सो ठीक ही हे क्योंकि लोक परमगुरु है अर्थात् संसार के प्राणी बड़े चतुर हैं ॥71 ।। इस प्रकार विचारकर उसने अवलोकिनी विद्या के द्वारा सीता के हरण करने का वास्तविक उपाय जान लिया । राम-लक्ष्मण तथा सीता के नाम-कुल आदि सबका उसे ठीक-ठीक ज्ञान हो गया॥72॥ जिसे अनेक लोग घेरे हुए हैं ऐसा यह वह लक्ष्मण है, यह राम है, और यह गुणों से प्रसिद्ध सीता है ।। 73 ।। इसके बाद उस रावण ने इस धनुर्धारी राम के लिए आपत्ति स्वरूप सिंहनाद कर के सीता को ऐसे पकड़ लिया जैसे गरुडपक्षी गीध के मुख की मांसपेशी को ले लेता है ।। 74 ।। स्त्री के बेर से अत्यंत क्रोध को प्राप्त हुआ यह खरदूषण अजेय है तथा शक्ति आदि शस्त्रों से इन दोनों भाइयों को क्षण-भर में मार डालेगा ।। 75॥ जिसमें बहुत बड़ा पूर चढ़ रहा है तथा जिसका वेग अत्यंत तीव्र है ऐसे नद में दोनों तटों को गिराने की शक्ति है यह कौन नहीं मानता है ? ॥76 ।। ऐसा विचारकर काम से पीड़ित तथा बालक के समान विवेकशून्य हृदय को धारण करने वाले रावण ने सीता के हरण करने का उस प्रकार निश्चय किया कि जिस प्रकार कोई मारने के लिए विषपान का निश्चय करता है ।। 77 ।।
अथानंतर जब लक्ष्मण और खरदूषण के बीच शस्त्रों के अंधकार से युक्त महायुद्ध हो रह था तब रावण ने सिंहनाद कर बार-बार राम ! राम ।। इस प्रकार उच्चारण किया ॥78॥ उस सिंहनाद को सुनकर राम ने समझा कि यह लक्ष्मण ने ही किया है ऐसा विचारकर वे प्रीतिवश व्याकुलित चित्त हो अरति को प्राप्त हुए ॥79 ।। तदनंतर उन्होंने सीता को अत्यधिक मालाओं से अच्छी तरह ढक दिया और कहा कि हे प्रिये ! तुम क्षण-भर यहाँ ठहरो, भय मत करो ॥80 । सीता से इतना कहने के बाद उन्होंने जटायु से भी कहा कि हे भद्र ! यदि तुम मेरे द्वारा किये हुए उपकार का स्मरण रखते हो तो मित्र को स्त्री की प्रयत्न पूर्वक रक्षा करना ॥81॥ इतना कहकर यद्यपि क्रंदन करने वाले पक्षियों ने उन्हें रो का भी था तो भी वे निर्जन वन में सीता को छोड़कर वेग से युद्ध में प्रविष्ट हो गये ॥82॥
इसी बीच में विद्या के आलोक से निपुण रावण, कपालिनी को हाथी के समान दोनों भुजाओं से सीता को उठाकर आकाश में स्थित पुष्पक विमान में चढ़ाने का प्रयत्न करने लगा । उस समय उसकी आत्मा काम की दाह से दग्ध हो रही थी तथा उसने समस्त धर्मबुद्धि को भुला दिया था ॥83-84॥ तदनंतर स्वामी को प्रिय वनिता को हरी जाती देख जिसकी आत्मा क्रोधाग्नि से प्रज्वलित हो रही थी ऐसा जटायु, वेग से आकाश में उड़कर खून से गीले रावण के वक्षःस्थलरूपी खेत को अत्यंत तीक्ष्ण अग्रभाग को धारण करने वाले नखरूपी हलों के द्वारा जोतने लगा ॥85-86 ।। तत्पश्चात् अतिशय बलवान् जटायु ने वायु के द्वारा वस्त्रों को फाड़ने वाले कठोर तथा वेगशाली पंखों के आघात से रावण के समस्त शरीर को छिन्न-भिन्न कर डाला ।।87॥ तदनंतर इष्ट वस्तु में बाधा डालने से क्रोध को प्राप्त हुए रावण ने हस्ततल के प्रहार से ही जटायु को मारकर पृथ्वीतल पर भेज दिया अर्थात् नीचे गिरा दिया ।। 88 ।। तदनंतर कठोर प्रहार से जिसका मन अत्यंत विकल हो रहा था ऐसा दुःख से भरा जटायु पक्षी कें-कें करता हुआ मूर्च्छित हो गया ।। 89 ।। तत्पश्चात् बिना किसी विघ्न-बाधा के सीता को पुष्पक विमान पर चढ़ाकर काम को ठीक जानने वाला रावण इच्छानुसार चला गया ॥90।। सीता का राम में अत्यधिक राग था इसलिए अपने आपको अपहृत जान शोक के वशीभूत हो वह आर्तनाद करती हुई विलाप करने लगी ॥11॥ तदनंतर अपने भर्ता में जिसका चित्त आसक्त था ऐसी सीता को रोती देख रावण कुछ विरक्त-सा हो गया ॥92 ।। वह विचार करने लगा कि इसके हृदय में मेरे लिए आदर ही क्या है यह तो किसी दूसरे के लिए ही करुण रुदन कर रही है उसमें ही इसके प्राण आसक्त हैं तथा उसी के विरह से आकुल हो रही है ॥93 ।। सत्पुरुषों को इष्ट हैं ऐसे अन्य पुरुष संबंधी गुणों का बार-बार कथन करती हुई यह अत्यंत शोक के धारण करने में तत्पर है ।। 94 ।। तो क्या इस खड̖ग से इस मूर्खा को मार डालूँ अथवा नहीं, स्त्री को मारने के लिए चित्त प्रवृत्त नहीं होता ॥95 ।। अथवा अधीर होने की बात नहीं है क्योंकि जो राजा कुपित होता है उसे शीघ्र ही प्रसन्न नहीं किया जा सकता । इसी प्रकार इष्टवस्तु का पाना, कांति अथवा कीर्ति का प्राप्त करना अभीष्ट विद्या, पारलौकिकी क्रिया, मन को आनंद देने वाली भार्या अथवा ओर भी जो कुछ अभिलषित पदार्थ हैं वे सहसा प्राप्त नहीं हो जाते― उन्हें प्राप्त करने के लिए समय लगता ही है ।। 96-97 ।। मैंने साधुओं के समक्ष पहले यह नियम लिया था कि जो परस्त्री मुझे नहीं चाहेगी, मुझ पर प्रसन्न नहीं रहेगी मैं उसका उपभोग नहीं करूंगा ॥28॥ इसलिए इस व्रत की रक्षा करता हुआ मैं इसे प्रसन्नता को प्राप्त कराता हूँ, संभव है कि यह समय पाकर मेरी संपदा के कारण मेरे अनुकूल हो जावेगी ॥99।। ऐसा विचार कर रावण ने सीता को गोद से हटाकर अपने समीप ही बैठा दिया सो ठीक ही है क्योंकि कर्म से प्रेरित मृत्यु उसके योग्य समय की प्रतीक्षा करती ही है ॥100॥
अथानंतर बाणरूपी जल की धाराओं से आकुल युद्ध के मैदान में राम को प्रविष्ट देख लक्ष्मण ने कहा ।। 101 ।। कि हाय देव ! बड़े दुःख की बात है आप विघ्नों से व्याप्त वन में सीता को अकेली छोड़ इस भूमि में किस लिए आये ? ॥102॥ राम ने कहा कि मैं तुम्हारा शब्द सुनकर शीघ्रता से यहाँ आया हूँ । इसके उत्तर में लक्ष्मण ने कहा कि आप शीघ्र ही चले जाइए, आपने अच्छा नहीं किया ।। 103 ।। परम उत्साह से भरे हुए तुम बलवान् शत्रु को सब प्रकार से जीतो इस प्रकार कह कर शंका से युक्त तथा चंचल चित्त के धारक राम जानकी की ओर वापस चले गये ॥104 ।। जब गम क्षण-भर में वहाँ वापस लौटे तब उन्हें सीता नहीं दिखाई दी । इस घटना से राम ने अपने वित्त को नष्ट हुआ-सा अथवा च्युत हुआ-सा माना ॥105 ।। हा सीते! इस प्रकार कहकर राम मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़े और भर्ता के द्वारा आलिंगित भूमि सुशोभित हो उठी ।। 106 ।। तदनंतर जब संज्ञा को प्राप्त हुए तब वृक्षों से व्याप्त वन में इधर-उधर दृष्टि डालते हुए प्रेमपूर्ण आत्मा के धारक राम, अत्यंत व्याकुल होते हुए इस प्रकार कहने लगे ॥107॥ कि हे देवि ! तुम कहाँ चली गयी हो ? शीघ्र ही वचन देओ । चिरकाल तक हँसी करने से क्या लाभ है ? मैंने तुम्हें वृक्षों के मध्य चलती हुई देखा है ।। 108॥ हे प्रिये ! आओ-आओ, मैं प्रयाण कर रहा हूँ, क्रोध करने से क्या प्रयोजन है ? हे देवि ! तुम यह जानती ही हो कि दीर्घकाल तक तुम्हारे क्रोध करने से मुझे सुख नहीं होता है ॥109 ।। इस प्रकार शब्द करने तथा गुफाओं से युक्त उस स्थान में भ्रमण करते हुए राम ने धोरे-धीरे कें-कें करते हुए मरणोन्मुख जटायु को देखा ॥110 ।। तदनंतर अत्यंत दुःखित होकर राम ने उस मरणोन्मुख पक्षो के कान में णमोकार मंत्र का जाप दिया और उसके प्रभाव से वह पक्षी देवपर्याय को प्राप्त हुआ ॥111 ।। वियोगाग्नि से व्याप्त राम उस पक्षी के मरने पर शोक से पीड़ित हो निर्जन वन में पुनः मूर्च्छा को प्राप्त हो गये ॥112॥ जब सचेत हुए तब सब ओर दृष्टि डालकर निराशता के कारण व्याकुल तथा खिन्न चित्त होकर करुण विलाप करने लगे ॥113॥ वे कहने लगे कि हाय-हाय भयंकर वन में छिद्र पाकर कठोर कार्य करने वाले किसी दुष्ट ने सीता का हरण कर मुझे नष्ट किया है ॥114।। अब बिछुड़ी हुई उस सीता को दिखाकर समस्त शोक को दूर करता हुआ कौन व्यक्ति इस वन में मेरे परम बांधवपने को प्राप्त होगा ।। 115 ।। हे वृक्षो ! क्या तुमने कोई ऐसी स्त्री देखी है ? जिसकी चंपा के फूल के समान कांति है, कमलदल के समान जिनके नेत्र हैं, जिसका शरीर अत्यंत सुकुमार है, जो स्वभाव से भीरु है, उत्तम गति से युक्त है, हृदय में आनंद उत्पन्न करने वाली है, जिसके मुख की वायु कमल की पराग के समान सुगंधित है तथा जो स्त्रीविषयक अपूर्व सृष्टि है ।। 116-117 ।। अरे तुम लोग निरुत्तर क्यों हो ? इस प्रकार कहकर उसके गुणों से आकृष्ट हुए राम पुनः मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़े ॥118 ।। जब सचेत हुए तब कुपित हो वज्रावर्त नामक महाधनुष को चढ़ाकर टंकार का विशाल शब्द करते हुए आस्फालन करने लगे । उसी समय नरश्रेष्ठ राम ने बार-बार अत्यंत तीक्ष्ण सिंहनाद किया । उनका वह सिंहनाद सिंहों को भय उत्पन्न करने वाला था तथा हाथियों ने कान खड़े कर उसे डरते-डरते सुना था ॥119-120 ।। पुनः विषाद को प्राप्त होकर तथा धनुष और उत्तरच्छद को उतारकर बैठ गये और तत्काल ही फल देने वाले अपने प्रमाद के प्रति शोक करने लगे ॥121॥ हाय-हाय जिस प्रकार मोही मनुष्य धर्मबुद्धि को हरा देता है उसी प्रकार लक्ष्मण के सिंहनाद को अच्छी तरह नहीं श्रवण कर विचार के बिना ही शीघ्रता से जाते हुए मैंने प्रिया को हरा दिया है ॥122॥ जिस प्रकार संसाररूपी वन में एक बार छूटा हुआ मनुष्य भव, अशुभ कार्य करने वाले प्राणी को पुनः प्राप्त करना कठिन है उसी प्रकार प्रिया का पुनः पाना कठिन है । अथवा समुद्र में गिरे हुए त्रिलोकी मूल्य रत्न को कौन भाग्यशाली मनुष्य दीर्घकाल में भी पुनः प्राप्त कर सकता है ? ॥123-124॥ यह महागुणों से युक्त वनितारूपी अमृत मेरे हाथ में स्थित होनेपर भी नष्ट हो गया है सो अब पुनः किस उपाय से प्राप्त हो सकेगा? ॥125 ।। इस निर्जन वन में किसे दोष दिया जाये ? जान पड़ता है कि मैं उसे छोड़कर गया था इसी क्रोध से वह बेचारी कहीं चली गयी है ॥126 ।। मैं पापचारी निर्जन वन में किसके पास जाकर तथा उसे प्रसन्न कर पूछ जो मुझे प्रिया का समाचार बता सके ।। 127 ।। "यह तुम्हारी प्राणतुल्य प्रिया है" इस प्रकार अमृत को प्रदान करने वाले वचन से कौन पुरुष मेरे मन और कानों को परम आनंद प्रदान कर सकता है ? ।।128॥ इस संसार में ऐसा कौन दयालु श्रेष्ठ पुरुष है जो मेरी मुसकुराती हुई निष्पाप कांता को मुझे दिखला सकता है ? ॥129॥ प्रिया के विरहरूपी अग्नि से जलते हुए मेरे हृदयरूपी घर को कौन मनुष्य समाचार रूपी जल देकर शांत करेगा ? ॥130॥ इस प्रकार कहकर जो परम उद्वेग को प्राप्त थे, पृथ्वी पर जिनके नेत्र लग रहे थे, और जिनका शरीर अत्यंत निश्चल था ऐसे राम बार-बार कुछ ध्यान करते हुए बैठे थे ॥131।। अथानंतर कुछ ही दूरी पर उन्होंने चकवी का मनोहर शब्द सुना सो सुनकर उस दिशा में दृष्टि तथा कान दोनों ही लगाये ॥132॥ वे विचार करने लगे कि इस पर्वत के समीप ही गंध से सूचित होने वाला कमलवन है सो क्या वह कुतूहल वश उस कमलवन में गयी होगी ? ॥133॥ नाना प्रकार के फूलों से व्याप्त तथा मन को हरण करने वाला वह स्थान उसका पहले से देखा हुआ है सो संभव है कि वह कदाचित् क्षण-भर के लिए उसके चित्त को हर रहा हो ॥134।। ऐसा विचारकर वे उस स्थान पर गये जहाँ चकवी थी । फिर मेरे बिना वह कहाँ जाती है यह विचारकर वे पुनः उद्वेग को प्राप्त हो गये ॥135॥ अब वे पर्वत को लक्ष्य कर कहने लगे कि हे नाना प्रकार की धातुओं से व्याप्त पर्वत राज ! राजा दशरथ का पुत्र पद्म ( राम ) तुम से पूछता है ।।136॥ कि जिसका शरीर स्थूल स्तनों से नम्रीभूत है, जिसके ओठ बिंब के समान हैं । जो हंस के समान चलती है तथा जिसके उत्तम नितंब हैं ऐसी मन को आनंद देने वाली सीता क्या आपने देखी है ? ॥137 ।। उसी समय पर्वत से टकराकर राम के शब्दों की प्रतिध्वनि निकली जिसे सुनकर उन्होंने कहा कि क्या तुम यह कह रहे हो कि हाँ देखी है देखी है तो बताओ वह कहाँ है? कहाँ है ? कुछ समय बाद निश्चय होने पर उन्होंने कहा कि तुम तो केवल ऐसा ही कहते हो जैसा कि मैं कह रहा हूँ जान पड़ता है यह इस प्रकार को प्रतिध्वनि ही है ॥138॥ इतना कहकर वे पुनः विचार करने लगे कि वह सती बाला दुर्दैव से प्रेरित होकर कहाँ गयी होगी ? जिस प्रकार को इच्छा विद्या को हर लेती है उसी प्रकार जिसमें बड़ी-बड़ी तीक्ष्ण तरंगें उठ रही हैं । जो अत्यंत वेग से बहती है तथा जिसमें विवेक नहीं है ऐसी नदी ने कहीं प्रिया को नहीं हर लिया हो ॥139-140।। अथवा अत्यंत भूख से पीड़ित तथा अतिशय क्रूर चित्त के धारक किसी सिंह ने साधुओं के साथ स्नेह करने वाली उस प्रिया को खा लिया है ।। 141॥
जिसका कार्य अत्यंत भयंकर है तथा जिसकी गरदन के बाल खड़े हुए हैं ऐसे सिंह के देखने मात्र से नखादि के स्पर्श के बिना ही वह मर गयी होगी ॥142॥ मेरा भाई लक्ष्मण भयंकर युद्ध में संशय को प्राप्त है और इधर यह सीता के साथ विरह या पडा है इससे मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता ॥143॥
मैं इस समस्त संसार को संशय में पडा जानता हूँ अथवा ऐसा जान पड़ता है कि समस्त संसार शून्य दशा को प्राप्त हुआ है सो ठीक ही है क्योंकि दुःख की बड़ी विचित्रता है ॥144॥ जब तक मैं एक दुःख के अंत को प्राप्त नहीं हो पाता हूँ तब तक दूसरा दुःख आ पड़ता है । अहो ! यह दुःखरूपी सागर बहुत विशाल है ॥145 ।।
प्रायः देखा जाता है कि जो पैर लँगड़ा होता है उसी में चोट लगती है, जो वृक्ष तुषार से सूख जाता है उसी में आग लगती है और जो फिसलता है वही गर्त में पड़ता है प्रायः करके अनर्थ बहुसंख्या में आते हैं ।। 146 ।। तदनंतर वन में भ्रमण कर मृग और पक्षियों को देखते हुए राम अपने रहने के स्थान स्वरूप वन में पुनः प्रविष्ट हुए । वह वन उस समय सीता के बिना शोभा से शून्य जान पड़ता था ॥147॥
तदनंतर जिनका मुख अत्यंत दीन था तथा जिन्होंने सफेद और महीन वस्त्र ओढ़ रखा था ऐसे राम धनुष को डोरी रहित कर पृथिवी पर पड़ रहे ॥148॥ वे बार-बार बहुत देर तक ध्यान करते रहते थे, क्षण-क्षण में उनका शरीर निश्चल हो जाता था, वे निराशता को प्राप्त थे तथा सत्कार शब्द से उनका मुख शब्दायमान हो रहा था ॥149।।
गौतम स्वामी कहते हैं कि अहो जनो! इस प्रकार पूर्वोपार्जित पाप कर्म के उदय से बड़े-बड़े पुरुषों को अतिशय दुःखी देख, जिनेंद्र कथित धर्म में सदा बुद्धि लगाओ ॥150 ।।
जो मनुष्य संसार संबंधी विकारों की संगति से दूर रहकर जिनेंद्र भगवान् के वचनों की उपासना नहीं करते हैं उन शरण रहित तथा इंद्रियों के वशीभूत मनुष्यों को अपना पूर्वोपार्जित कर्मरूपी दुःसह सूर्य सदा संतप्त करता रहता है ।। 151॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में सीताहरण और
रामविलाप का वर्णन करने वाला चौवालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥44॥