नय III: Difference between revisions
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स.सि./१/३३/१४०/८ <span class="SanskritText">स द्वेधा द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति।...तयोर्भेदा नैगमादय:।</span> =<span class="HindiText">नय के दो भेद हैं‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। इन दोनों नयों के उत्तर भेद नैगमादि हैं। </span>(रा.वा./१/३३/१/९४/२५) ( देखें - [[ नय#I.1.4 | नय / I / १ / ४ ]])<br /> | |||
ध.९/४,१,४५/पृष्ठ/पंक्ति‒स, <span class="SanskritText">एवंविधो नयो द्विविध:, द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति। (१६७/१०)। तत्र योऽसौ द्रव्यार्थिकनय: स त्रिविधो नैगमसंग्रहव्यवहारभेदेन।(१६८/४)। पर्यायार्थिको नयश्चतुर्विध: ऋजुसूत्रशब्द-समभिरूढैवंभूतभेदेन।</span>((१७१/७)।=<span class="HindiText">इस प्रकार की वह नय दो प्रकार है‒द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक। तहा जो द्रव्यार्थिक नय है वह तीन प्रकार है‒नैगम, संग्रह व व्यवहार। पर्यायार्थिकनय चार प्रकार है‒ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ व एवंभूत (ध.१/१,१,१/गा.५-७/१२-१३), (क.पा.१/१३-१४/१८१-१८२/गा.८७-८९/२१८-२२०), (श्लो.वा. | |||
Revision as of 17:15, 25 December 2013
- नैगम आदि सात नय निर्देश
- सातों नयों का समुदित सामान्य निर्देश
- सातों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग
स.सि./१/३३/१४०/८ स द्वेधा द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति।...तयोर्भेदा नैगमादय:। =नय के दो भेद हैं‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। इन दोनों नयों के उत्तर भेद नैगमादि हैं। (रा.वा./१/३३/१/९४/२५) ( देखें - नय / I / १ / ४ )
ध.९/४,१,४५/पृष्ठ/पंक्ति‒स, एवंविधो नयो द्विविध:, द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति। (१६७/१०)। तत्र योऽसौ द्रव्यार्थिकनय: स त्रिविधो नैगमसंग्रहव्यवहारभेदेन।(१६८/४)। पर्यायार्थिको नयश्चतुर्विध: ऋजुसूत्रशब्द-समभिरूढैवंभूतभेदेन।((१७१/७)।=इस प्रकार की वह नय दो प्रकार है‒द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक। तहा जो द्रव्यार्थिक नय है वह तीन प्रकार है‒नैगम, संग्रह व व्यवहार। पर्यायार्थिकनय चार प्रकार है‒ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ व एवंभूत (ध.१/१,१,१/गा.५-७/१२-१३), (क.पा.१/१३-१४/१८१-१८२/गा.८७-८९/२१८-२२०), (श्लो.वा.४/१/३३/श्लो.३/२१५) (ह.पु./५८/४२), (ध.१/१,१,१/८३/१०+८४/२+८५/२+८६/३+८६/६); (क.पा.१/१३-१४/१७७/२११/४+१८२/२१९/१ +१८४/२२२/१ + १९७/२३५/१); (न.च.वृ./श्रुत/२१७) (न.च./पृ.२०) (त.सा./१/४१-४२/३६); (स्या.म./८२/३१७/१+३१८/२२)।
- इनमें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग का कारण
ध.१/१,१,१/८४/७ एते त्रयोऽपि नया: नित्यवादिन: स्वविषये पर्यायाभावत: सामान्यविशेषकालयोरभावात् ।...द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययो: किंकृतो भेदश्चेदुच्यते ऋजुसूत्रवचनविच्छेदो मूलाधारो येषां नयानां ते पर्यायार्थिका:। विच्छिद्यतेऽस्मिन्काल इति विच्छेद:। ऋजुसूत्रवचनं नाम वर्तमानवचनं, तस्य विच्छेद: ऋजुसूत्रवचनविच्छेद:। स कालो मूलाधारो येषां नयानां ते पर्यायार्थिका:। ऋजुसूत्रवचनविच्छेदादारम्य आ एक समयाद्वस्तुस्थित्यध्यवसायिन: पर्यायार्थिका इति यावत् ।=ये तीनों ही (नैगम, संग्रह और व्यवहार) नय नित्यवादी हैं, क्योंकि इन तीनों ही नयों का विषय पर्याय न होने के कारण इन तीनों नयों के विषय में सामान्य और विशेषकाल का अभाव है। (अर्थात इन तीनों नयों में काल की विवक्षा नहीं होती।) प्रश्न‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक में किस प्रकार भेद है? उत्तर‒ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों का विच्छेद जिस काल में होता है, वह (काल) जिन नयों का मूल आधार है, वे पर्यायार्थिक नय हैं। विच्छेद अथवा अन्त जिसकाल में होता है, उस काल को विच्छेद कहते हैं। वर्तमान वचन को ऋजुसूत्रवचन कहते हैं और उसके विच्छेद को ऋजुसूत्रवचनविच्छेद कहते हैं। वह ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों का विच्छेदरूप काल जिन नयों का मूल आधार है उन्हें पर्यायार्थिकनय कहते हैं। अर्थात् ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों के विच्छेदरूप समय से लेकर एकसमय पर्यन्त वस्तु की स्थिति का निश्चय करने वाले पर्यायार्थिक नय हैं। (भावार्थ‒’देवदत्त’ इस शब्द का अन्तिम अक्षर ‘त’ मुख से निकल चुकने के पश्चात् से लेकर एक समय आगे तक ही देवदत्त नाम का व्यक्ति है, दूसरे समय में वह कोई अन्य हो गया है। ऐसा पर्यायार्थिक नय का मन्तव्य है। (क.पा.१/१३-१४/१८५/२२३/३)
- सातों में अर्थ शब्द व ज्ञाननय विभाग
रा.वा./४/४२/१७/३६१/२ संग्रहव्यवहारर्जुसूत्रा अर्थनया:। शेषा: शब्दनया:।=संग्रह, व्यवहार, व ऋजुसूत्र ये अर्थनय हैं और शेष (शब्द, समभिरूढ और एवंभूत) शब्द या व्यंजननय हैं। (ध.९/४,१,४५/१८१/१)।
श्लो.वा.४/१/३३/श्लो.८१/२६९ तत्रर्जुसूत्रपर्यन्ताश्चत्वारोऽर्थनया मता:। त्रय: शब्दनया: शेषा: शब्दवाच्यार्थगोचरा:।८१।=इन सातों में से नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय तो अर्थनय मानी गयी हैं, और शेष तीन (शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत) वाचक शब्द द्वारा अर्थ को विषय करने वाले शब्दनय हैं। (ध.१/१,१,१/८६/३), (क.पा.१/१८४/२२२/१+१९७/१), (न.च.वृ./२१७) (न.च./श्रुत/पृ.२०) (त.सा./१/४३) (स्या.प्र./२८/३१९/२९)।
नोट‒यद्यपि ऊपर कहीं भी ज्ञाननय का जिक्र नहीं किया गया है, परन्तु जैसा कि आगे नैगमनय के लक्षणों पर से विदित है, इनमें से नैगमनय ज्ञाननय व अर्थनय दोनों रूप है। अर्थ को विषय करते समय यह अर्थनय है और संकल्प मात्र को ग्रहण करते समय ज्ञाननय है। इसके भूत, भावी आदि भेद भी ज्ञान को ही आश्रय करके किये गये हैं, क्योंकि वस्तु की भूत भावी पर्यायें वस्तु में नहीं ज्ञान में रहती हैं ( देखें - नय / III / ३ / ६ में श्लो.वा.)। इसके अतिरिक्त भी ऊपर के दो प्रमाणों में प्रथम प्रमाण में इस नय को अर्थनयरूप से ग्रहण न करने का भी यही कारण प्रतीत होता है। दूसरे प्रमाण में इसे अर्थनय कहना भी विरोध को प्राप्त नहीं होता क्योंकि यह ज्ञाननय होने के साथ-साथ अर्थनय भी अवश्य है।)
- सातों में अर्थ, शब्दनय विभाग का कारण
ध.१/१,१,१/८६/३ अर्थनय: ऋजुसूत्र:। कुत:। ऋजु प्रगुणं सूत्रयतीति तत्सिद्धे:।...सन्त्वेतेऽर्थनया: अर्थव्यापृतत्वात् ।=शब्दभेद की विवक्षा न करके केवल पदार्थ के धर्मों का निश्चय करने वाला अर्थनय है, और शब्दभेद से उसमें भेद करने वाला व्यंजननय है‒ देखें - नय / I / ४ / २ ) यहा ऋजुसूत्रनय को अर्थनय समझना चाहिए। क्योंकि ऋजु सरल अर्थात् वर्तमान समयवर्ती पर्याय मात्र को जो ग्रहण करे उसे ऋजुसूत्रनय कहते हैं। इस तरह वर्तमान पर्यायरूप से अर्थ को ग्रहण करने वाला होने के कारण यह नय अर्थनय है, यह बात सिद्ध हो जाती है। अर्थ को विषय करने वाले होने के कारण नैगम, संग्रह और व्यवहार भी अर्थनय हैं। (शब्दभेद की अपेक्षा करके अर्थ में भेद डालने वाले होने के कारण शेष तीन नय व्यंजननय हैं।)
स्या.म./२८/३१०/१६ अभिप्रायस्तावद् अर्थद्वारेण शब्दद्वारेण वा प्रवर्तते, गत्यन्तराभावात् । तत्र ये केचनार्थनिरूपणप्रवणा: प्रमात्राभिप्रायास्ते सर्वेऽपि आद्ये नयचतुष्टयेऽन्तर्भवन्ति। ये च शब्दविचारचतुरास्ते शब्दादिनयत्रये इति।=अभिप्राय प्रगट करने के दो ही द्वार हैं‒अर्थ या शब्द। क्योंकि, इनके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। तहा प्रमाता के जो अभिप्राय अर्थ का प्ररूपण करने में प्रवीण हैं वे तो अर्थनय हैं जो नैगमादि चार नयों में अन्तर्भूत हो जाते हैं और जो शब्द विचार करने में चतुर हैं वे शब्दादि तीन व्यंजननय हैं। (स्या.म./२८/३१९/२९)।
देखें - नय / I / ४ / ५ शब्दनय केवल शब्द को विषय करता है अर्थ को नहीं।
- नौ भेद कहना भी विरुद्ध नहीं
ध.९/४,१,४५/१८१/४ नव नया: क्वचिच्छ्रूयन्त इति चेन्न नयानामियत्तासंख्यानियमाभावात् ।=प्रश्न‒कहीं पर नौ नय सुने जाते हैं ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि ‘नय इतने हैं’ ऐसी संख्या के नियम का अभाव है। (विशेष देखें - नय / I / ५ / ५ ) (क.पा./१/१३-१४/२०२/२४५/२)
- पूर्व पूर्व का नय अगले अगले का कारण है
स.सि./१/३३/१४५/७ एषां क्रम: पूर्वपूर्वहेतुकत्वाच्च।=पूर्व पूर्व का नय अगले-अगले नय का हेतु है, इसलिए भी यह क्रम (नैगम, संग्रह, व्यवहार एवंभूत) कहा गया है। (रा.वा./१/३३/१२/९९/१७) (श्लो.वा./पु.४/१/३३/श्लो.८२/२६९)
- सातों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता
स.सि./१/३३/१४५/७ उत्तरोत्तरसूक्ष्मविषयत्वादेषां क्रम:...। एवमेते नया: पूर्वपूर्वविरुद्धमहाविषया उत्तरोत्तरानुकूलाल्पविषया:।=उत्तरोत्तर सूक्ष्मविषय वाले होने के कारण इनका यह क्रम कहा है। इस प्रकार ये नय पूर्व पूर्व विरुद्ध महा विषयवाले और उत्तरोत्तर अनुकूल अल्प विषयवाले हैं (रा.वा./१/३३/१२/९९/१७), (श्लो.वा.४/१/३३/श्लो.८२/२६९), (ह.पु./५८/५०), (त.सा./१/४३)
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.९८,१००/२८९ यत्र प्रवर्त्तते स्वार्थे नियमादुत्तरो नय:। पूर्वपूर्वनयस्तत्र वर्तमानो न वार्यते।९८। पूर्वत्र नोत्तरा संख्या यथायातानुवर्त्यते। तथोत्तरनय: पूर्वनयार्थसकले सदा।१००।=जहा जिस अर्थ को विषय करने वाला उत्तरवर्ती नय नियम से प्रवर्तता है तिस तिस में पूर्ववर्तीनय की प्रवृत्ति नहीं रोकी जा सकती।९८। परन्तु उत्तरवर्ती नयें पूर्ववर्ती नयों के पूर्ण विषय में नहीं प्रवर्तती हैं। जैसे बड़ी संख्या में छोटी संख्या समा जाती है पर छोटी में बड़ी नहीं (पूर्व पूर्व का विरुद्ध विषय और उत्तर उत्तर का अनुकूल विषय होने का भी यही अर्थ है (रा.वा./हि./१/३३/१२/४९४)
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.८२-८९/२६९ पूर्व: पूर्वो नयो भूमविषय: कारणात्मक:। पर: पर: पुन: सूक्ष्मगोचरो हेतुमानिह।८२। सन्मात्रविषयत्वेन संग्रहस्य न युज्यते। महाविषयताभावाभावार्थान्नैगममान्नयात् ।८३। यथा हि सति संकल्पस्यैवासति वेद्यते। तत्र प्रवर्तमानस्य नैगमस्य महार्थता।८४। संग्रहाद्वयवहारोऽपि सद्विशेषावबोधक:। न भूमविषयोऽशेषसत्समूहोपदर्शिन:।८५। नर्जूसूत्र: प्रभूतार्थो वर्तमानार्थगोचर:। कालात्रितयवृत्त्यर्थगोचराद्वयवहारत:।८६। कालादिभेदतोऽप्यर्थमभिन्नमुपगच्छत:। नर्जुसूत्रान्महार्थोऽत्रशब्दस्तद्विपरीतवित् ।८७। शब्दात्पर्यायभेदाभिन्नमर्थमभीप्सित:। न स्यात्समभिरूढोऽपि महार्थस्तद्विपर्यय:।८८। क्रियाभेदेऽपि चाभिन्नमर्थमभ्युपगच्छत:। नैवंभूत: प्रभूतार्थो नय: समभिरूढत:।८९।=इन नयों में पहले पहले के नय अधिक विषयवाले हैं, और आगे आगे के नय सूक्ष्म विषयवाले हैं।- संग्रहनय सन्मात्र को जानता है और नैगमनय संकल्प द्वारा विद्यमान व अविद्यमान दोनों को जानता है, इसलिए संग्रहनय की अपेक्षा नैगमनय का अधिक विषय है।
- व्यवहारनय संग्रह से जाने हुए पदार्थ को विशेष रूप से जानता है और संग्रह समस्त सामान्य पदार्थों को जानता है, इसलिए संग्रह नय का विषय व्यवहारनय से अधिक है।
- व्यवहारनय तीनों कालों के पदार्थों को जानता है और ऋजुसूत्र से केवल वर्तमान पदार्थों का ज्ञान होता है, अतएव व्यवहारनय का विषय ऋजुसूत्र से अधिक है।
- शब्दनय काल आदि के भेद से वर्तमान पर्याय को जानता है (अर्थात् वर्तमान पर्याय के वाचक अनेक पर्यायवाची शब्दों में से काल, लिंग, संख्या, पुरुष आदि रूप व्याकरण सम्बन्धी विषमताओं का निराकरण करके मात्र समान काल, लिंग आदि वाले शब्दों को ही एकार्थवाची स्वीकार करता है)। ऋजुसूत्र में काल आदि का कोई भेद नहीं। इसलिए शब्दनय से ऋजुसूत्रनय का विषय अधिक है।
- समभिरूढ़नय इन्द्र शक्र आदि (समान काल, लिंग आदि वाले) एकार्थवाची शब्दों को भी व्युत्पत्ति
की अपेक्षा भिन्नरूप से जानता है, (अथवा उनमें से किसी एक ही शब्द को वाचकरूप से रूढ़ करता है), परन्तु शब्दनय में यह सूक्ष्मता नहीं रहती, अतएव समभिरूढ़ से शब्दनय का विषय अधिक है। - समभिरूढ़नय से जाने हुए पदार्थों में क्रिया के भेद से वस्तु में भेद मानना (अर्थात् समभिरूढ़ द्वारा रूढ़ शब्द को उसी समय उसका वाचक मानना जबकि वह वस्तु तदनुकूल क्रियारूप से परिणत हो) एवंभूत है। जैसे कि समभिरूढ़ की अपेक्षा पुरन्दर और शचीपति (इन शब्दों के अर्थ) में भेद होने पर भी नगरों का नाश न करने के समय भी पुरन्दर शब्द इन्द्र के अर्थ में प्रयुक्त होता है, परन्तु एवंभूत की अपेक्षा नगरों का नाश करते समय ही इन्द्र को पुरन्दर नाम से कहा जा सकता है।) अतएव एवंभूत से समभिरूढ़नय का विषय अधिक है।
- (और अन्तिम एवंभूत का विषय सर्वत: स्तोक है; क्योंकि, इसके आगे वाचक शब्द में किसी अपेक्षा भी भेद किया जाना सम्भव नहीं है।) (स्या.म./२८/३१९/३०) (रा.वा./हि./१/३३/४९३) (और भी देखो आगे शीर्षक नं.९)।
ध.१/१,१,१/१३/११ (विशेषार्थ)‒वर्तमान समयवर्ती पर्याय को विषय करना ऋजुसूत्रनय है, इसलिए जब तक द्रव्यगत भेदों की ही मुख्यता रहती है तब तक व्यवहारनय चलता है। ( देखें - नय / V / ४ ,४,३), और जब कालकृत भेद प्रारम्भ हो जाता है, तभी से ऋजुसूत्रनय का प्रारम्भ होता है। शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत इन तीनों नयों का विषय भी वर्तमान पर्यायमात्र है। परन्तु उनमें ऋजुसूत्र के विषयभूत अर्थ के वाचक शब्दों की मुख्यता है, इसलिए उनका विषय ऋजुसूत्र से सूक्ष्म सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम माना गया है। अर्थात् ऋजुसूत्र के विषय में लिंग आदि से भेद करने वाला शब्दनय है। शब्दनय से स्वीकृत (समान) लिंग वचन आदि वाले शब्दों में व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद करने वाले समभिरूढ़नय हैं। और पर्यायशब्द को उस शब्द से ध्वनित होने वाला क्रियाकाल में ही वाचक मानने वाला एवंभूतनय समझना चाहिए। इस तरह ये शब्दादिनय उस ऋजुसूत्र की शाखा उपशाखा हैं।
- सातों की उत्तरोत्तर सूक्ष्मता का उदाहरण
ध.७/२,१,४/गा.१-६/२८-२९ णयाणामभिप्पाओ एत्थ उच्चदे। तं जहा‒कं पि णरं दठ्ठूण य पावजणसमागमं करेमाणं। णेगमणएण भण्णई णेरइओ एस पुरिसो त्ति।१। ववहारस्सा दु वयणं जइया कोदंडकंडगयहत्थो। भमइ मए मग्गंतो तइया सो होइ णेरइओ।२। उज्जुसुदस्स दु वयणं जइया इर ठाइदूण ठाणम्मि। आहणदि मए पावो तइया सो होइ णेरइओ।३। सद्दणयस्स दु वयणं जइया पाणेहि मोइदो जन्तू। तइया सो णेरइओ हिसाकम्मेण संजुतो।४। वयणं तु समभिरूढं णारयकम्मस्स बंधगो जइया। तइया सो णेरइओ णारयकम्मेण संजुत्तो।५। णिरयगइं संपत्तो जइया अणुहवइ णारयं दुक्खं। तइया सो णेरइओ एवंभूदो णओ भणदि।६।=यहा (नरक गति के प्रकरण में) नयों का अभिप्राय बतलाते हैं। वह इस प्रकार है‒- किसी मनुष्य को पापी लोगों का समागम करते हुए देखकर नैगमनय से कहा जाता है कि यह पुरुष नारकी है।१।
- (जब वह मनुष्य प्राणिवध करने का विचार कर सामग्री संग्रह करता है तब वह संग्रहनय से नारकी कहा जाता है)।
- व्यवहारनय का वचन इस प्रकार है‒जब कोई मनुष्य हाथ में धनुष और बाण लेकर मृगों की खोज में भटकता फिरता है, तब वह नारकी कहलाता है।२।
- ऋजुसूत्रनय का वचन इस प्रकार है‒जब आखेटस्थान पर बैठकर पापी मृगों पर आघात करता है तब वह नारकी कहलाता है।३।
- शब्दनय का वचन इस प्रकार है‒जब जन्तु प्राणों से विमुक्त कर दिया जाता है, तभी वह आघात करने वाला हिंसा कर्म से संयुक्त मनुष्य नारकी कहा जाता है।४।
- समभिरूढ़नय का वचन इस प्रकार है‒जब मनुष्य नारक (गति व आयु) कर्म का बन्धक होकर नरक कर्म से संयुक्त हो जाये तभी वह नारकी कहा जाये।५।
- जब वही मनुष्य नरकगति को पहुचकर नरक के दु:ख अनुभव करने लगता है, तभी वह नारकी है, ऐसा एवंभूतनय कहता है।६। नोट‒(इसी प्रकार अन्य किसी भी विषय पर यथायोग्य रीति से ये सातों नय लागू की जा सकती हैं)।
- शब्दादि तीन नयों में अन्तर
रा.वा./४/४२/१७/२६१/११ व्यञ्जनपर्यायास्तु शब्दनया द्विविधं वचनं प्रकल्पयन्ति‒अभेदनाभिधानं भेदेन च। यथा शब्दे पर्यायशब्दान्तरप्रयोगेऽपि तस्यैवार्थस्याभिधानादभेद:। समभिरूढे वा प्रवृत्तिनिमित्तस्य अप्रवृत्तिनिमित्तस्य च घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानात् । एवंभूतेषु प्रवृत्तिनिमित्तस्य भिन्नस्यैकस्यैवार्थस्याभिधानात् भेदेनाभिधानम् ।
अथवा, अन्यथा द्वैविध्यम् ‒ एकस्मिन्नर्थेऽनेकशब्दवृत्ति:, प्रत्यर्थं वा शब्दविनिवेश इति। यथा शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य: एक: समभिरूढे वा नैमित्तिकत्वात् शब्दस्यैकशब्दवाच्य: एक:। एवंभूते वर्तमाननिमित्तशब्द एकवाच्य एक:। =- वाचक शब्द की अपेक्षा‒शब्दनय (वस्तु की) व्यंजनपर्यायों को विषय करते हैं (शब्द का विषय बनाते हैं) वे अभेद तथा भेद दो प्रकार के वचन प्रयोग को सामने लाते हैं (दो प्रकार के वाचक शब्दों का प्रयोग करते हैं।) शब्दनय में पर्यायवाची विभिन्न शब्दों का प्रयोग होने पर भी उसी अर्थ का कथन होता है अत: अभेद है। समभिरूढ़नय में घटन क्रिया में परिणत या अपरिणत, अभिन्न ही घट का निरूपण होता है। एवंभूत में प्रवृत्तिनिमित्त से भिन्न ही अर्थ का निरूपण होता है।
- वाच्य पदार्थ की अपेक्षा‒अथवा एक अर्थ में अनेक शब्दों की प्रवृत्ति या प्रत्येक में स्वतन्त्र शब्दों का प्रयोग, इस तरह भी दो प्रकार हैं। शब्दनय में अनेक पर्यायवाची शब्दों का वाच्य एक ही होता है। समभिरूढ़ में चूकि शब्द नैमित्तिक है, अत: एक शब्द का वाच्य एक ही होता है। एवंभूत वर्तमान निमित्त को पकड़ता है। अत: उसके मत में भी एक शब्द का वाच्य एक ही है।
- सातों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग
- नैगमनय के भेद व लक्षण
- नैगमनय सामान्य के लक्षण
- निगम अर्थात् संकल्पग्राही
स.सि./१/३३/१४१/२ अनभिनिवृत्तार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगम:।=अनिष्पन्न अर्थ में संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगम है। (रा.वा./१/३३/२/९५/१३); (श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.१७/२३०); (ह.पु./५८/४३); (त.सा./१/४४)।
रा.वा./१/३३/२/९५/१२ निर्गच्छन्ति तस्मिन्निति निगमनमात्रं वा निगम: निगमे कुशलो भवो वा नैगम:।=उसमें अर्थात् आत्मा में जो उत्पन्न हो या अवतारमात्र निगम कहलाता है। उस निगम में जो कुशल हो अर्थात् निगम या संकल्प को जो विषय करे उसे नैगम कहते हैं।
श्लो.वा.४/१/३३/श्लो.१८/२३० संकल्पो निगमस्तत्र भवोऽयं तत्प्रयोजन:।=नैगम शब्द को भव अर्थ या प्रयोजन अर्थ में तद्धितका अण् प्रत्यय कर बनाया गया है। निगम का अर्थ संकल्प है, उस संकल्प में जो उपजे अथवा वह संकल्प जिसका प्रयोजन हो वह नैगम नय है। (आ.प./९); (नि.सा./ता.वृ./१९)।
का.अ./मू./२७१ जो साहेदि अदीदं वियप्परूवं भविस्समट्ठं च। संपडि कालाविट्ठं सो हु णओ णेगमो णेओ।२७१।=जो नय अतीत, अनागत और वर्तमान को विकल्परूप से साधता है वह नैगमनय है।
- ‘नैकं गमो’ अर्थात् द्वैतग्राही
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.२१/२३२ यद्वा नैकं गमो योऽत्र सतां नैगमो मत:। धर्मयोर्धर्मिणोर्वापि विवक्षा धर्मधर्मिणो:।=जो एक को विषय नहीं करता उसे नैगमनय कहते हैं। अर्थात् जो मुख्य गौणरूप से दो धर्मों को, दो धर्मियों को अथवा धर्म व धर्मी दोनों को विषय करता है वह नैगम नय है। (ध.९/४,१,४५/१८१/२); (ध.१३/५,५,७/१९९/१); (स्या.म./२८/-३११/३,३१७/२)।
स्या.म./२८/३१५/१४ में उद्धृत=अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते नैगमो नय:।=अभिन्न ज्ञान का कारण जो सामान्य है, वह अन्य है और विशेष अन्य है, ऐसा नैगमनय मानता है।
देखें - आगे नय / III / ३ / २ (संग्रह व व्यवहार दोनों को विषय करता है।)
- निगम अर्थात् संकल्पग्राही
- ‘संकल्पग्राही’ लक्षण विषयक उदाहरण
स.सि./१/३३/१४१/२ कश्चित्पुरुषं परिगृहीतपरशुं गच्छन्तमवलोक्य कश्चित्पृच्छति किमर्थं भवान्गच्छतीति। स आह प्रस्थमानेतुमिति। नासौ तदा प्रस्थपर्याय: संनिहित: तदभिनिवृत्तये संकल्पमात्रे प्रस्थव्यवहार:। तथा एधोदकाद्याहरणे व्याप्रियमाणं कश्चित्पृच्छति किं करोति भवानिति स आह ओदनं पचामीति। न तदौदनपर्याय:, संनिहित:, तदर्थे व्यापारे स प्रयुज्यते। एवं प्रकारो लोकसंव्यवहारोऽअंनभिनिवृत्तार्थसंकल्पमात्रविषयो नैगमस्य गोचर:।=- हाथ में फरसा लिये जाते हुए किसी पुरुष को देखकर कोई अन्य पुरुष पूछता है, ‘आप किस काम के लिए जा रहे हैं।’ वह कहता है कि प्रस्थ लेने के लिए जा रहा हू। उस समय वह प्रस्थ पर्याय, सन्निहित नहीं है। केवल उसके बनाने का संकल्प होने से उसमें (जिस काठ को लेने जा रहा है उस काठ में) प्रस्थ-व्यवहार किया गया है।
- इसी प्रकार ईंधन और जल आदि के लाने में लगे हुए किसी पुरुष से कोई पूछता है, कि ‘आप क्या कर रहे हैं। उसने कहा, भात पका रहा हू। उस समय भात पर्याय सन्निहित नहीं है, केवल भात के लिए किये गये व्यापार में भात का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार का जितना लोकव्यवहार है वह अनिष्पन्न अर्थ के आलम्बन से संकल्पमात्र को विषय करता है, वह सब नैगमनय का विषय है। (रा.वा./१/३३/२/९५/१३); (श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.१८/२३०)।
- ‘द्वैतग्राही’ लक्षण विषयक उदाहरण
ष.खं./१२/४,२,९/सू.२/२९५ १. णेगमववहाराणं णाणावरणीयवेयणा सिया जीवस्स वा।२।=नैगम और व्यवहार नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना कथंचित् जीव के होती है। (यहा जीव तथा उसका कर्मानुभव दोनों का ग्रहण किया है। वेदना प्रधान है और जीव गौण)।
ष.खं.१०/४,२,३/सू.१/१३ २. णेगमववहाराणं णाणावरणीयवेयणा दंसणावरणीयवेयणा वेयणीवेयणा...। =नैगम व व्यवहारनय से वेदना ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय...(आदि आठ भेदरूप है)। (यहा वेदना सामान्य गौण और ज्ञानावरणीय आदि भेद प्रधान–ऐसे दोनों का ग्रहण किया है।)
क.पा.१/१३-१४/२५७/२९७/१ ३‒जं मणुस्सं पडुच्च कोहो समुप्पणो सो तत्तो पुधभूदो संतो कधं कोहो। होंत ऐसो दोसो जदि संगहादिणया अवलंबिदा, किन्तु णइगमणओ अइवसहाइरिएण जेणाबलंबिदो तेण ण एस दोसो। तत्थ कधं ण दोसो। कारणम्मि णिलीणकज्जब्भुवगमादो।=प्रश्न‒जिस मनुष्य के निमित्त से क्रोध उत्पन्न हुआ है, वह मनुष्य उस क्रोध से अलग होता हुआ भी क्रोध कैसे कहला सकता है? उत्तर‒यदि यहा पर संग्रह आदि नयों का अवलम्बन लिया होता, तो ऐसा होता, अर्थात् संग्रह आदि नयों की अपेक्षा क्रोध से भिन्न मनुष्य आदिक क्रोध नहीं कहलाये जा सकते हैं। किन्तु यतिवृषभाचार्य ने चूकि यहा नैगमनय का अवलम्बन लिया है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है। प्रश्न‒दोष कैसे नहीं है ? उत्तर‒क्योंकि नैगमनय की अपेक्षा कारण में कार्य का सद्भाव स्वीकार किया गया है। (और भी दे०‒उपचार/५/३)
ध.९/४,१,४५/१७१/५ ४. परस्परविभिन्नोभयविषयालम्बनो नैगमनय:; शब्द–शील-कर्म-कार्य-कारणाधाराधेय-भूत-भावि-भविष्यद्वर्तमान-मेयोन्मेयादिकमाश्रित्य स्थितोपचारप्रभव इति यावत् ।=परस्पर भिन्न (भेदाभेद) दो विषयों का अवलम्बन करने वाला नैगमनय है। अभिप्राय यह कि जो शब्द, शील, कर्म, कार्य, कारण, आधार, आधेय, भूत, भविष्यत्, वर्तमान, मेय व उन्मेयादि का आश्रयकर स्थित उपचार से उत्पन्न होने वाला है, वह नैगमनय कहा जाता है। (क.पा./१/१३-१४/१८३/२२१/१)।
ध.१३/५,३,१२/१३/१ ५. धम्मदव्वं धम्मदव्वेण पुस्सज्जदि, असंगहियणेगमणयमस्सिदूण लोगागासपदेसमेत्तधम्मदव्वपदेसाणं पुध-पुध लद्धदव्वववएसाणमण्णोण्णं पासुवलंभादो। अधम्मदव्वमधम्मदव्वेण पुसिज्जदि, तक्खंध-देस-पदेस-परमाणूणमसंगहियणेगमणएण पत्तदव्वभावाणमेयत्तदंसणादो।=धर्म द्रव्य धर्मद्रव्य के द्वारा स्पर्श को प्राप्त होता है, क्योंकि असंग्राहिक नैगमनय की अपेक्षा लोकाकाश के प्रदेशप्रमाण और पृथक्-पृथक् द्रव्य संज्ञा को प्राप्त हुए धर्मद्रव्य के प्रदेशों का परस्पर में स्पर्श देखा जाता है। अधर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य के द्वारा स्पर्श को प्राप्त होता है, क्योंकि असंग्राहिक नैगमनय की अपेक्षा द्रव्यभाव को प्राप्त हुए अधर्मद्रव्य के स्कन्ध, देश, प्रदेश, और परमाणुओं का एकत्व देखा जाता है।
स्या.म./२८/३१७/२ ६. धर्मयोर्धर्मिणोर्धर्मंधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जनभावेन यद्विवक्षणं स नैकगमो नैगम:। सत् चैतन्यमात्मनीति धर्मयो:। वस्तुपर्यायवद्द्रव्यमिति धर्मिणो:। क्षणमेकं सुखी विषयासक्तजीव इति धर्मधर्मिणो:। =दो धर्म और दो धर्मी अथवा एक धर्म और एक धर्मी में प्रधानता और गौणता की विवक्षा को नैगमनय कहते हैं। जैसे (१) सत् और चैतन्य दोनों आत्मा के धर्म हैं। यहा सत् और चैतन्य धर्मों में चैतन्य विशेष्य होने से प्रधान धर्म है और सत् विशेषण होने से गौण धर्म है। (२) पर्यायवान् द्रव्य को वस्तु कहते हैं। यहा द्रव्य और वस्तु दो धर्मियों में द्रव्य मुख्य और वस्तु गौण है। अथवा पर्यायवान् वस्तु को द्रव्य कहते हैं, यहा वस्तु मुख्य और द्रव्य गौण है। (३) विषयासक्तजीव क्षण भरके लिए सुखी हो जाता है। यहा विषयासक्त जीवरूप धर्मी मुख्य और सुखरूप धर्म गौण है।
स्या.म./२८/३११/३ तत्र नैगम: सत्तालक्षणं महासामान्यं, अवान्तरसामान्यानि च, द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादीनि; तथान्त्यान् विशेषान् सकलासाधारणरूपलक्षणान्, अवान्तरविशेषांश्चापेक्षया पररूपव्यावृत्तनक्षमान् सामान्यान् अत्यन्तविनिर्लुठितस्वरूपानभिप्रैति।=नैगमनय सत्तारूप महासामान्य को; अवान्तरसामान्य को; द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व आदि को; सकल असाधारणरूप अन्त्य विशेषों को; तथा पररूप से व्यावृत और सामान्य से भिन्न अवान्तर विशेषों को, अत्यन्त एकमेकरूप से रहने वाले सर्वधर्मों को (मुख्य गौण करके) जानता है।
- नैगमनय के भेद
श्लो.वा./४/१/३३/४८/२३९/१८ त्रिविधस्तावन्नैगम:। पर्यायनैगम: द्रव्यनैगम:, द्रव्यपर्यायनैगमश्चेति। तत्र प्रथमस्त्रेधा। अर्थपर्यायनैगमो व्यञ्जनपर्यायनैगमोऽर्थव्यञ्जनपर्यायनैगमश्च इति। द्वितीयो द्विधा-शुद्धद्रव्यनैगम: अशुद्धद्रव्यनैगमश्चेति। तृतीयश्चतुर्धा। शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम:, शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायनैगम:, अशुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम:, अशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायनैगमश्चेति नवधा नैगम: साभास उदाहृत: परीक्षणीय:। =नैगमनय तीन प्रकार का है‒पर्यायनैगम, द्रव्यनैगम, द्रव्यपर्यायनैगम। तहा पर्यायनैगम तीन प्रकार का है‒अर्थपर्यायनैगम, व्यञ्जनपर्यायनैगम और अर्थव्यञ्जनपर्यायनैगम। द्रव्यनैगमनय दो प्रकार का है‒ शुद्धद्रव्यनैगम और अशुद्धद्रव्यनैगम। द्रव्यपर्यायनैगम चार प्रकार है‒शुद्ध द्रव्यार्थपर्याय नैगम, शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायनैगम, अशुद्ध द्रव्यार्थपर्याय नैगम, अशुद्ध द्रव्यव्यञ्जनपर्यायनैगम। ऐसे नौ प्रकार का नैगमनय और इन नौ ही प्रकार का नैगमाभास उदाहरण पूर्वक कहे गये हैं। (क.पा.१/१३-१४/२०२/२४४/१); (ध.९/४,१,४५/१८१/३)।
आ.प./५ नैगमस्त्रेधा भूतभाविवर्तमानकालभेदात् ।=भूत, भावि और वर्तमानकाल के भेद से (संकल्पग्राही) नैगमनय तीन प्रकार का है। (नि.सा./ता.वृ./१९)।
- भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के लक्षण
आ.प./५ अतीते वर्तमानारोपणं यत्र स भूतनैगमो। ...भाविनि भूतवत्कथनं यत्र स भाविनैगमो। ... कर्तुमारब्धमीषन्निष्पन्नमनिष्पन्नं वा वस्तु निष्पन्नवत्कथ्यते यत्र स वर्तमाननैगमो। =अतीत कार्य में ‘आज हुआ है’ ऐसा वर्तमान का आरोप या उपचार करना भूत नैगमनय है। होने वाले कार्य को ‘हो चुका’ ऐसा भूतवत् कथन करना भावी नैगमनय है। और जो कार्य करना प्रारम्भ कर दिया गया है, परन्तु अभी तक जो निष्पन्न नहीं हुआ है, कुछ निष्पन्न है और कुछ अनिष्पन्न उस कार्य को ‘हो गया’ ऐसा निष्पन्नवत् कथन करना वर्तमान नैगमनय है। (न.च.वृ./२०६-२०८); (न.च./श्रुत/पृ.१२)।
- भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के उदाहरण
- भूत नैगम
आ.प./५ भूतनैगमो यथा, अद्य दीपोत्सवदिने श्रीवर्द्धमानस्वामी मोक्षंगत:। =आज दीपावली के दिन भगवान् वर्द्धमान मोक्ष गये हैं, ऐसा कहना भूत नैगमनय है। (न.च.वृ./२०६); (न.च./श्रुत/पृ.१०)।
नि.सा./ता.वृ./१९ भूतनैगमनयापेक्षया भगवतां सिद्धानामपि व्यञ्जनपर्यायत्वमशुद्धत्वं च संभवति। पूर्वकाले ते भगवन्त: संसारिण इति व्यवहारात् ।=भूत नैगमनय की अपेक्षा से भगवन्त सिद्धों को भी व्यञ्जनपर्यायवानपना और अशुद्धपना सम्भावित होता है, क्योंकि पूर्वकाल में वे भगवन्त संसारी थे ऐसा व्यवहार है।
द्र.सं./टी./१४/४८/९ अन्तरात्मावस्थायां तु बहिरात्मा भूतपूर्वन्यायेन घृतघटवत् ...परमात्मावस्थायां पुनरन्तरात्मबहिरात्मद्वयं भूतपूर्वनयेनेति।=अन्तरात्मा की अवस्था में बहिरात्मा और परमात्मा की अवस्था में अन्तरात्मा व बहिरात्मा दोनों घी के घड़ेवत् भूतपूर्व न्याय से जानने चाहिए।
- भावी नैगमनय
आ.प./५ भावि नैगमो यथा‒अर्हन् सिद्ध एव।=भावी नैगमनय की अपेक्षा अर्हन्त भगवान् सिद्ध ही हैं।
न.च.वृ./२०७ णिप्पण्णमिव पजंपदि भाविपदत्थं णरो अणिप्पण्णं। अप्पत्थे जह पत्थं भण्णइ सो भाविणइगमत्ति णओ।२०७।=जो पदार्थ अभी अनिष्पन्न है, और भावी काल में निष्पन्न होने वाला है, उसे निष्पन्नवत् कहना भावी नैगमनय है। जैसे‒जो अभी प्रस्थ नहीं बना है ऐसे काठ के टुकड़े को ही प्रस्थ कह देना। (न.च./श्रुत/पृ.११) (और भी‒देखें - पीछे संकल्पग्राही नैगम का उदाहरण )।
ध.१२/४,२,१०,२/३०३/५ उदीर्णस्य भवतु नाम प्रकृतिव्यपदेश:, फलदातृत्वेन परिणतत्वात् । न बध्यमानोपशान्तयो:, तत्र तदभावादिति। न, त्रिष्वपि कालेषु प्रकृतिशब्दसिद्धे:। ...भूदभविस्सपज्जायाणं वट्टमाणत्तब्भुवगमादो वा णेगमणयम्मि एसा वुप्पत्ती घडदे।=प्रश्न‒उदीर्ण कर्मपुद्गलस्कन्ध की प्रकृति संज्ञा भले ही हो, क्योंकि, वह फलदान स्वरूप से परिणत है। बध्यमान और उपशान्त कर्म पुद्गलस्कन्धों की यह संज्ञा नहीं बन सकती, क्योंकि, उनमें फलदान स्वरूप का अभाव है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, तीनों ही कालों में प्रकृति शब्द की सिद्धि की गयी है। भूत व भविष्यत् पर्यायों को वर्तमानरूप स्वीकार कर लेने से नैगमनय में व्युत्पत्ति बैठ जाती है।
देखें - अपूर्वकरण / ४ (भूत व भावी नैगमनय से ८वें गुणस्थान में उपशामक व क्षपक संज्ञा बन जाती है, भले ही वहा एक भी कर्म का उपशम या क्षय नहीं होता। द्रं.सं/टी./१४/४८/८ बहिरात्मावस्थायामन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेण भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च विज्ञेयम्, अन्तरात्मावस्थायां...परमात्मस्वरूपं तु शक्तिरूपेण भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च।=बहिरात्मा की दशा में अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से तो रहते ही हैं, परन्तु भाविनैगमनय से व्यक्तिरूप से भी रहते हैं। इसी प्रकार अन्तरात्मा की दशा में परमात्मस्वरूप शक्तिरूप से तो रहता ही है, परन्तु भाविनैगमनय से व्यक्तिरूप से भी रहता है।
पं.ध./उ./६२१ तेभ्योऽर्वागपि छद्मस्थरूपास्तद्रूपधारिण:। गुरव: स्युर्गुरोर्न्यायान्नान्योऽवस्थाविशेषभाक् ।६२१। =देव होने से पहले भी, छद्मस्थ रूप में विद्यमान मुनि को देवरूप का धारी होने करि गुरु कह दिया जाता है। वास्तव में तो देव ही गुरु हैं। ऐसा भावि नैगमनय से ही कहा जा सकता है। अन्य अवस्था विशेष में तो किसी भी प्रकार गुरु संज्ञा घटित होती नहीं। - वर्तमान नैगमनय
आ.प./५ वर्तमाननैगमो यथा‒ओदन: पच्यते।=वर्तमान नैगमनय से अधपके चावलों को भी ‘भात पकता है’ ऐसा कह दिया जाता है। (न.च./श्रुत/पृ.११)। न.च.वृ./२०८ परद्धा जा किरिया पयणविहाणादि कहइ जो सिद्धा। लोएसे पुच्छमाणे भण्णइ तं वट्टमाणणयं।२०८।=पाकक्रिया के प्रारम्भ करने पर ही किसी के पूछने पर यह कह दिया जाता है, कि भात पक गया है या भात पकाता हू, ऐसा वर्तमान नैगमनय है। (और भी देखें - पीछे संकल्पग्राही नैगमनय का उदाहरण )।
- भूत नैगम
- पर्याय, द्रव्य व उभयरूप नैगमसामान्य के लक्षण
ध.९/४,१,४५/१८१/२ न एकगमो नैगम इति न्यायात् शुद्धाशुद्धपर्यायार्थिकनयद्वयविषय: पर्यायार्थिकनैगम:; द्रव्यार्थिकनयद्वयविषय: द्रव्यार्थिकनैगम:; द्रव्यपर्यायार्थिकनयद्वयविषय: नैगमो द्वन्द्वज:। =जो एक को विषय न करे अर्थात् भेद व अभेद दोनों को विषय करे वह नैगमनय है’ इस न्याय से जो शुद्ध व अशुद्ध दोनों पर्यायार्थिकनयों के विषय को ग्रहण करने वाला हो वह पर्यायार्थिकनैगमनय है। शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयों के विषय को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिक नैगमनय है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों के विषय को ग्रहण करने वाला द्वंद्वज अर्थात् द्रव्य पर्यायार्थिक नैगमनय है।
क.पा.१/१३-१४/२०२/२४४/३ युक्त्यवष्टम्भबलेन संग्रहव्यवहारनयविषय: द्रव्यार्थिकनैगम:। ऋजुसूत्रादिनयचतुष्टयविषयं युक्त्यवष्टम्भबलेन प्रतिपन्न: पर्यायार्थिकनैगम:। द्रव्यार्थिकनयविषयं पर्यायार्थिकविषयं च प्रतिपन्न: द्रव्यपर्यायार्थिकनैगम:।=युक्तिरूप आधार के बल से संग्रह और व्यवहार इन दोनों (शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिक) नयों के विषय को स्वीकार करने वाला द्रव्यार्थिक नैगमनय है। ऋजुसूत्र आदि चार नयों के विषय को स्वीकार करने वाला पर्यायार्थिक नय है तथा द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक इन दोनों के विषय को स्वीकार करने वाला द्रव्यपर्यायार्थिक नैगमनय है।
- द्रव्य व पर्याय आदि नैगमनय के भेदों के लक्षण व उदाहरण
- अर्थ, व्यञ्जन व तदुभय पर्याय नैगम
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.२८-३५/३४ अर्थपर्याययोस्तावद्गुणमुख्यस्वभावत:। क्वचिद्वस्तुन्यभिप्राय: प्रतिपत्तु: प्रजायते।२८। यथा प्रतिक्षणं ध्वंसि सुखसंविच्छरीरिण:। इति सत्तार्थपर्यायो विशेषणतया गुण:।२९। संवेदनार्थपर्यायो विशेष्यत्वेन मुख्यताम् । प्रतिगच्छन्नभिप्रेतो नान्यथैवं वचो गति:।३०। कश्चिद्वयञ्जनपर्यायौ विषयीकुरुतेऽञ्जसा। गुणप्रधानभावेन धर्मिण्येकत्र नैगम:।३२। सच्चैतन्यं नरीत्येवं सत्त्वस्य गुणभावत:। प्रधानभावतश्चापि चैतन्यस्याभिसिद्धित:।३३। अर्थव्यञ्जनपर्यायौ गोचरीकुरुते पर:। धार्मिके सुखजीवित्वमित्येवमनुरोधत:।३५।=एक वस्तु में दो अर्थपर्यायों को गौण मुख्यरूप से जानने के लिए नयज्ञानों का जो अभिप्राय उत्पन्न होता है, उसे अर्थ पर्यायनैगम नय कहते हैं। जैसे कि शरीरधारी आत्मा का सुखसंवेदन प्रतिक्षणध्वंसी है। यहा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप सत्ता सामान्य की अर्थपर्याय तो विशेषण हो जाने से गौण है, और संवेदनरूप अर्थपर्याय विशेष्य होने से मुख्य है। अन्यथा किसी कथन द्वारा इस अभिप्राय की ज्ञप्ति नहीं हो सकती।२८-३०। एक धर्मी में दो व्यंजनपर्यायों को गौण मुख्यरूप से विषय करने वाला व्यंजनपर्यायनैगमनय है। जैसे ‘आत्मा में सत्त्व और चैतन्य है’। यहा विशेषण होने के कारण सत्ता की गौणरूप से और विशेष्य होने के कारण चैतन्य को प्रधानरूप से ज्ञप्ति होती है।३२-३३। एक धर्मी में अर्थ व व्यंजन दोनों पर्यायों को विषय करने वाला अर्थव्यञ्जनपर्याय नैगमनय है, जैसे कि धर्मात्मा व्यक्ति में सुखपूर्वक जीवन वर्त रहा है। (यहा धर्मात्मारूप धर्मी में सुखरूप अर्थपर्याय तो विशेषण होने के कारण गौण है और जीवीपनारूप व्यञ्जनपर्याय विशेष्य होने के कारण मुख्य है।३५। (रा.वा./हिं/१/३३/१९८-१९९)/
- शुद्ध व अशुद्ध द्रव्य नैगम
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.३७-३९/२३६ शुद्धद्रव्यमशुद्धं च तथाभिप्रैति यो नय:। स तु नैगम एवेह संग्रहव्यवहारत:।३७। सद्द्रव्यं सकलं वस्तु तथान्वयविनिश्चयात् । इत्येवमवगन्तव्य:...।३८। यस्तु पर्यायवद्द्रव्यं गुणवद्वेति निर्णय:। व्यवहारनयाज्जात: सोऽशुद्धद्रव्यनैगम:।३९। =शुद्धद्रव्य या अशुद्धद्रव्य को विषय करने वाले संग्रह व व्यवहार नय से उत्पन्न होने वाले अभिप्राय ही क्रम से शुद्धद्रव्यनैगम और अशुद्धद्रव्यनैगमनय हैं। जैसे कि अन्वय का निश्चय हो जाने से सम्पूर्ण वस्तुओं को ‘सत् द्रव्य’ कहना शुद्धद्रव्य नैगमनय है।३७-३८। (यहा ‘सत्’ तो विशेषण होने के कारण गौण है और ‘द्रव्य’ विशेष्य होने के कारण मुख्य है।) जो नय ‘पर्यायवान् द्रव्य है’ अथवा ‘गुणवान् द्रव्य है’ इस प्रकार निर्णय करता है, वह व्यवहारनय से उत्पन्न होने वाला अशुद्धद्रव्यनैगमनय है। (यहा ‘पर्यायवान्’ तथा ‘गुणवान्’ ये तो विशेषण होने के कारण गौण हैं और ‘द्रव्य’ विशेष्य होने के कारण मुख्य है।) (रा.वा./हि./१/३३/१९८) नोट‒(संग्रह व्यवहारनय तथा शुद्ध, अशुद्ध द्रव्यनैगमनय में अन्तर के लिए‒ देखें - आगे नय / III / ३ )।
- शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यपर्याय नैगम
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.४१-४६/२३७ शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगमोऽस्ति परो यथा। सत्सुखं क्षणिकं शुद्धं संसारेऽस्मिन्नितीरणम् ।४१। क्षणमेकं सुखी जीवो विषयीति विनिश्चय:। विनिर्दिष्टोऽर्थपर्यायोऽशुद्धद्रव्यार्थनैगम:।४३। गोचरीकुरुते शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्ययौ। नैगमोऽन्यो यथा सच्चित्सामान्यमिति निर्णय:।४५। विद्यते चापरो शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्ययौ। अर्थीकरोति य: सोऽत्र ना गुणीति निगद्यते।४६। =(शुद्धद्रव्य व उसकी किसी एक अर्थपर्याय को गौण मुख्यरूप से विषय करने वाला शुद्धद्रव्य अर्थपर्याय-नैगमनय है) जैसे कि संसार में सुख पदार्थ शुद्ध सत्स्वरूप होता हुआ क्षणमात्र में नष्ट हो जाता है। (यहा उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप सत्पना तो शुद्ध द्रव्य है और सुख अर्थपर्याय है। तहा विशेषण होने के कारण सत् तो गौण है और विशेष्य होने के कारण सुख मुख्य है।४१।) (अशुद्ध द्रव्य व उसकी किसी एक अर्थ पर्याय को गौण मुख्य रूप से विषय करने वाला अशुद्धद्रव्यअर्थपर्याय-नैगमनय है।) जैसे कि संसारी जीव क्षणमात्र को सुखी है। (यहा सुखरूप अर्थपर्याय तो विशेषण होने के कारण गौण है और संसारी जीवरूप अशुद्धद्रव्य विशेष्य होने के कारण मुख्य है)।४३। शुद्धद्रव्य व उसकी किसी एक व्यंजनपर्याय को गौण मुख्य रूप से विषय करने वाला शुद्धद्रव्य-व्यंजनपर्याय-नैगमनय है। जैसे कि यह सत् सामान्य चैतन्यस्वरूप है। (यहा सत् सामान्यरूप शुद्धद्रव्य तो विशेषण होने के कारण गौण है और उसकी चैतन्यपनेरूप व्यंजनपर्याय विशेष्य होने के कारण मुख्य है)।४५। अशुद्धद्रव्य और उसकी किसी एक व्यञ्जन पर्याय को गौण मुख्यरूप से विषय करने वाला अशुद्धद्रव्य-व्यञ्जनपर्याय-नैगमनय है। जैसे ‘मनुष्य गुणी है’ ऐसा कहना। (यहा ‘मनुष्य’ रूप अशुद्धद्रव्य तो विशेष्य होने के कारण मुख्य है और ‘गुणी’ रूप व्यंजनपर्याय विशेषण होने के कारण गौण है।४६।) (रा.वा./हि/१/३३/१९९)
- अर्थ, व्यञ्जन व तदुभय पर्याय नैगम
- नैगमाभास सामान्य का लक्षण व उदाहरण
स्या.म./२८/३१७/५ धर्मद्वयादीनामैकान्तिकपार्थक्याभिसन्धिर्नैगमाभास:। यथा आत्मनि सत्त्वचैतन्ये परस्परमत्यन्तपृथग्भूते इत्यादि:। =दो धर्म, दो धर्मी अथवा एक धर्म व एक धर्मी में सर्वथा भिन्नता दिखाने को नैगमाभास कहते हैं। जैसे‒आत्मा में सत् और चैतन्य परस्पर अत्यन्त भिन्न हैं ऐसा कहना। (विशेष देखो अगला शीर्षक)
- नैगमाभास विशेषों के लक्षण व उदाहरण
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.नं./पृष्ठ २३५-२३९ सर्वथा सुखसंवित्त्योर्नानात्वेऽभिमति: पुन:। स्वाश्रयाच्चार्थपर्यायनैगमाभोऽप्रतीतित:।३१। तयोरत्यन्तभेदोक्तिरन्योन्यं स्वाश्रयादपि। ज्ञेयो व्यञ्जनपर्यायनैगमाभो विरोधत:।३४। भिन्ने तु सुखजीवित्वे योऽभिमन्येत सर्वथा। सोऽर्थव्यञ्जनपर्यायनैगमाभास एव न:।३६। सद्द्रव्यं सकलं वस्तु तथान्वयविनिश्चयात् । इत्येवमवगन्तव्यस्तद्भेदोक्तिस्तु दुर्नय:।३८। तद्भेदैकान्तवादस्तु तदाभासोऽनुमन्यते। तथोक्तेर्बहिरन्तश्च प्रत्यक्षादिविरोधत:।४०। सत्त्वं सुखार्थपर्यायाद्भिन्नमेवेति संमति:। दुर्नीति: स्यात्सबाधत्वादिति नीतिविदो विदु:।४२। सुखजीवभिदोक्तिस्तु सर्वथा मानबाधिता। दुर्नीतिरेव बोद्धव्या शुद्धबोधैरसंशयात् ।४४। भिदाभिदाभिरत्यन्तं प्रतीतेरपलापत:। पूर्ववन्नैगमाभासौ प्रत्येतव्यौ तयोरपि।४७।=- (नैगमाभास के सामान्य लक्षणवत् यहा भी धर्मधर्मी आदि में सर्वथा भेद दर्शाकर पर्यायनैगम व द्रव्यनैगम आदि के आभासों का निरूपण किया गया है।) जैसे‒
- शरीरधारी आत्मा में सुख व संवेदन का सर्वथा नानापने का अभिप्राय रखना अर्थपर्यायनैगमाभास है। क्योंकि द्रव्य के गुणों का परस्पर में अथवा अपने आश्रयभूत द्रव्य के साथ ऐसा भेद प्रतीतिगोचर नहीं है।३१।
- आत्मा से सत्ता और चैतन्य का अथवा सत्ता और चैतन्य का परस्पर में अत्यन्त भेद मानना व्यञ्जनपर्याय नैगमाभास है।३४।
- धर्मात्मा पुरुष में सुख व जीवनपने का सर्वथा भेद मानना अर्थव्यञ्जनपर्याय-नैगमाभास है।३६।
- सब द्रव्यों में अन्वयरूप से रहने का निश्चय किये बिना द्रव्यपने और सत्पने को सर्वथा भेदरूप कहना शुद्धद्रव्यनैगमाभास है।३८।
- पर्याय व पर्यायवान् में सर्वथा भेद मानना अशुद्ध-द्रव्यनैगमाभास है। क्योंकि घट पट आदि बहिरंग पदार्थों में तथा आत्मा ज्ञान आदि अन्तरंग पदार्थों में इस प्रकार का भेद प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध है।४०।
- सुखस्वरूप अर्थपर्याय से सत्त्वस्वरूप शुद्धद्रव्य को सर्वथा भिन्न मानना शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगमाभास है। क्योंकि इस प्रकार का भेद अनेक बाधाओं सहित है।४२।
- सुख और जीव को सर्वथा भेदरूप से कहना अशुद्धद्रव्यार्थपर्याय नैगमाभास है। क्योंकि गुण व गुणी में सर्वथा भेद प्रमाणों से बाधित है।४४।
- सत् व चैतन्य के सर्वथा भेद या अभेद का अभिप्राय रखना शुद्ध द्रव्य व्यञ्जनपर्याय-नैगमाभास है।४७।
- मनुष्य व गुणी का सर्वथा भेद या अभेद मानना अशुद्ध द्रव्य व्यञ्जनपर्याय नैगमाभास है।४७।
- नैगमनय सामान्य के लक्षण
- नैगमनय निर्देश
- नैगम नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.१७/२३० तत्र संकल्पमात्रो ग्राहको नैगमो नय:। सोपाधिरित्यशुद्धस्य द्रव्यार्थिकस्याभिधानात् ।१७।=संकल्पमात्र ग्राही नैगमनय अशुद्ध द्रव्य का कथन करने से सोपाधि है। (क्योंकि सत्त्व प्रस्थादि उपाधिया अशुद्धद्रव्य में ही सम्भव हैं और अभेद में भेद विवक्षा करने से भी उसमें अशुद्धता आती है।) (और भी देखें - नय / III / २ / १ -२)।
- शुद्ध व अशुद्ध सभी नय नैगम के पेट में समा जाते हैं
ध.१/१,१,१/८४/६ यदस्ति न तद् द्वयमतिलङ्ध्य वर्तत इति नैकगमो नैगम:, संग्रहासंग्रहस्वरूपद्रव्यार्थिको नैगम इति यावत् ।=जो है वह उक्त दोनों (संग्रह और व्यवहार नय) को छोड़कर नहीं रहता है। इस तरह जो एक को ही प्राप्त नहीं होता है, अर्थात् अनेक को प्राप्त होता है उसे नैगमनय कहते हैं। अर्थात् संग्रह और असंग्रहरूप जो द्रव्यार्थिकनय है वही नैगम नय है। (क.पा.१/२१/३५३/३७६/३)। (और भी देखें - नय / III / ३ / ३ )।
ध.९/४,१,४५/१७१/४ यदस्ति न तद् द्वयमतिलङ्ध्य वर्तत इति संग्रह व्यवहारयो: परस्परविभिन्नोभयविषयावलम्बनो नैगमनय:।=जो है वह भेद व अभेद दोनों को उल्लंघन कर नहीं रहता, इस प्रकार संग्रह और व्यवहार नयों के परस्पर भिन्न (भेदाभेद) दो विषयों का अवलम्बन करने वाला नैगमनय है। (ध.१२/४,२,१०,२/३०३/१); (क.पा./१/१३-१४/१८३/२३१/१); (और भी देखें - नय / III / २ / ३ )।
ध.१३/५,५,७/१९९/१ नैकगमो नैगम:, द्रव्यपर्यायद्वयं मिथो विभिन्नमिच्छन् नैगम इति यावत् ।=जो एक को नहीं प्राप्त होता अर्थात् अनेक को प्राप्त होता है वह नैगमनय है। जो द्रव्य और पर्याय इन दोनों को आपस में अलग-अलग स्वीकार करता है वह नैगमनय है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
ध.१३/५,३,७/४/९ णेगमणयस्स असंगहियस्स एदे तेरसविफासा होंति त्ति बोद्धव्वा, परिग्गहिदसव्वणयविसयत्तादो।=असंग्राहिक नैगमनय के ये तेरह के तेरह स्पर्श विषय होते हैं, ऐसा यहा जानना चाहिए; क्योंकि, यह नय सब नयों के विषयों को स्वीकार करता है।
दे.निक्षेप/३-(यह नय सब निक्षेपों को स्वीकार करता है।)
- नैगम तथा संग्रह व व्यवहार नय में अन्तर
श्लो.वा.४/१/३३/६०/२४५/१७ न चैवं व्यवहारस्य नैगमत्वप्रसक्ति: संग्रहविषयप्रविभागपरत्वात्, सर्वस्य नैगमस्य तु गुणप्रधानोभय विषयत्वात् ।=इस प्रकार वस्तु के उत्तरोत्तर भेदों को ग्रहण करने वाला होने से इस व्यवहारनय को नैगमपना प्राप्त नहीं हो जाता; क्योंकि, व्यवहारनय तो संग्रह गृहीत पदार्थ का व्यवहारोपयोगी विभाग करने में तत्पर है, और नैगमनय सर्वदा गौण प्रधानरूप से दोनों को विषय करता है।
क.पा.१/२१/३५४-३५५/३७६/८ ऐसो णेगमो संगमो संगहिओ असंगहिओ चेदि जइ दुविहो तो णत्थि णेगमो; विसयाभावादो।...ण च संगहविसेसेहिंतो वदिरित्तो विसओ अत्थि, जेण णेगमणयस्स अत्थित्तं होज्ज। एत्थ परिहारो वुच्चदे‒संगह-ववहारणयविसएसु अक्कमेण वट्टमाणो णेगमो।...ण च एगविसएहि दुविसओ सरिसो; विरोहादो। तो क्खहिं ‘दुविहो णेगमो’ त्ति ण घटदे, ण; एयम्मि वट्टमाणअहिप्पायस्स आलंबणभेएण दुब्भावं गयस्स आधारजीवस्स दुब्भावत्ताविरोहादो।=प्रश्न‒यह नैगमनय संग्राहिक और असंग्राहिक के भेद से यदि दो प्रकार का है, तो नैगमनय कोई स्वतन्त्र नय नहीं रहता। क्योंकि, संग्रहनय के विषयभूत सामान्य और व्यवहारनय के विषयभूत विशेष से अतिरिक्त कोई विषय नहीं पाया जाता, जिसको विषय करने के कारण नैगमनय का अस्तित्व सिद्ध होवे। उत्तर‒अब इस शंका का समाधान कहते हैं‒नैगमनय संग्रहनय और व्यवहारनय के विषय में एक साथ प्रवृत्ति करता है, अत: वह उन दोनों में अन्तर्भूत नहीं होता है। केवल एक-एक को विषय करने वाले उन नयों के साथ दोनों को (युगपत्) विषय करने वाले इस नय की समानता नहीं हो सकती है, क्योंकि ऐसा मानने पर विरोध आता है। (श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.२४/२३३)। प्रश्न‒यदि ऐसा है, तो संग्रह और असंग्रहरूप दो प्रकार का नैगमनय नहीं बन सकता ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि एक जीव में विद्यमान अभिप्राय आलम्बन के भेद से दो प्रकार का हो जाता है, और उससे उसका आधारभूत जीव तथा यह नैगमनय भी दो प्रकार का हो जाता है।
- नैगमनय व प्रमाण में अन्तर
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.२२-२३/२३२ प्रमाणात्मक एवायमुभयग्राहकत्वत: इत्ययुक्तं इव ज्ञप्ते: प्रधानगुणभावत:।२। प्राधान्येनोभयात्मानमथ गृह्णद्धि वेदनम् । प्रमाणं नान्यदित्येतत्प्रपञ्चेन निवेदितम् ।२३। =प्रश्न‒धर्म व धर्मी दोनों का (अक्रमरूप से) ग्राहक होने के कारण नैगमनय प्रमाणात्मक है ? उत्तर‒ऐसा कहना युक्त नहीं है;क्योंकि, यहा गौण मुख्य भाव से दोनों की ज्ञप्ति की जाती है। और धर्म व धर्मी दोनों को प्रधानरूप से ग्रहण करते हुए उभयात्मक वस्तु के जानने को प्रमाण कहते हैं। अन्य ज्ञान अर्थात् केवल धर्मीरूप सामान्य को जानने वाला संग्रहनय या केवल धर्मरूप विशेष को जानने वाला व्यवहारनय, या दोनों को गौणमुख्यरूप से ग्रहण करने वाला नैगमनय, प्रमाणज्ञानरूप नहीं हो सकते।
श्लो.वा.२/१/६/श्लो.१९-२०/३६१ तत्रांशिन्यापि नि:शेषधर्माणां गुणतागतौ। द्रव्यार्थिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपत:।१९। धर्मिधर्मसमूहस्य प्राधान्यार्पणया विद:। प्रमाणत्वेन निर्णीते: प्रमाणादपरो नय:।२०।=जब सम्पूर्ण अंशों को गौणरूप से और अंशी को प्रधानरूप से जानना इष्ट होता है, तब मुख्यरूप से द्रव्यार्थिकनय का व्यापार होता है, प्रमाण का नहीं।१९। और जब धर्म व धर्मी दोनों के समूह को (उनके अखण्ड व निर्विकल्प एकरसात्मक रूप को) प्रधानपने की विवक्षा से जानना अभीष्ट हो, तब उस ज्ञान को प्रमाणपने से निर्णय किया जाता है।२०। जैसे‒(देखो अगला उद्धरण)।
पं.ध./पू./७५४-७५५ न द्रव्यं नापि गुणो न च पर्यायो निरंशदेशत्वात् । व्यक्तं न विकल्पादपि शुद्धद्रव्यार्थिकस्य मतमेतत् ।७५४। द्रव्यगुणपर्यायाख्यैर्यदनेकं सद्विभिद्यते हेतो:। तदभेद्यमनंशत्वादेकं सदिति प्रमाणमतमेतत् ।७५५।=अखण्डरूप होने से वस्तु न द्रव्य है, न गुण है, न पर्याय है, और न वह किसी अन्य विकल्प के द्वारा व्यक्त की जा सकती है, यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का मत है। युक्ति के वश से जो सत् द्रव्य, गुण व पर्यायों के नाम से अनेकरूप से भेदा जाता है, वही सत् अंशरहित होने से अभेद्य एक है, इस प्रकार प्रमाण का पक्ष है।७५५।
- भावी नैगम नय निश्चित अर्थ में ही लागू होता है
दे.अपूर्वकरण/४ (क्योंकि मरण यदि न हो तो अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती साधु निश्चितरूप में कर्मों का उपशम अथवा क्षय करता है, इसलिए ही उसको उपशामक व क्षपक संज्ञा दी गयी है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष प्राप्त हो जाता)।
दे.पर्याप्ति/२ (शरीर की निष्पत्ति न होने पर भी निवृत्त्यपर्याप्त जीव को नैगमनय से पर्याप्त कहा जा सकता है। क्योंकि वह नियम से शरीर की निष्पत्ति करने वाला है)।
दे.दर्शन/७/२ (लब्ध्यपर्याप्त जीवों में चक्षुदर्शन नहीं माना जा सकता, क्योंकि उनमें उसकी निष्पत्ति सम्भव नहीं, परन्तु निवृत्त्यपर्याप्त जीवों में वह अवश्य माना गया है, क्योंकि उत्तरकाल में उसकी समुत्पत्ति वहा निश्चित है)।
द्र.सं./टी./१४/४८/१ मिथ्यादृष्टिभव्यजीवे बहिरात्माव्यक्तिरूपेण अन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेणैव भाविनैगमनयापेक्षया व्यक्तिरूपेण च। अभव्यजीवे पुनर्बहिरात्मा व्यक्तिरूपेण अन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेणैव न च व्यक्तिरूपेण भाविनैगमनयेनेति।=मिथ्यादृष्टि भव्यजीव में बहिरात्मा तो व्यक्तिरूप से रहता है और अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से रहते हैं, एवं भावि नैगमनय की अपेक्षा व्यक्तिरूप से भी रहते हैं। मिथ्यादृष्टि अभव्य जीव में बहिरात्मा व्यक्तिरूप से और अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से ही रहते हैं। वहा भाविनैगमनय की अपेक्षा भी ये व्यक्तिरूप में नहीं रहते।
पं.ध./पू./६२३ भाविनैगमनयायत्तो भूष्णुस्तद्वानिवेष्यते। अवश्यंभावतो व्याप्ते: सद्भावात्सिद्धिसाधनात् ।=भाविनैगमनय की अपेक्षा होने वाला हो चुके हुए के समान माना गया है, क्योंकि ऐसा कहना अवश्यम्भावी व्याप्ति के पाये जाने से युक्तियुक्त है।
- कल्पनामात्र होते हुए भी भावीनैगम व्यर्थ नहीं है
रा.वा.१/३३/३/९५/२१ स्यादेतत् नैगमनयवक्तव्ये उपकारी नोपलभ्यते, भाविसंज्ञाविषये तु राजादावुपलभ्यते ततो नायं युक्त इति। तन्न, किं कारणम् । अप्रतिज्ञानात् । नैतदस्माभि: प्रतिज्ञातम् ‒‘उपकारे ‘सति भवितव्यम्’ इति। किं तर्हि। अस्य नयस्य विषय: प्रदर्श्यते। अपि च, उपकारं प्रत्यभिमुखत्वादुपकारवानेव।=प्रश्न‒भाविसंज्ञा में तो यह आशा है कि आगे उपकार आदि हो सकते हैं, पर नैगमनय में तो केवल कल्पना ही कल्पना है, इसके वक्तव्य में किसी भी उपकार की उपलब्धि नहीं होती अत: यह संव्यवहार के योग्य नहीं है? उत्तर‒नयों के विषय के प्रकरण में यह आवश्यक नहीं है कि उपकार या उपयोगिता का विचार किया जाये। यहा तो केवल उनका विषय बताना है। इस नय से सर्वथा कोई उपकार न हो ऐसा भी तो नहीं है, क्योंकि संकल्प के अनुसार निष्पन्न वस्तु से, आगे जाकर उपकारादिक की भी सम्भावना है ही।
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.१९-२०/२३१ नन्वयं भाविनीं संज्ञां समाश्रित्योपचर्यते। अप्रस्थादिषु तद्भावस्तण्डुलेष्वोदनादिवत् ।१९। इत्यसद्बहिरर्थेषुतथानध्यवसानत:। स्ववेद्यमानसंकल्पे सत्येवास्य प्रवृत्तित:।२०।=प्रश्न‒भावी संज्ञा का आश्रय कर वर्तमान में भविष्य का उपचार करना नैगमनय माना गया है। प्रस्थादिके न होने पर काठ के टुकड़े में प्रस्थ की अथवा भात के न होने पर भी चावलों में भात की कल्पना मात्र कर ली गयी है ? उत्तर‒वास्तव में बाह्य पदार्थों में उस प्रकार भावी संज्ञा का अध्यवसाय नहीं किया जा रहा है, परन्तु अपने द्वारा जाने गये संकल्प के होने पर ही इस नय की प्रवृत्ति मानी गयी है (अर्थात् इस नय में अर्थ की नहीं ज्ञान की प्रधानता है, और इसलिए यह नय ज्ञान नय मानी गयी है।)
- नैगम नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है
- संग्रहनय निर्देश
- संग्रह नय का लक्षण
स.सि./१/३३/१४१/८ स्वजात्यविरोधेनैकत्वमुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषण समस्तग्रहणात्संग्रह:। =भेद सहित सब पर्यायों या विशेषों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करने वाला नय संग्रहनय है। (रा.वा.१/३३/५/९५/२६); (श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.४९/२४०); (ह.पु./५८/४४); (न.च./श्रुत/पृ.१३); (त.सा./१/४५)।
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.५०/२४० सममेकीभावसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते। निरुक्त्या लक्षणं तस्य तथा सति विभाव्यते।=सम्पूर्ण पदार्थों का एकीकरण और समीचीनपन इन दो अर्थों में ‘सम’ शब्द वर्तता है। उस पर से ही ‘संग्रह’ शब्द का निरुक्त्यर्थ विचारा जाता है, कि समस्त पदार्थों को सम्यक् प्रकार एकीकरण करके जो अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह संग्रहनय है।
ध.९/४,१,४५/१७०/५ सत्तादिना य: सर्वस्य पर्यायकलङ्कभावेन अद्वैतमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक: स: संग्रह:।=जो सत्ता आदि की अपेक्षा से पर्यायरूप कलंक का अभाव होने के कारण सबकी एकता को विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। (क.पा.१/१३-१४/१८२/२१९/१)।
ध.१३/५,५,७/१९९/२ व्यवहारमनपेक्ष्य सत्तादिरूपेण सकलवस्तुसंग्राहक: संग्रहनय:।=व्यवहार की अपेक्षा न करके जो सत्तादिरूप से सकल पदार्थों का संग्रह करता है वह संग्रहनय है। (ध.१/१,१,१/८४/३)।
आ.प./९ अभेदरूपतया वस्तुजातं संगृह्णातीति संग्रह:।=अभेद रूप से समस्त वस्तुओं को जो संग्रह करके, जो कथन करता है, वह संग्रह नय है।
का.अ./मू./२७२ जो संगहेदि सव्वं देसं वा विविहदव्वपज्जायं। अणुगमलिंगविसिट्ठं सो वि णओ संगहो होदि।२७२।=जो नय समस्त वस्तु का अथवा उसके देश का अनेक द्रव्यपर्यायसहित अन्वयलिंगविशिष्ट संग्रह करता है, उसे संग्रहनय कहते हैं।
स्या.म./२८/३११/७ संग्रहस्तु अशेषविशेषतिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया विश्वमुपादत्ते।=विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य से जानने को संग्रह नय कहते हैं। (स्या.म./२८/३१७/६)।
- संग्रह नय के उदाहरण
स.सि./१/३३/१४१/९ सत् द्रव्यं, घट इत्यादि। सदित्युक्ते सदिति वाग्विज्ञानानुप्रवृत्तिलिङ्गानुमितसत्ताधारभूतानामविशेषेण सर्वेषां संग्रह:। द्रव्यमित्युक्तेऽपि द्रवति गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्युपलक्षितानां जीवाजीवतद्भेदप्रभेदानां संग्रह:। तथा ‘घट’ इत्युक्तेऽपि घटबुद्ध्यभिधानानुगमलिङ्गानुमितसकलार्थसंग्रह:। एवंप्रकारोऽन्योऽपि संग्रहनयस्य विषय:। =यथा‒ सत्, द्रव्य और घट आदि। ‘सत्’ ऐसा कहने पर ‘सत्’ इस प्रकार के वचन और विज्ञान की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित सत्ता के आधारभूत पदार्थों का सामान्यरूप से संग्रह हो जाता है। ‘द्रव्य’ ऐसा कहने पर भी ‘उन-उन पर्यायों को द्रवता है अर्थात् प्राप्त होता है’ इस प्रकार इस व्युत्पत्ति से युक्त जीव, अजीव और उनके सब भेद-प्रभेदों का संग्रह हो जाता है। तथा ‘घट’ ऐसा कहने पर भी ‘घट’ इस प्रकार की बुद्धि और ‘घट’ इस प्रकार के शब्द की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित (मृद्घट सुवर्णघट आदि) सब घट पदार्थों का संग्रह हो जाता है। इस प्रकार अन्य भी संग्रहनय का विषय समझ लेना। (रा.वा./१/३३/५/९५/३०)।
स्या.म./२८/३१५/ में उद्धृत श्लोक नं.२ सद्रूपतानतिक्रान्तं स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्वं संगृह्णन् संग्रहो मत:।२। =अस्तित्वधर्म को न छोड़कर सम्पूर्ण पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में अवस्थित है। इसलिए सम्पूर्ण पदार्थों के सामान्यरूप से ज्ञान करने को संग्रहनय कहते हैं। (रा.वा./४/४२/१७/२६१/४)।
- संग्रहनय के भेद
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.५१,५५/२४० (दो प्रकार के संग्रह नय के लक्षण किये हैं‒पर संग्रह और अपर संग्रह)। (स्या.म./२८/३१७/७)।
आ.प./५ संग्रहो द्विविध:। सामान्यसंग्रहो...विशेषसंग्रहो।=संग्रह दो प्रकार का है‒सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह। (न.च./श्रुत/पृ.१३)।
न.च.वृ./१८६,२०९ दुविहं पुण संगहं तत्थ।१८६। सुद्धसंगहेण...।२०९।=संग्रहनय दो प्रकार का है‒शुद्ध संग्रह और अशुद्धसंग्रह। नोट‒पर, सामान्य व शुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं और अपर, विशेष व अशुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं।
- पर अपर तथा सामान्य व विशेष संग्रहनय के लक्षण व उदाहरण
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.५१,५५,५६ शुद्धद्रव्यमभिप्रैति सन्मात्रं संग्रह: पर:। स चाशेषविशेषेषु सदौदासीन्यभागिह।५१। द्रव्यत्वं सकलद्रव्यव्याप्यभिप्रैति चापर:। पर्यायत्वं च नि:शेषपर्यायव्यापिसंग्रह:।५५। तथैवावान्तरान् भेदान् संगृह्यैकत्वतो बहु:। वर्ततेयं नय: सम्यक् प्रतिपक्षानिराकृते:।५६।=सम्पूर्ण जीवादि विशेष पदार्थों में उदासीनता धारण करके जो सबको ‘सत्’ है ऐसा एकपने रूप से (अर्थात् महासत्ता मात्र को) ग्रहण करता है वह पर संग्रह (शुद्ध संग्रह) है।५१। अपने से प्रतिकूल पक्ष का निराकरण न करते हुए जो परसंग्रह के व्याप्य–भूत सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायों को द्रव्यत्व व पर्यायत्वरूप सामान्य धर्मों द्वारा, और इसी प्रकार उनके भी व्याप्यभूत अवान्तर भेदों का एकपने से संग्रह करता है वह अपर संग्रह नय है (जैसे नारक मनुष्यादिकों का एक ‘जीव’ शब्द द्वारा; और ‘खट्टा’, ‘मीठा’ आदिका एक ‘रस’ शब्द ग्रहण करना‒); (न.च.वृ./२०९); (स्या.म./२८/३१७/७)।
न.च./श्रुत/पृ.१३ परस्पराविरोधेन समस्तपदार्थसंग्रहैकवचनप्रयोगचातुर्येण कथ्यमानं सर्वं सदित्येतत् सेना वनं नगरमित्येतत् प्रभृत्यनेकजातिनिश्चयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं सामान्यसंग्रहनय: जीवनिचयाजीवनिचयहस्तिनिचयतुरगनिचयरथनिचयपदातिनिचय इति निम्बुजंबीरजंबूमाकंदनालिकेरनिचय इति। द्विजवर, वणिग्वर, तलवराद्यष्टादशश्रेणीनिचय इत्यादि दृष्टान्तै: प्रत्येकजातिनिचयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं विशेषसंग्रहनय:। तथा चोक्त‒‘यदन्योऽन्याविरोधेन सर्वं सर्वस्य वक्ति य:। सामान्यसंग्रह: प्रोक्तचैकजातिविशेषक:।’ =परस्पर अविरोधरूप से सम्पूर्ण पदार्थों के संग्रहरूप एकवचन के प्रयोग के चातुर्य से कहा जाने वाला ‘सर्व सत् स्वरूप है’, इस प्रकार सेना-समूह, वन, नगर वगैरह को आदि लेकर अनेक जाति के समूह को एकवचनरूप से स्वीकार करके, कथन करने को सामान्य संग्रह नय कहते हैं। जीवसमूह, अजीवसमूह; हाथियों का झुण्ड, घोड़ों का झुण्ड, रथों का समूह, पियादे सिपाहियों का समूह; निंबू, जामुन, आम, वा नारियल का समूह, इसी प्रकार द्विजवर, वणिक्श्रेष्ठ, कोटपाल वगैरह अठारह श्रेणि का समूह इत्यादिक दृष्टान्तों के द्वारा प्रत्येक जाति के समूह को नियम से एकवचन के द्वारा स्वीकार करके कथन करने को विशेष संग्रह नय कहते हैं। कहा भी है‒
जो परस्पर अविरोधरूप से सबके सबको कहता है वह सामान्य संग्रहनय बतलाया गया है, और जो एक जातिविशेष का ग्राहक अभिप्रायवाला है वह विशेष संग्रहनय है।
ध.१२/४,२,९,११/२९९-३०० संगहणयस्स णाणावरणीयवेयणा जीवस्स। (मूल सू.११)।...एदं सुद्धसंगहणयवयणं, जीवाणं तेहिं सह णोजीवाणं च एयत्तब्भुवगमादो।...संपहि असुद्धसंगहविसए सामित्तपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि। ‘जीवाणं’ वा। (मू.सू.१२)। संगहिय णोजीव-जीवबहुत्तब्भुवगमादो। एदमसुद्धसंगहणयवयणं। =‘संग्रहनय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना जीव के होती है। सू.११।’’ यह कथन शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा है, क्योंकि जीवों के और उनके साथ नोजीवों की एकता स्वीकार की गयी है।...अथवा जीवों के होती है। सू.१२। कारण कि संग्रह अपेक्षा नोजीव और जीव बहुत स्वीकार किये गये हैं। यह अशुद्ध संग्रह नय की अपेक्षा कथन है।
पं.का./ता.वृ./७१/१२३/१९ सर्वजीवसाधारणकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणसमूहेन शुद्धजीवजातिरूपेण संग्रहनयेनैकश्चैव महात्मा।=सर्व जीवसामान्य, केवलज्ञानादि अनन्तगुणसमूह के द्वारा शुद्ध जीव जातिरूप से देखे जायें तो संग्रहनय की अपेक्षा एक महात्मा ही दिखाई देता है।
- संग्रहाभास के लक्षण व उदाहरण
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.५२-५७ निराकृतविशेषस्तु सत्ताद्वैतपरायण:। तदाभास: समाख्यात: सद्भिर्दृष्टेष्टबाधनात् ।५२। अभिन्नं व्यक्तिभेदेभ्य: सर्वथां बहुधानकम् । महासामान्यमित्युक्ति: केषांचिद्दुर्नयस्तथा।५३। शब्दब्रह्मेति चान्येषां पुरुषाद्वैतमित्यपि। संवेदनाद्वयं चेति प्रायशोऽन्यत्र दर्शितम् ।५४। स्वव्यक्त्यात्मकतैकान्तस्तदाभासोऽप्यनेकधा। प्रतीतिबाधितो बोध्यो नि:शेषोऽप्यनया दिशा।५७।=सम्पूर्ण विशेषों का निराकरण करते हुए जो सत्ताद्वैतवादियों का ‘केवल सत् है,’ अन्य कुछ नहीं, ऐसा कहना; अथवा सांख्य मत का अहंकार तन्मात्रा आदि से सर्वथा अभिन्न प्रधान नामक महासामान्य है’ ऐसा कहना; अथवा शब्दाद्वैतवादी वैयाकरणियों का केवल शब्द है’, पुरुषाद्वैतवादियों का ‘केवल ब्रह्म है’, संविदाद्वैतवादी बौद्धों का ‘केवल संवेदन है’ ऐसा कहना, सब परसंग्रहाभास है। (स्या.म./२८/३१६/९ तथा ३१७/९)। अपनी व्यक्ति व जाति से सर्वथा एकात्मकपने का एकान्त करना अपर संग्रहाभास है, क्योंकि वह प्रतीतियों से बाधित है।
स्या.म./२८/३१७/१२ तद्द्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्विशेषान्निह्नुवानस्तदाभास:।=धर्म अधर्म आदिकों को केवल द्रव्यत्व रूप से स्वीकार करके उनके विशेषों के निषेध करने को अपर संग्रहाभास कहते हैं।
- संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक नय है
ध.१/१,१,१/गा.६/१२ दव्वटि्ठय-णय-पवई सुद्धा संगह परूवणा विसयो। =संग्रहनय की प्ररूपणा को विषय करना द्रव्यार्थिक नय की शुद्ध प्रकृति है। (श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.३७/२३६); (क.पा.१/१३-१४/गा.८९/२२०); (विशेष दे०/नय/IV/१)।
और भी देखें - नय / III / १ / १ -२ यह द्रव्यार्थिकनय है।
- संग्रह नय का लक्षण
- व्यवहारनय निर्देश—देखें - पृ / ०५५६
- ऋजुसूत्रनय निर्देश
- ऋजुसूत्र नय का लक्षण
- निरुक्त्यर्थ
स.सि./१/३३/१४२/९ ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तन्त्रयतीति ऋजुसूत्र:। =ऋजु का अर्थ प्रगुण है। ऋजु अर्थात् सरल को सूचित करता है अर्थात् स्वीकार करता है, वह ऋजुसूत्र नय है। (रा.वा./१/३३/७/९६/३०) (क.पा.१/१३-१४/१८५/२२३/३) (आ.प./९)
- वर्तमानकालमात्र ग्राही
स.सि./१/३३/१४२/९ पूर्वापरांस्त्रिकालविषयानतिशय्य वर्तमानकालविषयानादत्ते अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् । =यह नय पहिले और पीछेवाले तीनों कालों के विषय को ग्रहण न करके वर्तमान काल के विषयभूत पदार्थों को ग्रहण करता है, क्योंकि अतीत के विनष्ट और अनागत के अनुत्पन्न होने से उनमें व्यवहार नहीं हो सकता। (रा.वा./१/३३/७/९६/११), रा.वा./४/४२/१७/२६१/५), (ह.पु./५८/४६), (ध.९/४,१,४५/१७१/७), (न्या.टी./३/८५/१२८)।
और भी दे० (नय/III/१/२) (नय/IV/३)
- निरुक्त्यर्थ
- ऋजुसूत्र नय के भेद
ध.९/४,१,४९/२४४/२ उजुसुदो दुविहो सुद्धो असुद्धो चेदि।=ऋजुसूत्रनय शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का है।
आ.प./५ ऋजुसूत्रो द्विविध:। सूक्ष्मर्जुसूत्रो...स्थूलर्जुसूत्रो।=ऋजुसूत्रनय दो प्रकार का है–सूक्ष्म ऋजुसूत्र और स्थूल ऋजुसूत्र।
- सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्रन्य के लक्षण
ध.९/४,१,४९/२४२/२ तत्थ सुद्धो वसईकयअत्थपज्जाओ पडिक्खणं विवट्टमाणासेसत्थो अप्पणो विसयादो ओसारिदसारिच्छ-तब्भाव-लक्खणसामण्णो। ‘‘...तत्थ जो असुद्धो उजुसुदणओ ओ चक्खुपासिय वेंजणपज्जयविसओ।’’ =अर्थपर्याय को विषय करने वाला शुद्ध ऋजुसूत्र नय है। वह प्रत्येक क्षण में परिणमन करने वाले समस्त पदार्थों को विषय करता हुआ अपने विषय से सादृश्यसामान्य व तद्भावरूप सामान्य को दूर करने वाला है। जो अशुद्ध ऋजुसूत्र नय है, वह चक्षु इन्द्रिय की विषयभूत व्यंजन पर्यायों को विषय करने वाला है?
आ.प./५ सूक्ष्मर्जुसूत्रो यथा‒एकसमयावस्थायी पर्याय: स्थूलर्जसूत्रो यथा‒मनुष्यादिपर्यायास्तदायु: प्रमाणकालं तिष्ठन्ति।=सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय एकसमय अवस्थायी पर्याय को विषय करता है। और स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा मनुष्यादि पर्यायें स्व स्व आयुप्रमाणकाल पर्यन्त ठहरती हैं। (न.च.वृ./२११-२१२) (न.च./श्रुत/पृ.१६)
का.अ./मू./२७४ जो वट्टमाणकाले अत्थपज्जायपरिणदं अत्थं। संतं साहदि सव्वं तं पि णयं उज्जुयं जाण।२७४।=वर्तमानकाल में अर्थ पर्यायरूप परिणत अर्थ को जो सत् रूप साधता है वह ऋजुसूत्रनय है। (यह लक्षण यद्यपि सामान्य ऋजुसूत्र के लिए किया गया है, परन्तु सूक्ष्मऋजुसूत्र पर घटित होता है)
- ऋजुसूत्राभास का लक्षण
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.६२/१४८ निराकरोति यद्द्रव्यं बहिरन्तश्च सर्वथा। स तदाभोऽभिमन्तव्य: प्रतीतेरपलापत:।...एतेन चित्राद्वैतं, संवेदनाद्वैतं क्षणिकमित्यपि मननमृजुसूत्राभासमायातीत्युक्तं वेदितव्यं। (पृ.२५३/४)।=बहिरंग व अन्तरंग दोनों द्रव्यों का सर्वथा अपलाप करने वाले चित्राद्वैतवादी, विज्ञानाद्वैतवादी व क्षणिकवादी बौद्धों की मान्यता में ऋजुसूत्रनय का आभास है, क्योंकि उनकी सब मान्यताए प्रतीति व प्रमाण से बाधित हैं। (विशेष देखें - श्लो .वा.४/१/३३/श्लो.६३-६७/२४८-२५५); (स्या.म./२८/३१८/२४)
- ऋजुसूत्रनय शुद्ध पर्यायार्थिक है
न्या.दी./३/८५/१२८/७ ऋजुसूत्रनयस्तु परमपर्यायार्थिक:।=ऋजुसूत्रनय परम (शुद्ध) पर्यायार्थिक नय है। (सूक्ष्म ऋजुसूत्र शुद्ध पर्यायार्थिक नय है और स्थूल ऋजुसूत्र अशुद्ध पर्यायार्थिक‒नय/IV/३) (और भी दे०/नय/III/१/१-२)
- ऋजुसूत्रनय को द्रव्यार्थिक कहने का कथंचित् विधि निषेध
- कथंचित् निषेध
ध.१०/४,२,२,३/११/४ तब्भवसारिच्छसामण्णप्पयदव्वमिच्छंतो उजुसुदो कधं ण दव्वट्ठियो। ण, घड-पडत्यंभादिवंजणपज्जायपरिच्छिण्णसगपुव्वावरभावविरहियउजुवट्टविसयस्स दव्वट्ठियणयत्तविरोहादो। =प्रश्न‒तद्भावसामान्य व सादृश्यसामान्यरूप द्रव्य को स्वीकार करने वाला ऋजुसूत्रनय (दे.स्थूल ऋजुसूत्रनय का लक्षण) द्रव्यार्थिक कैसे नहीं है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, ऋजुसूत्रनय घट, पट व स्तम्भादि स्वरूप व्यंजनपर्यायों से परिच्छिन्न ऐसे अपने पूर्वापर भावों से रहित वर्तमान मात्र को विषय करता है, अत: उसे द्रव्यार्थिक नय मानने में विरोध आता है।
- कथंचित् विधि
ध.१०/४,२,३,३/१५/९ उजुसुदस्स पज्जवट्ठियस्स कधं दव्वं विसओ। ण, वंजणपज्जायमहिट्ठियस्स दव्वस्स तव्विसयत्ताविरोहादो। ण च उप्पादविणासलक्खणत्तं तव्विसयदव्वस्स विरुज्झदे, अप्पिदपज्जायभावाभावलक्खण-उप्पादविणासविदिरित्त अवट्ठाणाणुवलंभादो। ण च पढमसमए उप्पण्णस्स विदियादिसमएसु अवट्ठाणं, तत्थ पढमविदियादिसमयकप्पणए कारणाभावादो। ण च उत्पादो चेव अवट्ठाणं, विरोहादो उप्पादलक्खणभावविदिरित्तअवट्ठाणलक्खणाणुवलंभादो च। तदो अव्वट्ठाणाभावादो उप्पादविणासलक्खणं दव्वमिदि सिद्धं। =प्रश्न‒ऋजुसूत्र चूकि पर्यायार्थिक है, अत: उसका द्रव्य विषय कैसे हो सकता है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, व्यंजन पर्याय को प्राप्त द्रव्य उसका विषय है, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता। (अर्थात् अशुद्ध ऋजुसूत्र को द्रव्यार्थिक मानने में कोई विरोध नहीं है‒ध./९) (ध.९/४,१,५८/२६५/९), (ध.१२/४,२,८,१४/२९०/५) (निक्षेप/३/४) प्रश्न‒ऋजुसूत्र के विषयभूत द्रव्य को उत्पाद विनाश लक्षण मानने में विरोध आता है? उत्तर‒सो भी बात नहीं है; क्योंकि, विवक्षित पर्याय का सद्भाव ही उत्पाद है और उसका अभाव ही व्यय है। इसके सिवा अवस्थान स्वतन्त्र रूप से नहीं पाया जाता। प्रश्न‒प्रथम समय में पर्याय उत्पन्न होती है और द्वितीयादि समयों में उसका अवस्थान होता है? उत्तर‒यह बात नहीं बनती; क्योंकि उसमें प्रथम व द्वितीयादि समयों की कल्पना का कोई कारण नहीं है। प्रश्न‒फिर तो उत्पाद ही अवस्थान बन बैठेगा ? उत्तर‒सो भी बात नहीं है; क्योंकि, एक तो ऐसा मानने में विरोध आता है, दूसरे उत्पादस्वरूप भाव को छोड़कर अवस्थान का और कोई लक्षण पाया नहीं जाता। इस कारण अवस्थान का अभाव होने से उत्पाद व विनाश स्वरूप द्रव्य है, यह सिद्ध हुआ। (वही व्यंजन पर्यायरूप द्रव्य स्थूल ऋजुसूत्र का विषय है।
ध.१२/४,२,१४/२९०/६ वट्टमाणकालविसयउजुसुदवत्थुस्स दवणाभावादो ण तत्थ दव्वमिदि णाणावरणीयवेयणा णत्थि त्ति वुत्ते‒ण, वट्टमाणकालस्स वंजणपज्जाए पडुच्च अवट्टियस्स सगाससावयवाणं गदस्स दव्वत्तं पडि विरोहाभावादो। अप्पिदपज्जाएण वट्टमाणत्तमा वण्णस्स वत्थुस्स अणप्पिद पज्जाएसु दवणविरोहाभावादो वा अत्थि उजुसुदणयविसए दव्वमिदि।=प्रश्न‒वर्तमानकाल विषयक ऋजुसूत्रनय की विषयभूत वस्तु का द्रवण नहीं होने से चूकि उसका विषय, द्रव्य नहीं हो सकता है, अत: ज्ञानावरणीय वेदना उसका विषय नहीं है ? उत्तर‒ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं, कि ऐसा नहीं है, क्योंकि वर्तमानकाल व्यंजन पर्याय का आलम्बन करके अवस्थित है (देखें - अगला शीर्षक ), एवं अपने समस्त अवयवों को प्राप्त है, अत: उसके द्रव्य होने में कोई विरोध नहीं है। अथवा विवक्षित पर्याय से वर्तमानता को प्राप्त वस्तु को अविवक्षित पर्यायों में द्रव्य का विरोध न होने से, ऋजुसूत्र के विषय में द्रव्य सम्भव है ही।
क.पा.१/१,१३-१४/२१३/२६३/६ वंजणपज्जायविसयस्स उजुसुदस्स बहुकालावट्ठाणं होदि त्ति णासंकणिज्ज; अप्पिदवंजणपज्जायअवट्टाणकालस्स दव्वस्स वि वट्टमाणत्तणेण गहणादो।=यदि कहा जाय कि व्यंजन पर्याय को विषय करने वाला ऋजुसूत्रनय बहुत काल तक अवस्थित रहता है; इसलिए, वह ऋजुसूत्र नहीं हो सकता है; क्योंकि उसका काल वर्तमानमात्र है। सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, विवक्षित पर्याय के अवस्थान कालरूप द्रव्य को भी ऋजुसूत्रनय वर्तमान रूप से ही ग्रहण करता है।
- कथंचित् निषेध
- सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा वर्तमान काल का प्रमाण
दे०/नय/III/१/२ वर्तमान वचन को ऋजुसूत्र वचन कहते हैं। ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों के विच्छेद रूप समय से लेकर एक समय पर्यन्त वस्तु की स्थिति का निश्चय करने वाले पर्यायार्थिक नय हैं। (अर्थात् मुखद्वार से पदार्थ का नामोच्चारण हो चुकने के पश्चात् से लेकर एक समय पर्यन्त ही उस पदार्थ की स्थिति का निश्चय करने वाला पर्यायार्थिक नय है।
ध.९/४,१,४५/१७२/१ कोऽत्र वर्तमानकाल:। आरम्भात्प्रभृत्या उपरमादेष वर्तमानकाल:। एष चानेकप्रकार:, अर्थव्यञ्जनपर्यायास्थितेरनेकविधत्वात् ।
ध.९/४,१,४९/२४४/२ तत्थ सुद्धो विसईकयअत्थपज्जाओ पडिक्खणं विवट्टमाण...जो सो असुद्धो... तेसिं कालो जहण्णेण अंतोमुहुत्तमुक्कस्सेण छम्मासा संखेज्जा वासाणि वा। कुदो। चक्खिदियगेज्झवेंजणपज्जायाणमप्पहाणीभूदव्वाणेमेत्तियं कालमवट्ठाणुवलंभादो। जदि एरिसो वि पज्जवट्ठियणओ अत्थि तो‒उप्पज्जंति वियंति य भावा णियमेव पज्जवणयस्स। इच्चेएण सम्मइसुत्तेण सह विरोहो होदि त्ति उत्ते ण होदि, असुद्धउजुसुदेण विसईवयवेंजणपज्जाए अप्पहाणीकयसेसपज्जाए पुव्वावरकोटीणमभावेण उप्पत्तिविणासे मोत्तूण उवट्ठाणमुवलंभादो।=प्रश्न‒यहा वर्तमानकाल का क्या स्वरूप है ? उत्तर‒विवक्षित पर्याय के प्रारम्भकाल से लेकर उसका अन्त होने तक जो काल है वह वर्तमान काल है। अर्थ और व्यंजन पर्यायों की स्थिति के अनेक प्रकार होने से यह काल अनेक प्रकार है। तहा शुद्ध ऋजुसूत्र प्रत्येक क्षण में परिणमन करने वाले पदार्थों को विषय करता है (अर्थात् शुद्ध ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा वर्तमानकाल का प्रमाण एक समय मात्र है) और अशुद्ध ऋजुसूत्र के विषयभूत पदार्थों का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से छ: मास अथवा संख्यात वर्ष है; क्योंकि, चक्षु इन्द्रिय से ग्राह्य व्यंजनपर्यायें द्रव्य की प्रधानता से रहित होती हुई इतने काल तक अवस्थित पायी जाती हैं। प्रश्न‒यदि ऐसा भी पर्यायार्थिकनय है तो‒पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं, इस सन्मतिसूत्र के साथ विरोध होगा? उत्तर‒नहीं होगा; क्योंकि, अशुद्ध ऋजुसूत्र के द्वारा व्यंजन पर्यायें ही विषय की जाती हैं, और शेष पर्यायें अप्रधान हैं। (किन्तु प्रस्तुत सूत्र में शुद्धऋजुसूत्र की विवक्षा होने से) पूर्वा पर कोटियों का अभाव होने के कारण उत्पत्ति व विनाश को छोड़कर अवस्थान पाया ही नहीं जाता।
- ऋजुसूत्र नय का लक्षण
- शब्दनय निर्देश
- शब्दनय का सामान्य लक्षण
आ.प./९ शब्दाद् व्याकरणात् प्रकृतिप्रत्ययद्वारेण सिद्ध: शब्द: शब्दनय:। =शब्द अर्थात् व्याकरण से प्रकृति व प्रत्यय आदि के द्वारा सिद्ध कर लिये गये शब्द का यथायोग्य प्रयोग करना शब्दनय है।
देखें - नय / I / ४ / २ (शब्द पर से अर्थ का बोध कराने वाला शब्दनय है)।
- अनेक शब्दों का एक वाच्य मानता है।
रा.वा./४/४२/१७/२६१/१६ शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य: एक:। =शब्दनय में अनेक पर्यायवाची शब्दों का वाच्य एक होता है।
स्या.म./२८/३१३/२ शब्दस्तु रूढ़ितो यावन्तो ध्वनय: कस्मिश्चिदर्थे प्रवर्तन्ते यथा इन्द्रशक्रपुरन्दरादय: सुरपतौ तेषां सर्वेषामप्येकमर्थमभिप्रैति किल प्रतीतिवशाद् ।=रूढि से सम्पूर्ण शब्दों के एक अर्थ में प्रयुक्त होने को शब्दनय कहते हैं। जैसे इन्द्र शक्र पुरन्दर आदि शब्द एक अर्थ के द्योतक हैं।
- पर्यायवाची शब्दों में अभेद मानता है
रा.वा./४/४२/१७/२६१/११ शब्दे पर्यायशब्दान्तरप्रयोगेऽपि तस्यैवार्थस्याभिधानादभेद:। =शब्दनय में पर्यायवाची विभिन्न शब्दों का प्रयोग होने पर भी, उसी अर्थ का कथन होता है, अत: अभेद है।
स्या.म./२८/३१३/२६ न च इन्द्रशक्रपुरन्दरादय: पर्यायशब्दा विभिन्नार्थवाचितया कदाचन प्रतीतयन्ते। तेभ्य: सर्वदा एकाकारपरामर्शोत्पत्तेरस्खलितवृत्तितया तथैव व्यवहारदर्शनात् । तस्मादेक एव पर्यायशब्दानामर्थ इति। शब्द्यते आहूयतेऽनेनाभिप्रायेणार्थ: इति निरुक्तात् एकार्थप्रतिपादनाभिप्रायेणैव पर्यायध्वनीनां प्रयोगात् ।=इन्द्र, शक्र और पुरन्दर आदि पर्यायवाची शब्द कभी भिन्न अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते; क्योंकि, उनसे सर्वदा अस्खलित वृत्ति से एक ही अर्थ के ज्ञान होने का व्यवहार देखा जाता है। अत: पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ है। ‘जिस अभिप्राय से शब्द कहा जाय या बुलाया जाय उसे शब्द कहते हैं’, इस निरुक्ति पर से भी उपरोक्त ही बात सिद्ध होती है, क्योंकि एकार्थ प्रतिपादन के अभिप्राय से ही पर्यायवाची शब्द कहे जाते हैं।
देखें - नय / III / ७ / ४ (परन्तु यह एकार्थता समान काल व लिंग आदि वाले शब्दों में ही है, सब पर्यायवाचियों में नहीं)।
- पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में लिंग आदि का व्यभिचार स्वीकार नहीं करता
स.सि./१/३३/१४३/४ लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपर: शब्दनय:।=लिंग, संख्या, साधन आदि (पुरुष, काल व उपग्रह) के व्यभिचार की निवृत्ति करने वाला शब्दनय है। (रा.वा./१/३३/९/९८/१२); (ह.पु./५८/४७); (ध.१/१,१,१/८७/१); (ध.९/४,१,४५/१७६/५); (क.पा.१/१३-१४/१९७/२३५); (त.सा./१/४८)।
रा.वा./१/३३/९/९८/२३ एवमादयो व्यभिचारा अयुक्ता:। कुत:। अन्यार्थस्याऽन्यार्थेन संबन्धाभावात् । यदि स्यात् घट: पटो भवतु पटो वा प्रासाद इति। तस्माद्यथालिङ्ग यथासंख्यं यथासाधनादि च न्याय्यमभिधानम् ।=इत्यादि व्यभिचार (देखें - आगे ) अयुक्त हैं, क्योंकि अन्य अर्थ का अन्य अर्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है। अन्यथा घट पट हो जायेगा और पट मकान बन बैठेगा। अत: यथालिंग यथावचन और यथासाधन प्रयोग करना चाहिए। (स.सि./१/३३/१४४/१) (श्लो.वा.४/१/३३/श्लो.७२/२५६) (ध.१/१,१,१/८९/१) (ध.९/४,१,४५/१७८/३); (क.पा.१/१३-१४/१९७/२३७/३)।
श्लो.वा.४/१/३३/श्लो.६८/२५५ कालादिभेदतोऽर्थस्य भेदं य: प्रतिपादयेत् । सोऽत्र शब्दनय: शब्दप्रधानत्वादुदाहृत:।=जो नय काल कारक आदि के भेद से अर्थ के भेद को समझता है, वह शब्द प्रधान होने के कारण शब्दनय कहा जाता है। (प्रमेय कमल मार्तण्ड/पृ.२०६) (का.अ./मू.२७५)।
न.च.वृ./२१३ जो वहणं ण मण्णइ एयत्थे भिण्ण्लिंग आईणं। सो सद्दणओ भणिओ णेओ पुंसाइआण जहा।२१३।=जो भिन्न लिंग आदि वाले शब्दों को एक अर्थ में वृत्ति नहीं मानता वह शब्दनय है, जैसे पुरुष, स्त्री आदि।
न.च./श्रुत/पृ.१७ शब्दप्रयोगस्यार्थं जानामीति कृत्वा तत्र एकार्थमेकशब्देन ज्ञाने सति पर्यायशब्दस्य अर्थक्रमो यथेति चेत् पुष्यतारका नक्षत्रमित्येकार्थो भवति। अथवा दारा: कलत्रं भार्या इति एकार्थो भवतीति कारणेन लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचारं मुक्त्वा शब्दानुसारार्थं स्वीकर्तव्यमिति शब्दनय:। उक्तं च‒लक्षणस्य प्रवृत्तौ वा स्वभावाविष्टालिङ्गत:। शब्दो लिङ्गं स्वसंख्यां च न परित्यज्य वर्तते। =’शब्दप्रयोग के अर्थ को मैं जानता हू’ इस प्रकार के अभिप्राय को धारण करके एक शब्द के द्वारा एक अर्थ के जान लेने पर पर्यायवाची शब्दों के अर्थक्रम को (भी भली भाति जान लेता है)। जैसे पुष्य तारका और नक्षत्र, भिन्न लिंगवाले तीन शब्द (यद्यपि) एकार्थवाची है’ अथवा दारा कलत्र भार्या ये तीनों भी (यद्यपि) एकार्थवाची हैं। परन्तु कारणवशात् लिंग संख्या साधन वगैरह व्यभिचार को छोड़कर शब्द के अनुसार अर्थ का स्वीकार करना चाहिए इस प्रकार शब्दनय है। कहा भी है‒लक्षण की प्रवृत्ति में या स्वभाव से आविष्ट-युक्त लिंग से शब्दनय, लिंग और स्वसंख्या को न छोड़ते हुए रहता है। इस प्रकार शब्दनय बतलाया गया है।
भावार्थ‒(यद्यपि ‘भिन्न लिंग आदि वाले शब्द भी व्यवहार में एकार्थवाची समझे जाते हैं,’ ऐसा यह नय जानता है, और मानता भी है; परन्तु वाक्य में उनका प्रयोग करते समय उनमें लिंगादि का व्यभिचार आने नहीं देता। अभिप्राय में उन्हें एकार्थवाची समझते हुए भी वाक्य में प्रयोग करते समय कारणवशात् लिंगादि के अनुसार ही उनमें अर्थभेद स्वीकार करता है।) (आ.प./५)।
स्या.म./२८/३१३/३० यथा चायं पर्यायशब्दानामेकमर्थमभिप्रैति तथा तटस्तटी तटम् इति विरुद्धलिङ्गलक्षणधर्माभिसंबन्धाद् वस्तुनो भेदं चाभिधत्ते। न हि विरुद्धधर्मकृतं भेदमनुभवतो वस्तुनो विरुद्धधर्मायोगो युक्त:। एवं संख्याकालकारकपुरुषादिभेदाद् अपि भेदोऽभ्युपगन्तव्य:।
स्या.म./२८/३१६ पर उद्धृत श्लोक नं.५ विरोधिलिङ्गसंख्यादिभेदाद् भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं शब्द: प्रत्यवतिष्ठत।५।=जैसे इन्द्र शक्र पुरन्दर ये तीनों समान लिंगी शब्द एक अर्थ को द्योतित करते हैं; वैसे तट:, तटी, तटम् इन शब्दों से विरुद्ध लिंगरूप धर्म से सम्बन्ध होने के कारण, वस्तु का भेद भी समझा जाता है। विरुद्ध धर्मकृत भेद का अनुभव करने वाली वस्तु में विरुद्ध धर्म का सम्बन्ध न मानना भी युक्त नहीं है। इस प्रकार संख्या काल कारक पुरुष आदि के भेद से पर्यायवाची शब्दों के अर्थ में भेद भी समझना चाहिए।
ध.१/१,१,१/गा.७/१३ मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उजुसुदवयणविच्छेदो। तस्स दु सद्दादीया साह पसाहा सुहुमभेया।=ऋजुसूत्र वचन का विच्छेदरूप वर्तमानकाल ही पर्यायार्थिक नय का मूल आधार है, और शब्दादि नय शाखा उपशाखा रूप उसके उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेद हैं।
श्लो.वा.४/१/३३/६८/२५५/१७ कालकारकलिङ्गसंख्यासाधनोपग्रहभेदाद्भिन्नमर्थं शपतीति शब्दो नय: शब्दप्रधानत्वादुदाहृत:। यस्तु व्यवहारनय: कालादिभेदेऽप्यभिन्नमर्थमभिप्रैति।=काल, कारक, लिंग, संख्या, साधन और उपग्रह आदि के भेदों से जो नय भिन्न अर्थ को समझाता है वह नय शब्द प्रधान होने से शब्दनय कहा गया है, और इसके पूर्व जो व्यवहारनय कहा गया है वह तो (व्याकरण शास्त्र के अनुसार) काल आदि के भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ को समझाने का अभिप्राय रखता है। (नय/III/१/७ तथा निक्षेप/३/७)।
- शब्दनयाभास का लक्षण
स्या.म./२८/३१८/२६ तद्भेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदाभास:। यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयो भिन्नकाला शब्दाभिन्नमेव अर्थमभिदधति भिन्नकालशब्दत्वात् तादृक्सिद्धान्यशब्दवत् इत्यादि:।=काल आदि के भेद से शब्द और अर्थ को सर्वथा अलग मानने को शब्दनयाभास कहते हैं। जैसे‒सुमेरु था, सुमेरु है, और सुमेरु होगा आदि भिन्न भिन्न काल के शब्द, भिन्न कालवाची होने से, अन्य भिन्नकालवाची शब्दों की भाति ही, भिन्न भिन्न अर्थों का ही प्रतिपादन करते हैं।
- लिंगादि व्यभिचार का तात्पर्य
नोट‒यद्यपि व्याकरण शास्त्र भी शब्द प्रयोग के दोषों को स्वीकार नहीं करता, परन्तु कहीं-कहीं अपवादरूप से भिन्न लिंग आदि वाले शब्दों का भी सामानाधिकरण्य रूप से प्रयोग कर देता है। तहा शब्दनय उन दोषों का भी निराकरण करता है। वे दोष निम्न प्रकार हैं—
रा.वा./१/३३/९/९८/१४ तत्र लिङ्गव्यभिचारस्तावत्स्त्रीलिङ्गे पुल्लिङ्गाभिधानं तारका स्वातिरिति। पुंल्लिङ्गे स्त्र्यभिधानम् अवगमो विद्येति। स्त्रीत्वे नपुंसकाभिधानम् वीणा आतोद्यमिति। नपुंसके स्त्र्यभिधानम् आयुधं शक्तिरिति। पुंल्लिङ्गे नपुंसकाभिधानं पटो वस्त्रमिति। नपुंसके पुंल्लिङ्गाभिधानं द्रव्यं परशुरिति। संख्या व्यभिचार:‒एकत्वे द्वित्वम् ‒गोदौ ग्राम इति। द्वित्वे बहुत्वम् पुनर्वसू पञ्चतारका इति। बहुत्वे एकत्वम् ‒आम्रा वनमिति। बहुत्वे द्वित्वम् ‒देवमनुषा उभौ राशी इति। साधनव्यभिचार:‒एहि मन्थे रथेन यास्यसि, नहि यास्यसि यातस्ते पितेति। आदिशब्देन कालादिव्यभिचारो गृह्यते। विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता, भावि कृत्यमासीदिति कालव्यभिचार:। संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमत्युपरमतीति उपग्रहव्यभिचार:।=१. स्त्रीलिंग के स्थान पर पुंलिंग का कथन करना और पुलिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग का कथन करना आदि लिंग व्यभिचार हैं। जैसे‒(१)‒‘तारका स्वाति:’ स्वाति नक्षत्र तारका है। यहा पर तारका शब्द स्त्रीलिंग और स्वाति शब्द पुंलिंग है। इसलिए स्त्रीलिंग के स्थान पर पुंलिंग कहने से लिंग व्यभिचार है। (२) ‘अवगमो विद्या’ ज्ञान विद्या है। इसलिए पुंल्लिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग कहने से लिंग व्यभिचार है। इसी प्रकार (३) ‘वीणा आतोद्यम्’ वीणा बाजा आतोद्य कहा जाता है। यहा पर वीणा शब्द स्त्रीलिंग और आतोद्य शब्द, नपुंसकलिंग है। (४) ‘आयुधं शक्ति:’ शक्ति आयुध है। यहा पर आयुध शब्द नपुंसकलिंग और शक्ति शब्द स्त्रीलिंग है। (५) ‘पटो वस्त्रम्’ पट वस्त्र है। यहा पर पट शब्द पुंल्लिंग और वस्त्र शब्द नपुंसकलिंग है। (६) ‘आयुधं परशु:’ फरसा आयुध है। यहा पर आयुध शब्द नपुंसकलिंग और परशु शब्द पुंलिंग है। २. एकवचन की जगह द्विवचन आदि का कथन करना संख्या व्यभिचार है। जैसे (१) ‘नक्षत्रं पुनर्वसू’ पुनर्वसू नक्षत्र है। यहा पर नक्षत्र शब्द एकवचनान्त और पुनर्वसू शब्द द्विवचनान्त है। इसलिए एकवचन के स्थान पर द्विवचन का कथन करने से संख्या व्यभिचार है। इसी प्रकार‒(२) ‘नक्षत्रं शतभिषज:’ शतभिषज नक्षत्र है। यहा पर नक्षत्र शब्द एकवचनान्त और शतभिषज् शब्द बहुवचनान्त है। (३) ‘गोदौ ग्राम:’ गायों को देनेवाला ग्राम है। यहा पर गोद शब्द द्विवचनान्त और ग्राम शब्द एकवचनान्त है। (४) ‘पुनर्वसू पञ्चतारका:’ पुनर्वसू पाच तारे हैं। यहा पुनर्वसू द्विवचनान्त और पंचतारका शब्द बहुवचनान्त है। (५) ‘आम्रा: वनम्’ आमों के वृक्ष वन हैं। यहा पर आम्र शब्द बहुवचनान्त और वन शब्द एकवचनान्त है। (६) ‘देवमनुष्या उभौ राशी’ देव और मनुष्य ये दो राशि हैं। यहा पर देवमनुष्य शब्द बहुवचनान्त और राशि शब्द द्विवचनान्त है। ३. भविष्यत आदि काल के स्थान पर भूत आदि काल का प्रयोग करना कालव्यभिचार है। जैसे‒(१) ‘विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता’ जिसने समस्त विश्व को देख लिया है ऐसा इसके पुत्र उत्पन्न होगा। यहा पर विश्व का देखना भविष्यत् काल का कार्य है, परन्तु उसका भूतकाल के प्रयोग द्वारा कथन किया गया है। इसलिए भविष्यत् काल का कार्य भूत काल में कहने से कालव्यभिचार है। इसी तरह (२) ‘भाविकृत्यमासीत्’ आगे होने वाला कार्य हो चुका। यहा पर भूतकाल के स्थान पर भविष्य काल का कथन किया गया है। ४. एक साधन अर्थात् एक कारक के स्थान पर दूसरे कारक के प्रयोग करने को साधन या कारक व्यभिचार कहते हैं। जैसे‒’ग्राममधिशेते’ वह ग्रामों में शयन करता है। यहा पर सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति या कारक का प्रयोग किया गया है, इसलिए यह साधन व्यभिचार है। ५. उत्तम पुरुष के स्थान पर मध्यम पुरुष और मध्यम पुरुष के स्थान पर उत्तम पुरुष आदि के कथन करने को पुरुषव्यभिचार कहते हैं। जैसे‒’एहि मन्ये रथेन यास्यसि नहि यास्यसि यातस्ते पिता’ आओ, तुम समझते हो कि मैं रथ से जाऊगा परन्तु अब न जाओगे, क्योंकि तुम्हारा पिता चला गया। यहा पर उपहास करने के लिए ‘मन्यसे’ के स्थान पर ‘मन्ये’ ऐसा उत्तम पुरुष का और ‘यास्यामि’ के स्थान पर ‘यास्यासि’ ऐसा मध्यम पुरुष का प्रयोग हुआ है। इसलिए पुरुषव्यभिचार है। ६. उपसर्ग के निमित्त से परस्मैपद के स्थान पर आत्मनेपद और आत्मनेपद के स्थान पर परस्मैपद का कथन कर देने को उपग्रह व्यभिचार कहते हैं। जैसे ‘रमते’ के स्थान पर ‘विरमति’; ‘तिष्ठति’ के स्थान पर ‘संतिष्ठते’ और ‘विशति’ के स्थान पर ‘निविशते’ का प्रयोग व्याकरण में किया जाना प्रसिद्ध है। (स.सि./१/३३/१४३/४); (श्लो.वा.४/१/३३/श्लो.६०-७१/२५५); (ध.१/१,१,१/८१/१); (ध.९/४,१,४५/१७६/६); (क.पा.१/१३-१४/१९७/२३५/३)।
- उक्त व्यभिचारों में दोष प्रदर्शन
श्लो.वा.४/१/३३/७२/२५७/१६ यो हि वैयाकरणव्यवहारनयानुरोधेन ‘धातुसंबन्धे प्रत्यय:’ इति सूत्रमारभ्य विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता भाविकृत्यमासीदित्यत्र कालभेदेऽप्येकपदार्थमादृता यो विश्वं द्रक्ष्यति सोऽस्य पुत्रो जनितेति भविष्यकालेनातीतकालस्याभेदोऽभिमत: तथा व्यवहारदर्शनादिति। तन्न श्रेय: परीक्षायां मूलक्षते: कालभेदेऽप्यर्थस्याभेदेऽतिप्रसङ्गात् रावणशङ्खचक्रवर्तिनोरप्यतीतानागतकालयोरेकत्वापत्ते:। आसीद्रावणो राजा शङ्खचक्रवर्ती भविष्यतीति शब्दयोर्भिन्नविषयत्वान्नैकार्थतेति चेत्, विश्वदृश्वा जनितेत्यनयोरपि मा भूत् तत् एव। न हि विश्व दृष्टवानिति विश्वदृश्वेति शब्दस्य योऽर्थोऽतीतकालस्य जनितेति शब्दस्यानागतकाल:। पुत्रस्य भाविनोऽतीतत्वविरोधात् । अतीतकालस्याप्यनागतत्वाध्यारोपादेकार्थताभिप्रेतेति चेत्, तर्हि न परमार्थत: कालभेदेऽप्यभिन्नार्थव्यवस्था। तथा करोति क्रियते इति कारकयो: कर्तृकर्मणोर्भेदेऽप्यभिन्नमर्थत एवाद्रियते स एव करोति किंचित् स एव क्रियते केनचिदिति प्रतीतेरिति। तदपि न श्रेय: परीक्षायां। देवदत्त: कटं करोतीत्यत्रापि कर्तृकर्मणोर्देवदत्तकटयोरभेदप्रसङ्गात् । तथा पुष्यस्तारकेत्यत्र व्यक्तिभेदेऽपि तत्कृतार्थमेकमाद्रियन्ते, लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वादि। तदपि न श्रेय:, पटकुटोत्यत्रापि कुटकुट्योरेकत्वप्रसङ्गात् तल्लिङ्गभेदाविशेषात् । तथापोऽभ्य इत्यत्र संख्याभेदेऽप्येकमर्थं जलाख्यतादृता: संख्याभेदस्याभेदकत्वात् गुर्वादिवदिति। तदपि न श्रेय: परीक्षायाम् । घस्तंतव इत्यत्रापि तथाभावानुषङ्गात् संख्याभेदाविशेषात् । एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि स यातस्ते पिता इति साधनभेदेऽपि पदार्थमभिन्नमादृता: ‘‘प्रहसे मन्यवाचि युष्मन्मन्यतरस्मादेकवच्च’’ इति वचनात् । तदपि न श्रेय: परीक्षायां, अहं पचामि त्वं पचसीत्यत्रापि अस्मद्युष्मत्साधनाभेदेऽप्येकार्थत्वप्रसङ्गात् । तथा ‘संतिष्ठते अवतिष्ठत’ इत्यत्रोपसर्गभेदेऽप्यभिन्नमर्थमादृता उपसर्गस्य धात्वर्धमात्रद्योतकत्वादिति। तदपि न श्रेय:। तिष्ठति प्रतिष्ठत इत्यत्रापि स्थितिगतिक्रिययोरभेदप्रसङ्गात् । तत: कालादिभेदाद्भिन्न एवार्थोऽन्यथातिप्रसङ्गादिति शब्दनय: प्रकाशयति। तद्भेदेऽप्यर्थाभेदे ‘दूषणान्तरं च दर्शयति‒तथा कालादिनानात्वकल्पनं निष्प्रयोजनम् । सिद्धं कालादिनैकेन कार्यस्येष्टस्य तत्त्वत:।७३। कालाद्यन्यतमस्यैव कल्पनं तैर्विधीयताम् । येषां कालादिभेदेऽपि पदार्थैकत्वनिश्चय:।७४। शब्दकालादिभिर्भिन्नाभिन्नार्थप्रतिपादक:। कालादिभिन्नशब्दत्वादृक्सिद्धान्यशब्दवत् ।७५। =१. काल व्यभिचार विषयक—वैयाकरणीजन व्यवहारनय के अनुरोध से ‘धातु सम्बन्ध से प्रत्यय बदल जाते हैं’ इस सूत्र का आश्रय करके ऐसा प्रयोग करते हैं कि ‘विश्व को देख चुकने वाला पुत्र इसके उत्पन्न होवेगा’ अथवा ‘होने वाला कार्य हो चुका’। इस प्रकार कालभेद होने पर भी वे इनमें एक ही वाच्यार्थ का आदर करते हैं। ‘जो आगे जाकर विश्व को देखेगा ऐसा पुत्र इसके उत्पन्न होगा’ ऐसा न कहकर उपरोक्त प्रकार भविष्यत् काल के साथ अतीत काल का अभेद मान लेते हैं, केवल इसलिए कि लोक में इस प्रकार के प्रयोग का व्यवहार देखा जाता है। परीक्षा करने पर उनका यह मन्तव्य श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि एक तो ऐसा मानने से मूलसिद्धान्त की क्षति होती है और दूसरे अतिप्रसंग का दोष प्राप्त होता है। क्योंकि, ऐसा मानने पर भूतकालीन रावण और अनागत कालीन शंख चक्रवर्ती में भी एकपना प्राप्त हो जाना चाहिए। वे दोनों एक बन बैठेंगे। यदि तुम यह कहो कि रावण राजा हुआ था और शंख चक्रवर्ती होगा, इस प्रकार इन शब्दों की भिन्न विषयार्थता बन जाती है, तब तो विश्वदृश्वा और जनिता इन दोनों शब्दों की भी एकार्थता न होओ। क्योंकि ‘जिसने विश्व को देख लिया है’ ऐसे इस अतीतकालवाची विश्वदृश्वा शब्द का जो अर्थ है, वह ‘उत्पन्न होवेगा’ ऐसे इस भविष्यकालवाची जनिता शब्द का अर्थ नहीं है। कारण कि भविष्यत् काल में होने वाले पुत्र को अतीतकाल सम्बन्धीपने का विरोध है। फिर भी यदि यह कहो कि भूतकाल में भविष्य काल का अध्यारोप करने से दोनों शब्दों का एक अर्थ इष्ट कर लिया गया है, तब तो काल-भेद होने पर भी वास्वविकरूप से अर्थों के अभेद की व्यवस्था नहीं हो सकती। और यही बात शब्दनय समझा रहा है। २. साधन या कारक व्यभिचार विषयक—तिस ही प्रकार वे वैयाकरणीजन कर्ताकारक वाले ‘करोति’ और कर्मकारक वाले ‘क्रियते’ इन दोनों शब्दों में कारक भेद होने पर भी, इनका अभिन्न अर्थ मानते हैं; कारण कि, ‘देवदत्त कुछ करता है’ और ‘देवदत्त के द्वारा कुछ किया जाता है’ इन दोनों वाक्यों का एक अर्थ प्रतीत हो रहा है। परीक्षा करने पर इस प्रकार मानना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो ‘देवदत्त चटाई को बनाता है’ इस वाक्य में प्रयुक्त कर्ताकारक रूप देवदत्त और कर्मकारक रूप चटाई में भी अभेद का प्रसंग आता है। ३. लिंग व्यभिचार विषयक—तिसी प्रकार वे वैयाकरणीजन ‘पुष्यनक्षत्र तारा है’ यहा लिंग भेद होने पर भी, उनके द्वारा किये गये एक ही अर्थ का आदर करते हैं, क्योंकि लोक में कई तारकाओं से मिलकर बना एक पुष्य नक्षत्र माना गया है। उनका कहना है कि शब्द के लिंग का नियत करना लोक के आश्रय से होता है। उनका ऐसा कहना श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से तो पुल्लिंगी पट, और स्त्रीलिंगी झोंपड़ी इन दोनों शब्दों के भी एकार्थ हो जाने का प्रसंग प्राप्त होता है। ४. संख्या व्यभिचार विषयक—तिसी प्रकार वे वैयाकरणी जन ‘आप:’ इस स्त्रीलिंगी बहुवचनान्त शब्द का और ‘अम्भ:’ इस नपुंसकलिंगी एकवचनान्त शब्द का, लिंग व संख्या भेद होने पर भी, एक जल नामक अर्थ ग्रहण करते हैं। उनके यहा संख्याभेद से अर्थ में भेद नहीं पड़ता जैसे कि गुरुत्व साधन आदि शब्द। उनका ऐसा मानना श्रेष्ठ नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर तो एक घट और अनेक तन्तु इन दोनों का भी एक ही अर्थ होने का प्रसंग प्राप्त होता है। ५. पुरुष व्यभिचार विषयक—‘‘हे विदूषक, इधर आओ। तुम मन में मान रहे होगे कि मैं रथ द्वारा मेले में जाऊगा, किन्तु तुम नहीं जाओगे, क्योंकि तुम्हारा पिता भी गया था?’’ इस प्रकार यहा साधन या पुरुष का भेद होने पर भी वे वैयाकरणी जन एक ही अर्थ का आदर करते हैं। उनका कहना है कि उपहास के प्रसंग में ‘मन्य’ धातु के प्रकृतिभूत होने पर दूसरी धातुओं के उत्तमपुरुष के बदले मध्यम पुरुष हो जाता है, और मन्यति धातु को उत्तमपुरुष हो जाता है, जो कि एक अर्थ का वाचक है। किन्तु उनका यह कहना भी उत्तम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से तो ‘मैं पका रहा हू’, ‘तू पकाता है’ इत्यादि स्थलों में भी अस्मद् और युष्मद् साधन का अभेद होने पर एकार्थपने का प्रसंग होगा। ६. उपसर्ग व्यभिचार विषयक—तिसी प्रकार वैयाकरणीजन ‘संस्थान करता है’, ‘अवस्थान करता है’ इत्यादि प्रयोगों में उपसर्ग के भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ को पकड़ बैठे हैं। उनका कहना है कि उपसर्ग केवल धातु के अर्थ का द्योतन करने वाले होते हैं। वे किसी नवीन अर्थ के वाचक नहीं हैं। उनका यह कहना भी प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि इस प्रकार तो ‘तिष्ठति’ अर्थात ठहरता है और ‘प्रतिष्ठते’ अर्थात् गमन करता है, इन दोनों प्रयोगों में भी एकार्थता का प्रसंग आता है।
- इसके अतिरिक्त अन्य भी अनेक दूषण आते हैं। (१) लकार या कृदन्त में अथवा लौकिक वाक्य प्रयोगों में कालादि के नानापने की कल्पना व्यर्थ हो जायेगी, क्योंकि एक ही काल या उपसर्ग आदि से वास्तविक रूप से इष्टकार्य की सिद्धि हो जायेगी।७३। काल आदि के भेद से अर्थ भेद न मानने वालों को कोई सा एक काल या कारक आदि ही मान लेना चाहिए।७४। काल आदि का भिन्न-भिन्न स्वीकार किया जाना ही उनकी भिन्नार्थता का द्योतक है।७५।
- सर्व प्रयोगों को दूषित बताने से तो व्याकरणशास्त्र के साथ विरोध आता है?
स.सि./१/३३/१४४/१ एवं प्रकारं व्यवहारमन्याय्यं मन्यते; अन्यार्थस्यान्यार्थेन संबन्धाभावात् । लोकसमयविरोध इति चेत् । विरुध्यताम् । तत्त्वमिह मीमांस्यते, न भैषज्यमातुरेच्छानुवर्ति।=यद्यपि व्यवहार में ऐसे प्रयोग होते हैं, तथापि इस प्रकार के व्यवहार को शब्दनय अनुचित मानता है, क्योंकि पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से अन्य अर्थ का अन्य अर्थ के साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता। प्रश्न‒इससे लोक समय का (व्याकरण शास्त्र का) विरोध होता है? उत्तर‒यदि विरोध होता है तो होने दो, इससे हानि नहीं है, क्योंकि यहा तत्त्व की मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ रोगों की इच्छा का अनुकरण करने वाली नहीं होती। (रा.वा./१/३३/९/९८/२५)।
- शब्दनय का सामान्य लक्षण
- समभिरूढ नय निर्देश
- समभिरूढ नय के लक्षण
- अर्थ भेद से शब्द भेद (रूढ शब्द प्रयोग)
स.सि./१/३३/१४४/४ नानार्थ समभिरोहणात्समभिरूढ:। यतो नानार्थान्समतीत्यैकमर्थमाभिमुख्येन रूढ: समभिरूढ:। गौरित्ययं शब्दो वागादिष्वर्द्येषु वर्तमान: पशावभिरूढ:। =नाना अर्थों का समभिरोहण करने वाला होने से समभिरूढ नय कहलाता है। चूकि जो नाना अर्थों को ‘सम’ अर्थात् छोड़कर प्रधानता से एक अर्थ में रूढ होता है वह समभिरूढ नय है। उदाहरणार्थ—‘गो’ इस शब्द की वचन, पृथिवी आदि ११ अर्थों में प्रवृत्ति मानी जाती है, तो भी इस नय की अपेक्षा वह एक पशु विशेष के अर्थ में रूढ है। (रा.वा./१/३३/१०/९८/२६); (आ.प./५); (न.च.वृ./२१५)? (न.च./श्रुत/पृ.१८); (त.सा./१/४९); (का.अ./मू./२७६)।
रा.वा./४/४२/१७/२६१/१२ समभिरूढे वा प्रवृत्तिनिमित्तस्य च घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानात् (अभेद:)। =समभिरूढ नय में घटनक्रिया से परिणत या अपरिणत, अभिन्न ही घट का निरूपण होता है। अर्थात् जो शब्द जिस पदार्थ के लिए रूढ कर दिया गया है, वह शब्द हर अवस्था में उस पदार्थ का वाचक होता है।
न.च./श्रुत/पृ.१८ एकबारमष्टोपवासं कृत्वा मुक्तेऽपि तपोधनं रूढिप्रधानतया यावज्जीवमष्टोपवासीति व्यवहरन्ति स तु समभिरूढनय:। =एक बार आठ उपवास करके मुक्त हो जाने पर भी तपोधन को रूढि की प्रधानता से यावज्जीव अष्टोपवासी कहना समभिरूढ नय है।
- शब्दभेद अर्थभेद
स.सि./१/३३/१४४/५ अथवा अर्थगत्यर्थ: शब्दप्रयोग:। तत्रैकस्यार्थस्यैकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थक:। शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यमिति। नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढ:। इन्दनादिन्द्र:, शकनाच्छक्र:, पूर्दारणात् पुरन्दर इत्येवं सर्वत्र।=अथवा अर्थ का ज्ञान कराने के लिए शब्दों का प्रयोग किया जाता है। ऐसी हालत में एक अर्थ का एक शब्द से ज्ञान हो जाता है। इसलिए पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना निष्फल है। यदि शब्दों में भेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार नाना अर्थों का समभिरोहण करने वाला होने समभिरूढ नय कहलाता है। जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर ये तीन शब्द होने से इनके अर्थ भी तीन हैं। क्योंकि व्युत्पत्ति की अपेक्षा ऐश्वर्यवान् होने से इन्द्र, समर्थ होने से शक्र और नगरों का दारण करने से पुरन्दर होता है। इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए। (रा.वा./१/३३/१०/९८/३०), (श्लो.वा.४/१/३३श्लो.७६-७७/२६३); (ह.पु./५८/४८); (ध.१/१,१,१/९/४); (ध.९/४,१,४५/१७९/१); (क.पा.१/१३-१४/२००/२३९/६); (न.च.वृ./२१५); (न.च./श्रुत./पृ.१८); (स्या.म./२८/३१४/१५;३१६/३;३१८/२८)।
रा.वा./४/४२/१७/२६१/१६ समभिरूढे वा नैमित्तिकत्वात् शब्दस्यैकशब्दवाच्य एक:। =समभिरूढ नय चूकि शब्दनैमित्तिक है अत: एक शब्द का वाच्य एक ही होता है।
- वस्तु का निजस्वरूप में रूढ रहना
स.सि./१/३३/१४४/८ अथवा यो यत्राभिरूढ: स तत्र समेत्याभिसुख्येनारोहणात्समभिरूढ:। यथा क्व भवानास्ते। आत्मनीति। कुत:। वस्त्वन्तरे वृत्त्यभावात् । यद्यन्यस्यान्यत्रवृत्ति: स्यात्, ज्ञानादीनां रूपादीनां चाकाशे वृत्ति: स्यात् ।=अथवा जो जहा अभिरूढ है वह वहा ‘सम्’ अर्थात् प्राप्त होकर प्रमुखता से रूढ होने के कारण समभिरूढ़ नय कहलाता है? यथा‒आप कहा रहते हैं? अपने में, क्योंकि अन्य वस्तु की अन्य वस्तु में वृत्ति नहीं हो सकती। यदि अन्य की अन्य में वृत्ति होती है, ऐसा माना जाये तो ज्ञानादिक की और रूपदिक की आकाश में वृत्ति होने लगे। (रा.वा./१/३३/१०/९९/२)।
- अर्थ भेद से शब्द भेद (रूढ शब्द प्रयोग)
- यद्यपि रूढिगत अनेक शब्द एकार्थवाची हो जाते हैं
आ.प./९ परस्परेणाभिरूढा: समभिरूढा:। शब्दभेदेऽत्यर्थभेदो नास्ति। शक्र इन्द्र: पुरन्दर इत्यादय: समभिरूढा:। =जो शब्द परस्पर में अभिरूढ या प्रसिद्ध हैं वे समभिरूढ हैं। उन शब्दों में भेद होते हुए भी अर्थभेद नहीं होता। जैसे‒शक्र, इन्द्र व पुरन्दर ये तीनों शब्द एक देवराज के लिए अभिरूढ या प्रसिद्ध हैं। (विशेष देखें - मतिज्ञान / ३ / ४ )।
- परन्तु यहा पर्यायवाची शब्द नहीं हो सकते
स.सि./१/३३/१४४/६ तत्रैकस्यार्थस्येकेन गतार्थत्वात्पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थक:। शब्दभेदश्चेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यमिति। =जब एक अर्थ का एक शब्द से ज्ञान हो जाता है तो पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना निष्फल है। यदि शब्दों में भेद है तो अर्थभेद अवश्य होना चाहिए। (रा.वा./१/३३/१०/९८/३०)।
क.पा.१/१३-१४/२००/२४०/१ अस्मिन्नये न सन्ति पर्यायशब्दा: प्रतिपदमर्थभेदाभ्युपगमात् । न च द्वौ शब्दावेकस्मिन्नर्थे वर्तेते; भिन्नयोरकार्थवृत्तिविरोधात् । न च समानशक्तित्वात्तत्र वर्तेते; समानशक्त्यो: शब्दयोरेकत्वापत्ते:। ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेन भाव्यमिति।=इस नय में पर्यायवाची शब्द नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि यह नय प्रत्येक पद का भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। दो शब्द एक अर्थ में रहते हैं, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न दो शब्दों का एक अर्थ में सद्भाव मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाये कि उन दोनों शब्दों में समान शक्ति पायी जाती है, इसलिए वे एक अर्थ में रहते हैं, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि दो शब्दों में सर्वथा समान शक्ति मानने से वे वास्तव में दो न रहकर एक हो जायेंगे। इसलिए जब वाचक शब्दों में भेद पाया जाता है तो उनके वाच्यभूत अर्थ में भी भेद होना ही चाहिए। (ध.१/१,१,१/८९/५)।
ध.९/४,१,४५/१८०/१ न स्वतो व्यतिरिक्ताशेषार्थव्यवच्छेदक: शब्द: अयोग्यत्वात् । योग्य: शब्दो योग्यार्थस्य व्यवच्छेदक इति...न च शब्दद्वयोर्द्वैविध्ये तत्सामर्थ्ययोरेकत्वं न्यायम्, भिन्नकालोत्पन्नद्रव्योपादानभिन्नाधारयोरेकत्वविरोधात् । न च सादृश्यमपि तयोरेकत्वापत्ते:। ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेनापि भवितव्यमिति। =शब्द अपने से भिन्न समस्त पदार्थों का व्यवच्छेदक नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें वैसी योग्यता नहीं है, किन्तु योग्य शब्द योग्य अर्थ का व्यवच्छेदक होता है। दूसरे, शब्दों के दो प्रकार होने पर उनकी शक्तियों को एक मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि भिन्न काल में उत्पन्न व उपादान एवं भिन्न आधारवाली शब्दशक्तियों के अभिन्न होने का विरोध है। इनमें सादृश्य भी नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होने पर एकता की आपत्ति आती है। इस कारण वाचक के भेद से वाच्य भेद अवश्य होना चाहिए।
नोट‒शब्द व अर्थ में वाच्य-वाचक सम्बन्ध व उसकी सिद्धि के लिए देखें - आगम / ४ ।
- शब्द व समभिरूढ नय में अन्तर
श्लो.वा.४/१/३३/७६/२६३/२१ विश्वदृश्वा सर्वदृश्वेति पर्यायभेदेऽपि शब्दोऽभिन्नार्थमभिप्रैति भविता भविष्यतीति च कालभेदाभिमननात् । क्रियते विधीयते करोति विदधाति पुष्यस्तिष्य: तारकोडु: आपो वा: अम्भ: सलिलमित्यादिपर्यायभेदेऽपि चाभिन्नमर्थं शब्दो मन्यते कारकादिभेदादेवार्थभेदाभिमननात् । समभिरूढ: पुन: पर्यायभेदेऽपि भिन्नार्थानामभिप्रैति। कथं-इन्द्र: पुरन्दर: शक्र इत्याद्याभिन्नगोचर:। यद्वा विभिन्नशब्दत्वाद्वाजिवारणशब्दवत् ।७७। =जो विश्व को देख चुका है या जो सबको देख चुका है इन शब्दों में पर्यायभेद होने पर भी शब्द नय इनके अर्थ को अभिन्न मानता है। भविता (लुट्) और भविष्यति (लृट्) इस प्रकार पर्यायभेद होने पर भी, कालभेद न होने के कारण शब्दनय दोनों का एक अर्थ मानता है। तथा किया जाता है, विधान किया जाता है इन शब्दों का तथा इसी प्रकार; पुष्य व तिष्य इन दोनों पुंल्लिंगी शब्दों का; तारका व उडुका इन दोनों स्त्रीलिंगी शब्दों का; स्त्रीलिंगी ‘अप’ व वार् शब्दों का नपुंसकलिंगी अम्भस् और सलिल शब्दों का; इत्यादि समानकाल कारक लिंग आदि वाले पर्यायवाची शब्दों का वह एक ही अर्थ मानता है। वह केवल कारक आदि का भेद हो जाने से ही पर्यायवाची शब्दों में अर्थभेद मानता है, परन्तु कारकादिका भेद न होने पर अर्थात् समान कारकादि वाले पर्यायवाची शब्दों में अभिन्न अर्थ स्वीकार करता है। किन्तु समभिरूढ नय तो पर्यायभेद होने पर भी उन शब्दों में अर्थभेद मानता है। जैसे‒कि इन्द्र, पुरन्दर व शक्र इत्यादि पर्यायवाची शब्द उसी प्रकार भिन्नार्थ गोचर हैं, जैसे कि बाजी (घोड़ा) व वारण (हाथी) ये शब्द।
- समभिरूढ नयाभास का लक्षण
स्या.म./२८/३१८/३० पर्यायध्वनीनामभिधेयनानात्वमेव कुक्षीकुर्वाणस्तदाभास:। यथेन्द्र: शक्र: पुरन्दर इत्यादय: शब्दा: भिन्नाभिधेया एव भिन्नशब्दत्वात् करिकुरङ्गतुरङ्गशब्दवद् इत्यादि:। =पर्यायवाची शब्दों के वाच्य में सर्वथा नानापना मानना समभिरूढाभास है। जैसे कि इन्द्र, शक्र, पुरन्दर इत्यादि शब्दों का अर्थ, भिन्न शब्द होने के कारण उसी प्रकार से भिन्न मानना जैसे कि हाथी, हिरण, घोड़ा इन शब्दों का अर्थ।
- समभिरूढ नय के लक्षण
- एवंभूतनय निर्देश
- तत्क्रियापरिणत द्रव्य ही शब्द का वाच्य है
स.सि./१/३३/१४५/३ येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसायतीति एवंभूत:। स्वाभिप्रेतक्रियापरिणतिक्षणे एव स शब्दो युक्तो नान्यथेति। यदैवेन्दति तदैवेन्द्रो नाभिषेचको न पूजक इति। यदैव गच्छति तदैव गौर्न स्थितो न शयित इति। =जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई है उसी रूप निश्चय करने वाले (नाम देने वाले) नय को एवंभूत नय कहते हैं। आशय यह है कि जिस शब्द का जो वाच्य है उस रूप क्रिया के परिणमन के समय ही उस शब्द का प्रयोग करना युक्त है, अन्य समयों में नहीं। जैसे‒जिस समय आज्ञा व ऐश्वर्यवान् हो उस समय ही इन्द्र है, अभिषेक या पूजा करने वाला नहीं। जब गमन करती हो तभी गाय है, बैठी या सोती हुई नहीं। (रा.वा./१/३३/११/९९/५); (श्लो.वा.४/१/३३/श्लो.७८-७९/२६२); (ह.पु./५८/४९); (आ.प./५व९); (न.च./श्रुत/पृ.१९ पर उद्धत श्लोक); (त.सा./१/५०); (का.अ./मू./२७७); (स्या.म./२८/३१५/३)।
ध.१/१,१,१/९०/३ एवं भेदे भवनादेवंभूत:। =एवंभेद अर्थात् जिस शब्द का जो वाच्य है वह तद्रूप क्रिया से परिणत समय में ही पाया जाता है। उसे जो विषय करता है उसे एवंभूतनय कहते हैं। (क.पा.१/१३-१४/२०१/२४२/१)।
न.च.वृ./२१६ जं जं करेइ कम्मं देही मणवयणकायचेवादो। तं तं खु णामजुत्तो एवंभूदो हवे स णओ।२१६।
न.च./श्रुत/पृ.१९ य: कश्चित्पुरुष: रागपरिणतो परिणमनकाले रागीति भवति। द्वेषपरिणतो परिणमनकाले द्वेषीति कथ्यते।...शेषकाले तथा न कथ्यते। इति तप्ताय: पिण्डवत् तत्काले यदाकृतिस्तद्विशेषे वस्तुपरिणमनं तदा काले ‘तक्काले तम्मपत्तादो’ इति वचनमस्तीति क्रियाविशेषाभिदानं स्वीकरोति अथवा अभिदानं न स्वीकरोतीति व्यवहरणमेवंभूतनयो भवति।=१. यह जीव मन वचन काय से जब जो-जो चेष्टा करता है, तब उस-उस नाम से युक्त हो जाता है, ऐसा एवंभूत नय कहता है। २. जैसे राग से परिणत जीव रागपरिणति के काल में ही रागी होता है और द्वेष परिणत जीव द्वेष परिणति के काल में ही द्वेष्टा कहलाता है। अन्य समयों में वह वैसा नहीं कहा जाता। इस प्रकार अग्नि से तपे हुए लोहे के गोलेवत्, उस-उस काल में जिस-जिस आकृति विशेष में वस्तु का परिणमन होता है, उस काल में उस रूप से तन्मय होता है। इस प्रकार आगम का वचन है। अत: क्रियाविशेष के नामकथन को स्वीकार करता है, अन्यथा नामकथन को ग्रहण नहीं करता। इस प्रकार से व्यवहार करना एवंभूत होता है। - तज्ज्ञानपरिणत आत्मा उस शब्द का वाच्य है
- निर्देश
स.सि./१/३३/१४५/५ अथवा येनात्मना येन ज्ञानेन भूत: परिणतस्तेनैवाध्यवसाययति। यथेन्द्राग्निज्ञानपरिणत आत्मैवेन्द्रोऽग्निश्चेति। =अथवा जिस रूप से अर्थात् जिस ज्ञान से आत्मा परिणत हो उसी रूप से उसका निश्चय कराने वाला नय एवंभूतनय है। यथा‒इन्द्ररूप ज्ञान से परिणत आत्मा इन्द्र है और अग्निरूप ज्ञान से परिणत आत्मा अग्नि है। (रा.वा.१/३३/११/९९/१०)।
रा.वा./१/१/५/५/१ यथा...आत्मा तत्परिणामादग्निव्यपदेशभाग् भवति, स एवंभूतनयवक्तव्यतया उष्णपर्यायादनन्य:, तथा एवंभूतनयवक्तव्यवशाज् ज्ञानदर्शनपर्यायपरिणत आत्मैव ज्ञानं दर्शनं च तत्स्वभाव्यात् ।=एवंभूतनय की दृष्टि से ज्ञान क्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है और दर्शनक्रिया में परिणत आत्मा दर्शन है; जैसे कि उष्णपर्याय में परिणत आत्मा अग्नि है। रा.वा./१/३३/१२/९९/१३ स्यादेतत्-अग्न्यादिव्यपदेशो यद्यात्मनि क्रियते दाहकत्वाद्यतिप्रसज्यते इति; उच्यते-तदव्यतिरेकादप्रसङ्ग:। तानि नामादीनि येन रूपेण व्यपदिश्यन्ते ततस्तेषामव्यतिरेक: प्रतिनियतार्थवृत्तित्वाद्धर्माणाम् । ततो नो आगमभावाग्नौ वर्तमानं दाहकत्वं कथमागमभावाग्नौ वर्तेत। =प्रश्न‒ज्ञान या आत्मा में अग्नि व्यपदेश यदि किया जायेगा तो उसमें दाहकत्व आदि का अतिप्रसंग प्राप्त होगा ? उत्तर‒नहीं; क्योंकि, नाम स्थापना आदि निक्षेपों में पदार्थ के जो-जो धर्म वाच्य होते हैं, वे ही उनमें रहेंगे, नोआगमभाव (भौतिक) अग्नि में ही दाहकत्व आदि धर्म होते हैं उनका प्रसंग आगमभाव (ज्ञानात्मक) अग्नि में देना उचित नहीं है।
- निर्देश
- अर्थभेद से शब्दभेद और शब्दभेद से अर्थभेद करता है
रा.वा.१/४/४२/१७/२६१/१३ एवंभूतेषु प्रवृत्तिनिमित्तस्य भिन्नस्यैकस्यैवार्थस्याभिधानात् भेदेनाभिधानम् । ...एवंभूवर्तमाननिमित्तशब्द एकवाच्य एक:। =एवंभूतनय में प्रवृत्तिनिमित्त से भिन्न एक ही अर्थ का निरूपण होता है, इसलिए यहा सब शब्दों में अर्थभेद है। एवंभूतनय वर्तमान निमित्त को पकड़ता है, अत: उसके मत से एक शब्द का वाच्य एक ही है।
ध.१/१,१,१/९०/५ तत: पदमेकमेकार्थस्य वाचकमित्यध्यवसाय: इत्येवंभूतनय:। एतस्मिन्नये एको गोशब्दो नानार्थे न वर्तते एकस्यैकस्वभावस्य बहुषु वृत्तिविरोधात् ।=एक पद एक ही अर्थ का वाचक होता है, इस प्रकार के विषय करने वाले नय को एवंभूतनय कहते हैं। इस नय की दृष्टि में एक ‘गो’ शब्द नाना अर्थों में नहीं रहता, क्योंकि एक स्वभाववाले एक पद का अनेक अर्थों में रहना विरुद्ध है। ध.९/४,१,४५/१८०/७ गवाद्यर्थभेदेन गवादिशब्दस्य च भेदक: एवंभूत:। क्रियाभेदे न अर्थभेदक: एवंभूत:, ‘शब्दनयान्तर्भूतस्य एवंभूतस्य अर्थनयत्वविरोधात् ।=गौ आदि शब्द का भेदक है, वह एवंभूतनय है। क्रिया का भेद होने पर एवंभूतनय अर्थ का भेदक नहीं है; क्योंकि शब्द नयों के अन्तर्गत आने वाले एवंभूतनय के अर्थनय होने का विरोध है।
स्या.म./२८/३१६/उद्धृत श्लो.नं.७ एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं सदा तन्नोत्पद्यते। क्रियाभेदेन भिन्नत्वाद् एवंभूतोऽभिमन्यते । =वस्तु अमुक क्रिया करने के समय ही अमुक नाम से कही जा सकती है, वह सदा एक शब्द का वाच्य नहीं हो सकती, इसे एवंभूतनय कहते हैं। - इस नय की दृष्टि में वाक्य सम्भव नहीं है।
ध.१/१,१,१/९०/३ न पदानां...परस्परव्यपेक्षाप्यस्ति वर्णार्थसंख्याकालादिभिर्भिन्नानां पदानां भिन्नपदापेक्षायोगात् । ततो न वाक्यमप्यस्तीति सिद्धम् । =शब्दों में परस्पर सापेक्षता भी नहीं है, क्योंकि वर्ण अर्थ संख्या और काल आदि के भेद से भेद को प्राप्त हुए पदों के दूसरे पदों की अपेक्षा नहीं बन सकती। जब कि एक पद दूसरे पद की अपेक्षा नहीं रखता है, तो इस नय की दृष्टि में वाक्य भी नहीं बन सकता है यह बात सिद्ध हो जाती है। - इस नय में पदसमास सम्भव नहीं
क.पा./१/१३-१४/२०१/२४२/१ अस्मिन्नये न पदानां समासोऽस्ति; स्वरूपत: कालभेदेन च भिन्नानामेकत्वविरोधात् । न पदानामेककालवृत्तिसमास: क्रमोत्पन्नानां क्षणक्षयिणां तदनुपपत्ते:। नैकार्थे वृत्ति: समास: भिन्नपदानामेकार्थे वृत्त्यनुपपत्ते:। =इस नय में पदों का समास नहीं होता है; क्योंकि, जो पद काल व स्वरूप की अपेक्षा भिन्न हैं, उन्हें एक मानने में विरोध आता है। एककालवृत्तिसमास कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पद क्रम से उत्पन्न होते हैं और क्षणध्वंसी हैं। एकार्थवृत्तिसमास कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न पदों का एक अर्थ में रहना बन नहीं सकता। (ध.१/१,१,१/९०/३) - इस नय में वर्णसमास तक भी सम्भव नहीं
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ध.१/४,१,४५/१९०/७ वाचकगतवर्णभेदेनार्थस्य...भेदक: एवंभूत:। =जो शब्दगत ‘घ’ ‘ट’ आदि वर्णों के भेद से अर्थ का भेदक है, वह एवंभूतनय है। क.पा./१/१३-१४/२०१/२४२/४ न वर्णसमासोऽप्यस्ति तत्रापि पदसमासोक्तदोषप्रसङ्गात् । तत एक एव वर्ण एकार्थवाचक इति पदगतवर्णमात्रार्थ: एकार्थ इत्येवंभूताभिप्रायवान् एवंभूतनय:। =इस नय में जिस प्रकार पदों का समास नहीं बन सकता, उसी प्रकार ‘घ’ ‘ट’ आदि अनेक वर्णों का भी समास नहीं बन सकता है, क्योंकि ऊपर पदसमास मानने में जो दोष कह आये हैं, वे सब दोष यहा भी प्राप्त होते हैं। इसलिए एवंभूतनय की दृष्टि में एक ही वर्ण एक अर्थ का वाचक है। अत: ‘घट’ आदि पदों में रहने वाला घ्, अ, ट्, अ आदि वर्णमात्र अर्थ ही एकार्थ हैं, इस प्रकार के अभिप्राय वाला एवंभूतनय समझना चाहिए। (विशेष तथा समन्वय देखें - आगम / ४ / ४ )
- समभिरूढ व एवंभूत में अन्तर
श्लो.वा./४/१/३३/७८/२६६/७ समभिरूढो हि शकनक्रियायां सत्यामसत्यां च देवराजार्थस्य शक्रव्यपदेशमभिप्रैति, पशोर्गमनक्रियायां सत्यामसत्यां च गोव्यपदेशवत्तथारूढे: सद्भावात् । एवंभूतस्तु शकनक्रियापरिणतमेवार्थं तत्क्रियाकाले शक्रमभिप्रैति नान्यदा। =समभिरूढनय तो सामर्थ्य धारनरूप क्रिया के होने पर अथवा नहीं होने पर भी देवों के राजा इन्द्र को ‘शक्र’ कहने का, तथा गमन क्रिया के होने पर अथवा न होने पर भी अर्थात् बैठी या सोती हुई अवस्था में भी पशुविशेष को ‘गो’ कहने का अभिप्राय रखता है, क्योंकि तिस प्रकार रूढि का सद्भाव पाया जाता है। किन्तु एवंभूतनय तो सामर्थ्य धारनरूप क्रिया से परिणत ही देवराज को ‘शक्र’ और गमन क्रिया से परिणत ही पशुविशेष को ‘गौ’ कहने का अभिप्राय रखता है, अन्य अवस्थाओं में नहीं।
नोट‒(यद्यपि दोनों ही नयें व्युत्पत्ति भेद से शब्द के अर्थ में भेद मानती हैं, परन्तु समभिरूढनय तो उस व्युत्पत्ति को सामान्य रूप से अंगीकार करके वस्तु की हर अवस्था में उसे स्वीकार कर लेता है। परन्तु एवंभूत तो उस व्युत्पत्ति का अर्थ तभी ग्रहण करता है, जब कि वस्तु तत्क्रिया परिणत होकर साक्षात् रूप से उस व्युत्पत्ति की विषय बन रही हो (स्या.म./२८/३१५.३) - एवंभूतनयाभास का लक्षण
स्या.म./२८/३१९/३ क्रियानाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपंस्तु तदाभास:। यथा विशिष्टचेष्टाशून्यं घटाख्यं वस्तु न घटशब्दवाच्यम्, घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तक्रियाशून्यत्वात् पटवद् इत्यादि:। =क्रियापरिणति के समय से अतिरिक्त अन्य समय में पदार्थ को उस शब्द का वाच्य सर्वथा न समझना एवंभूतनयाभास है। जैसे‒जल लाने आदि की क्रियारहित खाली रखा हुआ घड़ा बिलकुल भी ‘घट’ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पट की भाति वह भी घटन क्रिया से शून्य है।
- तत्क्रियापरिणत द्रव्य ही शब्द का वाच्य है
- सातों नयों का समुदित सामान्य निर्देश