अवयव: Difference between revisions
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<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/26 </span><span class="SanskritText">यथा जीवानां नित्यानित्यनिगोदादिसिद्धक्षेत्रपर्यंतस्थितानां सहजपरमपारिणामिकभावसमाश्रयेण सहजनिश्चयनयेन स्वस्वरूपादप्रच्यवनवत्त्वमुक्तम्, तथा परमाणुद्रव्याणां पंचमभावेन परमस्वभावत्वादात्म-परिणतेरात्मैवादि परमाणुः।</span> = <span class="HindiText">स्वयं ही जिसका आदि है, स्वयं ही जिसका अंत है (अर्थात् जिसके आदि में, अंत में और मध्य में परमाणु का निज स्वरूप ही है) जो इंद्रियों से ग्राह्य नहीं है और जो अविभागी है, वह परमाणु द्रव्य जान।26। | <span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/26 </span><span class="SanskritText">यथा जीवानां नित्यानित्यनिगोदादिसिद्धक्षेत्रपर्यंतस्थितानां सहजपरमपारिणामिकभावसमाश्रयेण सहजनिश्चयनयेन स्वस्वरूपादप्रच्यवनवत्त्वमुक्तम्, तथा परमाणुद्रव्याणां पंचमभावेन परमस्वभावत्वादात्म-परिणतेरात्मैवादि परमाणुः।</span> = <span class="HindiText">स्वयं ही जिसका आदि है, स्वयं ही जिसका अंत है (अर्थात् जिसके आदि में, अंत में और मध्य में परमाणु का निज स्वरूप ही है) जो इंद्रियों से ग्राह्य नहीं है और जो अविभागी है, वह परमाणु द्रव्य जान।26। <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/5/25/297 पर उद्धृत )</span>; <span class="GRef">( तिलोयपण्णत्ति/1/98 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/3/38/6/207/25 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/25/1/491/14 में उद्धृत)</span>; <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/16 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/564/1009 पर उद्धृत)</span> जिस प्रकार सहज परम पारिणामिक भाव की विवक्षा का आश्रय करने वाले सहज निश्चय नय की अपेक्षा से नित्य और अनित्य निगोद से लेकर सिद्धक्षेत्र पर्यंत विद्यमान जीवों को निजस्वरूप से अच्युतपना कहा गया है, उसी प्रकार पंचम भाव की अपेक्षा से परमाणु द्रव्य का परम स्वभाव होने से परमाणु स्वयं ही अपनी परिणति का आदि है, स्वयं ही अपनी परिणति का मध्य है, और स्वयं ही अपनी परिणति का अंत भी है। </span><br /> | ||
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Revision as of 22:15, 17 November 2023
सिद्धांतकोष से
राजवार्तिक अध्याय 5/16/6/10
अवयूयंते इत्यवयवाः।
= जो वस्तु के हिस्से कर देते हैं, वे अवयव हैं।
• अनुमान के पाँच अवयव
न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय 1-1/32 प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः ॥32॥ = प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन, ये अनुमान वाक्य के पाँच अवयव हैं।
-देखें अनुमान.3
• जल्प के चार अवयव
सिद्धि विनिश्चय/ मूल/5/2/311 जल्पं चतुरंगं विदुर्बुधा:।
सिद्धि विनिश्चय/ वृत्ति./5/2/313/12 तत्राह ‘चतुरंगम्’ इति। चत्वारि वादि-प्रतिवादि-प्राश्निक-परिषद्विलक्षणानि अंगानि, नावयवा:, वचनस्य तदनवयवत्वात् । =विद्वान् लोग जल्प को चार अंगवाला जानते हैं। वे चार अंग इस प्रकार हैं–वादी, प्रतिवादी, प्राश्निक और परिषद् या सभासद् । इन्हें अवयव नहीं कह सकते हैं क्योंकि अनुमान के वचन या वाक्य की भाँति यहाँ वचन के अवयव नहीं होते।
-देखें जल्प
• परमाणु का सावयव निरवयव पना
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/26 यथा जीवानां नित्यानित्यनिगोदादिसिद्धक्षेत्रपर्यंतस्थितानां सहजपरमपारिणामिकभावसमाश्रयेण सहजनिश्चयनयेन स्वस्वरूपादप्रच्यवनवत्त्वमुक्तम्, तथा परमाणुद्रव्याणां पंचमभावेन परमस्वभावत्वादात्म-परिणतेरात्मैवादि परमाणुः। = स्वयं ही जिसका आदि है, स्वयं ही जिसका अंत है (अर्थात् जिसके आदि में, अंत में और मध्य में परमाणु का निज स्वरूप ही है) जो इंद्रियों से ग्राह्य नहीं है और जो अविभागी है, वह परमाणु द्रव्य जान।26। ( सर्वार्थसिद्धि/5/25/297 पर उद्धृत ); ( तिलोयपण्णत्ति/1/98 ); ( राजवार्तिक/3/38/6/207/25 ); ( राजवार्तिक/5/25/1/491/14 में उद्धृत); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/13/16 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/564/1009 पर उद्धृत) जिस प्रकार सहज परम पारिणामिक भाव की विवक्षा का आश्रय करने वाले सहज निश्चय नय की अपेक्षा से नित्य और अनित्य निगोद से लेकर सिद्धक्षेत्र पर्यंत विद्यमान जीवों को निजस्वरूप से अच्युतपना कहा गया है, उसी प्रकार पंचम भाव की अपेक्षा से परमाणु द्रव्य का परम स्वभाव होने से परमाणु स्वयं ही अपनी परिणति का आदि है, स्वयं ही अपनी परिणति का मध्य है, और स्वयं ही अपनी परिणति का अंत भी है।
-देखें परमाणु
• शरीर के अवयव
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार /1/16
णलयाबाहू य तहा णियंवपुट्ठी उरो य सीसं च। अट्ठे व दु अंगाइं देहण्णाइं उवंगाइं ॥ 10 ॥
= शरीर में दो हाथ, दो पैर, नितंब (कमर के पीछे का भाग), पीठ, हृदय, और मस्तक ये आठ अंग होते हैं। इनके सिवाय अन्य (नाक, कान, आँख आदि) उपांग होते हैं।
-देखें अंगोपांग
पुराणकोष से
तालगत गांधर्व के बाईस भेदों में एक भेद । हरिवंशपुराण 19.149-152