विनय - भेद व लक्षण: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> विनय सामान्य का लक्षण </strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/9/20/439/7 <span class="SanskritText">पूज्येष्वादरो विनयः।</span> = <span class="HindiText">पूज्य पुरुषों का आदर करना विनय तप है। </span><br /> | सर्वार्थसिद्धि/9/20/439/7 <span class="SanskritText">पूज्येष्वादरो विनयः।</span> = <span class="HindiText">पूज्य पुरुषों का आदर करना विनय तप है। </span><br /> | ||
राजवार्तिक/6/24/2/529/17 <span class="SanskritText">सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधकेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्त्या सत्कार आदरः कषा-यनिवृत्तिर्वा विनयसंपन्नता। </span>= <span class="HindiText">मोक्ष के साधनभूत सम्यग्ज्ञानादिक में तथा उनके साधक गुरु आदिकों में अपनी योग्य रीति से सत्कार आदर आदि करना तथा कषाय की निवृत्ति करना विनयसम्पन्नता है। ( सर्वार्थसिद्धि/6/24/338/7 ); ( चारित्रसार/53/1 ); ( भावपाहुड़ टीका/77/221/5 )। </span><br /> | राजवार्तिक/6/24/2/529/17 <span class="SanskritText">सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधकेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्त्या सत्कार आदरः कषा-यनिवृत्तिर्वा विनयसंपन्नता। </span>= <span class="HindiText">मोक्ष के साधनभूत सम्यग्ज्ञानादिक में तथा उनके साधक गुरु आदिकों में अपनी योग्य रीति से सत्कार आदर आदि करना तथा कषाय की निवृत्ति करना विनयसम्पन्नता है। ( सर्वार्थसिद्धि/6/24/338/7 ); ( चारित्रसार/53/1 ); ( भावपाहुड़ टीका/77/221/5 )। </span><br /> | ||
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सागार धर्मामृत/7/35 <span class="SanskritGatha"> सुदृग्धीवृत्ततपसा मुमुक्षेर्निर्मलीकृतौ। यत्नो विनय आचारो वीर्याच्छुद्धेषु तु।35।</span> = <span class="HindiText">मुमुक्षुजन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र व सम्यक् तप के दोष दूर करने के लिए जो कुछ प्रयत्न करते हैं, उसको विनय कहते हैं और इस प्रयत्न में शक्ति को न छिपा कर शक्ति अनुसार उन्हें करते रहना विनयाचार है। <br /> | सागार धर्मामृत/7/35 <span class="SanskritGatha"> सुदृग्धीवृत्ततपसा मुमुक्षेर्निर्मलीकृतौ। यत्नो विनय आचारो वीर्याच्छुद्धेषु तु।35।</span> = <span class="HindiText">मुमुक्षुजन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र व सम्यक् तप के दोष दूर करने के लिए जो कुछ प्रयत्न करते हैं, उसको विनय कहते हैं और इस प्रयत्न में शक्ति को न छिपा कर शक्ति अनुसार उन्हें करते रहना विनयाचार है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> विनय के सामान्य भेद</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./580<span class="PrakritGatha"> लोगाणुवित्तिविणओ अत्थणिमित्ते य कामतंते य। भयविणओ य चउत्थो पञ्चमओ मोक्खविणओ य।580। </span>= <span class="HindiText">लोकानुवृत्ति विनय, अर्थ निमित्तक विनय, कामतन्त्र विनय, भयविनय और मोक्षविनय इस प्रकार विनय पाँच प्रकार की है। <br /> | मू.आ./580<span class="PrakritGatha"> लोगाणुवित्तिविणओ अत्थणिमित्ते य कामतंते य। भयविणओ य चउत्थो पञ्चमओ मोक्खविणओ य।580। </span>= <span class="HindiText">लोकानुवृत्ति विनय, अर्थ निमित्तक विनय, कामतन्त्र विनय, भयविनय और मोक्षविनय इस प्रकार विनय पाँच प्रकार की है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> मोक्षविनय के सामान्य भेद</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/112 <span class="PrakritGatha">विणओ पुण पञ्चविहो णिद्दिट्ठो णाणदंसणचरित्ते। तवविणओ य चउत्थो चरियो उवयारिओ विणओ।112। </span>= <span class="HindiText">विनय आचार पाँच प्रकार का है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तपविनय और उपचारविनय। (मू.आ./364, 584); ( धवला/ पु.13/5, 4, 26/63/4); ( कषायपाहुड़/1/1-1/ ञ्च्90/117/1); वसुनन्दी श्रावकाचार/320; (अनु. धवला/7/64/703 )। </span><br /> | भगवती आराधना/112 <span class="PrakritGatha">विणओ पुण पञ्चविहो णिद्दिट्ठो णाणदंसणचरित्ते। तवविणओ य चउत्थो चरियो उवयारिओ विणओ।112। </span>= <span class="HindiText">विनय आचार पाँच प्रकार का है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तपविनय और उपचारविनय। (मू.आ./364, 584); ( धवला/ पु.13/5, 4, 26/63/4); ( कषायपाहुड़/1/1-1/ ञ्च्90/117/1); वसुनन्दी श्रावकाचार/320; (अनु. धवला/7/64/703 )। </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/1/23 <span class="SanskritText">ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारः। </span>= <span class="HindiText">विनय तप चार प्रकार का है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय। ( चारित्रसार/147/5 ); ( तत्त्वसार/7/30 )। </span><br /> | तत्त्वार्थसूत्र/1/23 <span class="SanskritText">ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारः। </span>= <span class="HindiText">विनय तप चार प्रकार का है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय। ( चारित्रसार/147/5 ); ( तत्त्वसार/7/30 )। </span><br /> | ||
धवला 8/3, 41/808 <span class="PrakritText">विणओ तिविहो णाण-दंसण-चरित्तविणओ त्ति। </span>=<span class="HindiText"> विनय सम्पन्नता तीन प्रकार की है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय और चारित्रविनय। <br /> | धवला 8/3, 41/808 <span class="PrakritText">विणओ तिविहो णाण-दंसण-चरित्तविणओ त्ति। </span>=<span class="HindiText"> विनय सम्पन्नता तीन प्रकार की है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय और चारित्रविनय। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> उपचार विनय के प्रभेद</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/118/295 <span class="PrakritGatha">काइयावाइयमाणसिओ त्ति तिविहो दु पञ्चमो विणओ। सो पुण सव्वो दुव्विहो पच्चक्खो चेव परोक्खो।118।</span> =<span class="HindiText"> उपचार विनय तीन प्रकार की है–कायिक, वाचिक और मानसिक। उनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद हैं–प्रत्यक्ष व परोक्ष। (मू.आ./372); ( चारित्रसार/148/3 ); ( वसुनन्दी श्रावकाचार/325 )। <br /> | भगवती आराधना/118/295 <span class="PrakritGatha">काइयावाइयमाणसिओ त्ति तिविहो दु पञ्चमो विणओ। सो पुण सव्वो दुव्विहो पच्चक्खो चेव परोक्खो।118।</span> =<span class="HindiText"> उपचार विनय तीन प्रकार की है–कायिक, वाचिक और मानसिक। उनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद हैं–प्रत्यक्ष व परोक्ष। (मू.आ./372); ( चारित्रसार/148/3 ); ( वसुनन्दी श्रावकाचार/325 )। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> लोकानुवृत्त्यादि सामान्य विनयों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./581-583 <span class="PrakritGatha">अब्भुट्ठाणं अंजलियासणदाणं च अतिहिपूजा य। लोगाणुवित्तिविणओ देवदपूया सविभवेण।581। भाषानुवृत्ति छंदाणुवत्तणं देसकालदाणं च। लोकाणुवित्तिविणओ अंजलिकरणं च अत्थकदे।582। एमेव कामतंते भयविणओ चेव आणुपुव्वीए। पञ्चमओ खलु विणओ परूवणा तस्सिया होदि।583। </span>= <span class="HindiText">आसन से उठना, हाथ जोड़ना, आसन देना, पाहुणगति करना, देवता की पूजा अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार करना–ये सब लोकानुवृत्ति विनय है।581। किसी पुरुष के अनुकूल बोलना तथा देश व कालयोग्य अपना द्रव्य देना–ये सब लोकानुवृत्ति विनय है। अपने प्रयोजन या स्वार्थ वश हाथ जोड़ना आदि अर्थनिमित्त विनय है।582। इसी तरह कामपुरुषार्थ के निमित्त विनय करना कामतन्त्र विनय है। भय के कारण विनय करना भय विनय है। पाँचवीं मोक्ष विनय का कथन आगे करते हैं।583। <br /> | मू.आ./581-583 <span class="PrakritGatha">अब्भुट्ठाणं अंजलियासणदाणं च अतिहिपूजा य। लोगाणुवित्तिविणओ देवदपूया सविभवेण।581। भाषानुवृत्ति छंदाणुवत्तणं देसकालदाणं च। लोकाणुवित्तिविणओ अंजलिकरणं च अत्थकदे।582। एमेव कामतंते भयविणओ चेव आणुपुव्वीए। पञ्चमओ खलु विणओ परूवणा तस्सिया होदि।583। </span>= <span class="HindiText">आसन से उठना, हाथ जोड़ना, आसन देना, पाहुणगति करना, देवता की पूजा अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार करना–ये सब लोकानुवृत्ति विनय है।581। किसी पुरुष के अनुकूल बोलना तथा देश व कालयोग्य अपना द्रव्य देना–ये सब लोकानुवृत्ति विनय है। अपने प्रयोजन या स्वार्थ वश हाथ जोड़ना आदि अर्थनिमित्त विनय है।582। इसी तरह कामपुरुषार्थ के निमित्त विनय करना कामतन्त्र विनय है। भय के कारण विनय करना भय विनय है। पाँचवीं मोक्ष विनय का कथन आगे करते हैं।583। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> ज्ञान दर्शन आदि विनयों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/113-117/260-294 <span class="PrakritGatha">काले विणये उवधाणे बहुमाणे तहे व णिण्हवणे। वंजण अत्थ तदुभये विणओ णाणम्मि अट्ठविहो।113। उवगूहणादिया पुव्वुत्त तह भत्तियादिया य गुणा। संकादिवज्जणं पि य णेओ सम्मत्तविणओ सो।114। इंदियकसायपणिधाणं पि य गुत्तीओ चेव समिदीओ। एसो चरित्तविणओ समासदो होइ णायव्वो।115। उत्तरगुणउज्जमणं सम्म अधिआसणं च सड्ढाए। आवासयाणमुचिदाण अपरिहाणी अणुस्सेओ।116। भत्ती तवोधिगंमि य तवम्मि य अहीलणा य सेसाणं। एसो तवम्मि विणओ जहुत्तचारिस्स साधुस्स।117।</span> =<span class="HindiText"> काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, व्यंजन, अर्थ, तदुभय ऐसे ज्ञान विनय के आठ भेद हैं। (और भी देखें [[ ज्ञान#III.2.1 | ज्ञान - III.2.1]])।113। पहिले कहे गये (देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.2 | सम्यग्दर्शन - I.2]]) उपगूहन आदि सम्यग्दर्शन के अंगों का पालन, भक्ति पूजा आदि गुणों का धारण तथा शंकादि दोषों के त्याग को सम्यक्त्व विनय या दर्शन विनय कहते हैं।114। इन्द्रिय और कषायों के प्रणिधान या परिणाम का त्याग करना तथा गुप्ति समिति आदि चारित्र के अंगों का पालन करना संक्षेप में चारित्र विनय जाननी चाहिए।115। संयम रूप उत्तरगुणों में उद्यम करना, सम्यक् प्रकार श्रम व परीषहों को सहन करना, यथा योग्य आवश्यक क्रियाओं में हानि वृद्धि न होने देना–यह सब तप विनय है।116। तप में तथा तप करने में अपने से जो ऊँचा है उसमें, भक्ति करना तप विनय है। उनके अतिरिक्त जो छोटे तपस्वी हैं उनकी तथा चारित्रधारी मुनियों की भी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। यह <strong>तप विनय</strong> है।117। मू.आ./365, 367, 369, 370, 371); ( अनगारधर्मामृत/7/65-69/704-706 तथा 75/710)। </span><br /> | भगवती आराधना/113-117/260-294 <span class="PrakritGatha">काले विणये उवधाणे बहुमाणे तहे व णिण्हवणे। वंजण अत्थ तदुभये विणओ णाणम्मि अट्ठविहो।113। उवगूहणादिया पुव्वुत्त तह भत्तियादिया य गुणा। संकादिवज्जणं पि य णेओ सम्मत्तविणओ सो।114। इंदियकसायपणिधाणं पि य गुत्तीओ चेव समिदीओ। एसो चरित्तविणओ समासदो होइ णायव्वो।115। उत्तरगुणउज्जमणं सम्म अधिआसणं च सड्ढाए। आवासयाणमुचिदाण अपरिहाणी अणुस्सेओ।116। भत्ती तवोधिगंमि य तवम्मि य अहीलणा य सेसाणं। एसो तवम्मि विणओ जहुत्तचारिस्स साधुस्स।117।</span> =<span class="HindiText"> काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, व्यंजन, अर्थ, तदुभय ऐसे ज्ञान विनय के आठ भेद हैं। (और भी देखें [[ ज्ञान#III.2.1 | ज्ञान - III.2.1]])।113। पहिले कहे गये (देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.2 | सम्यग्दर्शन - I.2]]) उपगूहन आदि सम्यग्दर्शन के अंगों का पालन, भक्ति पूजा आदि गुणों का धारण तथा शंकादि दोषों के त्याग को सम्यक्त्व विनय या दर्शन विनय कहते हैं।114। इन्द्रिय और कषायों के प्रणिधान या परिणाम का त्याग करना तथा गुप्ति समिति आदि चारित्र के अंगों का पालन करना संक्षेप में चारित्र विनय जाननी चाहिए।115। संयम रूप उत्तरगुणों में उद्यम करना, सम्यक् प्रकार श्रम व परीषहों को सहन करना, यथा योग्य आवश्यक क्रियाओं में हानि वृद्धि न होने देना–यह सब तप विनय है।116। तप में तथा तप करने में अपने से जो ऊँचा है उसमें, भक्ति करना तप विनय है। उनके अतिरिक्त जो छोटे तपस्वी हैं उनकी तथा चारित्रधारी मुनियों की भी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। यह <strong>तप विनय</strong> है।117। मू.आ./365, 367, 369, 370, 371); ( अनगारधर्मामृत/7/65-69/704-706 तथा 75/710)। </span><br /> | ||
भगवती आराधना/46-47/153 <span class="PrakritGatha"> अरहंतसिद्धचेइय सुदे य धम्मे य साधुवग्गे य। आयरिय उवज्झाए सुपवयणे दंसणे चावि।46। भत्ती पूया वण्णजणणं च णासणमवण्णवादस्स। आसादणपरिहारो दंसणविणओ समासेण।47।</span> = <span class="HindiText">अरहंत, सिद्ध, इनकी प्रतिमाएँ, श्रुतज्ञान, जिन धर्म आचार्य उपाध्याय, साधु, रत्नत्रय, आगम और सम्यग्दर्शन में भक्ति व पूजा आदि करना, इनका महत्त्व बताना, अन्य मतियों द्वारा आरोपित किये गये अवर्णवाद को हटाना, इनके आसादन का परिहार करना यह सब <strong>दर्शन विनय</strong> है।46-47। </span><br /> | भगवती आराधना/46-47/153 <span class="PrakritGatha"> अरहंतसिद्धचेइय सुदे य धम्मे य साधुवग्गे य। आयरिय उवज्झाए सुपवयणे दंसणे चावि।46। भत्ती पूया वण्णजणणं च णासणमवण्णवादस्स। आसादणपरिहारो दंसणविणओ समासेण।47।</span> = <span class="HindiText">अरहंत, सिद्ध, इनकी प्रतिमाएँ, श्रुतज्ञान, जिन धर्म आचार्य उपाध्याय, साधु, रत्नत्रय, आगम और सम्यग्दर्शन में भक्ति व पूजा आदि करना, इनका महत्त्व बताना, अन्य मतियों द्वारा आरोपित किये गये अवर्णवाद को हटाना, इनके आसादन का परिहार करना यह सब <strong>दर्शन विनय</strong> है।46-47। </span><br /> | ||
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देखें [[ विनय#2.3 | विनय - 2.3]]–(सोलह कारण भावनाओं की अपेक्षा लक्षण)। <br /> | देखें [[ विनय#2.3 | विनय - 2.3]]–(सोलह कारण भावनाओं की अपेक्षा लक्षण)। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> उपचार विनय सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/9/23/442/2 <span class="SanskritText">प्रत्यक्षेष्बाचार्यादिष्वभ्युत्थानाभिगमनाञ्जलिकरणादिरुपचारविनयः। परोक्षेष्वपि कायवाङ्म-नोऽभिरञ्जलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणादिः।</span> = <span class="HindiText">आचार्य आदि के समक्ष आने पर खड़े हो जाना, उनके पीछे-पीछे चलना और नमस्कार करना आदि उपचार विनय है, तथा उनके परोक्ष में भी काय वचन और मन से नमस्कार करना, उनके गुणों का कीर्तन करना और स्मरण करना आदि उपचार विनय है। ( राजवार्तिक/9/23/5-6/622/25 ); ( तत्त्वसार/7/34 ); (भ.पा./टी./78/224/14)। </span><br /> | सर्वार्थसिद्धि/9/23/442/2 <span class="SanskritText">प्रत्यक्षेष्बाचार्यादिष्वभ्युत्थानाभिगमनाञ्जलिकरणादिरुपचारविनयः। परोक्षेष्वपि कायवाङ्म-नोऽभिरञ्जलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणादिः।</span> = <span class="HindiText">आचार्य आदि के समक्ष आने पर खड़े हो जाना, उनके पीछे-पीछे चलना और नमस्कार करना आदि उपचार विनय है, तथा उनके परोक्ष में भी काय वचन और मन से नमस्कार करना, उनके गुणों का कीर्तन करना और स्मरण करना आदि उपचार विनय है। ( राजवार्तिक/9/23/5-6/622/25 ); ( तत्त्वसार/7/34 ); (भ.पा./टी./78/224/14)। </span><br /> | ||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/458 <span class="PrakritGatha">रयणत्तयजुत्तणं अणुकूलं जो चरेदि भत्तीए। भिच्चो जह रायाणं उवयारो सो हवे विणओ।458।</span> = <span class="HindiText">जैसे सेवक राजा के अनुकूल प्रवृत्ति करता है वैसे ही रत्नत्रय के धारक मुनियों के अनुकूल भक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करना उपचार विनय है। <br /> | कार्तिकेयानुप्रेक्षा/458 <span class="PrakritGatha">रयणत्तयजुत्तणं अणुकूलं जो चरेदि भत्तीए। भिच्चो जह रायाणं उवयारो सो हवे विणओ।458।</span> = <span class="HindiText">जैसे सेवक राजा के अनुकूल प्रवृत्ति करता है वैसे ही रत्नत्रय के धारक मुनियों के अनुकूल भक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करना उपचार विनय है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> कायिकादि उपचार विनयों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/119-126/296-303 <span class="PrakritGatha">अब्भुट्ठाणं किदियम्म णवंसण अंजली य मुंडाणं। पच्चुग्गच्छणेमत्तो पच्छिद अणुसाधणं चेव।119। णीचं ठाणं णीचं गमणं णीचं च आसणं सयणं। आसणदाणं उवगरणदाणमोगासदाणं च।120। पडिरूवकायसंफासणदा पडिरूवकालकिरिया य। पेसणकरणं संथारकरणमुवकरणपडिलिहणं।121। इच्चेवमादिविणओ उवयारो कीरदे सरीरेण। एसो काइयविणओ जहारिहो साहुवग्गम्मि।122। पूयावयणं हिदभासणं च मिदभासणं च महुरं च। सुत्ताणुवीचिवयणं अणिट्ठुरमकक्कसं वयणं।123। उवसंतवयणमगिहत्थवयणमकिरियमहीलणं वयणं। एसो वाइयविणओ जहारिहो होदि कादब्वो।124। पापविसोत्तिय परिणामवज्जणं पियहिदे य परिणामो। णायव्वो संखेवेण एसो माणस्सिओ विणओ।125। इय एसो पच्चक्खो विणओ पारोक्खिओ वि जं गुरुणो। विरहम्मि विवट्टिज्जइ आणाणिद्देसचरियाए।126। </span>= <span class="HindiText">साधु को आते देख आसन से उठ खड़े होना, कायोत्सर्गादि कृतिकर्म करना, अंजुली मस्तक पर चढ़ाकर, नमस्कार करना, उनके सामने जाना, अथवा जाने वाले को विदा करने के लिए साथ जाना।119। उनके पीछे खड़े रहना, उनके पीछे-पीछे चलना, उनसे नीचे बैठना, नीचे सोना, उन्हें आसन देना, पुस्तकादि उपकरण देना, ठहरने को वसतिका देना।120। उनके बल के अनुसार उनके शरीर का स्पर्शन मर्दन करना, काल के अनुसार क्रिया करना अर्थात् शीतकाल में उष्णक्रिया और उष्णकाल में शीतक्रिया करना, आज्ञा का अनुकरण करना, संथारा करना, पुस्तक आदि का शोधन करना।121। इत्यादि प्रकार से जो गुरुओं का तथा अन्य साधुओं का शरीर से यथायोग्य उपकार करना सो सब <strong>कायिक विनय</strong> जानना।122। पूज्य वचनों से बोलना, हितरूप बोलना, थोड़ा बोलना, मिष्ट बोलना, आगम के अनुसार बोलना, कठोरता रहित बोलना।123। उपशान्त वचन, निर्बन्ध वचन, सावद्य क्रिया रहित वचन, तथा अभिमान रहित वचन बोलना <strong>वाचिक विनय</strong> है।124। पाप कार्यों में दुःश्रुति (विकथा सुनना आदि) में अथवा सम्यक्त्व की विराधना में जो परिणाम, उनका त्याग करना; और धर्मोपकार में व सम्यक्त्व ज्ञानादि में परिणाम होना वह <strong>मानसिक विनय</strong> है।125। इस प्रकार ऊपर यह तीन प्रकार का <strong>प्रत्यक्ष विनय</strong> कहा। गुरुओं के परोक्ष होने पर अर्थात् उनकी अनुपस्थिति में उनको हाथ जोड़ना, जिनाज्ञानुसार श्रद्धा व प्रवृत्ति करना <strong>परोक्ष विनय</strong> है।126। (मू.आ./373-380); ( वसुनन्दी श्रावकाचार/326-331 )। </span><br /> | भगवती आराधना/119-126/296-303 <span class="PrakritGatha">अब्भुट्ठाणं किदियम्म णवंसण अंजली य मुंडाणं। पच्चुग्गच्छणेमत्तो पच्छिद अणुसाधणं चेव।119। णीचं ठाणं णीचं गमणं णीचं च आसणं सयणं। आसणदाणं उवगरणदाणमोगासदाणं च।120। पडिरूवकायसंफासणदा पडिरूवकालकिरिया य। पेसणकरणं संथारकरणमुवकरणपडिलिहणं।121। इच्चेवमादिविणओ उवयारो कीरदे सरीरेण। एसो काइयविणओ जहारिहो साहुवग्गम्मि।122। पूयावयणं हिदभासणं च मिदभासणं च महुरं च। सुत्ताणुवीचिवयणं अणिट्ठुरमकक्कसं वयणं।123। उवसंतवयणमगिहत्थवयणमकिरियमहीलणं वयणं। एसो वाइयविणओ जहारिहो होदि कादब्वो।124। पापविसोत्तिय परिणामवज्जणं पियहिदे य परिणामो। णायव्वो संखेवेण एसो माणस्सिओ विणओ।125। इय एसो पच्चक्खो विणओ पारोक्खिओ वि जं गुरुणो। विरहम्मि विवट्टिज्जइ आणाणिद्देसचरियाए।126। </span>= <span class="HindiText">साधु को आते देख आसन से उठ खड़े होना, कायोत्सर्गादि कृतिकर्म करना, अंजुली मस्तक पर चढ़ाकर, नमस्कार करना, उनके सामने जाना, अथवा जाने वाले को विदा करने के लिए साथ जाना।119। उनके पीछे खड़े रहना, उनके पीछे-पीछे चलना, उनसे नीचे बैठना, नीचे सोना, उन्हें आसन देना, पुस्तकादि उपकरण देना, ठहरने को वसतिका देना।120। उनके बल के अनुसार उनके शरीर का स्पर्शन मर्दन करना, काल के अनुसार क्रिया करना अर्थात् शीतकाल में उष्णक्रिया और उष्णकाल में शीतक्रिया करना, आज्ञा का अनुकरण करना, संथारा करना, पुस्तक आदि का शोधन करना।121। इत्यादि प्रकार से जो गुरुओं का तथा अन्य साधुओं का शरीर से यथायोग्य उपकार करना सो सब <strong>कायिक विनय</strong> जानना।122। पूज्य वचनों से बोलना, हितरूप बोलना, थोड़ा बोलना, मिष्ट बोलना, आगम के अनुसार बोलना, कठोरता रहित बोलना।123। उपशान्त वचन, निर्बन्ध वचन, सावद्य क्रिया रहित वचन, तथा अभिमान रहित वचन बोलना <strong>वाचिक विनय</strong> है।124। पाप कार्यों में दुःश्रुति (विकथा सुनना आदि) में अथवा सम्यक्त्व की विराधना में जो परिणाम, उनका त्याग करना; और धर्मोपकार में व सम्यक्त्व ज्ञानादि में परिणाम होना वह <strong>मानसिक विनय</strong> है।125। इस प्रकार ऊपर यह तीन प्रकार का <strong>प्रत्यक्ष विनय</strong> कहा। गुरुओं के परोक्ष होने पर अर्थात् उनकी अनुपस्थिति में उनको हाथ जोड़ना, जिनाज्ञानुसार श्रद्धा व प्रवृत्ति करना <strong>परोक्ष विनय</strong> है।126। (मू.आ./373-380); ( वसुनन्दी श्रावकाचार/326-331 )। </span><br /> | ||
मू.आ./381-383 <span class="PrakritGatha">अह ओपचारिओ खलु विणओ तिविहो समासदो भणिओ। सत्त चउब्विह दुविहो बोधव्वो आणुपुव्वीए।381। अव्भुट्ठाणं सण्णादि आसणदाणं अणुप्पदाणं च। किदियम्मं पडिरूवं आसणचाओ य अणुव्वजणं।382। हिदमिदपरिमिदभासा अणुवीचीभासणं च बोधव्वं। अकुसलमणस्स रोधो कुसलमणपवत्तओ चेव।383।</span> = <span class="HindiText">संक्षेप से कहें तो तीनों प्रकार की उपचार विनय क्रम से 7, 4 व 2 प्रकार की हैं। अर्थात् कायविनय 7 प्रकार की, वचन विनय 4 प्रकार की और मानसिक विनय दो प्रकार की है।581। आदर से उठना, मस्तक नमाकर नमस्कार करना, आसन देना, पुस्तकादि देना, यथा योग्य कृति कर्म करना अथवा शीत आदि बाधा का मेटना, गुरुओं के आगे ऊँचा आसन छोड़के बैठना, जाते हुए के कुछ दूर तक साथ जाना, ये सात <strong>कायिक विनय के भेद</strong> हैं।382। हित, मित व परिमित बोलना तथा शास्त्र के अनुसार बोलना ये चार भेद वचन विनय के हैं। पाप ग्राहक चित्त को रोकना और धर्म में उद्यमी मन की प्रवर्तांना ये दो भेद <strong>मानसिक विनय</strong> के हैं। (अन.घ./7/71-73/707-709)। </span><br /> | मू.आ./381-383 <span class="PrakritGatha">अह ओपचारिओ खलु विणओ तिविहो समासदो भणिओ। सत्त चउब्विह दुविहो बोधव्वो आणुपुव्वीए।381। अव्भुट्ठाणं सण्णादि आसणदाणं अणुप्पदाणं च। किदियम्मं पडिरूवं आसणचाओ य अणुव्वजणं।382। हिदमिदपरिमिदभासा अणुवीचीभासणं च बोधव्वं। अकुसलमणस्स रोधो कुसलमणपवत्तओ चेव।383।</span> = <span class="HindiText">संक्षेप से कहें तो तीनों प्रकार की उपचार विनय क्रम से 7, 4 व 2 प्रकार की हैं। अर्थात् कायविनय 7 प्रकार की, वचन विनय 4 प्रकार की और मानसिक विनय दो प्रकार की है।581। आदर से उठना, मस्तक नमाकर नमस्कार करना, आसन देना, पुस्तकादि देना, यथा योग्य कृति कर्म करना अथवा शीत आदि बाधा का मेटना, गुरुओं के आगे ऊँचा आसन छोड़के बैठना, जाते हुए के कुछ दूर तक साथ जाना, ये सात <strong>कायिक विनय के भेद</strong> हैं।382। हित, मित व परिमित बोलना तथा शास्त्र के अनुसार बोलना ये चार भेद वचन विनय के हैं। पाप ग्राहक चित्त को रोकना और धर्म में उद्यमी मन की प्रवर्तांना ये दो भेद <strong>मानसिक विनय</strong> के हैं। (अन.घ./7/71-73/707-709)। </span><br /> |
Latest revision as of 15:21, 27 November 2023
- भेद व लक्षण
- विनय सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/9/20/439/7 पूज्येष्वादरो विनयः। = पूज्य पुरुषों का आदर करना विनय तप है।
राजवार्तिक/6/24/2/529/17 सम्यग्ज्ञानादिषु मोक्षसाधनेषु तत्साधकेषु गुर्वादिषु च स्वयोग्यवृत्त्या सत्कार आदरः कषा-यनिवृत्तिर्वा विनयसंपन्नता। = मोक्ष के साधनभूत सम्यग्ज्ञानादिक में तथा उनके साधक गुरु आदिकों में अपनी योग्य रीति से सत्कार आदर आदि करना तथा कषाय की निवृत्ति करना विनयसम्पन्नता है। ( सर्वार्थसिद्धि/6/24/338/7 ); ( चारित्रसार/53/1 ); ( भावपाहुड़ टीका/77/221/5 )।
धवला 13/5, 4, 26/63/4 रत्नत्रयवत्सु नीचैर्वृत्तिर्विनयः। = रत्नत्रय को धारण करने वाले पुरुषों के प्रति नम्र वृत्ति धारण करना विनय है। ( चारित्रसार/147/5 ); ( अनगारधर्मामृत/7/60/702 )।
कषायपाहुड़/1/1-1/ #90/117/2 गुणाधिकेषु नीचैर्वृत्तिर्विनयः। = गुणवृद्ध पुरुषों के प्रति नम्र वृत्तिका रखना विनय है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/300/511/21 विलयं नयति कर्ममलमिति विनयः। = कर्म मल को नाश करता है, इसलिए विनय है। ( अनगारधर्मामृत/7/61/702 ); (देखें विनय - 2.2)।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/6/32/23 ज्ञानदर्शनचारित्रतपसामतीचारा अशुभक्रियाः। तासामपोहनं विनयः। = अशुभ क्रियाएँ ज्ञान-दर्शन चारित्र व तप के अतिचार हैं। इनका हटाना विनय तप है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/457 दंसणणाणचरित्ते सुविसुद्धो जो हवेइ परिणामो। बारसभेदे वि तवे सो च्चिय विणओ हवे तेसिं। = दर्शन, ज्ञान और चारित्र के विषय में तथा बारह प्रकार के तप के विषय में जो विशुद्ध परिणाम होता है वही उनकी विनय है।
चारित्रसार/147/5 कषायेन्द्रियविनयनं विनयः। = कषायों और इन्द्रियों को नम्र करना विनय है। ( अनगारधर्मामृत/7/ 60/702 )।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/225/306/23 स्वकीयनिश्चयरत्नत्रयशुद्धिर्निश्चयविनयः तदाधारपुरुषेषु भक्तिपरिणामो व्यवहारविनयः। = स्वकीय निश्चय रत्नत्रय की शुद्धि निश्चयविनय है और उसके आधारभूत पुरुषों (आचार्य आदि को) को भक्ति के परिणाम व्यवहारविनय है।
सागार धर्मामृत/7/35 सुदृग्धीवृत्ततपसा मुमुक्षेर्निर्मलीकृतौ। यत्नो विनय आचारो वीर्याच्छुद्धेषु तु।35। = मुमुक्षुजन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र व सम्यक् तप के दोष दूर करने के लिए जो कुछ प्रयत्न करते हैं, उसको विनय कहते हैं और इस प्रयत्न में शक्ति को न छिपा कर शक्ति अनुसार उन्हें करते रहना विनयाचार है।
- विनय के सामान्य भेद
मू.आ./580 लोगाणुवित्तिविणओ अत्थणिमित्ते य कामतंते य। भयविणओ य चउत्थो पञ्चमओ मोक्खविणओ य।580। = लोकानुवृत्ति विनय, अर्थ निमित्तक विनय, कामतन्त्र विनय, भयविनय और मोक्षविनय इस प्रकार विनय पाँच प्रकार की है।
- मोक्षविनय के सामान्य भेद
भगवती आराधना/112 विणओ पुण पञ्चविहो णिद्दिट्ठो णाणदंसणचरित्ते। तवविणओ य चउत्थो चरियो उवयारिओ विणओ।112। = विनय आचार पाँच प्रकार का है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तपविनय और उपचारविनय। (मू.आ./364, 584); ( धवला/ पु.13/5, 4, 26/63/4); ( कषायपाहुड़/1/1-1/ ञ्च्90/117/1); वसुनन्दी श्रावकाचार/320; (अनु. धवला/7/64/703 )।
तत्त्वार्थसूत्र/1/23 ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारः। = विनय तप चार प्रकार का है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय। ( चारित्रसार/147/5 ); ( तत्त्वसार/7/30 )।
धवला 8/3, 41/808 विणओ तिविहो णाण-दंसण-चरित्तविणओ त्ति। = विनय सम्पन्नता तीन प्रकार की है–ज्ञानविनय, दर्शनविनय और चारित्रविनय।
- उपचार विनय के प्रभेद
भगवती आराधना/118/295 काइयावाइयमाणसिओ त्ति तिविहो दु पञ्चमो विणओ। सो पुण सव्वो दुव्विहो पच्चक्खो चेव परोक्खो।118। = उपचार विनय तीन प्रकार की है–कायिक, वाचिक और मानसिक। उनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद हैं–प्रत्यक्ष व परोक्ष। (मू.आ./372); ( चारित्रसार/148/3 ); ( वसुनन्दी श्रावकाचार/325 )।
- लोकानुवृत्त्यादि सामान्य विनयों के लक्षण
मू.आ./581-583 अब्भुट्ठाणं अंजलियासणदाणं च अतिहिपूजा य। लोगाणुवित्तिविणओ देवदपूया सविभवेण।581। भाषानुवृत्ति छंदाणुवत्तणं देसकालदाणं च। लोकाणुवित्तिविणओ अंजलिकरणं च अत्थकदे।582। एमेव कामतंते भयविणओ चेव आणुपुव्वीए। पञ्चमओ खलु विणओ परूवणा तस्सिया होदि।583। = आसन से उठना, हाथ जोड़ना, आसन देना, पाहुणगति करना, देवता की पूजा अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार करना–ये सब लोकानुवृत्ति विनय है।581। किसी पुरुष के अनुकूल बोलना तथा देश व कालयोग्य अपना द्रव्य देना–ये सब लोकानुवृत्ति विनय है। अपने प्रयोजन या स्वार्थ वश हाथ जोड़ना आदि अर्थनिमित्त विनय है।582। इसी तरह कामपुरुषार्थ के निमित्त विनय करना कामतन्त्र विनय है। भय के कारण विनय करना भय विनय है। पाँचवीं मोक्ष विनय का कथन आगे करते हैं।583।
- ज्ञान दर्शन आदि विनयों के लक्षण
भगवती आराधना/113-117/260-294 काले विणये उवधाणे बहुमाणे तहे व णिण्हवणे। वंजण अत्थ तदुभये विणओ णाणम्मि अट्ठविहो।113। उवगूहणादिया पुव्वुत्त तह भत्तियादिया य गुणा। संकादिवज्जणं पि य णेओ सम्मत्तविणओ सो।114। इंदियकसायपणिधाणं पि य गुत्तीओ चेव समिदीओ। एसो चरित्तविणओ समासदो होइ णायव्वो।115। उत्तरगुणउज्जमणं सम्म अधिआसणं च सड्ढाए। आवासयाणमुचिदाण अपरिहाणी अणुस्सेओ।116। भत्ती तवोधिगंमि य तवम्मि य अहीलणा य सेसाणं। एसो तवम्मि विणओ जहुत्तचारिस्स साधुस्स।117। = काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, व्यंजन, अर्थ, तदुभय ऐसे ज्ञान विनय के आठ भेद हैं। (और भी देखें ज्ञान - III.2.1)।113। पहिले कहे गये (देखें सम्यग्दर्शन - I.2) उपगूहन आदि सम्यग्दर्शन के अंगों का पालन, भक्ति पूजा आदि गुणों का धारण तथा शंकादि दोषों के त्याग को सम्यक्त्व विनय या दर्शन विनय कहते हैं।114। इन्द्रिय और कषायों के प्रणिधान या परिणाम का त्याग करना तथा गुप्ति समिति आदि चारित्र के अंगों का पालन करना संक्षेप में चारित्र विनय जाननी चाहिए।115। संयम रूप उत्तरगुणों में उद्यम करना, सम्यक् प्रकार श्रम व परीषहों को सहन करना, यथा योग्य आवश्यक क्रियाओं में हानि वृद्धि न होने देना–यह सब तप विनय है।116। तप में तथा तप करने में अपने से जो ऊँचा है उसमें, भक्ति करना तप विनय है। उनके अतिरिक्त जो छोटे तपस्वी हैं उनकी तथा चारित्रधारी मुनियों की भी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। यह तप विनय है।117। मू.आ./365, 367, 369, 370, 371); ( अनगारधर्मामृत/7/65-69/704-706 तथा 75/710)।
भगवती आराधना/46-47/153 अरहंतसिद्धचेइय सुदे य धम्मे य साधुवग्गे य। आयरिय उवज्झाए सुपवयणे दंसणे चावि।46। भत्ती पूया वण्णजणणं च णासणमवण्णवादस्स। आसादणपरिहारो दंसणविणओ समासेण।47। = अरहंत, सिद्ध, इनकी प्रतिमाएँ, श्रुतज्ञान, जिन धर्म आचार्य उपाध्याय, साधु, रत्नत्रय, आगम और सम्यग्दर्शन में भक्ति व पूजा आदि करना, इनका महत्त्व बताना, अन्य मतियों द्वारा आरोपित किये गये अवर्णवाद को हटाना, इनके आसादन का परिहार करना यह सब दर्शन विनय है।46-47।
मू.आ./गा.अत्थपज्जया खलु उवदिट्ठा जिणवरेहिं सुदणाणे। तह रोचेदि णरो दंसणविणओ हवदि एसो।366। णाणं सिक्खदि णाणं गुणेदि णाणं परस्स उवदिसदि। णाणेण कुणदि णायं णाणविणीदो हवदि एसो।368। = श्रुत ज्ञान में जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट द्रव्य व उनकी स्थूल सूक्ष्म पर्याय उनकी प्रतीति करना दर्शन विनय है।366। ज्ञान को सीखना, उसी का चिन्तवन करना दूसरे को भी उसी का उपदेश देना तथा उसी के अनुसार न्यायपूर्वक प्रवृत्ति करना–यह सब ज्ञान विनय है।368। (मू.आ./585-586)।
सर्वार्थसिद्धि/9/23/441/4 सबहुमानं मोक्षार्थं ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादिर्ज्ञानविनयः। शंकादिदोषविरहितं तत्त्वार्थश्रद्धानं दर्शनविनयः। तद्वतश्चारित्रे समाहितचित्तता चारित्रविनयः। = बहुत आदर के साथ मोक्ष के लिए ज्ञान का ग्रहण करना, अभ्यास करना और स्मरण करना आदि ज्ञान विनय है। शंकादि दोषों से रहित तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना दर्शन विनय है। सम्यग्दृष्टि का चारित्र में चित्त का लगना चारित्र विनय है। ( तत्त्वसार/7/31-33 )।
राजवार्तिक/9/23/2-4/622/16 अनलसेन शुद्धमनसा देशकालादिविशुद्धिविधानविचक्षणेन सबहुमानो यथाशक्ति निषेव्यमाणो मोक्षर्थं ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादिर्ज्ञानविनयो वेदितव्यः।.. यथा भगवद्भिरुपदिष्टाः पदार्थाः तेषां तथाश्रद्धाने निःशङ्कितत्वादिलक्षणोपेतता दर्शनविनयो वेदितव्यः।....... ज्ञानदर्शनवतः पञ्चविधदुश्चरचरणश्रवणानन्तरमुद्भिन्न-रोमाञ्चाभिव्यज्यमानान्तर्भक्तेः परप्रसादो मस्तकाञ्जलिकरणादिभिर्भावतश्चानुष्ठातृत्वं चारित्रविनयः प्रत्येतव्यः। = आलस्य रहित हो देशकालादिकी विशुद्धि के अनुसार शुद्धचित्त से बहुमान पूर्वक यथाशक्ति मोक्ष के लिए ज्ञानग्रहण अभ्यास और स्मरण आदि करना ज्ञान विनय है। जिनेन्द्र भगवान् ने श्रुत समुद्र में पदर्थों का जैसा उपदेश दिया है, उसका उसी रूप से श्रद्धान करने आदि में निःशंक आदि होना दर्शन विनय है। ज्ञान और दर्शनशाली पुरुष के पाँच प्रकार के दुश्चर चारित्र का वर्णन सुनकर रोमांच आदि के द्वारा अन्तर्भक्ति प्रगट करना, प्रणाम करना, मस्तक पर अंजलि रखकर आदर प्रगट करना और उसका भाव पूर्वक अनुष्ठान करना चारित्र विनय है। ( चारित्रसार/147/6 ); ( भावपाहुड़ टीका/78/224/11 )।
वसुनन्दी श्रावकाचार/321-324 णिस्संकिय संवेगाइ जे गुणा वण्णिया मए पुव्वं। तेसिमणुपालणं जं वियाण सो दंसणो विणओ।321। णाणे णाणुवयरणे य णाणवंतम्मि तह य भत्तीए। जं पडियरणं कीरइ णिच्चं तं णाण विणओ हु।322। पञ्चविहं चारित्तं अहियारा जे य वण्णिया तस्स। जं तेसिं बहुमाणं वियाण चारित्तविणओ सो।323। बालो यं बुड्ढो यं संकप्प वज्जिऊण तवसीणं। जं पणिवायं कीरइ तवविणयं तं वियाणीहि।324। = निःशंकित
संवेग आदि जो गुण मैंने पहिले वर्णन किये हैं उनके परिपालन को दर्शन विनय जानना चाहिए।321। ज्ञान में, ज्ञान के उपकरण शास्त्र आदिक में तथा ज्ञानवंत पुरुष में भक्ति के साथ नित्य जो अनुकूल आचरण किया जाता है, वह ज्ञान विनय है।322। परमागम में पाँच प्रकार का चारित्र और उसके जो अधिकारी या धारक वर्णन किये गये हैं, उनके आदर सत्कार को चारित्र विनय जानना चाहिए।323। यह बालक है, यह वृद्ध है, इस प्रकार का संकल्प छोड़कर तपस्वी जनों का जो प्रणिपात अर्थात् आदरपूर्वक वन्दन आदि किया जाता है, उसे तप विनय जानना।324।
देखें विनय - 2.3–(सोलह कारण भावनाओं की अपेक्षा लक्षण)।
- उपचार विनय सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/9/23/442/2 प्रत्यक्षेष्बाचार्यादिष्वभ्युत्थानाभिगमनाञ्जलिकरणादिरुपचारविनयः। परोक्षेष्वपि कायवाङ्म-नोऽभिरञ्जलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणादिः। = आचार्य आदि के समक्ष आने पर खड़े हो जाना, उनके पीछे-पीछे चलना और नमस्कार करना आदि उपचार विनय है, तथा उनके परोक्ष में भी काय वचन और मन से नमस्कार करना, उनके गुणों का कीर्तन करना और स्मरण करना आदि उपचार विनय है। ( राजवार्तिक/9/23/5-6/622/25 ); ( तत्त्वसार/7/34 ); (भ.पा./टी./78/224/14)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/458 रयणत्तयजुत्तणं अणुकूलं जो चरेदि भत्तीए। भिच्चो जह रायाणं उवयारो सो हवे विणओ।458। = जैसे सेवक राजा के अनुकूल प्रवृत्ति करता है वैसे ही रत्नत्रय के धारक मुनियों के अनुकूल भक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करना उपचार विनय है।
- कायिकादि उपचार विनयों के लक्षण
भगवती आराधना/119-126/296-303 अब्भुट्ठाणं किदियम्म णवंसण अंजली य मुंडाणं। पच्चुग्गच्छणेमत्तो पच्छिद अणुसाधणं चेव।119। णीचं ठाणं णीचं गमणं णीचं च आसणं सयणं। आसणदाणं उवगरणदाणमोगासदाणं च।120। पडिरूवकायसंफासणदा पडिरूवकालकिरिया य। पेसणकरणं संथारकरणमुवकरणपडिलिहणं।121। इच्चेवमादिविणओ उवयारो कीरदे सरीरेण। एसो काइयविणओ जहारिहो साहुवग्गम्मि।122। पूयावयणं हिदभासणं च मिदभासणं च महुरं च। सुत्ताणुवीचिवयणं अणिट्ठुरमकक्कसं वयणं।123। उवसंतवयणमगिहत्थवयणमकिरियमहीलणं वयणं। एसो वाइयविणओ जहारिहो होदि कादब्वो।124। पापविसोत्तिय परिणामवज्जणं पियहिदे य परिणामो। णायव्वो संखेवेण एसो माणस्सिओ विणओ।125। इय एसो पच्चक्खो विणओ पारोक्खिओ वि जं गुरुणो। विरहम्मि विवट्टिज्जइ आणाणिद्देसचरियाए।126। = साधु को आते देख आसन से उठ खड़े होना, कायोत्सर्गादि कृतिकर्म करना, अंजुली मस्तक पर चढ़ाकर, नमस्कार करना, उनके सामने जाना, अथवा जाने वाले को विदा करने के लिए साथ जाना।119। उनके पीछे खड़े रहना, उनके पीछे-पीछे चलना, उनसे नीचे बैठना, नीचे सोना, उन्हें आसन देना, पुस्तकादि उपकरण देना, ठहरने को वसतिका देना।120। उनके बल के अनुसार उनके शरीर का स्पर्शन मर्दन करना, काल के अनुसार क्रिया करना अर्थात् शीतकाल में उष्णक्रिया और उष्णकाल में शीतक्रिया करना, आज्ञा का अनुकरण करना, संथारा करना, पुस्तक आदि का शोधन करना।121। इत्यादि प्रकार से जो गुरुओं का तथा अन्य साधुओं का शरीर से यथायोग्य उपकार करना सो सब कायिक विनय जानना।122। पूज्य वचनों से बोलना, हितरूप बोलना, थोड़ा बोलना, मिष्ट बोलना, आगम के अनुसार बोलना, कठोरता रहित बोलना।123। उपशान्त वचन, निर्बन्ध वचन, सावद्य क्रिया रहित वचन, तथा अभिमान रहित वचन बोलना वाचिक विनय है।124। पाप कार्यों में दुःश्रुति (विकथा सुनना आदि) में अथवा सम्यक्त्व की विराधना में जो परिणाम, उनका त्याग करना; और धर्मोपकार में व सम्यक्त्व ज्ञानादि में परिणाम होना वह मानसिक विनय है।125। इस प्रकार ऊपर यह तीन प्रकार का प्रत्यक्ष विनय कहा। गुरुओं के परोक्ष होने पर अर्थात् उनकी अनुपस्थिति में उनको हाथ जोड़ना, जिनाज्ञानुसार श्रद्धा व प्रवृत्ति करना परोक्ष विनय है।126। (मू.आ./373-380); ( वसुनन्दी श्रावकाचार/326-331 )।
मू.आ./381-383 अह ओपचारिओ खलु विणओ तिविहो समासदो भणिओ। सत्त चउब्विह दुविहो बोधव्वो आणुपुव्वीए।381। अव्भुट्ठाणं सण्णादि आसणदाणं अणुप्पदाणं च। किदियम्मं पडिरूवं आसणचाओ य अणुव्वजणं।382। हिदमिदपरिमिदभासा अणुवीचीभासणं च बोधव्वं। अकुसलमणस्स रोधो कुसलमणपवत्तओ चेव।383। = संक्षेप से कहें तो तीनों प्रकार की उपचार विनय क्रम से 7, 4 व 2 प्रकार की हैं। अर्थात् कायविनय 7 प्रकार की, वचन विनय 4 प्रकार की और मानसिक विनय दो प्रकार की है।581। आदर से उठना, मस्तक नमाकर नमस्कार करना, आसन देना, पुस्तकादि देना, यथा योग्य कृति कर्म करना अथवा शीत आदि बाधा का मेटना, गुरुओं के आगे ऊँचा आसन छोड़के बैठना, जाते हुए के कुछ दूर तक साथ जाना, ये सात कायिक विनय के भेद हैं।382। हित, मित व परिमित बोलना तथा शास्त्र के अनुसार बोलना ये चार भेद वचन विनय के हैं। पाप ग्राहक चित्त को रोकना और धर्म में उद्यमी मन की प्रवर्तांना ये दो भेद मानसिक विनय के हैं। (अन.घ./7/71-73/707-709)।
चारित्रसार/148/4 तत्राचार्योपाध्यायस्थविरप्रवर्तकगणधरादिषु पूजनीयेष्वभ्युत्थानमभिगमनमञ्जलिकरणं वन्दनानुगमनं रत्नत्रयबहुमानः सर्वकालयोग्यानुरूपक्रिययानुलोमता सुनिगृहीतत्रिदण्डता सुशीलयोगताधर्मानुरूपकथा कथनश्रवणभक्ति-तार्हदायतनगुरुभक्तिता दोषवर्जनं गुणवृद्धसेवाभिलाषानुवर्तनपूजनम्। यदुक्तं–गुरुस्थविरादिभिर्नान्यथा तदित्यनिशं भावनं समेष्वनुत्सेको हीनेष्वपरिभवः जातिकुलधनैश्वर्यरूपविज्ञानबललाभर्द्धिषु निरभिमानता सर्वत्र क्षमापरता मितहितदेश-कालानुगतवचनता कार्याकार्यसेव्यासेव्यवाच्यावाच्यज्ञातृता इत्येवमादिभिरात्मानुरूपः प्रत्यक्षोपचारविनयः। परोक्षापचार-विनय उच्यते, परोक्षेष्वप्याचार्यादिष्वञ्जलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणाज्ञानुष्ठायित्वादिः कायवाङ्मनोभिरवगन्तव्यः राग-प्रहसनविस्मरणैरपि न कस्यापि पृष्ठमांसभक्षणकरणीयमेवमादिः परोक्षोपचारविनयः प्रत्येतव्यः। = आचार्य, उपाध्याय, वृद्ध साधु, उपदेशादि देकरजिनमत की प्रवृत्ति करने वाले गणधरादिक तथा और भी पूज्य पुरुषों के आने पर खड़े होना, उनके सामने जाना, हाथ जोड़ना, वन्दन करना, चलते समय उनके पीछे-पीछे चलना, रत्नत्रय का सबसे अधिक आदर सत्कार करना, समस्त काल के योग्य अनुरूप क्रिया के अनुकूल चलना, मन, वचन, काय तीनों योगों का निग्रह करना, सुशीलता धारना, धर्मानुकूल कहना सुनना तथा भक्ति रखना, अरहन्त जिनमन्दिर और गुरु में भक्ति रखना, दोषों का वा दाषियों का त्याग करना, गुणवृद्ध मुनियों की सेवा करने की अभिलाषा रखना, उनके अनुकूल चलना और उनकी पूजा करना प्रत्यक्ष उपचार विनय है। कहा भी है ......‘‘वृद्ध मुनियों के साथ अथवा गुरु के साथ, कभी भी प्रतिकूल न होने की सदा भावना रखना, बराबर वालों के साथ कभी अभिमान न करना, हीन लोगों का कभी तिरस्कार न करना, जाति, कुल, धन, ऐश्वर्य, रूप, विज्ञान, बल, लाभ और ऋद्धियों में कभी अभिमान न करना, सब जगह क्षमा धारण करने में तत्पर रहना, हित परिमित व देश कालानुसार वचन कहना, कार्य-अकार्य सेव्य-असेव्य कहने योग्य न कहने योग्य का ज्ञान होना, इत्यादि क्रियाओं के द्वारा अपने आत्मा की प्रवृत्ति करना प्रत्यक्ष उपचार विनय है। अब आगे परोक्ष उपचार विनय को कहते हैं। आचार्य आदि के परोक्ष रहते हुए भी मन, वचन, काय से उनके लिए हाथ जोड़ना, उनके गुणों का वर्णन करना, स्मरण करना और उनकी आज्ञा पालन करना आदि परोक्षोपचार विनय है (राग पूर्वक व हँसी पूर्वक अथवा भूलकर भी कभी किसी के पीठ पीछे बुराई व निन्दा न करना, ये सब परोक्षोपचार विनय कहलाता है।
- विनय सामान्य का लक्षण