वासुपूज्य: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p>अवसर्पिणीकाल के दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एव बारहवें तीर्थंकर । ये जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में चंपानगर के राजा वसुपूज्य के पुत्र थे । इनका इक्ष्वाकुवंश और काश्यपगोत्र था । इनकी माँ जयावती थी । ये आषाढ़ कृष्ण षष्ठी के दिन शतभिष नक्षत्र में सोलह स्वप्नपूर्वक गर्भ में आये थे । फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी इनका जन्म दिन था । सौघर्मेंद्र ने सुमेरु पर्वत पर क्षीरसागर के जल से अभिषेक करके इनका ‘‘वासुपूज्य’’ नाम रखा था । ये सत्तर धनुष ऊँचे थे । बहत्तर लाख वर्ष की इनकी आयु थी । शरीर कुंकुम के समान कांतिमान था । कुमारकाल के अठारह लाख वर्ष बीत जाने पर संसार से विरक्त होकर जैसे ही इन्होंने तप करने के भाव किये थे कि लौकांतिक देवों ने आकर इनकी स्तुति की थी इन्होंने इनका दीक्षाकल्याणक मनाया था । पश्चात् पालकी पर बैठकर ये मनोहर नाम के उद्यान में गये थे । वहाँ एक दिन के उपवास का नियम लेकर फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में ये दीक्षित हुए । इनके साथ छ: सौ छिहत्तर राजाओं ने भी बड़े हर्ष से दीक्षा ली थी । राजा सुंदर ने इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे छद्मस्थ अवस्था का एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर ये मनोहर उद्यान में पुन: आये । वहाँ कदंब वृक्ष के नीचे माघशुक्ल द्वितीया के दिन सायंकाल के समय इन्हें केवलज्ञान हुआ । इनके संघ में धर्म को आदि लेकर छियासठ गणधर, बारह सौ पूर्वाधारी, उनतालीस हजार दो सौ शिक्षक, पाँच हजार चार सौ अवधिज्ञानी, छ: हजार केवलज्ञानी, दस हजार विक्रियाऋद्धिधारी, छ: हजार मन:पर्ययज्ञानी और चार हजार दो सौ वादी मुनि थे । एक लाख छ: हजार आर्यिकाएं, दो लाख श्रावक, चार लाख श्राविकाएँ और असंख्यात देव-देवियां तथा तिर्यंच थे । ये आर्यक्षेत्र में विहार करते हुए चंपा नगरी आये थे । यहाँ एक वर्ष रहे । एक मास की आयु शेष रह जाने पर योग निरोध कर रजतमालिका नदी के किनारे मनोहर-उद्यान में ये पर्यकासन से स्थिर हुए । भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में चौरानवे मुनियों के साथ इन्होंने मुक्ति प्राप्त की थी । दूसरे पूर्वभव में ये पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व मेरु संबंधी वत्सकावती देश के रत्नपुर नगर के राजा पद्मोत्तर तथा प्रथम पूर्वभव में महाशुक्र स्वर्ग में देव हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 2.130-134, 58.2-53, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#214|पद्मपुराण -5. 214]], </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 1.14, 60. | <div class="HindiText"> <p class="HindiText">अवसर्पिणीकाल के दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एव बारहवें तीर्थंकर । ये जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में चंपानगर के राजा वसुपूज्य के पुत्र थे । इनका इक्ष्वाकुवंश और काश्यपगोत्र था । इनकी माँ जयावती थी । ये आषाढ़ कृष्ण षष्ठी के दिन शतभिष नक्षत्र में सोलह स्वप्नपूर्वक गर्भ में आये थे । फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी इनका जन्म दिन था । सौघर्मेंद्र ने सुमेरु पर्वत पर क्षीरसागर के जल से अभिषेक करके इनका ‘‘वासुपूज्य’’ नाम रखा था । ये सत्तर धनुष ऊँचे थे । बहत्तर लाख वर्ष की इनकी आयु थी । शरीर कुंकुम के समान कांतिमान था । कुमारकाल के अठारह लाख वर्ष बीत जाने पर संसार से विरक्त होकर जैसे ही इन्होंने तप करने के भाव किये थे कि लौकांतिक देवों ने आकर इनकी स्तुति की थी इन्होंने इनका दीक्षाकल्याणक मनाया था । पश्चात् पालकी पर बैठकर ये मनोहर नाम के उद्यान में गये थे । वहाँ एक दिन के उपवास का नियम लेकर फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में ये दीक्षित हुए । इनके साथ छ: सौ छिहत्तर राजाओं ने भी बड़े हर्ष से दीक्षा ली थी । राजा सुंदर ने इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे छद्मस्थ अवस्था का एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर ये मनोहर उद्यान में पुन: आये । वहाँ कदंब वृक्ष के नीचे माघशुक्ल द्वितीया के दिन सायंकाल के समय इन्हें केवलज्ञान हुआ । इनके संघ में धर्म को आदि लेकर छियासठ गणधर, बारह सौ पूर्वाधारी, उनतालीस हजार दो सौ शिक्षक, पाँच हजार चार सौ अवधिज्ञानी, छ: हजार केवलज्ञानी, दस हजार विक्रियाऋद्धिधारी, छ: हजार मन:पर्ययज्ञानी और चार हजार दो सौ वादी मुनि थे । एक लाख छ: हजार आर्यिकाएं, दो लाख श्रावक, चार लाख श्राविकाएँ और असंख्यात देव-देवियां तथा तिर्यंच थे । ये आर्यक्षेत्र में विहार करते हुए चंपा नगरी आये थे । यहाँ एक वर्ष रहे । एक मास की आयु शेष रह जाने पर योग निरोध कर रजतमालिका नदी के किनारे मनोहर-उद्यान में ये पर्यकासन से स्थिर हुए । भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में चौरानवे मुनियों के साथ इन्होंने मुक्ति प्राप्त की थी । दूसरे पूर्वभव में ये पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व मेरु संबंधी वत्सकावती देश के रत्नपुर नगर के राजा पद्मोत्तर तथा प्रथम पूर्वभव में महाशुक्र स्वर्ग में देव हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 2.130-134, 58.2-53, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#214|पद्मपुराण -5. 214]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_1#14|हरिवंशपुराण - 1.14]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_1#60|हरिवंशपुराण - 1.60]]-398, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-106 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:21, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
सामान्य परिचय
तीर्थंकर क्रमांक | 12 |
---|---|
चिह्न | भैंसा |
पिता | वसुपूज्य |
माता | जयावती |
वंश | इक्ष्वाकु |
उत्सेध (ऊँचाई) | 70 धनुष |
वर्ण | रक्त |
आयु | 72 लाख वर्ष |
पूर्व भव सम्बंधित तथ्य
पूर्व मनुष्य भव | पद्मोत्तर |
---|---|
पूर्व मनुष्य भव में क्या थे | मण्डलेश्वर |
पूर्व मनुष्य भव के पिता | वज्रदन्त |
पूर्व मनुष्य भव का देश, नगर | पुष्कर.वि.रत्नसंचय |
पूर्व भव की देव पर्याय | महाशुक्र |
गर्भ-जन्म कल्याणक सम्बंधित तथ्य
गर्भ-तिथि | आषाढ़ कृष्ण 6 |
---|---|
गर्भ-नक्षत्र | शतभिषा |
गर्भ-काल | अन्तिम रात्रि |
जन्म तिथि | फाल्गुन कृष्ण 14 |
जन्म नगरी | चम्पा |
जन्म नक्षत्र | विशाखा |
योग | वारुण |
दीक्षा कल्याणक सम्बंधित तथ्य
वैराग्य कारण | जातिस्मरण |
---|---|
दीक्षा तिथि | फाल्गुन कृष्ण 14 |
दीक्षा नक्षत्र | विशाखा |
दीक्षा काल | अपराह्न |
दीक्षोपवास | एक उप. |
दीक्षा वन | मनोहर |
दीक्षा वृक्ष | पाटला |
सह दीक्षित | 606 |
ज्ञान कल्याणक सम्बंधित तथ्य
केवलज्ञान तिथि | माघ शुक्ल 2 |
---|---|
केवलज्ञान नक्षत्र | विशाखा |
केवलोत्पत्ति काल | अपराह्न |
केवल स्थान | चम्पापुरी |
केवल वन | मनोहर |
केवल वृक्ष | पाटल |
निर्वाण कल्याणक सम्बंधित तथ्य
योग निवृत्ति काल | 1 मास पूर्व |
---|---|
निर्वाण तिथि | फाल्गुन कृष्ण 5 |
निर्वाण नक्षत्र | अश्विनी |
निर्वाण काल | अपराह्न |
निर्वाण क्षेत्र | चम्पापुर |
समवशरण सम्बंधित तथ्य
समवसरण का विस्तार | 6 1/2 योजन |
---|---|
सह मुक्त | 601 |
पूर्वधारी | 1200 |
शिक्षक | 39200 |
अवधिज्ञानी | 5400 |
केवली | 6000 |
विक्रियाधारी | 10000 |
मन:पर्ययज्ञानी | 6000 |
वादी | 4200 |
सर्व ऋषि संख्या | 72000 |
गणधर संख्या | 66 |
मुख्य गणधर | मन्दिर |
आर्यिका संख्या | 106000 |
मुख्य आर्यिका | वरसेना |
श्रावक संख्या | 200000 |
मुख्य श्रोता | सवयम्भू |
श्राविका संख्या | 400000 |
यक्ष | शन्मुख |
यक्षिणी | गौरी |
आयु विभाग
आयु | 72 लाख वर्ष |
---|---|
कुमारकाल | 18 लाख वर्ष |
विशेषता | त्याग |
छद्मस्थ काल | 1 वर्ष* |
केवलिकाल | 5399999 वर्ष* |
तीर्थ संबंधी तथ्य
जन्मान्तरालकाल | 54 सागर +12 लाख वर्ष |
---|---|
केवलोत्पत्ति अन्तराल | 30 सागर 3900001 वर्ष |
निर्वाण अन्तराल | 30 सागर |
तीर्थकाल | (30 सागर +54 लाख वर्ष)–1 पल्य |
तीर्थ व्युच्छित्ति | 59/23 (टिप्पणी) |
शासन काल में हुए अन्य शलाका पुरुष | |
चक्रवर्ती | ❌ |
बलदेव | अचल |
नारायण | द्विपृष्ठ |
प्रतिनारायण | तारक |
रुद्र | अचल |
महापुराण/58/श्लोक –पूर्वभव नं. 2 में पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व मेरु संबंधी वत्सकावती देश में रत्नपुर नगर के राजा ‘पद्मोत्तर’ थे।2। पूर्व भव में महाशुक्र स्वर्ग में देव हुए।13। वर्तमानभव में 12वें तीर्थंकर हुए।–देखें तीर्थंकर - 5।
पुराणकोष से
अवसर्पिणीकाल के दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एव बारहवें तीर्थंकर । ये जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में चंपानगर के राजा वसुपूज्य के पुत्र थे । इनका इक्ष्वाकुवंश और काश्यपगोत्र था । इनकी माँ जयावती थी । ये आषाढ़ कृष्ण षष्ठी के दिन शतभिष नक्षत्र में सोलह स्वप्नपूर्वक गर्भ में आये थे । फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी इनका जन्म दिन था । सौघर्मेंद्र ने सुमेरु पर्वत पर क्षीरसागर के जल से अभिषेक करके इनका ‘‘वासुपूज्य’’ नाम रखा था । ये सत्तर धनुष ऊँचे थे । बहत्तर लाख वर्ष की इनकी आयु थी । शरीर कुंकुम के समान कांतिमान था । कुमारकाल के अठारह लाख वर्ष बीत जाने पर संसार से विरक्त होकर जैसे ही इन्होंने तप करने के भाव किये थे कि लौकांतिक देवों ने आकर इनकी स्तुति की थी इन्होंने इनका दीक्षाकल्याणक मनाया था । पश्चात् पालकी पर बैठकर ये मनोहर नाम के उद्यान में गये थे । वहाँ एक दिन के उपवास का नियम लेकर फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में ये दीक्षित हुए । इनके साथ छ: सौ छिहत्तर राजाओं ने भी बड़े हर्ष से दीक्षा ली थी । राजा सुंदर ने इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे छद्मस्थ अवस्था का एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर ये मनोहर उद्यान में पुन: आये । वहाँ कदंब वृक्ष के नीचे माघशुक्ल द्वितीया के दिन सायंकाल के समय इन्हें केवलज्ञान हुआ । इनके संघ में धर्म को आदि लेकर छियासठ गणधर, बारह सौ पूर्वाधारी, उनतालीस हजार दो सौ शिक्षक, पाँच हजार चार सौ अवधिज्ञानी, छ: हजार केवलज्ञानी, दस हजार विक्रियाऋद्धिधारी, छ: हजार मन:पर्ययज्ञानी और चार हजार दो सौ वादी मुनि थे । एक लाख छ: हजार आर्यिकाएं, दो लाख श्रावक, चार लाख श्राविकाएँ और असंख्यात देव-देवियां तथा तिर्यंच थे । ये आर्यक्षेत्र में विहार करते हुए चंपा नगरी आये थे । यहाँ एक वर्ष रहे । एक मास की आयु शेष रह जाने पर योग निरोध कर रजतमालिका नदी के किनारे मनोहर-उद्यान में ये पर्यकासन से स्थिर हुए । भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में चौरानवे मुनियों के साथ इन्होंने मुक्ति प्राप्त की थी । दूसरे पूर्वभव में ये पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व मेरु संबंधी वत्सकावती देश के रत्नपुर नगर के राजा पद्मोत्तर तथा प्रथम पूर्वभव में महाशुक्र स्वर्ग में देव हुए थे । महापुराण 2.130-134, 58.2-53, पद्मपुराण -5. 214, हरिवंशपुराण - 1.14,हरिवंशपुराण - 1.60-398, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-106