निर्माण: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<ol> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> निर्माण नामकर्म सामान्य </strong></span><br>स.सि./८/११/३८९/१० <span class="SanskritText">यन्निमित्तात्परिनिष्पत्तिस्तन्निर्माणम् । निर्मीयतेऽनेनेति निर्माणम् । </span>=<span class="HindiText">जिसके निमित्त से शरीर के अंगोपांग की रचना होती है, वह निर्माण नामकर्म है। निर्माण शब्द का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है–जिसके द्वारा रचना की जाती है वह निर्माण है। (रा.वा./८/११/५/५७६/२१); (गो.क./जी.प्र./३३/३०/११)। </span><br>ध.६/१,९-१,२८/३<span class="SanskritText"> नियतं मानं निमानं। </span>=<span class="HindiText">नियत मान को निर्माण कहते हैं। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> निर्माण नामकर्म के भेद व उनके लक्षण</strong></span><br> | |||
स.सि./८/११/३८९/११ <span class="SanskritText">तद् द्विविधं–स्थाननिर्माणं प्रमाणनिर्माणं चेति। तज्जाति नामोदयापेक्षं चक्षुरादीनां स्थानं प्रमाणं च निर्वर्तयति। </span>=<span class="HindiText">वह दो प्रकार का है–स्थाननिर्माण और प्रमाणनिर्माण। उस उस जाति नामकर्म के अनुसार चक्षु आदि अवयवों या अंगोपांगों के स्थान व प्रमाण की रचना करने वाला स्थान व प्रमाण नामकर्म है। </span>(रा.वा./८/११/५/५७६/२२); (ध.१३/५,५,१०१/३६६/६); (गो.क./जी.प्र./३३/३०/१९)। ध.६/१,९-१,२८/६६/३<span class="PrakritText"> तं दुविहं पमाणणिमिणं संठाणणिमिणमिदि। जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं दो वि णिमिणाणि होंति, तस्सकम्मस्स णिमिणमिदि सण्णा। जदि पमाणणिमिणणामकम्मं ण होज्ज, तो जंघा-बाहु-सिर-णासियादीणं वित्थारायामा लोयंतविसप्पिणो होज्ज। ण चेवं, अणुवलंभा। तदो कालमस्सिदूण जाइं च जीवाणं पमाणणिव्वत्तयं कम्मं पमाणणिमिणं णाम। जदि संठाणणिमिणकम्मं णाम ण होज्ज, तो अंगोवगं-पच्चंगाणि संकर-वदियरसरूवेण होज्ज। ण च एवं, अणुवलंभा। तदो कण्ण-णयण-णासिया-दोणं सजादि अणुरूवेग अप्पप्पणो ट्ठाणे जं णियामयं तं संठाणणिमिणमिदि।</span> =<span class="HindiText">वह दो प्रकार का है–प्रमाणनिर्माण और संस्थाननिर्माण। जिस कर्म के उदय से जीवों के दोनों ही प्रकार के निर्माण होते हैं, उस कर्म की ‘निर्माण’ यह संज्ञा है। यह प्रमाणनिर्माण नामकर्म न हो, तो जंघा, बाहु, शिर और नासिका आदि का विस्तार और आयाम लोक के अन्त तक फैलने वाले हो जावेंगे। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा पाया नहीं जाता है। इसलिए काल को और जाति को आश्रय करके जीवों के प्रमाण को निर्माण करने वाला प्रमाण-निर्माण नामकर्म है। यदि संस्थाननिर्माण नामकर्म न हो तो, अंग, उपंग और प्रत्यंग संकर और व्यतिकर स्वरूप हो जावेंगे अर्थात् नाक के स्थान पर ही आख आदि भी बन जायेंगी अथवा नाक के स्थान पर आख और मस्तक पर मुह लग जायेगा। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा पाया नहीं जाता है। इसलिए कान, आख, नाक आदि अंगों का अपनी जाति के अनुरूप अपने स्थान पर रचने वाला जो नियामक कर्म है, वह संस्थाननिर्माण नामकर्म कहलाता है। </span></li> | |||
</ol> | |||
<ul> | |||
<li><span class="HindiText"><strong> निर्माण प्रकृति की बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणाए–दे०वह वह नाम</strong></span></li> | |||
</ul> | |||
[[निर्मल | Previous Page]] | |||
[[निर्माणराज | Next Page]] | |||
[[Category:न]] | |||
Revision as of 17:16, 25 December 2013
- निर्माण नामकर्म सामान्य
स.सि./८/११/३८९/१० यन्निमित्तात्परिनिष्पत्तिस्तन्निर्माणम् । निर्मीयतेऽनेनेति निर्माणम् । =जिसके निमित्त से शरीर के अंगोपांग की रचना होती है, वह निर्माण नामकर्म है। निर्माण शब्द का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है–जिसके द्वारा रचना की जाती है वह निर्माण है। (रा.वा./८/११/५/५७६/२१); (गो.क./जी.प्र./३३/३०/११)।
ध.६/१,९-१,२८/३ नियतं मानं निमानं। =नियत मान को निर्माण कहते हैं। - निर्माण नामकर्म के भेद व उनके लक्षण
स.सि./८/११/३८९/११ तद् द्विविधं–स्थाननिर्माणं प्रमाणनिर्माणं चेति। तज्जाति नामोदयापेक्षं चक्षुरादीनां स्थानं प्रमाणं च निर्वर्तयति। =वह दो प्रकार का है–स्थाननिर्माण और प्रमाणनिर्माण। उस उस जाति नामकर्म के अनुसार चक्षु आदि अवयवों या अंगोपांगों के स्थान व प्रमाण की रचना करने वाला स्थान व प्रमाण नामकर्म है। (रा.वा./८/११/५/५७६/२२); (ध.१३/५,५,१०१/३६६/६); (गो.क./जी.प्र./३३/३०/१९)। ध.६/१,९-१,२८/६६/३ तं दुविहं पमाणणिमिणं संठाणणिमिणमिदि। जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं दो वि णिमिणाणि होंति, तस्सकम्मस्स णिमिणमिदि सण्णा। जदि पमाणणिमिणणामकम्मं ण होज्ज, तो जंघा-बाहु-सिर-णासियादीणं वित्थारायामा लोयंतविसप्पिणो होज्ज। ण चेवं, अणुवलंभा। तदो कालमस्सिदूण जाइं च जीवाणं पमाणणिव्वत्तयं कम्मं पमाणणिमिणं णाम। जदि संठाणणिमिणकम्मं णाम ण होज्ज, तो अंगोवगं-पच्चंगाणि संकर-वदियरसरूवेण होज्ज। ण च एवं, अणुवलंभा। तदो कण्ण-णयण-णासिया-दोणं सजादि अणुरूवेग अप्पप्पणो ट्ठाणे जं णियामयं तं संठाणणिमिणमिदि। =वह दो प्रकार का है–प्रमाणनिर्माण और संस्थाननिर्माण। जिस कर्म के उदय से जीवों के दोनों ही प्रकार के निर्माण होते हैं, उस कर्म की ‘निर्माण’ यह संज्ञा है। यह प्रमाणनिर्माण नामकर्म न हो, तो जंघा, बाहु, शिर और नासिका आदि का विस्तार और आयाम लोक के अन्त तक फैलने वाले हो जावेंगे। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा पाया नहीं जाता है। इसलिए काल को और जाति को आश्रय करके जीवों के प्रमाण को निर्माण करने वाला प्रमाण-निर्माण नामकर्म है। यदि संस्थाननिर्माण नामकर्म न हो तो, अंग, उपंग और प्रत्यंग संकर और व्यतिकर स्वरूप हो जावेंगे अर्थात् नाक के स्थान पर ही आख आदि भी बन जायेंगी अथवा नाक के स्थान पर आख और मस्तक पर मुह लग जायेगा। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा पाया नहीं जाता है। इसलिए कान, आख, नाक आदि अंगों का अपनी जाति के अनुरूप अपने स्थान पर रचने वाला जो नियामक कर्म है, वह संस्थाननिर्माण नामकर्म कहलाता है।
- निर्माण प्रकृति की बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणाए–दे०वह वह नाम