विद्याधर: Difference between revisions
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<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. का भावार्थ</span>–जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित विजयार्ध पर्वत के ऊपर दश योजन जाकर उस पर्वत के दोनों पार्श्व भागों में विद्याधरों की एक-एक श्रेणी है।109। दक्षिण श्रेणी में 50 और उत्तर श्रेणी में 60 नगर हैं।111। इससे भी 10 योजन ऊपर जाकर आभियोग्य देवों की दो श्रेणियाँ हैं।140। विदेह क्षेत्र के कच्छा देश में स्थित विजयार्द्ध के ऊपर भी उसी प्रकार दो श्रेणियाँ हैं।2258। दोनों ही श्रेणियों में 55-55 नगर है ।2258। शेष 31 विदेहों के विजयार्द्धों पर भी इसी प्रकार 55-55 नगर वाली दो-दो श्रेणियाँ हैं।2292। ऐरावत क्षेत्र के विजयार्ध का कथन भी भरतक्षेत्र वत् जानना।2365। जंबूद्वीप के तीनों क्षेत्रों के विजयार्धों के सदृश ही धात की खंड व पुष्करार्ध द्वीप में जानना चाहिए।2716, 292। | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. का भावार्थ</span>–जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित विजयार्ध पर्वत के ऊपर दश योजन जाकर उस पर्वत के दोनों पार्श्व भागों में विद्याधरों की एक-एक श्रेणी है।109। दक्षिण श्रेणी में 50 और उत्तर श्रेणी में 60 नगर हैं।111। इससे भी 10 योजन ऊपर जाकर आभियोग्य देवों की दो श्रेणियाँ हैं।140। विदेह क्षेत्र के कच्छा देश में स्थित विजयार्द्ध के ऊपर भी उसी प्रकार दो श्रेणियाँ हैं।2258। दोनों ही श्रेणियों में 55-55 नगर है ।2258। शेष 31 विदेहों के विजयार्द्धों पर भी इसी प्रकार 55-55 नगर वाली दो-दो श्रेणियाँ हैं।2292। ऐरावत क्षेत्र के विजयार्ध का कथन भी भरतक्षेत्र वत् जानना।2365। जंबूद्वीप के तीनों क्षेत्रों के विजयार्धों के सदृश ही धात की खंड व पुष्करार्ध द्वीप में जानना चाहिए।2716, 292। <span class="GRef">( राजवार्तिक/3/10/4/172/1 )</span>; <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/22/84 )</span>; <span class="GRef">( महापुराण/19/27-30 )</span>; <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/38-39 )</span>; <span class="GRef">( त्रिलोकसार/695-696 )</span>। <br /> | ||
देखें [[ काल#4.14 | काल - 4.14 ]]– [इसमें सदा चौथा काल वर्तता है।] <br> | देखें [[ काल#4.14 | काल - 4.14 ]]– [इसमें सदा चौथा काल वर्तता है।] <br> | ||
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<span class="HindiText"> नमि और विनमि के वंश में उत्पन्न विद्याओं को धारण करने वाले पुरुष । ये गर्भवास के दु:ख भोगकर विजयार्ध पर्वत पर उनके योग्य कुलों में उत्पन्न होते हैं । आकाश में चलने से इन्हें खचर कहा जाता है । इनके रहने के लिए विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में पचास और उत्तरश्रेणी में साठ कुल एक सौ दस नगर हैं । <span class="GRef"> पद्मपुराण 6.210, 43.33-34, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 22.85-101, </span>देखें [[ विजयार्ध#3 | विजयार्ध - 3]]</p> | <span class="HindiText"> नमि और विनमि के वंश में उत्पन्न विद्याओं को धारण करने वाले पुरुष । ये गर्भवास के दु:ख भोगकर विजयार्ध पर्वत पर उनके योग्य कुलों में उत्पन्न होते हैं । आकाश में चलने से इन्हें खचर कहा जाता है । इनके रहने के लिए विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में पचास और उत्तरश्रेणी में साठ कुल एक सौ दस नगर हैं । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_6#210|पद्मपुराण - 6.210]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_43#33|पद्मपुराण - 43.33-34]], </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 22.85-101, </span>देखें [[ विजयार्ध#3 | विजयार्ध - 3]]</p> | ||
Revision as of 22:35, 17 November 2023
सिद्धांतकोष से
- विद्याधर खचर नहीं हैं
- विद्याधर सुमेरु पर्वत पर जा सकते हैं
- विद्याधर लोक निर्देश
- विद्याधरों की नगरियों के नाम
- अन्य संबंधित विषय
धवला 9/4, 1, 16/77/10 एवमेदाओ तिविहाओ विज्जाओ होंति विज्जाहराणं। तेण वेअड्ढणिवासिमणुआ वि विज्जाहरा, सयलविज्जाओ छंडिऊण गहिदसंजमविज्जाहरा वि होंति विज्जाहरा, विज्जाविसयविण्णाणस्स तत्थुवलंभादो। पढिदविज्जाणुपवादा विज्जाहरा, तेसिं पि विज्जाविसयविण्णाणुवलंभादो। = इस प्रकार से तीन प्रकार की विद्याएँ (जाति, कुल व तप विद्या) विद्याधरों के होती हैं। इससे वैताढय पर्वत पर निवास करने वाले मनुष्य भी विद्याधर होते हैं। सब विद्याओं को छोड़कर संयम को ग्रहण करने वाले भी विद्याधर होते हैं, क्योंकि विद्याविषयक विज्ञान वहाँ पाया जाता है जिन्होंने विद्यानुप्रवाद को पढ़ लिया है वे भी विद्याधर हैं, क्योंकि उनके भी विद्याविषयक विज्ञान पाया जाता है।
त्रिलोकसार/709 विज्जाहरा तिविज्जा वसंति छक्कम्मसंजुत्ता। = विद्याधर लोग तीन विद्याओं से तथा पूजा उपासना आदि षट्कर्मों से संयुक्त होते हैं।
- विद्याधर खचर नहीं हैं
धवला 11/4,2,6,12/115/6 ण विज्जाहराणं खगचरत्तमत्थि विज्जाए विणा सहावदो चेव गगणगमणसमत्थेसु खगयत्तप्पसिद्धीदो। = विद्याधर आकाशचारी नहीं हो सकते, क्योंकि विद्या की सहायता के बिना जो स्वभाव से ही आकाश गमन में समर्थ हैं उनमें ही खचरत्व की प्रसिद्धि है।
- विद्याधर सुमेरु पर्वत पर जा सकते हैं
महापुराण/13/216 साशंकं गगनेचरैः किमिदमित्यालोकितो यः स्फुरन्मेरोर्मूद्र्ध्नि स नोऽवताज्जिनविभोर्जन्मोत्सवांभः प्लवः।216। = मेरु पर्वत के मस्तक पर स्फुरायमान होता हुआ, जिनेंद्र भगवान् के जन्माभिषेक को उस जलप्रवाह को, विद्याधरों ने ‘यह क्या है’ ऐसी शंका करते हुए देखा था।216।
- विद्याधर लोक निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. का भावार्थ–जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित विजयार्ध पर्वत के ऊपर दश योजन जाकर उस पर्वत के दोनों पार्श्व भागों में विद्याधरों की एक-एक श्रेणी है।109। दक्षिण श्रेणी में 50 और उत्तर श्रेणी में 60 नगर हैं।111। इससे भी 10 योजन ऊपर जाकर आभियोग्य देवों की दो श्रेणियाँ हैं।140। विदेह क्षेत्र के कच्छा देश में स्थित विजयार्द्ध के ऊपर भी उसी प्रकार दो श्रेणियाँ हैं।2258। दोनों ही श्रेणियों में 55-55 नगर है ।2258। शेष 31 विदेहों के विजयार्द्धों पर भी इसी प्रकार 55-55 नगर वाली दो-दो श्रेणियाँ हैं।2292। ऐरावत क्षेत्र के विजयार्ध का कथन भी भरतक्षेत्र वत् जानना।2365। जंबूद्वीप के तीनों क्षेत्रों के विजयार्धों के सदृश ही धात की खंड व पुष्करार्ध द्वीप में जानना चाहिए।2716, 292। ( राजवार्तिक/3/10/4/172/1 ); ( हरिवंशपुराण/22/84 ); ( महापुराण/19/27-30 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/38-39 ); ( त्रिलोकसार/695-696 )।
देखें काल - 4.14 – [इसमें सदा चौथा काल वर्तता है।]
- विद्याधरों की नगरियों के नाम
विद्याधरों की नगरियों के नाम - दक्षिण श्रेणी नंबर तिलोयपण्णति महापुराण त्रिलोकसार हरिवंशपुराण 1. किंनामित किंनामित किंनामित रथनूपुर 2. किन्नरगीत किन्नरगीत किन्नरगीत आनंद 3. नरगीत नरगीत नरगीत चक्रवाल 4. बहुकेतु बहुकेतु बहुकेतु अरिंजय 5. पुण्डरीक पुण्डरीक पुण्डरीक मण्डित 6. सिंहध्वज सिंहध्वज सिंहध्वज बहुकेतु 7. श्वेतकेतु श्वेतकेतु श्वेतध्वज शक्टामुख 8. गरुडध्वज गरुडध्वज गरुडध्वज गन्धस्मृद्ध 9. श्रीप्रभ श्रीप्रभ श्रीप्रभ शिवमंदिर 10. श्रीधर श्रीधर श्रीधर वैजयंत 11. लोहार्गल लोहार्गल लोहार्गल रथपुर 12. अरिजय अरिजय अरिजय श्रीपुर 13. वज्रार्गल वज्रार्गल वज्रार्गल रत्नसंचय 14. वज्राढ्य वज्राढ्य वज्राढ्यपुर आषाढ 15. विमोचिता विमोच विमोचिपुर मानस 16. जयपुरी पुरजय जय सूर्यपुर 17. शकटमुखी शकटमुखी शकटमुखी स्वर्णनाभ 18. चतुर्मुख चतुर्मुख चतुर्मुख शतह्रद 19. बहुमुख बहुमुख बहुमुख अंगावर्त 20. अरजस्का अरजस्का अरजस्का जलावर्त 21. विरजस्का विरजस्का विरजस्का आवर्तपुर 22. रथनूपुर रथनूपुर रथनूपुर बृहद्गृह 23. मेखलापुर मेखलापुर मेखलापुर शंखवज्र 24. क्षेमपुर क्षेमपुर क्षेमचरी नाभान्त 25. अपराजित अपराजित अपराजित मेघकूट 26. कामपुष्प कामपुष्प कामपुष्प मणिप्रभ 27 गगनचरी गगनचरी गगनचरी कुञ्जरावर्त 28. विजयचरी (विनयपुरी) विजयचरी विजयचरी असितपर्वत 29. शक्रपुरी चक्रपुर शुक्र सिन्धुकक्ष 30. सजयंत सजयंती सजयंती महाकक्ष 31. जयंत जयंती जयंती सकक्ष 32. विजय विजया विजया चन्द्रपर्वत 33. वैजयंत वैजयंती वैजयंती श्रीकूट 34. क्षेमकर क्षेमकर क्षेमकर गौरीकूट 35. चन्द्राभ चन्द्राभ चन्द्राभ लक्ष्मीकूट 36. सूर्याभ सूर्याभ सूर्याभ धराधर 37. पुरोत्तम रतिकूट रतिकूट कालकेशपुर 38. चित्रकूट चित्रकूट चित्रकूट रम्यपुर 39. महाकूट महाकूट महाकूट हिमपुर 40. सुवर्णकूट हेमकूट हेमकूट किन्नरोद्गीत नगर 41. त्रिकूट मेघकूट त्रिकूट नभस्तिलक 42. विचित्रकूट विचित्रकूट विचित्रकूट मगधसारनलक 43. मेघकूट वैश्रवणकूट वैश्रवणकूट पाशुमूल 44. वैश्रवणकूट सूर्यपुर सूर्यपुर दिव्यौषध 45. सूर्यपुर चन्द्रपुर चन्द्रपुर अर्कमूल 46. चन्द्र नित्योद्योतिनी नित्योद्योतिनी उदयपर्वत 47. नित्योद्योत विमुखी विमुखी अमृतधारा 48. विमुखी नित्यवाहिनी नित्यवाहिनी कूटमातंगपुर 49. नित्यवाहिनी सुमुखी सुमुखी भूमिमंडल 50. सुमुखी पश्चिमा पश्चिमा जम्बुशंकुपुर - अन्य संबंधित विषय
- विद्याधरों में सम्यक्त्व व गुणस्थान।–देखें आर्यखंड ।
- विद्याधर नगरों में सर्वदा चौथा काल वर्तता है।–देखें काल - 4.14।
- विद्याधरों में सम्यक्त्व व गुणस्थान।–देखें आर्यखंड ।
नंबर | तिलोयपण्णति | महापुराण | त्रिलोकसार | हरिवंशपुराण |
---|---|---|---|---|
1. | अर्जुणी | अर्जुणी | अर्जुणी | आदित्यनगर |
2. | अरुणी | वारुणी | अरुणी | गगनवल्लभ |
3. | कैलास | कैलास | कैलास | चमरचम्पा |
4. | वारुणी | वारुणी | वारुणी | गगनमंडल |
5. | विद्युत्प्रभ | विद्युत्प्रभ | विद्युत्प्रभ | विजय |
6. | किलकिल | किलकिल | किलकिल | वैजयंत |
7. | चूडामणी | चूडामणी | चूडामणी | शत्रुजय |
8. | शशिप्रभ | शशिप्रभा | शशिप्रभ | अरिजय |
9. | वशाल | वशाल | वशाल | पद्माल |
10. | पुष्पचूल | पुष्पचूड | पुष्पचूल | केतुमाल |
11. | हसगर्भ | हसगर्भ | हसगर्भ | रुद्राश्व |
12. | वलाहक | वलाहक | वलाहक | धनंजय |
13. | शिवंकर | शिवंकर | शिवंकर | वस्वौक |
14. | श्रीसौध | श्रीहम्-र्य | श्रीसौध | सारनिवह |
15. | चमर | चमर | चमर | जयन्त |
16. | शिवमदर | शिवमंदिर | शिवमंदिर | अपराजित |
17. | वसुमत्का | वसुमत्क | वसुमत्का | वराह |
18. | वसुमति | वसुमति | वसुमति | हास्तिन |
19. | सर्वार्थपुर (सिद्धार्थपुर) | सिद्धार्थक | सिद्धार्थ | सिह |
20. | शत्रुंजय | शत्रुंजय | शत्रुंजय | सौकर |
21. | केतुमाल | केतुमाला | ध्वजमाल | हस्तिनायक |
22. | सुरपतिकात | सुरेंद्रकांत | सुरेंद्रकांत | पाण्डुक |
23. | गगनगनन्दन | गगनगनन्दन | गगनगनन्दन | कौशिक |
24. | अशोक | अशोका | अशोका | वीर |
25. | विशोक | विशोका | विशोका | गौरिक |
26. | वीतशोक | वीतशोका | वीतशोका | मानव |
27. | अलका | अलका | अलका | मनु |
28. | तिलक | तिलका | तिलका | चम्पा |
29. | अबरतिलक | अबरतिलक | अबरतिलक | कांचन |
30. | मंदर | मन्दिर | मंदर | ऐशान |
31. | कुमुद | कुमुद | कुमुद | मणिव्रज |
32. | कुन्द | कुन्द | कुन्द | जयावह |
33. | गगनवल्लभ | गगनवल्लभ | गगनवल्लभ | नैमिष |
34. | दिव्यतिलक | द्युतिलक | दिव्यतिलक | हास्तिविजय |
35. | भूमितिलक | भूमितिलक | भूमितिलक | खण्डिका |
36. | गन्धर्वपुर | गन्धर्वपुर | गन्धर्व नगर | मणिकांचन |
37. | मुक्ताहार | मुक्ताहार | मुक्ताहार | अशोक |
38. | नैमिप | निमिष | नैमिष | वेणु |
39. | अग्निज्वाल | अग्निज्वाल | अग्निज्वाल | आनंद |
40. | महाज्वाल | महाज्वाल | महाज्वाल | नन्दन |
41. | श्रीनिकेत | श्रीनिकेत | श्रीनिकेत | श्री निकेतन |
42. | जयावह | जय | जयावह | अग्निज्वाल |
43. | श्रीनिवास | श्रीनिवास | श्रीनिवास | महाज्वाल |
44. | मणिव्रज | मणिव्रज | मणिव्रज | माल्य |
45. | भद्राश्व | भद्राश्व | भद्राश्व | पुरु |
46. | धनजय | भवनंजय | धनजय | नन्दनी |
47. | माहेन्द्र | गोक्षीरफेन | गोक्षीरफेन | विद्युत्प्रभ |
48. | विजयनगर | अक्षोभ्य | अक्षोभ | महेन्द्र |
49. | सुगन्धिनी | गिरिशिखर | गिरिशिखर | विमल |
50. | वज्रार्द्धतर | धरणी | धरणी | गन्धमादन |
51. | गोक्षीरफेन | धारण | गोक्षीरफेन | महापुर |
52. | अक्षोभ | दुर्ग | दुर्ग | पुष्पमाल |
53. | गिरिशिखर | दुर्धर | दुर्धर | मेघमाल |
54. | धरणी | सुदर्शन | सुदर्शन | शशिप्रभ |
55. | वारिणी (धारिणी) | महेन्द्रपुर | महेन्द्र | चूडामणि |
56. | दुर्ग | विजयपुर | विजयपुर | पुष्पचूड |
57. | दुर्द्धर | सुगन्धनी | सुगन्धनी | हसगर्भ |
58. | सुदर्शन | वज्रपुर | वज्रार्ध्दतर | वलाहक |
59. | रत्नाकर | रत्नाकर | रत्नाकर | वशालय |
60. | रत्नपुर | चन्द्रपुर | रत्नपुर | सौमनस |
पुराणकोष से
नमि और विनमि के वंश में उत्पन्न विद्याओं को धारण करने वाले पुरुष । ये गर्भवास के दु:ख भोगकर विजयार्ध पर्वत पर उनके योग्य कुलों में उत्पन्न होते हैं । आकाश में चलने से इन्हें खचर कहा जाता है । इनके रहने के लिए विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में पचास और उत्तरश्रेणी में साठ कुल एक सौ दस नगर हैं । पद्मपुराण - 6.210,पद्मपुराण - 43.33-34, हरिवंशपुराण 22.85-101, देखें विजयार्ध - 3