वर्ण व्यवस्था: Difference between revisions
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<li class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> उच्च-नीच गोत्र या वर्णभेद का स्वामित्व क्षेत्र आदि </strong></span><br /> | <li class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> उच्च-नीच गोत्र या वर्णभेद का स्वामित्व क्षेत्र आदि </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> | <span class="GRef">[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_7#102|हरिवंशपुराण - 7.102-103]]</span> <span class="SanskritGatha">आर्यामाह नरो नारीमार्यं नारी नरं निजम् । भोगभूमिनरस्त्रीणां नाम साधारणं हि तत् ।102। उत्तमा जातिरेकव चातुर्वर्ण्यं न षट्क्रियाः । न स्वस्वामिकृतः पुंसां संबंधो न च लिंगिनः ।103।</span> = <span class="HindiText">वह पुरुष स्त्री को आर्या और स्त्री पुरुष को आर्य कहती है । यथार्थ में भोगभूमिज स्त्री-पुरुषों का वह साधारण नाम है ।102। उस समय सबकी एक ही उत्तम जाति होती है । वहाँ न ब्राह्मणादि चार वर्ण होते हैं और न ही असि, मसि आदि छह कर्म होते हैं, न सेवक और स्वामी का संबंध होता है और न वेषधारी ही होते हैं ।103। <br /> | ||
देखें [[ वर्ण_व्यवस्था#1.4 | वर्णव्यवस्था - 1.4 ]](सभी देव व भोगभूमिज उच्चगोत्री तथा सभी नारकी, तिर्यंच व म्लेच्छ नीचगोत्री होते हैं ।) </span><br /> | देखें [[ वर्ण_व्यवस्था#1.4 | वर्णव्यवस्था - 1.4 ]](सभी देव व भोगभूमिज उच्चगोत्री तथा सभी नारकी, तिर्यंच व म्लेच्छ नीचगोत्री होते हैं ।) </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 15/61/6</span> <span class="PrakritText">उच्चगोदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदीरणा । णवरि मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा सिया उदीरेदि, देवो देवी वा संजदो वा णियमा उदीरेंति, संजदासंजदो सिया उदीरेदि । णीचगोदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव संजदासंजदस्स उदीरणा । णवरि देवेसु णत्थि उदीरणा, तिरिक्खणेरइएसु णियमा उदीरणा, मणुसेसुं सिया उदीरणा । एवं सामित्तं समत्तं ।</span> =<span class="HindiText"> उच्चगोत्र की उदीरणा मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवली के अंतिम समय तक होती है । विशेष इतना है, कि मनुष्य और मनुष्यणी तथा संयतासंयत जीव कदाचित् उदीरणा करते हैं । देव, देवी तथा संयत जीव उसकी उदीरणा नियम से करते हैं । नीचगोत्र की उदीरणा मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक होती है, विशेष इतना है कि देवों में उसकी उदीरणा संभव नहीं है, तिर्यंचों व नारकियों में उसकी उदीरणा नियम से तथा मनुष्यों में कदाचित् होती है । </span><br /> | <span class="GRef"> धवला 15/61/6</span> <span class="PrakritText">उच्चगोदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदीरणा । णवरि मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा सिया उदीरेदि, देवो देवी वा संजदो वा णियमा उदीरेंति, संजदासंजदो सिया उदीरेदि । णीचगोदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव संजदासंजदस्स उदीरणा । णवरि देवेसु णत्थि उदीरणा, तिरिक्खणेरइएसु णियमा उदीरणा, मणुसेसुं सिया उदीरणा । एवं सामित्तं समत्तं ।</span> =<span class="HindiText"> उच्चगोत्र की उदीरणा मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवली के अंतिम समय तक होती है । विशेष इतना है, कि मनुष्य और मनुष्यणी तथा संयतासंयत जीव कदाचित् उदीरणा करते हैं । देव, देवी तथा संयत जीव उसकी उदीरणा नियम से करते हैं । नीचगोत्र की उदीरणा मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक होती है, विशेष इतना है कि देवों में उसकी उदीरणा संभव नहीं है, तिर्यंचों व नारकियों में उसकी उदीरणा नियम से तथा मनुष्यों में कदाचित् होती है । </span><br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="1.10" id="1.10"> दोनों गोत्रों का जघन्य व उत्कृष्ट काल </strong></span><br /> | <li class="HindiText"><strong name="1.10" id="1.10"> दोनों गोत्रों का जघन्य व उत्कृष्ट काल </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला 15/67/8 </span> <span class="SanskritText">णीचगोदस्स जहण्णेण एगसमओ, उच्चगोदादो णीचागोदं गंतूण तत्थ एगसमयमच्छिय विदियसमए उच्चगोदो उदयमागदे एगसमओ लब्भदे । उक्कस्सेण अंसंखेच्चापरियट्ठा । उच्चागोदस्स जहण्णेण एयसमओ, उत्तरसरीरं विउव्विय एगसमएण मुदस्स तदुवलंभादो । एवं णीचागोदस्स वि । उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं ।</span> =<span class="HindiText"> नीचगोत्र का उदीरणाकाल जघन्य से एक समय मात्र है, क्योंकि उच्चगोत्र से नीच गोत्र को प्राप्त होकर और वहाँ एक समय रहकर द्वितीय समय में उच्चगोत्र का उदय होने पर एक समय उदीरणाकाल पाया जाता है । उत्कर्ष से वह असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । (तिर्यंच गति में उत्कृष्ट रूप इतने काल तक रह सकता है) । उच्चगोत्र का उदीरणाकाल जघन्य से एक समय मात्र है, क्योंकि उत्तर शरीर की विक्रिया करके एक समय में मृत्यु को प्राप्त हुए जीव के उक्त काल पाया जाता है । (उच्चगोत्री शरीर वाला तो नीचगोत्री के शरीर की विक्रिया करके तथा नीचगोत्री उच्चगोत्री | <span class="GRef">धवला 15/67/8 </span> <span class="SanskritText">णीचगोदस्स जहण्णेण एगसमओ, उच्चगोदादो णीचागोदं गंतूण तत्थ एगसमयमच्छिय विदियसमए उच्चगोदो उदयमागदे एगसमओ लब्भदे । उक्कस्सेण अंसंखेच्चापरियट्ठा । उच्चागोदस्स जहण्णेण एयसमओ, उत्तरसरीरं विउव्विय एगसमएण मुदस्स तदुवलंभादो । एवं णीचागोदस्स वि । उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं ।</span> =<span class="HindiText"> नीचगोत्र का उदीरणाकाल जघन्य से एक समय मात्र है, क्योंकि उच्चगोत्र से नीच गोत्र को प्राप्त होकर और वहाँ एक समय रहकर द्वितीय समय में उच्चगोत्र का उदय होने पर एक समय उदीरणाकाल पाया जाता है । उत्कर्ष से वह असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । (तिर्यंच गति में उत्कृष्ट रूप इतने काल तक रह सकता है) । उच्चगोत्र का उदीरणाकाल जघन्य से एक समय मात्र है, क्योंकि उत्तर शरीर की विक्रिया करके एक समय में मृत्यु को प्राप्त हुए जीव के उक्त काल पाया जाता है । (उच्चगोत्री शरीर वाला तो नीचगोत्री के शरीर की विक्रिया करके तथा नीचगोत्री उच्चगोत्री के शरीर की विक्रिया करके एक समय पश्चात् मृत्यु को प्राप्त होवे) नीचगोत्र का भी जघन्यकाल इसी प्रकार से घटित किया जा सकता है । उच्चगोत्र का उत्कृष्ट काल सागरोपम शतपृथक्त्व प्रमाण है । (देवों व मनुष्यों में भ्रमण करता रहे तो) (और भी देखें [[ वर्ण व्यवस्था#3.3 | वर्ण व्यवस्था - 3.3]]) । </span></li> | ||
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<span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/4/1618</span> <span class="PrakritText">चक्कधराउ दिजाणं हवेदि वंसस्स उप्पत्ती ।1618। </span>= <span class="HindiText">हुंडावसर्पिणीकाल में चक्रवर्ती से की गयी द्विजों के वर्ण की उत्पत्ति भी होती है । <br /> | <span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति/4/1618</span> <span class="PrakritText">चक्कधराउ दिजाणं हवेदि वंसस्स उप्पत्ती ।1618। </span>= <span class="HindiText">हुंडावसर्पिणीकाल में चक्रवर्ती से की गयी द्विजों के वर्ण की उत्पत्ति भी होती है । <br /> | ||
<span class="GRef">पद्मपुराण/4/91-122 का भावार्थ</span> - भगवान् ॠषभदेव का समवशरण आया जान भरत चक्रवर्ती ने संघ के मुनियों के उद्देश्य से उत्तम-उत्तम भोजन बनवाये और नौकरों के सिरपर रखवाकर भगवान् के पास पहुँचा । परंतु भगवान् ने उद्दिष्ट होने के कारण उस भोजन को स्वीकार न किया ।91-97 । तब भरत ने अन्य भी आवश्यक सामग्री के साथ उस भोजन को दान देने के द्वारा व्रती श्रावकों का सम्मान करने के अर्थ उन्हें अपने यहाँ निमंत्रित किया ।98-103 । क्योंकि आने वालों में सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि सभी थे इसलिए भरत चक्रवर्ती ने अपने भवन के आँगन में जौ, धान, मूँग, उड़द आदि के अंकुर बोकर उन सब की परीक्षा की और सम्यग्दृष्टि पुरुषों की छाँट कर ली ।104-110 । भरत का सम्मान पाकर उन्हें अभिमान जागृत हो गया और अपने को महान् समझकर समस्त पृथिवी तल पर याचना करते हुए विचरण करने लगे ।111-114 । अपने मंत्री के मुख से उनके आगामी भ्रष्टाचार की संभावना सुन चक्रवर्ती उन्हें मारने के लिए उद्यत हुआ, परंतु वे सब भगवान् ॠषभदेव की शरण में जाकर प्रार्थना करने लगे । और भगवान् ने भरत को उनका बध करने से रोक दिया ।115-122 । <br /> | <span class="GRef">पद्मपुराण/4/91-122 का भावार्थ</span> - भगवान् ॠषभदेव का समवशरण आया जान भरत चक्रवर्ती ने संघ के मुनियों के उद्देश्य से उत्तम-उत्तम भोजन बनवाये और नौकरों के सिरपर रखवाकर भगवान् के पास पहुँचा । परंतु भगवान् ने उद्दिष्ट होने के कारण उस भोजन को स्वीकार न किया ।91-97 । तब भरत ने अन्य भी आवश्यक सामग्री के साथ उस भोजन को दान देने के द्वारा व्रती श्रावकों का सम्मान करने के अर्थ उन्हें अपने यहाँ निमंत्रित किया ।98-103 । क्योंकि आने वालों में सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि सभी थे इसलिए भरत चक्रवर्ती ने अपने भवन के आँगन में जौ, धान, मूँग, उड़द आदि के अंकुर बोकर उन सब की परीक्षा की और सम्यग्दृष्टि पुरुषों की छाँट कर ली ।104-110 । भरत का सम्मान पाकर उन्हें अभिमान जागृत हो गया और अपने को महान् समझकर समस्त पृथिवी तल पर याचना करते हुए विचरण करने लगे ।111-114 । अपने मंत्री के मुख से उनके आगामी भ्रष्टाचार की संभावना सुन चक्रवर्ती उन्हें मारने के लिए उद्यत हुआ, परंतु वे सब भगवान् ॠषभदेव की शरण में जाकर प्रार्थना करने लगे । और भगवान् ने भरत को उनका बध करने से रोक दिया ।115-122 । <br /> | ||
<span class="GRef">हरिवंशपुराण | <span class="GRef">[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_9#33|हरिवंशपुराण - 9.33-39]] का भावार्थ</span> - कल्पवृक्षों के लोप के कारण भगवान् ॠषभदेव ने प्रजा को असि मसि आदि षट्कर्मों का उपदेश दिया ।33-36 । उसे सीखकर शिल्पीजनों ने नगर ग्राम आदि की रचना की ।37-38 । उसी समय क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ये तीन वर्ण भी उत्पन्न हुए । विनाश से जीवों की रक्षा करने के कारण क्षत्रिय, वाणिज्य व्यापार के योग से वैश्य और शिल्प आदि के संबंध से शूद्र कहलाये ।39। ( महापुराण/16/179-183 ) । <br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/16/184-187 का भावार्थ</span> - उनमें भी शूद्र दो प्रकार के हो गये - कारू और अकारू (विशेष देखें [[ वर्ण_व्यवस्था#4 | वर्णव्यवस्था - 4]]) । ये सभी वर्णों के लोग अपनी-अपनी निश्चित आजीविका को छोड़कर अन्य वर्ण की आजीविका नहीं करते थे ।184-187 । <br /> | <span class="GRef"> महापुराण/16/184-187 का भावार्थ</span> - उनमें भी शूद्र दो प्रकार के हो गये - कारू और अकारू (विशेष देखें [[ वर्ण_व्यवस्था#4 | वर्णव्यवस्था - 4]]) । ये सभी वर्णों के लोग अपनी-अपनी निश्चित आजीविका को छोड़कर अन्य वर्ण की आजीविका नहीं करते थे ।184-187 । <br /> | ||
<span class="GRef">महापुराण/38/5-50 का भावार्थ </span>- दिग्विजय करने के पश्चात् भरत चक्रवर्ती को परोपकार में अपना धन लगाने की बुद्धि उपजी ।5। तब महामह यज्ञ का अनुष्ठान किया ।6। सद्व्रती गृहस्थों की परीक्षा करने के लिए समस्त राजाओं को अपने-अपने परिवार व परिकर सहित उस उत्सव में निमंत्रित किया ।7-10 । उनके विवेक की परीक्षा के अर्थ अपने घर के आँगन में अंकुर फल व पुष्प भरवा दिये ।11। जो लोग बिना सोचे समझे उन अंकुरों को कुचलते हुए राजमंदिर में घुस आये उनको पृथक् कर दिया गया ।12। परंतु जो लोग अंकुरों आदि पर पाँव रखने के भय से अपने घरों को वापस लौटने लगे, उनको दूसरे मार्ग से आँगन में प्रवेश कराके चक्रवर्ती ने बहुत सम्मानित किया ।13-20 । उनको उन-उनके व्रतों व प्रतिमाओं के अनुसार यज्ञ पवीत से चिह्नित किया ।21-22 । (विशेष देखें [[ यज्ञोपवीत ]]) । भरत ने उन्हें उपास का ध्ययन आदि का उपदेश देकर अर्हत् पूजा आदि उनके नित्य कर्म व कर्त्तव्य बताये ।24-25 । पूजा, वार्ता, दत्ति (दान), स्वाध्याय, संयम और तप इन छह प्रकार की विशुद्ध वृत्ति के कारण ही उनको द्विज संज्ञा दी । और उन्हें उत्तम समझा गया ।42-44 । (विशेष देखें [[ ब्राह्मण ]]) । उनको गर्भान्वय, दीक्षान्वय और कर्न्नान्वय इन तीन प्रकार की क्रियाओं का भी उपदेश दिया ।-(विशेष देखें [[ संस्कार ]]) ।50। </span><br /> | <span class="GRef">महापुराण/38/5-50 का भावार्थ </span>- दिग्विजय करने के पश्चात् भरत चक्रवर्ती को परोपकार में अपना धन लगाने की बुद्धि उपजी ।5। तब महामह यज्ञ का अनुष्ठान किया ।6। सद्व्रती गृहस्थों की परीक्षा करने के लिए समस्त राजाओं को अपने-अपने परिवार व परिकर सहित उस उत्सव में निमंत्रित किया ।7-10 । उनके विवेक की परीक्षा के अर्थ अपने घर के आँगन में अंकुर फल व पुष्प भरवा दिये ।11। जो लोग बिना सोचे समझे उन अंकुरों को कुचलते हुए राजमंदिर में घुस आये उनको पृथक् कर दिया गया ।12। परंतु जो लोग अंकुरों आदि पर पाँव रखने के भय से अपने घरों को वापस लौटने लगे, उनको दूसरे मार्ग से आँगन में प्रवेश कराके चक्रवर्ती ने बहुत सम्मानित किया ।13-20 । उनको उन-उनके व्रतों व प्रतिमाओं के अनुसार यज्ञ पवीत से चिह्नित किया ।21-22 । (विशेष देखें [[ यज्ञोपवीत ]]) । भरत ने उन्हें उपास का ध्ययन आदि का उपदेश देकर अर्हत् पूजा आदि उनके नित्य कर्म व कर्त्तव्य बताये ।24-25 । पूजा, वार्ता, दत्ति (दान), स्वाध्याय, संयम और तप इन छह प्रकार की विशुद्ध वृत्ति के कारण ही उनको द्विज संज्ञा दी । और उन्हें उत्तम समझा गया ।42-44 । (विशेष देखें [[ ब्राह्मण ]]) । उनको गर्भान्वय, दीक्षान्वय और कर्न्नान्वय इन तीन प्रकार की क्रियाओं का भी उपदेश दिया ।-(विशेष देखें [[ संस्कार ]]) ।50। </span><br /> | ||
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देखें [[ श्रेणी#1 | श्रेणी - 1 ]]। (चक्रवर्ती की सेना में 18 श्रेणियाँ होती हैं, जिनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र इन चार श्रेणियों का भी निर्देश किया गया है) । </span><br /> | देखें [[ श्रेणी#1 | श्रेणी - 1 ]]। (चक्रवर्ती की सेना में 18 श्रेणियाँ होती हैं, जिनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र इन चार श्रेणियों का भी निर्देश किया गया है) । </span><br /> | ||
<span class="GRef">धवला 1/1, 1, 1/ गाथा 61/65</span><span class="PrakritText"> गोत्तेण गोदमो विप्पो चाउव्वेइयसडंगवि । णामेण इदभूदि त्ति सीलवं बम्हणुत्तमो ।61।’’ </span>= <span class="HindiText">गौतम गोत्री, विप्रवर्णी, चारों वेद और षडंगविद्या का पारगामी, शीलवान् और ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ऐसा वर्द्धमानस्वामी का प्रथम गणधर ‘इंद्रभूति’ इस नाम से प्रसिद्ध हुआ ।61। </span><br /> | <span class="GRef">धवला 1/1, 1, 1/ गाथा 61/65</span><span class="PrakritText"> गोत्तेण गोदमो विप्पो चाउव्वेइयसडंगवि । णामेण इदभूदि त्ति सीलवं बम्हणुत्तमो ।61।’’ </span>= <span class="HindiText">गौतम गोत्री, विप्रवर्णी, चारों वेद और षडंगविद्या का पारगामी, शीलवान् और ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ऐसा वर्द्धमानस्वामी का प्रथम गणधर ‘इंद्रभूति’ इस नाम से प्रसिद्ध हुआ ।61। </span><br /> | ||
<span class="GRef">महापुराण/38/45-46</span> <span class="SanskritGatha"> मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहिताद्भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ।45। ब्राह्मणा व्रतसं-स्कारात्, क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ।46। </span>= <span class="HindiText">यद्यपि जाति नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक ही है, तथापि आजीविका के भेद से होने वाले भेद के कारण वह चार प्रकार की हो गयी है ।45। व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्र धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमाने से वैश्य और नीच वृत्ति का आश्रय लेने से मनुष्य शूद्र कहलाते हैं ।46। <span class="GRef">(हरिवंशपुराण | <span class="GRef">महापुराण/38/45-46</span> <span class="SanskritGatha"> मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहिताद्भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ।45। ब्राह्मणा व्रतसं-स्कारात्, क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ।46। </span>= <span class="HindiText">यद्यपि जाति नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक ही है, तथापि आजीविका के भेद से होने वाले भेद के कारण वह चार प्रकार की हो गयी है ।45। व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्र धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमाने से वैश्य और नीच वृत्ति का आश्रय लेने से मनुष्य शूद्र कहलाते हैं ।46। <span class="GRef">([[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_9#39|हरिवंशपुराण - 9.39]])</span>; <span class="GRef">( महापुराण/16/184)</span> । <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> केवल उच्च जाति मुक्ति का कारण नहीं है </strong></span><br /> | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> केवल उच्च जाति मुक्ति का कारण नहीं है </strong></span><br /> |
Revision as of 08:51, 12 December 2024
गोत्रकर्म के उदय से जीवों का ऊँच तथा नीच कुलों में जन्म होता है, अथवा उनमें ऊँच व नीच संस्कारों की प्रतीति होती है। उस ही के कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चार प्रकार वर्णों की व्यवस्था होती है । इस वर्ण व्यवस्था में जन्म की अपेक्षा गुणकर्म अधिक प्रधान माने गये हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन ही वर्ण उच्च होने के कारण जिन दीक्षा के योग्य हैं । शूद्रवर्ण नीच होने के कारण प्रव्रज्या के योग्य नहीं है । वह केवल उत्कृष्ट श्रावक तक हो सकता है ।
- गोत्रकर्म निर्देश
- गोत्रकर्म सामान्य का लक्षण ।
- गोत्रकर्म के दो अथवा अनेक भेद ।
- उच्च व नीचगोत्र के लक्षण ।
- गोत्रकर्म के अस्तित्व संबंधी शंका ।
- उच्चगोत्र व तीर्थंकर प्रकृति में अंतर ।
- उच्च-नीचगोत्र के बंध योग्य परिणाम ।
- उच्च-नीचगोत्र या वर्णभेद का स्वामित्व व क्षेत्र आदि ।
- तिर्यंचों व क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयतों में गोत्र संबंधी विशेषता ।
- गोत्रकर्म के अनुभाग संबंधी नियम ।
- दोनों गोत्रों का जघन्य व उत्कृष्ट काल ।
- गोत्रकर्म प्रकृति का बंध उदय सत्त्वरूप प्ररूपणाएँ । - देखें वह वह नाम ।
- गोत्र परिवर्तन संबंधी - देखें वर्ण व्यवस्था - 3.3 ।
- गोत्रकर्म सामान्य का लक्षण ।
- वर्णव्यवस्था निर्देश
- उच्चता व नीचता में गुणकर्म व जन्म की कथंचित् प्रधानता व गौणता
- सम्यग्दृष्टि मरकर उच्चकुल में ही उत्पन्न होता है । - देखें जन्म - 3.1 ।
- सम्यग्दृष्टि मरकर उच्चकुल में ही उत्पन्न होता है । - देखें जन्म - 3.1 ।
- शूद्र निर्देश
- नीच कुलीन के घर साधु आहार नहीं लेते उनका स्पर्श होने पर स्नान करते हैं । - देखें भिक्षा - 3 ।
- नीच कुलीन व अस्पृश्य के हाथ के भोजन पान का निषेध । - देखें भक्ष्याभक्ष्य - 1।
- कृषि सर्वोत्कृष्ट उद्यम है । - देखें सावद्य - 6 ।
- तीन उच्चवर्ण ही प्रव्रज्या के योग्य है । - देखें प्रव्रज्या - 1.2 ।
- गोत्रकर्म निर्देश
- गोत्रकर्म सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/3, 4 पृष्ठ/पंक्ति गोत्रस्योच्चैर्नीचैः स्थानसंशब्दनम् । (379/2) । उच्चैर्नीचैश्च गूयते शब्द्यत इति वा गोत्रम् । (381/1) ।- उच्च और नीच स्थान का संशब्दन गोत्रकर्म की प्रकृति है । ( राजवार्तिक/8/3/4/597/5 ) ।
- जिसके द्वारा जीव उच्च नीच गूयते अर्थात् कहा जाता है वह गोत्रकर्म है ।
राजवार्तिक/6/25/5/531/6 गूयते शब्द्यते तदिति गोत्रम्, औणादिकेन त्रटा निष्पत्तिः । = जो गूयते अर्थात् शब्द व्यवहार में आवे वह गोत्र है ।
धवला 6/1, 9-1, 11/13/7 गमयत्युच्चनीचकुलमिति गोत्रम् । उच्चनीचकुलेसु उप्पादओ पोग्गलक्खंधो मिच्छत्तदि-पच्चएहि जीवसंबद्धो गोदमिदि उच्चदे । = जो उच्च और नीच कुल को ले जाता है, वह गोत्रकर्म है । मिथ्यात्व आदि बंधकारणों के द्वारा जीव के साथ संबंध को प्राप्त एवं उच्च और नीच कुलों में उत्पन्न कराने वाला पुद्गलस्कंध ‘गोत्र’ इस नाम से कहा जाता है ।
धवला 6/1, 9-1, 45/77/10 गोत्रं कुलं वंशः संतानमित्येकोऽर्थः । = गोत्र, कुल, वंश और संतान ये सब एकार्थवाचक नाम हैं ।
धवला 13/5, 5, 20/209/1 गमयत्युच्चनीचमिति गोत्रम् । = जो उच्च नीच का ज्ञान कराता है वह गोत्र कर्म है ।
गोम्मटसार कर्मकांड/13/9 संताणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा ।... ।13 । = संतानक्रम से चला आया जो आचरण उसकी गोत्र संज्ञा है ।
द्रव्यसंग्रह टीका/33/93/1 गोत्रकर्मणः का प्रकृतिः। गुरु-लघुभाजनकारककुंभकारवदुच्चनीचगोत्रकरणता । = छोटे बड़े घट आदि को बनाने वाले कुंभकार की भाँति उच्च तथा नीच कुल का करना गोत्रकर्म की प्रकृति है ।
- गोत्रकर्म के दो अथवा अनेक भेद
षट्खण्डागम/6/1, 9-1/सूत्र 45/77 गोदस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ, उच्यागोदं चेव णिच्चागोदं चेव ।45। = गोत्रकर्म की दो प्रकृतियाँ हैं - उच्चगोत्र और नीचगोत्र । (षट्खण्डागम/13/5, 5/सूत्र 135/388); (मूलाचार/1234); (तत्त्वार्थसूत्र/8/12); (पंचसंग्रह/प्राकृत/2/4/48/16); (धवला 12/4, 2, 14, 19/484/13 ); (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/2 ) ।
धवला 12/4, 2, 14, 19/484/14 अवांतरभेदेण जदि वि बहुआवो अत्थि तो वि ताओ ण उत्तओ गंथबहुत्तभएण अत्थावत्तीए तदवगमादो । = अवांतर भेद से यद्यपि वे (गोत्रकर्म की प्रकृतियाँ) बहुत हैं तो भी ग्रंथ बढ़ जाने के भय से अथवा अर्थापत्ति से उनका ज्ञान हो जाने के कारण उनको यहाँ नहीं कहा है ।
- उच्च व नीच गोत्र के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/12/394/1 यस्योदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैर्गोत्रम् । यदुदयाद्गर्हितेषु कुलेषु जन्म तन्नीचैर्गोत्रम् । = जिसके उदय से लोकपूजित कुलों में जन्म होता है वह उच्च गोत्र है और जिसके उदय से गर्हित कुलों में जन्म होता है वह नीच गोत्र है । (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/30/17) ।
राजवार्तिक/8/12/2, 3/580/23 लोकपूजितेषु कुलेषु प्रथितमाहात्म्येषु इक्ष्वाकूपकुरुहरिज्ञातिप्रभृतिषु जन्म यस्योदया-द्भवति तदुच्चैर्गो-त्रमवसेयम् ।2 । गर्हितेषु दरिद्राप्रतिज्ञातदुःखाकुलेषु यत्कृतं प्राणिनां जन्म तन्नीचैर्गोत्रं प्रत्येतव्यम् । राजवार्तिक/6/25/6/531/7 नीचैः स्थाने येनात्मा क्रियते तन्नीचैर्गोत्रम् । = जिसके उदय से महत्त्वशाली अर्थात् इक्ष्वाकु, उग्र, कुरु, हरि और ज्ञाति आदि वंशों में जन्म हो वह उच्चगोत्र है । जिसके उदय से निंद्य अर्थात् दरिद्र अप्रसिद्ध और दुःखाकुल कुलों में जन्म हो वह नीचगोत्र है । जिससे आत्मा नीच व्यवहार में आवे वह नीचगोत्र है ।
धवला 6/1, 9-1, 45/77/10 जस्स कम्मस्स उदएण उच्चगोदं होदि तमुच्चागोदं । गोत्रं कुलं वंशः संतानमित्येकोऽर्थः । जस्स कम्मस्स उदएण जीवाणं णीचगोदं होदितं णीचगोंद णाम । = गोत्र, कुल, वंश, संतान ये सब एकार्थवाचक नाम हैं । जिस कर्म के उदय से जीवों के उच्चगोत्र कुल या वंश होता है वह उच्चगोत्र कर्म है और जिस कर्म के उदय से जीवों के नीचगोत्र, कुल या वंश होता है वह नीचगोत्रकर्म है ।
देखें अगला शीर्षक (साधु आचार की योग्यता उच्चगोत्र का चिह्न है तथा उसकी अयोग्यता नीचगोत्र का चिह्न है ।)
- गोत्रकर्म के अस्तित्व संबंधी शंका
धवला 13/5, 5, 135/388/3 उच्चैर्गोत्रस्य क्व व्यापारः । न तावद् राज्यादिलक्षणायां संपदि, तस्याः सद्वेद्यतः समुत्पत्तेः । नापि पंचमहाव्रतग्रहणयोग्यता उच्चैर्गोत्रेण क्रियते, देवेष्वभव्येषु च तद्ग्रहणं प्रत्यययोग्येषु उच्चैर्गोत्रस्य उदयाभावप्रसंगात् । न सम्यग्ज्ञानोत्पत्तै व्यापारः, ज्ञानावरणक्षयोपशमसहायसम्यग्दर्शनतस्तदुत्पत्तेः । तिर्यग्-नारकेष्वपि उच्चैर्गोत्रस्योदयः स्यात्, तत्र सम्यग्ज्ञानस्य सत्तवात् । नादेयत्वे यशसि सौभाग्ये वा व्यपारः, तेषां नामतः समुत्पत्तेः । नेक्ष्वाकुकुलाद्युत्पत्तै, काल्पनिकानां तेषां परमार्थतोऽसत्वात् विड्ब्राह्मणसाधुष्वपि उच्चैर्गोत्रस्योदयदर्शनात् । न संपन्नेभ्यो जीवोत्पत्तै तद्व्यापारः म्लेच्छराजसमुत्पन्नपृथुकस्यापि उच्चैर्गोत्रोदयप्रसंगात् । नाणुव्रतिभ्यः समुत्पत्तै तद्व्यापारः, देवेष्वौपपादिकेषु उच्चैर्गोत्रो-दयस्यासत्त्वप्रसंगात् नाभेयस्य नीचैर्गोत्रतापत्तेश्च । ततो निष्फलमुच्चैर्गोत्रम् । तत एव न तस्य कर्मत्वमपि । तदभावे न नीचैर्गोत्रमपि, द्वयोरन्योन्याविनाभावित्वात् । ततो गोत्रकर्माभाव इति । न जिनवचनस्यासत्त्वविरोधात् । तद्विरोधोऽपि तत्र तत्कारणाभावतोऽवगम्यते । न च केवलज्ञानविषयोकृतेष्वर्थेषु सकलेष्वपि रजोजुषां ज्ञानानि प्रवर्तंते येनानुपलंभाज्जिनवचनस्याप्रमाणत्वमुच्यते । न च निष्फलं गोत्रम्, दीक्षायोग्यसाध्वाचाराणां साध्वाचारैः कृतसंबंधानां आर्यप्रत्ययाभिधान-व्यवहार-निबंधनानां पुरुषाणां संतानः उच्चैर्गोत्रं तत्रोत्पत्तिहेतुकर्माप्युच्चैर्गोत्रम् । न चात्र पूर्वोक्तदोषाः संभवंति, विरोधात् । तद्विपरीतं नीचैर्गोत्रम् । एवं गोत्रस्य द्वे एव प्रकृती भवतः । = प्रश्न - उच्चगोत्र का व्यापार कहाँ होता है । राज्यादि रूप संपदा की प्राप्ति में तो उसका व्यापार होता नहीं है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति सातावेदनीयकर्म के निमित्त से होती है । पाँच महाव्रतों के ग्रहण करने की योग्यता भी उच्चगोत्र के द्वारा नहीं की जाती है, क्योंकि ऐसा मानने पर जो सब देव और अभव्य जीव पाँच महाव्रतों को धारण नहीं कर सकते हैं, उनमें उच्चगोत्र के उदय का अभाव प्राप्त होता है । सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति में उसका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि उसकी उत्पत्ति ज्ञानावरण के क्षयोपशम से सहकृत सम्यग्दर्शन से होती है तथा ऐसा मानने पर तिर्यचों और नारकियों के भी उच्चगोत्र का उदय मानना पड़ेगा, क्योंकि उनके सम्यग्ज्ञान होता है । आदेयता, यश और सौभाग्य की प्राप्ति में इसका व्यापार होता है; यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इनकी उत्पत्ति नामकर्म के निमित्त से होती है । इक्ष्वाकु कुल आदि की उत्पत्ति में भी इसका व्यापार नहीं होता, क्योंकि वे काल्पनिक हैं, अतः परमार्थ से उनका अस्तित्व ही नहीं है । इसके अतिरिक्त वैश्य और ब्राह्मण साधुओं में उच्चगोत्र का उदय देखा जाता है । संपन्न जनों से जीवों की उत्पत्ति में उच्चगोत्र का व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि इस तरह तो म्लेच्छराज से उत्पन्न हुए बालक के भी उच्चगोत्र का उदय प्राप्त होता है । अणुव्रतियों से जीवों की उत्पत्ति में उच्चगोत्र का व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसा मानने पर औपपादिक देवों में उच्चगोत्र के उदय का अभाव प्राप्त होता है, तथा नाभिपुत्र नीचगोत्री ठहरते हैं । इसलिए उच्चगोत्र निष्फल है और इसलिए उसमें कर्मपना भी घटित नहीं होता । उसका अभाव होने पर नीचगोत्र भी नहीं रहता, क्योंकि वे दोनों एक-दूसरे के अविनाभावी हैं । इसलिए गोत्रकर्म है ही नहीं? उत्तर - नहीं, क्योंकि जिनवचन के असत्य होने में विरोध आता है । वह विरोध भी वहाँ उसके कारणों के नहीं होने से जाना जाता है । दूसरे केवलज्ञान के द्वारा विषय किये गये सभी अर्थों में छद्मस्थों के ज्ञान प्रवृत्त भी नहीं होते हैं । इसीलिए छद्मस्थों को कोई अर्थ यदि नहीं उपलब्ध होते हैं, तो इससे जिनवचन को अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । तथा गोत्रकर्म निष्फल है, यह बात भी नहीं है, क्योंकि जिनका दीक्षायोग्य साधु आचार है, साधु आचार वालों के साथ जिन्होंने संबंध स्थापित किया है (ऐसे म्लेच्छ), तथा जो ‘आर्य’ (भोगभूमिज) इस प्रकार के ज्ञान और वचन व्यवहार के निमित्त हैं, उन पुरुषों की परंपरा को उच्चगोत्र कहा जाता है । तथा उनमें उत्पत्ति का कारणभूत कर्म भी उच्चगोत्र है । यहाँ पूर्वोक्त दोष संभव ही नहीं हैं, क्योंकि उनके होने में विरोध है । उससे विपरीत कर्म नीचगोत्र हैं । इस प्रकार गोत्रकर्म की दो ही प्रकृतियाँ होती हैं ।
देखें वर्ण व्यवस्था - 3.1 महापुराण/74/491-495 - (ब्राह्मणादि उच्चकुल व शूद्रों में शरीर के वर्ण व आकृति का कोई भेद नहीं है, न ही कोई जातिभेद है। जो शुक्लध्यान के कारण हैं वे त्रिवर्ण कहलाते हैं और शेष शूद्र कहे जाते हैं ।)
धवला 15/152/7 उच्चगोदे देस-सयलसंजमणिबंधणे संते मिच्छाइट्ठीसु तद्भावो त्ति णासंकणिज्जं, तत्थ, वि उच्चागोदजणिदसजमजोगत्तवेक्खाए उच्चागोदत्त पडि विरोहाभावादो । = प्रश्न - यदि उच्चगोत्र के कारण देशसंयम और सकलसंयम हैं तो फिर मिथ्यादृष्टियों में उसका अभाव होना चाहिए? उत्तर - ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है, क्योंकि उनमें भी उच्चगोत्र के निमित्त से उत्पन्न हुई संयम ग्रहण की योग्यता की अपेक्षा उच्चगोत्र के होने में कोई विरोध नहीं है ।
- उच्चगोत्र व तीर्थंकर प्रकृति में अंतर
राजवार्तिक/8/11/42/280/7 स्यान्मतं-तदेव उच्चैर्गोत्रं तीर्थंकरत्वस्यापि निमित्तं भवतु किं तीर्थंकरत्वनाम्नेति । तन्न; किं कारणम् । तीर्थप्रवर्तनफलत्वात् । तीर्थप्रवर्तनफलं हि तीर्थकरनामेष्यते नीच्चैर्गोत्रोदयात् तदवाप्यते चक्रधरादीनां तदभावात् । = प्रश्न - उच्चगोत्र हो तीर्थकरत्व का भी निमित्त हो जाओ । पृथक् से तीर्थकत्व नामकर्म मानने की क्या आवश्यकता? उत्तर - तीर्थ की प्रवृत्ति करना तीर्थंकर प्रकृति का फल है । यह उच्चगोत्र से नहीं हो सकता; क्योंकि उच्चगोत्री चक्रवर्ती आदि के वह नहीं पाया जाता । अतः इसका पृथक् निर्देश किया है । (और भी देखें नामकर्म - 4) ।
- उच्च-नीचगोत्र के बंध योग्य परिणाम
भगवती आराधना/1375/1322 तथा 1386 कुलरूवाणाबलसुदलाभिस्सरयत्थमदितवादीहिं । अप्पाणमुण्णमेंतो नीचागोदं कुणदि कम्मं ।1375। माया करेदि णीचगोदं..... ।1386। = कुल, रूप, आज्ञा, शरीरबल, शास्त्रज्ञान, लाभ, ऐश्वर्य, तप और अन्यपदार्थों से अपने को ऊँचा समझने वाला मनुष्य नीचगोत्र का बंध कर लेता है ।1375। माया से नीचगोत्र की प्राप्ति होती है ।1386।
तत्त्वार्थसूत्र/6/25-26 परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ।25। तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य ।26।
सर्वार्थसिद्धि/6/26/340/7 कः पुनरसौ विपर्ययः । आत्मनिंदा, परप्रशंसा, सद्गुणोद्भावनमसद्गुणोच्छादनं च । गुणोत्कृ-ष्टेषु विनयेनावनतिर्नीचैर्वृत्तिः । विज्ञानादिभिरुत्कृष्टस्यापि सतस्तत्कृतमदविरहोऽनहंकारतानुत्सेकः । तान्येतान्युत्तरस्योच्चै-गौत्रस्यास्रवकारणानि भवंति । = परनिंदा, आत्मप्रशंसा, दूसरों के होते हुए गुणों को भी ढक देना और अपने अनहोत गुणों को भी प्रगट करना ये नीचगोत्र के आस्रव के कारण हैं ।25। उनका विपर्यय अर्थात् आत्मनिंदा परप्रशंसा, अपने होते हुए भी गुणों को ढकना और दूसरे के अनहोत भी गुणों को प्रगट करना, उत्कृष्ट गुण वालों के प्रति नम्रवृत्ति और ज्ञानादि में श्रेष्ठ होते हुए भी उसका अभिमान न करना, ये उच्चगोत्र के आस्रव के कारण हैं । (तत्त्वसार/4/53-54) ।
राजवार्तिक/6/25/6/531/9 जातिकुलबलरूपश्रुताज्ञैश्वर्यतपोमदपरावज्ञानोत्प्रहसन-परपरिवादशीलताधार्मिकजननिंदा-त्मोत्कर्षान्ययशोविलोपासत्कीर्त्युत्पादन-गुरुपरिभव-तदुद्धट्टन-दोषख्यापन-विहेडन-स्थानावमान-भर्त्सनगुणावसा-दन-अंजलिस्तुत्यभिवादनाकरण-तीर्थ-कराधिक्षेपादिः ।
राजवार्तिक/6/26/4/531/20 जातिकुलबलरूपवीर्यपरिज्ञानैश्वर्यतपोविशेषवतः आत्मोत्कर्षाप्रणिधानं परावरज्ञानौद्धत्य-निंदासूयोपहासपरपरिवादननिवृत्तिः विनिहतमानता धर्म्यजनपूजाभ्युत्थानांजलिप्रणतिवंदना ऐदंयुगीनान्यपुरुषदुर्लभ-गुणस्याप्यनुत्सिक्तता, अहंकारात्यये नीचैर्वृत्तिता भस्मावृतस्येव हुतभुजः स्वमाहात्म्याप्रकाशनं धर्मसाधनेषु परमसंभ्रम इत्यादि । = जाति, बल, कुल, रूप, श्रुत, आज्ञा, ऐश्वर्य और तप का मद करना, परकी अवज्ञा, दूसरे की हँसी करना, परनिंदा का स्वभाव, धार्मिकजन परिहास, आत्मोत्कर्ष, परयश का विलोप, मिथ्याकीर्ति अर्जन करना, गुरुजनों का परिभव, तिरस्कार, दोषख्यापन, विहेडन, स्थानावमान भर्त्सन और गुणावसादन करना, तथा अंजलिस्तुति-अभिवादन-अभ्युत्थान आदि न करना, तीर्थंकरों पर आक्षेप करना आदि नीचगोत्र के आस्रव के कारण हैं । जाति, कुल, बल, रूप, वीर्य, ज्ञान, ऐश्वर्य और तप आदि की विशेषता होने पर भी अपने में बड़प्पन का भाव नहीं आने देना, पर का तिरस्कार न करना, अनौद्धत्य, असूया, उपहास, बदनामी आदि न करना, मान नहीं करना, साधर्मी व्यक्तियों का सम्मान, इन्हें अभ्युत्थान अंजलि, नमस्कार आदि करना, इस युग में अन्य जनों में न पाये जाने वाले ज्ञान आदि गुणों के होने पर भी, उनका रंचमात्र अहंकार नहीं करना, निरहंकार नम्रवृत्ति, भस्म से ढँकी हुई अग्नि की तरह अपने माहात्म्य का ढिंढोरा नहीं पीटना और धर्मसाधनों में अत्यंत आदरबुद्धि आदि भी उच्चगोत्र के आस्रव के कारण हैं । (भगवती आराधना / विजयोदया टीका/446/653/3 तथा वहाँ उद्धृत 4 श्लोक)
गोम्मटसार कर्मकांड/809/984 अरहंतादिसु भत्ते सुत्तरुची पढणुमाणगुणपेही । बंधदि उच्चगोदं विवरीओ बंधदे इदरं ।809। = अर्हंतादि में भक्ति, सूत्ररुचि, अध्ययन, अर्थविचार तथा विनय आदि, इन गुणों को धारण करने वाला उच्च गोत्र कर्म को बाँधता है और इससे विपरीत नीचगोत्र को बाँधता है ।
- उच्च-नीच गोत्र या वर्णभेद का स्वामित्व क्षेत्र आदि
हरिवंशपुराण - 7.102-103 आर्यामाह नरो नारीमार्यं नारी नरं निजम् । भोगभूमिनरस्त्रीणां नाम साधारणं हि तत् ।102। उत्तमा जातिरेकव चातुर्वर्ण्यं न षट्क्रियाः । न स्वस्वामिकृतः पुंसां संबंधो न च लिंगिनः ।103। = वह पुरुष स्त्री को आर्या और स्त्री पुरुष को आर्य कहती है । यथार्थ में भोगभूमिज स्त्री-पुरुषों का वह साधारण नाम है ।102। उस समय सबकी एक ही उत्तम जाति होती है । वहाँ न ब्राह्मणादि चार वर्ण होते हैं और न ही असि, मसि आदि छह कर्म होते हैं, न सेवक और स्वामी का संबंध होता है और न वेषधारी ही होते हैं ।103।
देखें वर्णव्यवस्था - 1.4 (सभी देव व भोगभूमिज उच्चगोत्री तथा सभी नारकी, तिर्यंच व म्लेच्छ नीचगोत्री होते हैं ।)
धवला 15/61/6 उच्चगोदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलिचरिमसमओ त्ति उदीरणा । णवरि मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा सिया उदीरेदि, देवो देवी वा संजदो वा णियमा उदीरेंति, संजदासंजदो सिया उदीरेदि । णीचगोदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव संजदासंजदस्स उदीरणा । णवरि देवेसु णत्थि उदीरणा, तिरिक्खणेरइएसु णियमा उदीरणा, मणुसेसुं सिया उदीरणा । एवं सामित्तं समत्तं । = उच्चगोत्र की उदीरणा मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवली के अंतिम समय तक होती है । विशेष इतना है, कि मनुष्य और मनुष्यणी तथा संयतासंयत जीव कदाचित् उदीरणा करते हैं । देव, देवी तथा संयत जीव उसकी उदीरणा नियम से करते हैं । नीचगोत्र की उदीरणा मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक होती है, विशेष इतना है कि देवों में उसकी उदीरणा संभव नहीं है, तिर्यंचों व नारकियों में उसकी उदीरणा नियम से तथा मनुष्यों में कदाचित् होती है ।
महापुराण/74/494-495 अच्छेदो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंततेः । तद्धेतुनामगोत्राढ्यजीवाविच्छिन्नसंभवात् ।494। शेषयोस्तु चतुर्थे स्यात्काले तज्जातिसंततिः । एवं वर्ण विभागः स्यान्मनुष्येषु जिनागमे ।495। = विदेह क्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का कभी विच्छेद नहीं होता, क्योंकि वहाँ उस जाति में कारणभूत नाम और गोत्र से सहित जीवों की निरंतर उत्पत्ति होती रहती है ।494। किंतु भरत और ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थ काल में ही जाति की परंपरा चलती है, अन्य कालों में नहीं । जिनागम में मनुष्यों का वर्ण विभाग इस प्रकार बताया गया है ।495।
त्रिलोकसार/790 तद्दंपदोणमादिसंहदिसंठाणमज्जणामजुदा । = वे भोगभूमिज दंपति आर्य नाम से युक्त होते हैं । (महापुराण/3/75)
- तिर्यंचों व क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयतों में गोत्र संबंधी विशेषता
धवला 8/3, 278/363/10 खइयसम्माइट्ठिसंजदासंजदेसु उच्चगोदस्स सोदओ णिरंतरो बंधो, तिरिक्खेसु खइयसम्माइट्ठीसु संजदासंजदाणमणुवलंभादो । = क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयतों में उच्चगोत्र का स्वोदय एवं निरंतर बंध होता है, क्योंकि तिर्यंच क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में संयतासंयत जीव पाये नहीं जाते ।
धवला 15/152/4 तिरिक्खेसु णीचागोदस्स चेव उदीरणा होदि त्ति भणिदेण, तिरिक्खेसु संजमासंजमं परिवालयंतेस उच्चगोदत्तुवलंभादो । = प्रश्न - तिर्यंचों में नीचगोत्र की ही उदीरणा होती है, ऐसी प्ररूपणा सर्वत्र की गयी है । परंतु यहाँ उच्चगोत्र की भी उनमें प्ररूपणा की गयी है, अतएव इससे पूर्वापर कथन में विरोध आता है? उत्तर - ऐसा कहने पर उत्तर देते हैं कि इसमें पूर्वापर विरोध नहीं है, क्योंकि संयमासंयम को पालने वाले तिर्यंचों में उच्च गोत्र पाया जाता है ।
- गोत्रकर्म के अनुभाग संबंधी नियम
धवला 12/4, 2, 198/440/2 सव्वुकस्सविसोहीए हदसमुप्पत्तियं कादूण उप्पाइदजहण्णाणुभागं पेक्खिय सुहुमसांपराइएण सव्वविसुद्धेण बद्धुच्चागोदुक्कस्साणुभागस्स अणंतगुणत्तुवलंभादो । गोदजहणाणुभागे वि उच्चगोदाणुभागो अत्थि त्ति णासंकणिज्जं, बादरतेउक्काइएसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण उव्वेलिद उच्चागोदेसु अइविसोहीए घादिदणीचागोदेसु गोदस्स जहण्णाणुभागब्भुवगमादो ।
धवला 12/4, 2, 13, 204/441/6 बादरतेउवाउक्काइएसु उक्कस्सविसोहीए घादिदणीचगोदाणुभागेसु गोदाणुभागं जहण्णं करिय तेण जहण्णाणुभागेण सह उजुगदीए सुहुमणिगोदेसु उप्पज्जिय तिसमयाहार-तिसमय तव्भवत्थस्स खेत्तेण सह भावो जहण्णओ किण्ण जायदे । ण, बादरतेउवाउक्काइयपज्जत्तएसु जादजहणाणुभागेण सह अण्णत्थ उप्पत्तीए अभावादो । जदि अण्णत्थ उप्पज्जदि तो णियमा अणंतगुणवड्ढीए वड्ढिदो चेव उप्पज्जदि ण अण्णहा । = सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि के द्वारा हत्समुत्पत्ति को करके उत्पन्न कराये गये जघन्य अनुभाग की अपेक्षा सर्व विशुद्ध सूक्ष्मसांपरायिक संयत के द्वारा बाँधा गया उच्चगोत्र का उत्कृष्ट अनुभाग अनंतगुणा पाया जाता है । प्रश्न - गोत्र के जघन्य अनुभाग में भी उच्चगोत्र का जघन्य अनुभाग होता है? उत्तर - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जिन्होंने पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल के द्वारा उच्चगोत्र का उद्वेलन किया है व जिन्होंने अतिशय विशुद्धि के द्वारा नीचगोत्र का घात कर लिया है उन बादर तेजस्कायिक जीवों में गौत्र का जघन्य अनुभाग स्वीकार किया गया है । अतएव गोत्र के जघन्य अनुभाग में उच्चगोत्र का अनुभाग संभव नहीं है । प्रश्न - जिन्होंने उत्कृष्ट विशुद्धि के द्वारा नीचगोत्र के अनुभाग का घात कर लिया है, उन बादर तेजस्कायिक व वायुकायिक जीवों में गोत्र के अनुभाग को जघन्य करके उस जघन्य अनुभाग के साथ ॠजुगति के द्वारा सूक्ष्म निगोद् जीवों में उत्पन्न होकर त्रिसमयवर्ती आहारक और तद्भवस्थ होने के तृतीय समय में वर्तमान उसके क्षेत्र के साथ भाव जघन्य क्यों नहीं होता? उत्तर - नहीं, क्योंकि बादर तेजकायिक व वायुकायिक पर्याप्त जीवों में उत्पन्न जघन्य अनुभाग के साथ अन्य जीवों में उत्पन्न होना संभव नहीं है । यदि वह अन्य जीवों में उत्पन्न होता है तो नियम से वह अनंतगुण वृद्धि से वृद्धि को प्राप्त होकर ही उत्पन्न होता है, अन्य प्रकार से नहीं ।
- दोनों गोत्रों का जघन्य व उत्कृष्ट काल
धवला 15/67/8 णीचगोदस्स जहण्णेण एगसमओ, उच्चगोदादो णीचागोदं गंतूण तत्थ एगसमयमच्छिय विदियसमए उच्चगोदो उदयमागदे एगसमओ लब्भदे । उक्कस्सेण अंसंखेच्चापरियट्ठा । उच्चागोदस्स जहण्णेण एयसमओ, उत्तरसरीरं विउव्विय एगसमएण मुदस्स तदुवलंभादो । एवं णीचागोदस्स वि । उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । = नीचगोत्र का उदीरणाकाल जघन्य से एक समय मात्र है, क्योंकि उच्चगोत्र से नीच गोत्र को प्राप्त होकर और वहाँ एक समय रहकर द्वितीय समय में उच्चगोत्र का उदय होने पर एक समय उदीरणाकाल पाया जाता है । उत्कर्ष से वह असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । (तिर्यंच गति में उत्कृष्ट रूप इतने काल तक रह सकता है) । उच्चगोत्र का उदीरणाकाल जघन्य से एक समय मात्र है, क्योंकि उत्तर शरीर की विक्रिया करके एक समय में मृत्यु को प्राप्त हुए जीव के उक्त काल पाया जाता है । (उच्चगोत्री शरीर वाला तो नीचगोत्री के शरीर की विक्रिया करके तथा नीचगोत्री उच्चगोत्री के शरीर की विक्रिया करके एक समय पश्चात् मृत्यु को प्राप्त होवे) नीचगोत्र का भी जघन्यकाल इसी प्रकार से घटित किया जा सकता है । उच्चगोत्र का उत्कृष्ट काल सागरोपम शतपृथक्त्व प्रमाण है । (देवों व मनुष्यों में भ्रमण करता रहे तो) (और भी देखें वर्ण व्यवस्था - 3.3) ।
- गोत्रकर्म सामान्य का लक्षण
- वर्णव्यवस्था निर्देश
- वर्णव्यवस्था की स्थापना इतिहास
तिलोयपण्णत्ति/4/1618 चक्कधराउ दिजाणं हवेदि वंसस्स उप्पत्ती ।1618। = हुंडावसर्पिणीकाल में चक्रवर्ती से की गयी द्विजों के वर्ण की उत्पत्ति भी होती है ।
पद्मपुराण/4/91-122 का भावार्थ - भगवान् ॠषभदेव का समवशरण आया जान भरत चक्रवर्ती ने संघ के मुनियों के उद्देश्य से उत्तम-उत्तम भोजन बनवाये और नौकरों के सिरपर रखवाकर भगवान् के पास पहुँचा । परंतु भगवान् ने उद्दिष्ट होने के कारण उस भोजन को स्वीकार न किया ।91-97 । तब भरत ने अन्य भी आवश्यक सामग्री के साथ उस भोजन को दान देने के द्वारा व्रती श्रावकों का सम्मान करने के अर्थ उन्हें अपने यहाँ निमंत्रित किया ।98-103 । क्योंकि आने वालों में सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि सभी थे इसलिए भरत चक्रवर्ती ने अपने भवन के आँगन में जौ, धान, मूँग, उड़द आदि के अंकुर बोकर उन सब की परीक्षा की और सम्यग्दृष्टि पुरुषों की छाँट कर ली ।104-110 । भरत का सम्मान पाकर उन्हें अभिमान जागृत हो गया और अपने को महान् समझकर समस्त पृथिवी तल पर याचना करते हुए विचरण करने लगे ।111-114 । अपने मंत्री के मुख से उनके आगामी भ्रष्टाचार की संभावना सुन चक्रवर्ती उन्हें मारने के लिए उद्यत हुआ, परंतु वे सब भगवान् ॠषभदेव की शरण में जाकर प्रार्थना करने लगे । और भगवान् ने भरत को उनका बध करने से रोक दिया ।115-122 ।
हरिवंशपुराण - 9.33-39 का भावार्थ - कल्पवृक्षों के लोप के कारण भगवान् ॠषभदेव ने प्रजा को असि मसि आदि षट्कर्मों का उपदेश दिया ।33-36 । उसे सीखकर शिल्पीजनों ने नगर ग्राम आदि की रचना की ।37-38 । उसी समय क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ये तीन वर्ण भी उत्पन्न हुए । विनाश से जीवों की रक्षा करने के कारण क्षत्रिय, वाणिज्य व्यापार के योग से वैश्य और शिल्प आदि के संबंध से शूद्र कहलाये ।39। ( महापुराण/16/179-183 ) ।
महापुराण/16/184-187 का भावार्थ - उनमें भी शूद्र दो प्रकार के हो गये - कारू और अकारू (विशेष देखें वर्णव्यवस्था - 4) । ये सभी वर्णों के लोग अपनी-अपनी निश्चित आजीविका को छोड़कर अन्य वर्ण की आजीविका नहीं करते थे ।184-187 ।
महापुराण/38/5-50 का भावार्थ - दिग्विजय करने के पश्चात् भरत चक्रवर्ती को परोपकार में अपना धन लगाने की बुद्धि उपजी ।5। तब महामह यज्ञ का अनुष्ठान किया ।6। सद्व्रती गृहस्थों की परीक्षा करने के लिए समस्त राजाओं को अपने-अपने परिवार व परिकर सहित उस उत्सव में निमंत्रित किया ।7-10 । उनके विवेक की परीक्षा के अर्थ अपने घर के आँगन में अंकुर फल व पुष्प भरवा दिये ।11। जो लोग बिना सोचे समझे उन अंकुरों को कुचलते हुए राजमंदिर में घुस आये उनको पृथक् कर दिया गया ।12। परंतु जो लोग अंकुरों आदि पर पाँव रखने के भय से अपने घरों को वापस लौटने लगे, उनको दूसरे मार्ग से आँगन में प्रवेश कराके चक्रवर्ती ने बहुत सम्मानित किया ।13-20 । उनको उन-उनके व्रतों व प्रतिमाओं के अनुसार यज्ञ पवीत से चिह्नित किया ।21-22 । (विशेष देखें यज्ञोपवीत ) । भरत ने उन्हें उपास का ध्ययन आदि का उपदेश देकर अर्हत् पूजा आदि उनके नित्य कर्म व कर्त्तव्य बताये ।24-25 । पूजा, वार्ता, दत्ति (दान), स्वाध्याय, संयम और तप इन छह प्रकार की विशुद्ध वृत्ति के कारण ही उनको द्विज संज्ञा दी । और उन्हें उत्तम समझा गया ।42-44 । (विशेष देखें ब्राह्मण ) । उनको गर्भान्वय, दीक्षान्वय और कर्न्नान्वय इन तीन प्रकार की क्रियाओं का भी उपदेश दिया ।-(विशेष देखें संस्कार ) ।50।
महापुराण/40/221 इत्थं स धर्मविजयी भरताधिराजो, धर्मक्रियासु कृतधीर्नृपलोकसाक्षि । तान् सव्रतान् द्विजवरान् विनियम्य सम्यक् धर्मप्रियः समसृजत् द्विजलोकसर्गम् ।221। = इस प्रकार जिसने धर्म के द्वारा विजय प्राप्त की है, जो धार्मिक क्रियाओं में निपुण हैं और जिसे धर्म प्रिय है, ऐसे भरत क्षेत्र के अधिपति महाराज भरत ने राजा लोगों की साक्षीपूर्वक अच्छे-अच्छे व्रत धारण करने वाले उन उत्तम द्विजों को अच्छी शिक्षा देकर ब्राह्मण वर्ण की सृष्टि व स्थापना की/221 ।
- जैनाम्नाय में चारों वर्णौं का स्वीकार
तिलोयपण्णत्ति/4/2250 बहुविहवियप्पजुत्त खत्तियवइसाण तह य सुद्दाणुं । वंसा हवंति कच्छे तिण्णि च्चिय तत्थ ण हु अण्णे ।2250। = विदेह क्षेत्र के कच्छा देश में बहुत प्रकार के भेदों से युक्त क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के तीन ही वंश हैं, अन्य (ब्राह्मण) वंश नहीं है ।2250। (जंबूदीवपण्णतिसंगहो/7/59); (देखें वर्णव्यवस्था - 3.1) ।
देखें वर्णव्यवस्था - 2.1 । (भरत क्षेत्र में इस हुंडावसर्पिणी काल में भगवान् ॠषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना की थी । पीछे भरत चक्रवर्ती ने एक ब्राह्मण वर्ण की स्थापना और कर दी ।)
देखें श्रेणी - 1 । (चक्रवर्ती की सेना में 18 श्रेणियाँ होती हैं, जिनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र इन चार श्रेणियों का भी निर्देश किया गया है) ।
धवला 1/1, 1, 1/ गाथा 61/65 गोत्तेण गोदमो विप्पो चाउव्वेइयसडंगवि । णामेण इदभूदि त्ति सीलवं बम्हणुत्तमो ।61।’’ = गौतम गोत्री, विप्रवर्णी, चारों वेद और षडंगविद्या का पारगामी, शीलवान् और ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ऐसा वर्द्धमानस्वामी का प्रथम गणधर ‘इंद्रभूति’ इस नाम से प्रसिद्ध हुआ ।61।
महापुराण/38/45-46 मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहिताद्भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ।45। ब्राह्मणा व्रतसं-स्कारात्, क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ।46। = यद्यपि जाति नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक ही है, तथापि आजीविका के भेद से होने वाले भेद के कारण वह चार प्रकार की हो गयी है ।45। व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्र धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमाने से वैश्य और नीच वृत्ति का आश्रय लेने से मनुष्य शूद्र कहलाते हैं ।46। (हरिवंशपुराण - 9.39); ( महापुराण/16/184) ।
- केवल उच्च जाति मुक्ति का कारण नहीं है
समाधिशतक/ मूल व टीका/89 जातिलिंंगविकल्पेन येषां च समयाग्रहः । तेऽपि न प्राप्नुवंत्येव परमं पदमात्मनः ।89। जातिलिंंगरूपविकल्पोभेदस्तेन येषां शैवादीनां समयाग्रहः आगमानुबंधः उत्तमजाति-विशिष्टं हि लिंंग मुक्तिहेतुरित्यागमे प्रतिपादितमतस्तावन्मात्रेणैव मुक्तिरित्येवंरूपो येषामागमाभिनिवेशः तेऽपि न प्राप्नुवंत्येव परमं पदमात्मनः । = जिन शैवादिकों का ऐसा आग्रह है कि ‘अमुक जाति वाला अमुक वेष धारण करे तभी मुक्ति की प्राप्ति होती है’ ऐसा आगम में कहा है, वे भी मुक्ति को प्राप्त नहीं हो सकते, क्योंकि जाति और लिंग दोनों ही जब देहाश्रित हैं और देह ही आत्मा का संसार है, तब संसार का आग्रह रखने वाले उससे कैसे छूट सकते हैं ।
- वर्णसांकर्य के प्रति रोकथाम
महापुराण/16/247-248 शूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्या तां स्वां च नैगमः । वहेत् स्वां ते च राजन्यः स्वां द्विजन्मा क्कचिच्च ताः ।247। स्वामिमां वृत्तिमुत्क्रम्य यस्त्वन्यां वृत्तिमाचरेत् । स पार्थिवैर्नियंतव्यो वर्णसंकीर्णिरन्यथा ।248। =- वर्णों की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए भगवान् ॠषभदेव ने ये नियम बनाये कि शूद्र केवल शूद्र कन्या के साथ विवाह करे, वैश्य वैश्य व शूद्र कन्याओं के साथ, क्षत्रिय क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र कन्याओं के साथ तथा ब्राह्मण चारों वर्णों की कन्याओं के साथ विवाह करे (अर्थात् स्ववर्ण अथवा अपने नीचे वाले वर्णों की कन्या को ही ग्रहण करे, ऊपर वाले वर्णों की नहीं ) ।247।
- चारों ही वर्ण अपनी-अपनी निश्चित आजीविका करें । अपनी आजीविका छोड़कर अन्य वर्ण की आजीविका करने वाला राजा के द्वारा दंडित किया जायेगा ।248। (महापुराण/16/187) ।
- वर्णव्यवस्था की स्थापना इतिहास
- उच्चता व नीचता में गुणकर्म व जन्म की कथंचित् प्रधानता व गौणता
- कथंचित् गुणकर्म की प्रधानता
कुरल/98/3 कुलीनोऽपि कदाचारात् कुलीनो नैव जायते । निम्नजोऽपि सदाचारान् न निम्नः प्रतिभासते ।3। = उत्तम कुल में उत्पन्न होने पर भी यदि कोई सच्चरित्र नहीं है तो वह उच्च नहीं हो सकता और हीन वंश में जन्म लेने मात्र से कोई पवित्र आचार वाला नीच नहीं हो सकता ।3 ।
महापुराण/74/491-495 वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्नप्यदर्शनात् । ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्यैर्गर्भाधानप्रदर्शनात् ।491। नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् । आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते ।492। जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः । येषु ते स्युस्त्रयो वर्णाः शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिता ः ।493। अच्छेदो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंततेः । तद्धेतुनामगोत्राढयजीवाविच्छन्नसंभवात् ।494। शेषयोस्तु चतुर्थे स्यात्काले तज्जातिसंततिः । एवं वर्ण विभागः स्यान्मनुष्येषु जिनागमे ।495। =- मनुष्यों के शरीरों में न तो कोई आकृति का भेद है और न ही गाय और घोड़े के समान उनमें कोई जाति भेद है, क्योंकि ब्राह्मणी आदि में शूद्र आदि के द्वारा गर्भ धारण किया जाना देखा जाता है । आकृतिका भेद न होने से भी उनमें जाति भेद की कल्पना करना अन्यथा है ।491-492 । जिनकी जाति तथा कर्म शुक्लध्यान के कारण हैं वे त्रिवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य) कहलाते हैं और बाकी शूद्र कह जाते हैं । (परंतु यहाँ केवल जाति को ही शुक्लध्यान को कारण मानना योग्य नहीं है - देखें वर्णव्यवस्था - 2.3) ।493। (और भी देखें वर्णव्यवस्था - 1.4) ।
- विदेहक्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का कभी विच्छेद नहीं होता, क्योंकि वहाँ उस जाति में कारणभूत नाम और गोत्र से सहित जीवों की निरंतर उत्पत्ति होती रहती है ।494। किंतु भरत और ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थ काल में ही जाति की परंपरा चलती है, अन्य कालों में नहीं । जिनागम में मनुष्यों का वर्ण विभाग इस प्रकार बतलाया गया है ।495। - देखें वर्णव्यवस्था - 2.2 ।
गोम्मटसार कर्मकांड/13/9 उच्चं णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं ।13। = जहाँ ऊँचा आचरण होता है वहाँ उच्चगोत्र और जहाँ नीचा आचरण होता है वहाँ नीचगोत्र होता है ।
देखें ब्राह्मण -3 - (ज्ञान, संयम, तप आदि गुणों को धारण करने से ही ब्राह्मण है, केवल जन्म से नहीं ।)
देखें वर्णव्यवस्था - 2.2 (ज्ञान, रक्षा, व्यवसाय व सेवा इन चार कर्मों के कारण ही इन चार वर्णों का विभाग किया गया है) ।
सागार धर्मामृत/7/20 ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो भिक्षुश्च सप्तमे । चत्वारोऽगे क्रियाभेदादुक्ता वर्णवदाश्रमाः ।20। = जिस प्रकार स्वाध्याय व रक्षा आदि के भेद से ब्राह्मण आदि चार वर्ण होते हैं, उसी प्रकार धर्म क्रियाओं के भेद से ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास ये चार आश्रम होते हैं । ऐसा सातवें अंग में कहा गया है । (और भी - देखें आश्रम ) ।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/3/89/9 कुल की अपेक्षा आपको ऊँचा नीचा मानना भ्रम है । ऊँचा कुल का कोई निंद्य कार्य करै तो वह नीचा होइ जाय । अर नीच कुलविषै कोई श्लाघ्य कार्य करै तो वह ऊँचा होइ जाय ।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/6/258/2 कुल की उच्चता तो धर्म साधनतैं है । जो उच्चकुलविषै उपजि हीन आचरन करै, तौ वाकौ उच्च कैसे मानिये ।.....धर्म पद्धतिविषै कुल अपेक्षा महंतपना नाहीं संभवै है ।
- गुणवान् नीच भी ऊँच है
देखें सम्यग्दर्शन - I.5 (सम्यग्दर्शन से संपन्न मातंग देहज भी देव तुल्य है । मिथ्यात्व युक्त मनुष्य भी पशु के तुल्य है और सम्यक्त्व सहित पशु भी मनुष्य के तुल्य है ।)
नीतिवाक्यामृत/12 आचारमनवद्यत्वं शुचिरुपकरः शरीरी च विशुद्धिः । करोति शूद्रमपि देवद्विजतपस्विपरिकर्मयोग्यम् । = अनवद्य चारित्र तथा शरीर व वस्त्रादि उपकरणों की शुद्धि से शूद्र भी देवों द्विजों व तपस्वियों की सेवाका (तथा धर्मश्रवण का) पात्र बन जाता है । (सागार धर्मामृत/2/22) ।
देखें प्रव्रज्या - 1.2 - (म्लेच्छ व सत् शूद्र भी कदाचित् मुनि व क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं ।) (विशेष देखें वर्णव्यवस्था - 4.2) ।
देखें वर्णव्यवस्था - 1.8 (संयमासंयम का धारक तिर्यंच भी उच्चगोत्री समझा जाता है)
- उच्च व नीच जाति में परिवर्तन
धवला 15/288/2 अजसकित्ति-दुभग-अणादेज्जं को वेदओ । अगुणपडिवण्णो अण्णदरो तप्पाओगो । तित्थयरणामाए को वेदओ । सजोगो अजोगो वा । उच्चागोदस्स तित्थयरभंगो । णीचागोदस्स अणादेज्जभंगो । = अयशःकीर्ति, दुर्भग और अनादेय का वेदक कौन होता है? उनका वेदक गुणप्रतिपन्न से भिन्न तत्प्रायोग्य अन्यतर जीव होता है । तीर्थंकर नामकर्म का वेदक कौन होता है? उसका वेदक सयोग (केवली) और अयोग (केवली) जीव भी होता है । उच्चगोत्र के उदय का कथन तीर्थंकर प्रकृति के समान है और नीचगोत्र के उदय का कथन अनादेय के समान है । (अर्थात् गुणप्रतिपन्न से भिन्न जीव नीचगोत्र का वेदक होता है गुणप्रतिपन्न नहीं । जैसे कि तिर्यंच - देखें वर्णव्यवस्था - 3.2 ।
देखें वर्णव्यवस्था - 1.10 (उच्चगोत्री जीव नीचगोत्री के शरीर की और नीचगोत्री जीव उच्चगोत्री के शरीर की विक्रिया करें तो उनके गोत्र भी उतने समय के लिए बदल जाते हैं । अथवा उच्चगोत्र उसी भव में बदलकर नीचगोत्र हो जाये और पुनः बदलकर उच्चगोत्र हो जाये, यह भी संभव है ।)
देखें यज्ञोपवीत - 2 (किसी के कुल में किसी कारणवश दोष लग जाने पर वह राजाज्ञा से शुद्ध हो सकता है । किंतु दीक्षा के अयोग्य अर्थात् नाचना-गाना आदि कार्य करने वालों को यज्ञोपवीत नहीं दिया जा सकता । यदि वे अपनी योग्यतानुसार व्रत धारण कर लें तो यज्ञोपवीत धारण के योग्य हो जाते हैं ।)
धर्म परीक्षा/17/28-31(बहुत काल बीत जाने पर शुद्ध शीलादि सदाचार छूट जाते हैं और जातिच्युत होते देखिये है ।28। जिन्होंने शील संयमादि छोड़ दिये ऐसे कुलीन भी नरक में गये है ।31।)
- कथंचित् जन्म की प्रधानता
देखें वर्णव्यवस्था - 1.3 - (उच्चगोत्र के उदय से उच्च व पुज्य कुलों में जन्म होता है और नीच गोत्र के उदय से गर्हित कुलों में ।)
देखें प्रव्रज्या - 1.2 (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य इन तीन कुलों में उत्पन्न हुए व्यक्ति ही प्रायः प्रव्रज्या के योग्य समझे जाते हैं ।)
देखें वर्णव्यवस्था - 2.4 (वर्णसांकर्य की रक्षा के लिए प्रत्येक वर्ण का व्यक्ति अपने वर्ण की अथवा अपने नीचे के वर्ण की ही कन्या के साथ विवाह करे, ऊपर के वर्ण की कन्या के साथ नहीं और न ही अपने वर्ण की आजीविका को छोड़कर अन्य के वर्ण की आजीविका करे ।)
देखें वर्णव्यवस्था - 4.1 (शूद्र भी दो प्रकार के हैं सत् शूद्र और असत् शूद्र । तिनमें सत् शूद्र स्पृश्य है और असत् शूद्र अस्पृश्य है । सत् शूद्र कदाचित् प्रव्रज्या के योग्य होते हैं, पर असत् शूद्र कभी भी प्रव्रज्या के योग्य नहीं होते ।)
मोक्षमार्ग प्रकाशक/3/97/15 क्षत्रियादिकनिकै (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य इन तीन वर्ण वालों के) उच्चगोत्र का भी उदय होता है ।
देखें यज्ञोपवीत - 2 (गाना-नाचना आदि नीच कार्य करने वाले सत् शूद्र भी यज्ञोपवीत धारण करने योग्य नहीं हैं) ।
- गुण व जन्म की अपेक्षाओं का समन्वय
देखें वर्णव्यवस्था - 1.3 (यथा योग्य ऊँच व नीच कुलों में उत्पन्न करना भी गोत्रकर्म का कार्य है और आचार ध्यान आदि की योग्यता प्रदान करना भी ।)
- निश्चय से ऊँच नीच भेद को स्थान नहीं
परमात्मप्रकाश/ मूल/2/107 एक्कु करे मण विण्णि करि मं करि वण्ण-विसेसु । इक्कइँ देवइँ जें वसइ तिहुयणु एहु असेसु ।107। = हे आत्मन् ! तू जाति की अपेक्षा सब जीवों को एक जान, इसलिए राग और द्वेष मत कर । मनुष्य जाति की अपेक्षा ब्राह्मणादि वर्णभेद को भी मत कर, क्योंकि अभेद नय से शुद्धात्मा के समान ये सब तीन लोक में रहने वाली जीव राशि ठहरायी हुई है । अर्थात् जीवपने से सब एक हैं ।
- कथंचित् गुणकर्म की प्रधानता
- शूद्र निर्देश
- शूद्र के भेद व लक्षण
महापुराण/38/46 शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ।46।
महापुराण/16/185-186 तेषां शुश्रषणाच्छूद्रास्ते द्विधा कार्वकारवः । कारवो रजकाद्याः स्युः ततोऽन्ये स्युरकारवः ।185। कारवोऽपि मता द्वेधास्पृश्यास्पृश्यविकल्पतः ।तत्रास्पृश्याः प्रजाबाह्याः स्पृश्याः स्युः कर्त्तकादयः ।186। = नीच वृत्तिका आश्रय करने से शूद्र होता है ।45। जो उनकी (ब्राह्मणादि तीन वर्णों की) सेवा शुश्रूषा करते थे वे शूद्र कहलाते थे । वे शूद्र दो प्रकार के थे - कारु और अकारु । धोबी आदि शूद्र कारु कहलाते थे और उनसे भिन्न अकारु कहलाते थे । कारु शूद्र भी स्पृश्य तथा अस्पृश्य के भेद से दो प्रकार के माने गये हैं । उनमें जो प्रजा से बाहर रहते हैं उन्हें अस्पृश्य और नाई वगैरह को स्पृश्य कहते हैं ।186। ( मोक्षमार्ग प्रकाशक/8/418/21 ) ।
प्रायश्चित्त चूलिका/गाथा 154 व उसकी टीका-.....‘‘कारिणो द्विविधाः सिद्धाः भोज्याभोज्यप्रभेदतः । यदन्नपानं ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्रा भुंजंते भोज्याः । अभोज्या तद्विपरीतलक्षणाः ।’’ = कारु शूद्र दो प्रकार के होते हैं - भोज्य व अभोज्य । जिनके हाथ का अन्नपान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र खाते हैं, उन्हें भोज्य कारु कहते हैं और इनसे विपरीत अभोज्य कारु जानने चाहिए ।
- स्पृश्य शूद्र ही क्षुल्लक दीक्षा के योग्य हैं
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/225/ प्रक्षेपक 10 की टीका/306/2 यथोयोग्यं सच्छूद्राद्यपि । = सत् शूद्र भी यथायोग्य दीक्षा के योग्य होते हैं (अर्थात् क्षुल्लक दीक्षा के योग्य होते हैं) ।
प्रायश्चित्त चूलिका/मूल व टीका/154 भोज्येष्वेव प्रदातव्यं सर्वदा क्षुल्लकव्रतम् ।154। भोज्येष्वेव प्रदातव्या क्षुल्लकदीक्षा नापरेषु ।टीका । = कारु शूद्रों में भी केवल भोज्य या स्पृश्य शूद्रों को ही क्षुल्लक दीक्षा दी जाने योग्य है, अन्य को नहीं ।
- शूद्र के भेद व लक्षण