गुणिदेश: Difference between revisions
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<p><span class="GRef"> श्लोकवार्तिक 2/1/6/54/453/27 </span><span class="SanskritText">द्रव्यार्थिकगुणभावेन पर्यायार्थिकप्राधान्येन तु न गुणानां कालादिभिरभेदवृत्ति:अष्टधा संभवति। प्रतिक्षणमन्यतोपपत्तेर्भिन्नकालत्वात् । सकृदेकत्र नानागुणानामसंभवात् संभवे वा तदाश्रयस्य तावद्वा भेदप्रसंगात् तेषामात्मरूपस्य च भिन्नत्वात् तदभेदे तद्भेदविरोधात् । स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वात् अन्यथा नानागुणाश्रयत्वविरोधात् । संबंधस्य च संबंधिभेदेन भेददर्शनात् नानासंबंधिभिरेकत्रैकसंबंधाघटनात् । तै क्रियमाणस्योपकारस्य च प्रतिनियतरूपस्यानेकत्वात् । '''गुणिदेशस्य''' च प्रतिगुणं भेदात् तदभेदे भिन्नार्थगुणानामपि '''गुणिदेशा'''भेदप्रसंगात् । संसर्गस्य च प्रतिसंसर्गभेदात् । तदभेदे संसर्गिभेदविरोधात् । शब्दस्य च प्रतिविषयं-नानात्वात् गुणानामेकशब्दवाच्यतायां | <p><span class="GRef"> श्लोकवार्तिक 2/1/6/54/453/27 </span><span class="SanskritText">द्रव्यार्थिकगुणभावेन पर्यायार्थिकप्राधान्येन तु न गुणानां कालादिभिरभेदवृत्ति:अष्टधा संभवति। प्रतिक्षणमन्यतोपपत्तेर्भिन्नकालत्वात् । सकृदेकत्र नानागुणानामसंभवात् संभवे वा तदाश्रयस्य तावद्वा भेदप्रसंगात् तेषामात्मरूपस्य च भिन्नत्वात् तदभेदे तद्भेदविरोधात् । स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वात् अन्यथा नानागुणाश्रयत्वविरोधात् । संबंधस्य च संबंधिभेदेन भेददर्शनात् नानासंबंधिभिरेकत्रैकसंबंधाघटनात् । तै क्रियमाणस्योपकारस्य च प्रतिनियतरूपस्यानेकत्वात् । '''गुणिदेशस्य''' च प्रतिगुणं भेदात् तदभेदे भिन्नार्थगुणानामपि '''गुणिदेशा'''भेदप्रसंगात् । संसर्गस्य च प्रतिसंसर्गभेदात् । तदभेदे संसर्गिभेदविरोधात् । शब्दस्य च प्रतिविषयं-नानात्वात् गुणानामेकशब्दवाच्यतायां | ||
सर्वार्थानामेकशब्दवाच्यतापत्ते: शब्दांतरवैफल्यात् ।</span> =<span class="HindiText">वे कालादिक‒काल, आत्मरूप, अर्थ, संबंध, उपकार, '''गुणिदेश''', संसर्ग और शब्द इस प्रकार आठ हैं। ...... 6. तथा जो ही गुणी द्रव्य का देश अस्तित्व गुण ने घेर लिया है, वही गुणी का देश अन्य गुणों का भी निवास स्थान है। इस प्रकार '''गुणिदेश''' करके एक वस्तु के अनेक धर्मों की अभेदवृत्ति है। <br> | सर्वार्थानामेकशब्दवाच्यतापत्ते: शब्दांतरवैफल्यात् ।</span> =<span class="HindiText">वे कालादिक‒काल, आत्मरूप, अर्थ, संबंध, उपकार, '''गुणिदेश''', संसर्ग और शब्द इस प्रकार आठ हैं। ...... 6. तथा जो ही गुणी द्रव्य का देश अस्तित्व गुण ने घेर लिया है, वही गुणी का देश अन्य गुणों का भी निवास स्थान है। इस प्रकार '''गुणिदेश''' करके एक वस्तु के अनेक धर्मों की अभेदवृत्ति है। <br> | ||
....... 6. प्रत्येक गुण की अपेक्षा से गुणी का देश भी भिन्न-भिन्न है। यदि गुण के भेद से गुणवाले देश का भेद न माना जायेगा तो सर्वथा भिन्न दूसरे अर्थ के गुणों का भी '''गुणी देश''' अभिन्न हो जायेगा। 7. संसर्ग तो प्रत्येक संसर्गवाले के भेद से भिन्न ही माना जाता है। यदि अभेद माना जायेगा तो संसर्गियों के भेद होने का विरोध है। 8. प्रत्येक विषय की अपेक्षा से वाचक शब्द नाना होते हैं, यदि संपूर्ण गुणों का एक शब्द द्वारा ही वाच्य माना जायेगा, तब तो संपूर्ण अर्थों को भी एक शब्द द्वारा निरूपण किया जाने का प्रसंग होगा। ऐसी दशा में भिन्न-भिन्न पदार्थों के लिए न्यारे-न्यारे शब्दों का बोलना व्यर्थ पड़ेगा। | ....... 6. प्रत्येक गुण की अपेक्षा से गुणी का देश भी भिन्न-भिन्न है। यदि गुण के भेद से गुणवाले देश का भेद न माना जायेगा तो सर्वथा भिन्न दूसरे अर्थ के गुणों का भी '''गुणी देश''' अभिन्न हो जायेगा। 7. संसर्ग तो प्रत्येक संसर्गवाले के भेद से भिन्न ही माना जाता है। यदि अभेद माना जायेगा तो संसर्गियों के भेद होने का विरोध है। 8. प्रत्येक विषय की अपेक्षा से वाचक शब्द नाना होते हैं, यदि संपूर्ण गुणों का एक शब्द द्वारा ही वाच्य माना जायेगा, तब तो संपूर्ण अर्थों को भी एक शब्द द्वारा निरूपण किया जाने का प्रसंग होगा। ऐसी दशा में भिन्न-भिन्न पदार्थों के लिए न्यारे-न्यारे शब्दों का बोलना व्यर्थ पड़ेगा। <span class="GRef">( स्याद्वादमंजरी/23/284/18 )</span>; <span class="GRef">( सप्तभंगीतरंगिणी/33/6 )</span></p> | ||
<span class="HindiText">गुणिदेश की अपेक्षा वस्तु में भेदाभेद–देखें [[ सप्तभंगी#5.8 | सप्तभंगी - 5.8]]।</span> | <span class="HindiText">गुणिदेश की अपेक्षा वस्तु में भेदाभेद–देखें [[ सप्तभंगी#5.8 | सप्तभंगी - 5.8]]।</span> |
Latest revision as of 22:20, 17 November 2023
श्लोकवार्तिक 2/1/6/54/452/14
के पुन: कालादय:। काल: आत्मरूपं, अर्थ:, संबंध:, उपकारो, गुणिदेश:, संसर्ग: शब्द इति। तत्र स्याज्जीवादि वस्तु अस्त्येव इत्यत्र यत्कालमस्तित्वं तत्काला: शेषानंतधर्मा वस्तुन्येकत्रेति, तेषां कालेनाभेदवृत्ति:। यदेव चास्तित्वस्य तद्गुणत्वमात्मरूपं तदेवांयानंतगुणानामपीत्यात्मरूपेणाभेदवृत्ति:। य एव चाधारोऽर्थो द्रव्याख्योऽस्तित्वस्य स एवान्यपर्यायाणामित्यर्थेनाभेदवृत्ति:। य एवाविष्वग्भाव: कथंचित्तादात्म्यलक्षण: संबंधोऽस्तित्वस्य स एवाशेषविशेषाणामिति संबंधेनाभेदवृत्ति:। य एव चोपकारोऽस्तित्वेन स्वानुरक्तकरणं स एव शेषैरपि गुणैरित्युपकारेणाभेदवृत्ति:। य एव च गुणिदेशोऽस्तित्वस्य स एवान्यगुणानामिति गुणिदेशेनाभेदवृत्ति:। य एव चैकवस्त्वात्मनास्तित्वस्य संसर्ग: स एव शेषधर्माणामिति संसर्गेणाभेदवृत्ति:। य एवास्तीतिशब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचक: स एव शेषानंतधर्मात्मकस्यापीति शब्देनाभेदवृत्ति:। पर्यायार्थे गुणभावे द्रव्यार्थिकत्वप्राधान्यादुपपद्यते।
श्लोकवार्तिक 2/1/6/54/453/27 द्रव्यार्थिकगुणभावेन पर्यायार्थिकप्राधान्येन तु न गुणानां कालादिभिरभेदवृत्ति:अष्टधा संभवति। प्रतिक्षणमन्यतोपपत्तेर्भिन्नकालत्वात् । सकृदेकत्र नानागुणानामसंभवात् संभवे वा तदाश्रयस्य तावद्वा भेदप्रसंगात् तेषामात्मरूपस्य च भिन्नत्वात् तदभेदे तद्भेदविरोधात् । स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वात् अन्यथा नानागुणाश्रयत्वविरोधात् । संबंधस्य च संबंधिभेदेन भेददर्शनात् नानासंबंधिभिरेकत्रैकसंबंधाघटनात् । तै क्रियमाणस्योपकारस्य च प्रतिनियतरूपस्यानेकत्वात् । गुणिदेशस्य च प्रतिगुणं भेदात् तदभेदे भिन्नार्थगुणानामपि गुणिदेशाभेदप्रसंगात् । संसर्गस्य च प्रतिसंसर्गभेदात् । तदभेदे संसर्गिभेदविरोधात् । शब्दस्य च प्रतिविषयं-नानात्वात् गुणानामेकशब्दवाच्यतायां
सर्वार्थानामेकशब्दवाच्यतापत्ते: शब्दांतरवैफल्यात् । =वे कालादिक‒काल, आत्मरूप, अर्थ, संबंध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द इस प्रकार आठ हैं। ...... 6. तथा जो ही गुणी द्रव्य का देश अस्तित्व गुण ने घेर लिया है, वही गुणी का देश अन्य गुणों का भी निवास स्थान है। इस प्रकार गुणिदेश करके एक वस्तु के अनेक धर्मों की अभेदवृत्ति है।
....... 6. प्रत्येक गुण की अपेक्षा से गुणी का देश भी भिन्न-भिन्न है। यदि गुण के भेद से गुणवाले देश का भेद न माना जायेगा तो सर्वथा भिन्न दूसरे अर्थ के गुणों का भी गुणी देश अभिन्न हो जायेगा। 7. संसर्ग तो प्रत्येक संसर्गवाले के भेद से भिन्न ही माना जाता है। यदि अभेद माना जायेगा तो संसर्गियों के भेद होने का विरोध है। 8. प्रत्येक विषय की अपेक्षा से वाचक शब्द नाना होते हैं, यदि संपूर्ण गुणों का एक शब्द द्वारा ही वाच्य माना जायेगा, तब तो संपूर्ण अर्थों को भी एक शब्द द्वारा निरूपण किया जाने का प्रसंग होगा। ऐसी दशा में भिन्न-भिन्न पदार्थों के लिए न्यारे-न्यारे शब्दों का बोलना व्यर्थ पड़ेगा। ( स्याद्वादमंजरी/23/284/18 ); ( सप्तभंगीतरंगिणी/33/6 )
गुणिदेश की अपेक्षा वस्तु में भेदाभेद–देखें सप्तभंगी - 5.8।