पद्मपुराण - पर्व 100: Difference between revisions
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<p>जब वह परिवार के लोगों को बुलाती थी तब 'आज्ञा देओ' इस प्रकार के संभ्रम सहित शरीर रहित परम कोमल वचन अपने-आप उच्चरित होने लगते थे ।।12।।<span id="13" /> वह मनस्विनी क्रीड़ा में भी किये गये आज्ञा भंग को नहीं सहन करती थी तथा अत्यधिक शीघ्रता के साथ किये हुए कार्यों में भी विभ्रमपूर्वक भौहें घुमाती थी ॥13॥<span id="14" /> यद्यपि समीप में इच्छानुकूल मणियों के दर्पण विद्यमान रहते थे तथापि उसे उभारी हुई तलवार के अग्रभाग में मुख देखने का व्यसन पड़ गया था ॥14॥<span id="15" /> वीणा आदि को दूर कर स्त्रीजनों को नहीं रुचने वाली धनुष की टंकार का शब्द ही उसके कानों में सुख उत्पन्न करता था ।।15।।<span id="16" /> उसके नेत्र पिंजड़ों में बंद सिंहों के ऊपर परम प्रीति को प्राप्त होते थे और मस्तक तो बड़ी कठिनाई से नम्रीभूत होता मानो खड़ा ही हो गया हो ॥16।।<span id="17" /><span id="18" /></p> | <p>जब वह परिवार के लोगों को बुलाती थी तब 'आज्ञा देओ' इस प्रकार के संभ्रम सहित शरीर रहित परम कोमल वचन अपने-आप उच्चरित होने लगते थे ।।12।।<span id="13" /> वह मनस्विनी क्रीड़ा में भी किये गये आज्ञा भंग को नहीं सहन करती थी तथा अत्यधिक शीघ्रता के साथ किये हुए कार्यों में भी विभ्रमपूर्वक भौहें घुमाती थी ॥13॥<span id="14" /> यद्यपि समीप में इच्छानुकूल मणियों के दर्पण विद्यमान रहते थे तथापि उसे उभारी हुई तलवार के अग्रभाग में मुख देखने का व्यसन पड़ गया था ॥14॥<span id="15" /> वीणा आदि को दूर कर स्त्रीजनों को नहीं रुचने वाली धनुष की टंकार का शब्द ही उसके कानों में सुख उत्पन्न करता था ।।15।।<span id="16" /> उसके नेत्र पिंजड़ों में बंद सिंहों के ऊपर परम प्रीति को प्राप्त होते थे और मस्तक तो बड़ी कठिनाई से नम्रीभूत होता मानो खड़ा ही हो गया हो ॥16।।<span id="17" /><span id="18" /></p> | ||
<p>तदनंतर नवम महीना पूर्ण होने पर जब चंद्रमा श्रवण नक्षत्र पर था, तब श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन, उत्तम मंगलाचार से युक्त समस्त लक्षणों से परिपूर्ण एवं पूर्ण चंद्रमा के समान मुख वाली सीता ने सुखपूर्वक सुखदायक दो पुत्र उत्पन्न किये ॥17-18।।<span id="19" /> उन दोनों के उत्पन्न होने पर प्रजा नृत्यमयी के समान हो गई और शंखों के शब्दों के साथ भेरियों एवं नगाड़ों के शब्द होने लगे ।।19।।<span id="20" /> बहिन की प्रीति से राजा ने ऐसा महान उत्सव किया जो उन्मत्त मनुष्य लोक के समान था और सुंदर संपत्ति से सहित था।॥20॥<span id="21" /> उनमें से एक ने अनंगलवण नाम को अलंकृत किया और दूसरे ने सार्थक भाव से मदनांकुश नाम को सुशोभित किया । ॥21॥<span id="22" /> </p> | <p>तदनंतर नवम महीना पूर्ण होने पर जब चंद्रमा श्रवण नक्षत्र पर था, तब श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन, उत्तम मंगलाचार से युक्त समस्त लक्षणों से परिपूर्ण एवं पूर्ण चंद्रमा के समान मुख वाली सीता ने सुखपूर्वक सुखदायक दो पुत्र उत्पन्न किये ॥17-18।।<span id="19" /> उन दोनों के उत्पन्न होने पर प्रजा नृत्यमयी के समान हो गई और शंखों के शब्दों के साथ भेरियों एवं नगाड़ों के शब्द होने लगे ।।19।।<span id="20" /> बहिन की प्रीति से राजा ने ऐसा महान उत्सव किया जो उन्मत्त मनुष्य लोक के समान था और सुंदर संपत्ति से सहित था।॥20॥<span id="21" /> उनमें से एक ने अनंगलवण नाम को अलंकृत किया और दूसरे ने सार्थक भाव से मदनांकुश नाम को सुशोभित किया । ॥21॥<span id="22" /> </p> | ||
<p>तदनंतर माता के हृदय को आनंद देने वाले, प्रवीर पुरुष के अंकुर स्वरूप वे दोनों बालक क्रम-क्रम से वृद्धि को प्राप्त होने लगे ॥22।।<span id="23" /> रक्षा के लिए उनके मस्तक पर जो सरसों के दाने डाले गये थे वे देदीप्यमान प्रतापरूपी अग्नि के तिलगों के समान सुशोभित हो रहे थे ।।23।।<span id="24" /> गोरोचना की पंक से पीला पीला दिखने वाला उनका शरीर ऐसा जान पड़ता था मानो अच्छी तरह से प्रकट | <p>तदनंतर माता के हृदय को आनंद देने वाले, प्रवीर पुरुष के अंकुर स्वरूप वे दोनों बालक क्रम-क्रम से वृद्धि को प्राप्त होने लगे ॥22।।<span id="23" /> रक्षा के लिए उनके मस्तक पर जो सरसों के दाने डाले गये थे वे देदीप्यमान प्रतापरूपी अग्नि के तिलगों के समान सुशोभित हो रहे थे ।।23।।<span id="24" /> गोरोचना की पंक से पीला पीला दिखने वाला उनका शरीर ऐसा जान पड़ता था मानो अच्छी तरह से प्रकट होने वाले स्वाभाविक तेज से ही घिरा हो ॥24॥<span id="25" /> सुवर्णमाला में खचित व्याघ्र संबंधी नखों की बड़ी-बड़ी पंक्ति उनके हृदय पर ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो दर्प के अंकुरों का समूह ही हो ॥25।।<span id="26" /> सब लोगों के मन को हरण करनेवाला जो उनका अव्यक्त प्रथम शब्द था वह उनके जन्म दिन की पवित्रता के सत्यंकार के समान जान पड़ता था अर्थात् उनका जन्म दिन पवित्र दिन है, यह सूचित कर रहा था ॥26॥<span id="27" /> जिस प्रकार पुष्प भ्रमरों के समूह को आकर्षित करते हैं, उसी प्रकार उनकी भोली भाली मनोहर मुसकाने सब ओर से हृदयों को आकर्षित करती थीं ॥27॥<span id="28" /> माता के क्षीर के सिंचन से उत्पन्न विलास हास्य के समान जो छोटे-छोटे दाँत थे उनसे उनका मुख रूपी कमल अत्यंत सुशोभित हो रहा था ॥28॥<span id="29" /> धाय के हाथ की अँगुली पकड़ कर पाँच छह डग देने वाले उन दोनों बालकों ने किसका मन हरण नहीं किया था ॥29॥<span id="30" /> इस प्रकार सुंदर क्रीड़ा करने वाले उन पुत्रों को देखकर माता सीता शोक के समस्त कारण भूल गई ॥30॥<span id="31" /> इस तरह क्रम-क्रम से बढ़ते तथा स्वभाव से उदार विभ्रम को धारण करते हुए वे दोनों सुंदर बालक विद्या ग्रहण के योग्य शरीर की अवस्था को प्राप्त हुए ॥31॥<span id="32" /></p> | ||
<p>तदनंतर उनके पुण्य योग से सिद्धार्थ नामक एक प्रसिद्ध शुद्ध हृदय क्षुल्लक, राजा वज्रजंघ के घर आया ॥32॥<span id="33" /> वह क्षुल्लक महाविद्याओं के द्वारा इतना पराक्रमी था कि तीनों संध्याओं में प्रतिदिन मेरुपर्वत पर विद्यमान जिन-प्रतिमाओं की वंदना कर क्षण भर में अपने स्थान पर आ जाता था ॥33॥<span id="34" /><span id="35" /><span id="36" /><span id="37" /><span id="38" /> वह प्रशांत मुख था, धीर वीर था, केश लुंच करने से उसका मस्तक सुशोभित था, उसका चित्त शुद्ध भावनाओं से युक्त था, वह वस्त्र मात्र परिग्रह का धारक था, उत्तम अणुव्रती था, नानागुण रूपी अलंकारों से अलंकृत था, जिन शासन के रहस्य को जानने वाला था, कलारूपी समुद्र का पारगामी था, धारण किये हुए सफेद चंचल वस्त्र से ऐसा जान पड़ता था मानो मृणालों के समूह से वेष्टित मंद मंद चलने वाला गजराज ही हो, जो पीछी को प्रिय सखी के समान बगल में धारण कर अमृत के स्वाद के समान मनोहर 'धर्मवृद्धि' शब्द का उच्चारण कर रहा था, और घर घर में भिक्षा लेता हुआ धीरे-धीरे चल रहा था, इस तरह भ्रमण करता हुआ संयोगवश उस उत्तम घर में पहुंचा, जहाँ सीता बैठी थी ॥34-38॥<span id="36" /></p> | <p>तदनंतर उनके पुण्य योग से सिद्धार्थ नामक एक प्रसिद्ध शुद्ध हृदय क्षुल्लक, राजा वज्रजंघ के घर आया ॥32॥<span id="33" /> वह क्षुल्लक महाविद्याओं के द्वारा इतना पराक्रमी था कि तीनों संध्याओं में प्रतिदिन मेरुपर्वत पर विद्यमान जिन-प्रतिमाओं की वंदना कर क्षण भर में अपने स्थान पर आ जाता था ॥33॥<span id="34" /><span id="35" /><span id="36" /><span id="37" /><span id="38" /> वह प्रशांत मुख था, धीर वीर था, केश लुंच करने से उसका मस्तक सुशोभित था, उसका चित्त शुद्ध भावनाओं से युक्त था, वह वस्त्र मात्र परिग्रह का धारक था, उत्तम अणुव्रती था, नानागुण रूपी अलंकारों से अलंकृत था, जिन शासन के रहस्य को जानने वाला था, कलारूपी समुद्र का पारगामी था, धारण किये हुए सफेद चंचल वस्त्र से ऐसा जान पड़ता था मानो मृणालों के समूह से वेष्टित मंद मंद चलने वाला गजराज ही हो, जो पीछी को प्रिय सखी के समान बगल में धारण कर अमृत के स्वाद के समान मनोहर 'धर्मवृद्धि' शब्द का उच्चारण कर रहा था, और घर घर में भिक्षा लेता हुआ धीरे-धीरे चल रहा था, इस तरह भ्रमण करता हुआ संयोगवश उस उत्तम घर में पहुंचा, जहाँ सीता बैठी थी ॥34-38॥<span id="36" /></p> | ||
<p>जिनशासन देवी के समान मनोहर भावना को धारण करनेवाली सीता ने ज्यों ही क्षुल्लक को देखा, त्योंही वह संभ्रम के साथ नौखंडा महल से उतर कर नीचे आ गई ॥36॥<span id="40" /><span id="41" /><span id="42" /><span id="43" /><span id="44" /><span id="45" /><span id="46" /><span id="47" /><span id="48" /><span id="49" /><span id="50" /><span id="51" /><span id="52" /><span id="53" /><span id="54" /><span id="55" /><span id="56" /><span id="57" /><span id="58" /><span id="59" /><span id="60" /><span id="61" /><span id="62" /><span id="63" /><span id="64" /><span id="65" /><span id="66" /><span id="67" /><span id="68" /><span id="69" /><span id="70" /><span id="71" /><span id="72" /><span id="73" /><span id="74" /><span id="75" /><span id="76" /><span id="77" /><span id="78" /><span id="79" /><span id="80" /><span id="81" /><span id="82" /><span id="83" /><span id="84" /><span id="85" /><span id="86" /><span id="87" /><span id="88" /><span id="89" /><span id="90" /><span id="91" /><span id="92" 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अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता उस क्षुल्लक ने वार्तालाप बढ़ाने के लिए श्राविका के व्रत धारण | <p>जिनशासन देवी के समान मनोहर भावना को धारण करनेवाली सीता ने ज्यों ही क्षुल्लक को देखा, त्योंही वह संभ्रम के साथ नौखंडा महल से उतर कर नीचे आ गई ॥36॥<span id="40" /><span id="41" /><span id="42" /><span id="43" /><span id="44" /><span id="45" /><span id="46" /><span id="47" /><span id="48" /><span id="49" /><span id="50" /><span id="51" /><span id="52" /><span id="53" /><span id="54" /><span id="55" /><span id="56" /><span id="57" /><span id="58" /><span id="59" /><span id="60" /><span id="61" /><span id="62" /><span id="63" /><span id="64" /><span id="65" /><span id="66" /><span id="67" /><span id="68" /><span id="69" /><span id="70" /><span id="71" /><span id="72" /><span id="73" /><span id="74" /><span id="75" /><span id="76" /><span id="77" /><span id="78" /><span id="79" /><span id="80" /><span id="81" /><span id="82" /><span id="83" /><span id="84" /><span id="85" /><span id="86" /><span 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हरा गया था, ऐसे क्षुल्लक ने अत्यंत संतुष्ट होकर लवणांकुश को देखा ॥43॥<span id="44" /> अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता उस क्षुल्लक ने वार्तालाप बढ़ाने के लिए श्राविका के व्रत धारण करने वाली सीता से उसके पुत्रों से संबंध रखने वाली वार्ता पूछी ॥44॥<span id="45" /> तब नेत्रों से अश्रु की वर्षा करती हुई सीता ने क्षुल्लक के लिए सब समाचार सुनाया, जिसे सुनकर क्षुल्लक भी शोकाक्रांत हो दुःखी हो गया ॥45॥<span id="46" /> उसने कहा भी कि हे देवि ! जिसके देवकुमारों के समान ये दो बालक विद्यमान हैं ऐसी तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए ॥46॥<span id="47" /> </p> | ||
<p>अथानंतर अत्यधिक प्रेम से जिसका हृदय वशीभूत था ऐसे उस क्षुल्लक ने थोड़े ही समय में लवणांकुश को शस्त्र और शास्त्र विद्या ग्रहण करा दी ॥47॥<span id="48" /> वे पुत्र थोड़े ही समय में ज्ञान विज्ञान से संपन्न, कलाओं और गुणों में विशारद तथा दिव्य शस्त्रों के आह्वान एवं छोड़ने के विषय में अत्यंत निपुण हो गये ॥48॥<span id="49" /> महापुण्य के प्रभाव से वे दोनों, जिनके आवरण का संबंध नष्ट हो गया था, ऐसे खजाने के कलशों के समान परम लक्ष्मी को धारण कर रहे थे ॥49॥<span id="50" /> यदि शिष्य शक्ति से सहित है, तो उससे गुरु को कुछ भी खेद नहीं होता, क्योंकि सूर्य के द्वारा नेत्रवान् पुरुष के लिए समस्त पदार्थ सुख से दिखा दिये जाते हैं ॥50॥<span id="81" /><span id="51" /> पूर्व परिचय को धारण करनेवाले मनुष्यों को गुणों की प्राप्ति सुख से हो जाती है सो ठीक ही है क्योंकि मानस-सरोवर में उतरने वाले हंसों को क्या खेद होता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ।।51।।<span id="52" /> पात्र के लिए उपदेश देने वाला गुरु कृतकृत्यता को प्राप्त होता है। क्योंकि जिस प्रकार उल्लू के लिए किया हुआ सूर्य का प्रकाश व्यर्थ होता है, उसी प्रकार अपात्र के लिए दिया हुआ गुरु का उपदेश व्यर्थ होता है ॥52॥<span id="53" /> </p> | <p>अथानंतर अत्यधिक प्रेम से जिसका हृदय वशीभूत था ऐसे उस क्षुल्लक ने थोड़े ही समय में लवणांकुश को शस्त्र और शास्त्र विद्या ग्रहण करा दी ॥47॥<span id="48" /> वे पुत्र थोड़े ही समय में ज्ञान विज्ञान से संपन्न, कलाओं और गुणों में विशारद तथा दिव्य शस्त्रों के आह्वान एवं छोड़ने के विषय में अत्यंत निपुण हो गये ॥48॥<span id="49" /> महापुण्य के प्रभाव से वे दोनों, जिनके आवरण का संबंध नष्ट हो गया था, ऐसे खजाने के कलशों के समान परम लक्ष्मी को धारण कर रहे थे ॥49॥<span id="50" /> यदि शिष्य शक्ति से सहित है, तो उससे गुरु को कुछ भी खेद नहीं होता, क्योंकि सूर्य के द्वारा नेत्रवान् पुरुष के लिए समस्त पदार्थ सुख से दिखा दिये जाते हैं ॥50॥<span id="81" /><span id="51" /> पूर्व परिचय को धारण करनेवाले मनुष्यों को गुणों की प्राप्ति सुख से हो जाती है सो ठीक ही है क्योंकि मानस-सरोवर में उतरने वाले हंसों को क्या खेद होता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ।।51।।<span id="52" /> पात्र के लिए उपदेश देने वाला गुरु कृतकृत्यता को प्राप्त होता है। क्योंकि जिस प्रकार उल्लू के लिए किया हुआ सूर्य का प्रकाश व्यर्थ होता है, उसी प्रकार अपात्र के लिए दिया हुआ गुरु का उपदेश व्यर्थ होता है ॥52॥<span id="53" /> </p> | ||
<p>अथानंतर बढ़ते हुए यश और प्रताप से जिन्होंने लोक को व्याप्त कर रक्खा था ऐसे वे दोनों पुत्र चंद्र और सूर्य के समान सुंदर तथा दुरालोक हो गये अर्थात् वे चंद्रमा के समान सुंदर थे और सूर्य के समान उनकी ओर देखना भी कठिन था ॥53॥<span id="54" /> प्रकट तेज और बल के धारण करनेवाले वे दोनों पुत्र परस्पर मिले हुए अग्नि और पवन के समान जान पड़ते थे अथवा जिनके शरीर के कंधे शिला के समान दृढ़ थे ऐसे वे दोनों भाई हिमाचल और विंध्याचल के समान दिखाई देते थे ॥54॥<span id="55" /> अथवा वे कांत युग संयोजन अर्थात् सुंदर जुवा धारण करने के योग्य (पक्ष में युग की उत्तम व्यवस्था करने में निपुण) महावृषभों के समान थे अथवा धर्माश्रमों के समान रमणीय और सुख को धारण करनेवाले थे ॥55।।<span id="56" /> अथवा वे समस्त तेजस्वी मनुष्यों के उदय तथा अस्त करने में समर्थ थे, इसलिए लोग उन्हें पूर्व और पश्चिम दिशाओं के समान देखते थे ॥56।।<span id="57" /> यह विशाल पृथिवी, निकटवर्ती समुद्र से घिरी होने के कारण उन्हें छोटी-सी कुटिया के समान जान पड़ती थी और इस पृथिवी रूपी कुटिया में यदि उनकी छाया भी तेज से विमुख जाती थी तो उसकी भी वे निंदा करते थे ॥57॥<span id="58" /> पैर के नखों में पड़ने वाले प्रतिबिंब से भी वे लज्जित हो उठते थे और बालों के भंग से भी अत्यधिक दुःख प्राप्त करते थे ॥58॥<span id="59" /> चूड़ामणि में प्रतिबिंबित छत्र से भी वे लज्जित हो जाते थे और दर्पण में दिखने वाले पुरुष के प्रतिबिंब से भी खीझ उठते थे ।।59।।<span id="60" /> मेघ के द्वारा धारण किये हुए धनुष से भी उन्हें क्रोध उत्पन्न हो जाता था और नमस्कार नहीं करने वाले चित्रलिखित राजाओं से भी वे खेदखिन्न हो उठते थे ॥60॥<span id="61" /> अपने विशाल तेज की बात दूर रहे― अत्यंत अल्प मंडल में संतोष को प्राप्त हुए सूर्य के भी तेज में यदि कोई रुकावट डालता था तो वे उसे अनादर की दृष्टि से देखते थे ।।61।।<span id="62" /> जिसका शरीर दिखाई नहीं देता था ऐसी बलिष्ठ वायु को भी वे खंडित कर देते थे तथा चमरी गाय के बालों से वीजित हिमालय के ऊपर भी उनका क्रोध भड़क उठता था ॥62॥<span id="63" /> समुद्रों में भी जो शंख पड़ रहे थे उन्हीं से उनके चित्त खिन्न हो जाते थे तथा समुद्रों के अधिपति वरुण को भी वे सहन नहीं करते थे ॥63॥<span id="64" /> छत्रों से सहित राजाओं को भी वे निश्छाय अर्थात छाया से रहित (पक्ष में कांति से रहित) कर देते थे और सत्पुरुषों के द्वारा सेवित होनेपर प्रसन्न हो मुख से मधु छोड़ते थे अर्थात् उनसे मधुर वचन बोलते थे ॥64।।<span id="65" /> वे साथ-साथ उत्पन्न हुए प्रताप से दूरवर्ती दुष्ट राजाओं के वंश को भी ग्लानि उत्पन्न कर रहे थे अर्थात् दूरवर्ती दुष्ट राजाओं को भी अपने प्रताप से हानि पहुँचाते थे फिर निकटवर्ती दुष्ट राजाओं का तो कहना ही क्या है ? ।।65।।<span id="66" /> निरंतर शस्त्र धारण करने से उनके हस्ततल काले पड़ गये थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो शेष अन्य राजाओं के प्रताप रूप अग्नि को बुझाने से ही काले पड़ गये थे ।।66।।<span id="67" /> अभ्यास के समय उत्पन्न धनुष के गंभीर शब्दों से ऐसा जान पड़ता था मानो निकटवर्ती समस्त दिशारूपी स्त्रियों से वार्तालाप ही कर रहे हों ॥67।।<span id="68" /></p> | <p>अथानंतर बढ़ते हुए यश और प्रताप से जिन्होंने लोक को व्याप्त कर रक्खा था ऐसे वे दोनों पुत्र चंद्र और सूर्य के समान सुंदर तथा दुरालोक हो गये अर्थात् वे चंद्रमा के समान सुंदर थे और सूर्य के समान उनकी ओर देखना भी कठिन था ॥53॥<span id="54" /> प्रकट तेज और बल के धारण करनेवाले वे दोनों पुत्र परस्पर मिले हुए अग्नि और पवन के समान जान पड़ते थे अथवा जिनके शरीर के कंधे शिला के समान दृढ़ थे ऐसे वे दोनों भाई हिमाचल और विंध्याचल के समान दिखाई देते थे ॥54॥<span id="55" /> अथवा वे कांत युग संयोजन अर्थात् सुंदर जुवा धारण करने के योग्य (पक्ष में युग की उत्तम व्यवस्था करने में निपुण) महावृषभों के समान थे अथवा धर्माश्रमों के समान रमणीय और सुख को धारण करनेवाले थे ॥55।।<span id="56" /> अथवा वे समस्त तेजस्वी मनुष्यों के उदय तथा अस्त करने में समर्थ थे, इसलिए लोग उन्हें पूर्व और पश्चिम दिशाओं के समान देखते थे ॥56।।<span id="57" /> यह विशाल पृथिवी, निकटवर्ती समुद्र से घिरी होने के कारण उन्हें छोटी-सी कुटिया के समान जान पड़ती थी और इस पृथिवी रूपी कुटिया में यदि उनकी छाया भी तेज से विमुख जाती थी तो उसकी भी वे निंदा करते थे ॥57॥<span id="58" /> पैर के नखों में पड़ने वाले प्रतिबिंब से भी वे लज्जित हो उठते थे और बालों के भंग से भी अत्यधिक दुःख प्राप्त करते थे ॥58॥<span id="59" /> चूड़ामणि में प्रतिबिंबित छत्र से भी वे लज्जित हो जाते थे और दर्पण में दिखने वाले पुरुष के प्रतिबिंब से भी खीझ उठते थे ।।59।।<span id="60" /> मेघ के द्वारा धारण किये हुए धनुष से भी उन्हें क्रोध उत्पन्न हो जाता था और नमस्कार नहीं करने वाले चित्रलिखित राजाओं से भी वे खेदखिन्न हो उठते थे ॥60॥<span id="61" /> अपने विशाल तेज की बात दूर रहे― अत्यंत अल्प मंडल में संतोष को प्राप्त हुए सूर्य के भी तेज में यदि कोई रुकावट डालता था तो वे उसे अनादर की दृष्टि से देखते थे ।।61।।<span id="62" /> जिसका शरीर दिखाई नहीं देता था ऐसी बलिष्ठ वायु को भी वे खंडित कर देते थे तथा चमरी गाय के बालों से वीजित हिमालय के ऊपर भी उनका क्रोध भड़क उठता था ॥62॥<span id="63" /> समुद्रों में भी जो शंख पड़ रहे थे उन्हीं से उनके चित्त खिन्न हो जाते थे तथा समुद्रों के अधिपति वरुण को भी वे सहन नहीं करते थे ॥63॥<span id="64" /> छत्रों से सहित राजाओं को भी वे निश्छाय अर्थात छाया से रहित (पक्ष में कांति से रहित) कर देते थे और सत्पुरुषों के द्वारा सेवित होनेपर प्रसन्न हो मुख से मधु छोड़ते थे अर्थात् उनसे मधुर वचन बोलते थे ॥64।।<span id="65" /> वे साथ-साथ उत्पन्न हुए प्रताप से दूरवर्ती दुष्ट राजाओं के वंश को भी ग्लानि उत्पन्न कर रहे थे अर्थात् दूरवर्ती दुष्ट राजाओं को भी अपने प्रताप से हानि पहुँचाते थे फिर निकटवर्ती दुष्ट राजाओं का तो कहना ही क्या है ? ।।65।।<span id="66" /> निरंतर शस्त्र धारण करने से उनके हस्ततल काले पड़ गये थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो शेष अन्य राजाओं के प्रताप रूप अग्नि को बुझाने से ही काले पड़ गये थे ।।66।।<span id="67" /> अभ्यास के समय उत्पन्न धनुष के गंभीर शब्दों से ऐसा जान पड़ता था मानो निकटवर्ती समस्त दिशारूपी स्त्रियों से वार्तालाप ही कर रहे हों ॥67।।<span id="68" /></p> | ||
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Latest revision as of 18:05, 15 September 2024
सौवां पर्व
अथानंतर श्री गौतम स्वामी कहते हैं कि हे नरेश्वर ! इस प्रकार यह वृत्तांत तो रहा अब दूसरा लवणांकुश से संबंध रखने वाला वृत्तांत कहता हूँ सो सुन ॥1।। तदनंतर जनक नंदिनी के कृश शरीर ने धवलता धारण की, सो ऐसा जान पड़ता था मानो समस्त प्रजाजनों के निर्मल पुण्य ने उसे ग्रहण किया था, इसलिए उसकी धवलता से ही उसने धवलता धारण की हो ॥2॥ स्तनों के सुंदर चूचुक संबंधी अग्रभाग श्यामवर्ण से युक्त हो गये, सो ऐसे जान पड़ते थे मानो पुत्र के पीने के लिए स्तनरूपी घट मुहर बंद करके ही रख दिये हों ॥3॥ उसकी स्नेहपूर्ण धवल दृष्टि उस प्रकार परम माधुर्य को धारण कर रही थी मानो दूध के लिए उसके मुख पर लंबी-चौड़ी दूध की नदी ही लाकर रख दी हो ॥4॥ उसकी शरीरयष्टि सब प्रकार के मंगलों के समूह से युक्त थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो अपरिमित एवं विशाल कल्याणों का गौरव प्रकट करने के लिए ही युक्त थी ॥5।। जब सीता मणिमयी निर्मल फर्श पर धीरे-धीरे पैर रखती थी तब उनका प्रतिबिंब नीचे पड़ता था, उससे ऐसा जान पड़ता था मानो पृथिवी प्रतिरूपी कमल के द्वारा उसकी पहले से ही सेवा कर रही हो ॥6।। प्रसूति काल में जिसकी आकांक्षा की जाती है ऐसी जो पुत्तलिका सीता की शय्या के समीप रखी गई थी उसका प्रतिबिंब सीता के कपोल में पड़ता था उससे वह पुत्तलिका लक्ष्मी के समान दिखाई देती थी ।।7। रात्रि के समय सीता महल की छत पर चली जाती थी, उस समय उसके वस्त्ररहित स्तनमंडल पर जो चंद्रबिंब का प्रतिबिंब पड़ता था वह ऐसा जान पड़ता था मानो गर्भ के ऊपर सफेद छत्र ही धारण किया गया हो ॥8॥ जिस समय वह निवास-गृह में सोती थी उस समय भी चंचल भुजाओं से युक्त एवं नाना प्रकार के चमर धारण करनेवाली स्त्रियाँ उस पर चमर ढोरती रहती थीं ।।9।। स्वप्न में अलंकारों से अलंकृत बड़े-बड़े हाथी, कमलिनी के पत्र पुट में रखे हुए जल के द्वारा उसका आदरपूर्वक अभिषेक करते थे ॥10॥ जब वह जागती थी तब बार-बार जय-जय शब्द होता था, उससे ऐसा जान पड़ता था मानो महल के ऊर्द्ध भाग में सुशोभित पुत्तलियाँ ही जय-जय शब्द कर रही हों ।।11।।
जब वह परिवार के लोगों को बुलाती थी तब 'आज्ञा देओ' इस प्रकार के संभ्रम सहित शरीर रहित परम कोमल वचन अपने-आप उच्चरित होने लगते थे ।।12।। वह मनस्विनी क्रीड़ा में भी किये गये आज्ञा भंग को नहीं सहन करती थी तथा अत्यधिक शीघ्रता के साथ किये हुए कार्यों में भी विभ्रमपूर्वक भौहें घुमाती थी ॥13॥ यद्यपि समीप में इच्छानुकूल मणियों के दर्पण विद्यमान रहते थे तथापि उसे उभारी हुई तलवार के अग्रभाग में मुख देखने का व्यसन पड़ गया था ॥14॥ वीणा आदि को दूर कर स्त्रीजनों को नहीं रुचने वाली धनुष की टंकार का शब्द ही उसके कानों में सुख उत्पन्न करता था ।।15।। उसके नेत्र पिंजड़ों में बंद सिंहों के ऊपर परम प्रीति को प्राप्त होते थे और मस्तक तो बड़ी कठिनाई से नम्रीभूत होता मानो खड़ा ही हो गया हो ॥16।।
तदनंतर नवम महीना पूर्ण होने पर जब चंद्रमा श्रवण नक्षत्र पर था, तब श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन, उत्तम मंगलाचार से युक्त समस्त लक्षणों से परिपूर्ण एवं पूर्ण चंद्रमा के समान मुख वाली सीता ने सुखपूर्वक सुखदायक दो पुत्र उत्पन्न किये ॥17-18।। उन दोनों के उत्पन्न होने पर प्रजा नृत्यमयी के समान हो गई और शंखों के शब्दों के साथ भेरियों एवं नगाड़ों के शब्द होने लगे ।।19।। बहिन की प्रीति से राजा ने ऐसा महान उत्सव किया जो उन्मत्त मनुष्य लोक के समान था और सुंदर संपत्ति से सहित था।॥20॥ उनमें से एक ने अनंगलवण नाम को अलंकृत किया और दूसरे ने सार्थक भाव से मदनांकुश नाम को सुशोभित किया । ॥21॥
तदनंतर माता के हृदय को आनंद देने वाले, प्रवीर पुरुष के अंकुर स्वरूप वे दोनों बालक क्रम-क्रम से वृद्धि को प्राप्त होने लगे ॥22।। रक्षा के लिए उनके मस्तक पर जो सरसों के दाने डाले गये थे वे देदीप्यमान प्रतापरूपी अग्नि के तिलगों के समान सुशोभित हो रहे थे ।।23।। गोरोचना की पंक से पीला पीला दिखने वाला उनका शरीर ऐसा जान पड़ता था मानो अच्छी तरह से प्रकट होने वाले स्वाभाविक तेज से ही घिरा हो ॥24॥ सुवर्णमाला में खचित व्याघ्र संबंधी नखों की बड़ी-बड़ी पंक्ति उनके हृदय पर ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो दर्प के अंकुरों का समूह ही हो ॥25।। सब लोगों के मन को हरण करनेवाला जो उनका अव्यक्त प्रथम शब्द था वह उनके जन्म दिन की पवित्रता के सत्यंकार के समान जान पड़ता था अर्थात् उनका जन्म दिन पवित्र दिन है, यह सूचित कर रहा था ॥26॥ जिस प्रकार पुष्प भ्रमरों के समूह को आकर्षित करते हैं, उसी प्रकार उनकी भोली भाली मनोहर मुसकाने सब ओर से हृदयों को आकर्षित करती थीं ॥27॥ माता के क्षीर के सिंचन से उत्पन्न विलास हास्य के समान जो छोटे-छोटे दाँत थे उनसे उनका मुख रूपी कमल अत्यंत सुशोभित हो रहा था ॥28॥ धाय के हाथ की अँगुली पकड़ कर पाँच छह डग देने वाले उन दोनों बालकों ने किसका मन हरण नहीं किया था ॥29॥ इस प्रकार सुंदर क्रीड़ा करने वाले उन पुत्रों को देखकर माता सीता शोक के समस्त कारण भूल गई ॥30॥ इस तरह क्रम-क्रम से बढ़ते तथा स्वभाव से उदार विभ्रम को धारण करते हुए वे दोनों सुंदर बालक विद्या ग्रहण के योग्य शरीर की अवस्था को प्राप्त हुए ॥31॥
तदनंतर उनके पुण्य योग से सिद्धार्थ नामक एक प्रसिद्ध शुद्ध हृदय क्षुल्लक, राजा वज्रजंघ के घर आया ॥32॥ वह क्षुल्लक महाविद्याओं के द्वारा इतना पराक्रमी था कि तीनों संध्याओं में प्रतिदिन मेरुपर्वत पर विद्यमान जिन-प्रतिमाओं की वंदना कर क्षण भर में अपने स्थान पर आ जाता था ॥33॥ वह प्रशांत मुख था, धीर वीर था, केश लुंच करने से उसका मस्तक सुशोभित था, उसका चित्त शुद्ध भावनाओं से युक्त था, वह वस्त्र मात्र परिग्रह का धारक था, उत्तम अणुव्रती था, नानागुण रूपी अलंकारों से अलंकृत था, जिन शासन के रहस्य को जानने वाला था, कलारूपी समुद्र का पारगामी था, धारण किये हुए सफेद चंचल वस्त्र से ऐसा जान पड़ता था मानो मृणालों के समूह से वेष्टित मंद मंद चलने वाला गजराज ही हो, जो पीछी को प्रिय सखी के समान बगल में धारण कर अमृत के स्वाद के समान मनोहर 'धर्मवृद्धि' शब्द का उच्चारण कर रहा था, और घर घर में भिक्षा लेता हुआ धीरे-धीरे चल रहा था, इस तरह भ्रमण करता हुआ संयोगवश उस उत्तम घर में पहुंचा, जहाँ सीता बैठी थी ॥34-38॥
जिनशासन देवी के समान मनोहर भावना को धारण करनेवाली सीता ने ज्यों ही क्षुल्लक को देखा, त्योंही वह संभ्रम के साथ नौखंडा महल से उतर कर नीचे आ गई ॥36॥