आशिर्विष रस ऋद्धि: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<ul><li><p class="HindiText"><span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०७८)</p></span> <p class=" PrakritText ">मर इदि भणिदे जीओ मरेइ सहस त्ति जीए सत्तीए। दुक्खरतवजुदमुणिणा आसीविस णाम रिद्धी सा।</p> | <ul><li><p class="HindiText"><span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०७८)</p></span> <p class=" PrakritText ">मर इदि भणिदे जीओ मरेइ सहस त्ति जीए सत्तीए। दुक्खरतवजुदमुणिणा आसीविस णाम रिद्धी सा।</p> | ||
<p class="HindiText">= जिस शक्ति से दुष्कर तप से युक्त मुनि के द्वारा `मर जाओ' इस प्रकार कहने पर जीव सहसा मर जाता है, वह आशीविष नामक ऋद्धि कही जाती है।</p> | <p class="HindiText">= जिस शक्ति से दुष्कर तप से युक्त मुनि के द्वारा `मर जाओ' इस प्रकार कहने पर जीव सहसा मर जाता है, वह आशीविष नामक ऋद्धि कही जाती है।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/३४)</span>; <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२६/५)</span></p></ul></li> | ||
<ul><li><p class="HindiText"><span class="GRef">(धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२०/८५/५)</span></p> <p class=" PrakritText ">अविद्यमानस्यार्थस्य आशंसनमाशीः, आशीर्विष एषां ते आशीर्विषाः। जेसि जं पडि मरिहि त्ति वयणं णिप्पडिदं तं मारेदि, भिक्खं भमेत्तिवयणं भिक्खं भमावेदि, सीसं छिज्जउ त्ति वयणं सीस छिंददि, आसीविसा णाम समणा। कधं वयणस्स विससण्णा। विसमिव विसमिदि उवयारादो। आसी अविसममियं जेसिं ते आसीविसा। जेसिं वयणं थावर-जंगम-विसपूरिदजीवे पडुच्च `णिव्विसा होंतु' त्ति णिस्सरिदं ते जीवावेदि। वाहिवेयण-दालिद्दादिविलयं पडुच्च णिप्पडितं सं तं तं तं कज्जं करेदि ते वि आसीविसात्ति उत्तं होदि।</p> | <ul><li><p class="HindiText"><span class="GRef">(धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२०/८५/५)</span></p> <p class=" PrakritText ">अविद्यमानस्यार्थस्य आशंसनमाशीः, आशीर्विष एषां ते आशीर्विषाः। जेसि जं पडि मरिहि त्ति वयणं णिप्पडिदं तं मारेदि, भिक्खं भमेत्तिवयणं भिक्खं भमावेदि, सीसं छिज्जउ त्ति वयणं सीस छिंददि, आसीविसा णाम समणा। कधं वयणस्स विससण्णा। विसमिव विसमिदि उवयारादो। आसी अविसममियं जेसिं ते आसीविसा। जेसिं वयणं थावर-जंगम-विसपूरिदजीवे पडुच्च `णिव्विसा होंतु' त्ति णिस्सरिदं ते जीवावेदि। वाहिवेयण-दालिद्दादिविलयं पडुच्च णिप्पडितं सं तं तं तं कज्जं करेदि ते वि आसीविसात्ति उत्तं होदि।</p> | ||
<p class="HindiText">= अविद्यमान अर्थ की इच्छा का नाम आशिष है। आशिष है विष (वचन) जिनका वे आशीर्विष कहे जाते हैं। `मर जाओ' इस प्रकार जिनके प्रति निकला हुआ जिनका वचन उसे मारता है, `भिक्षा के लिए भ्रमण करो' ऐसा वचन भिक्षार्थ भ्रमण कराता है, `शिरका छेद हो' ऐसा वचन शिर को छेदता है, (अशुभ) आशीर्विष नामक साधु हैं। '''प्रश्न'''-वचन के विष संज्ञा कैसे सम्भव है? '''उत्तर'''-विष के समान विष है। इस प्रकार उपचार से वचन को विष संज्ञा प्राप्त है। आशिष है अविष अर्थात् अमृत जिनका वे (शुभ) आशीर्विष हैं। स्थावर अथवा जंगम विष से पूर्ण जीवों के प्रति `निर्विष हो' इस प्रकार निकला हुआ जिनका वचन उन्हें जिलाता है, व्याधिवेदना और दारिद्र्य आदि के विनाश हेतु निकला हुआ जिनका वचन उस उस कार्य को करता है, वे भी '''आशीर्विष''' हैं, यह सूत्र का अभिप्राय है।</p></ul></li> | <p class="HindiText">= अविद्यमान अर्थ की इच्छा का नाम आशिष है। आशिष है विष (वचन) जिनका वे आशीर्विष कहे जाते हैं। `मर जाओ' इस प्रकार जिनके प्रति निकला हुआ जिनका वचन उसे मारता है, `भिक्षा के लिए भ्रमण करो' ऐसा वचन भिक्षार्थ भ्रमण कराता है, `शिरका छेद हो' ऐसा वचन शिर को छेदता है, (अशुभ) आशीर्विष नामक साधु हैं। '''प्रश्न'''-वचन के विष संज्ञा कैसे सम्भव है? '''उत्तर'''-विष के समान विष है। इस प्रकार उपचार से वचन को विष संज्ञा प्राप्त है। आशिष है अविष अर्थात् अमृत जिनका वे (शुभ) आशीर्विष हैं। स्थावर अथवा जंगम विष से पूर्ण जीवों के प्रति `निर्विष हो' इस प्रकार निकला हुआ जिनका वचन उन्हें जिलाता है, व्याधिवेदना और दारिद्र्य आदि के विनाश हेतु निकला हुआ जिनका वचन उस उस कार्य को करता है, वे भी '''आशीर्विष''' हैं, यह सूत्र का अभिप्राय है।</p></ul></li> |
Latest revision as of 22:16, 17 November 2023
(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०७८)
मर इदि भणिदे जीओ मरेइ सहस त्ति जीए सत्तीए। दुक्खरतवजुदमुणिणा आसीविस णाम रिद्धी सा।
= जिस शक्ति से दुष्कर तप से युक्त मुनि के द्वारा `मर जाओ' इस प्रकार कहने पर जीव सहसा मर जाता है, वह आशीविष नामक ऋद्धि कही जाती है।
(राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/३४); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२६/५)
(धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२०/८५/५)
अविद्यमानस्यार्थस्य आशंसनमाशीः, आशीर्विष एषां ते आशीर्विषाः। जेसि जं पडि मरिहि त्ति वयणं णिप्पडिदं तं मारेदि, भिक्खं भमेत्तिवयणं भिक्खं भमावेदि, सीसं छिज्जउ त्ति वयणं सीस छिंददि, आसीविसा णाम समणा। कधं वयणस्स विससण्णा। विसमिव विसमिदि उवयारादो। आसी अविसममियं जेसिं ते आसीविसा। जेसिं वयणं थावर-जंगम-विसपूरिदजीवे पडुच्च `णिव्विसा होंतु' त्ति णिस्सरिदं ते जीवावेदि। वाहिवेयण-दालिद्दादिविलयं पडुच्च णिप्पडितं सं तं तं तं कज्जं करेदि ते वि आसीविसात्ति उत्तं होदि।
= अविद्यमान अर्थ की इच्छा का नाम आशिष है। आशिष है विष (वचन) जिनका वे आशीर्विष कहे जाते हैं। `मर जाओ' इस प्रकार जिनके प्रति निकला हुआ जिनका वचन उसे मारता है, `भिक्षा के लिए भ्रमण करो' ऐसा वचन भिक्षार्थ भ्रमण कराता है, `शिरका छेद हो' ऐसा वचन शिर को छेदता है, (अशुभ) आशीर्विष नामक साधु हैं। प्रश्न-वचन के विष संज्ञा कैसे सम्भव है? उत्तर-विष के समान विष है। इस प्रकार उपचार से वचन को विष संज्ञा प्राप्त है। आशिष है अविष अर्थात् अमृत जिनका वे (शुभ) आशीर्विष हैं। स्थावर अथवा जंगम विष से पूर्ण जीवों के प्रति `निर्विष हो' इस प्रकार निकला हुआ जिनका वचन उन्हें जिलाता है, व्याधिवेदना और दारिद्र्य आदि के विनाश हेतु निकला हुआ जिनका वचन उस उस कार्य को करता है, वे भी आशीर्विष हैं, यह सूत्र का अभिप्राय है।
देखें ऋद्धि - 8