स्वभाव विभाव, अर्थ व्यंजन व द्रव्य गुण पर्याय निर्देश: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3">स्वभाव विभाव, अर्थ व्यंजन व द्रव्य गुण पर्याय निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">अर्थ व व्यंजन पर्याय के लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 4/1,5,4/337/8 </span><span class="PrakritText">वज्जसिलाथंभादिसु वंजणसण्णिदस्स अवट्ठाणुवलंभादो। मिच्छत्तं पि वंजणपज्जाओ। </span>=<span class="HindiText"> वज्रशिला, स्तंभादि में व्यंजन संज्ञिक उत्पन्न हुई पर्याय का अवस्थान पाया जाता है। मिथ्यात्व भी व्यंजन पर्याय है। </span><br /> | <span class="GRef"> धवला 4/1,5,4/337/8 </span><span class="PrakritText">वज्जसिलाथंभादिसु वंजणसण्णिदस्स अवट्ठाणुवलंभादो। मिच्छत्तं पि वंजणपज्जाओ। </span>=<span class="HindiText"> वज्रशिला, स्तंभादि में व्यंजन संज्ञिक उत्पन्न हुई पर्याय का अवस्थान पाया जाता है। मिथ्यात्व भी व्यंजन पर्याय है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/87 </span><span class="SanskritText"> द्रव्याणि क्रमपरिणामेनेयतिद्रव्यैः क्रमपरिणामेनार्यंत इति वा अर्थ पर्यायाः। </span>= <span class="HindiText">जो द्रव्य को क्रम परिणाम से प्राप्त करते हैं, अथवा जो द्रव्यों के द्वारा क्रम परिणाम से प्राप्त किये जाते हैं, ऐसे ‘अर्थपर्याय’ हैं। </span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/87 </span><span class="SanskritText"> द्रव्याणि क्रमपरिणामेनेयतिद्रव्यैः क्रमपरिणामेनार्यंत इति वा अर्थ पर्यायाः। </span>= <span class="HindiText">जो द्रव्य को क्रम परिणाम से प्राप्त करते हैं, अथवा जो द्रव्यों के द्वारा क्रम परिणाम से प्राप्त किये जाते हैं, ऐसे ‘अर्थपर्याय’ हैं। </span><br /> | ||
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<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/80/101/17 </span><span class="SanskritText">शरीराकारेण यदात्मप्रदेशानामवस्थानं स व्यंजनपर्यायः, अगुरुलघुगुणषड्वृद्धिहानिरूपेण प्रतिक्षणं प्रवर्तमानाः अर्थपर्यायाः।</span> = <span class="HindiText">शरीर के आकाररूप से जो आत्म-प्रदेशों का अवस्थान है वह व्यंजन पर्याय कहलाती है। और अगुरुलघु गुण की षट्वृद्धि और हानिरूप तथा प्रतिक्षण बदलती हैं, वे अर्थपर्याय होती हैं। <br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/80/101/17 </span><span class="SanskritText">शरीराकारेण यदात्मप्रदेशानामवस्थानं स व्यंजनपर्यायः, अगुरुलघुगुणषड्वृद्धिहानिरूपेण प्रतिक्षणं प्रवर्तमानाः अर्थपर्यायाः।</span> = <span class="HindiText">शरीर के आकाररूप से जो आत्म-प्रदेशों का अवस्थान है वह व्यंजन पर्याय कहलाती है। और अगुरुलघु गुण की षट्वृद्धि और हानिरूप तथा प्रतिक्षण बदलती हैं, वे अर्थपर्याय होती हैं। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">अर्थ व गुण पर्याय एकार्थवाची हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/62 </span><span class="SanskritGatha"> गुणपर्यायाणामिह केचिंनामांतरं वदंति बुधाः। अर्थो गुण इति वा स्यादेकार्थादर्थपर्याया इति च। 62। </span>= <span class="HindiText">यहाँ पर कोई-कोई विद्वान् अर्थ कहो या गुण कहो इन दोनों का एक ही अर्थ होने से अर्थ पर्यायों को ही गुणपर्यायों का दूसरा नाम कहते हैं। 62। <br /> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/62 </span><span class="SanskritGatha"> गुणपर्यायाणामिह केचिंनामांतरं वदंति बुधाः। अर्थो गुण इति वा स्यादेकार्थादर्थपर्याया इति च। 62। </span>= <span class="HindiText">यहाँ पर कोई-कोई विद्वान् अर्थ कहो या गुण कहो इन दोनों का एक ही अर्थ होने से अर्थ पर्यायों को ही गुणपर्यायों का दूसरा नाम कहते हैं। 62। <br /> | ||
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<span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/63 </span><span class="SanskritGatha">अपि चोद्दिष्टानामिह देशांशैर्द्रव्यपर्यायाणां हि। व्यंजन-पर्याया इति केचिंनामांतरे वदंति बुधाः। 63।</span> = <span class="HindiText">कोई-कोई विद्वान् यहाँ पर देशांशों के द्वारा निर्दिष्ट द्रव्यपर्यायों का ही व्यंजन पर्याय यह दूसरा नाम कहते हैं। 63। <br /> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/63 </span><span class="SanskritGatha">अपि चोद्दिष्टानामिह देशांशैर्द्रव्यपर्यायाणां हि। व्यंजन-पर्याया इति केचिंनामांतरे वदंति बुधाः। 63।</span> = <span class="HindiText">कोई-कोई विद्वान् यहाँ पर देशांशों के द्वारा निर्दिष्ट द्रव्यपर्यायों का ही व्यंजन पर्याय यह दूसरा नाम कहते हैं। 63। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">द्रव्य व गुण पर्याय से पृथक् अर्थ व व्यंजन पर्याय के निर्देश का कारण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/16 </span><span class="SanskritText"> एते चार्थव्यंजनपर्यायाः...। अत्र गाथायां च ये द्रव्यपर्यायाः गुणपर्यायाश्च भणितास्तेषु च मध्ये तिष्ठंति। तर्हि किमर्थं पृथक्कथिता इति चेदेकसमयवर्तिनोऽर्थपर्याया भण्यंते चिरकालस्थायिनो व्यंजनपर्याया भण्यंते इति कालकृतभेदज्ञापनार्थम्।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न -</strong> यह जो अर्थ व व्यंजन पर्याय कही गयी हैं वे इस गाथा में कथित द्रव्य व गुण पर्यायों में ही समाविष्ट हैं, फिर इन्हें पृथक् क्यों कहा गया? <strong>उत्तर -</strong> अर्थ पर्याय एक समय स्थायी होती है और व्यंजन पर्याय चिरकाल स्थायी होती है, ऐसा काल कृत भेद दर्शाने के लिए ही इनका पृथक् निर्देश किया गया है। <br /> | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/16 </span><span class="SanskritText"> एते चार्थव्यंजनपर्यायाः...। अत्र गाथायां च ये द्रव्यपर्यायाः गुणपर्यायाश्च भणितास्तेषु च मध्ये तिष्ठंति। तर्हि किमर्थं पृथक्कथिता इति चेदेकसमयवर्तिनोऽर्थपर्याया भण्यंते चिरकालस्थायिनो व्यंजनपर्याया भण्यंते इति कालकृतभेदज्ञापनार्थम्।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न -</strong> यह जो अर्थ व व्यंजन पर्याय कही गयी हैं वे इस गाथा में कथित द्रव्य व गुण पर्यायों में ही समाविष्ट हैं, फिर इन्हें पृथक् क्यों कहा गया? <strong>उत्तर -</strong> अर्थ पर्याय एक समय स्थायी होती है और व्यंजन पर्याय चिरकाल स्थायी होती है, ऐसा काल कृत भेद दर्शाने के लिए ही इनका पृथक् निर्देश किया गया है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5">सब गुण पर्याय ही हैं फिर द्रव्य पर्याय का निर्देश क्यों</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/132-135 </span><span class="SanskritGatha">ननु चैवं सति नियमादिह पर्यायाः भवंति यावंतः। सर्वे गुणपर्याया वाच्या न द्रव्यपर्यायाः केचित्। 132। तत्र यतोऽस्ति विशेषः सति च गुणानां गुणत्ववत्वेऽपि। चिदचिद्यथा तथा स्यात् क्रियावती शक्तिरथ च भाववती। 133। यतरे प्रदेशभागस्ततरे द्रव्यस्य पर्यया नाम्ना। यतरे च विशेषांस्ततरे गुणपर्यया भवंत्येव। 135।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> गुणों के समुदायात्मक द्रव्य के मानने पर यहाँ पर नियम से जितनी भी पर्यायें होती हैं, वे सब गुण पर्याय कही जानी चाहिए, किसी को भी द्रव्य पर्याय नहीं कहना चाहिए। 132। <strong>उत्तर -</strong> यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि सामान्यपने से गुणवत्व के सदृश रहते हुए भी गुणों में विशेष भेद है, जैसे - आत्मा के चिदात्मक शक्तिरूप गुण और अजीव द्रव्यों के अचिदात्मक शक्तिरूप गुण ऐसे तथा वैसे ही द्रव्य के क्रियावती शक्तिरूप गुण और भाववती शक्तिरूप गुण ऐसे गुणों के दो भेद हैं। 133। जितने द्रव्य के प्रदेशरूप अंश हैं, वे सब नाम से द्रव्य पर्याय हैं और जितने गुण के अंश हैं वे सब गुण पर्याय कहे जाते हैं। 135। भावार्थ - ‘अमुक द्रव्य के इतने प्रदेश हैं’, इस कल्पना को द्रव्यपर्याय कहते हैं। और प्रत्येक द्रव्य संबंधी जो अनंतानंत गुण हैं उनकी प्रतिसमय होनेवाली षट्गुणी हानि-वृद्धि से तरतमरूप अवस्था को गुणपर्याय कहते हैं। <br /> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/132-135 </span><span class="SanskritGatha">ननु चैवं सति नियमादिह पर्यायाः भवंति यावंतः। सर्वे गुणपर्याया वाच्या न द्रव्यपर्यायाः केचित्। 132। तत्र यतोऽस्ति विशेषः सति च गुणानां गुणत्ववत्वेऽपि। चिदचिद्यथा तथा स्यात् क्रियावती शक्तिरथ च भाववती। 133। यतरे प्रदेशभागस्ततरे द्रव्यस्य पर्यया नाम्ना। यतरे च विशेषांस्ततरे गुणपर्यया भवंत्येव। 135।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> गुणों के समुदायात्मक द्रव्य के मानने पर यहाँ पर नियम से जितनी भी पर्यायें होती हैं, वे सब गुण पर्याय कही जानी चाहिए, किसी को भी द्रव्य पर्याय नहीं कहना चाहिए। 132। <strong>उत्तर -</strong> यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि सामान्यपने से गुणवत्व के सदृश रहते हुए भी गुणों में विशेष भेद है, जैसे - आत्मा के चिदात्मक शक्तिरूप गुण और अजीव द्रव्यों के अचिदात्मक शक्तिरूप गुण ऐसे तथा वैसे ही द्रव्य के क्रियावती शक्तिरूप गुण और भाववती शक्तिरूप गुण ऐसे गुणों के दो भेद हैं। 133। जितने द्रव्य के प्रदेशरूप अंश हैं, वे सब नाम से द्रव्य पर्याय हैं और जितने गुण के अंश हैं वे सब गुण पर्याय कहे जाते हैं। 135। भावार्थ - ‘अमुक द्रव्य के इतने प्रदेश हैं’, इस कल्पना को द्रव्यपर्याय कहते हैं। और प्रत्येक द्रव्य संबंधी जो अनंतानंत गुण हैं उनकी प्रतिसमय होनेवाली षट्गुणी हानि-वृद्धि से तरतमरूप अवस्था को गुणपर्याय कहते हैं। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6">अर्थ व व्यंजन पर्याय का स्वामित्व</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/6/40 </span><span class="SanskritGatha"> धर्माधर्मनभःकाला अर्थपर्यायगोचराः। व्यंजनाख्यस्य संबंधौ द्वावन्यौ जीवपुद्गलौ। 40।</span> = <span class="HindiText">धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार पदार्थ तो अर्थ पर्याय गोचर हैं, और अन्य दो अर्थात् जीव पुद्गल व्यंजन पर्याय के संबंध रूप हैं। 40। </span><br /> | <span class="GRef"> ज्ञानार्णव/6/40 </span><span class="SanskritGatha"> धर्माधर्मनभःकाला अर्थपर्यायगोचराः। व्यंजनाख्यस्य संबंधौ द्वावन्यौ जीवपुद्गलौ। 40।</span> = <span class="HindiText">धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार पदार्थ तो अर्थ पर्याय गोचर हैं, और अन्य दो अर्थात् जीव पुद्गल व्यंजन पर्याय के संबंध रूप हैं। 40। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/129/181/21 </span><span class="SanskritText">धर्माधर्माकाशकालानां मुख्यवृत्त्यैकसमयवर्तिनोऽर्थपर्याया एव जीवपुद्गलानामर्थपर्याय-व्यंजनपर्यायाश्च।</span> = <span class="HindiText">धर्म, अधर्म, आकाश, काल की तो मुख्य वृत्ति से एक समयवर्ती अर्थ पर्याय ही होती हैं और जीव व पुद्गल में अर्थ व व्यंजन दोनों पर्याय होती हैं। <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/220/154/6 )</span>। <br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/129/181/21 </span><span class="SanskritText">धर्माधर्माकाशकालानां मुख्यवृत्त्यैकसमयवर्तिनोऽर्थपर्याया एव जीवपुद्गलानामर्थपर्याय-व्यंजनपर्यायाश्च।</span> = <span class="HindiText">धर्म, अधर्म, आकाश, काल की तो मुख्य वृत्ति से एक समयवर्ती अर्थ पर्याय ही होती हैं और जीव व पुद्गल में अर्थ व व्यंजन दोनों पर्याय होती हैं। <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/220/154/6 )</span>। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7">व्यंजन पर्याय के अभाव होने का नियम नहीं है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 7/2,2,187/178/3 </span><span class="PrakritText">अभविय भावो णाम वियंजणपज्जाओ, तेणेदस्स विणासेण होदव्वमण्णहो दव्वत्तप्पसंगादो त्ति? होदु वियंजणपज्जाओ, ण च वियंजणपज्जायस्स सव्वस्स विणासेण होदव्वमिदि णियमो अत्थि, एयंतवादप्पसंगादो। ण च ण विणस्सदि त्ति दव्वं होदि उप्पाय-ट्ठिदि-भंग-संगयस्स दव्वभावब्भुवगमादो। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> अभव्य भाव जीव की व्यंजन पर्याय का नाम है, इसलिए उसका विनाश अवश्य होना चाहिए, नहीं तो अभव्यत्व के द्रव्यत्व होने का प्रसंग आ जायेगा? <strong>उत्तर -</strong> अभव्यत्व जीव की व्यंजनपर्याय भले ही हो, पर सभी व्यंजनपर्याय का अवश्य नाश होना चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से एकांतवाद का प्रसंग आ जायेगा। ऐसा भी नहीं है कि जो वस्तु विनष्ट नहीं होती वह द्रव्य ही होना चाहिए, क्योंकि जिसमें उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय पाये जाते हैं, उसे द्रव्यरूप से स्वीकार किया गया है। <br /> | <span class="GRef"> धवला 7/2,2,187/178/3 </span><span class="PrakritText">अभविय भावो णाम वियंजणपज्जाओ, तेणेदस्स विणासेण होदव्वमण्णहो दव्वत्तप्पसंगादो त्ति? होदु वियंजणपज्जाओ, ण च वियंजणपज्जायस्स सव्वस्स विणासेण होदव्वमिदि णियमो अत्थि, एयंतवादप्पसंगादो। ण च ण विणस्सदि त्ति दव्वं होदि उप्पाय-ट्ठिदि-भंग-संगयस्स दव्वभावब्भुवगमादो। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> अभव्य भाव जीव की व्यंजन पर्याय का नाम है, इसलिए उसका विनाश अवश्य होना चाहिए, नहीं तो अभव्यत्व के द्रव्यत्व होने का प्रसंग आ जायेगा? <strong>उत्तर -</strong> अभव्यत्व जीव की व्यंजनपर्याय भले ही हो, पर सभी व्यंजनपर्याय का अवश्य नाश होना चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से एकांतवाद का प्रसंग आ जायेगा। ऐसा भी नहीं है कि जो वस्तु विनष्ट नहीं होती वह द्रव्य ही होना चाहिए, क्योंकि जिसमें उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय पाये जाते हैं, उसे द्रव्यरूप से स्वीकार किया गया है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.8" id="3.8">अर्थ व व्यंजन पर्यायों की स्थूलता सूक्ष्मता</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.8.1" id="3.8.1">दोनों का काल</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 9/4,1,48/242-244/9 </span><span class="PrakritText">अत्थ पज्जाओ एगादिसमयावट्ठाणो सण्णा संबंध वज्जिओ अप्पकालावट्ठाणादो अहविसोसादो वा। तत्थ जो सो जहण्णुक्सेहिं अंतोमुहूत्तासंखेज्जलोगमैत्त कालावट्ठाणो अणाइ-अणंतो वा। 242-243। असुद्धो उजुसुदणओ सो चक्खुपासियवेंजण-पज्जयविसओ। तेसिं कालो जहण्णेण अंतोमुहूत्तमुक्कस्सेण छम्मासा संखेज्जा वासाणि वा। कुदो? चक्खिंदियगेज्झवेंजण-पज्जायाणाम-प्पहाणीभूदव्वाणमेत्तियं कालमवट्ठाणुवलंभादो। </span>= | <span class="GRef"> धवला 9/4,1,48/242-244/9 </span><span class="PrakritText">अत्थ पज्जाओ एगादिसमयावट्ठाणो सण्णा संबंध वज्जिओ अप्पकालावट्ठाणादो अहविसोसादो वा। तत्थ जो सो जहण्णुक्सेहिं अंतोमुहूत्तासंखेज्जलोगमैत्त कालावट्ठाणो अणाइ-अणंतो वा। 242-243। असुद्धो उजुसुदणओ सो चक्खुपासियवेंजण-पज्जयविसओ। तेसिं कालो जहण्णेण अंतोमुहूत्तमुक्कस्सेण छम्मासा संखेज्जा वासाणि वा। कुदो? चक्खिंदियगेज्झवेंजण-पज्जायाणाम-प्पहाणीभूदव्वाणमेत्तियं कालमवट्ठाणुवलंभादो। </span>= | ||
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<li class="HindiText"> अर्थ पर्याय थोड़े समय तक रहने से अथवा प्रतिसमय विशेष होने से एक आदि समय तक रहनेवाली और संज्ञा-संज्ञी संबंध से रहित है। और व्यंजन पर्याय जघन्य और उत्कर्ष से क्रमशः अंतर्मुहूर्त और असंख्यात लोक मात्र काल तक रहनेवाली अथवा अनादि अनंत हैं। (पृ. 242-243) </li> | <li class="HindiText"> अर्थ पर्याय थोड़े समय तक रहने से अथवा प्रतिसमय विशेष होने से एक आदि समय तक रहनेवाली और संज्ञा-संज्ञी संबंध से रहित है। और व्यंजन पर्याय जघन्य और उत्कर्ष से क्रमशः अंतर्मुहूर्त और असंख्यात लोक मात्र काल तक रहनेवाली अथवा अनादि अनंत हैं। (पृ. 242-243) </li> | ||
<li | <li class="HindiText"> अशुद्ध ऋजुसूत्र नय चक्षुरिंद्रिय की विषयभूत व्यंजन पर्याय को विषय करनेवाला है। उन पर्यायों का काल जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से छह मास अथवा संख्यातवर्ष है क्योंकि चक्षुरिंद्रिय से ग्राह्य व्यंजन पर्यायें द्रव्य की प्रधानता से रहित होती हुई इतने काल तक अवस्थित पायी जाती हैं। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/25 </span><span class="PrakritText">खणखइणो अत्थपज्जया दिट्ठा। 25। </span>= <span class="HindiText">अर्थ पर्याय क्षण-क्षण में विनाश होनेवाली होती हैं अर्थात् एकसमयवर्ति होती हैं। <span class="GRef">( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/7/101/18 )</span>; <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/39/9 </span>व 18)। <br /> | <span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/25 </span><span class="PrakritText">खणखइणो अत्थपज्जया दिट्ठा। 25। </span>= <span class="HindiText">अर्थ पर्याय क्षण-क्षण में विनाश होनेवाली होती हैं अर्थात् एकसमयवर्ति होती हैं। <span class="GRef">( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/7/101/18 )</span>; <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/39/9 </span>व 18)। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.8.2" id="3.8.2">व्यंजनपर्याय में विलीन अर्थपर्याय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/54/64/1 </span>(द्रव्य, क्षेत्र, काल) <span class="SanskritText">भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायांतर्लीनसूक्ष्मपर्यायेषु सर्वेष्वपि... द्रष्ट्टत्वं प्रत्यक्षत्वात्। </span>= <span class="HindiText">(द्रव्य, क्षेत्र, काल) व भावप्रच्छन्न स्थूलपर्यायों में अंतर्लीन सूक्ष्म पर्यायें हैं... वास्तव में वह उस अतींद्रिय ज्ञान के द्रष्टापन (दृष्टिगोचर) हैं। </span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/54/64/1 </span>(द्रव्य, क्षेत्र, काल) <span class="SanskritText">भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायांतर्लीनसूक्ष्मपर्यायेषु सर्वेष्वपि... द्रष्ट्टत्वं प्रत्यक्षत्वात्। </span>= <span class="HindiText">(द्रव्य, क्षेत्र, काल) व भावप्रच्छन्न स्थूलपर्यायों में अंतर्लीन सूक्ष्म पर्यायें हैं... वास्तव में वह उस अतींद्रिय ज्ञान के द्रष्टापन (दृष्टिगोचर) हैं। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/171 </span><span class="SanskritText">स्थूलेष्विव पर्यायेष्वंतर्लीनाश्च पर्ययाः सूक्ष्माः। 175।</span> = <span class="HindiText">स्थूलों में सूक्ष्म की तरह स्थूल पर्यायों में भी सूक्ष्म पर्यायें अंतर्लीन होती हैं। <br /> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/171 </span><span class="SanskritText">स्थूलेष्विव पर्यायेष्वंतर्लीनाश्च पर्ययाः सूक्ष्माः। 175।</span> = <span class="HindiText">स्थूलों में सूक्ष्म की तरह स्थूल पर्यायों में भी सूक्ष्म पर्यायें अंतर्लीन होती हैं। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.8.3" id="3.8.3">स्थूल व सूक्ष्म पर्यायों की सिद्धि</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/172,173,180 </span>का भावार्थ - <span class="SanskritText">तत्र व्यतिरेकः स्यात् परस्परा भावलक्षणेन यथा। अंशविभागः पृथगिति सदृशांशानां सतामेव। 172। तस्मात् व्यतिरेकत्वं तस्य स्यात् स्थूलपर्ययः स्थूलः। सोऽयं भवति न सोऽयं यस्मादेतावतैव संसिद्धिः। 173। तदिदं यथा स जीवो देवो मनुजाद्भवन्नथाप्यन्यः। कथमन्यथात्वभावं न लभेत स गोरसोऽपि नयात्। 180। </span>= <span class="HindiText">नरकादि रूप व्यंजन पर्यायें स्थूल हैं, क्योंकि उनमें एकजातिपने की अपेक्षा सदृशता रहते हुए भी व्यतिरेक देखा जाता हैं। अर्थात् ‘यह वह है’ ‘यह वही नहीं है’, ऐसा लक्षण घटित होता है। 172-173। परंतु अर्थ पर्यायें सूक्ष्म हैं। क्योंकि, यद्यपि नित्यता तथा अनित्यता होते हुए भी क्रम में कथंचित् सदृशता तथा विसदृशता होती है। परंतु उसका काल सूक्ष्म होने के कारण क्रम प्रतिसमय लक्ष्य में नहीं आता। इसलिए ‘यह वह नहीं है’ तथा ‘वह ऐसा नहीं है’ ऐसी विवक्षा बन नहीं सकती। <br /> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/172,173,180 </span>का भावार्थ - <span class="SanskritText">तत्र व्यतिरेकः स्यात् परस्परा भावलक्षणेन यथा। अंशविभागः पृथगिति सदृशांशानां सतामेव। 172। तस्मात् व्यतिरेकत्वं तस्य स्यात् स्थूलपर्ययः स्थूलः। सोऽयं भवति न सोऽयं यस्मादेतावतैव संसिद्धिः। 173। तदिदं यथा स जीवो देवो मनुजाद्भवन्नथाप्यन्यः। कथमन्यथात्वभावं न लभेत स गोरसोऽपि नयात्। 180। </span>= <span class="HindiText">नरकादि रूप व्यंजन पर्यायें स्थूल हैं, क्योंकि उनमें एकजातिपने की अपेक्षा सदृशता रहते हुए भी व्यतिरेक देखा जाता हैं। अर्थात् ‘यह वह है’ ‘यह वही नहीं है’, ऐसा लक्षण घटित होता है। 172-173। परंतु अर्थ पर्यायें सूक्ष्म हैं। क्योंकि, यद्यपि नित्यता तथा अनित्यता होते हुए भी क्रम में कथंचित् सदृशता तथा विसदृशता होती है। परंतु उसका काल सूक्ष्म होने के कारण क्रम प्रतिसमय लक्ष्य में नहीं आता। इसलिए ‘यह वह नहीं है’ तथा ‘वह ऐसा नहीं है’ ऐसी विवक्षा बन नहीं सकती। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.9" id="3.9">स्वभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार/15, 28 </span><span class="PrakritText">कम्मोपाधिविवज्जिय पज्जाया ते सहावमिदि भणिया। 15। अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जावो। 28।</span> = <span class="HindiText">कर्मोपाधि रहित पर्यायें वे स्वभाव (द्रव्य) पर्यायें कही गयी हैं। 15। अन्य की अपेक्षा से रहित जो (परमाणु का) परिणाम वह (पुद्गल द्रव्य की) स्वभाव पर्याय है। 28। </span><br /> | <span class="GRef"> नियमसार/15, 28 </span><span class="PrakritText">कम्मोपाधिविवज्जिय पज्जाया ते सहावमिदि भणिया। 15। अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जावो। 28।</span> = <span class="HindiText">कर्मोपाधि रहित पर्यायें वे स्वभाव (द्रव्य) पर्यायें कही गयी हैं। 15। अन्य की अपेक्षा से रहित जो (परमाणु का) परिणाम वह (पुद्गल द्रव्य की) स्वभाव पर्याय है। 28। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/21,25,30 </span><span class="PrakritGatha">दव्वाणं खु पयेसा जे जे सहाव संठिया लोए। ते ते पुण पज्जाया जाण तुमं दविणसब्भावं। 21। देहायारपएसा जे थक्का उहयकम्मणिम्मुक्का। जीवस्स णिच्चला खलु ते सुद्धा दव्व-पज्जाया। 25। जो खलु अणाइणिहणो कारणरूवो हु कज्जरूवो वा। परमाणुपोग्गलाणं सो दव्वसहावपज्जाओ। 30। </span>= <span class="HindiText">सब द्रव्यों की जो अपने-अपने प्रदेशों की स्वाभाविक स्थिति है वही द्रव्य की स्वभाव पर्याय जानो। 21। कर्मों से निर्मुक्त सिद्ध जीवों में जो देहाकाररूप से प्रदेशों की निश्चल स्थिति है, वह जीव की शुद्ध या स्वभाव द्रव्य पर्याय है। 25। निश्चय से जो अनादि-निधन कारणरूप तथा कार्यरूप परमाणु है वही पुद्गल द्रव्य की स्वभाव द्रव्य पर्याय है। 30। <span class="GRef">( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/28 )</span>, <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14/13 )</span>, <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश </span>टी./57)। </span><br /> | <span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/21,25,30 </span><span class="PrakritGatha">दव्वाणं खु पयेसा जे जे सहाव संठिया लोए। ते ते पुण पज्जाया जाण तुमं दविणसब्भावं। 21। देहायारपएसा जे थक्का उहयकम्मणिम्मुक्का। जीवस्स णिच्चला खलु ते सुद्धा दव्व-पज्जाया। 25। जो खलु अणाइणिहणो कारणरूवो हु कज्जरूवो वा। परमाणुपोग्गलाणं सो दव्वसहावपज्जाओ। 30। </span>= <span class="HindiText">सब द्रव्यों की जो अपने-अपने प्रदेशों की स्वाभाविक स्थिति है वही द्रव्य की स्वभाव पर्याय जानो। 21। कर्मों से निर्मुक्त सिद्ध जीवों में जो देहाकाररूप से प्रदेशों की निश्चल स्थिति है, वह जीव की शुद्ध या स्वभाव द्रव्य पर्याय है। 25। निश्चय से जो अनादि-निधन कारणरूप तथा कार्यरूप परमाणु है वही पुद्गल द्रव्य की स्वभाव द्रव्य पर्याय है। 30। <span class="GRef">( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/28 )</span>, <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14/13 )</span>, <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश </span>टी./57)। </span><br /> | ||
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<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/11 </span><span class="SanskritText">स्वभावव्यंजनपर्यायो जीवस्य सिद्धरूपः। </span>= <span class="HindiText">जीव की सिद्धरूप पर्याय स्वभाव व्यंजन पर्याय है। <br /> | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/11 </span><span class="SanskritText">स्वभावव्यंजनपर्यायो जीवस्य सिद्धरूपः। </span>= <span class="HindiText">जीव की सिद्धरूप पर्याय स्वभाव व्यंजन पर्याय है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.10" id="3.10">विभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार/15, 28 </span><span class="PrakritText">णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विभावमिदि भणिदा। 15। खंधसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जाओ। 28। </span>=<span class="HindiText"> मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देवरूप पर्यायें, वे (जीव द्रव्य की) विभाव पर्यायें कही गयी हैं। 15। तथा स्कंधरूप परिणाम वह (पुद्गल द्रव्य की) विभाव पर्याय कही गयी है। </span><br /> | <span class="GRef"> नियमसार/15, 28 </span><span class="PrakritText">णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विभावमिदि भणिदा। 15। खंधसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जाओ। 28। </span>=<span class="HindiText"> मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देवरूप पर्यायें, वे (जीव द्रव्य की) विभाव पर्यायें कही गयी हैं। 15। तथा स्कंधरूप परिणाम वह (पुद्गल द्रव्य की) विभाव पर्याय कही गयी है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/23,33 </span><span class="PrakritGatha">जं चदुगदिदेहीणं देहायारं पदेसपरिमाणं। अह विग्गहगइजीवे तं दव्वविहावपज्जायं। 23। जे संखाई खंधा परिणामिआ दुअणुआदिखंधेहिं। ते विय दव्वविहावा जाण तुमं पोग्गलाणं च। 33। </span>= <span class="HindiText">जो चारों गति के जीवों का तथा विग्रहगति में जीवों का देहाकार रूप से प्रदेशों का प्रमाण है, वह जीव की विभाव द्रव्य पर्याय है। 23। और जो दो अणु आदि स्कंधों से परिणामित संख्यात स्कंध हैं वे पुद्गलों की विभाव द्रव्य पर्याय तुम जानो। 33। <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश टीका/57 )</span>, <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14/13 )</span>। </span><br /> | <span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/23,33 </span><span class="PrakritGatha">जं चदुगदिदेहीणं देहायारं पदेसपरिमाणं। अह विग्गहगइजीवे तं दव्वविहावपज्जायं। 23। जे संखाई खंधा परिणामिआ दुअणुआदिखंधेहिं। ते विय दव्वविहावा जाण तुमं पोग्गलाणं च। 33। </span>= <span class="HindiText">जो चारों गति के जीवों का तथा विग्रहगति में जीवों का देहाकार रूप से प्रदेशों का प्रमाण है, वह जीव की विभाव द्रव्य पर्याय है। 23। और जो दो अणु आदि स्कंधों से परिणामित संख्यात स्कंध हैं वे पुद्गलों की विभाव द्रव्य पर्याय तुम जानो। 33। <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश टीका/57 )</span>, <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14/13 )</span>। </span><br /> | ||
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<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/28 </span><span class="SanskritText">स्कंधपर्यायः स्वजातीयबंधलक्षणलक्षित्वादशुद्धः इति। </span>= <span class="HindiText">स्कंध पर्याय स्व जातीय बंधरूप लक्षण से लक्षित होने के कारण अशुद्ध है। <br /> | <span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/28 </span><span class="SanskritText">स्कंधपर्यायः स्वजातीयबंधलक्षणलक्षित्वादशुद्धः इति। </span>= <span class="HindiText">स्कंध पर्याय स्व जातीय बंधरूप लक्षण से लक्षित होने के कारण अशुद्ध है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.11" id="3.11">स्वभाव गुण व अर्थ पर्याय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/22,27,31 </span><span class="PrakritGatha">अगुरुलहुगा अणंता समयं समयं स समुब्भवा जे वि। दव्वाणं ते भणिया सहावगुणपज्जया जाणं। 22। णाणं दंसण सुह बीरियं च जं उहयकम्मपरिहीणं। तं सुद्ध जाण तुमं जीवे गुणपज्जयं सव्वं। 26। रूवरसगंधफासा जे थक्का जेसु अणुकदव्वेसु। ते चेव पोग्गलाणं सहावगुणपज्जया णेया। 31।</span> = <span class="HindiText">द्रव्यों के अगुरुलघु गुण के अनंत अविभाग प्रतिच्छेदों की समय-समय उत्पन्न होनेवाली पर्यायें हैं, वह द्रव्यों की स्वभाव गुणपर्याय कही गयी है, ऐसा तुम जानो। 22। द्रव्य व भावकर्म से रहित शुद्ध ज्ञान, दर्शन, सुख व वीर्य जीव द्रव्य की स्वभाव गुणपर्याय जानो। 23। <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश टीका/1/57 )</span> एक अणु रूप पुद्गल द्रव्य में स्थित रूप, रस, गंध व वर्ण है, वह पुद्गल द्रव्य की स्वभाव गुण पर्याय जानो। 31। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14-15/13 )</span>। </span><br /> | <span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/22,27,31 </span><span class="PrakritGatha">अगुरुलहुगा अणंता समयं समयं स समुब्भवा जे वि। दव्वाणं ते भणिया सहावगुणपज्जया जाणं। 22। णाणं दंसण सुह बीरियं च जं उहयकम्मपरिहीणं। तं सुद्ध जाण तुमं जीवे गुणपज्जयं सव्वं। 26। रूवरसगंधफासा जे थक्का जेसु अणुकदव्वेसु। ते चेव पोग्गलाणं सहावगुणपज्जया णेया। 31।</span> = <span class="HindiText">द्रव्यों के अगुरुलघु गुण के अनंत अविभाग प्रतिच्छेदों की समय-समय उत्पन्न होनेवाली पर्यायें हैं, वह द्रव्यों की स्वभाव गुणपर्याय कही गयी है, ऐसा तुम जानो। 22। द्रव्य व भावकर्म से रहित शुद्ध ज्ञान, दर्शन, सुख व वीर्य जीव द्रव्य की स्वभाव गुणपर्याय जानो। 23। <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश टीका/1/57 )</span> एक अणु रूप पुद्गल द्रव्य में स्थित रूप, रस, गंध व वर्ण है, वह पुद्गल द्रव्य की स्वभाव गुण पर्याय जानो। 31। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14-15/13 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> आलापपद्धति/3 </span><span class="SanskritText">अगुरुलघुविकाराः स्वभावपर्यायास्ते द्वादशधा षड्वृद्धिरूपा षड्हानिरूपाः। </span>= <span class="HindiText">अगुरुलघु गुण के विकार रूप स्वभाव पर्याय होती हैं। वे 12 प्रकार की होती हैं, छह वृद्धि रूप और छह हानिरूप। </span><br /> | <span class="GRef"> आलापपद्धति/3 </span><span class="SanskritText">अगुरुलघुविकाराः स्वभावपर्यायास्ते द्वादशधा षड्वृद्धिरूपा षड्हानिरूपाः। </span>= <span class="HindiText">अगुरुलघु गुण के विकार रूप स्वभाव पर्याय होती हैं। वे 12 प्रकार की होती हैं, छह वृद्धि रूप और छह हानिरूप। </span><br /> | ||
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<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/ </span>गा./पृ./ पंक्ति -<span class="SanskritText"> परमाणु....वर्णादिभ्यो वर्णांतरादि-परिणमनं स्वभावगुणपर्याय (5/14/14) शुद्धार्थ पर्याया अगुरुलघुगुण-षड्ढानिवृद्धिरूपेण पूर्वमेव स्वभावगुणपर्यायव्याख्यानकाले सर्व-द्रव्याणां कथिताः (16/16/14) </span>=<span class="HindiText"> वर्ण से वर्णांतर परिणमन करना यह परमाणु की स्वभाव गुण पर्याय है। (5/14/14)। शुद्धगुण पर्याय की भाँति सर्व द्रव्यों की अगुरुलघुगुण की षट् हानि वृद्धि रूप से शुद्ध अर्थ पर्याय होती हैं। <br /> | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/ </span>गा./पृ./ पंक्ति -<span class="SanskritText"> परमाणु....वर्णादिभ्यो वर्णांतरादि-परिणमनं स्वभावगुणपर्याय (5/14/14) शुद्धार्थ पर्याया अगुरुलघुगुण-षड्ढानिवृद्धिरूपेण पूर्वमेव स्वभावगुणपर्यायव्याख्यानकाले सर्व-द्रव्याणां कथिताः (16/16/14) </span>=<span class="HindiText"> वर्ण से वर्णांतर परिणमन करना यह परमाणु की स्वभाव गुण पर्याय है। (5/14/14)। शुद्धगुण पर्याय की भाँति सर्व द्रव्यों की अगुरुलघुगुण की षट् हानि वृद्धि रूप से शुद्ध अर्थ पर्याय होती हैं। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.12" id="3.12">विभाव गुण व अर्थ पर्याय</strong> </span><br /> | ||
न.च./24,34/ <span class="PrakritGatha">मदिसुदओहीमणपज्जयं च अण्णाणं तिण्णि जे भणिया। एवं जीवस्स इमे विभावगुणपज्जया सव्वे। 24। रूपाइय जे उत्ता जे दिट्ठा दुअणुआइखंधम्मि। ते पुग्गलाण भणिया विहावगुणपज्जया सव्वे। 24। </span>= <span class="HindiText">मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्यय ये चार ज्ञान तथा तीन अज्ञान जो कहे गये हैं ये सब जीव द्रव्य की विभावगुण पर्याय है। (24) द्वि अणुकादि स्कंधों में जो रूपादिक कहे गये हैं, अथवा देखे गये हैं वे सब पुद्गल द्रव्य की विभाव गुण पर्याय हैं। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14/12 )</span>, <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/5 )</span>, <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश टीका/1/57 )</span>। </span><br /> | न.च./24,34/ <span class="PrakritGatha">मदिसुदओहीमणपज्जयं च अण्णाणं तिण्णि जे भणिया। एवं जीवस्स इमे विभावगुणपज्जया सव्वे। 24। रूपाइय जे उत्ता जे दिट्ठा दुअणुआइखंधम्मि। ते पुग्गलाण भणिया विहावगुणपज्जया सव्वे। 24। </span>= <span class="HindiText">मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्यय ये चार ज्ञान तथा तीन अज्ञान जो कहे गये हैं ये सब जीव द्रव्य की विभावगुण पर्याय है। (24) द्वि अणुकादि स्कंधों में जो रूपादिक कहे गये हैं, अथवा देखे गये हैं वे सब पुद्गल द्रव्य की विभाव गुण पर्याय हैं। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14/12 )</span>, <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/5 )</span>, <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश टीका/1/57 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/93 </span><span class="SanskritText"> विभावपर्यायो नाम रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्वपर-प्रत्ययवर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतीर्णतारतम्योप-दर्शितस्वभावविशेषानेकत्वापत्तिः। </span>= <span class="HindiText">रूपादि के वा ज्ञानादि के स्व-पर के कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होनेवाले तारतम्य के कारण देखने में आनेवाले स्वभावविशेष रूप अनेकत्व की आपत्ति विभाव गुणपर्याय है। </span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/93 </span><span class="SanskritText"> विभावपर्यायो नाम रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्वपर-प्रत्ययवर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतीर्णतारतम्योप-दर्शितस्वभावविशेषानेकत्वापत्तिः। </span>= <span class="HindiText">रूपादि के वा ज्ञानादि के स्व-पर के कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होनेवाले तारतम्य के कारण देखने में आनेवाले स्वभावविशेष रूप अनेकत्व की आपत्ति विभाव गुणपर्याय है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/12 </span><span class="SanskritText">अशुद्धार्थपर्याया जीवस्य षट्स्थनगत-कषायहानिवृद्धिविशुद्धिसंक्लेशरूपशुभाशुभलेश्यास्थानेषु ज्ञातव्याः। पुद्गलस्य विभावार्थपर्याया द्वयणुकादिस्कंधेष्वेव चिरकाल-स्थायिनो ज्ञातव्याः।</span> = <span class="HindiText">जीव द्रव्य की विभाव अर्थ पर्याय, कषाय, तथा विशुद्धि संक्लेश रूप शुभ व अशुभलेश्यास्थानों में षट् स्थानगत हानि-वृद्धि रूप जाननी चाहिए। द्वि-अणुक आदि स्कंधों में ही रहनेवाली, तथा चिर काल स्थायी रूप, रसादि रूप पुद्गल द्रव्य की विभाव अर्थ पर्याय जाननी चाहिए। <br /> | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/12 </span><span class="SanskritText">अशुद्धार्थपर्याया जीवस्य षट्स्थनगत-कषायहानिवृद्धिविशुद्धिसंक्लेशरूपशुभाशुभलेश्यास्थानेषु ज्ञातव्याः। पुद्गलस्य विभावार्थपर्याया द्वयणुकादिस्कंधेष्वेव चिरकाल-स्थायिनो ज्ञातव्याः।</span> = <span class="HindiText">जीव द्रव्य की विभाव अर्थ पर्याय, कषाय, तथा विशुद्धि संक्लेश रूप शुभ व अशुभलेश्यास्थानों में षट् स्थानगत हानि-वृद्धि रूप जाननी चाहिए। द्वि-अणुक आदि स्कंधों में ही रहनेवाली, तथा चिर काल स्थायी रूप, रसादि रूप पुद्गल द्रव्य की विभाव अर्थ पर्याय जाननी चाहिए। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.13" id="3.13">स्वभाव व विभाव गुण व्यंजन पर्याय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> आलापपद्धति/3 </span><span class="SanskritText"> विभावगुणव्यंजनपर्याया मत्यादयः। ...स्वभावगुणव्यंजनपर्याया अनंतचतुष्टयस्वरूपा जीवस्य। ...रसरसांतरगंधगंधांतरादिविभावगुणव्यंजनपर्यायाः। ...वर्णगंधरसैकैकाविरुद्धस्पर्शद्वयं स्वभावगुणव्यंजनपर्यायाः। </span>= <span class="HindiText">मति आदि ज्ञान जीव द्रव्य की विभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं, तथा केवलज्ञानादि अनंत चतुष्टय स्वरूप जीव की स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं। ...रस से रसांतर तथा गंध से गंधांतर पुद्गल द्रव्य की विभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं। तथा परमाणु में रहने वाले एक वर्ण, एक गंध, एक रस तथा अविरुद्ध दो स्पर्श पुद्गल द्रव्य की स्वभाव गुण व्यंजनपर्याय हैं। <br /> | <span class="GRef"> आलापपद्धति/3 </span><span class="SanskritText"> विभावगुणव्यंजनपर्याया मत्यादयः। ...स्वभावगुणव्यंजनपर्याया अनंतचतुष्टयस्वरूपा जीवस्य। ...रसरसांतरगंधगंधांतरादिविभावगुणव्यंजनपर्यायाः। ...वर्णगंधरसैकैकाविरुद्धस्पर्शद्वयं स्वभावगुणव्यंजनपर्यायाः। </span>= <span class="HindiText">मति आदि ज्ञान जीव द्रव्य की विभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं, तथा केवलज्ञानादि अनंत चतुष्टय स्वरूप जीव की स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं। ...रस से रसांतर तथा गंध से गंधांतर पुद्गल द्रव्य की विभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं। तथा परमाणु में रहने वाले एक वर्ण, एक गंध, एक रस तथा अविरुद्ध दो स्पर्श पुद्गल द्रव्य की स्वभाव गुण व्यंजनपर्याय हैं। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.14" id="3.14">स्वभाव व विभाव पर्यायों का स्वामित्व</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/56/14 </span><span class="SanskritText">परिणामिनौ जीवपुद्गलौ स्वभावविभावपरिणामाभ्यां शेषचत्वारि द्रव्याणि विभावव्यंजनपर्यायाभावाद् मुख्यवृत्त्या अपरिणामीनि। </span><br /> | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/56/14 </span><span class="SanskritText">परिणामिनौ जीवपुद्गलौ स्वभावविभावपरिणामाभ्यां शेषचत्वारि द्रव्याणि विभावव्यंजनपर्यायाभावाद् मुख्यवृत्त्या अपरिणामीनि। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/34/17 </span><span class="SanskritText">एते समानजातीया असमानजातीयाश्च अनेकद्रव्यात्मिकैकरूपा द्रव्यपर्याया जीवपुद्गलयोरेव भवंति अशुद्धा एव भवंति। कस्मादिति चेत्। अनेकद्रव्याणां परस्परसंश्लेषरूपेण संबंधात्। धर्माद्यन्यद्रव्याणां परस्परसंश्लेषसंबंधेन पर्यायो न घटते परस्परसंबंधेनाशुद्धपर्यायोऽपि न घटते। </span>= | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/34/17 </span><span class="SanskritText">एते समानजातीया असमानजातीयाश्च अनेकद्रव्यात्मिकैकरूपा द्रव्यपर्याया जीवपुद्गलयोरेव भवंति अशुद्धा एव भवंति। कस्मादिति चेत्। अनेकद्रव्याणां परस्परसंश्लेषरूपेण संबंधात्। धर्माद्यन्यद्रव्याणां परस्परसंश्लेषसंबंधेन पर्यायो न घटते परस्परसंबंधेनाशुद्धपर्यायोऽपि न घटते। </span>= | ||
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<li class="HindiText"> स्वभाव तथा विभाव पर्यायों द्वारा जीव व पुद्गल द्रव्य परिणामी हैं। शेष चार द्रव्य विभाव व्यंजन पर्याय के अभाव की मुख्यता से अपरिणामी हैं। 27। </li> | <li class="HindiText"> स्वभाव तथा विभाव पर्यायों द्वारा जीव व पुद्गल द्रव्य परिणामी हैं। शेष चार द्रव्य विभाव व्यंजन पर्याय के अभाव की मुख्यता से अपरिणामी हैं। 27। </li> | ||
<li | <li class="HindiText"> ये समान जातीय और असमान जातीय अनेक द्रव्यात्मक एक रूप द्रव्य पर्याय जीव पुद्गल में ही होती हैं, तथा अशुद्ध ही होती हैं। क्योंकि ये अनेक द्रव्यों के परस्पर संश्लेश रूप संबंध से होती हैं। धर्मादिक द्रव्यों की परस्पर संश्लेषरूप संबंध से पर्याय घटित नहीं होती, इसलिए परस्पर संबंध से अशुद्ध पर्याय भी उनमें घटित नहीं होती। </span><br /> | ||
पं.प्र./टी./1/57 <span class="SanskritText">धर्माधर्माकाशकालानां... विभावपर्यायास्तूपचारेण घटाकाशमित्यादि। </span>= <span class="HindiText">धर्माधर्म, आकाश तथा काल द्रव्यों के विभाव गुणपर्याय नहीं हैं। आकाश के घटाकाश, महाकाश इत्यादि की जो कहावत है, वह उपचारमात्र है। </span></li> | पं.प्र./टी./1/57 <span class="SanskritText">धर्माधर्माकाशकालानां... विभावपर्यायास्तूपचारेण घटाकाशमित्यादि। </span>= <span class="HindiText">धर्माधर्म, आकाश तथा काल द्रव्यों के विभाव गुणपर्याय नहीं हैं। आकाश के घटाकाश, महाकाश इत्यादि की जो कहावत है, वह उपचारमात्र है। </span></li> | ||
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Revision as of 15:31, 27 November 2023
- स्वभाव विभाव, अर्थ व्यंजन व द्रव्य गुण पर्याय निर्देश
- अर्थ व व्यंजन पर्याय के लक्षण व उदाहरण
- अर्थ व गुण पर्याय एकार्थवाची हैं
- व्यंजन व द्रव्य पर्याय एकार्थवाची हैं
- द्रव्य व गुण पर्याय से पृथक् अर्थ व व्यंजन पर्याय के निर्देश का कारण
- सब गुण पर्याय ही हैं फिर द्रव्य पर्याय का निर्देश क्यों
- अर्थ व व्यंजन पर्याय का स्वामित्व
- व्यंजन पर्याय के अभाव होने का नियम नहीं है
- अर्थ व व्यंजन पर्यायों की स्थूलता सूक्ष्मता
- स्वभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय
- विभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय
- स्वभाव गुण व अर्थ पर्याय
- विभाव गुण व अर्थ पर्याय
- स्वभाव व विभाव गुण व्यंजन पर्याय
- स्वभाव व विभाव पर्यायों का स्वामित्व
- स्वभाव विभाव, अर्थ व्यंजन व द्रव्य गुण पर्याय निर्देश
- अर्थ व व्यंजन पर्याय के लक्षण व उदाहरण
धवला 4/1,5,4/337/8 वज्जसिलाथंभादिसु वंजणसण्णिदस्स अवट्ठाणुवलंभादो। मिच्छत्तं पि वंजणपज्जाओ। = वज्रशिला, स्तंभादि में व्यंजन संज्ञिक उत्पन्न हुई पर्याय का अवस्थान पाया जाता है। मिथ्यात्व भी व्यंजन पर्याय है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/87 द्रव्याणि क्रमपरिणामेनेयतिद्रव्यैः क्रमपरिणामेनार्यंत इति वा अर्थ पर्यायाः। = जो द्रव्य को क्रम परिणाम से प्राप्त करते हैं, अथवा जो द्रव्यों के द्वारा क्रम परिणाम से प्राप्त किये जाते हैं, ऐसे ‘अर्थपर्याय’ हैं।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/ गा. षड्ढानिवृद्धिरूपाः सूक्ष्माः परमागमप्रामाण्यादभ्युपगमाः अर्थपर्य्यायाः। 168। व्यज्यते प्रकृटीक्रियते अनेनेति व्यंजनपर्यायः। कुतः, लोचनगोचरत्वात् पटादिवत्। अथवा सादिसनि-धनमूर्तविजातीयविभावस्वभावत्वात्, दृश्यमानविनाशस्वरूपत्वात्। 15। नरनारकादिव्यंजनपर्याया जीवानां पंचसंसारप्रपंचानां, पुद्गलानां स्थूलस्थूलादिस्कंधपर्य्यायाः। 168। = षट् हानि वृद्धि रूप, सूक्ष्म, परमागम प्रमाण से स्वीकार करने योग्य अर्थपर्यायें (होती हैं)। 168। जिससे व्यक्त हो - प्रगट हो वह व्यंजनपर्याय है। किस कारण? पटादि की भाँति चक्षु गोचर होने से (प्रगट होती हैं) अथवा सादि-सांत मूर्त विजातीय विभाव-स्वभाववाली होने से दिखकर नष्ट होनेवाले स्वरूपवाली होने से (प्रगट होती हैं।) नर-नारकादि व्यंजन पर्याय पाँच प्रकार की संसार प्रपंच वाले जीवों के होती हैं। पुद्गलों को स्थूल-स्थूल आदि स्कंध पर्यायें (व्यंजन पर्यायें) होती हैं। 168। ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/15 )
वसुनंदी श्रावकाचार/25 सुहुमा अवायविसया खणरवइणो अत्थपज्जया द्रिट्ठा। वंजणपज्जायां पुण थूलागिरगोयरा चिरविवत्था। 25। = अर्थ पर्याय सूक्ष्म है, अवाय (ज्ञान) विषयक है, अतः शब्द से नहीं कही जा सकती हैं और क्षण-क्षण में बदलती हैं, किंतु व्यंजन पर्याय स्थूल है, शब्द गोचर है अर्थात् शब्द से कही जा सकती है और चिरस्थायी है। 25। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/9 )।
न्यायदीपिका/3/ §77/120/6 अर्थपर्यायो भूतत्वभविष्यत्वसंस्पर्शरहित-शुद्धवर्तमानकालावच्छिन्नवस्तुस्वरूपम्। तदेतदृजुसूत्रनयविषयमामनंत्यभिुयक्ताः। ...व्यंजनं व्यक्तिः प्रवृत्तिनिवृत्तिनिबंधनं जलानयनाद्यर्थक्रियाकारित्वम्। तेनोपलक्षितः पर्यायो व्यंजनपर्यायः, मृदादेर्पिंड-स्थास-कोश-कुशूल-घट-कपालादयः पर्यायाः। = भूत और भविष्यत् के उल्लेखरहित केवल वर्तमान कालीन वस्तु-स्वरूप को अर्थपर्याय कहते हैं। आचार्यों ने इसे ऋजुसूत्र नय का विषय माना है। व्यक्ति का नाम व्यंजन है और जो प्रवृत्ति-निवृत्ति में कारणभूत जल के ले आने आदि रूप अर्थ क्रियाकारिता है वह व्यक्ति है उस व्यक्ति से युक्त पर्याय को व्यंजनपर्याय कहते हैं। जैसे - मिट्टी आदि की पिंड, स्थास, कोश, कुशूल, घट और कपाल आदि पर्यायें हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/80/101/17 शरीराकारेण यदात्मप्रदेशानामवस्थानं स व्यंजनपर्यायः, अगुरुलघुगुणषड्वृद्धिहानिरूपेण प्रतिक्षणं प्रवर्तमानाः अर्थपर्यायाः। = शरीर के आकाररूप से जो आत्म-प्रदेशों का अवस्थान है वह व्यंजन पर्याय कहलाती है। और अगुरुलघु गुण की षट्वृद्धि और हानिरूप तथा प्रतिक्षण बदलती हैं, वे अर्थपर्याय होती हैं।
- अर्थ व गुण पर्याय एकार्थवाची हैं
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/62 गुणपर्यायाणामिह केचिंनामांतरं वदंति बुधाः। अर्थो गुण इति वा स्यादेकार्थादर्थपर्याया इति च। 62। = यहाँ पर कोई-कोई विद्वान् अर्थ कहो या गुण कहो इन दोनों का एक ही अर्थ होने से अर्थ पर्यायों को ही गुणपर्यायों का दूसरा नाम कहते हैं। 62।
- व्यंजन व द्रव्य पर्याय एकार्थवाची हैं
धवला 4/1,5,4/337/6 वंजणपज्जायस्स दव्वत्तब्भुवगमादो। = व्यंजन पर्याय के द्रव्यपना माना गया है। ( गोम्मटसार जीवकांड 582 )।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/63 अपि चोद्दिष्टानामिह देशांशैर्द्रव्यपर्यायाणां हि। व्यंजन-पर्याया इति केचिंनामांतरे वदंति बुधाः। 63। = कोई-कोई विद्वान् यहाँ पर देशांशों के द्वारा निर्दिष्ट द्रव्यपर्यायों का ही व्यंजन पर्याय यह दूसरा नाम कहते हैं। 63।
- द्रव्य व गुण पर्याय से पृथक् अर्थ व व्यंजन पर्याय के निर्देश का कारण
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/16 एते चार्थव्यंजनपर्यायाः...। अत्र गाथायां च ये द्रव्यपर्यायाः गुणपर्यायाश्च भणितास्तेषु च मध्ये तिष्ठंति। तर्हि किमर्थं पृथक्कथिता इति चेदेकसमयवर्तिनोऽर्थपर्याया भण्यंते चिरकालस्थायिनो व्यंजनपर्याया भण्यंते इति कालकृतभेदज्ञापनार्थम्। = प्रश्न - यह जो अर्थ व व्यंजन पर्याय कही गयी हैं वे इस गाथा में कथित द्रव्य व गुण पर्यायों में ही समाविष्ट हैं, फिर इन्हें पृथक् क्यों कहा गया? उत्तर - अर्थ पर्याय एक समय स्थायी होती है और व्यंजन पर्याय चिरकाल स्थायी होती है, ऐसा काल कृत भेद दर्शाने के लिए ही इनका पृथक् निर्देश किया गया है।
- सब गुण पर्याय ही हैं फिर द्रव्य पर्याय का निर्देश क्यों
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/132-135 ननु चैवं सति नियमादिह पर्यायाः भवंति यावंतः। सर्वे गुणपर्याया वाच्या न द्रव्यपर्यायाः केचित्। 132। तत्र यतोऽस्ति विशेषः सति च गुणानां गुणत्ववत्वेऽपि। चिदचिद्यथा तथा स्यात् क्रियावती शक्तिरथ च भाववती। 133। यतरे प्रदेशभागस्ततरे द्रव्यस्य पर्यया नाम्ना। यतरे च विशेषांस्ततरे गुणपर्यया भवंत्येव। 135। = प्रश्न - गुणों के समुदायात्मक द्रव्य के मानने पर यहाँ पर नियम से जितनी भी पर्यायें होती हैं, वे सब गुण पर्याय कही जानी चाहिए, किसी को भी द्रव्य पर्याय नहीं कहना चाहिए। 132। उत्तर - यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि सामान्यपने से गुणवत्व के सदृश रहते हुए भी गुणों में विशेष भेद है, जैसे - आत्मा के चिदात्मक शक्तिरूप गुण और अजीव द्रव्यों के अचिदात्मक शक्तिरूप गुण ऐसे तथा वैसे ही द्रव्य के क्रियावती शक्तिरूप गुण और भाववती शक्तिरूप गुण ऐसे गुणों के दो भेद हैं। 133। जितने द्रव्य के प्रदेशरूप अंश हैं, वे सब नाम से द्रव्य पर्याय हैं और जितने गुण के अंश हैं वे सब गुण पर्याय कहे जाते हैं। 135। भावार्थ - ‘अमुक द्रव्य के इतने प्रदेश हैं’, इस कल्पना को द्रव्यपर्याय कहते हैं। और प्रत्येक द्रव्य संबंधी जो अनंतानंत गुण हैं उनकी प्रतिसमय होनेवाली षट्गुणी हानि-वृद्धि से तरतमरूप अवस्था को गुणपर्याय कहते हैं।
- अर्थ व व्यंजन पर्याय का स्वामित्व
ज्ञानार्णव/6/40 धर्माधर्मनभःकाला अर्थपर्यायगोचराः। व्यंजनाख्यस्य संबंधौ द्वावन्यौ जीवपुद्गलौ। 40। = धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार पदार्थ तो अर्थ पर्याय गोचर हैं, और अन्य दो अर्थात् जीव पुद्गल व्यंजन पर्याय के संबंध रूप हैं। 40।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/129/181/21 धर्माधर्माकाशकालानां मुख्यवृत्त्यैकसमयवर्तिनोऽर्थपर्याया एव जीवपुद्गलानामर्थपर्याय-व्यंजनपर्यायाश्च। = धर्म, अधर्म, आकाश, काल की तो मुख्य वृत्ति से एक समयवर्ती अर्थ पर्याय ही होती हैं और जीव व पुद्गल में अर्थ व व्यंजन दोनों पर्याय होती हैं। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/220/154/6 )।
- व्यंजन पर्याय के अभाव होने का नियम नहीं है
धवला 7/2,2,187/178/3 अभविय भावो णाम वियंजणपज्जाओ, तेणेदस्स विणासेण होदव्वमण्णहो दव्वत्तप्पसंगादो त्ति? होदु वियंजणपज्जाओ, ण च वियंजणपज्जायस्स सव्वस्स विणासेण होदव्वमिदि णियमो अत्थि, एयंतवादप्पसंगादो। ण च ण विणस्सदि त्ति दव्वं होदि उप्पाय-ट्ठिदि-भंग-संगयस्स दव्वभावब्भुवगमादो। = प्रश्न - अभव्य भाव जीव की व्यंजन पर्याय का नाम है, इसलिए उसका विनाश अवश्य होना चाहिए, नहीं तो अभव्यत्व के द्रव्यत्व होने का प्रसंग आ जायेगा? उत्तर - अभव्यत्व जीव की व्यंजनपर्याय भले ही हो, पर सभी व्यंजनपर्याय का अवश्य नाश होना चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से एकांतवाद का प्रसंग आ जायेगा। ऐसा भी नहीं है कि जो वस्तु विनष्ट नहीं होती वह द्रव्य ही होना चाहिए, क्योंकि जिसमें उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय पाये जाते हैं, उसे द्रव्यरूप से स्वीकार किया गया है।
- अर्थ व व्यंजन पर्यायों की स्थूलता सूक्ष्मता
- दोनों का काल
धवला 9/4,1,48/242-244/9 अत्थ पज्जाओ एगादिसमयावट्ठाणो सण्णा संबंध वज्जिओ अप्पकालावट्ठाणादो अहविसोसादो वा। तत्थ जो सो जहण्णुक्सेहिं अंतोमुहूत्तासंखेज्जलोगमैत्त कालावट्ठाणो अणाइ-अणंतो वा। 242-243। असुद्धो उजुसुदणओ सो चक्खुपासियवेंजण-पज्जयविसओ। तेसिं कालो जहण्णेण अंतोमुहूत्तमुक्कस्सेण छम्मासा संखेज्जा वासाणि वा। कुदो? चक्खिंदियगेज्झवेंजण-पज्जायाणाम-प्पहाणीभूदव्वाणमेत्तियं कालमवट्ठाणुवलंभादो। =- अर्थ पर्याय थोड़े समय तक रहने से अथवा प्रतिसमय विशेष होने से एक आदि समय तक रहनेवाली और संज्ञा-संज्ञी संबंध से रहित है। और व्यंजन पर्याय जघन्य और उत्कर्ष से क्रमशः अंतर्मुहूर्त और असंख्यात लोक मात्र काल तक रहनेवाली अथवा अनादि अनंत हैं। (पृ. 242-243)
- अशुद्ध ऋजुसूत्र नय चक्षुरिंद्रिय की विषयभूत व्यंजन पर्याय को विषय करनेवाला है। उन पर्यायों का काल जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से छह मास अथवा संख्यातवर्ष है क्योंकि चक्षुरिंद्रिय से ग्राह्य व्यंजन पर्यायें द्रव्य की प्रधानता से रहित होती हुई इतने काल तक अवस्थित पायी जाती हैं।
वसुनंदी श्रावकाचार/25 खणखइणो अत्थपज्जया दिट्ठा। 25। = अर्थ पर्याय क्षण-क्षण में विनाश होनेवाली होती हैं अर्थात् एकसमयवर्ति होती हैं। ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/7/101/18 ); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/39/9 व 18)।
- व्यंजनपर्याय में विलीन अर्थपर्याय
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/54/64/1 (द्रव्य, क्षेत्र, काल) भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायांतर्लीनसूक्ष्मपर्यायेषु सर्वेष्वपि... द्रष्ट्टत्वं प्रत्यक्षत्वात्। = (द्रव्य, क्षेत्र, काल) व भावप्रच्छन्न स्थूलपर्यायों में अंतर्लीन सूक्ष्म पर्यायें हैं... वास्तव में वह उस अतींद्रिय ज्ञान के द्रष्टापन (दृष्टिगोचर) हैं।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/171 स्थूलेष्विव पर्यायेष्वंतर्लीनाश्च पर्ययाः सूक्ष्माः। 175। = स्थूलों में सूक्ष्म की तरह स्थूल पर्यायों में भी सूक्ष्म पर्यायें अंतर्लीन होती हैं।
- स्थूल व सूक्ष्म पर्यायों की सिद्धि
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/172,173,180 का भावार्थ - तत्र व्यतिरेकः स्यात् परस्परा भावलक्षणेन यथा। अंशविभागः पृथगिति सदृशांशानां सतामेव। 172। तस्मात् व्यतिरेकत्वं तस्य स्यात् स्थूलपर्ययः स्थूलः। सोऽयं भवति न सोऽयं यस्मादेतावतैव संसिद्धिः। 173। तदिदं यथा स जीवो देवो मनुजाद्भवन्नथाप्यन्यः। कथमन्यथात्वभावं न लभेत स गोरसोऽपि नयात्। 180। = नरकादि रूप व्यंजन पर्यायें स्थूल हैं, क्योंकि उनमें एकजातिपने की अपेक्षा सदृशता रहते हुए भी व्यतिरेक देखा जाता हैं। अर्थात् ‘यह वह है’ ‘यह वही नहीं है’, ऐसा लक्षण घटित होता है। 172-173। परंतु अर्थ पर्यायें सूक्ष्म हैं। क्योंकि, यद्यपि नित्यता तथा अनित्यता होते हुए भी क्रम में कथंचित् सदृशता तथा विसदृशता होती है। परंतु उसका काल सूक्ष्म होने के कारण क्रम प्रतिसमय लक्ष्य में नहीं आता। इसलिए ‘यह वह नहीं है’ तथा ‘वह ऐसा नहीं है’ ऐसी विवक्षा बन नहीं सकती।
- दोनों का काल
- स्वभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय
नियमसार/15, 28 कम्मोपाधिविवज्जिय पज्जाया ते सहावमिदि भणिया। 15। अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जावो। 28। = कर्मोपाधि रहित पर्यायें वे स्वभाव (द्रव्य) पर्यायें कही गयी हैं। 15। अन्य की अपेक्षा से रहित जो (परमाणु का) परिणाम वह (पुद्गल द्रव्य की) स्वभाव पर्याय है। 28।
नयचक्र बृहद्/21,25,30 दव्वाणं खु पयेसा जे जे सहाव संठिया लोए। ते ते पुण पज्जाया जाण तुमं दविणसब्भावं। 21। देहायारपएसा जे थक्का उहयकम्मणिम्मुक्का। जीवस्स णिच्चला खलु ते सुद्धा दव्व-पज्जाया। 25। जो खलु अणाइणिहणो कारणरूवो हु कज्जरूवो वा। परमाणुपोग्गलाणं सो दव्वसहावपज्जाओ। 30। = सब द्रव्यों की जो अपने-अपने प्रदेशों की स्वाभाविक स्थिति है वही द्रव्य की स्वभाव पर्याय जानो। 21। कर्मों से निर्मुक्त सिद्ध जीवों में जो देहाकाररूप से प्रदेशों की निश्चल स्थिति है, वह जीव की शुद्ध या स्वभाव द्रव्य पर्याय है। 25। निश्चय से जो अनादि-निधन कारणरूप तथा कार्यरूप परमाणु है वही पुद्गल द्रव्य की स्वभाव द्रव्य पर्याय है। 30। ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/28 ), ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14/13 ), ( परमात्मप्रकाश टी./57)।
आलापपद्धति/3 स्वभावद्रव्यव्यंजनपर्यायाश्चरमशरीरात् किंचिन्न्यूनसिद्ध-पर्यायाः। ....अविभागीपुद्गलपरमाणुः स्वभावद्रव्यव्यंजनपर्यायः। = चरम शरीर से किंचित् न्यून जो सिद्ध पर्याय है वह (जीव द्रव्य की) स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय है। अविभागी पुद्गल परमाणु द्रव्य की स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/24/69/11 )।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/11 स्वभावव्यंजनपर्यायो जीवस्य सिद्धरूपः। = जीव की सिद्धरूप पर्याय स्वभाव व्यंजन पर्याय है।
- विभाव द्रव्य व व्यंजन पर्याय
नियमसार/15, 28 णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विभावमिदि भणिदा। 15। खंधसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जाओ। 28। = मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देवरूप पर्यायें, वे (जीव द्रव्य की) विभाव पर्यायें कही गयी हैं। 15। तथा स्कंधरूप परिणाम वह (पुद्गल द्रव्य की) विभाव पर्याय कही गयी है।
नयचक्र बृहद्/23,33 जं चदुगदिदेहीणं देहायारं पदेसपरिमाणं। अह विग्गहगइजीवे तं दव्वविहावपज्जायं। 23। जे संखाई खंधा परिणामिआ दुअणुआदिखंधेहिं। ते विय दव्वविहावा जाण तुमं पोग्गलाणं च। 33। = जो चारों गति के जीवों का तथा विग्रहगति में जीवों का देहाकार रूप से प्रदेशों का प्रमाण है, वह जीव की विभाव द्रव्य पर्याय है। 23। और जो दो अणु आदि स्कंधों से परिणामित संख्यात स्कंध हैं वे पुद्गलों की विभाव द्रव्य पर्याय तुम जानो। 33। ( परमात्मप्रकाश टीका/57 ), ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14/13 )।
आलापपद्धति/3 विभावद्रव्यव्यंजनपर्यायाश्चतुर्विधा नरनारकादिपर्याया अथवा चतुरशीतिलक्षा योनयः। ...पुद्गलस्य तु द्वयणुकादयो विभावद्रव्यव्यंजनपर्यायाः। = चार प्रकार की नर नारकादि पर्यायें अथवा चौरासी लाख योनियाँ जीव द्रव्य की विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय हैं। ...तथा दो अणुकादि पुद्गलद्रव्य की विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय हैं। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/10,11 )।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/16 सुरनारकतिर्यङ्मनुष्यलक्षणाः परद्रव्यसंबंधनिर्वृत्त-त्वादशुद्धाश्चेति। = देव-नारक-तियच-मनुष्य-स्वरूप पर्यायें परद्रव्य के संबंध से उत्पन्न होती हैं इसलिए अशुद्ध पर्यायें हैं। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/35/18 )।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/28 स्कंधपर्यायः स्वजातीयबंधलक्षणलक्षित्वादशुद्धः इति। = स्कंध पर्याय स्व जातीय बंधरूप लक्षण से लक्षित होने के कारण अशुद्ध है।
- स्वभाव गुण व अर्थ पर्याय
नयचक्र बृहद्/22,27,31 अगुरुलहुगा अणंता समयं समयं स समुब्भवा जे वि। दव्वाणं ते भणिया सहावगुणपज्जया जाणं। 22। णाणं दंसण सुह बीरियं च जं उहयकम्मपरिहीणं। तं सुद्ध जाण तुमं जीवे गुणपज्जयं सव्वं। 26। रूवरसगंधफासा जे थक्का जेसु अणुकदव्वेसु। ते चेव पोग्गलाणं सहावगुणपज्जया णेया। 31। = द्रव्यों के अगुरुलघु गुण के अनंत अविभाग प्रतिच्छेदों की समय-समय उत्पन्न होनेवाली पर्यायें हैं, वह द्रव्यों की स्वभाव गुणपर्याय कही गयी है, ऐसा तुम जानो। 22। द्रव्य व भावकर्म से रहित शुद्ध ज्ञान, दर्शन, सुख व वीर्य जीव द्रव्य की स्वभाव गुणपर्याय जानो। 23। ( परमात्मप्रकाश टीका/1/57 ) एक अणु रूप पुद्गल द्रव्य में स्थित रूप, रस, गंध व वर्ण है, वह पुद्गल द्रव्य की स्वभाव गुण पर्याय जानो। 31। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14-15/13 )।
आलापपद्धति/3 अगुरुलघुविकाराः स्वभावपर्यायास्ते द्वादशधा षड्वृद्धिरूपा षड्हानिरूपाः। = अगुरुलघु गुण के विकार रूप स्वभाव पर्याय होती हैं। वे 12 प्रकार की होती हैं, छह वृद्धि रूप और छह हानिरूप।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/93 स्वभावपर्यायो नाम समस्तद्रव्याणामात्मीयात्मीयागुरुलघुगुणद्वारेण प्रतिसमयसमुदीयमानषट्स्थानपतित-वृद्धिहानिनानात्वानुभूतिः। = समस्त द्रव्यों के अपने-अपने अगुरुलघुगुण द्वारा प्रति समय प्रगट होनेवाली षट् स्थानपतित हानिवृद्धि रूप अनेकत्व की अनुभूति स्वभाव गुण पर्याय है। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/16 ); (पं.प्र./टी./1/57); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/7 )।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/ गा./पृ./ पंक्ति - परमाणु....वर्णादिभ्यो वर्णांतरादि-परिणमनं स्वभावगुणपर्याय (5/14/14) शुद्धार्थ पर्याया अगुरुलघुगुण-षड्ढानिवृद्धिरूपेण पूर्वमेव स्वभावगुणपर्यायव्याख्यानकाले सर्व-द्रव्याणां कथिताः (16/16/14) = वर्ण से वर्णांतर परिणमन करना यह परमाणु की स्वभाव गुण पर्याय है। (5/14/14)। शुद्धगुण पर्याय की भाँति सर्व द्रव्यों की अगुरुलघुगुण की षट् हानि वृद्धि रूप से शुद्ध अर्थ पर्याय होती हैं।
- विभाव गुण व अर्थ पर्याय
न.च./24,34/ मदिसुदओहीमणपज्जयं च अण्णाणं तिण्णि जे भणिया। एवं जीवस्स इमे विभावगुणपज्जया सव्वे। 24। रूपाइय जे उत्ता जे दिट्ठा दुअणुआइखंधम्मि। ते पुग्गलाण भणिया विहावगुणपज्जया सव्वे। 24। = मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्यय ये चार ज्ञान तथा तीन अज्ञान जो कहे गये हैं ये सब जीव द्रव्य की विभावगुण पर्याय है। (24) द्वि अणुकादि स्कंधों में जो रूपादिक कहे गये हैं, अथवा देखे गये हैं वे सब पुद्गल द्रव्य की विभाव गुण पर्याय हैं। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/5/14/12 ), ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/5 ), ( परमात्मप्रकाश टीका/1/57 )।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/93 विभावपर्यायो नाम रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्वपर-प्रत्ययवर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतीर्णतारतम्योप-दर्शितस्वभावविशेषानेकत्वापत्तिः। = रूपादि के वा ज्ञानादि के स्व-पर के कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होनेवाले तारतम्य के कारण देखने में आनेवाले स्वभावविशेष रूप अनेकत्व की आपत्ति विभाव गुणपर्याय है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/36/12 अशुद्धार्थपर्याया जीवस्य षट्स्थनगत-कषायहानिवृद्धिविशुद्धिसंक्लेशरूपशुभाशुभलेश्यास्थानेषु ज्ञातव्याः। पुद्गलस्य विभावार्थपर्याया द्वयणुकादिस्कंधेष्वेव चिरकाल-स्थायिनो ज्ञातव्याः। = जीव द्रव्य की विभाव अर्थ पर्याय, कषाय, तथा विशुद्धि संक्लेश रूप शुभ व अशुभलेश्यास्थानों में षट् स्थानगत हानि-वृद्धि रूप जाननी चाहिए। द्वि-अणुक आदि स्कंधों में ही रहनेवाली, तथा चिर काल स्थायी रूप, रसादि रूप पुद्गल द्रव्य की विभाव अर्थ पर्याय जाननी चाहिए।
- स्वभाव व विभाव गुण व्यंजन पर्याय
आलापपद्धति/3 विभावगुणव्यंजनपर्याया मत्यादयः। ...स्वभावगुणव्यंजनपर्याया अनंतचतुष्टयस्वरूपा जीवस्य। ...रसरसांतरगंधगंधांतरादिविभावगुणव्यंजनपर्यायाः। ...वर्णगंधरसैकैकाविरुद्धस्पर्शद्वयं स्वभावगुणव्यंजनपर्यायाः। = मति आदि ज्ञान जीव द्रव्य की विभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं, तथा केवलज्ञानादि अनंत चतुष्टय स्वरूप जीव की स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं। ...रस से रसांतर तथा गंध से गंधांतर पुद्गल द्रव्य की विभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं। तथा परमाणु में रहने वाले एक वर्ण, एक गंध, एक रस तथा अविरुद्ध दो स्पर्श पुद्गल द्रव्य की स्वभाव गुण व्यंजनपर्याय हैं।
- स्वभाव व विभाव पर्यायों का स्वामित्व
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/56/14 परिणामिनौ जीवपुद्गलौ स्वभावविभावपरिणामाभ्यां शेषचत्वारि द्रव्याणि विभावव्यंजनपर्यायाभावाद् मुख्यवृत्त्या अपरिणामीनि।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/16/34/17 एते समानजातीया असमानजातीयाश्च अनेकद्रव्यात्मिकैकरूपा द्रव्यपर्याया जीवपुद्गलयोरेव भवंति अशुद्धा एव भवंति। कस्मादिति चेत्। अनेकद्रव्याणां परस्परसंश्लेषरूपेण संबंधात्। धर्माद्यन्यद्रव्याणां परस्परसंश्लेषसंबंधेन पर्यायो न घटते परस्परसंबंधेनाशुद्धपर्यायोऽपि न घटते। =- स्वभाव तथा विभाव पर्यायों द्वारा जीव व पुद्गल द्रव्य परिणामी हैं। शेष चार द्रव्य विभाव व्यंजन पर्याय के अभाव की मुख्यता से अपरिणामी हैं। 27।
- ये समान जातीय और असमान जातीय अनेक द्रव्यात्मक एक रूप द्रव्य पर्याय जीव पुद्गल में ही होती हैं, तथा अशुद्ध ही होती हैं। क्योंकि ये अनेक द्रव्यों के परस्पर संश्लेश रूप संबंध से होती हैं। धर्मादिक द्रव्यों की परस्पर संश्लेषरूप संबंध से पर्याय घटित नहीं होती, इसलिए परस्पर संबंध से अशुद्ध पर्याय भी उनमें घटित नहीं होती।
पं.प्र./टी./1/57 धर्माधर्माकाशकालानां... विभावपर्यायास्तूपचारेण घटाकाशमित्यादि। = धर्माधर्म, आकाश तथा काल द्रव्यों के विभाव गुणपर्याय नहीं हैं। आकाश के घटाकाश, महाकाश इत्यादि की जो कहावत है, वह उपचारमात्र है।
- अर्थ व व्यंजन पर्याय के लक्षण व उदाहरण