वैयावृत्य: Difference between revisions
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- iii) मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा कोई उपद्रव-उपसर्ग किया जाने पर, | - iii) मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा कोई उपद्रव-उपसर्ग किया जाने पर, | ||
- iv) और परीषहों के समय में | - iv) और परीषहों के समय में | ||
सद्भाव पूर्वक यथायोग्य सेवा करना वैयावृत्य तप है । <span class="GRef"> महापुराण 20. 194, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 14.116-117, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 64.29, 45-55, 18.137, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 6.41-44 </span></p> | सद्भाव पूर्वक यथायोग्य सेवा करना वैयावृत्य तप है । <span class="GRef"> महापुराण 20. 194, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_14#116|पद्मपुराण - 14.116-117]], </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 64.29, 45-55, 18.137, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 6.41-44 </span></p> | ||
<p id="2">(2) षोडशकारण भावनाओं में नौवीं भावना । गुणवान् साधुजनों के क्षुधा, तृषा, व्याधि आदि से उत्पन्न दुःख को प्रासुक द्रव्यों के द्वारा दूर करने की भावना करना वैयावृत्य-भावना कहलाती है । <span class="GRef"> महापुराण 63. 326, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 34.140 </span></p> | <p id="2">(2) षोडशकारण भावनाओं में नौवीं भावना । गुणवान् साधुजनों के क्षुधा, तृषा, व्याधि आदि से उत्पन्न दुःख को प्रासुक द्रव्यों के द्वारा दूर करने की भावना करना वैयावृत्य-भावना कहलाती है । <span class="GRef"> महापुराण 63. 326, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 34.140 </span></p> | ||
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Revision as of 22:35, 17 November 2023
(1) आभ्यंतर तप का तीसरा भेद ।
- 1. आचार्य - 2. उपाध्याय - 3. तपस्वी - 4. शिक्षा ग्रहण करने वाले शैक्ष्य - 5. रोग आदि से ग्रस्त ग्लान - 6. वृद्ध मुनियों का समुदाय - 7. दीक्षा देने वाले आचार्य के शिष्यों का समूह रूप कुल - 8. गृहस्थ, क्षुल्लक, ऐलक तथा मुनियों का समुदाय रूप संघ - 9. चिरकाल के दीक्षित गुणी मुनि, साधु - 10.और मनोज्ञ लोकप्रिय मुनि इनकी - i) बीमारी के समय, - ii) मोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व की ओर उनकी प्रवृत्ति होने पर, - iii) मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा कोई उपद्रव-उपसर्ग किया जाने पर, - iv) और परीषहों के समय मेंसद्भाव पूर्वक यथायोग्य सेवा करना वैयावृत्य तप है । महापुराण 20. 194, पद्मपुराण - 14.116-117, हरिवंशपुराण 64.29, 45-55, 18.137, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.41-44
(2) षोडशकारण भावनाओं में नौवीं भावना । गुणवान् साधुजनों के क्षुधा, तृषा, व्याधि आदि से उत्पन्न दुःख को प्रासुक द्रव्यों के द्वारा दूर करने की भावना करना वैयावृत्य-भावना कहलाती है । महापुराण 63. 326, हरिवंशपुराण 34.140