वात्सल्य: Difference between revisions
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<span class="GRef"> धवला 8/3, 41/90/8 </span><span class="PrakritText">तीए तित्थयरकम्मं बज्झइ। कुदो। पंचमहव्वदादिआगमत्थविसयसुक्कट्ठाणुरागस्स दंसणविसुज्झ-दादोहि अविणाभावादो । </span | <span class="GRef"> धवला 8/3, 41/90/8 </span><span class="PrakritText">तीए तित्थयरकम्मं बज्झइ। कुदो। पंचमहव्वदादिआगमत्थविसयसुक्कट्ठाणुरागस्स दंसणविसुज्झ-दादोहि अविणाभावादो । </span> | ||
<span class="GRef"> चारित्रसार/57/1 </span><span class="SanskritText">तेनैकेनापि तीर्थंकरनामकर्मबंधो भवति । </span>= <span class="HindiText">उस एक प्रवचन वात्सल्य से ही तीर्थंकर नामकर्म का बंध हो जाता है, क्योंकि पाँच महाव्रतादिरूप आगमार्थविषयक उत्कृष्ट अनुराग का दर्शनविशुद्धतादिकों के साथ अविनाभाव है। <span class="GRef">( चारित्रसार/57/1 )</span>; (और भी.देखें [[ भावना#2 | भावना - 2]]) <br /> | <span class="GRef"> चारित्रसार/57/1 </span><span class="SanskritText">तेनैकेनापि तीर्थंकरनामकर्मबंधो भवति । </span>= <span class="HindiText">उस एक प्रवचन वात्सल्य से ही तीर्थंकर नामकर्म का बंध हो जाता है, क्योंकि पाँच महाव्रतादिरूप आगमार्थविषयक उत्कृष्ट अनुराग का दर्शनविशुद्धतादिकों के साथ अविनाभाव है। <span class="GRef">( चारित्रसार/57/1 )</span>; (और भी.देखें [[ भावना#2 | भावना - 2]]) <br /> | ||
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Latest revision as of 20:33, 15 February 2024
- वात्सल्य
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/470 तत्र भक्तिरनौद्धत्यं वाग्वपुश्चेतसां शमात्। वात्सल्यं तद्गुणोत्कर्षहेतवे सोद्यतं मनः।470। = दर्शनमोहनीय का उपशम होने से मन वचन काय के उद्धतपने के अभाव को भक्ति कहते हैं, तथा उनके गुणों के उत्कर्ष के लिए तत्पर मन को वात्सल्य कहते हैं।
- वात्सल्य अंग का व्यवहार लक्षण
मूलाचार/263 चादुवण्णे संघे चदुगदिसंसारणित्थरणभूदे। वच्छल्लं कादव्वं वच्छे गावी जहा गिद्धी । = चतुर्गतिरूप संसार से तिरने के कारणभूत मुनि आर्यिका आदि चार प्रकार संघ में, बछड़े में गाय की प्रीति की तरह प्रीति करना चाहिए। यही वात्सल्य गुण है। - (विशेष देखें प्रवचन वात्सल्य का लक्षण ) ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/29 )
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/45/150/5 धर्मस्थेषु मातरि पितरि भ्रातरि वानुरागो वात्सल्यम्। = धार्मिक लोगों पर और माता-पिता भ्राता के ऊपर प्रेम रखना वात्सल्य गुण है।
चारित्रसार/5/3 सद्यः प्रसूता यथा गौर्वत्से स्निह्यति। तथा चातुर्वर्ण्ये संघेऽकृत्रिमस्नेहकरणं वात्सल्यम्। = जिस प्रकार तुरत की प्रसूता गाय अपने बच्चे पर प्रेम करती है,उसी प्रकार चार प्रकार के संघ पर अकृत्रिम या स्वाभाविक प्रेम करना वात्सल्य अंग कहा जाता है। - (देखें आगे शीर्षक सं - 4)
कार्तिकेय अनुप्रेक्षा/मूल/421 जो धम्मिएसु भत्ते अणुचरणं कुणदि परमसद्धाए। पिय वयणं जप्पंतो वच्छल्लं तस्स भव्वस्स ।221। = जो सम्यग्दृष्टि जीव प्रिय वचन बोलता हुआ अत्यंत श्रद्धा से धार्मिक जनों में भक्ति रखता है तथा उनके अनुसार आचरण करता है, उस भव्य जीव के वात्सल्य गुण कहा है।
द्रव्यसंग्रह टीका/41/175/11 बाह्याभ्यंतररत्नत्रयाधारे चतुर्विधसंघे वत्से धेतुवत्पंचेंद्रियविषयनिमित्तं पुत्रकलंत्रसुवर्णादिस्नेहवंद्धा यदकृत्रिमस्नेहकरणं तद्व्यवहारेण वात्सल्यं भण्यते। = बाह्य और अभ्यंतर रत्नत्रय को धारण करने वाले मुनि आर्यिका श्रावक तथा श्राविका रूप चारों प्रकार के संघ में; जैसे गाय की बछड़े में प्रीति रहती है उसके समान, अथवा पाँचों इंद्रियों के विषयों के निमित्त पुत्र, स्त्री, सुवर्ण आदि में जो स्नेह रहता है, उसके समान स्वाभाविक स्नेह करना, वह व्यवहारनय की अपेक्ष से वात्सल्य कहा जाता है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/806 वात्सल्यं नाम दासत्वं सिद्धार्हद्विंबवेश्मसु। संघे चतुविधे शास्त्रे स्वामिकार्ये सुभृत्यवत्। = स्वामी के कार्य में उत्तम सेवक की तरह सिद्ध प्रतिमा, जिनबिंब, जिनमंदिर, चार प्रकार के संघ में और शास्त्र में जो दासत्व भाव रखना है, वही सम्यग्दृष्टि का वात्सल्य नामक अंग या गुण है।
देखें समयसार की व्याख्या `त्रयाणां साधूनां' इस पद के दो अर्थ होते हैं। व्यवहार की अपेक्षा अर्थ करने पर आचार्य, उपाध्याय व साधु इन तीन साधुओं से वात्सल्य करना सम्यग्दृष्टि का गुण है।
- वात्सल्य का निश्चय लक्षण
समयसार/235 जो कुणदि वच्छलत्तं तियेह साहूण मोक्खमग्गम्मि। सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो। = जो (चेतयिता) मोक्षमार्ग में स्थित सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप तीन साधकों या साधनों के प्रति (अथवा व्यवहार से आचार्य उपाध्याय और मुनि इन तीन साधुओं के प्रति) वात्सल्य करता है, वह वात्सल्यभाव से युक्त सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।
राजवार्तिक/6/24/1/529/15 जिनप्रणीतधर्मामृते नित्यानुरागता वात्सल्यम् । = जिन प्रणीत (रत्नत्रय) धर्मरूप अमृत के प्रति नित्य अनुराग करना वात्सल्य है। ( महापुराण/63/320 ); ( चारित्रसार/5/3 )
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/45/150/5 वात्सल्यं, रत्नत्रयादरो व आत्मनः। = अथवा अपने रत्नत्रय धर्म में आदर करना वात्सल्य है।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/29 अनवरतमहिंसायां शिवसुखलक्ष्मीनिबंधने धर्मे। सर्वेष्वपि च सधर्मिषु परमं वात्सल्यमालंब्यं। = मोक्षसुखकी संपदा के कारणभूत जैनधर्म में, अहिंसा में और समस्त ही उक्त धर्मयुक्त साधर्मी जनों में निरंतर उत्कृष्ट वात्सल्य व प्रीति को अवलंबन करना चाहिए।
द्रव्यसंग्रह टीका/41/176/10 निश्चयवात्सल्यं पुनस्तस्यैव व्यवहारवात्सल्यगुणस्य सहकारित्वेन धर्मे दृढत्वे जाते सति मिथ्यात्वरागादिसमस्तशुभाशुभाबहिर्भावेषु प्रीतिं त्यक्त्वा रागादिविकल्पोपाधिरहितपरमस्वास्थ्यसंवित्तिसंजातसदानंदैक-लक्षणसुखामृतरसास्वादं प्रति प्रीतिकरणमेवेति सप्तमांग व्याख्यातम् । = पूर्वोक्त व्यवहार वात्सल्य गुण के सहकारीपने से जब धर्म में दृढता हो जाती है, तब मिथ्यात्व, राग आदि समस्त शुभ अशुभ बाह्य पदार्थों में प्रीति छोड़कर रागादि विकल्पों की उपाधि से रहित परमस्वास्थ्य के अनुभव से उत्पन्न सदा आनंदरूप सुखमय अमृत के आस्वाद के प्रति प्रीति का करना ही निश्चय वात्सल्य है। इस प्रकार सप्तम वात्सल्य अंग का व्याख्यान हुआ।
- प्रवचन वात्सल्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/6/24/339/6 वत्से धेनुवत्सधर्मणि स्नेहः प्रवचनवत्सलत्वम् । = जैसे गाय बछड़े पर स्नेह रखती है उसी प्रकार साधर्मियों पर स्नेह रखना प्रवचनवत्सलत्व है। ( भावपाहुड़ टीका/77/221/17 )
राजवार्तिक/6/24/13/530/20 यथा धेनुर्वत्से अकृ़त्रिमस्नेहमुत्पादयति तथा सधर्माणमवलोक्य्य तद्गतस्नेहाद्री-कृतचित्तता प्रवचनवत्सलत्वमित्युच्युते। यः सधर्मणि स्नेहः स एव प्रवचनस्नेहः इति । = जैसे गाय अपने बछड़े से अकृत्रिम स्नेह करती है उसी तरह धर्मिक जन को देखकर स्नेह से ओतप्रोत हो जाना प्रवचनवत्सलत्व है। जो धार्मिकों में स्नेह है वही तो प्रवचन स्नेह है।
धवला 8/3, 41/90/7 तेसु अणुरागो आकंखा ममेदंभावो पवयणवच्छलदा णाम। = ( उक्त प्रवचनों अर्थात् सिद्धांत या बारह अंगों में अथवा उनमें होने वाले देशव्रती महाव्रती व असंयतसम्यग्दृष्टियों में - (देखें प्रवचन )) जो अनुराग, आकांक्ष अथवा ममेदं बुद्धि होती है, उसका नाम प्रवचनवत्सलता है। ( चारित्रसार/56/5 )
- एक प्रवचनवात्सल्य से तीर्थंकर प्रकृति बंध संभावना में हेतु
धवला 8/3, 41/90/8 तीए तित्थयरकम्मं बज्झइ। कुदो। पंचमहव्वदादिआगमत्थविसयसुक्कट्ठाणुरागस्स दंसणविसुज्झ-दादोहि अविणाभावादो । चारित्रसार/57/1 तेनैकेनापि तीर्थंकरनामकर्मबंधो भवति । = उस एक प्रवचन वात्सल्य से ही तीर्थंकर नामकर्म का बंध हो जाता है, क्योंकि पाँच महाव्रतादिरूप आगमार्थविषयक उत्कृष्ट अनुराग का दर्शनविशुद्धतादिकों के साथ अविनाभाव है। ( चारित्रसार/57/1 ); (और भी.देखें भावना - 2)
- वात्सल्य रहित धर्म निरर्थक है
कुरल काव्य/8/7 अस्थिहीनं यथा कीटं सूर्यो दहति तेजसा। तथा दहति धर्मश्च प्रेमशून्यं नृकीटकम् ।7। = देखो, अस्थिहीन कीड़े को सूर्य किस तरह जला देता है। ठीक उसी तरह धर्मशीलता उस मनुष्य को जला डालती है जो प्रेम नहीं करता।