अनशन: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p> प्रथम बाह्य तप । <span class="GRef"> महापुराण 18.67-68, </span>संयम के पालन, ध्यान की सिद्धि, रागनिवारण और कर्मविनाशन के लिए आहार का त्याग करना । <br> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> प्रथम बाह्य तप । <span class="GRef"> महापुराण 18.67-68, </span>संयम के पालन, ध्यान की सिद्धि, रागनिवारण और कर्मविनाशन के लिए आहार का त्याग करना । <br> | ||
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Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
यद्यपि भूखा मरना कोई धर्म नहीं, पर शरीर से उपेक्षा हो जाने के कारण, अथवा अपनी चेतन वृत्तियों को भोजन आदि के बंधनों से मुक्त करने के लिए, अथवा क्षुधा आदि में भी साम्यरस से च्युत न होने रूप आत्मिक बल की वृद्धि के लिए किया गया अशन का त्याग मोक्षमार्गी को अवश्य श्रेयस्कर है। ऐसे ही त्याग का नाम अनशन तप है, अन्यथा तो कोरा लंघन है, जिससे कुछ भी सिद्धि नहीं।
1. अनशन सामान्य का निश्चय लक्षण
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 440-441
जो मण-इंदिय विज्जई इह-भव-पर-लोय-सोक्खणिरवेक्खो। अप्पाणे विय णिवसई सज्झाय-परायणो होदि ॥440॥ कम्माण णिज्जरट्ठ आहारं परिहरेइ लोलाए। एग-दिणादि-पमाणं तस्स तवं अणसणं होदि।
= जो मन और इंद्रियों को जीतता है, इस भव और परभव के विषय सुख की अपेक्षा नहीं करता, अपने आत्मसुख में ही निवास करता है और स्वाध्याय में तत्पर रहता है ॥440॥ उक्त प्रकार का जो पुरुष कर्मों की निर्जरा के लिए एक दिन वगैरह का परिमाण करके लीला मात्र से आहार का त्याग करता है, उसके अनशन नामक तप होता है ॥441॥
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 227/275
यस्य सकलकालमेव सकलपुद्गलाहरणशून्यमात्मानमवबुद्ध्यमानस्य सकलाशनतृष्णाशून्यत्वात्स्वयमनशन एव स्वभावः। तदेव तस्यानशनं नाम तपोऽंतरंगस्य बलीयस्त्वात्।
= सदा ही समस्त पुद्गलाहार से शून्य आत्मा को जानता हुआ समस्त अनशन तृष्णा रहित होने से जिसका स्वयं अनशन ही स्वभाव है, वही उसके अनशन नामक तप है, क्योंकि अंतरंग की विशेष बलवत्ता है।
2. अनशन सामान्य का व्यवहार लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 9/19,1/618/17
यत्किंचद् दृष्टफलं मंत्रसाधनाद्यनुद्दिश्य क्रियमाणमुपवसनमनशनमित्युच्यते।
= मंत्र साधनादि दृष्ट फल की अपेक्षा के बिना किया गया उपवास अनशन कहलाता है।
(चारित्रसार पृष्ठ 134/1)।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 6/32/14
अनशनं नाम अशनत्यागः। स च त्रिप्रकारः मनसा भुंजे, भाजयामि, भोजने व्यापृतस्यानुमति करोमि। भुंजे भुंक्ष्व, पचनं कुर्विति वचसा। तथा चतुर्विधस्याहारस्याभिसंधिपूर्वकं कायेनादानं हस्तसंज्ञायाः प्रवर्त्तनम् अनुमतिसूचनं कायेन। एतेषां मनोवाक्कायक्रियाणां कर्मोपादानकारणानां त्यागोऽनशनं चारित्रमेव।
= चार प्रकार के आहारों का त्याग करना इसको अनशन कहते हैं। यह अनशन तीन प्रकार का है। मैं भोजन करूँ, भोजन कराऊँ, भोजन करने वाले को अनुमति देऊँ, इस तरह मन में संकल्प करना। मैं आहार लेता हूँ, तू भोजन कर, तुम भोजन पकाओ ऐसा वचन से कहना, चार प्रकार के आहार को संकल्प पूर्वक शरीर से ग्रहण करना, हाथ से इशारा करके दूसरे को ग्रहण करने में प्रवृत्त करना, आहार ग्रहण करने के कार्य में शरीर से सम्मति देना ऐसी जो मन, वचन, काय की कर्म ग्रहण करने में निमित्त होने वाली क्रियाएँ उनका त्याग करना उसको अनशन कहते हैं।
धवला पुस्तक 13/5,4,26/55/1
तत्थ चउत्थ-छट्ठट्ठम-दसम-दुवालस-पक्ख-मास उड्ड-अयण-संवच्छरेसु एसणपरिच्चाओ अणेसणं णाम तवो।
= चौथे, छठे, आठवें, दसवें और बारहवें एषण का ग्रहण करना तथा एक पक्ष, एक मास, एक ऋतु, एक अयन अथवा एक वर्ष तक एषण का त्याग करना अनेषण नाम का तप है।
अनगार धर्मामृत अधिकार 7/11/664
चतुर्थाद्यर्धवर्षांत उपवासोऽथवामृतेः। सकृद् भुक्तिश्च मुक्त्यथ तपोऽनशनमिष्यते ॥11॥
= कर्मों का क्षय करने के उद्देश्य से भोजन का त्याग करने को अनशन तप कहते हैं।
3. अनशन तप के भेद
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 209
अद्धाणसणं सव्वाणसणं दुविहं तु अणसणं भणियं।
= अर्धानशन और सर्वानशन ऐसे अनशन तप के दो भेद हैं।
मूलाचार /347
इतिरियं जावजोवं दुविहं पुण अणसणं मुणेदव्वं ॥347॥
= अनशन तप के दो भेद हैं - इतिरिय तथा यावज्जीव।
राजवार्तिक अध्याय 9/19,2/618/18
तद् द्विविधमवधृतानवधृतकालभेदात्।
= वह अनशन अनवधृत और अवधृतकाल के भेद से दो प्रकार का होता है।
(चारित्रसार पृष्ठ 134/2)।
अनगार धर्मामृत अधिकार 7/11/665
= यह दो प्रकार का होता है - सकृद्भुक्तिया प्रोषध तथा दूसरा उपवास। ....उपवास दो प्रकार का माना है - अवधृतकाल और अनवधृतकाल।
4. अनशन के भेदों के लक्षण
. 1. अवधृत काल अनशन का लक्षण
मूलाचार गाथा 347-348
....इतिरियं साकांक्षम्.... ॥347॥ छट्ठट्ठमदसमद्वादसेहिं मासद्धमासखमणाणि। कणगेगावलि आदी तवोविहाणाणि णाहारे ॥348॥
= काल की मर्यादा से इतिरिय होता है ॥347॥ अर्थात् एक दिन में दो भोजन वेला कही हैं। चार भोजन वेला का त्याग उसे चतुर्थ उपवास कहते हैं। छः भोजन वेला का त्याग वह दो उपवास कहे जाते हैं। इसी को षष्ठम तप कहते हैं। षष्टम, अष्टम, दशम, द्वादश, पंद्रह दिन, एक मास त्याग, कनकावली, एकावली, मुरज, मद्यविमानपंक्ति, सिंहनीःक्रीडित इत्यादि जो भेद जहाँ है वह सब साकांक्ष अनशन तप है ॥348॥ इसी को अवधृत काल अनशन तप कहते हैं।
(चारित्रसार पृष्ठ 134/2)।
राजवार्तिक अध्याय 9/19, 2/618/20
तत्रावधृतकालं सकृद्भोजनं चतुर्थभक्तादि।
= एक बार भोजन या एक दिन पश्चात् भोजन नियतकालीन अनशन है।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 209/425/13
कदा तदुभयमित्यत्र कालविवेकमाह-विहरंतस्य ग्रहणप्रतिसेवनकालयोर्वर्तमानस्य अद्धानशनं।
= ग्रहण और प्रतिसेवना काल में अद्धानशन तप मुनि करते हैं। दीक्षा ग्रहण कर जब तक संन्यास ग्रहण किया नहीं तब तक ग्रहण काल माना जाता है। तथा व्रतादिकों में अतिचार लगने पर जो प्रायश्चित्त से शुद्धि करने के लिए कुछ दिन अर्थात् षष्ठम, अष्टम आदि अनशन करना पड़ता है, उसको प्रतिसेवना काल कहते हैं।
अनगार धर्मामृत अधिकार 7/11/665 वह अनशन दो प्रकार का होता है - सकृद्भुक्ति अर्थात् प्रोषध तथा दूसरा उपवास। दिन में एक बार भोजन करने को प्रोषध और सर्वथा भोजन के परिहार को उपवास कहते हैं। उसमें अवधृतकाल उपवास के चतुर्थ से लेकर षाण्मासिक तक अनेक भेद होते हैं।
2. अनवधृत काल या सर्वानशन का लक्षण
मूलाचार गाथा 349
भत्तपइण्णा इंगिणि पाउवगमणाणि जाणि मरणाणि। अण्णेवि एवमादी बोधव्वा णिरवकखाणि ॥349॥
= भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनीमरण, प्रायोपगमनमरण अथवा अन्य भी अनेकों प्रकार के मरणों में जो मरण पर्यंत आहार का त्याग करना है वह निराकांक्ष कहलाता है।
राजवार्तिक अध्याय 2/19,2/618/20
अनवधृतकालमादेहोपरमात्।
= शरीर छूटने तक उपवास धारण करना अनियमित काल अनशन कहलाता है।
( चारित्रसार पृष्ठ 134/3) (अनगार धर्मामृत अधिकार 7/11/664) (भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 209/425)।
5. सर्वानशन तप कब धारण किया जाता है
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 209/425/14
परित्यागोत्तरकालो जीवितस्य यः सर्वकालः तस्मिन्ननशनं अशनत्यागः सर्वानशनम्। ...चरिमंते परिणामकालस्यांते।
= मरण समय में अर्थात् संन्यास काल में मुनि सर्वानशन तप करते हैं।
6. अनशन के अतिचार
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 487/707/1
तपसोऽनशनादेरतिचारः। स्वयं न भुंक्ते अन्यं भोजयति, परस्य भोजनमनुजानाति मनसा वचसा कायेन च। स्वयं क्षुधापीडित आहारमभिलषति। मनसा पारणां मम कः प्रयच्छति, क्व वा लपस्यामीति चिंता अनशनातिचारः।
= स्वयं भोजन नहीं करता है, परंतु दूसरों को भोजन कराता है, कोई भोजन कर रहा हो तो उसकी अनुमति देता है, यह अतिचार मन से, वचन से और शरीर से करना। भूख से पीडित होने पर स्वयं मन में आहार की अभिलाषा करना, मेरे को कौन पारणा देगा, किस घर में मेरा पारणा होगा, ऐसी चिंता करना, ये अनशन तप के अतिचार हैं।
7. अनशन शक्ति के अनुसार करना चाहिए
अनगार धर्मामृत अधिकार 5/65
द्रव्यं क्षेत्रं बलं कालं भावं वीर्यं समीक्ष्य च। स्वास्थ्याय वर्ततां सर्वविद्धशुद्धाशनैः सुधीः ॥65॥
= विचार पूर्वक आचरण करने वाले साधुओं को आरोग्य और आत्मस्वरूप में अवस्थान रखने के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, बल और वीर्य इन छह बातों का अच्छी तरह पर्यालोचन करके सर्वाशन, विद्धाशन और शुद्धाशन के द्वारा आहार में प्रवृत्ति करना चाहिए।
8. अनशन के कारण व प्रयोजन
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/19/438
दृष्टफलानपेक्षं संयमसिद्धिरागोच्छेदकर्मविनाशध्यानागमावाप्त्यर्थमनशनम्।
= दृष्ट फल मंत्रसाधना आदि की अपेक्षा किये बिना संयम की सिद्धि, राग का उच्छेद, कर्मों का विनाश ध्यान और आगम की प्राप्ति के लिए अनशन तप किया जाता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/19,1/618/16) (चारित्रसार पृष्ठ 134/4)
धवला पुस्तक 13/5, 4, 26/55/3
किमट्ठमेसो कीरदे। पाणिंदियसंजमट्ठं, भुत्तीए उहयासंजम अविणाभावदंसणादो।
= प्रश्न - यह अनेषण किसलिए किया जाता है?
उत्तर - यह प्राणिसंयम और इंद्रिय संयम की सिद्धि के लिए किया जाता है, क्योंकि भोजन के साथ दोनों प्रकार के असंयम का अविनाभाव देखा जाता है।
9. अनशन में ऐहलौकिक फल की इच्छा नहीं होनी चाहिए
राजवार्तिक अध्याय 9/19,1/618/16
यत्किंचिद् दृष्टफलं मंत्रसाधनाद्यनुद्दिश्य क्रियमाणमुपवसनमनसनमित्युच्यते।
= मंत्र साधनादि कुछ भी दृष्ट फल की अपेक्षा के बिना किया गया उपवास अनशन कहलाता है।
( चारित्रसार पृष्ठ 134/4)।
राजवार्तिक अध्याय 9/19,16/619/24
सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः (9/3) इत्यतः सम्यक ग्रहणमनुवर्त्तते, तेन दृष्टफलनिवृत्तिः कृता भवति सर्वत्रा
= `सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः' इस सूत्र में-से सम्यक् शब्द की अनुवृत्ति होती है। इसी `सम्यक्' पद की अनुवृत्ति आने से सर्वत्र (अनशन तप में भी) दृष्टफल निरपेक्षता का होना तपों में अनिवार्य है। इसलिए सभी तपों में ऐहलौकिक फल की कामना नहीं होनी चाहिए।
• अधिक से अधिक उपवास करने की सीमा - देखें प्रोषधोपवास ।
पुराणकोष से
प्रथम बाह्य तप । महापुराण 18.67-68, संयम के पालन, ध्यान की सिद्धि, रागनिवारण और कर्मविनाशन के लिए आहार का त्याग करना ।
महापुराण 6.142, हरिवंशपुराण - 64.21, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.32-41 देखें तप