अकाय: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">अकाय मार्गणा का लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">अकाय मार्गणा का लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/87 </span><span class="PrakritGatha"> जह कंचणमग्गियं मुच्चइ किट्टेण कलियाराय। तह कायबंधमुक्का अकाट्टया झाणजोएण।87।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार अग्नि में दिया गया सुवर्ण किट्टिका (बहिरंगमल) और कालिमा (अंतरंग मल) इन दोनों प्रकार के मलों से रहित हो जाता है उसी प्रकार ध्यान के योग से शुद्ध हुए और काय के बंधन से मुक्त हुए जीव अकायिक जानना चाहिए। | <span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/87 </span><span class="PrakritGatha"> जह कंचणमग्गियं मुच्चइ किट्टेण कलियाराय। तह कायबंधमुक्का अकाट्टया झाणजोएण।87।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार अग्नि में दिया गया सुवर्ण किट्टिका (बहिरंगमल) और कालिमा (अंतरंग मल) इन दोनों प्रकार के मलों से रहित हो जाता है उसी प्रकार ध्यान के योग से शुद्ध हुए और काय के बंधन से मुक्त हुए जीव अकायिक जानना चाहिए। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,39/ 144/266 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/203/449 )</span>।</span></li><br /> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">बहुप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">बहुप्रदेशी भी सिद्ध जीव अकाय कैसे हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला/1/1,1,46/277/6 </span><span class="SanskritText">जीवप्रदेशप्रचयात्मकत्वात्सिद्धा अपि सकाया इति चेन्न, तेषामनादिबंधनबद्धजीवप्रदेशात्मकत्वात्। अनादिप्रचयोऽपि काय: किन्न स्यादिति चेन्न, मूर्तानां पुद्गलानां कर्मनोकर्मपर्यायपरिणतानां सादिसांतप्रचयस्य कायत्वाभ्युपगमात्।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—जीव प्रदेशों के प्रचयरूप होने के कारण सिद्ध जीव भी सकाय हैं, फिर उन्हें अकाय क्यों कहा ? <br> | <span class="GRef"> धवला/1/1,1,46/277/6 </span><span class="SanskritText">जीवप्रदेशप्रचयात्मकत्वात्सिद्धा अपि सकाया इति चेन्न, तेषामनादिबंधनबद्धजीवप्रदेशात्मकत्वात्। अनादिप्रचयोऽपि काय: किन्न स्यादिति चेन्न, मूर्तानां पुद्गलानां कर्मनोकर्मपर्यायपरिणतानां सादिसांतप्रचयस्य कायत्वाभ्युपगमात्।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—जीव प्रदेशों के प्रचयरूप होने के कारण सिद्ध जीव भी सकाय हैं, फिर उन्हें अकाय क्यों कहा ? <br> |
Revision as of 22:14, 17 November 2023
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/87 जह कंचणमग्गियं मुच्चइ किट्टेण कलियाराय। तह कायबंधमुक्का अकाट्टया झाणजोएण।87।=जिस प्रकार अग्नि में दिया गया सुवर्ण किट्टिका (बहिरंगमल) और कालिमा (अंतरंग मल) इन दोनों प्रकार के मलों से रहित हो जाता है उसी प्रकार ध्यान के योग से शुद्ध हुए और काय के बंधन से मुक्त हुए जीव अकायिक जानना चाहिए। ( धवला 1/1,1,39/ 144/266 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/203/449 )।
धवला/1/1,1,46/277/6 जीवप्रदेशप्रचयात्मकत्वात्सिद्धा अपि सकाया इति चेन्न, तेषामनादिबंधनबद्धजीवप्रदेशात्मकत्वात्। अनादिप्रचयोऽपि काय: किन्न स्यादिति चेन्न, मूर्तानां पुद्गलानां कर्मनोकर्मपर्यायपरिणतानां सादिसांतप्रचयस्य कायत्वाभ्युपगमात्।=प्रश्न—जीव प्रदेशों के प्रचयरूप होने के कारण सिद्ध जीव भी सकाय हैं, फिर उन्हें अकाय क्यों कहा ?
उत्तर—नहीं, क्योंकि सिद्ध जीव अनादिकालीन स्वाभाविक बंधन से बद्ध जीव प्रदेशस्वरूप हैं, इसलिए उसकी अपेक्षा यहाँ कायपना नहीं लिया है।
प्रश्न–अनादि कालीन आत्मप्रदेशों के प्रचय को काय क्यों नहीं कहा ?
उत्तर—नहीं, क्योंकि, यहाँ पर कर्म और नोकर्म रूप पर्याय से परिणत मूर्त पुद्गलों के सादि और सांत प्रदेश प्रचय को ही कायरूप से स्वीकार किया गया है। (किसी अपेक्षा उनको कायपना है भी। यथा–)
द्रव्यसंग्रह टीका/24/70/1 कायत्वं कथ्यते—बहुप्रदेशप्रचयं दृष्ट्वा यथा शरीरं कायो भण्यते तथानंतज्ञानादिगुणाधारभूतानां लोकाकाशप्रमितासंख्येयशुद्धप्रदेशानां प्रचयं समूहं संघातं मेलापकं दृष्ट्वा मुक्तात्मनि कायत्वं भण्यते।=अब इन (मुक्तात्माओं) में कायपना कहते हैं—बहुत से प्रदेशों में व्याप्त होकर रहने को देखकर जैसे शरीर को काय कहते हैं, अर्थात् जैसे शरीर में अधिक प्रदेश होने के कारण शरीर को काय कहते हैं उसी प्रकार अनंतज्ञानादि गुणों के आधारभूत जो लोकाकाश के बराबर असंख्यात शुद्ध प्रदेश हैं उनके समूह, संघात अथवा मेल को देखकर मुक्त जीव में भी कायत्व कहा जाता है।
- देखें काय 2.2,2.3 ।