ज्ञानावरणकर्म: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<div class="HindiText"> <p class="HindiText"> आत्मा के ज्ञानगुण का आवरक एक कर्म । यह सम्यग्ज्ञान को ढक लेता है और आत्महितकारक ज्ञान में बाधाएँ उपस्थित करता है । इसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> आत्मा के ज्ञानगुण का आवरक एक कर्म । यह सम्यग्ज्ञान को ढक लेता है और आत्महितकारक ज्ञान में बाधाएँ उपस्थित करता है । इसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर, जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त और मध्यम स्थिति विविध प्रकार की होती हैं । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_14#21|पद्मपुराण - 14.21]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#95|हरिवंशपुराण - 3.95]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#58|हरिवंशपुराण - 3.58]], 16.156-160 </span></p> | ||
</div> | </div> | ||
Line 10: | Line 10: | ||
[[Category: पुराण-कोष]] | [[Category: पुराण-कोष]] | ||
[[Category: ज्ञ]] | [[Category: ज्ञ]] | ||
[[Category: करणानुयोग]] |
Latest revision as of 17:31, 12 February 2024
आत्मा के ज्ञानगुण का आवरक एक कर्म । यह सम्यग्ज्ञान को ढक लेता है और आत्महितकारक ज्ञान में बाधाएँ उपस्थित करता है । इसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर, जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त और मध्यम स्थिति विविध प्रकार की होती हैं । पद्मपुराण - 14.21, हरिवंशपुराण - 3.95,हरिवंशपुराण - 3.58, 16.156-160