स्वच्छंद: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<p class="HindiText"><strong>स्वच्छंद साधु--</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>स्वच्छंद साधु--</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>1. स्वच्छंद साधु का लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>1. स्वच्छंद साधु का लक्षण</strong></p> | ||
<p> | <p> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/1308-1312 </span><span class="PrakritText">सिद्धिपुरमुवल्लीणा वि केइ इंदियकसायचोरेहिं। पविलुत्तचरणभंडा उवहदमाणा णिव्ट्टंति।1308। तो ते सीलदरिद्दा दुक्खमणंतं सदा वि पावंति।...।1309। सो होदि साधुसत्थादु णिग्गदो जो भवे जधाछंदो। उस्सुत्तमणुवदिट्टं च जधिज्छाए विकप्पंतो।1310। जो होदि जधाछंदो हु तस्स धणिदं पि संजमितस्स। णत्थि दु चरणं चरणं खु होदि सम्यत्तसहचारी।1311। इंदियकसायगुरुगत्तणेण सुत्तं पमाणमकरंतो। परिमाणेदि जिणुत्ते अत्थे सच्छंददो चेव।1312।</span> = <span class="HindiText">मोक्ष नगर के समीप जाकर भी कितनेक मुनि इंद्रिय और कषायरूपी चोरों से जिनका चारित्र रूपी भांडबल लूटा गया है तथा संयम का अभिमान जिनका नष्ट हुआ है ऐसे होकर मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं।1308। वे शील दरिद्री मुनि हमेशा तीव्र दु:ख को प्राप्त होते हैं।1309। जो मुनि साधु सार्थ को छोड़कर स्वतंत्र हुआ है। जो स्वेच्छाचारी बनकर आगम विरुद्ध और पूर्वाचार्य अकथित आचारों की कल्पना करता है वह स्वच्छंद नामक भ्रष्ट मुनि समझना चाहिए।1310। यथेष्ट प्रवृत्ति करने वाले उस भ्रष्ट मुनि ने यद्यपि घोर संयम किया होगा तथापि सम्यक्त्व न होने से उसका संयम चारित्र नहीं कहा जाता है।1311। इंद्रिय और कषायों में आधीन होने से यह भ्रष्टमुनि जिनप्रणीत सिद्धांत को प्रमाण नहीं मानता है और स्वच्छंदाचारी बनकर सिद्धांत का स्वरूप अन्यथा समझता है तथा अन्यथा विचार में लाता है।1312।</span></p> | |||
<p> | <p> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1950/1723/1 </span><span class="SanskritText">स्वच्छंदसंपर्कात्स्वयमपि स्वच्छंदवृत्ति:। यथाच्छंदो निरूप्यते-उत्सूत्रमनुपदिष्टं स्वेच्छाविकल्पितं यो निरूपयति सोऽभिधीयते यथाच्छंद इति। तद्यथा वर्षे पतति जलधारणमसंयम:। क्षुरकर्तरिकादिभि: केशापनयनप्रशंसनम् आत्मविराधनान्यथा भवतीति। भूमिशय्यातृणपुंजे वसत: अवस्थितानामाबाधेति, उद्देशिकादिके भोजनेऽदोष: ग्रामं सकलं पर्यटतो महती जीवनिकायविराधनेति, गृहामत्रेषु भोजनमदोष इति कथनं, पाणिपात्रिकस्य परिशातनदोषो भवतीति निरूपणा, संप्रति यथोक्तकारी विद्यत इति च भाषणं एवमादिनिरूपणापरा: स्वच्छंदा इत्युच्यंते।</span> = <span class="HindiText">स्वच्छंद मुनि के संसर्ग से मुनि स्वच्छंद बनते हैं। यथाच्छंद मुनि का वर्णन करते हैं-जो मुनि आगम के विरुद्ध आगम में न कहा हुआ और स्वेच्छा कल्पित पदार्थों का स्वरूप कहते हैं उनको यथाच्छंद मुनि कहते हैं। वर्षाकाल में जो पानी गिरता है उसको धारण करना वह असंयम है। उस्तरा और कैंची से केश निकालना ही योग्य है। केशलोंच करने से आत्म-विराधना होती है। सचित्त तृणपुंज पर बैठने से भी भूमि शय्या मूलगुण पाला जाता है। तृण पर बैठने से भी जीवों को बाधा नहीं पहुँचती। उद्देशादि दोष सहित भोजन करना दोषास्पद नहीं है। आहार के लिए सब ग्राम में घूमने से जीवों की विराधना होती है। घर में (वसतिका) में ही भोजन करना अच्छा है। हाथ में आहार लेकर भोजन करने से जीवों को बाधा पहुँचती है। ऐसा वे उत्सूत्र कहते हैं। इस काल में यथोक्त आचरण करने वाले मुनि कोई नहीं हैं। ऐसा कथन करना इत्यादि प्रकार से विरुद्ध भाषण करने वाले मुनियों को यथाछंद अर्थात् स्वच्छंदमुनि कहते हैं।</span></p> | |||
<p> | <p> | ||
<span class="GRef"> चारित्रसार/144/2 </span><span class="SanskritText">त्यक्तगुरुकुल एकाकित्वेन स्वच्छंदविहारी जिनवचनदूषको मृगचारित्र: स्वच्छंद इति वा।</span> = <span class="HindiText">जो अकेले ही स्वच्छंद रीति से विहार करते हैं और जिनेंद्र देव के वचनों को दूषित करने वाले हैं उनको मृगचारित्र अथवा स्वच्छंद कहते हैं। <span class="GRef">( भावपाहुड़ टीका/14/137/22 )</span>।</span></p> | |||
<ol class="HindiText"><li>स्वच्छंद परिग्रह ग्रहण का निराकरण-देखें [[ अपवाद#4 | अपवाद - 4]];</li><li>स्वच्छंद आहार ग्रहण का निराकरण-देखें [[ आहार#2.1.7 | आहार - 2.1.7]]।</li></ol> | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
[[ स्वचारित्र | पूर्व पृष्ठ ]] | [[ स्वचारित्र | पूर्व पृष्ठ ]] |
Latest revision as of 17:12, 28 February 2024
स्वच्छंद साधु--
1. स्वच्छंद साधु का लक्षण
भगवती आराधना/1308-1312 सिद्धिपुरमुवल्लीणा वि केइ इंदियकसायचोरेहिं। पविलुत्तचरणभंडा उवहदमाणा णिव्ट्टंति।1308। तो ते सीलदरिद्दा दुक्खमणंतं सदा वि पावंति।...।1309। सो होदि साधुसत्थादु णिग्गदो जो भवे जधाछंदो। उस्सुत्तमणुवदिट्टं च जधिज्छाए विकप्पंतो।1310। जो होदि जधाछंदो हु तस्स धणिदं पि संजमितस्स। णत्थि दु चरणं चरणं खु होदि सम्यत्तसहचारी।1311। इंदियकसायगुरुगत्तणेण सुत्तं पमाणमकरंतो। परिमाणेदि जिणुत्ते अत्थे सच्छंददो चेव।1312। = मोक्ष नगर के समीप जाकर भी कितनेक मुनि इंद्रिय और कषायरूपी चोरों से जिनका चारित्र रूपी भांडबल लूटा गया है तथा संयम का अभिमान जिनका नष्ट हुआ है ऐसे होकर मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं।1308। वे शील दरिद्री मुनि हमेशा तीव्र दु:ख को प्राप्त होते हैं।1309। जो मुनि साधु सार्थ को छोड़कर स्वतंत्र हुआ है। जो स्वेच्छाचारी बनकर आगम विरुद्ध और पूर्वाचार्य अकथित आचारों की कल्पना करता है वह स्वच्छंद नामक भ्रष्ट मुनि समझना चाहिए।1310। यथेष्ट प्रवृत्ति करने वाले उस भ्रष्ट मुनि ने यद्यपि घोर संयम किया होगा तथापि सम्यक्त्व न होने से उसका संयम चारित्र नहीं कहा जाता है।1311। इंद्रिय और कषायों में आधीन होने से यह भ्रष्टमुनि जिनप्रणीत सिद्धांत को प्रमाण नहीं मानता है और स्वच्छंदाचारी बनकर सिद्धांत का स्वरूप अन्यथा समझता है तथा अन्यथा विचार में लाता है।1312।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1950/1723/1 स्वच्छंदसंपर्कात्स्वयमपि स्वच्छंदवृत्ति:। यथाच्छंदो निरूप्यते-उत्सूत्रमनुपदिष्टं स्वेच्छाविकल्पितं यो निरूपयति सोऽभिधीयते यथाच्छंद इति। तद्यथा वर्षे पतति जलधारणमसंयम:। क्षुरकर्तरिकादिभि: केशापनयनप्रशंसनम् आत्मविराधनान्यथा भवतीति। भूमिशय्यातृणपुंजे वसत: अवस्थितानामाबाधेति, उद्देशिकादिके भोजनेऽदोष: ग्रामं सकलं पर्यटतो महती जीवनिकायविराधनेति, गृहामत्रेषु भोजनमदोष इति कथनं, पाणिपात्रिकस्य परिशातनदोषो भवतीति निरूपणा, संप्रति यथोक्तकारी विद्यत इति च भाषणं एवमादिनिरूपणापरा: स्वच्छंदा इत्युच्यंते। = स्वच्छंद मुनि के संसर्ग से मुनि स्वच्छंद बनते हैं। यथाच्छंद मुनि का वर्णन करते हैं-जो मुनि आगम के विरुद्ध आगम में न कहा हुआ और स्वेच्छा कल्पित पदार्थों का स्वरूप कहते हैं उनको यथाच्छंद मुनि कहते हैं। वर्षाकाल में जो पानी गिरता है उसको धारण करना वह असंयम है। उस्तरा और कैंची से केश निकालना ही योग्य है। केशलोंच करने से आत्म-विराधना होती है। सचित्त तृणपुंज पर बैठने से भी भूमि शय्या मूलगुण पाला जाता है। तृण पर बैठने से भी जीवों को बाधा नहीं पहुँचती। उद्देशादि दोष सहित भोजन करना दोषास्पद नहीं है। आहार के लिए सब ग्राम में घूमने से जीवों की विराधना होती है। घर में (वसतिका) में ही भोजन करना अच्छा है। हाथ में आहार लेकर भोजन करने से जीवों को बाधा पहुँचती है। ऐसा वे उत्सूत्र कहते हैं। इस काल में यथोक्त आचरण करने वाले मुनि कोई नहीं हैं। ऐसा कथन करना इत्यादि प्रकार से विरुद्ध भाषण करने वाले मुनियों को यथाछंद अर्थात् स्वच्छंदमुनि कहते हैं।
चारित्रसार/144/2 त्यक्तगुरुकुल एकाकित्वेन स्वच्छंदविहारी जिनवचनदूषको मृगचारित्र: स्वच्छंद इति वा। = जो अकेले ही स्वच्छंद रीति से विहार करते हैं और जिनेंद्र देव के वचनों को दूषित करने वाले हैं उनको मृगचारित्र अथवा स्वच्छंद कहते हैं। ( भावपाहुड़ टीका/14/137/22 )।
- स्वच्छंद परिग्रह ग्रहण का निराकरण-देखें अपवाद - 4;
- स्वच्छंद आहार ग्रहण का निराकरण-देखें आहार - 2.1.7।