पदस्थध्यान: Difference between revisions
From जैनकोष
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1">पदस्थध्यान का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
द्र.सं./टी./४८/२०५ में उद्धृत - <span class="SanskritText">पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं।</span> = <span class="HindiText">मन्त्र वाक्यों में जो स्थित है वह ‘पदस्थध्यान’ है। (प.प्र./टी./१/६/६ पर उद्धृत); (भा.पा./टी./८६/२३६ पर उद्धृत)। </span><br /> | द्र.सं./टी./४८/२०५ में उद्धृत - <span class="SanskritText">पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं।</span> = <span class="HindiText">मन्त्र वाक्यों में जो स्थित है वह ‘पदस्थध्यान’ है। (प.प्र./टी./१/६/६ पर उद्धृत); (भा.पा./टी./८६/२३६ पर उद्धृत)। </span><br /> | ||
ज्ञा./३८/१ <span class="SanskritGatha">पदान्यवलम्व्य पुण्यानि योगिभिर्यद्विधीयते। तत्पदस्थं मतं ध्यानं विचित्रनयपारगैः। १।</span> = <span class="HindiText">जिसको योगीश्वर पवित्र मन्त्रों के अक्षर स्वरूप पदों का अवलम्बन करके चिन्तवन करते हैं, उसकेा नयों के पार पहुँचने वाले योगीश्वरों ने पदस्थ कहा है। १। </span><br /> | ज्ञा./३८/१ <span class="SanskritGatha">पदान्यवलम्व्य पुण्यानि योगिभिर्यद्विधीयते। तत्पदस्थं मतं ध्यानं विचित्रनयपारगैः। १।</span> = <span class="HindiText">जिसको योगीश्वर पवित्र मन्त्रों के अक्षर स्वरूप पदों का अवलम्बन करके चिन्तवन करते हैं, उसकेा नयों के पार पहुँचने वाले योगीश्वरों ने पदस्थ कहा है। १। </span><br /> | ||
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<strong>नोट </strong>- पंचपरमेष्ठी रूप ध्येय। दे०-ध्येय। <br /> | <strong>नोट </strong>- पंचपरमेष्ठी रूप ध्येय। दे०-ध्येय। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2">पदस्थ ध्यान के योग्य मूलमन्त्रों का निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">एकाक्षरी मन्त्र</strong>- | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">दो अक्षरीमन्त्र- </strong> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">चार अक्षरी मन्त्र-</strong>‘अरहंत’ (ज्ञा./३८/५१) (द्र.सं./टी./४९)। </li> | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">चार अक्षरी मन्त्र-</strong>‘अरहंत’ (ज्ञा./३८/५१) (द्र.सं./टी./४९)। </li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">पंचाक्षरी मन्त्र-</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">छः अक्षरी मन्त्र-</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6">सप्ताक्षरी मन्त्र-</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">अष्टाक्षरी मन्त्र-</strong> </span><span class="SanskritText">‘नमोऽर्हत्परमेष्ठिने’ </span><span class="HindiText">(म.पु./२१/२३४) </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8">१३ अक्षरी मन्त्र-</strong> </span><span class="SanskritText">अर्हतसिद्धसयोगकेवली स्वाहा </span><span class="HindiText">(ज्ञा./३८/५८)। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9">१६ अक्षरी मन्त्र-</strong> </span><span class="SanskritText">‘अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधुभ्यो नमः’</span><span class="HindiText"> (म.पु./२१/२३५); (ज्ञा./३८/४८); (द्र.सं./टी./४९)। </span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10"> ३५ अक्षरी मन्त्र -</strong> <span class="PrakritText">‘णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं’</span> (द्र.सं./टी./४९)। <br /> | <li class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10"> ३५ अक्षरी मन्त्र -</strong> <span class="PrakritText">‘णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं’</span> (द्र.सं./टी./४९)। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3">पदस्थध्यान के योग्य अन्य मन्त्रों का निर्देश</strong> </span><br /> | ||
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<li><span class="SanskritText">‘ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं नमः’</span><span class="HindiText"> (ज्ञा./३८/६०)। </span></li> | <li><span class="SanskritText">‘ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं नमः’</span><span class="HindiText"> (ज्ञा./३८/६०)। </span></li> | ||
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<li><span class="PrakritText"> ‘ॐ जोग्गे मग्गे तच्चे भूदे भव्वे भविस्से अक्खे पक्खे जिणपारिस्से स्वाहा’ </span><span class="HindiText">(ज्ञा./३८/९१)। </span></li> | <li><span class="PrakritText"> ‘ॐ जोग्गे मग्गे तच्चे भूदे भव्वे भविस्से अक्खे पक्खे जिणपारिस्से स्वाहा’ </span><span class="HindiText">(ज्ञा./३८/९१)। </span></li> | ||
<li><span class="SanskritText">‘ॐ ह्रीं स्वर्हं नमो नमोऽर्हंताणं ह्रीं नमः’</span><span class="HindiText"> (ज्ञा./३८/९१)। </span></li> | <li><span class="SanskritText">‘ॐ ह्रीं स्वर्हं नमो नमोऽर्हंताणं ह्रीं नमः’</span><span class="HindiText"> (ज्ञा./३८/९१)। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> पापभक्षिणी मन्त्र - </span><span class="SanskritText">‘ॐ अर्हन्मुखकमलवासिनी पापात्मक्षयकरि-श्रुतज्ञानज्वालासहस्रप्रज्वलिते सरस्वति मत्पापं हन हन दह दह क्षां क्षीं क्षुं क्षौं क्षः क्षीरवरधवले अमृतसंभवे वं वं हूं हूं स्वाहा।’ </span><span class="HindiText">(ज्ञा./३८/१०४)। <br /> | ||
ज्ञा./३८/१११ इसी प्रकार अन्य भी अनेकों मन्त्र होते हैं, जिन्हें द्वादशांग से जानना चाहिए। <br /> | ज्ञा./३८/१११ इसी प्रकार अन्य भी अनेकों मन्त्र होते हैं, जिन्हें द्वादशांग से जानना चाहिए। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4">मूल मन्त्रों की कमलों में स्थापना विधि</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="5" id="5">ध्येयभूत वर्णमातृका व उसकी कमलों में स्थापना विधि</strong> <br /> | ||
ज्ञा./३८/२ अकारादि १६ स्वर और ककारादि ३३ व्यंजनपूर्ण मातृका हैं। (इनमें ‘अ’ या ‘स्वर’ ये दोनों तो १६ स्वरों के प्रतिनिधि हैं। क, च, ट, त, प, ये पाँच अक्षर कवर्गादि पाँच वणो के प्रतिनिधि हैं। ‘या’ और ‘श’ ये दोनों क्रम से य,र,ल,व चतुष्क और श,ष,स,ह चतुष्क के प्रतिनिधि हैं। | ज्ञा./३८/२ अकारादि १६ स्वर और ककारादि ३३ व्यंजनपूर्ण मातृका हैं। (इनमें ‘अ’ या ‘स्वर’ ये दोनों तो १६ स्वरों के प्रतिनिधि हैं। क, च, ट, त, प, ये पाँच अक्षर कवर्गादि पाँच वणो के प्रतिनिधि हैं। ‘या’ और ‘श’ ये दोनों क्रम से य,र,ल,व चतुष्क और श,ष,स,ह चतुष्क के प्रतिनिधि हैं। | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="6" id="6">मन्त्रों व कमलों की शरीर के अंगों में स्थापना</strong> <br /> | ||
देखें - [[ ध्यान#3.3 | ध्यान / ३ / ३ ]](शरीर में ध्यान के आश्रयभूत १० स्थान हैं - नेत्र, कान, नासिका का अग्रभाग, ललाट, मुख, नाभि, मस्तक, हृदय, तालु और भौंहें। इनमें से किसी एक या अधिक स्थानों में अपने ध्येय को स्थापित करना चाहिए। यथा -</span><br /> | देखें - [[ ध्यान#3.3 | ध्यान / ३ / ३ ]](शरीर में ध्यान के आश्रयभूत १० स्थान हैं - नेत्र, कान, नासिका का अग्रभाग, ललाट, मुख, नाभि, मस्तक, हृदय, तालु और भौंहें। इनमें से किसी एक या अधिक स्थानों में अपने ध्येय को स्थापित करना चाहिए। यथा -</span><br /> | ||
ज्ञा./३८/१०८-१०९<span class="SanskritText"> नाभिपङ्कजसंलीनमवर्णं विश्वेतोमुखम्। १०८। सिवर्णं मस्तकाम्भोजे साकारं मुखपङ्कजे। आकारं कण्ठकञ्जस्थे स्मरोंकारं हृदि स्थितम्। १०९।</span> =<span class="HindiText"> पंचाक्षरी मन्त्र के ‘अ’ को नाभिकमल में ‘सि’ को मस्तक कमल में, ‘आ’ को कण्ठस्थ कमल में, ‘उ’ को हृदयकमल में, और ‘सा’ को मुखस्थ कमल में स्थापित करें। </span><br /> | ज्ञा./३८/१०८-१०९<span class="SanskritText"> नाभिपङ्कजसंलीनमवर्णं विश्वेतोमुखम्। १०८। सिवर्णं मस्तकाम्भोजे साकारं मुखपङ्कजे। आकारं कण्ठकञ्जस्थे स्मरोंकारं हृदि स्थितम्। १०९।</span> =<span class="HindiText"> पंचाक्षरी मन्त्र के ‘अ’ को नाभिकमल में ‘सि’ को मस्तक कमल में, ‘आ’ को कण्ठस्थ कमल में, ‘उ’ को हृदयकमल में, और ‘सा’ को मुखस्थ कमल में स्थापित करें। </span><br /> | ||
त.अनु./१०४<span class="SanskritText"> सप्ताक्षरं महामन्त्रं मुख-रन्धेरषु सप्तसु। गुरूपदेशतो ध्याये-दिच्छन् दूरश्रवादिकम्। १०४। </span>= <span class="HindiText">सप्ताक्षरी मन्त्र (णमो अरहंताणं) के अक्षरों को क्रम से दोनों आँखों, दोनों कानों, नासिका के दोनों छिद्रों व जिह्वा इन सात स्थानों में स्थापित करें। <br /> | त.अनु./१०४<span class="SanskritText"> सप्ताक्षरं महामन्त्रं मुख-रन्धेरषु सप्तसु। गुरूपदेशतो ध्याये-दिच्छन् दूरश्रवादिकम्। १०४। </span>= <span class="HindiText">सप्ताक्षरी मन्त्र (णमो अरहंताणं) के अक्षरों को क्रम से दोनों आँखों, दोनों कानों, नासिका के दोनों छिद्रों व जिह्वा इन सात स्थानों में स्थापित करें। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="7" id="7">मन्त्रों व वर्णमातृका की ध्यान विधि</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="7.1" id="7.1">अनाहत मन्त्र (‘र्हं’) की ध्यान विधि</strong> </span><br /> | ||
ज्ञा./३८/१०, १६-२१, २८<span class="SanskritText"> कनककमलगर्भे कर्णिकायां निषण्णं विगतमल-कलङ्कं सान्द्रचन्द्रांशुगौरम्। गगनमनुसरन्तं संचरन्तं हरित्सु स्मर जिनवरकल्पं मन्त्रराजं यतीन्द्र। १०। स्फुरन्तं भ्रलतामध्ये विशन्त वदनाम्बुजे। तालुरन्धेरण गच्छन्तं स्रवन्तममृताम्बुभिः। १६। स्फुरन्तं नेत्रपत्रेशु कुर्वन्तमलके स्थितिम्। भ्रमन्तं ज्योतिषां चक्रे स्पर्द्धमानं सितांशुना। १७। संचरन्तं दिशामास्ये प्रोच्छलन्तं नभस्तले। छेदयन्तं कलङ्कोघं स्फोटयन्तं भवभ्रमस्। १८। अनन्य-शरणः साक्षात्तत्संलीनैकमानसः। तथा स्मरत्यसौ ध्यानी यथा स्वप्नेऽपि न स्खलेत। २०। इति मत्वा स्थिरीभूतं सर्वावस्थासु सर्वथा। नासाग्रे निश्चलं धत्ते यदि वा भ्रूलतान्तरे। २१। क्रमात्प्रच्याव्य लक्ष्येभ्यस्ततोऽलक्ष्ये स्थिरं मनः। दधतोऽस्य स्फुरत्यन्तर्ज्योतिरत्यक्षमक्षयम्। २८। </span>= <span class="HindiText">हे मुनीन्द्र! सुवर्णमय कमल के मध्य में कर्णिका पर विराजमान, मल तथा कलङ्क से रहित, शरद्-ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा की किरणों के समान गौरवर्ण के धारक आकाश में गमन करते हुए तथा दिशाओं में व्याप्त होते हुए ऐसे श्री जिनेन्द्र के सदृश इस मन्त्रराज का स्मरण करें। १०। धैर्य का धारक योगी कुम्भक प्राणायाम से इस मन्त्रराज को भौंह की लताओं में स्फुरायमान होता हुआ, मुख कमल में प्रवेश करता हुआ, तलुआ के छिद्र से गमन करता हुआ तथा अमृतमय जल से झरता हुआ। १६। नेत्र की पलकों पर स्फुरायमान होता हुआ, केशों में स्थिति करता तथा ज्योतिषियों के समूह में भ्रमता हुआ, चन्द्रमा के साथ स्पर्द्धा करता हुआ। १७। दिशाओं में संचरता हुआ, आकाश में उछलता हुआ, कलंक के समूह को छेदता हुआ, संसार के भ्रम को दूर करता हुआ। १८। तथा परम स्थान को (मोक्षस्थान को) प्राप्त करता हुआ, मोक्षलक्ष्मी से मिलाप करता हुआ ध्यावै। १९। ध्यान करनेवाला इस मन्त्राधिप को अन्य किसी की शरण न लेकर, इस ही में साक्षात् तल्लीन मन करके, स्वप्न में भी इस मन्त्र में च्युत न हो ऐसा दृढ़ होकर ध्यावै। २०। ऐसे पूर्वोक्त प्रकार महामन्त्र के ध्यान के विधान को जानकर मुनि समस्त अवस्थाओं में स्थिर स्वरूप सर्वथा नासिका के अग्रभाग में अथवा भौंहलता के मध्य में इसको निश्चल धारण करैं। २१। तत्पश्चात क्रम से (लखने योग्य वस्तुओं से) छुड़ाकर अलक्ष्य में अपने मन को धारण करते हुए ध्यानी के अन्तरंग में अक्षय तथा इन्द्रियों के अगोचर ज्योति अर्थात् ज्ञान प्रकट होता है। २८। (ज्ञा./२९/८२/८३) (विशेष देखें - [[ ज्ञा | ज्ञा ]]./सर्ग २९)। <br /> | ज्ञा./३८/१०, १६-२१, २८<span class="SanskritText"> कनककमलगर्भे कर्णिकायां निषण्णं विगतमल-कलङ्कं सान्द्रचन्द्रांशुगौरम्। गगनमनुसरन्तं संचरन्तं हरित्सु स्मर जिनवरकल्पं मन्त्रराजं यतीन्द्र। १०। स्फुरन्तं भ्रलतामध्ये विशन्त वदनाम्बुजे। तालुरन्धेरण गच्छन्तं स्रवन्तममृताम्बुभिः। १६। स्फुरन्तं नेत्रपत्रेशु कुर्वन्तमलके स्थितिम्। भ्रमन्तं ज्योतिषां चक्रे स्पर्द्धमानं सितांशुना। १७। संचरन्तं दिशामास्ये प्रोच्छलन्तं नभस्तले। छेदयन्तं कलङ्कोघं स्फोटयन्तं भवभ्रमस्। १८। अनन्य-शरणः साक्षात्तत्संलीनैकमानसः। तथा स्मरत्यसौ ध्यानी यथा स्वप्नेऽपि न स्खलेत। २०। इति मत्वा स्थिरीभूतं सर्वावस्थासु सर्वथा। नासाग्रे निश्चलं धत्ते यदि वा भ्रूलतान्तरे। २१। क्रमात्प्रच्याव्य लक्ष्येभ्यस्ततोऽलक्ष्ये स्थिरं मनः। दधतोऽस्य स्फुरत्यन्तर्ज्योतिरत्यक्षमक्षयम्। २८। </span>= <span class="HindiText">हे मुनीन्द्र! सुवर्णमय कमल के मध्य में कर्णिका पर विराजमान, मल तथा कलङ्क से रहित, शरद्-ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा की किरणों के समान गौरवर्ण के धारक आकाश में गमन करते हुए तथा दिशाओं में व्याप्त होते हुए ऐसे श्री जिनेन्द्र के सदृश इस मन्त्रराज का स्मरण करें। १०। धैर्य का धारक योगी कुम्भक प्राणायाम से इस मन्त्रराज को भौंह की लताओं में स्फुरायमान होता हुआ, मुख कमल में प्रवेश करता हुआ, तलुआ के छिद्र से गमन करता हुआ तथा अमृतमय जल से झरता हुआ। १६। नेत्र की पलकों पर स्फुरायमान होता हुआ, केशों में स्थिति करता तथा ज्योतिषियों के समूह में भ्रमता हुआ, चन्द्रमा के साथ स्पर्द्धा करता हुआ। १७। दिशाओं में संचरता हुआ, आकाश में उछलता हुआ, कलंक के समूह को छेदता हुआ, संसार के भ्रम को दूर करता हुआ। १८। तथा परम स्थान को (मोक्षस्थान को) प्राप्त करता हुआ, मोक्षलक्ष्मी से मिलाप करता हुआ ध्यावै। १९। ध्यान करनेवाला इस मन्त्राधिप को अन्य किसी की शरण न लेकर, इस ही में साक्षात् तल्लीन मन करके, स्वप्न में भी इस मन्त्र में च्युत न हो ऐसा दृढ़ होकर ध्यावै। २०। ऐसे पूर्वोक्त प्रकार महामन्त्र के ध्यान के विधान को जानकर मुनि समस्त अवस्थाओं में स्थिर स्वरूप सर्वथा नासिका के अग्रभाग में अथवा भौंहलता के मध्य में इसको निश्चल धारण करैं। २१। तत्पश्चात क्रम से (लखने योग्य वस्तुओं से) छुड़ाकर अलक्ष्य में अपने मन को धारण करते हुए ध्यानी के अन्तरंग में अक्षय तथा इन्द्रियों के अगोचर ज्योति अर्थात् ज्ञान प्रकट होता है। २८। (ज्ञा./२९/८२/८३) (विशेष देखें - [[ ज्ञा | ज्ञा ]]./सर्ग २९)। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="8" id="8">धूम ज्वाला आदि का दीखना</strong> </span><br /> | ||
ज्ञा./३८/७४-७७ <span class="SanskritGatha">ततो निरन्तराभ्यासान्मासैः षड्भिः स्थिराशयः। मुखरन्ध्रा-द्विनिर्यान्तीं धूमवर्तिं प्रपश्यति। ७४। ततः संवत्सरं यावत्तथैवाभ्यस्यते यदि। प्रपश्यति महाज्वालां निःसरन्तीं मुखोदरात्। ७५। ततोतिजात-संवेगो निर्वेदालम्बितो वशी। ध्यायन्पश्यत्यविश्रान्तं सर्वज्ञमुख-पङ्कजम्। ७६। अथाप्रतिहतानन्दप्रीणितात्मा जितश्रमः। श्रीमत्सर्वज्ञ-देवेशं प्रत्यक्षमिव वीक्षते। ७७। </span>= <span class="HindiText">तत्पश्चात् वह ध्यानी स्थिरचित्त होकर, निरन्तर अभ्यास करने पर छह महीने में अपने मुख से निकली हुई धूयें को वर्तिका देखता है। ७४। यदि एक वर्ष पर्यन्त उसी प्रकार अभ्यास करै तो मुख में से निकलती हुई महाग्नि की ज्वाला को देखता है। ७५। तत्पश्चात् अतिशय उत्पन्न हुआ है धर्मानुराग जिसके ऐसा वैराग्यवालंबित जितेन्द्रिय मुनि निरन्तर ध्यान करता-करता सर्वज्ञ के मुखकमल को देखता है। ७६। यहाँ से आगे वही ध्यानी अनिवारित आनन्द से तृप्त है आत्मा जिसका और जीता है दुख जिसने ऐसा होकर, श्रीमत्सर्वज्ञदेव को प्रत्यक्ष अवलोकन करता है। ७७। <br /> | ज्ञा./३८/७४-७७ <span class="SanskritGatha">ततो निरन्तराभ्यासान्मासैः षड्भिः स्थिराशयः। मुखरन्ध्रा-द्विनिर्यान्तीं धूमवर्तिं प्रपश्यति। ७४। ततः संवत्सरं यावत्तथैवाभ्यस्यते यदि। प्रपश्यति महाज्वालां निःसरन्तीं मुखोदरात्। ७५। ततोतिजात-संवेगो निर्वेदालम्बितो वशी। ध्यायन्पश्यत्यविश्रान्तं सर्वज्ञमुख-पङ्कजम्। ७६। अथाप्रतिहतानन्दप्रीणितात्मा जितश्रमः। श्रीमत्सर्वज्ञ-देवेशं प्रत्यक्षमिव वीक्षते। ७७। </span>= <span class="HindiText">तत्पश्चात् वह ध्यानी स्थिरचित्त होकर, निरन्तर अभ्यास करने पर छह महीने में अपने मुख से निकली हुई धूयें को वर्तिका देखता है। ७४। यदि एक वर्ष पर्यन्त उसी प्रकार अभ्यास करै तो मुख में से निकलती हुई महाग्नि की ज्वाला को देखता है। ७५। तत्पश्चात् अतिशय उत्पन्न हुआ है धर्मानुराग जिसके ऐसा वैराग्यवालंबित जितेन्द्रिय मुनि निरन्तर ध्यान करता-करता सर्वज्ञ के मुखकमल को देखता है। ७६। यहाँ से आगे वही ध्यानी अनिवारित आनन्द से तृप्त है आत्मा जिसका और जीता है दुख जिसने ऐसा होकर, श्रीमत्सर्वज्ञदेव को प्रत्यक्ष अवलोकन करता है। ७७। <br /> | ||
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Revision as of 15:11, 27 November 2023
स्वर व्यंजनादि के अक्षर या ‘ॐ ह्रीं’ आदि बीज मन्त्र अथवा पंचपरमेष्ठी के वाचक मन्त्र अथवा अन्य मन्त्रों को यथाविधि कमलों पर स्थापित करके अपने नाभि हृदय आदि स्थानों में चिन्तवन करना पदस्थ ध्यान है। इससे ध्याता का उपयोग स्थिर होता है और अभ्यास हो जाने पर अन्त में परमध्यान की सिद्धि होती है।
- पदस्थध्यान का लक्षण
द्र.सं./टी./४८/२०५ में उद्धृत - पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं। = मन्त्र वाक्यों में जो स्थित है वह ‘पदस्थध्यान’ है। (प.प्र./टी./१/६/६ पर उद्धृत); (भा.पा./टी./८६/२३६ पर उद्धृत)।
ज्ञा./३८/१ पदान्यवलम्व्य पुण्यानि योगिभिर्यद्विधीयते। तत्पदस्थं मतं ध्यानं विचित्रनयपारगैः। १। = जिसको योगीश्वर पवित्र मन्त्रों के अक्षर स्वरूप पदों का अवलम्बन करके चिन्तवन करते हैं, उसकेा नयों के पार पहुँचने वाले योगीश्वरों ने पदस्थ कहा है। १।
वसु. श्रा./४६४ जं झाइज्जइ उच्चरिऊण परमेट्ठिमंतपयममलं। एयक्खरादि विविहं पयत्थझाणं मुणेयव्वं। ४६४। = एक अक्षर को आदि लेकर अनेक प्रकार के पंच परमेष्ठी वाचक पवित्र मन्त्रपदों का उच्चारण करके जो ध्यान किया जाता है उसे पदस्थ ध्यान जानना चाहिए। ४६४। (गुण. श्रा./२३२) (द्र.सं.मू./४९/२०७)।
द्र.सं./टी./५०-५५ की पातनिका - ‘पदस्थध्यानध्येयभूतमर्हत्सर्वज्ञस्वरूपं दर्शयामीति।’ = पदस्थध्यान के ध्येय जो श्री अर्हत सर्वज्ञ हैं उनके स्वरूप को दिखलाता हूँ। (इसी प्रकार गाथा ५१ आदि की पातनिका में सिद्धादि परमेष्ठियों के लिए कही है।)
नोट - पंचपरमेष्ठी रूप ध्येय। दे०-ध्येय।
- पदस्थ ध्यान के योग्य मूलमन्त्रों का निर्देश
- एकाक्षरी मन्त्र-
- ‘अ’ (ज्ञा./३८/५३); (द्र.सं./टी. ४९)
- प्रणव मन्त्र ‘ॐ’ (ज्ञा./३८/३१); (द्र.सं./टी./४९)।
- अनाहत मन्त्र ‘र्हं’ (ज्ञा./३८/७-८)।
- माया वर्ण ‘ह्रीं’ (ज्ञा./३८/६७)।
- ‘भवीं’ (ज्ञा.३८/८१)।
- ‘स्त्रीं’ (ज्ञा./३८/९०)।
- दो अक्षरीमन्त्र-
- ‘अर्हं’ (म.पु./२१/२३१); (वसु.श्रा./४६५); (गुण. श्रा./२३३); ज्ञा. सा./21); (आत्मप्रबोध/११८-११९) (त.अनु./१०१)।
- ‘सिद्ध’ (ज्ञा/३८/५२) (द्र.सं./टी./४९)।
- चार अक्षरी मन्त्र-‘अरहंत’ (ज्ञा./३८/५१) (द्र.सं./टी./४९)।
- पंचाक्षरी मन्त्र-
- ‘अ. सि.आ. उ. सा.’ (वसु.श्रा./४६६); (गु. श्रा./२३४) (त. अनु./१०२); (द्र.सं./टी./४९)
- ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र; अ, सि, आ, उ, सा नमः (ज्ञा./३८/५५)।
- ‘णमो सिद्धाणं’ या ‘नमः सिद्धेभ्यः’ (म.पु./२१/२३३); (ज्ञा./३८/६२)।
- छः अक्षरी मन्त्र-
- ‘अरहंतसिद्ध’ (ज्ञा./३८/५०) (द्र.सं./टी./४९)।
- अर्हद्भ्यो नमः (म.पु./२१/२३२)।
- ‘ॐ नमो अर्हते’ (ज्ञा./३८/६३)।
- ‘अर्हद्भ्यःनमोѕस्तु’, ‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’ या ‘नमो अर्हत्सिद्धेभ्य:’ (त.अनु./भाषा/१०८)
- सप्ताक्षरी मन्त्र-
- ‘णमो अरहंताणं’ (ज्ञा./३८/४०, ६५, ८५); (त.अनु./१०४)।
- नमः सर्वसिद्धेभ्यः (ज्ञा./३८/११०)।
- अष्टाक्षरी मन्त्र- ‘नमोऽर्हत्परमेष्ठिने’ (म.पु./२१/२३४)
- १३ अक्षरी मन्त्र- अर्हतसिद्धसयोगकेवली स्वाहा (ज्ञा./३८/५८)।
- १६ अक्षरी मन्त्र- ‘अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधुभ्यो नमः’ (म.पु./२१/२३५); (ज्ञा./३८/४८); (द्र.सं./टी./४९)।
- ३५ अक्षरी मन्त्र - ‘णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं’ (द्र.सं./टी./४९)।
- एकाक्षरी मन्त्र-
- पदस्थध्यान के योग्य अन्य मन्त्रों का निर्देश
- ‘ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं नमः’ (ज्ञा./३८/६०)।
- ‘ह्रीं ॐ ॐ ह्रीं हंसः’ (ज्ञा./३८/८९)।
- ‘चत्तारि मंगलं। अरहन्तमंगलं सिद्धमंगलं। साहुमंगलं। केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा। अरहन्ता लोगुत्तमा। सिद्धा लोगुत्तमा। साहु लोगुत्तमा। केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि। अरहंते सरणं पव्वज्जामि। सिद्धेसरणं पव्वज्जामि। साहुसरणं पव्वज्जामि। केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि’ (ज्ञा./३८/५७)।
- ‘ॐ जोग्गे मग्गे तच्चे भूदे भव्वे भविस्से अक्खे पक्खे जिणपारिस्से स्वाहा’ (ज्ञा./३८/९१)।
- ‘ॐ ह्रीं स्वर्हं नमो नमोऽर्हंताणं ह्रीं नमः’ (ज्ञा./३८/९१)।
- पापभक्षिणी मन्त्र - ‘ॐ अर्हन्मुखकमलवासिनी पापात्मक्षयकरि-श्रुतज्ञानज्वालासहस्रप्रज्वलिते सरस्वति मत्पापं हन हन दह दह क्षां क्षीं क्षुं क्षौं क्षः क्षीरवरधवले अमृतसंभवे वं वं हूं हूं स्वाहा।’ (ज्ञा./३८/१०४)।
ज्ञा./३८/१११ इसी प्रकार अन्य भी अनेकों मन्त्र होते हैं, जिन्हें द्वादशांग से जानना चाहिए।
- मूल मन्त्रों की कमलों में स्थापना विधि
- सुवर्ण कमल की मध्य कर्णिका में अनाहत (र्हं) की स्थापना करके उसका स्मरण करना चाहिए। (ज्ञा./३८/१०)।
- चतुदल कमल की कर्णिका में ‘अ’ तथा चारों पत्तों पर क्रम से ‘सि.आ.उ.सा.’ की स्थापना करके पंचाक्षरी मन्त्र का चिन्तवन करें। (वसु.श्रा./४६६)
- अष्टदल कमल पर कर्णिका में ‘अ’ चारों दिशाओंवाले पत्तों पर ‘सि. आ.उ.सा.’ तथा विदिशाओंवाले पत्तों पर दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप के प्रतीक ‘द.ज्ञा.चा.त.’ की स्थापना करे। (वसु. श्रा./४६७-४६८) (गुण.श्रा./२३५-२३६)।
- अथवा इन सब वर्णों के स्थान पर णमो अरहन्ताणं आदि पूरे मन्त्र तथा सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः आदि पूरे नाम लिखे। (ज्ञा./३८/३९-४०)
- कर्णिका में ‘अर्हं’ तथा पत्र लेखाओं पर पंचणमोकार मन्त्र के वलय स्थापित करके चिन्तवन करें (वसु.श्रा./४७०-४७१); (गु.श्रा./२३८-२३९)।
- ध्येयभूत वर्णमातृका व उसकी कमलों में स्थापना विधि
ज्ञा./३८/२ अकारादि १६ स्वर और ककारादि ३३ व्यंजनपूर्ण मातृका हैं। (इनमें ‘अ’ या ‘स्वर’ ये दोनों तो १६ स्वरों के प्रतिनिधि हैं। क, च, ट, त, प, ये पाँच अक्षर कवर्गादि पाँच वणो के प्रतिनिधि हैं। ‘या’ और ‘श’ ये दोनों क्रम से य,र,ल,व चतुष्क और श,ष,स,ह चतुष्क के प्रतिनिधि हैं।- चतुदल कमल में १६ स्वरों के प्रतीक रूप से कर्णिका पर ‘अ’ और चारों पत्तों पर ‘इ,उ,ए,ओ’ की स्थापना करें। (त.अनु./१०३)
- अष्टदल कमल के पत्तों पर ‘य,र,ल,व,श, ष,स,ह’ इन आठ अक्षरों की स्थापना करें। (ज्ञा./३८/५)।
- कर्णिका पर ‘अर्हं’ और आठों पत्तों पर स्वर व व्यंजनों के प्रतीक रूप से ‘स्वर, क,च,ट,त,प,य,श’ इन आठ अक्षरों की स्थापना करें। (त.अनु./१०५-१०६)।
- 16दल कमल के पत्तों पर ‘अ,आ’ आदि १६ स्वरों की स्थापना करें। (ज्ञा./३८/३)
- 24दल कमल की कर्णिका तथा २४ पत्तों पर क्रम से ‘क’ से लेकर ‘म’ २५ वर्णों की स्थापना करें।(ज्ञा./३८/४)
- मन्त्रों व कमलों की शरीर के अंगों में स्थापना
देखें - ध्यान / ३ / ३ (शरीर में ध्यान के आश्रयभूत १० स्थान हैं - नेत्र, कान, नासिका का अग्रभाग, ललाट, मुख, नाभि, मस्तक, हृदय, तालु और भौंहें। इनमें से किसी एक या अधिक स्थानों में अपने ध्येय को स्थापित करना चाहिए। यथा -
ज्ञा./३८/१०८-१०९ नाभिपङ्कजसंलीनमवर्णं विश्वेतोमुखम्। १०८। सिवर्णं मस्तकाम्भोजे साकारं मुखपङ्कजे। आकारं कण्ठकञ्जस्थे स्मरोंकारं हृदि स्थितम्। १०९। = पंचाक्षरी मन्त्र के ‘अ’ को नाभिकमल में ‘सि’ को मस्तक कमल में, ‘आ’ को कण्ठस्थ कमल में, ‘उ’ को हृदयकमल में, और ‘सा’ को मुखस्थ कमल में स्थापित करें।
त.अनु./१०४ सप्ताक्षरं महामन्त्रं मुख-रन्धेरषु सप्तसु। गुरूपदेशतो ध्याये-दिच्छन् दूरश्रवादिकम्। १०४। = सप्ताक्षरी मन्त्र (णमो अरहंताणं) के अक्षरों को क्रम से दोनों आँखों, दोनों कानों, नासिका के दोनों छिद्रों व जिह्वा इन सात स्थानों में स्थापित करें।
- मन्त्रों व वर्णमातृका की ध्यान विधि
- अनाहत मन्त्र (‘र्हं’) की ध्यान विधि
ज्ञा./३८/१०, १६-२१, २८ कनककमलगर्भे कर्णिकायां निषण्णं विगतमल-कलङ्कं सान्द्रचन्द्रांशुगौरम्। गगनमनुसरन्तं संचरन्तं हरित्सु स्मर जिनवरकल्पं मन्त्रराजं यतीन्द्र। १०। स्फुरन्तं भ्रलतामध्ये विशन्त वदनाम्बुजे। तालुरन्धेरण गच्छन्तं स्रवन्तममृताम्बुभिः। १६। स्फुरन्तं नेत्रपत्रेशु कुर्वन्तमलके स्थितिम्। भ्रमन्तं ज्योतिषां चक्रे स्पर्द्धमानं सितांशुना। १७। संचरन्तं दिशामास्ये प्रोच्छलन्तं नभस्तले। छेदयन्तं कलङ्कोघं स्फोटयन्तं भवभ्रमस्। १८। अनन्य-शरणः साक्षात्तत्संलीनैकमानसः। तथा स्मरत्यसौ ध्यानी यथा स्वप्नेऽपि न स्खलेत। २०। इति मत्वा स्थिरीभूतं सर्वावस्थासु सर्वथा। नासाग्रे निश्चलं धत्ते यदि वा भ्रूलतान्तरे। २१। क्रमात्प्रच्याव्य लक्ष्येभ्यस्ततोऽलक्ष्ये स्थिरं मनः। दधतोऽस्य स्फुरत्यन्तर्ज्योतिरत्यक्षमक्षयम्। २८। = हे मुनीन्द्र! सुवर्णमय कमल के मध्य में कर्णिका पर विराजमान, मल तथा कलङ्क से रहित, शरद्-ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा की किरणों के समान गौरवर्ण के धारक आकाश में गमन करते हुए तथा दिशाओं में व्याप्त होते हुए ऐसे श्री जिनेन्द्र के सदृश इस मन्त्रराज का स्मरण करें। १०। धैर्य का धारक योगी कुम्भक प्राणायाम से इस मन्त्रराज को भौंह की लताओं में स्फुरायमान होता हुआ, मुख कमल में प्रवेश करता हुआ, तलुआ के छिद्र से गमन करता हुआ तथा अमृतमय जल से झरता हुआ। १६। नेत्र की पलकों पर स्फुरायमान होता हुआ, केशों में स्थिति करता तथा ज्योतिषियों के समूह में भ्रमता हुआ, चन्द्रमा के साथ स्पर्द्धा करता हुआ। १७। दिशाओं में संचरता हुआ, आकाश में उछलता हुआ, कलंक के समूह को छेदता हुआ, संसार के भ्रम को दूर करता हुआ। १८। तथा परम स्थान को (मोक्षस्थान को) प्राप्त करता हुआ, मोक्षलक्ष्मी से मिलाप करता हुआ ध्यावै। १९। ध्यान करनेवाला इस मन्त्राधिप को अन्य किसी की शरण न लेकर, इस ही में साक्षात् तल्लीन मन करके, स्वप्न में भी इस मन्त्र में च्युत न हो ऐसा दृढ़ होकर ध्यावै। २०। ऐसे पूर्वोक्त प्रकार महामन्त्र के ध्यान के विधान को जानकर मुनि समस्त अवस्थाओं में स्थिर स्वरूप सर्वथा नासिका के अग्रभाग में अथवा भौंहलता के मध्य में इसको निश्चल धारण करैं। २१। तत्पश्चात क्रम से (लखने योग्य वस्तुओं से) छुड़ाकर अलक्ष्य में अपने मन को धारण करते हुए ध्यानी के अन्तरंग में अक्षय तथा इन्द्रियों के अगोचर ज्योति अर्थात् ज्ञान प्रकट होता है। २८। (ज्ञा./२९/८२/८३) (विशेष देखें - ज्ञा ./सर्ग २९)।
- प्रणव मन्त्र की ध्यान विधि
ज्ञा./३८/३३-३५ हृत्कञ्जकर्णिकासीनं स्वरव्यञ्जनवेष्टितम्। स्फीतमत्यन्तदुर्द्धर्षं देवदैत्येन्द्रपूजितम्। ३३। प्रक्षरन्मूर्घ्निसंक्रान्तचन्द्रलेखामृतप्लुतम्। महाप्रभावसंपन्नं कर्मकक्षहुताशनम्। ३४। महातत्त्वं महाबीजं महामन्त्रं महत्पदम्। शरच्चन्द्रनिभं ध्यानी कुम्भकेन विचिन्तयेत्। ३५। = ध्यान करनेवाला संयमी हृदयकमल की कर्णिका में स्थिर और स्वर व्यञ्जन अक्षरों से बेढ़ा हुआ, उज्ज्वल, अत्यन्त दुर्धर्ष, देव और दैत्यों के इन्द्रों से पूजित तथा झरते हुए मस्तक में स्थित चन्द्रमा की (लेखा) रेखा के अमृत से आर्द्रित, महाप्रभाव सम्पन्न, कर्मरूपी वन को दग्ध करने के लिए अग्नि समान ऐसे इस महातत्त्व, महाबीज, महामन्त्र, महापदस्वरूप तथा शरद् के चन्द्रमा के समान गौर वर्ण के धारक ‘ओं’ को कुम्भक प्राणायाम के चिन्तवन करे। ३३-३५।
- मायाक्षर (ह्रीं) की ध्यान विधि
ज्ञा./३८/३८-७० स्फुरन्तमतिस्फीतं प्रभामण्डलमध्यगम्। संचरन्तं मुखाम्भोजे तिष्ठन्तं कर्णिकोपरि। ६८। भ्रमन्तं प्रतिपत्रेषु चरन्तं वियति क्षणे। छेदयन्तं मनोध्वान्तं स्रवन्तममृताम्बुभिः। ६९। व्रजन्तं तालुरन्ध्रेण स्फुरन्तं भ्रूलतान्तरे। ज्योतिर्मयमिवाचिन्त्यप्रभावं भावयेन्मुनिः। ७। = मायाबीज ‘ह्रीं’ अक्षर को स्फुरायमान होता हुआ, अत्यन्त उज्ज्वल प्रभामण्डल के मध्य प्राप्त हुआ, कभी पूर्वोक्त मुखस्थ कमल में संचरता हुआ तथा कभी-कभी उसकी कर्णिका के ऊपरि तिष्ठता हुआ तथा कभी-कभी उस कमल के आठों दलों पर फिरता हुआ तथा कभी-कभी क्षण भर में आकाश में चलता हुआ, मन के अज्ञान अन्धकार को दूर करता हुआ, अमृतमयी जल से चूता हुआ तथा तालुआ के छिद्र से गमन करता हुआ तथा भौंहों की लताओं में स्फुरायमान होता हुआ, ज्योतिर्मय के समान अचिन्त्य है प्रभाव जिसका ऐसे माया वर्ण का चिन्तवन करें।
- प्रणव, शून्य व अनाहत इन तीन अक्षरों की ध्यान विधि
ज्ञा./३८/८६-८७ यदत्र प्रणवं शून्यमनाहतमिति त्रयम्। एतदेव विदुः प्राज्ञास्त्रैलोक्यतिलकोत्तमम्। ८६। नासाप्रदेशसंलीनं कुर्वन्नत्यन्तनिर्मलम्। ध्याता ज्ञानमवाप्नोति प्राप्य पूर्वं गुणाष्टकम्। ८७। = प्रणव और शून्य तथा अनाहत से तीन अक्षर हैं, इनको बुद्धिमानों ने तीन लोक के तिलक के समान कहा है। ८६। इन तीनों को नासिका के अग्र भाग में अत्यन्त लीन करता हुआ ध्यानी अणिमा महिमा आदिक आठ ऋद्धियों को प्राप्त होकर, तत्पश्चात् अति निर्मल केवलज्ञान को प्राप्त होता है। ८७।
- आत्मा व अष्टाक्षरी मन्त्र की ध्यान विधि
ज्ञा./३८-९५-९८ दिग्दलाष्टकसंपूर्णे राजीवे सुप्रतिष्ठितम्। स्मरत्वात्मान-मत्यन्तस्फुरद्ग्रीष्मार्कभास्करम्। ९५। प्रणवाद्यस्य मन्त्रस्य पूर्वादिषु प्रदक्षिणम्। विचिन्तयति पत्रेषु वर्णैकैकमनुक्रमात्। ९६। अधिकृत्य छदं पूर्वं सर्वाशासंमुखः परम्। स्मरत्यष्टाक्षरं मन्त्रं सहस्रैकंशताधिकम्। ९७। प्रत्यहं प्रतिपत्रेषु महेन्द्राशाद्यनुक्रमात्। अष्टरात्रं जपेद्योगी प्रसन्नामलमानसः। ९८। = आठ दिशा सम्बन्धी आठ पत्रों से पूर्णकमल में भले प्रकार स्थापित और अत्यन्त स्फुरायमान ग्रीष्मऋतु के सूर्य के समान देदीप्यमान आत्मा को स्मरण करें। ९५। प्रणव है आदि में जिसके ऐसे मन्त्र को पूर्वादिक दिशाओं में प्रदक्षिणारूप एक-एक पत्र पर अनुक्रम से एक-एक अक्षर का चिन्तवन करै वे अक्षर ‘ॐ णमो अरहंताणं’ ये हैं। ९६। इनमें से प्रथम पत्र को मुख्य करके, सर्व दिशाओं के सम्मुख होकर इस अष्टाक्षर मन्त्र कौ ग्यारह सै बार चिन्तवन करै। ९७। इस प्रकार प्रतिदिन प्रत्येक पत्र में पूर्व दिशादिक के अनुक्रम से आठ रात्रि पर्यन्त प्रसन्न होकर जपैं। ९८।
- अन्त में आत्मा का ध्यान करे
ज्ञा./३८/११६ विलीनाशेषकर्माणं-स्फुरन्तमतिनिर्मलम्। स्वं ततः पुरुषा-कारंस्वाङ्गगर्भगतं स्मरेत्। ११६। = मन्त्र पदों के अभ्यास के पश्चात् विलय हुए हैं समस्त कर्म जिसमें ऐसे अतिनिर्मल स्फुरायमान अपने आत्मा को अपने शरीर में चिन्तवन करै। ११६।
- अनाहत मन्त्र (‘र्हं’) की ध्यान विधि
- धूम ज्वाला आदि का दीखना
ज्ञा./३८/७४-७७ ततो निरन्तराभ्यासान्मासैः षड्भिः स्थिराशयः। मुखरन्ध्रा-द्विनिर्यान्तीं धूमवर्तिं प्रपश्यति। ७४। ततः संवत्सरं यावत्तथैवाभ्यस्यते यदि। प्रपश्यति महाज्वालां निःसरन्तीं मुखोदरात्। ७५। ततोतिजात-संवेगो निर्वेदालम्बितो वशी। ध्यायन्पश्यत्यविश्रान्तं सर्वज्ञमुख-पङ्कजम्। ७६। अथाप्रतिहतानन्दप्रीणितात्मा जितश्रमः। श्रीमत्सर्वज्ञ-देवेशं प्रत्यक्षमिव वीक्षते। ७७। = तत्पश्चात् वह ध्यानी स्थिरचित्त होकर, निरन्तर अभ्यास करने पर छह महीने में अपने मुख से निकली हुई धूयें को वर्तिका देखता है। ७४। यदि एक वर्ष पर्यन्त उसी प्रकार अभ्यास करै तो मुख में से निकलती हुई महाग्नि की ज्वाला को देखता है। ७५। तत्पश्चात् अतिशय उत्पन्न हुआ है धर्मानुराग जिसके ऐसा वैराग्यवालंबित जितेन्द्रिय मुनि निरन्तर ध्यान करता-करता सर्वज्ञ के मुखकमल को देखता है। ७६। यहाँ से आगे वही ध्यानी अनिवारित आनन्द से तृप्त है आत्मा जिसका और जीता है दुख जिसने ऐसा होकर, श्रीमत्सर्वज्ञदेव को प्रत्यक्ष अवलोकन करता है। ७७।
- पदस्थ ध्यान का फल व महिमा
ज्ञा./३८/श्लोक नं. अनाहत ‘र्हं’ के ध्यान से इष्ट की सिद्धि। २२। ऋद्धि, ऐश्वर्य, आज्ञा की प्राप्ति तथा। २७। संसार का नाश होता है। ३०। प्रणव अक्षर का ध्यान गहरे सिन्दूर के वर्ण के समान अथवा मूँगे के समान किया जाय तो मिले हुए जगत् को क्षोभित करता है। ३६। तथा इस प्रणव को स्तम्भन के प्रयोग में सुवर्ण के समान पीला चिन्तवन करै और द्वेष के प्रयोग में कज्जल के समान काला तथा वश्यादि प्रयोग में रक्त वर्ण और कमो के नाश करने में चन्द्रमा के समान श्वेतवर्ण ध्यान करै। ३७। मायाक्षर ह्रीं के ध्यान से- लोकाग्र स्थान प्राप्त होता है। ८०। प्रणव, अनाहत व शून्य ये तीन अक्षर तिहूं लोक के तिलक हैं। ८६। इनके ध्यान से केवलज्ञान प्रगट होता है। ८८। ‘ॐ णमो अहरन्ताणं’ का आठ रात्रि ध्यान करने से क्रूर जीव जन्तु भयभीत हो अपना गर्व छोड़ देते हैं। ९९।