प्रलय: Difference between revisions
From जैनकोष
mNo edit summary |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><strong name="1" id="1"><span class="HindiText"> जैन मान्य प्रलय का स्वरूप </span></strong><br /> | <li><strong name="1" id="1"><span class="HindiText"> जैन मान्य प्रलय का स्वरूप </span></strong><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/1544-1554 </span><span class="PrakritGatha"> उणवण्णदिवसविरहिदइगिवीससहस्सवस्स विच्छेदे । जंतुभयंकरकालो पलयो त्ति पयट्टदे घोरो ।1544। ताहे गरुवगभीरो पसरदि पवणो रउद्दसंवट्टो . तरुगिरिसिलपहुदीणं कुणेदि चुण्णाइं सत्तदिणे ।1545। तरुगिरिभंगेहिं णरा तिरिया य लहंति गुरुवदुक्खाइं । इच्छंति वसणठाणं विलवंति बहुप्पयारेण ।1546। गंगासिंधुणदीणं वेयड्ढवणंतरम्मि पविसंति । पुह पुह संखेज्जाइं बाहत्तरि सयलजुकवलाइं ।1547। देवा विज्जाहरया कारुण्णपरा णराण तिरियाणं । संकेज्जजीवरासिं खिवति तेसुं पएसेसुं ।1548। ताहे गभीरगज्जी मेघ मुंचंति तुहिणखारजलं । विससलिलं पत्तेक्कं पत्तेक्कं सत्तदिवसाणिं ।1549। घूमो धूली वज्जं जलंतजाला य दुप्पेच्छा । वरिसंति जलदणिवहा एक्केक्कं सत्त दिवसाणिं ।1550। एवं कमेण भरहे अज्जाखंडम्मि जोयणं एक्कं । चित्ताए उवरि ठिदा दज्झइ वड्ढिगदा भूमी ।1551। वज्जमहग्गिबलेण अज्जखंडस्स वड्ढिया भूमी । पुव्विल्लखंधरूवं मुत्तूण जादि लोयंतं ।1552। ताहे अज्जाखंडं दप्पणतलतुलिदकंतिसमवट्ठं । गयधूलिपंककलुसं होइ समं सेसभूमीहिं ।1553। तत्थुवत्थिदणराणं हत्थं उदओ य सोलसं वस्सा । अहवा पण्णरसाऊ विरियादी तदणुरूवा य ।1554।</span> = <span class="HindiText">अवसर्पिणी काल में दुखमदुखमा काल के उनचास दिन कम इक्कीस हजार वर्षों के बीत जाने पर जंतुओं को भयदायक घोर प्रलयकाल प्रवृत्त होता है ।1544। उस समय पर्वत व शिलादिकों चूर्ण कर देने वाली सात दिन संवर्तक वायु चलती है ।1545। वृक्ष और पर्वतों के भंग होने से मनुष्य एवं तिर्यंच वस्त्र और स्थान की अभिलाषा करते हुए बहुत प्रकार से विलाप करते हैं ।1546। इस समय पृथक्-पृथक् संख्यात व संपूर्ण बहत्तर युगल गंगा-सिंधु नदियों की वेदी और विजयार्द्धवन में प्रवेश करते हैं ।1547। इस समय देव और विद्याधर दयार्द्र होकर मनुष्य और तिर्यंचों में से संख्यात जीव राशि को उन प्रदेशों में ले जाकर रखते हैं ।1548। उस समय गंभीर गर्जना से सहित मेघ तुहिन और क्षार जल तथा विष जल में से प्रत्येक सात दिन तक बरसाते हैं ।1549। इसके अतिरिक्त वे मेघों के समूह धूम, धूलि, वज्र एवं जलती हुई दुष्प्रेक्ष्य ज्वाला, इनमें से हर एक को सात दिन तक बरसाते हैं ।1550। इस क्रम से भरत क्षेत्र के भीतर आर्यखंड में चित्रा पृथ्वी के ऊपरस्थित वृद्धिंगत एक योजन की भूमि जलकर नष्ट हो जाती है ।1551। वज्र और महाग्नि के बल से आर्यखंड की बढ़ी हुई भूमि अपने पूर्ववर्ती स्कंधस्वरूप को छोड़कर लोकांत तक पहुँच जाती है ।1552। उस समय आर्यखंड शेष भूमियों के समान दर्पणतलके सदृश कांति से स्थित और धूलि एवं कीचड़ की कलुषता से रहित हो जाता है ।1553। वहाँ पर उपस्थित मनुष्यों की ऊँचाई एक हाथ, आयु सोलह अथवा पंद्रह वर्ष प्रमाण और वीर्यादिक भी तदनुसार ही होते हैं ।1554। | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/1544-1554 </span><span class="PrakritGatha"> उणवण्णदिवसविरहिदइगिवीससहस्सवस्स विच्छेदे । जंतुभयंकरकालो पलयो त्ति पयट्टदे घोरो ।1544। ताहे गरुवगभीरो पसरदि पवणो रउद्दसंवट्टो . तरुगिरिसिलपहुदीणं कुणेदि चुण्णाइं सत्तदिणे ।1545। तरुगिरिभंगेहिं णरा तिरिया य लहंति गुरुवदुक्खाइं । इच्छंति वसणठाणं विलवंति बहुप्पयारेण ।1546। गंगासिंधुणदीणं वेयड्ढवणंतरम्मि पविसंति । पुह पुह संखेज्जाइं बाहत्तरि सयलजुकवलाइं ।1547। देवा विज्जाहरया कारुण्णपरा णराण तिरियाणं । संकेज्जजीवरासिं खिवति तेसुं पएसेसुं ।1548। ताहे गभीरगज्जी मेघ मुंचंति तुहिणखारजलं । विससलिलं पत्तेक्कं पत्तेक्कं सत्तदिवसाणिं ।1549। घूमो धूली वज्जं जलंतजाला य दुप्पेच्छा । वरिसंति जलदणिवहा एक्केक्कं सत्त दिवसाणिं ।1550। एवं कमेण भरहे अज्जाखंडम्मि जोयणं एक्कं । चित्ताए उवरि ठिदा दज्झइ वड्ढिगदा भूमी ।1551। वज्जमहग्गिबलेण अज्जखंडस्स वड्ढिया भूमी । पुव्विल्लखंधरूवं मुत्तूण जादि लोयंतं ।1552। ताहे अज्जाखंडं दप्पणतलतुलिदकंतिसमवट्ठं । गयधूलिपंककलुसं होइ समं सेसभूमीहिं ।1553। तत्थुवत्थिदणराणं हत्थं उदओ य सोलसं वस्सा । अहवा पण्णरसाऊ विरियादी तदणुरूवा य ।1554।</span> = <span class="HindiText">अवसर्पिणी काल में दुखमदुखमा काल के उनचास दिन कम इक्कीस हजार वर्षों के बीत जाने पर जंतुओं को भयदायक घोर प्रलयकाल प्रवृत्त होता है ।1544। उस समय पर्वत व शिलादिकों चूर्ण कर देने वाली सात दिन संवर्तक वायु चलती है ।1545। वृक्ष और पर्वतों के भंग होने से मनुष्य एवं तिर्यंच वस्त्र और स्थान की अभिलाषा करते हुए बहुत प्रकार से विलाप करते हैं ।1546। इस समय पृथक्-पृथक् संख्यात व संपूर्ण बहत्तर युगल गंगा-सिंधु नदियों की वेदी और विजयार्द्धवन में प्रवेश करते हैं ।1547। इस समय देव और विद्याधर दयार्द्र होकर मनुष्य और तिर्यंचों में से संख्यात जीव राशि को उन प्रदेशों में ले जाकर रखते हैं ।1548। उस समय गंभीर गर्जना से सहित मेघ तुहिन और क्षार जल तथा विष जल में से प्रत्येक सात दिन तक बरसाते हैं ।1549। इसके अतिरिक्त वे मेघों के समूह धूम, धूलि, वज्र एवं जलती हुई दुष्प्रेक्ष्य ज्वाला, इनमें से हर एक को सात दिन तक बरसाते हैं ।1550। इस क्रम से भरत क्षेत्र के भीतर आर्यखंड में चित्रा पृथ्वी के ऊपरस्थित वृद्धिंगत एक योजन की भूमि जलकर नष्ट हो जाती है ।1551। वज्र और महाग्नि के बल से आर्यखंड की बढ़ी हुई भूमि अपने पूर्ववर्ती स्कंधस्वरूप को छोड़कर लोकांत तक पहुँच जाती है ।1552। उस समय आर्यखंड शेष भूमियों के समान दर्पणतलके सदृश कांति से स्थित और धूलि एवं कीचड़ की कलुषता से रहित हो जाता है ।1553। वहाँ पर उपस्थित मनुष्यों की ऊँचाई एक हाथ, आयु सोलह अथवा पंद्रह वर्ष प्रमाण और वीर्यादिक भी तदनुसार ही होते हैं ।1554।<span class="GRef">( महापुराण/73/447-459 )</span>, (त्रि, सा./864-864) ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> |
Revision as of 22:27, 17 November 2023
- जैन मान्य प्रलय का स्वरूप
तिलोयपण्णत्ति/4/1544-1554 उणवण्णदिवसविरहिदइगिवीससहस्सवस्स विच्छेदे । जंतुभयंकरकालो पलयो त्ति पयट्टदे घोरो ।1544। ताहे गरुवगभीरो पसरदि पवणो रउद्दसंवट्टो . तरुगिरिसिलपहुदीणं कुणेदि चुण्णाइं सत्तदिणे ।1545। तरुगिरिभंगेहिं णरा तिरिया य लहंति गुरुवदुक्खाइं । इच्छंति वसणठाणं विलवंति बहुप्पयारेण ।1546। गंगासिंधुणदीणं वेयड्ढवणंतरम्मि पविसंति । पुह पुह संखेज्जाइं बाहत्तरि सयलजुकवलाइं ।1547। देवा विज्जाहरया कारुण्णपरा णराण तिरियाणं । संकेज्जजीवरासिं खिवति तेसुं पएसेसुं ।1548। ताहे गभीरगज्जी मेघ मुंचंति तुहिणखारजलं । विससलिलं पत्तेक्कं पत्तेक्कं सत्तदिवसाणिं ।1549। घूमो धूली वज्जं जलंतजाला य दुप्पेच्छा । वरिसंति जलदणिवहा एक्केक्कं सत्त दिवसाणिं ।1550। एवं कमेण भरहे अज्जाखंडम्मि जोयणं एक्कं । चित्ताए उवरि ठिदा दज्झइ वड्ढिगदा भूमी ।1551। वज्जमहग्गिबलेण अज्जखंडस्स वड्ढिया भूमी । पुव्विल्लखंधरूवं मुत्तूण जादि लोयंतं ।1552। ताहे अज्जाखंडं दप्पणतलतुलिदकंतिसमवट्ठं । गयधूलिपंककलुसं होइ समं सेसभूमीहिं ।1553। तत्थुवत्थिदणराणं हत्थं उदओ य सोलसं वस्सा । अहवा पण्णरसाऊ विरियादी तदणुरूवा य ।1554। = अवसर्पिणी काल में दुखमदुखमा काल के उनचास दिन कम इक्कीस हजार वर्षों के बीत जाने पर जंतुओं को भयदायक घोर प्रलयकाल प्रवृत्त होता है ।1544। उस समय पर्वत व शिलादिकों चूर्ण कर देने वाली सात दिन संवर्तक वायु चलती है ।1545। वृक्ष और पर्वतों के भंग होने से मनुष्य एवं तिर्यंच वस्त्र और स्थान की अभिलाषा करते हुए बहुत प्रकार से विलाप करते हैं ।1546। इस समय पृथक्-पृथक् संख्यात व संपूर्ण बहत्तर युगल गंगा-सिंधु नदियों की वेदी और विजयार्द्धवन में प्रवेश करते हैं ।1547। इस समय देव और विद्याधर दयार्द्र होकर मनुष्य और तिर्यंचों में से संख्यात जीव राशि को उन प्रदेशों में ले जाकर रखते हैं ।1548। उस समय गंभीर गर्जना से सहित मेघ तुहिन और क्षार जल तथा विष जल में से प्रत्येक सात दिन तक बरसाते हैं ।1549। इसके अतिरिक्त वे मेघों के समूह धूम, धूलि, वज्र एवं जलती हुई दुष्प्रेक्ष्य ज्वाला, इनमें से हर एक को सात दिन तक बरसाते हैं ।1550। इस क्रम से भरत क्षेत्र के भीतर आर्यखंड में चित्रा पृथ्वी के ऊपरस्थित वृद्धिंगत एक योजन की भूमि जलकर नष्ट हो जाती है ।1551। वज्र और महाग्नि के बल से आर्यखंड की बढ़ी हुई भूमि अपने पूर्ववर्ती स्कंधस्वरूप को छोड़कर लोकांत तक पहुँच जाती है ।1552। उस समय आर्यखंड शेष भूमियों के समान दर्पणतलके सदृश कांति से स्थित और धूलि एवं कीचड़ की कलुषता से रहित हो जाता है ।1553। वहाँ पर उपस्थित मनुष्यों की ऊँचाई एक हाथ, आयु सोलह अथवा पंद्रह वर्ष प्रमाण और वीर्यादिक भी तदनुसार ही होते हैं ।1554।( महापुराण/73/447-459 ), (त्रि, सा./864-864) ।
- प्रलय के पश्चात् युग का प्रारंभ - देखें काल - 4.11
- अन्य मत मान्य प्रलय का स्वरूप - देखें वैशेषिक व सांख्य दर्शन ।