सत्: Difference between revisions
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<li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> सत् सामान्य का लक्षण</strong> <br /> | |||
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/8/29/6 </span><span class="SanskritText"> सदित्यस्तित्वनिर्देश:।</span> =<span class="HindiText"> सत् अस्तित्व का सूचक है। <span class="GRef">(सर्वार्थसिद्धि/1/32/138/7); (राजवार्तिक/1/8/1/41/19 ); (राजवार्तिक/5/30/8/495/28 ); (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/439-592) </span></span> <br /> | |||
<span class="GRef">धवला 1/1,1,8/159/6</span> <span class="SanskritText"> सत्सत्त्वमित्यर्थ:। ...सच्छब्दोऽस्ति शोभनवाचक:, यथा सदभिधानं सत्यमित्यादि। अस्ति अस्तित्ववाचक:, सति सत्ये व्रतीत्यादि। अत्रास्तित्ववाचको ग्राह्य:।</span> =<span class="HindiText"> सत् का अर्थ सत्त्व है।...सत् शब्द शोभन अर्थात् सुंदर अर्थ का वाचक है। जैसे, सदभिदान, अर्थात् शोभनरूप कथन को सत्य कहते हैं। सत् शब्द अस्तित्व का वाचक है।</span></p> | |||
<p class="HindiText">देखें [[ द्रव्य#1.7|द्रव्य - 1.7]] (सत्ता, सत्त्व, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ, विधि ये सर्व एकार्थवाची शब्द हैं।) </p> | |||
<p class="HindiText">देखें [[ उत्पादव्ययध्रौव्य#2.1| उत्पादव्ययध्रौव्य -2.1 ]] (उत्पाद, व्यय, ध्रुव इन तीनों की युगपत् प्रवृत्ति सत् है।)</p></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> सत् शब्दों का अनेकों अर्थ में प्रयोग</strong> <br /> | |||
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<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि/1/8/29/6 </span> <span class="SanskritText"> स (सत्) प्रशंसादिषु वर्तमानो नेह गृह्यते।</span> = | |||
<span class="HindiText">वह (सत्) प्रशंसा आदि अनेकों अर्थों में रहता है...।</span><br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/1/8/1/41/16 </span> <span class="SanskritText"> सच्छब्द: प्रशंसादिषु वर्तते। तद्यथा प्रशंसायां तावत् 'सत्पुरुष:, सदश्व:' इति। क्वचिदस्तित्वे 'सन् घट:, सन् पट:' इति। क्वचित् प्रतिज्ञायमाने - प्रव्रजित: सन् कथमनृतं ब्रूयात् । 'प्रव्रजित:' इति प्रज्ञायमान इत्यर्थ:। क्वचिदादरे 'सत्कृत्यातिथीन् भोजयतीति' आदृत्य इत्यर्थ:।</span><span class="HindiText"> | |||
</span> = <span class="HindiText">सत् शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है जैसे 'सत्पुरुष, सदश्व' यह प्रशंसार्थक सत् शब्द है। 'सन् घट:, सन् पट:' यहाँ सत् शब्द अस्तित्व वाचक है। 'प्रव्रजित: सन्' प्रतिज्ञावाचक है। 'सत्कृत्य' में सत् शब्द आदरार्थक है <span class="GRef">(राजवार्तिक/5/30/8/495/25) </span>।</span><br /> | |||
<span class="GRef">धवला 13/5,5,88/357/1 </span><span class="SanskritText"> सत् सुखम् ।</span> =<span class="HindiText">सत् का अर्थ सुख है।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> सत् स्वयं सिद्ध व अहेतुक है</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ गाथा </span><span class="SanskritText"> यदिदं सदकारणतया स्वत: सिद्धमंतर्बहिर्मुखप्रकाशशालितया स्वपरपरिच्छेदकं मदीयं मम नाम चैतन्यम् ...।90। अस्तित्वं हि किल द्रव्यस्य स्वभाव: तत्पुनरंयसाधननिरपेक्षत्वादनाद्यनंततयाहेतुकयैक रूपया वृत्त्या:...।96। न खलु द्रव्यैर्द्रव्यांतराणामारंभ:, सर्वद्रव्याणां स्वभावसिद्धत्वात् । स्वभावसिद्धत्वं तु तेषामनादिनिधनत्वात् । अनादिनिधनं हि न साधनांतरमपेक्षते।98। = </span> | |||
<span class="HindiText">सत् और अकारण सिद्ध होने से स्वत: सिद्ध अंतर्मुख-बहिर्मुख प्रकाश वाला होने से स्व-पर का ज्ञायक ऐसा जो मेरा चैतन्य...।90।</span> | |||
<span class="HindiText">अस्तित्व वास्तव में द्रव्य का स्वभाव है और वह (अस्तित्व) अन्य साधन से निरपेक्ष होने के कारण अनादि-अनंत होने से अहेतुक, एक वृत्ति रूप...।96। वास्तव में द्रव्यों से द्रव्यांतर की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि सर्व द्रव्य स्वभावसिद्ध हैं (उनकी) स्वभावसिद्धता तो उनको अनादि निधनता से है। क्योंकि अनादि निधन साधनांतर की अपेक्षा नहीं रखता।98।</span><br/> | |||
<span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/8-9 </span><span class="SanskritText"> तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मात्रं वा यत: स्वत: सिद्धम् । तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्पं च।8। इत्थं नो चेदसत: प्रादुर्भूतिर्निरंकुशा भवति। परत: प्रादुर्भावो युतिसिद्धत्वं सतोविनाशो वा।9।</span> =<span class="HindiText"> तत्त्व का लक्षण सत् है। सत् ही तत्त्व है। जिस कारण से कि वह स्वभाव से ही सिद्ध है इसलिए यह अनादि अनंत है। स्वसहाय है, निर्विकल्प है।8। यदि ऐसा न माने तो असत् की उत्पत्ति होने लगेगी। तथा पर से उत्पत्ति होने लगेगी। पदार्थ, दूसरे पदार्थ के संयोग से पदार्थ कहलावेगा। सत् के विनाश का प्रसंग आवेगा।9।</span> | |||
<p class="HindiText">देखें [[ कारण#II.1 | कारण - II.1 ]][वस्तु स्वत: अपने परिणमन में कारण है।]</li> | |||
< | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> सत् का विनाश व असत् का उत्पाद असंभव है</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय/15 </span><span class="PrakritText"> भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। गुणपज्जयेसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति। | |||
</span>=<span class="HindiText">भाव (सत्) का नाश नहीं है। तथा अभाव (असत्) का उत्पाद नहीं है। भाव (सत् द्रव्यों) गुण पर्यायों में उत्पाद व्यय करते हैं।15।</span><br/> | |||
<span class="GRef">सं.स्तो./24 </span> <span class="SanskritText">नैवाऽसतो जन्म सतो न नाशो, दीपस्तम: पुद्गलभावतोऽस्ति।4। | |||
</span>=<span class="HindiText">भाव (सत्) का नाश नहीं है। तथा अभाव (असत्) का उत्पाद नहीं है। भाव (सत् द्रव्यों) गुण पर्यायों में उत्पाद व्यय करते हैं।15।</span></ | |||
</span>=<span class="HindiText">जो सर्वथा असत् है उसका कभी जन्म नहीं होता और सत् का कभी नाश नहीं होता। दीपक बुझने पर सर्वथा नाश को प्राप्त नहीं होता, किंतु उस समय अंधकार रूप पुद्गल पर्याय को धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है।24।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">जो सर्वथा असत् है उसका कभी जन्म नहीं होता और सत् का कभी नाश नहीं होता। दीपक बुझने पर सर्वथा नाश को प्राप्त नहीं होता, किंतु उस समय अंधकार रूप पुद्गल पर्याय को धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है।24।</span></p> | ||
<p><span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/183</span><span class="SanskritText"> नैवं यत: स्वभावादसतो जन्म न सतो विनाशो वा। उत्पादादित्रयमपि भवति न भावेन भावतया।183। | <p><span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/183</span><span class="SanskritText"> नैवं यत: स्वभावादसतो जन्म न सतो विनाशो वा। उत्पादादित्रयमपि भवति न भावेन भावतया।183। | ||
</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार की शंका ठीक नहीं है। क्योंकि स्वभाव से असत् की उत्पत्ति और सत् का विनाश नहीं होता है किंतु उत्पादादि तीनों में भवनशील रूप से रहता है।</span></ | </span>=<span class="HindiText">इस प्रकार की शंका ठीक नहीं है। क्योंकि स्वभाव से असत् की उत्पत्ति और सत् का विनाश नहीं होता है किंतु उत्पादादि तीनों में भवनशील रूप से रहता है।</span></li> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> सत् ही जगत् का कर्ता-हर्ता है</strong> <br /> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय/22 </span> <span class="PrakritText"> जीवा पुग्गलकाया आयासं अत्थिकाइय सेसा। अमया अत्थित्तमया कारणभूदा हि लोगस्स।22।</span> =<span class="HindiText">जीव, पुद्गलकाय, आकाश और शेष दो अस्तिकाय अकृत हैं, अस्तित्वमय हैं और वास्तव में लोक के कारणभूत हैं।22।</span></li></ol> | |||
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< | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> सत् विषयक प्ररूपणाएँ</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> सत् प्ररूपणा के भेद</strong> <br /> | |||
</span>=<span class="HindiText"> इस (सत्) के द्वारा सामान्य रूप से सम्यग्दर्शन आदि का सत्त्वमात्र नहीं कहा जाता है किंतु गति, इंद्रिय, काय आदि चौदह मार्गणा स्थानों में 'कहाँ है, कहाँ नहीं है' आदि रूप से सम्यग्दर्शनादि का अस्तित्व सूचित किया जाता है।</span></ | </span> | ||
< | <span class="GRef">षट्खंडागम व धवला/1/1,1/सूत्र 8/159 </span><span class="PrakritText"> संतपरूवणदाए दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य।8। .</span>.<span class="SanskritText">.न च प्ररूपणायास्तृतीय: प्रकारोऽस्ति सामान्यविशेषव्यतिरिक्तस्यानुपलंभात् ।</span> =<span class="HindiText"> सत्प्ररूपणा में ओघ अर्थात् सामान्य की अपेक्षा से और आदेश अर्थात् विशेष की अपेक्षा से इस तरह दो प्रकार का कथन है।8। इन दो प्रकार की प्ररूपणाओं को छोड़कर वस्तु के विवेचन का तीसरा उपाय नहीं पाया जाता, क्योंकि वस्तु में सामान्य-विशेष धर्म को छोड़कर तीसरा धर्म नहीं पाया जाता।</span></li> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ सत्#2.2 | सत् - 2.2 ]]गति इंद्रियादि चौदह मार्गणाओं में सम्यग्दर्शनादि कहाँ है कहाँ नहीं है यह सूचित करने को सत् शब्द का प्रयोग है।</p> | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> सत् व सत्त्व में अंतर</strong> <br /> | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक/1/8/12/42/25 </span><span class="SanskritText"> नानेन सम्यग्दर्शनादे: सामान्येन सत्त्वमुच्यते किंतु गतींद्रियकायादिषु चतुर्दशसु मार्गणास्थानेषु 'क्वास्ति सम्यग्दर्शनादि, क्व नास्ति' इत्येवं विशेषणार्थं सद्वचनम् । | |||
</span>=<span class="HindiText"> इस (सत्) के द्वारा सामान्य रूप से सम्यग्दर्शन आदि का सत्त्वमात्र नहीं कहा जाता है किंतु गति, इंद्रिय, काय आदि चौदह मार्गणा स्थानों में 'कहाँ है, कहाँ नहीं है' आदि रूप से सम्यग्दर्शनादि का अस्तित्व सूचित किया जाता है।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> सत् प्ररूपणा का कारण व प्रयोजन</strong> <br /> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक/1/8/13/42/28 </span><span class="SanskritText"> ये त्वनधिकृता जीवपर्याया:। क्रोधादयो ये चाजीवपर्याया वर्णादयो घटादयश्च तेषामस्तित्वाधिगमार्थं पुनर्वचनम् । </span>=<span class="HindiText"> अनधिकृत क्रोधादि या अजीव पर्याय वर्णादि के अस्तित्व सूचन करने के लिए 'सत्' का ग्रहण आवश्यक है।</span><br/> | |||
<p class="HindiText">देखें [[ सत्#2.2 | सत् - 2.2 ]] गति इंद्रियादि चौदह मार्गणाओं में सम्यग्दर्शनादि कहाँ है कहाँ नहीं है यह सूचित करने को सत् शब्द का प्रयोग है।</p> | |||
<p><span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/8/23/9 </span><span class="SanskritText"> शुद्ध जीवद्रव्यस्य या सत्ता सैवोपादेया भवतीति भावार्थ:।</span> = | <p><span class="GRef">पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/8/23/9 </span><span class="SanskritText"> शुद्ध जीवद्रव्यस्य या सत्ता सैवोपादेया भवतीति भावार्थ:।</span> = | ||
<span class="HindiText">शुद्ध जीव द्रव्य की जो सत्ता है वही उपादेय है ऐसा भावार्थ है।</span></ | <span class="HindiText">शुद्ध जीव द्रव्य की जो सत्ता है वही उपादेय है ऐसा भावार्थ है।</span></li> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> सारणी में प्रयुक्त संकेत सूची</strong> <br /> | |||
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Revision as of 22:15, 8 December 2023
सिद्धांतकोष से
सत् का सामान्य लक्षण पदार्थों का स्वत: सिद्ध अस्तित्व है। जिसका निरन्वय नाश असंभव है। इसके अतिरिक्त किस गति जाति व काय का पर्याप्त या अपर्याप्त जीव किस-किस योग मार्गणा में अथवा कषाय सम्यक्त्व व गुणस्थानादि में पाना संभव हैं, इस प्रकार की विस्तृत प्ररूपणा ही इस अधिकार का विषय है।
- सत् निर्देश
- द्रव्य का लक्षण सत् । - देखें द्रव्य - 1.2।
- द्रव्य की स्वतंत्रता आदि विषयक। - देखें द्रव्य 5 ।
- सत् सदा अपने प्रतिपक्षी की अपेक्षा रखता है। - देखें अनेकांत - 4.3।
- सत् के उत्पाद व्यय ध्रौव्यता विषयक। - देखें उत्पाद ।
- द्रव्य गुण पर्याय तीनों सत् हैं। - देखें उत्पादव्ययध्रौव्य -3.6 ।
- असत् वस्तुओं का भी कथंचित् सत्त्व। - देखें असत् ।
- सत्ता के दो भेद - महासत्ता व अवांतर सत्ता। - देखें अस्तित्व ।
- सत् विषयक प्ररूपणाएँ
- सत् निर्देश
- सत् सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/8/29/6 सदित्यस्तित्वनिर्देश:। = सत् अस्तित्व का सूचक है। (सर्वार्थसिद्धि/1/32/138/7); (राजवार्तिक/1/8/1/41/19 ); (राजवार्तिक/5/30/8/495/28 ); (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/439-592)
धवला 1/1,1,8/159/6 सत्सत्त्वमित्यर्थ:। ...सच्छब्दोऽस्ति शोभनवाचक:, यथा सदभिधानं सत्यमित्यादि। अस्ति अस्तित्ववाचक:, सति सत्ये व्रतीत्यादि। अत्रास्तित्ववाचको ग्राह्य:। = सत् का अर्थ सत्त्व है।...सत् शब्द शोभन अर्थात् सुंदर अर्थ का वाचक है। जैसे, सदभिदान, अर्थात् शोभनरूप कथन को सत्य कहते हैं। सत् शब्द अस्तित्व का वाचक है।देखें द्रव्य - 1.7 (सत्ता, सत्त्व, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ, विधि ये सर्व एकार्थवाची शब्द हैं।)
देखें उत्पादव्ययध्रौव्य -2.1 (उत्पाद, व्यय, ध्रुव इन तीनों की युगपत् प्रवृत्ति सत् है।)
- सत् शब्दों का अनेकों अर्थ में प्रयोग
सर्वार्थसिद्धि/1/8/29/6 स (सत्) प्रशंसादिषु वर्तमानो नेह गृह्यते। = वह (सत्) प्रशंसा आदि अनेकों अर्थों में रहता है...।
राजवार्तिक/1/8/1/41/16 सच्छब्द: प्रशंसादिषु वर्तते। तद्यथा प्रशंसायां तावत् 'सत्पुरुष:, सदश्व:' इति। क्वचिदस्तित्वे 'सन् घट:, सन् पट:' इति। क्वचित् प्रतिज्ञायमाने - प्रव्रजित: सन् कथमनृतं ब्रूयात् । 'प्रव्रजित:' इति प्रज्ञायमान इत्यर्थ:। क्वचिदादरे 'सत्कृत्यातिथीन् भोजयतीति' आदृत्य इत्यर्थ:। = सत् शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है जैसे 'सत्पुरुष, सदश्व' यह प्रशंसार्थक सत् शब्द है। 'सन् घट:, सन् पट:' यहाँ सत् शब्द अस्तित्व वाचक है। 'प्रव्रजित: सन्' प्रतिज्ञावाचक है। 'सत्कृत्य' में सत् शब्द आदरार्थक है (राजवार्तिक/5/30/8/495/25) ।
धवला 13/5,5,88/357/1 सत् सुखम् । =सत् का अर्थ सुख है। - सत् स्वयं सिद्ध व अहेतुक है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ गाथा यदिदं सदकारणतया स्वत: सिद्धमंतर्बहिर्मुखप्रकाशशालितया स्वपरपरिच्छेदकं मदीयं मम नाम चैतन्यम् ...।90। अस्तित्वं हि किल द्रव्यस्य स्वभाव: तत्पुनरंयसाधननिरपेक्षत्वादनाद्यनंततयाहेतुकयैक रूपया वृत्त्या:...।96। न खलु द्रव्यैर्द्रव्यांतराणामारंभ:, सर्वद्रव्याणां स्वभावसिद्धत्वात् । स्वभावसिद्धत्वं तु तेषामनादिनिधनत्वात् । अनादिनिधनं हि न साधनांतरमपेक्षते।98। = सत् और अकारण सिद्ध होने से स्वत: सिद्ध अंतर्मुख-बहिर्मुख प्रकाश वाला होने से स्व-पर का ज्ञायक ऐसा जो मेरा चैतन्य...।90। अस्तित्व वास्तव में द्रव्य का स्वभाव है और वह (अस्तित्व) अन्य साधन से निरपेक्ष होने के कारण अनादि-अनंत होने से अहेतुक, एक वृत्ति रूप...।96। वास्तव में द्रव्यों से द्रव्यांतर की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि सर्व द्रव्य स्वभावसिद्ध हैं (उनकी) स्वभावसिद्धता तो उनको अनादि निधनता से है। क्योंकि अनादि निधन साधनांतर की अपेक्षा नहीं रखता।98।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/8-9 तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मात्रं वा यत: स्वत: सिद्धम् । तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्पं च।8। इत्थं नो चेदसत: प्रादुर्भूतिर्निरंकुशा भवति। परत: प्रादुर्भावो युतिसिद्धत्वं सतोविनाशो वा।9। = तत्त्व का लक्षण सत् है। सत् ही तत्त्व है। जिस कारण से कि वह स्वभाव से ही सिद्ध है इसलिए यह अनादि अनंत है। स्वसहाय है, निर्विकल्प है।8। यदि ऐसा न माने तो असत् की उत्पत्ति होने लगेगी। तथा पर से उत्पत्ति होने लगेगी। पदार्थ, दूसरे पदार्थ के संयोग से पदार्थ कहलावेगा। सत् के विनाश का प्रसंग आवेगा।9।देखें कारण - II.1 [वस्तु स्वत: अपने परिणमन में कारण है।]
- सत् का विनाश व असत् का उत्पाद असंभव है
पंचास्तिकाय/15 भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। गुणपज्जयेसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति। =भाव (सत्) का नाश नहीं है। तथा अभाव (असत्) का उत्पाद नहीं है। भाव (सत् द्रव्यों) गुण पर्यायों में उत्पाद व्यय करते हैं।15।
सं.स्तो./24 नैवाऽसतो जन्म सतो न नाशो, दीपस्तम: पुद्गलभावतोऽस्ति।4। =जो सर्वथा असत् है उसका कभी जन्म नहीं होता और सत् का कभी नाश नहीं होता। दीपक बुझने पर सर्वथा नाश को प्राप्त नहीं होता, किंतु उस समय अंधकार रूप पुद्गल पर्याय को धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है।24।पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/183 नैवं यत: स्वभावादसतो जन्म न सतो विनाशो वा। उत्पादादित्रयमपि भवति न भावेन भावतया।183। =इस प्रकार की शंका ठीक नहीं है। क्योंकि स्वभाव से असत् की उत्पत्ति और सत् का विनाश नहीं होता है किंतु उत्पादादि तीनों में भवनशील रूप से रहता है।
- सत् ही जगत् का कर्ता-हर्ता है
पंचास्तिकाय/22 जीवा पुग्गलकाया आयासं अत्थिकाइय सेसा। अमया अत्थित्तमया कारणभूदा हि लोगस्स।22। =जीव, पुद्गलकाय, आकाश और शेष दो अस्तिकाय अकृत हैं, अस्तित्वमय हैं और वास्तव में लोक के कारणभूत हैं।22।
- सत् सामान्य का लक्षण
- सत् विषयक प्ररूपणाएँ
- सत् प्ररूपणा के भेद
षट्खंडागम व धवला/1/1,1/सूत्र 8/159 संतपरूवणदाए दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य।8। ...न च प्ररूपणायास्तृतीय: प्रकारोऽस्ति सामान्यविशेषव्यतिरिक्तस्यानुपलंभात् । = सत्प्ररूपणा में ओघ अर्थात् सामान्य की अपेक्षा से और आदेश अर्थात् विशेष की अपेक्षा से इस तरह दो प्रकार का कथन है।8। इन दो प्रकार की प्ररूपणाओं को छोड़कर वस्तु के विवेचन का तीसरा उपाय नहीं पाया जाता, क्योंकि वस्तु में सामान्य-विशेष धर्म को छोड़कर तीसरा धर्म नहीं पाया जाता। - सत् व सत्त्व में अंतर
राजवार्तिक/1/8/12/42/25 नानेन सम्यग्दर्शनादे: सामान्येन सत्त्वमुच्यते किंतु गतींद्रियकायादिषु चतुर्दशसु मार्गणास्थानेषु 'क्वास्ति सम्यग्दर्शनादि, क्व नास्ति' इत्येवं विशेषणार्थं सद्वचनम् । = इस (सत्) के द्वारा सामान्य रूप से सम्यग्दर्शन आदि का सत्त्वमात्र नहीं कहा जाता है किंतु गति, इंद्रिय, काय आदि चौदह मार्गणा स्थानों में 'कहाँ है, कहाँ नहीं है' आदि रूप से सम्यग्दर्शनादि का अस्तित्व सूचित किया जाता है। - सत् प्ररूपणा का कारण व प्रयोजन
राजवार्तिक/1/8/13/42/28 ये त्वनधिकृता जीवपर्याया:। क्रोधादयो ये चाजीवपर्याया वर्णादयो घटादयश्च तेषामस्तित्वाधिगमार्थं पुनर्वचनम् । = अनधिकृत क्रोधादि या अजीव पर्याय वर्णादि के अस्तित्व सूचन करने के लिए 'सत्' का ग्रहण आवश्यक है।
देखें सत् - 2.2 गति इंद्रियादि चौदह मार्गणाओं में सम्यग्दर्शनादि कहाँ है कहाँ नहीं है यह सूचित करने को सत् शब्द का प्रयोग है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/8/23/9 शुद्ध जीवद्रव्यस्य या सत्ता सैवोपादेया भवतीति भावार्थ:। = शुद्ध जीव द्रव्य की जो सत्ता है वही उपादेय है ऐसा भावार्थ है।
- सारणी में प्रयुक्त संकेत सूची
अज्ञा. अज्ञान न. नरकगति अना. अनाकार, अनाहारक नि. नित्यनिगोद अनु. अनुभय पं. पंचेंद्रिय अप. अपर्याप्त, अपर्याप्ति, अपकायिक परि. परिग्रह, परिहार वि. अभ. अभव्य प. पर्याप्ति, पर्याप्त अव. अवधिज्ञान पृ. पृथिवीकाय अवि. अविरत गुणस्थान प्र. प्रतिष्ठित, प्रत्येक अशु. अशुभ लेश्या आदि व. वनस्पतिकाय असं. असंज्ञी, असंयम भ. भव्य आ. आहारक, आहारसंज्ञा मन: मन:पर्यय, मनोयोग उ. उत्कृष्ट, उभय मनु. मनुष्यगति एके. एकेंद्रिय मा. मानकषाय औ. औदारिक काययोग, औपशमिक सम्य. मि. मिथ्यात्व का. कापोत लेश्या, कार्मण मै. मैथुनसंज्ञा केवल. केवलज्ञान, केवलदर्शन यथा. यथाख्यात क्षयो. क्षयोपशमिक सम्यग्दर्शन लो. लोभकषाय क्षा. क्षायिक सम्यग्दर्शन व. वचनयोग ज्ञा. ज्ञान वै. वैक्रियकयोग च. चतुर्गतिनिगोद शु. शुक्ललेश्या छे. छेदोपस्थापना चारित्र श्रु. श्रुतज्ञान ति. तिर्यंचगति सं. संज्ञी ते. तेजोलेश्या (पीत.) सा. साधारण वनस्पति त्र. त्रसकाय सा. सामायिक, सासादन दे. देवगति सू. सूक्ष्म, सूक्ष्मसांपराय देश.सं. देशसंयम
- सत् प्ररूपणा के भेद
पुराणकोष से
(1) सत् आदि आठ अनुयोगद्वारों में प्रथम अनुयोग द्वार । इसके द्वारा जीवादि द्रव्यों का निरूपण किया जाता है । हरिवंशपुराण - 2.108
(2) उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त द्रव्य । हरिवंशपुराण - 2.108