उत्पादन: Difference between revisions
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<span class="GRef"> भगवती आराधना/229/442 </span><span class="PrakritText">वियडाए अवियडाए समविसमाए बहिं च अंतो वा ।...... ।229। </span> | <span class="GRef"> भगवती आराधना/229/442 </span><span class="PrakritText">वियडाए अवियडाए समविसमाए बहिं च अंतो वा ।...... ।229। </span> | ||
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<li class="HindiText">= जो उद्गम उत्पादन और एषणा दोषों से रहित है, जिसमें जंतुओं का वास न हो, अथवा बाहर से आकर जहाँ प्राणी वास न करते हों, संस्कार रहित हो, ऐसी वसतिका में मुनि रहते हैं । | <li class="HindiText">= जो उद्गम उत्पादन और एषणा दोषों से रहित है, जिसमें जंतुओं का वास न हो, अथवा बाहर से आकर जहाँ प्राणी वास न करते हों, संस्कार रहित हो, ऐसी वसतिका में मुनि रहते हैं । <span class="GRef">( भगवती आराधना/230/443 )</span> - (विशेष देखें [[ वसतिका#7 | वसतिका - 7]]) </li> | ||
<li class="HindiText"> जिसमें प्रवेश करना या जिसमें से निकलना सुखपूर्वक हो सके, जिसका द्वार ढका हो, जहाँ विपुल प्रकाश हो ।637। जिसके किवाड़ व दीवारें मजबूत हों, जो ग्राम के बाहर हो, जहाँ बाल, वृद्ध और चार प्रकार के गण (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) आ जा सकते हों ।638। जिसके द्वार खुले हों या भिड़े हों, जो समभूमि युक्त हो या विषम भूमि युक्त हो, जो ग्राम के बाह्य भाग में हो अथवा अंत में हो ऐसी वसतिका में मुनि रहते हैं ।229। <br /> | <li class="HindiText"> जिसमें प्रवेश करना या जिसमें से निकलना सुखपूर्वक हो सके, जिसका द्वार ढका हो, जहाँ विपुल प्रकाश हो ।637। जिसके किवाड़ व दीवारें मजबूत हों, जो ग्राम के बाहर हो, जहाँ बाल, वृद्ध और चार प्रकार के गण (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) आ जा सकते हों ।638। जिसके द्वार खुले हों या भिड़े हों, जो समभूमि युक्त हो या विषम भूमि युक्त हो, जो ग्राम के बाह्य भाग में हो अथवा अंत में हो ऐसी वसतिका में मुनि रहते हैं ।229। <br /> | ||
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1. आहार का एक दोष
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 421-477
उग्गम उप्पादन एसणं संजीजणं पमाणं च। इंगाल धूमकारण अट्ठविहा पिंडसुद्धी हु ॥421॥ आधाकम्मुद्देसिय अज्झावसोय पूदि मिस्से य। पामिच्छे वलि पाहुडिदे पादूकारे य कोदे य ॥422॥ पामिच्छे परियट्ठे अभिहइमच्छिण्ण मालआरोहे। आच्छिज्जे अणिसट्ठे उग्गदीसादु सेलसिमे ॥422॥ घादीदूदणिमित्ते आजीवे वणिवगे य तेगिंछे। कोधी माणी मायी लोभी य हवंति दस एदे ॥445॥ पुव्वीपच्छा संथुदि विज्जमंते य चुण्णजोगे य। उप्पादणा य दोसो सोलसमो मूलकम्मे य ॥446॥ संकिदमक्खिदपिहिदसंववहरणदायगुम्मिस्से। अपरिणदलित्तछोडिद एसणदोसइं दस एदे ॥62॥
1. सामान्य दोष - उद्गम्, उत्पादन, अशन, संयोजन प्रमाण, अंगार या आगर और धूम कारण - इन आठ दोषों कर रहित, जो भोजन लेना वह आठ प्रकार की पिंड शुद्धि कही है।
2. उद्गम् दोष - गृहस्थ के आश्रित जो चक्की आदि आरंभ रूप कर्म वह अधःकर्म है उसका तो सामान्य रीति से साधु को त्याग ही होता है। तथा उपरोक्त मूल आठ दोषों मे-से उद्गम दोष के सोलह भेद कहते हैं - औद्देशिक दोष, अध्यधि दोष, पूतिदोष, मिश्र दोष, स्थापित दोष, बलि दोष, प्रावर्तित दोष, प्राविष्करण दोष, क्रीत दोष, प्रामृश्य दोष, परिवर्तक दोष, अभिघट दोष, अच्छिन्न दोष, मालारोह दोष, अच्छेद्य दोष, अनिसृष्ट दोष,।
3. उत्पादन दोष - सोलह दोष उत्पादन के हैं- धात्री दोष, दूत, निमित्त, आजीव, वनीपक, चिकित्सक, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, ये दस दोष। तथा पूर्व संस्तुति, पश्चात् संस्तुति, विद्या, मंत्र, चूर्णयोग, मूल कर्म छह दोष ये हैं।
4. अशन दोष - शंकित, मृक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संव्यवहरण, दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त, त्यक्त ये दस दोष अशन के हैं।
- देखें आहार - II.4.1
2. वस्तिका का एक दोष
भगवती आराधना/636-638/836 उग्गमउप्पादणएसणाविसुद्धाए अकिरियाए हु । वसइ असंसत्तए ण्णिप्पाहुडियाए-सेज्जाए ।636। सुहणिक्खवणपवेसुणघणाओ अवियडअणंधयाराओ ।637। घणकुड्डे सकवाडे गामबहिं बालबुढ्ढग-णजोग्गे ।638। भगवती आराधना/229/442 वियडाए अवियडाए समविसमाए बहिं च अंतो वा ।...... ।229।
- = जो उद्गम उत्पादन और एषणा दोषों से रहित है, जिसमें जंतुओं का वास न हो, अथवा बाहर से आकर जहाँ प्राणी वास न करते हों, संस्कार रहित हो, ऐसी वसतिका में मुनि रहते हैं । ( भगवती आराधना/230/443 ) - (विशेष देखें वसतिका - 7)
- जिसमें प्रवेश करना या जिसमें से निकलना सुखपूर्वक हो सके, जिसका द्वार ढका हो, जहाँ विपुल प्रकाश हो ।637। जिसके किवाड़ व दीवारें मजबूत हों, जो ग्राम के बाहर हो, जहाँ बाल, वृद्ध और चार प्रकार के गण (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) आ जा सकते हों ।638। जिसके द्वार खुले हों या भिड़े हों, जो समभूमि युक्त हो या विषम भूमि युक्त हो, जो ग्राम के बाह्य भाग में हो अथवा अंत में हो ऐसी वसतिका में मुनि रहते हैं ।229।
- देखें वस्तिका ।