तृणस्पर्शपरिषह: Difference between revisions
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<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/9/426/1 </span><span class="SanskritText">तृणग्रहणमुपलक्षणं कस्यचिद्व्यधनदु:खकारणस्य। तेन शुष्कतृणपरुषशर्करा–आदि व्यधनकृतपादवेदनाप्राप्तौ सत्यां तत्राप्रहितचेतसश्चर्याशय्यानिषद्यासु प्राणिपीडापरिहारे नित्यमप्रमत्तचेतसस्तृणादिस्पर्शवाधापरिषहविजयो वेदितव्य:। </span>–<span class="HindiText">जो कोई विधने रूप दुख का कारण है उसका ‘तृण’ पद का ग्रहण उपलक्षण है। इसलिए सूखा तिनका, कठोर, कंकड़... आदि के विधने से पैरों में वेदना के होने पर उसमें जिसका चित्त उपयुक्त नहीं है तथा चर्या शय्या और निषद्या में प्राणि-पीड़ा का परिहार करने के लिए जिसका चित्त निरंतर प्रमाद रहित है उसके तृण स्पर्शादि बाधा परिषह जय जानना चाहिए। | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/9/426/1 </span><span class="SanskritText">तृणग्रहणमुपलक्षणं कस्यचिद्व्यधनदु:खकारणस्य। तेन शुष्कतृणपरुषशर्करा–आदि व्यधनकृतपादवेदनाप्राप्तौ सत्यां तत्राप्रहितचेतसश्चर्याशय्यानिषद्यासु प्राणिपीडापरिहारे नित्यमप्रमत्तचेतसस्तृणादिस्पर्शवाधापरिषहविजयो वेदितव्य:। </span>–<span class="HindiText">जो कोई विधने रूप दुख का कारण है उसका ‘तृण’ पद का ग्रहण उपलक्षण है। इसलिए सूखा तिनका, कठोर, कंकड़... आदि के विधने से पैरों में वेदना के होने पर उसमें जिसका चित्त उपयुक्त नहीं है तथा चर्या शय्या और निषद्या में प्राणि-पीड़ा का परिहार करने के लिए जिसका चित्त निरंतर प्रमाद रहित है उसके तृण स्पर्शादि बाधा परिषह जय जानना चाहिए। <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/9/22/611/29 )</span> <span class="GRef">( चारित्रसार/125/3 )</span>। </span> | ||
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Latest revision as of 22:21, 17 November 2023
सर्वार्थसिद्धि/9/9/426/1 तृणग्रहणमुपलक्षणं कस्यचिद्व्यधनदु:खकारणस्य। तेन शुष्कतृणपरुषशर्करा–आदि व्यधनकृतपादवेदनाप्राप्तौ सत्यां तत्राप्रहितचेतसश्चर्याशय्यानिषद्यासु प्राणिपीडापरिहारे नित्यमप्रमत्तचेतसस्तृणादिस्पर्शवाधापरिषहविजयो वेदितव्य:। –जो कोई विधने रूप दुख का कारण है उसका ‘तृण’ पद का ग्रहण उपलक्षण है। इसलिए सूखा तिनका, कठोर, कंकड़... आदि के विधने से पैरों में वेदना के होने पर उसमें जिसका चित्त उपयुक्त नहीं है तथा चर्या शय्या और निषद्या में प्राणि-पीड़ा का परिहार करने के लिए जिसका चित्त निरंतर प्रमाद रहित है उसके तृण स्पर्शादि बाधा परिषह जय जानना चाहिए। ( राजवार्तिक/9/9/22/611/29 ) ( चारित्रसार/125/3 )।