नेमिनाथ: Difference between revisions
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p> अवसर्पिणी काल के दुःखमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं बाईसवें तीर्थंकर । ये अरिष्टनेमि के नाम से विख्यात है । <span class="GRef"> महापुराण 2.132, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 1.13, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 1.24, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-107 </span>। ये काश्यपगोत्री हरिवंश के शिखामणि द्वारावती नगरी के राजा समुद्रविजय के पुत्र थे । रानी शिवदेवी इनकी माँ थी । जयंत विमान से चयकर कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन उतराषाढ नक्षत्र में रात्रि के पिछले प्रहर में सोलह स्वप्नपूर्वक मां के गर्भ में आये तथा श्रावण शुक्ल षष्ठी के दिन ब्रह्मयोग के समय चित्रा नक्षत्र में इनका जन्म हुआ । जन्म से ही ये तीन ज्ञान के धारी थे । सौधर्म और ईशानेंद्र ने चमर ढोरते हुए पांडुक शिला पर विराजमान कर क्षीरसागर के जल से इनका अभिषेक किया था । ये नमिनाथ की तीर्थ परंपरा के पांच लाख वर्ष बीत जाने पर उत्पन्न हुए थे । इनकी आयु एक हजार वर्ष तथा शारीरिक अवगाहना दस धनुष थी संस्थान और संहनन उत्तम थे । ये अपूर्व शौर्य के धारक थे । एक समय इन्होंने कृष्ण की पटरानी सत्यभामा से अपना स्नानवस्त्र धोने को कहा था जिसके उत्तर में सत्यभामा ने कहा था कि मैं ऐसे साहसी के ही वस्त्र धोती हूँ जिसने नागशय्या पर अनायास ही शाङ्र्ग नामक दिव्य धनुष चढ़ाया है तथा शंख फूँका है । यह सुनकर इन्होंने भी दोनों काम कर दिखाये थे । इस कार्य से कृष्ण ने समझ लिया कि ये विवाह के योग्य हो गये हैं । इन्होंने भोजवंशी राजा उग्रसेन और रानी जयावती की पुत्री राजीमति के साथ इनका संबंध तय कर दिया । विवाह की तैयारियाँ हुई । मांसाहारी म्लेच्छ राजाओं के लिए मृगसमूह को एकत्र करके एक बाड़े में बाँधा गया । जब बारात उग्रसेन के नगर के पास पहुंची तो इन्होंने पशुओं के बंधन का कारण पूछा । कारण बता दिया गया । इससे वे राजीमती के साथ विवाह न करके विरक्त हो गये और बारात लौट गयी । लौकांतिक देवों ने आकर इनके वैराग्य की स्तुति की और दीक्षाकल्याणक का उत्सव मनाया । इसके पश्चात् ये देवकुरु नामक पालकी पर बैठकर सहस्राभ्रवन गये । वहाँ श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन सायंकाल कौमार्यकाल के तीन सौ वर्ष बीत जाने पर एक हजार राजाओं के साथ संयमी हुए । इसी समय इन्हें मन:पर्ययज्ञान भी हो गया । राजीमति भी विरक्त होकर इनके पीछे-पीछे तपश्चरण के लिए चली आयी । पारणा के दिन राजा वरदत्त ने इन्हें नवधा-भक्ति पूर्वक आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । तपस्या करते हुए छद्मस्थ अवस्था के छप्पन दिन बीत जाने पर ये रैवतक पर्वत पर बेला का नियम लेकर महावेणु (बड़े बाँस) वृक्ष के नीचे नीचे विराजमान हो गये । वहाँ आश्विन शुक्ला प्रतिपदा के दिन चित्रा नक्षत्र में प्रातःकाल के समय इन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । देवों ने केवल-ज्ञान-कल्याणक मनाया । इनके समवसरण में वरदत्त आदि ग्यारह गणधर, चार सौ पूर्व श्रुतविज्ञ, ग्यारह हजार आठ सौ शिक्षक, पंद्रह सौ तीन ज्ञान के धारी, इतने ही केवली, ग्यारह सौ विक्रियाऋद्धिधारी, नौ सौ मन:पर्ययज्ञानी और आठ वादी इस प्रकार कुल अठारह हजार मुनि थे । यक्षी, राजीमती, कात्यायनी आदि चालीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकाऐं, असंख्यात देवी-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे । <span class="GRef"> महापुराण 71.27-51, 134-187, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 22.37-66 </span>बलदेव द्वारा यह पूछे जाने पर कि कृष्ण का निष्कंटक राज्य कब तक चलेगा? उत्तर में इन्होंने कहा था कि बारह वर्ष बाद मदिरा का निमित्त पाकर द्वीपायन के द्वारा द्वारिका जलकर नष्ट हो जावेगी । जरत्कुमार के बाण द्वारा कृष्ण की मृत्यु होगी । कृष्ण आगामी तीर्थंकर होंगे । <span class="GRef"> महापुराण 72.178-182, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 22.80-83 </span>इन्होंने सुराष्ट्र, मलय, लाट, शूरसेन, पटच्चर, कुरुजांगल पाँचाल, कुशाग्र, मगध, अंजन, अंग, वंग तथा कलिंग आदि देशों में विहार कर जनता को धर्मोपदेश दिया । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 59. 110-111 </span>इस प्रकार इन्होंने छ: सौ निन्यानवे वर्ष नौ मास चार दिन विहार करने के पश्चात् पाँच सौ तैंतीस मुनियों के साथ एक मास तक योग-निरोधकर आषाढ़ शुक्ल सप्तमी के दिन चित्रा नक्षत्र में रात्रि के आरंभ में ही अघातिया कर्म विनाश करके मोक्ष प्राप्त किया । इंद्र और देवों ने सभक्ति विधिपूर्वक इनके इस पंचम कल्याणक का उत्सव किया । <span class="GRef"> महापुराण 72.272-274, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 25. 147.151 </span>ये छठें पूर्वभव में पुष्करार्ध द्वीप के गंधिल देश में विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी में सूर्यप्रभ नगर के राजा सूर्यप्रभ के पुत्र चिंतागति, पाँचवें पूर्वभव में चौथे स्वर्ग में सामानिक देव, चौथे पूर्वभव में सुगंधिला देश के सिंहपुर नगर के राजा अर्हद्दास के पुत्र अपराजित, तीसरे पूर्वभव में अच्युत स्वर्ग में इंद्र, दूसरे पूर्वभव में हस्तिनापुर के राजा श्रीचंद्र के पुत्र सुप्रतिष्ठ और प्रथम पूर्वभव में जयंत नामक अनुत्तर विमान में अहमिंद्र हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 70. 26-28, 36-37, 41, 50-51, 59 </span></p> | <div class="HindiText"> <p> अवसर्पिणी काल के दुःखमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं बाईसवें तीर्थंकर । ये अरिष्टनेमि के नाम से विख्यात है । <span class="GRef"> महापुराण 2.132, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_1#13|पद्मपुराण - 1.13]], </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 1.24, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-107 </span>। ये काश्यपगोत्री हरिवंश के शिखामणि द्वारावती नगरी के राजा समुद्रविजय के पुत्र थे । रानी शिवदेवी इनकी माँ थी । जयंत विमान से चयकर कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन उतराषाढ नक्षत्र में रात्रि के पिछले प्रहर में सोलह स्वप्नपूर्वक मां के गर्भ में आये तथा श्रावण शुक्ल षष्ठी के दिन ब्रह्मयोग के समय चित्रा नक्षत्र में इनका जन्म हुआ । जन्म से ही ये तीन ज्ञान के धारी थे । सौधर्म और ईशानेंद्र ने चमर ढोरते हुए पांडुक शिला पर विराजमान कर क्षीरसागर के जल से इनका अभिषेक किया था । ये नमिनाथ की तीर्थ परंपरा के पांच लाख वर्ष बीत जाने पर उत्पन्न हुए थे । इनकी आयु एक हजार वर्ष तथा शारीरिक अवगाहना दस धनुष थी संस्थान और संहनन उत्तम थे । ये अपूर्व शौर्य के धारक थे । एक समय इन्होंने कृष्ण की पटरानी सत्यभामा से अपना स्नानवस्त्र धोने को कहा था जिसके उत्तर में सत्यभामा ने कहा था कि मैं ऐसे साहसी के ही वस्त्र धोती हूँ जिसने नागशय्या पर अनायास ही शाङ्र्ग नामक दिव्य धनुष चढ़ाया है तथा शंख फूँका है । यह सुनकर इन्होंने भी दोनों काम कर दिखाये थे । इस कार्य से कृष्ण ने समझ लिया कि ये विवाह के योग्य हो गये हैं । इन्होंने भोजवंशी राजा उग्रसेन और रानी जयावती की पुत्री राजीमति के साथ इनका संबंध तय कर दिया । विवाह की तैयारियाँ हुई । मांसाहारी म्लेच्छ राजाओं के लिए मृगसमूह को एकत्र करके एक बाड़े में बाँधा गया । जब बारात उग्रसेन के नगर के पास पहुंची तो इन्होंने पशुओं के बंधन का कारण पूछा । कारण बता दिया गया । इससे वे राजीमती के साथ विवाह न करके विरक्त हो गये और बारात लौट गयी । लौकांतिक देवों ने आकर इनके वैराग्य की स्तुति की और दीक्षाकल्याणक का उत्सव मनाया । इसके पश्चात् ये देवकुरु नामक पालकी पर बैठकर सहस्राभ्रवन गये । वहाँ श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन सायंकाल कौमार्यकाल के तीन सौ वर्ष बीत जाने पर एक हजार राजाओं के साथ संयमी हुए । इसी समय इन्हें मन:पर्ययज्ञान भी हो गया । राजीमति भी विरक्त होकर इनके पीछे-पीछे तपश्चरण के लिए चली आयी । पारणा के दिन राजा वरदत्त ने इन्हें नवधा-भक्ति पूर्वक आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । तपस्या करते हुए छद्मस्थ अवस्था के छप्पन दिन बीत जाने पर ये रैवतक पर्वत पर बेला का नियम लेकर महावेणु (बड़े बाँस) वृक्ष के नीचे नीचे विराजमान हो गये । वहाँ आश्विन शुक्ला प्रतिपदा के दिन चित्रा नक्षत्र में प्रातःकाल के समय इन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । देवों ने केवल-ज्ञान-कल्याणक मनाया । इनके समवसरण में वरदत्त आदि ग्यारह गणधर, चार सौ पूर्व श्रुतविज्ञ, ग्यारह हजार आठ सौ शिक्षक, पंद्रह सौ तीन ज्ञान के धारी, इतने ही केवली, ग्यारह सौ विक्रियाऋद्धिधारी, नौ सौ मन:पर्ययज्ञानी और आठ वादी इस प्रकार कुल अठारह हजार मुनि थे । यक्षी, राजीमती, कात्यायनी आदि चालीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकाऐं, असंख्यात देवी-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे । <span class="GRef"> महापुराण 71.27-51, 134-187, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 22.37-66 </span>बलदेव द्वारा यह पूछे जाने पर कि कृष्ण का निष्कंटक राज्य कब तक चलेगा? उत्तर में इन्होंने कहा था कि बारह वर्ष बाद मदिरा का निमित्त पाकर द्वीपायन के द्वारा द्वारिका जलकर नष्ट हो जावेगी । जरत्कुमार के बाण द्वारा कृष्ण की मृत्यु होगी । कृष्ण आगामी तीर्थंकर होंगे । <span class="GRef"> महापुराण 72.178-182, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 22.80-83 </span>इन्होंने सुराष्ट्र, मलय, लाट, शूरसेन, पटच्चर, कुरुजांगल पाँचाल, कुशाग्र, मगध, अंजन, अंग, वंग तथा कलिंग आदि देशों में विहार कर जनता को धर्मोपदेश दिया । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 59. 110-111 </span>इस प्रकार इन्होंने छ: सौ निन्यानवे वर्ष नौ मास चार दिन विहार करने के पश्चात् पाँच सौ तैंतीस मुनियों के साथ एक मास तक योग-निरोधकर आषाढ़ शुक्ल सप्तमी के दिन चित्रा नक्षत्र में रात्रि के आरंभ में ही अघातिया कर्म विनाश करके मोक्ष प्राप्त किया । इंद्र और देवों ने सभक्ति विधिपूर्वक इनके इस पंचम कल्याणक का उत्सव किया । <span class="GRef"> महापुराण 72.272-274, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 25. 147.151 </span>ये छठें पूर्वभव में पुष्करार्ध द्वीप के गंधिल देश में विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी में सूर्यप्रभ नगर के राजा सूर्यप्रभ के पुत्र चिंतागति, पाँचवें पूर्वभव में चौथे स्वर्ग में सामानिक देव, चौथे पूर्वभव में सुगंधिला देश के सिंहपुर नगर के राजा अर्हद्दास के पुत्र अपराजित, तीसरे पूर्वभव में अच्युत स्वर्ग में इंद्र, दूसरे पूर्वभव में हस्तिनापुर के राजा श्रीचंद्र के पुत्र सुप्रतिष्ठ और प्रथम पूर्वभव में जयंत नामक अनुत्तर विमान में अहमिंद्र हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 70. 26-28, 36-37, 41, 50-51, 59 </span></p> | ||
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Revision as of 22:21, 17 November 2023
सिद्धांतकोष से
सामान्य परिचय
तीर्थंकर क्रमांक | 22 |
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चिह्न | शङ्क |
पिता | समुद्रविजय |
माता | शिवदेवी |
वंश | यादव |
उत्सेध (ऊँचाई) | 10 धनुष |
वर्ण | नील |
आयु | 1000 वर्ष |
पूर्व भव सम्बंधित तथ्य
पूर्व मनुष्य भव | सुप्रतिष्ठ |
---|---|
पूर्व मनुष्य भव में क्या थे | मण्डलेश्वर |
पूर्व मनुष्य भव के पिता | सुनन्द |
पूर्व मनुष्य भव का देश, नगर | जम्बू भरत हस्तनागपुर |
पूर्व भव की देव पर्याय | जयन्त |
गर्भ-जन्म कल्याणक सम्बंधित तथ्य
गर्भ-तिथि | कार्तिक शुक्ल 6 |
---|---|
गर्भ-नक्षत्र | उत्तराषाढा |
गर्भ-काल | अन्तिम रात्रि |
जन्म तिथि | श्रावण शुक्ल 6 |
जन्म नगरी | द्वारावती |
जन्म नक्षत्र | चित्रा |
योग | ब्रह्म |
दीक्षा कल्याणक सम्बंधित तथ्य
वैराग्य कारण | जातिस्मरण |
---|---|
दीक्षा तिथि | श्रावण शुक्ल 6 |
दीक्षा नक्षत्र | चित्रा |
दीक्षा काल | अपराह्न |
दीक्षोपवास | तृतीय भक्त |
दीक्षा वन | सहकार |
दीक्षा वृक्ष | मेषशृंग |
सह दीक्षित | 2000 |
ज्ञान कल्याणक सम्बंधित तथ्य
केवलज्ञान तिथि | आश्विन शुक्ल 1 |
---|---|
केवलज्ञान नक्षत्र | चित्रा |
केवलोत्पत्ति काल | पूर्वाह्न |
केवल स्थान | गिरनार |
केवल वृक्ष | मेषशृंग |
निर्वाण कल्याणक सम्बंधित तथ्य
योग निवृत्ति काल | 1 मास पूर्व |
---|---|
निर्वाण तिथि | आषाढ़ कृष्ण 8 |
निर्वाण नक्षत्र | चित्रा |
निर्वाण काल | सायं |
निर्वाण क्षेत्र | उर्जयन्त |
समवशरण सम्बंधित तथ्य
समवसरण का विस्तार | 1 1/2 योजन |
---|---|
सह मुक्त | 536 |
पूर्वधारी | 400 |
शिक्षक | 11800 |
अवधिज्ञानी | 1500 |
केवली | 1500 |
विक्रियाधारी | 1100 |
मन:पर्ययज्ञानी | 900 |
वादी | 800 |
सर्व ऋषि संख्या | 18000 |
गणधर संख्या | 11 |
मुख्य गणधर | वरदत्त |
आर्यिका संख्या | 40000 |
मुख्य आर्यिका | यक्षिणी |
श्रावक संख्या | 100000 |
मुख्य श्रोता | उग्रसेन |
श्राविका संख्या | 300000 |
यक्ष | पार्श्व |
यक्षिणी | कूष्माण्डी |
आयु विभाग
आयु | 1000 वर्ष |
---|---|
कुमारकाल | 300 वर्ष |
विशेषता | त्याग |
छद्मस्थ काल | 56 दिन |
केवलिकाल | 699 वर्ष 10 मास 4 दिन |
तीर्थ संबंधी तथ्य
जन्मान्तरालकाल | 509000 वर्ष |
---|---|
केवलोत्पत्ति अन्तराल | 84380 वर्ष 2 मास 4 दिन |
निर्वाण अन्तराल | 83750 वर्ष |
तीर्थकाल | 84380 वर्ष |
तीर्थ व्युच्छित्ति | ❌ |
शासन काल में हुए अन्य शलाका पुरुष | |
चक्रवर्ती | ब्रह्मदत्त |
बलदेव | पद्म |
नारायण | कृष्ण |
प्रतिनारायण | जरासिंध |
रुद्र | ❌ |
—( महापुराण/70/ श्लो.नं.पूर्व भव नं.6 में पुष्करार्ध द्वीप के पश्चिम मेरु के पास गंधित देश, विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में सूर्यप्रभ नगर के राजा सूर्यप्रभ के पुत्र चिंतागति थे।26-28। पूर्वभव नं.5 में चतुर्थ स्वर्ग में सामानिक देव हुए।36-37। पूर्वभव नं.4 में सुगंधिला देश के सिंहपुर नगर के राजा अर्हदास के पुत्र अपराजित हुए।41। पूर्वभव नं.3 में अच्युत स्वर्ग में इंद्र हुए।50। पूर्वभव नं.2 में हस्तिनापुर के राजा श्रीचंद्र के पुत्र सुप्रतिष्ठ हुए।51। और पूर्वभव में जयंत नामक अनुत्तर विमान में अहमिंद्र हुए।59। ( हरिवंशपुराण/34/17-43 ); ( महापुराण/72/277 में युगपत् सर्व भव दिये हैं। वर्तमान भव में 22वें तीर्थंकर हुए–देखें तीर्थंकर - 5।
पुराणकोष से
अवसर्पिणी काल के दुःखमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं बाईसवें तीर्थंकर । ये अरिष्टनेमि के नाम से विख्यात है । महापुराण 2.132, पद्मपुराण - 1.13, हरिवंशपुराण 1.24, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-107 । ये काश्यपगोत्री हरिवंश के शिखामणि द्वारावती नगरी के राजा समुद्रविजय के पुत्र थे । रानी शिवदेवी इनकी माँ थी । जयंत विमान से चयकर कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन उतराषाढ नक्षत्र में रात्रि के पिछले प्रहर में सोलह स्वप्नपूर्वक मां के गर्भ में आये तथा श्रावण शुक्ल षष्ठी के दिन ब्रह्मयोग के समय चित्रा नक्षत्र में इनका जन्म हुआ । जन्म से ही ये तीन ज्ञान के धारी थे । सौधर्म और ईशानेंद्र ने चमर ढोरते हुए पांडुक शिला पर विराजमान कर क्षीरसागर के जल से इनका अभिषेक किया था । ये नमिनाथ की तीर्थ परंपरा के पांच लाख वर्ष बीत जाने पर उत्पन्न हुए थे । इनकी आयु एक हजार वर्ष तथा शारीरिक अवगाहना दस धनुष थी संस्थान और संहनन उत्तम थे । ये अपूर्व शौर्य के धारक थे । एक समय इन्होंने कृष्ण की पटरानी सत्यभामा से अपना स्नानवस्त्र धोने को कहा था जिसके उत्तर में सत्यभामा ने कहा था कि मैं ऐसे साहसी के ही वस्त्र धोती हूँ जिसने नागशय्या पर अनायास ही शाङ्र्ग नामक दिव्य धनुष चढ़ाया है तथा शंख फूँका है । यह सुनकर इन्होंने भी दोनों काम कर दिखाये थे । इस कार्य से कृष्ण ने समझ लिया कि ये विवाह के योग्य हो गये हैं । इन्होंने भोजवंशी राजा उग्रसेन और रानी जयावती की पुत्री राजीमति के साथ इनका संबंध तय कर दिया । विवाह की तैयारियाँ हुई । मांसाहारी म्लेच्छ राजाओं के लिए मृगसमूह को एकत्र करके एक बाड़े में बाँधा गया । जब बारात उग्रसेन के नगर के पास पहुंची तो इन्होंने पशुओं के बंधन का कारण पूछा । कारण बता दिया गया । इससे वे राजीमती के साथ विवाह न करके विरक्त हो गये और बारात लौट गयी । लौकांतिक देवों ने आकर इनके वैराग्य की स्तुति की और दीक्षाकल्याणक का उत्सव मनाया । इसके पश्चात् ये देवकुरु नामक पालकी पर बैठकर सहस्राभ्रवन गये । वहाँ श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन सायंकाल कौमार्यकाल के तीन सौ वर्ष बीत जाने पर एक हजार राजाओं के साथ संयमी हुए । इसी समय इन्हें मन:पर्ययज्ञान भी हो गया । राजीमति भी विरक्त होकर इनके पीछे-पीछे तपश्चरण के लिए चली आयी । पारणा के दिन राजा वरदत्त ने इन्हें नवधा-भक्ति पूर्वक आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । तपस्या करते हुए छद्मस्थ अवस्था के छप्पन दिन बीत जाने पर ये रैवतक पर्वत पर बेला का नियम लेकर महावेणु (बड़े बाँस) वृक्ष के नीचे नीचे विराजमान हो गये । वहाँ आश्विन शुक्ला प्रतिपदा के दिन चित्रा नक्षत्र में प्रातःकाल के समय इन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । देवों ने केवल-ज्ञान-कल्याणक मनाया । इनके समवसरण में वरदत्त आदि ग्यारह गणधर, चार सौ पूर्व श्रुतविज्ञ, ग्यारह हजार आठ सौ शिक्षक, पंद्रह सौ तीन ज्ञान के धारी, इतने ही केवली, ग्यारह सौ विक्रियाऋद्धिधारी, नौ सौ मन:पर्ययज्ञानी और आठ वादी इस प्रकार कुल अठारह हजार मुनि थे । यक्षी, राजीमती, कात्यायनी आदि चालीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकाऐं, असंख्यात देवी-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे । महापुराण 71.27-51, 134-187, पांडवपुराण 22.37-66 बलदेव द्वारा यह पूछे जाने पर कि कृष्ण का निष्कंटक राज्य कब तक चलेगा? उत्तर में इन्होंने कहा था कि बारह वर्ष बाद मदिरा का निमित्त पाकर द्वीपायन के द्वारा द्वारिका जलकर नष्ट हो जावेगी । जरत्कुमार के बाण द्वारा कृष्ण की मृत्यु होगी । कृष्ण आगामी तीर्थंकर होंगे । महापुराण 72.178-182, पांडवपुराण 22.80-83 इन्होंने सुराष्ट्र, मलय, लाट, शूरसेन, पटच्चर, कुरुजांगल पाँचाल, कुशाग्र, मगध, अंजन, अंग, वंग तथा कलिंग आदि देशों में विहार कर जनता को धर्मोपदेश दिया । हरिवंशपुराण 59. 110-111 इस प्रकार इन्होंने छ: सौ निन्यानवे वर्ष नौ मास चार दिन विहार करने के पश्चात् पाँच सौ तैंतीस मुनियों के साथ एक मास तक योग-निरोधकर आषाढ़ शुक्ल सप्तमी के दिन चित्रा नक्षत्र में रात्रि के आरंभ में ही अघातिया कर्म विनाश करके मोक्ष प्राप्त किया । इंद्र और देवों ने सभक्ति विधिपूर्वक इनके इस पंचम कल्याणक का उत्सव किया । महापुराण 72.272-274, पांडवपुराण 25. 147.151 ये छठें पूर्वभव में पुष्करार्ध द्वीप के गंधिल देश में विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी में सूर्यप्रभ नगर के राजा सूर्यप्रभ के पुत्र चिंतागति, पाँचवें पूर्वभव में चौथे स्वर्ग में सामानिक देव, चौथे पूर्वभव में सुगंधिला देश के सिंहपुर नगर के राजा अर्हद्दास के पुत्र अपराजित, तीसरे पूर्वभव में अच्युत स्वर्ग में इंद्र, दूसरे पूर्वभव में हस्तिनापुर के राजा श्रीचंद्र के पुत्र सुप्रतिष्ठ और प्रथम पूर्वभव में जयंत नामक अनुत्तर विमान में अहमिंद्र हुए थे । महापुराण 70. 26-28, 36-37, 41, 50-51, 59