नय II: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="II" id="II">सम्यक् व मिथ्या नय </strong> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="II.1" id="II.1">नय सम्यक् भी है और मिथ्या भी </strong></span><br> | |||
न.च.वृ./१८१ <span class="PrakritGatha">एयंतो एयणयो होइ अणेयंतमस्स सम्मूहो। तं खलु णाणवियप्पं सम्मं मिच्छं च णायव्वं।१८१।</span>=<span class="HindiText">एक नय तो एकान्त है और उसका समूह अनेकान्त है। वह ज्ञान का विकल्प सम्यक् भी होता है और मिथ्या भी। ऐसा जानना चाहिए। (पं.ध./पू./५५८,५६०)। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"> <strong name="II.2" id="II.2">सम्यक् व मिथ्या नयों के लक्षण </strong></span><br>स्या.म./७४/४ <span class="SanskritText">सम्यगेकान्तो नय: मिथ्यैकान्तो नयाभास:।=सम्यगेकान्त को नय कहते हैं और मिथ्या एकान्त को नयाभास या मिथ्या नय। (दे.एकान्त/१), (विशेष दे.अगले शीर्षक)। स्या.म./मू.व टीका/२८/३०७,१० सदेव सत् स्यात्सदिति त्रिधार्थो मीयते दुर्नीतिनयप्रमाणै:। यथार्थदर्शी तु नयप्रमाणपथेन दुर्नीतिपथं त्वमास्थ:।२८।...नीयते परिच्छिद्यते एकदेशविशिष्टोऽर्थ आभिरिति नीतयो नया:। दुष्टा नीतयो दुर्नीतयो दुर्नया इत्यर्थ:।</span>=<span class="HindiText">पदार्थ ‘सर्वथा सत् है’, ‘सत् है’ और कथंचित् सत् है’ इस प्रकार क्रम से दुर्नय, नय और प्रमाण से पदार्थों का ज्ञान होता है। यथार्थ मार्ग को देखने वाले आपने ही नय और प्रमाणमार्ग के द्वारा दुर्नयवाद का निराकरण किया है।२८। जिसके द्वारा पदार्थों के एक अंश का ज्ञान हो उसे नय (सम्यक् नय) कहते हैं। खोटे नयों को या दुर्नीतियों को दुर्नय कहते हैं। (स्या.म./२७/३०५/२८)। और भी दे० (नय/I/१/१), (पहिले जो नय सामान्य का लक्षण किया गया वह सम्यक् नय का है।) और भी देखें - [[ अगले शीर्षक | अगले शीर्षक ]]‒(सम्यक् व मिथ्या नय के विशेष लक्षण अगले शीर्षकों में स्पष्ट किये गये हैं)। </span></li> | |||
<li name="II.3" id="II.3"><span class="HindiText"><strong> अन्य पक्ष का निषेध न करे तो कोई भी नय मिथ्या नहीं होता </strong></span><br>क.पा.१/१३-१४/२०६/२५७/१ <span class="SanskritText">त चैकान्तेन नया: मिथ्यादृष्टय: एव; परपक्षानिकरिष्णूनां सपक्षसत्त्वावधारणे व्यापृतानां स्यात्सम्यग्दृष्टित्वदर्शनात् । उक्तं च‒णिययवयणिनसच्चा सव्वणया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा।११७।</span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय सर्वथा मिथ्यादृष्टि ही हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो नय परपक्ष का निराकरण नहीं करते हुए (विशेष देखें - [[ आगे नय#II.4 | आगे नय / II / ४ ]]) ही अपने पक्ष का निश्चय करने में व्यापार करते हैं उनमें कथंचित् समीचीनता पायी जाती है। कहा भी है‒ये सभी नय अपने विषय के कथन करने में समीचीन हैं, और दूसरे नयों के निराकरण करने में मूढ़ हैं। अनेकान्त रूप समय के ज्ञाता पुरुष ‘यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है’ इस प्रकार का विभाग नहीं करते हैं।११७। </span>न.च.वृ./२९२ <span class="PrakritText">ण दु णयपक्खो मिच्छा तं पिय णेयंतदव्वसिद्धियरा। सियसद्दसमारूढं जिणवयणविणिग्गयं सुद्धं।</span>=<span class="HindiText">नयपक्ष मिथ्या नहीं होता, क्योंकि वह अनेकान्त द्रव्य की सिद्धि करता है। इसलिए ‘स्यात्’ शब्द से चिह्नित तथा जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट नय शुद्ध है। </span></li> | |||
<li name="II.4" id="II.4"><span class="HindiText"><strong> अन्य पक्ष का निषेध करने से ही मिथ्या हो जाता है </strong></span><br>ध.९/४,१,४५/१८२/१ <span class="SanskritText">त एव दुरवधीरता मिथ्यादृष्टय: प्रतिपक्षनिराकरणमुखेन प्रवृत्तत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">ये (नय) ही जब दुराग्रहपूर्वक वस्तुस्वरूप का अवधारण करने वाले होते हैं, तब मिथ्या नय कहे जाते हैं, क्योंकि वे प्रतिपक्ष का निराकरण करने की मुख्यता से प्रवृत्त होते हैं। (विशेष दे०/एकान्त/१/२), (ध.९/४,१,४५/१८३/१०), (क.पा.३/२२/५१३/२९२/२)।</span> प्रमाणनयतत्त्वालंकार/७/१/(स्या.म./२८/३१६/२९ पर उद्धृत) <span class="SanskritText">स्वाभिप्रेताद् अंशाद् इतरांशपलापी पुनर्दुर्नयाभास:।</span>=<span class="HindiText">अपने अभीष्ट धर्म के अतिरिक्त वस्तु के अन्य धर्मों के निषेध करने को नयाभास कहते हैं। स्या.म./२८/३०८/१ ‘अस्त्येव घट:’ इति। अयं वस्तुनि एकान्तास्तित्वमेव अभ्युपगच्छन् इतरधर्माणां तिरस्कारेण स्वाभिप्रेतमेव धर्म व्यवस्थापयति।=किसी वस्तु में अन्य धर्मों का निषेध करके अपने अभीष्ट एकान्त अस्तित्व को सिद्ध करने को दुर्नय कहते हैं, जैसे ‘यह घट ही है’। </span></li> | |||
<li name="II.5" id="II.5"><span class="HindiText"> <strong>अन्य पक्ष का संग्रह करने पर वही नय सम्यक् हो जाते हैं </strong></span><br>सं.स्तो./६२ <span class="SanskritGatha">यथैकश: कारकमर्थसिद्धये, समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम् । तथैव सामान्यविशेषमातृका नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पत:।६२।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार एक-एक कारक शेष अन्य को अपना सहायकरूप कारक अपेक्षित करके अर्थ की सिद्धि के लिए समर्थ होता है, उसी प्रकार आपके मत में सामान्य और विशेष से उत्पन्न होने वाले अथवा सामान्य और विशेष को विषय करने वाले जो नय हैं वे मुख्य और गौण की कल्पना से इष्ट हैं। </span>ध.९/४,१,४५/२३९/४ <span class="PrakritText">सुणया कधं सविसया। एयंतेण पडिवक्खणिसेहाकरणादो गुणपहाणभावेण ओसादिदपमाणबाहादो।</span>=<span class="HindiText">ये सभी नय वस्तुस्वरूप का अवधारण न करने पर समीचीन नय होते हैं, क्योंकि वे प्रतिपक्ष धर्म का निराकरण नहीं करते। प्रश्न‒सुनयों के अपने विषयों की व्यवस्था कैसे सम्भव है? उत्तर‒चूकि सुनय सर्वथा प्रतिपक्षभूत विषयों का निषेध नहीं करते, अत: उनके गौणता और प्रधानता की अपेक्षा प्रमाणबाधा के दूर कर देने से उक्त विषय व्यवस्था भले प्रकार सम्भव है। </span>स्या.म./२८/३०८/४ <span class="SanskritText">स हि ‘अस्ति घट:’ इति घटे स्वाभिमतमस्तित्वधर्मं प्रसाधयन् शेषधर्मेषु गजनिमिलिकामालम्बते। न चास्य दुर्नयत्वं धर्मान्तरातिरस्कारात् ।</span>=<span class="HindiText">वस्तु में इष्ट धर्म को सिद्ध करते हुए अन्य धर्मों में उदासीन होकर वस्तु के विवेचन करने को नय कहते हैं। जैसे ‘यह घट है’। नय में दुर्नय की तरह एक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जाता, इसलिए उसे दुर्नय नहीं कहा जा सकता। </span></li> | |||
<li name="II.6" id="II.6"><span class="HindiText"> <strong>जो नय सर्वथा के कारण मिथ्या है वही कथंचित् के कारण सम्यक् है </strong></span><br>स्व.स्तो./१०१ <span class="SanskritGatha">सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च यो नया:। सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीह ते।१०१।</span> =<span class="HindiText">सत्, एक, नित्य, वक्तव्य तथा असत्, अनेक, अनित्य, व अवक्तव्य ये जो नय पक्ष हैं वे यहा सर्वथारूप में तो अति दूषित हैं और स्यात्रूप में पुष्टि को प्राप्त होते हैं। </span>गो.क./मू./८९४-८९५/१०७३ <span class="PrakritText">जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया।८९४। परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होइ सव्वहा वयणा। जेणाणं पुण वयणं सम्मं सु कहंचिव वयणादो।८९५।</span>=<span class="HindiText">जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं। परसमयवालों के वचन ‘सर्वथा’ शब्द सहित होने से मिथ्या होते हैं और जैनों के वही वचन ‘कथंचित्’ शब्द सहित होने से सम्यक् होते हैं। ( देखें - [[ नय#I.5 | नय / I / ५ ]]में ध.१)</span><br /> | |||
न.च.वृ./२९२ <span class="PrakritText">ण दु णयपक्खो मिच्छा तं पिय णेयंतदव्वसिद्धियरा। सियसद्दसमारूढं जिणवयणविणिग्गयं सुद्धं।</span>=<span class="HindiText">अनेकान्त द्रव्य की सिद्धि करने के कारण नयपक्ष मिथ्या नहीं होता। स्यात् पद से अलंकृत होकर वह जिनवचन के अन्तर्गत आने से शुद्ध अर्थात् समीचीन हो जाता है।</span> (न.च.वृ./२४९) स्या.म./३०/३३६/१३ <span class="SanskritText">ननु प्रत्येकं नयानां विरुद्धत्वे कथं समुदितानां निर्विरोधिता। उच्येत। यथा हि समीचीनं मध्यस्थं न्यायनिर्णेतारमासाद्य परस्परं विवादमाना अपि वादिनो विवादाद् विरमन्ति एवं नया अन्योऽन्यं वैरायमाणा अपि सर्वज्ञशासनमुपेत्य स्याच्छब्दप्रयोगोपशमितविप्रतिपत्तय: सन्त: परस्परमत्यन्तं सुहृद्भूयावतिष्ठन्ते।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒यदि प्रत्येक नय परस्पर विरुद्ध हैं, तो उन नयों के एकत्र मिलाने से उनका विरोध किस प्रकार नष्ट होता है? उत्तर‒जैसे परस्पर विवाद करते हुए वादी लोग किसी मध्यस्थ न्यायी के द्वारा न्याय किये जाने पर विवाद करना बन्द करके आपस में मिल जाते हैं, वैसे ही परस्पर विरुद्ध नय सर्वज्ञ भगवान् के शासन की शरण लेकर ‘स्यात्’ शब्द से विरोध के शान्त हो जाने पर परस्पर मैत्री भाव से एकत्र रहने लगते हैं।</span> पं.ध./पु./३३६-३३७ <span class="SanskritGatha">ननु किं नित्यमनित्यं किमथोभयमनुभयं च तत्त्वं स्यात् । व्यस्तं किमथ समस्तं क्रमत: किमथाक्रमादेतत् ।३३६। सत्यं स्वपरनिहत्यै सर्वं किल सर्वथेति पदपूर्वम् । स्वपरोपकृतिनिमित्तं सर्वं स्यात्स्यात्पदाङ्कितं तु पदम् ।३३७।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒तत्त्व नित्य है या अनित्य, उभय या अनुभय, व्यस्त या समस्त, क्रम से या अक्रम से? उत्तर‒ ‘सर्वथा’ इस पद पूर्वक सब ही कथन स्व पर घात के लिए हैं, किन्तु स्यात् पद के द्वारा युक्त सब ही पद स्वपर उपकार के लिए हैं। </span></li> | |||
<li name="II.7" id="II.7"><span class="HindiText"> <strong>सापेक्षनय सम्यक् और निरपेक्षनय मिथ्या होती है </strong></span><br>आ.मी./१०८<span class="SanskritText"> निरपेक्षया नया: मिथ्या सापेक्षा वस्तुतोऽर्थकत् ।</span>=<span class="HindiText">निरपेक्षनय मिथ्या है और सापेक्ष नय वस्तुस्वरूप है।</span> (श्लो.वा.४/१/३३/श्लो.८०/२६८)। स्व.स्तो./६१ <span class="SanskritText">य एव नित्यक्षणिकादयो नया;, मिथोऽनपेक्षा: स्व–परप्रणाशिन:। त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुने:, परस्परेक्षा: स्वपरोपकारिण:।६१।</span>=<span class="HindiText">जो ये नित्य व क्षणिकादि नय हैं वे परस्पर निरपेक्ष होने से स्वपर प्रणाशी हैं। हे प्रत्यक्षज्ञानी विमलजिन ! आपके मत में वे ही सब नय परस्पर सापेक्ष होने से स्व व पर के उपकार के लिए हैं।</span> क.पा./१/१३-१४/२०५/गा.१०२/२४९ <span class="PrakritText">तम्हा मिच्छादिट्ठी सव्वे वि णया सपक्खपडिबद्धा। अण्णोण्णणिस्सिया उण लहंति सम्मत्तसब्भावं।१०२।</span>=<span class="HindiText">केवल अपने-अपने पक्ष से प्रतिबद्ध ये सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं। परन्तु यदि परस्पर सापेक्ष हों तो सभी नय समीचीनपने को प्राप्त होते हैं, अर्थात् सम्यग्दृष्टि होते हैं। स.सि./१/३३/१४५/९ ते एते गुणप्रधानतया परस्परतन्त्रा: सम्यग्दर्शनहेतव: पुरुषार्थक्रियासाधनसामर्थ्यात्तन्त्वादय इव यथोपाय विनिवेश्यमाना: पटादिसंज्ञा: स्वतन्त्राश्चासमर्था:।=ये सब नय गौण-मुख्यरूप से एक दूसरे की अपेक्षा करके ही सम्यग्दर्शन के हेतु हैं। जिस प्रकार पुरुष की अर्थक्रिया और साधनों की सामर्थ्यवश यथायोग्य निवेशित किये गये तन्तु आदिक पट संज्ञा को प्राप्त होते हैं। (तथा पटरूप में अर्थक्रिया करने को समर्थ होते हैं। और स्वतन्त्र रहने पर (पटरूप में) कार्यकारी नहीं होते, वैसे ही ये नय भी समझने चाहिए।</span> (त.सा./१/५१)। सि.वि./मू./१०/२७/६९१ <span class="SanskritText">सापेक्षा नया: सिद्धा; दुर्नया अपि लोकत:। स्याद्वादिनां व्यवहारात् कुक्कुटग्रामवासितम् ।</span>=<span class="HindiText">लोक में प्रयोग की जाने वाली जो दुर्नय हैं वे भी स्याद्वादियों के ही सापेक्ष हो जाने से सुनय बन जाती हैं। यह बात आगम से सिद्ध है। जैसे कि एक किसी घर में रहने वाले अनेक गृहवासी परस्पर मैत्री पूर्वक रहते हैं।</span> लघीयस्त्रय/३० <span class="SanskritGatha">भेदाभेदात्मके ज्ञेये भेदाभेदाभिसन्धय:। ये तेऽपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते नयदुर्नया:।३०।</span> =<span class="HindiText">भेदाभेदात्मक ज्ञेय में भेद व अभेदपने की अभिसन्धि होने के कारण, उनको बतलाने वाले नय भी सापेक्ष होने से नय और निरपेक्ष होने दुर्नय कहलाते हैं। (पं.ध./पू./५९०)</span>। न.च.वृ./२४९ <span class="PrakritText">सियसावेक्खा सम्मा मिच्छारूवा हु तेहिं णिरवेक्खा। तम्हा सियसद्दादो विसयं दोण्हं पि णायव्वं।</span>=<span class="HindiText">क्योंकि सापेक्ष नय सम्यक् और निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं, इसलिए प्रमाण व नय दोनों प्रकार के वाक्यों के साथ स्यात् शब्द युक्त करना चाहिए। </span>का.अ./मू./२६६ <span class="PrakritText">ते सावेक्खा सुणया णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होंति। सयलववहारसिद्धी सुणयादो होदि णियमेण।</span>=<span class="HindiText">ये नय सापेक्ष हों तो सुनय होते हैं और निरपेक्ष हों तो दुर्नय होते हैं। सुनय से ही समस्त व्यवहारों की सिद्धि होती है। </span></li> | |||
<li name="II.8" id="II.8"><span class="HindiText"> <strong>मिथ्या नय निर्देश का कारण व प्रयोजन </strong></span><br>स्या.म./२७/३०६/१ <span class="SanskritText">यद् व्यसनम् अत्यासक्ति: औचित्यनिरपेक्षा प्रवृत्तिरिति यावद् दुर्नीतिवादव्यसनम् ।</span>=<span class="HindiText">दुर्नयवाद एक व्यसन है। व्यसन का अर्थ यहा अति आसक्ति अर्थात् अपने पक्ष की हठ है, जिसके कारण उचित और अनुचित के विचार से निरपेक्ष प्रवृत्ति होती है।</span> पं.ध./पू./५६६ <span class="SanskritText">अथ सन्ति नयाभासा यथोपचाराख्यहेतुदृष्टान्ता:। अत्रोच्यन्ते केचिद्धेयतया वा नयादिशुद्धयर्थम् ।</span>=<span class="HindiText">उपचार के अनुकूल संज्ञा हेतु और दृष्टान्तवाली जो नयाभास हैं, उनमें से कुछ का कथन यहा त्याज्यपने से अथवा नय आदि की शुद्धि के लिए कहते हैं। </span></li> | |||
<li name="II.9" id="II.9"><span class="HindiText"> <strong>सम्यग्दृष्टिकी नय सम्यक् है और मिथ्यादृष्टिकी मिथ्या </strong></span><br>प.का./ता.वृ./४३ की प्रक्षेपक गाथा नं.६/८७ <span class="PrakritText">मिच्छत्ता अण्णाणं अविरदिभावो य भावआवरणा। णेयं पडुच्चकाले तह दुण्णं दुप्पमाणं च।६।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार मिथ्यात्व के उदय से ज्ञान अज्ञान हो जाता है, अविरतिभाव उदित होते हैं, और सम्यक्त्वरूप भाव ढक जाता है, वैसे ही सुनय दुर्नय हो जाती है और प्रमाण दु:प्रमाण हो जाता है।</span> न.च.वृ./२३७ <span class="PrakritGatha">भेदुवयारं णिच्छय मिच्छादिट्ठीण मिच्छरूवं खु। सम्मे सम्मा भणिया तेहि दु बंधो व मोक्खो वा।२३७।</span>=<span class="HindiText">मिथ्यादृष्टियों के भेद या उपचार का ज्ञान नियम से मिथ्या होता है। और सम्यक्त्व हो जाने पर वही सम्यक् कहा गया है। तहा उस मिथ्यारूप ज्ञान से बन्ध और सम्यक्रूप ज्ञान से मोक्ष होता है। </span></li> | |||
<li name="II.10" id="II.10"><span class="HindiText"> <strong>प्रमाण ज्ञान होने के पश्चात् ही नय प्रवृत्ति सम्यक् होती है, उसके बिना नहीं </strong></span><br>स.सि./१/६/२०/५ <span class="SanskritText">कुतोऽभ्यर्हितत्वम् । नयप्ररूपणप्रभवयोनित्वात् । एवं ह्युक्तं ‘प्रगृह्य प्रमाणत: परिणतिविशेषादर्थावधारणं नय’ इति।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒प्रमाण श्रेष्ठ क्यों है ? उत्तर‒क्योंकि प्रमाण से ही नय प्ररूपणा की उत्पत्ति हुई है, अत: प्रमाण श्रेष्ठ है। आगम में ऐसा कहा है कि वस्तु को प्रमाण से जानकर अनन्तर किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थ का निश्चय करना नय है। देखें - [[ नय#I.1.1 | नय / I / १ / १ ]]/४ (प्रमाण गृहीत वस्तु के एक देश को जानना नय का लक्षण है।)</span> रा.वा./१/६/२/३३/६ <span class="SanskritText">यत: प्रमाणप्रकाशितेष्वर्थेषु नयप्रवृत्तिर्व्यवहारहेतुर्भवति नान्येषु अतोऽस्याभ्यर्हितत्वम् ।</span>=<span class="HindiText">क्योंकि प्रमाण से प्रकाशित पदार्थों में ही नय की प्रवृत्ति का व्यवहार होता है, अन्य पदार्थों में नहीं, इसलिए प्रमाण को श्रेष्ठपना प्राप्त होता है। </span>श्लो.वा./२/१/६/श्लो.२३/३६५ <span class="SanskritText">नाशेषवस्तुनिर्णीते: प्रमाणादेव कस्यचित् । तादृक् सामर्थ्यशून्यत्वात् सन्नयस्यापि सर्वदा।२३।</span>=<span class="HindiText">किसी भी वस्तु का सम्पूर्णरूप से निर्णय करना प्रमाण ज्ञान से ही सम्भव है। समीचीन से भी समीचीन किसी नय की तिस प्रकार वस्तु का निर्णय कर लेने की सर्वदा सामर्थ्य नहीं है।</span> ध.९/४,१,४७/२४०/२ <span class="PrakritText">पमाणादो णयाणमुप्पत्ती, अणवगयट्ठे गुणप्पहाणभावाहिप्पायाणुप्पत्तीदो।</span>=<span class="HindiText">प्रमाण से नयों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि, वस्तु के अज्ञात होने पर, उसमें गौणता और प्रधानता का अभिप्राय नहीं बनता है। </span>आ.प./८/गा.१० <span class="SanskritGatha">नानास्वभावसंयुक्तं द्रव्यं ज्ञात्वा प्रमाणत:। तच्च सापेक्षसिद्धयर्थं स्यान्नयमिश्रितं कुरु।१०।</span>=<span class="HindiText">प्रमाण के द्वारा नानास्वभावसंयुक्त द्रव्य को जानकर, उन स्वभावों में परस्परसापेक्षता की सिद्धि के अर्थ (अथवा उनमें परस्पर निरपेक्षतारूप एकान्त के विनाशार्थ) (न.च.वृ./१७३), उस ज्ञान को नयों से मिश्रित करना चाहिए।(न.च.वृ./१७३)। </span></li> | |||
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Revision as of 17:15, 25 December 2013
- <a name="II" id="II">सम्यक् व मिथ्या नय
- <a name="II.1" id="II.1">नय सम्यक् भी है और मिथ्या भी
न.च.वृ./१८१ एयंतो एयणयो होइ अणेयंतमस्स सम्मूहो। तं खलु णाणवियप्पं सम्मं मिच्छं च णायव्वं।१८१।=एक नय तो एकान्त है और उसका समूह अनेकान्त है। वह ज्ञान का विकल्प सम्यक् भी होता है और मिथ्या भी। ऐसा जानना चाहिए। (पं.ध./पू./५५८,५६०)। - सम्यक् व मिथ्या नयों के लक्षण
स्या.म./७४/४ सम्यगेकान्तो नय: मिथ्यैकान्तो नयाभास:।=सम्यगेकान्त को नय कहते हैं और मिथ्या एकान्त को नयाभास या मिथ्या नय। (दे.एकान्त/१), (विशेष दे.अगले शीर्षक)। स्या.म./मू.व टीका/२८/३०७,१० सदेव सत् स्यात्सदिति त्रिधार्थो मीयते दुर्नीतिनयप्रमाणै:। यथार्थदर्शी तु नयप्रमाणपथेन दुर्नीतिपथं त्वमास्थ:।२८।...नीयते परिच्छिद्यते एकदेशविशिष्टोऽर्थ आभिरिति नीतयो नया:। दुष्टा नीतयो दुर्नीतयो दुर्नया इत्यर्थ:।=पदार्थ ‘सर्वथा सत् है’, ‘सत् है’ और कथंचित् सत् है’ इस प्रकार क्रम से दुर्नय, नय और प्रमाण से पदार्थों का ज्ञान होता है। यथार्थ मार्ग को देखने वाले आपने ही नय और प्रमाणमार्ग के द्वारा दुर्नयवाद का निराकरण किया है।२८। जिसके द्वारा पदार्थों के एक अंश का ज्ञान हो उसे नय (सम्यक् नय) कहते हैं। खोटे नयों को या दुर्नीतियों को दुर्नय कहते हैं। (स्या.म./२७/३०५/२८)। और भी दे० (नय/I/१/१), (पहिले जो नय सामान्य का लक्षण किया गया वह सम्यक् नय का है।) और भी देखें - अगले शीर्षक ‒(सम्यक् व मिथ्या नय के विशेष लक्षण अगले शीर्षकों में स्पष्ट किये गये हैं)। - अन्य पक्ष का निषेध न करे तो कोई भी नय मिथ्या नहीं होता
क.पा.१/१३-१४/२०६/२५७/१ त चैकान्तेन नया: मिथ्यादृष्टय: एव; परपक्षानिकरिष्णूनां सपक्षसत्त्वावधारणे व्यापृतानां स्यात्सम्यग्दृष्टित्वदर्शनात् । उक्तं च‒णिययवयणिनसच्चा सव्वणया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा।११७।=द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय सर्वथा मिथ्यादृष्टि ही हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो नय परपक्ष का निराकरण नहीं करते हुए (विशेष देखें - आगे नय / II / ४ ) ही अपने पक्ष का निश्चय करने में व्यापार करते हैं उनमें कथंचित् समीचीनता पायी जाती है। कहा भी है‒ये सभी नय अपने विषय के कथन करने में समीचीन हैं, और दूसरे नयों के निराकरण करने में मूढ़ हैं। अनेकान्त रूप समय के ज्ञाता पुरुष ‘यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है’ इस प्रकार का विभाग नहीं करते हैं।११७। न.च.वृ./२९२ ण दु णयपक्खो मिच्छा तं पिय णेयंतदव्वसिद्धियरा। सियसद्दसमारूढं जिणवयणविणिग्गयं सुद्धं।=नयपक्ष मिथ्या नहीं होता, क्योंकि वह अनेकान्त द्रव्य की सिद्धि करता है। इसलिए ‘स्यात्’ शब्द से चिह्नित तथा जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट नय शुद्ध है। - अन्य पक्ष का निषेध करने से ही मिथ्या हो जाता है
ध.९/४,१,४५/१८२/१ त एव दुरवधीरता मिथ्यादृष्टय: प्रतिपक्षनिराकरणमुखेन प्रवृत्तत्वात् ।=ये (नय) ही जब दुराग्रहपूर्वक वस्तुस्वरूप का अवधारण करने वाले होते हैं, तब मिथ्या नय कहे जाते हैं, क्योंकि वे प्रतिपक्ष का निराकरण करने की मुख्यता से प्रवृत्त होते हैं। (विशेष दे०/एकान्त/१/२), (ध.९/४,१,४५/१८३/१०), (क.पा.३/२२/५१३/२९२/२)। प्रमाणनयतत्त्वालंकार/७/१/(स्या.म./२८/३१६/२९ पर उद्धृत) स्वाभिप्रेताद् अंशाद् इतरांशपलापी पुनर्दुर्नयाभास:।=अपने अभीष्ट धर्म के अतिरिक्त वस्तु के अन्य धर्मों के निषेध करने को नयाभास कहते हैं। स्या.म./२८/३०८/१ ‘अस्त्येव घट:’ इति। अयं वस्तुनि एकान्तास्तित्वमेव अभ्युपगच्छन् इतरधर्माणां तिरस्कारेण स्वाभिप्रेतमेव धर्म व्यवस्थापयति।=किसी वस्तु में अन्य धर्मों का निषेध करके अपने अभीष्ट एकान्त अस्तित्व को सिद्ध करने को दुर्नय कहते हैं, जैसे ‘यह घट ही है’। - अन्य पक्ष का संग्रह करने पर वही नय सम्यक् हो जाते हैं
सं.स्तो./६२ यथैकश: कारकमर्थसिद्धये, समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम् । तथैव सामान्यविशेषमातृका नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पत:।६२।=जिस प्रकार एक-एक कारक शेष अन्य को अपना सहायकरूप कारक अपेक्षित करके अर्थ की सिद्धि के लिए समर्थ होता है, उसी प्रकार आपके मत में सामान्य और विशेष से उत्पन्न होने वाले अथवा सामान्य और विशेष को विषय करने वाले जो नय हैं वे मुख्य और गौण की कल्पना से इष्ट हैं। ध.९/४,१,४५/२३९/४ सुणया कधं सविसया। एयंतेण पडिवक्खणिसेहाकरणादो गुणपहाणभावेण ओसादिदपमाणबाहादो।=ये सभी नय वस्तुस्वरूप का अवधारण न करने पर समीचीन नय होते हैं, क्योंकि वे प्रतिपक्ष धर्म का निराकरण नहीं करते। प्रश्न‒सुनयों के अपने विषयों की व्यवस्था कैसे सम्भव है? उत्तर‒चूकि सुनय सर्वथा प्रतिपक्षभूत विषयों का निषेध नहीं करते, अत: उनके गौणता और प्रधानता की अपेक्षा प्रमाणबाधा के दूर कर देने से उक्त विषय व्यवस्था भले प्रकार सम्भव है। स्या.म./२८/३०८/४ स हि ‘अस्ति घट:’ इति घटे स्वाभिमतमस्तित्वधर्मं प्रसाधयन् शेषधर्मेषु गजनिमिलिकामालम्बते। न चास्य दुर्नयत्वं धर्मान्तरातिरस्कारात् ।=वस्तु में इष्ट धर्म को सिद्ध करते हुए अन्य धर्मों में उदासीन होकर वस्तु के विवेचन करने को नय कहते हैं। जैसे ‘यह घट है’। नय में दुर्नय की तरह एक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जाता, इसलिए उसे दुर्नय नहीं कहा जा सकता। - जो नय सर्वथा के कारण मिथ्या है वही कथंचित् के कारण सम्यक् है
स्व.स्तो./१०१ सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च यो नया:। सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीह ते।१०१। =सत्, एक, नित्य, वक्तव्य तथा असत्, अनेक, अनित्य, व अवक्तव्य ये जो नय पक्ष हैं वे यहा सर्वथारूप में तो अति दूषित हैं और स्यात्रूप में पुष्टि को प्राप्त होते हैं। गो.क./मू./८९४-८९५/१०७३ जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया।८९४। परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होइ सव्वहा वयणा। जेणाणं पुण वयणं सम्मं सु कहंचिव वयणादो।८९५।=जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं। परसमयवालों के वचन ‘सर्वथा’ शब्द सहित होने से मिथ्या होते हैं और जैनों के वही वचन ‘कथंचित्’ शब्द सहित होने से सम्यक् होते हैं। ( देखें - नय / I / ५ में ध.१)
न.च.वृ./२९२ ण दु णयपक्खो मिच्छा तं पिय णेयंतदव्वसिद्धियरा। सियसद्दसमारूढं जिणवयणविणिग्गयं सुद्धं।=अनेकान्त द्रव्य की सिद्धि करने के कारण नयपक्ष मिथ्या नहीं होता। स्यात् पद से अलंकृत होकर वह जिनवचन के अन्तर्गत आने से शुद्ध अर्थात् समीचीन हो जाता है। (न.च.वृ./२४९) स्या.म./३०/३३६/१३ ननु प्रत्येकं नयानां विरुद्धत्वे कथं समुदितानां निर्विरोधिता। उच्येत। यथा हि समीचीनं मध्यस्थं न्यायनिर्णेतारमासाद्य परस्परं विवादमाना अपि वादिनो विवादाद् विरमन्ति एवं नया अन्योऽन्यं वैरायमाणा अपि सर्वज्ञशासनमुपेत्य स्याच्छब्दप्रयोगोपशमितविप्रतिपत्तय: सन्त: परस्परमत्यन्तं सुहृद्भूयावतिष्ठन्ते।=प्रश्न‒यदि प्रत्येक नय परस्पर विरुद्ध हैं, तो उन नयों के एकत्र मिलाने से उनका विरोध किस प्रकार नष्ट होता है? उत्तर‒जैसे परस्पर विवाद करते हुए वादी लोग किसी मध्यस्थ न्यायी के द्वारा न्याय किये जाने पर विवाद करना बन्द करके आपस में मिल जाते हैं, वैसे ही परस्पर विरुद्ध नय सर्वज्ञ भगवान् के शासन की शरण लेकर ‘स्यात्’ शब्द से विरोध के शान्त हो जाने पर परस्पर मैत्री भाव से एकत्र रहने लगते हैं। पं.ध./पु./३३६-३३७ ननु किं नित्यमनित्यं किमथोभयमनुभयं च तत्त्वं स्यात् । व्यस्तं किमथ समस्तं क्रमत: किमथाक्रमादेतत् ।३३६। सत्यं स्वपरनिहत्यै सर्वं किल सर्वथेति पदपूर्वम् । स्वपरोपकृतिनिमित्तं सर्वं स्यात्स्यात्पदाङ्कितं तु पदम् ।३३७।=प्रश्न‒तत्त्व नित्य है या अनित्य, उभय या अनुभय, व्यस्त या समस्त, क्रम से या अक्रम से? उत्तर‒ ‘सर्वथा’ इस पद पूर्वक सब ही कथन स्व पर घात के लिए हैं, किन्तु स्यात् पद के द्वारा युक्त सब ही पद स्वपर उपकार के लिए हैं। - सापेक्षनय सम्यक् और निरपेक्षनय मिथ्या होती है
आ.मी./१०८ निरपेक्षया नया: मिथ्या सापेक्षा वस्तुतोऽर्थकत् ।=निरपेक्षनय मिथ्या है और सापेक्ष नय वस्तुस्वरूप है। (श्लो.वा.४/१/३३/श्लो.८०/२६८)। स्व.स्तो./६१ य एव नित्यक्षणिकादयो नया;, मिथोऽनपेक्षा: स्व–परप्रणाशिन:। त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुने:, परस्परेक्षा: स्वपरोपकारिण:।६१।=जो ये नित्य व क्षणिकादि नय हैं वे परस्पर निरपेक्ष होने से स्वपर प्रणाशी हैं। हे प्रत्यक्षज्ञानी विमलजिन ! आपके मत में वे ही सब नय परस्पर सापेक्ष होने से स्व व पर के उपकार के लिए हैं। क.पा./१/१३-१४/२०५/गा.१०२/२४९ तम्हा मिच्छादिट्ठी सव्वे वि णया सपक्खपडिबद्धा। अण्णोण्णणिस्सिया उण लहंति सम्मत्तसब्भावं।१०२।=केवल अपने-अपने पक्ष से प्रतिबद्ध ये सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं। परन्तु यदि परस्पर सापेक्ष हों तो सभी नय समीचीनपने को प्राप्त होते हैं, अर्थात् सम्यग्दृष्टि होते हैं। स.सि./१/३३/१४५/९ ते एते गुणप्रधानतया परस्परतन्त्रा: सम्यग्दर्शनहेतव: पुरुषार्थक्रियासाधनसामर्थ्यात्तन्त्वादय इव यथोपाय विनिवेश्यमाना: पटादिसंज्ञा: स्वतन्त्राश्चासमर्था:।=ये सब नय गौण-मुख्यरूप से एक दूसरे की अपेक्षा करके ही सम्यग्दर्शन के हेतु हैं। जिस प्रकार पुरुष की अर्थक्रिया और साधनों की सामर्थ्यवश यथायोग्य निवेशित किये गये तन्तु आदिक पट संज्ञा को प्राप्त होते हैं। (तथा पटरूप में अर्थक्रिया करने को समर्थ होते हैं। और स्वतन्त्र रहने पर (पटरूप में) कार्यकारी नहीं होते, वैसे ही ये नय भी समझने चाहिए। (त.सा./१/५१)। सि.वि./मू./१०/२७/६९१ सापेक्षा नया: सिद्धा; दुर्नया अपि लोकत:। स्याद्वादिनां व्यवहारात् कुक्कुटग्रामवासितम् ।=लोक में प्रयोग की जाने वाली जो दुर्नय हैं वे भी स्याद्वादियों के ही सापेक्ष हो जाने से सुनय बन जाती हैं। यह बात आगम से सिद्ध है। जैसे कि एक किसी घर में रहने वाले अनेक गृहवासी परस्पर मैत्री पूर्वक रहते हैं। लघीयस्त्रय/३० भेदाभेदात्मके ज्ञेये भेदाभेदाभिसन्धय:। ये तेऽपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते नयदुर्नया:।३०। =भेदाभेदात्मक ज्ञेय में भेद व अभेदपने की अभिसन्धि होने के कारण, उनको बतलाने वाले नय भी सापेक्ष होने से नय और निरपेक्ष होने दुर्नय कहलाते हैं। (पं.ध./पू./५९०)। न.च.वृ./२४९ सियसावेक्खा सम्मा मिच्छारूवा हु तेहिं णिरवेक्खा। तम्हा सियसद्दादो विसयं दोण्हं पि णायव्वं।=क्योंकि सापेक्ष नय सम्यक् और निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं, इसलिए प्रमाण व नय दोनों प्रकार के वाक्यों के साथ स्यात् शब्द युक्त करना चाहिए। का.अ./मू./२६६ ते सावेक्खा सुणया णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होंति। सयलववहारसिद्धी सुणयादो होदि णियमेण।=ये नय सापेक्ष हों तो सुनय होते हैं और निरपेक्ष हों तो दुर्नय होते हैं। सुनय से ही समस्त व्यवहारों की सिद्धि होती है। - मिथ्या नय निर्देश का कारण व प्रयोजन
स्या.म./२७/३०६/१ यद् व्यसनम् अत्यासक्ति: औचित्यनिरपेक्षा प्रवृत्तिरिति यावद् दुर्नीतिवादव्यसनम् ।=दुर्नयवाद एक व्यसन है। व्यसन का अर्थ यहा अति आसक्ति अर्थात् अपने पक्ष की हठ है, जिसके कारण उचित और अनुचित के विचार से निरपेक्ष प्रवृत्ति होती है। पं.ध./पू./५६६ अथ सन्ति नयाभासा यथोपचाराख्यहेतुदृष्टान्ता:। अत्रोच्यन्ते केचिद्धेयतया वा नयादिशुद्धयर्थम् ।=उपचार के अनुकूल संज्ञा हेतु और दृष्टान्तवाली जो नयाभास हैं, उनमें से कुछ का कथन यहा त्याज्यपने से अथवा नय आदि की शुद्धि के लिए कहते हैं। - सम्यग्दृष्टिकी नय सम्यक् है और मिथ्यादृष्टिकी मिथ्या
प.का./ता.वृ./४३ की प्रक्षेपक गाथा नं.६/८७ मिच्छत्ता अण्णाणं अविरदिभावो य भावआवरणा। णेयं पडुच्चकाले तह दुण्णं दुप्पमाणं च।६।=जिस प्रकार मिथ्यात्व के उदय से ज्ञान अज्ञान हो जाता है, अविरतिभाव उदित होते हैं, और सम्यक्त्वरूप भाव ढक जाता है, वैसे ही सुनय दुर्नय हो जाती है और प्रमाण दु:प्रमाण हो जाता है। न.च.वृ./२३७ भेदुवयारं णिच्छय मिच्छादिट्ठीण मिच्छरूवं खु। सम्मे सम्मा भणिया तेहि दु बंधो व मोक्खो वा।२३७।=मिथ्यादृष्टियों के भेद या उपचार का ज्ञान नियम से मिथ्या होता है। और सम्यक्त्व हो जाने पर वही सम्यक् कहा गया है। तहा उस मिथ्यारूप ज्ञान से बन्ध और सम्यक्रूप ज्ञान से मोक्ष होता है। - प्रमाण ज्ञान होने के पश्चात् ही नय प्रवृत्ति सम्यक् होती है, उसके बिना नहीं
स.सि./१/६/२०/५ कुतोऽभ्यर्हितत्वम् । नयप्ररूपणप्रभवयोनित्वात् । एवं ह्युक्तं ‘प्रगृह्य प्रमाणत: परिणतिविशेषादर्थावधारणं नय’ इति।=प्रश्न‒प्रमाण श्रेष्ठ क्यों है ? उत्तर‒क्योंकि प्रमाण से ही नय प्ररूपणा की उत्पत्ति हुई है, अत: प्रमाण श्रेष्ठ है। आगम में ऐसा कहा है कि वस्तु को प्रमाण से जानकर अनन्तर किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थ का निश्चय करना नय है। देखें - नय / I / १ / १ /४ (प्रमाण गृहीत वस्तु के एक देश को जानना नय का लक्षण है।) रा.वा./१/६/२/३३/६ यत: प्रमाणप्रकाशितेष्वर्थेषु नयप्रवृत्तिर्व्यवहारहेतुर्भवति नान्येषु अतोऽस्याभ्यर्हितत्वम् ।=क्योंकि प्रमाण से प्रकाशित पदार्थों में ही नय की प्रवृत्ति का व्यवहार होता है, अन्य पदार्थों में नहीं, इसलिए प्रमाण को श्रेष्ठपना प्राप्त होता है। श्लो.वा./२/१/६/श्लो.२३/३६५ नाशेषवस्तुनिर्णीते: प्रमाणादेव कस्यचित् । तादृक् सामर्थ्यशून्यत्वात् सन्नयस्यापि सर्वदा।२३।=किसी भी वस्तु का सम्पूर्णरूप से निर्णय करना प्रमाण ज्ञान से ही सम्भव है। समीचीन से भी समीचीन किसी नय की तिस प्रकार वस्तु का निर्णय कर लेने की सर्वदा सामर्थ्य नहीं है। ध.९/४,१,४७/२४०/२ पमाणादो णयाणमुप्पत्ती, अणवगयट्ठे गुणप्पहाणभावाहिप्पायाणुप्पत्तीदो।=प्रमाण से नयों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि, वस्तु के अज्ञात होने पर, उसमें गौणता और प्रधानता का अभिप्राय नहीं बनता है। आ.प./८/गा.१० नानास्वभावसंयुक्तं द्रव्यं ज्ञात्वा प्रमाणत:। तच्च सापेक्षसिद्धयर्थं स्यान्नयमिश्रितं कुरु।१०।=प्रमाण के द्वारा नानास्वभावसंयुक्त द्रव्य को जानकर, उन स्वभावों में परस्परसापेक्षता की सिद्धि के अर्थ (अथवा उनमें परस्पर निरपेक्षतारूप एकान्त के विनाशार्थ) (न.च.वृ./१७३), उस ज्ञान को नयों से मिश्रित करना चाहिए।(न.च.वृ./१७३)।
- <a name="II.1" id="II.1">नय सम्यक् भी है और मिथ्या भी