हरिवंश पुराण - सर्ग 4: Difference between revisions
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<p>छठवीं पृथिवी के हिम नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई एक सौ छियासठ धनुष<strong>, </strong>दो हाथ तथा सोलह अंगुल बतलायी है ॥336॥<span id="337" /> वर्दल नामक दूसरे प्रस्तार में शास्त्ररूपी नेत्रों के धारक विद्वानों ने नारकियों की ऊँचाई दो सौ आठ धनुष<strong>, </strong>एक हाथ और छ<strong>: </strong>अंगुल प्रमाण देखी है ॥337॥<span id="338" /> और लल्लक नामक तीसरे प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई दो सौ पचास धनुष बतलायी है । इस प्रकार कृतकृत्य सर्वज्ञदेव ने छठवीं पृथिवी में ऊंचाई का वर्णन किया ॥ 338 ꠰꠰<span id="339" /> सातवीं पृथिवी में एक ही अप्रतिष्ठान नाम का प्रस्तार है तो उसमें संदेहरहित ज्ञान के धारक आचार्यों ने नारकियों की ऊंचाई पाँच सौ धनुष प्रमाण निश्चित की है ॥339॥<span id="340" /></p> | <p>छठवीं पृथिवी के हिम नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई एक सौ छियासठ धनुष<strong>, </strong>दो हाथ तथा सोलह अंगुल बतलायी है ॥336॥<span id="337" /> वर्दल नामक दूसरे प्रस्तार में शास्त्ररूपी नेत्रों के धारक विद्वानों ने नारकियों की ऊँचाई दो सौ आठ धनुष<strong>, </strong>एक हाथ और छ<strong>: </strong>अंगुल प्रमाण देखी है ॥337॥<span id="338" /> और लल्लक नामक तीसरे प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई दो सौ पचास धनुष बतलायी है । इस प्रकार कृतकृत्य सर्वज्ञदेव ने छठवीं पृथिवी में ऊंचाई का वर्णन किया ॥ 338 ꠰꠰<span id="339" /> सातवीं पृथिवी में एक ही अप्रतिष्ठान नाम का प्रस्तार है तो उसमें संदेहरहित ज्ञान के धारक आचार्यों ने नारकियों की ऊंचाई पाँच सौ धनुष प्रमाण निश्चित की है ॥339॥<span id="340" /></p> | ||
<p> प्रथम पृथिवी को आदि लेकर उन सातों पृथिवियों में यथाक्रम से अवधिज्ञान का विषय इस प्रकार जानना चाहिए ॥340॥<span id="341" /> पहली पृथिवी में अवधिज्ञान का विषय एक योजन अर्थात् चार कोस<strong>, </strong>दूसरी में साढ़े तीन कोस, तीसरी में तीन कोस, चौथी में अढ़ाई कोस, पांचवीं में दो कोस, छठवीं में डेढ़ कोस और सातवीं में एक कोस प्रमाण है ॥341 ॥<span id="342" /> प्रथम पृथिवी संबंधी पहले पटल की मिट्टी की दुर्गंध आध कोस तक जाती है और उसके नीचे प्रत्येक पटल के प्रति आधा-आधा कोस अधिक बढ़ती जाती है ॥ 342 ॥<span id="343" /> पहली और दूसरी पृथिवी में रहने वाले नारकी कापोत लेश्या से युक्त हैं । तीसरी पृथिवी के ऊर्ध्व भाग में रहने वाले कापोत लेश्या से और अधोभाग में रहने वाले नील लेश्या से सहित हैं ॥ 343 ॥<span id="344" /> चौथी पृथिवी के ऊपर-नीचे दोनों स्थानों पर तथा पांचवीं पृथिवी के ऊपरी भाग में नील लेश्या से युक्त हैं और अधोभाग में कृष्ण लेश्या से सहित हैं ॥344॥<span id="345" /> छठवीं पृथिवी के ऊर्ध्वभाग में कृष्ण लेश्या से, अधोभाग में परमकृष्ण लेश्या से और सातवीं पृथिवी के ऊपर-नीचे दोनों ही जगह रहने वाले परमकृष्ण लेश्या से संक्लिष्ट हैं अर्थात् संक्लेश को प्राप्त होते रहते हैं ॥345॥<span id="346" /> प्रारंभ की चार भूमियों में रहने वाले नारकी उष्ण स्पर्श से, पांचवीं भूमि में रहने वाले उष्ण और शीत दोनों स्पर्शों से तथा अंत की दो भूमियों में रहने वाले केवल शीत स्पर्श से ही पीड़ित रहते हैं ॥ 346 ॥<span id="347" /> प्रारंभ की तीन पृथिवियों में नारकियों के उत्पत्ति-स्थान कुछ तो ऊँट के आकार हैं, कुछ कुंभी (घड़िया), कुछ कुस्थली, मुद्गर, मृदंग और नाडी के आकार हैं ॥347॥<span id="348" /> चौथी और पांचवीं पृथिवी में नारकियों के जन्मस्थान अनेक तो गौ के आकार हैं, अनेक हाथी, घोड़े आदि जंतुओं तथा धोंकनी, नाव और कमलपुट के समान हैं ॥348 ॥<span id="349" /> अंतिम दो भूमियों में कितने ही खेत के समान, कितने ही झालर और कटोरों के समान, और कितने ही मयूरों के आकार वाले हैं ॥ 349॥<span id="350" /> वे जन्मस्थान एक कोस, दो कोस, तीन कोस और एक योजन विस्तार से सहित हैं । उनमें जो उत्कृष्ट स्थान हैं वे सौ योजन तक चौड़े कहे गये हैं ॥ 350 ॥<span id="351" /> उन समस्त उत्पत्ति स्थानों की ऊंचाई अपने विस्तार से पंचगुनी है ऐसा वस्तु स्वरूप को जानने वाले आचार्य जानते हैं ॥351॥<span id="352" /> समस्त इंद्रक विल तीन द्वारों से युक्त तथा तीन कोणों वाले हैं । इनके सिवाय जो श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक निगोद हैं उनमें कितने ही दो द्वार वाले दुकोने, कितने ही तीन द्वार वाले तिकोने, कितने ही पांच द्वार वाले पंचकोने और कितने ही सात द्वार वाले सतकोने हैं ॥352॥<span id="353" /> इनमें संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का अपना जघन्य अंतर छः कोस और उत्कृष्ट अंतर बारह कोस है ॥353 ॥<span id="354" /> एवं असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का उत्कृष्ट अंतर असंख्यात योजन तथा जघन्य अंतर सात हजार योजन है ॥354॥<span id="355" /></p> | <p> प्रथम पृथिवी को आदि लेकर उन सातों पृथिवियों में यथाक्रम से अवधिज्ञान का विषय इस प्रकार जानना चाहिए ॥340॥<span id="341" /> पहली पृथिवी में अवधिज्ञान का विषय एक योजन अर्थात् चार कोस<strong>, </strong>दूसरी में साढ़े तीन कोस, तीसरी में तीन कोस, चौथी में अढ़ाई कोस, पांचवीं में दो कोस, छठवीं में डेढ़ कोस और सातवीं में एक कोस प्रमाण है ॥341 ॥<span id="342" /> प्रथम पृथिवी संबंधी पहले पटल की मिट्टी की दुर्गंध आध कोस तक जाती है और उसके नीचे प्रत्येक पटल के प्रति आधा-आधा कोस अधिक बढ़ती जाती है ॥ 342 ॥<span id="343" /> पहली और दूसरी पृथिवी में रहने वाले नारकी कापोत लेश्या से युक्त हैं । तीसरी पृथिवी के ऊर्ध्व भाग में रहने वाले कापोत लेश्या से और अधोभाग में रहने वाले नील लेश्या से सहित हैं ॥ 343 ॥<span id="344" /> चौथी पृथिवी के ऊपर-नीचे दोनों स्थानों पर तथा पांचवीं पृथिवी के ऊपरी भाग में नील लेश्या से युक्त हैं और अधोभाग में कृष्ण लेश्या से सहित हैं ॥344॥<span id="345" /> छठवीं पृथिवी के ऊर्ध्वभाग में कृष्ण लेश्या से, अधोभाग में परमकृष्ण लेश्या से और सातवीं पृथिवी के ऊपर-नीचे दोनों ही जगह रहने वाले परमकृष्ण लेश्या से संक्लिष्ट हैं अर्थात् संक्लेश को प्राप्त होते रहते हैं ॥345॥<span id="346" /> प्रारंभ की चार भूमियों में रहने वाले नारकी उष्ण स्पर्श से, पांचवीं भूमि में रहने वाले उष्ण और शीत दोनों स्पर्शों से तथा अंत की दो भूमियों में रहने वाले केवल शीत स्पर्श से ही पीड़ित रहते हैं ॥ 346 ॥<span id="347" /> प्रारंभ की तीन पृथिवियों में नारकियों के उत्पत्ति-स्थान कुछ तो ऊँट के आकार हैं, कुछ कुंभी (घड़िया), कुछ कुस्थली, मुद्गर, मृदंग और नाडी के आकार हैं ॥347॥<span id="348" /> चौथी और पांचवीं पृथिवी में नारकियों के जन्मस्थान अनेक तो गौ के आकार हैं, अनेक हाथी, घोड़े आदि जंतुओं तथा धोंकनी, नाव और कमलपुट के समान हैं ॥348 ॥<span id="349" /> अंतिम दो भूमियों में कितने ही खेत के समान, कितने ही झालर और कटोरों के समान, और कितने ही मयूरों के आकार वाले हैं ॥ 349॥<span id="350" /> वे जन्मस्थान एक कोस, दो कोस, तीन कोस और एक योजन विस्तार से सहित हैं । उनमें जो उत्कृष्ट स्थान हैं वे सौ योजन तक चौड़े कहे गये हैं ॥ 350 ॥<span id="351" /> उन समस्त उत्पत्ति स्थानों की ऊंचाई अपने विस्तार से पंचगुनी है ऐसा वस्तु स्वरूप को जानने वाले आचार्य जानते हैं ॥351॥<span id="352" /> समस्त इंद्रक विल तीन द्वारों से युक्त तथा तीन कोणों वाले हैं । इनके सिवाय जो श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक निगोद हैं उनमें कितने ही दो द्वार वाले दुकोने, कितने ही तीन द्वार वाले तिकोने, कितने ही पांच द्वार वाले पंचकोने और कितने ही सात द्वार वाले सतकोने हैं ॥352॥<span id="353" /> इनमें संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का अपना जघन्य अंतर छः कोस और उत्कृष्ट अंतर बारह कोस है ॥353 ॥<span id="354" /> एवं असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का उत्कृष्ट अंतर असंख्यात योजन तथा जघन्य अंतर सात हजार योजन है ॥354॥<span id="355" /></p> | ||
<p>धर्मा नामक पहली पृथिवी के उत्पत्ति-स्थानों में उत्पन्न होने वाले नारकी जीव जन्मकाल में जब नीचे गिरते हैं तब सात योजन सवा तीन कोस ऊपर आकाश में उछलकर पुनः नीचे गिरते हैं ॥355 ॥<span id="356" /> दूसरी वंशा पृथिवी के निगोदों में जन्म लेने वाले नारकी पंद्रह योजन अढ़ाई कोस आकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं ॥356॥<span id="357" /> तीसरी मेघा पृथिवी में जन्म लेने वाले जीव इकतीस योजन एक कोस आकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं ॥357 ॥<span id="358" /> चौथी अंजना पृथिवी के निगोदों में जन्म लेने वाले जीव बासठ योजन दो कोस उछलकर नीचे गिरते हैं और तीव्र दुःख से दुःखी होते हैं ॥358꠰꠰<span id="359" /> पांचवीं पृथिवी के निगोदों में जन्म लेने वाले नारकी अत्यंत दुःखी हो एक सौ पच्चीस योजन आकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं ॥359 ॥<span id="360" /> छठवीं पृथिवी में स्थित निगोदों में जन्म लेने वाले जीव दो सौ योजन आकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं ॥360॥<span id="361" /> और सप्तमी पृथिवी में स्थित निगोदों में उत्पन्न हुए जीव पांच सौ धनुष ऊँचे उछलकर पृथिवी तल पर नीचे गिरते हैं ॥361॥<span id="362" /> तीसरी पृथिवी तक असुरकुमार देव नारकियों को परस्पर लड़ाते हैं । इसके सिवाय वे, नारकी पुराने वैर भाव को जानकर स्वयं भी लड़ते रहते हैं ॥362 ॥<span id="363" /> विक्रिया शक्ति के द्वारा अपने शरीर से ही उत्पन्न होने वाले भाले, करोंत तथा शूल आदि नाना शस्त्रों से उन नारकियों के खंड-खंड कर दिये जाते हैं और परस्पर एक दूसरे को पीड़ा पहुँचाते हैं ॥363॥<span id="364" /> खंड-खंड होनेपर भी पारे के समान उनके शरीर के टुकड़ों का पुनः समूह बन जाता है और जब तक उनकी आयु की स्थिति रहती है तब तक उनका मरण नहीं होता ॥364॥<span id="365" /> ये नारकी पूर्व कृत पाप कर्म के उदय से निरंतर एक दूसरे के द्वारा दिये हुए शारीरिक एवं मानसिक दुःख को सहते रहते हैं ॥365 ॥<span id="366" /> वे खारा, गरम तथा अत्यंत तीक्ष्ण वैतरणी नदी का जल पीते हैं और दुर्गंधि युक्त मिट्टी का आहार करते हैं इसलिए निरंतर असह्य दुःख भोगते रहते हैं ॥366 ॥<span id="367" /> रातदिन नरक में पचने वाले नारकियों को निमेष मात्र भी कभी सुख नहीं होता ॥367 ।<span id="368" /> उन नारकियों के निरंतर अत्यंत अशुभ परिणाम रहते हैं तथा नपुंसक लिंग और हुंडक संस्थान होता है ॥368॥<span id="369" /> जो आगामी काल में तीर्थकर होने वाले हैं तथा जिनके पापकर्मों का उपशम हो चुका है, देव लोग भक्तिवश छः माह पहले से उनके उपसर्ग दूर कर देते हैं ॥369 ॥<span id="370" /> अंतर के जानने वाले आचार्यों ने प्रथम पृथिवी में नारकियों को उत्पत्ति का अंतर अड़तालीस घड़ी बतलाया है ॥370॥<span id="371" /> और नीचे की छह भूमियों में क्रम से एक सप्ताह, एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास और छह मास का विरह-अंतरकाल कहा है ॥371 ॥<span id="372" /> जो तीव्र मिथ्यात्व से युक्त हैं तथा बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह के धारक हैं ऐसे तिर्यंच और मनुष्य उन पृथिवियों को प्राप्त होते हैं अर्थात् उनमें उत्पन्न होते हैं ॥ 372॥<span id="373" /><span id="374" /> असंज्ञी पंचेंद्रिय पहली पृथिवी तक जाते हैं, सरकने वाले दूसरी पृथिवी तक, पक्षी तीसरी तक, सर्प चौथी तक, सिंह पाँचवीं तक, स्त्रियां छठवीं तक और तीव्र पाप करने वाले मत्स्य तथा मनुष्य सातवीं पृथिवी तक जाते हैं ॥373-374 ॥<span id="375" /><span id="376" /><span id="377" /> सातवीं पृथिवी से निकला हुआ जीव यदि पुनः अव्यवहित रूप से सातवीं में जावे तो एक बार, छठवीं से निकला हुआ छठवीं में दो बार, पांचवीं से निकला हुआ पांचवीं में तीन बार, चौथी से निकला हुआ चौथी में चार बार, तीसरी से निकला हुआ तीसरी में पांच बार, दूसरी से निकला हुआ दूसरी में छ: बार और पहली से निकला हुआ पहली में सात बार तक उत्पन्न हो सकता है ॥ 375-377 ॥<span id="378" /> सातवीं पृथिवी से निकला हुआ प्राणी नियम से संज्ञी तिर्यंच होता है तथा संख्यात वर्ष की आयु का धारक हो फिर से नरक जाता है ॥378॥<span id="379" /> छठवीं पृथिवी से निकला हुआ जीव संयम को प्राप्त नहीं होता और पांचवीं पृथिवी से निकला जीव तो संयम को प्राप्त हो सकता है पर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता ॥379 ॥<span id="380" /> चौथी पृथिवी से निकला हुआ मोक्ष प्राप्त कर सकता है परंतु निश्चय से तीर्थंकर नहीं हो सकता ॥380॥<span id="381" /> तीसरी दूसरी और पहली पृथिवी से निकला हुआ जीव सम्यग्दर्शन की शुद्धता से तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकता है ॥ 381॥<span id="382" /> नरकों से निकले हुए जीव बलभद्र, नारायण और चक्रवर्ती पद छोड़कर ही मनुष्य पर्याय प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् मनुष्य तो होते हैं पर बलभद्र नारायण और चक्रवर्ती नहीं हो सकते ॥382 ॥<span id="383" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस प्रकार मैंने संक्षेप से तेरे लिए अधोलोक के विभाग का वर्णन किया । अब तू तिर्यग्लोक― मध्यम लोक के विभाग का वर्णन सुन ॥383॥<span id="384" /></p> | <p>धर्मा नामक पहली पृथिवी के उत्पत्ति-स्थानों में उत्पन्न होने वाले नारकी जीव जन्मकाल में जब नीचे गिरते हैं तब सात योजन सवा तीन कोस ऊपर आकाश में उछलकर पुनः नीचे गिरते हैं ॥355 ॥<span id="356" /> दूसरी वंशा पृथिवी के निगोदों में जन्म लेने वाले नारकी पंद्रह योजन अढ़ाई कोस आकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं ॥356॥<span id="357" /> तीसरी मेघा पृथिवी में जन्म लेने वाले जीव इकतीस योजन एक कोस आकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं ॥357 ॥<span id="358" /> चौथी अंजना पृथिवी के निगोदों में जन्म लेने वाले जीव बासठ योजन दो कोस उछलकर नीचे गिरते हैं और तीव्र दुःख से दुःखी होते हैं ॥358꠰꠰<span id="359" /> पांचवीं पृथिवी के निगोदों में जन्म लेने वाले नारकी अत्यंत दुःखी हो एक सौ पच्चीस योजन आकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं ॥359 ॥<span id="360" /> छठवीं पृथिवी में स्थित निगोदों में जन्म लेने वाले जीव दो सौ योजन आकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं ॥360॥<span id="361" /> और सप्तमी पृथिवी में स्थित निगोदों में उत्पन्न हुए जीव पांच सौ धनुष ऊँचे उछलकर पृथिवी तल पर नीचे गिरते हैं ॥361॥<span id="362" /> तीसरी पृथिवी तक असुरकुमार देव नारकियों को परस्पर लड़ाते हैं । इसके सिवाय वे, नारकी पुराने वैर भाव को जानकर स्वयं भी लड़ते रहते हैं ॥362 ॥<span id="363" /> विक्रिया शक्ति के द्वारा अपने शरीर से ही उत्पन्न होने वाले भाले, करोंत तथा शूल आदि नाना शस्त्रों से उन नारकियों के खंड-खंड कर दिये जाते हैं और परस्पर एक दूसरे को पीड़ा पहुँचाते हैं ॥363॥<span id="364" /> खंड-खंड होनेपर भी पारे के समान उनके शरीर के टुकड़ों का पुनः समूह बन जाता है और जब तक उनकी आयु की स्थिति रहती है तब तक उनका मरण नहीं होता ॥364॥<span id="365" /> ये नारकी पूर्व कृत पाप कर्म के उदय से निरंतर एक दूसरे के द्वारा दिये हुए शारीरिक एवं मानसिक दुःख को सहते रहते हैं ॥365 ॥<span id="366" /> वे खारा, गरम तथा अत्यंत तीक्ष्ण वैतरणी नदी का जल पीते हैं और दुर्गंधि युक्त मिट्टी का आहार करते हैं इसलिए निरंतर असह्य दुःख भोगते रहते हैं ॥366 ॥<span id="367" /> रातदिन नरक में पचने वाले नारकियों को निमेष मात्र भी कभी सुख नहीं होता ॥367 ।<span id="368" /> उन नारकियों के निरंतर अत्यंत अशुभ परिणाम रहते हैं तथा नपुंसक लिंग और हुंडक संस्थान होता है ॥368॥<span id="369" /> जो आगामी काल में तीर्थकर होने वाले हैं तथा जिनके पापकर्मों का उपशम हो चुका है, देव लोग भक्तिवश छः माह पहले से उनके उपसर्ग दूर कर देते हैं ॥369 ॥<span id="370" /> अंतर के जानने वाले आचार्यों ने प्रथम पृथिवी में नारकियों को उत्पत्ति का अंतर अड़तालीस घड़ी बतलाया है ॥370॥<span id="371" /> और नीचे की छह भूमियों में क्रम से एक सप्ताह, एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास और छह मास का विरह-अंतरकाल कहा है ॥371 ॥<span id="372" /> जो तीव्र मिथ्यात्व से युक्त हैं तथा बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह के धारक हैं ऐसे तिर्यंच और मनुष्य उन पृथिवियों को प्राप्त होते हैं अर्थात् उनमें उत्पन्न होते हैं ॥ 372॥<span id="373" /><span id="374" /> असंज्ञी पंचेंद्रिय पहली पृथिवी तक जाते हैं, सरकने वाले दूसरी पृथिवी तक, पक्षी तीसरी तक, सर्प चौथी तक, सिंह पाँचवीं तक, स्त्रियां छठवीं तक और तीव्र पाप करने वाले मत्स्य तथा मनुष्य सातवीं पृथिवी तक जाते हैं ॥373-374 ॥<span id="375" /><span id="376" /><span id="377" /> सातवीं पृथिवी से निकला हुआ जीव यदि पुनः अव्यवहित रूप से सातवीं में जावे तो एक बार, छठवीं से निकला हुआ छठवीं में दो बार, पांचवीं से निकला हुआ पांचवीं में तीन बार, चौथी से निकला हुआ चौथी में चार बार, तीसरी से निकला हुआ तीसरी में पांच बार, दूसरी से निकला हुआ दूसरी में छ: बार और पहली से निकला हुआ पहली में सात बार तक उत्पन्न हो सकता है ॥ 375-377 ॥<span id="378" /> सातवीं पृथिवी से निकला हुआ प्राणी नियम से संज्ञी तिर्यंच होता है तथा संख्यात वर्ष की आयु का धारक हो फिर से नरक जाता है ॥378॥<span id="379" /> छठवीं पृथिवी से निकला हुआ जीव संयम को प्राप्त नहीं होता और पांचवीं पृथिवी से निकला जीव तो संयम को प्राप्त हो सकता है पर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता ॥379 ॥<span id="380" /> चौथी पृथिवी से निकला हुआ मोक्ष प्राप्त कर सकता है परंतु निश्चय से तीर्थंकर नहीं हो सकता ॥380॥<span id="381" /> तीसरी, दूसरी और पहली पृथिवी से निकला हुआ जीव सम्यग्दर्शन की शुद्धता से तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकता है ॥ 381॥<span id="382" /> नरकों से निकले हुए जीव बलभद्र, नारायण और चक्रवर्ती पद छोड़कर ही मनुष्य पर्याय प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् मनुष्य तो होते हैं पर बलभद्र नारायण और चक्रवर्ती नहीं हो सकते ॥382 ॥<span id="383" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस प्रकार मैंने संक्षेप से तेरे लिए अधोलोक के विभाग का वर्णन किया । अब तू तिर्यग्लोक― मध्यम लोक के विभाग का वर्णन सुन ॥383॥<span id="384" /></p> | ||
<p>बुद्धिमान् मनुष्य सब समय, सर्वत्र व्याप्त रहने वाले, जिनेंद्र भगवान् के वचनरूपी उत्तम दीपकों की सामर्थ्य से सूर्य और चंद्रमा के अगोचर अधोलोक के अंधकार को नष्ट कर वस्तु के यथार्थस्वरूप को देखते हुए प्रभुत्व को प्राप्त होते हैं इसमें क्या आश्चर्य है ? क्योंकि तीन लोक में जिनेंद्ररूपी सूर्य के द्वारा प्रकाश के उत्पन्न होने पर अंधकार का सद्भाव कहाँ रह सकता है ? ॥384 ॥ </p> | <p>बुद्धिमान् मनुष्य सब समय, सर्वत्र व्याप्त रहने वाले, जिनेंद्र भगवान् के वचनरूपी उत्तम दीपकों की सामर्थ्य से सूर्य और चंद्रमा के अगोचर अधोलोक के अंधकार को नष्ट कर वस्तु के यथार्थस्वरूप को देखते हुए प्रभुत्व को प्राप्त होते हैं इसमें क्या आश्चर्य है ? क्योंकि तीन लोक में जिनेंद्ररूपी सूर्य के द्वारा प्रकाश के उत्पन्न होने पर अंधकार का सद्भाव कहाँ रह सकता है ? ॥384 ॥ </p> | ||
<p><strong>इस प्रकार जिसमें अरिष्टनेमि के पुराण का संग्रह किया गया है ऐसे जिनसेनाचार्य प्रणीत हरिवंशपुराण में अधोलोक का वर्णन करने वाला चौथा सर्ग समाप्त हुआ ॥4॥</strong></p> | <p><strong>इस प्रकार जिसमें अरिष्टनेमि के पुराण का संग्रह किया गया है ऐसे जिनसेनाचार्य प्रणीत हरिवंशपुराण में अधोलोक का वर्णन करने वाला चौथा सर्ग समाप्त हुआ ॥4॥</strong></p> |
Latest revision as of 21:08, 18 December 2024
अथानंतर सब ओर से जिसका अनंत विस्तार है, जिसके अपने प्रदेश भी अनंत हैं तथा जो अन्य द्रव्यों से रहित है वह अलोकाकाश कहलाता है ॥1॥ यतश्च उसमें जीवाजीवात्मक अन्य पदार्थ नहीं दिखाई देते हैं इसलिए वह अलोकाकाश इस नाम से प्रसिद्ध है ॥ 2॥ गति और स्थिति में निमित्तभूत धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय का अभाव होने से अलोकाकाश में जीव और पुद̖गल की न गति ही है और न स्थिति ही है ॥3꠰꠰ उस अलोकाकाश के मध्य में असंख्यातप्रदेशी तथा लोकाकाश से मिश्रित अनादि लोक स्थित है ॥4॥ काल द्रव्य तथा अपने अवांतर विस्तार से सहित अन्य समस्त पंचास्तिकाय यतश्च इसमें दिखाई देते हैं इसलिए यह लोक कहलाता है ॥ 5 ॥ यह लोक नीचे, ऊपर और मध्य में वेत्रासन, मृदंग और बहुत बड़ी झालर के समान है अर्थात् अधोलोक वेत्रासन― मूंठा के समान है, ऊर्ध्वलोक मृदंग के तुल्य है और मध्यलोक जिसे तिर्यक् लोक भी कहते हैं झालर के समान है ॥6॥ नीचे आधा मृदंग रखकर उस पर यदि पूरा मृदंग रखा जाये तो जैसा आकार होता है वैसा ही लोक का आकार है किंतु विशेषता यह है कि यह लोक चतुरस्र अर्थात् चौकोर है ॥7॥ अथवा कमर पर हाथ रख तथा पैर फैलाकर अचल-स्थिर खड़े हुए मनुष्य का जो आकार है उसी आकार को यह लोक धारण करता है ॥8॥ अपने विस्तार को अपेक्षा अधोलोक नीचे सात रज्जु प्रमाण है, फिर क्रम-कम से प्रदेशों में हानि होते-होते मध्यम लोक के यहाँ एक रज्जु विस्तृत रह जाता है ॥9॥ इसके ऊपर प्रदेश वृद्धि होते-होते ब्रह्मब्रह्मोत्तर स्वर्ग के समीप पाँच रज्जु प्रमाण है । तदनंतर उसके आगे प्रदेश हानि होते-होते लोक के अंत में एक रज्जु प्रमाण विस्तृत रह जाता है ॥10॥ तीनों लोकों की लंबाई चौदह रज्जु प्रमाण है । सात रज्जु सुमेरु पर्वत के नीचे और सात रज्जु उसके ऊपर है ॥11॥ चित्रा पृथिवी के अधोभाग से लेकर द्वितीय पृथिवी के अंत तक एक रज्जु समाप्त होती है, इसके आगे तृतीय पृथिवी के अंत तक द्वितीय रज्जु, चतुर्थ पृथिवी के अंत तक तृतीय रज्जु, पंचम पृथिवी के अंत तक चतुर्थ रज्जु, षष्ठ पृथिवी के अंत तक पंचम रज्जु, सप्तम पृथिवी के अंत तक षष्ठ रज्जु और लोक के अंत तक सप्तम रज्जु समाप्त होती है अर्थात् चित्रा पृथिवी के नीचे छह रज्जु की लंबाई तक सात पृथिवियाँ और उसके नीचे एक रज्जु के विस्तार में निगोद तथा वातवलय हैं ॥12-13 ॥ यह तो चित्रा पृथिवी के नीचे का विस्तार बतलाया अब इसके ऊपर ऐशान स्वर्ग तक डेढ़ रज्जु, उसके आगे माहेंद्र स्वर्ग के अंत तक फिर डेढ़ रज्जु, फिर कापिष्ट स्वर्ग तक एक रज्जु, तदनंतर सहस्रार स्वर्ग तक एक रज्जु, उसके आगे आरण अच्युत स्वर्ग तक एक रज्जु और उसके ऊपर ऊर्ध्व लोक के अंत तक एक रज्जु, इस प्रकार कुल सप्त रज्जु समाप्त होती हैं ॥ 14-16 ॥
चित्रा पृथिवी के नीचे प्रथम रज्जु के अंत में जहाँ दूसरी पृथिवी समाप्त होती है वहाँ लोक के जानने वाले आचार्यों ने अधोलोक का विस्तार एक रज्जु तथा द्वितीय रज्जु के सात भागों में से छह भाग प्रमाण बतलाया है ॥ 17॥ द्वितीय रज्जु के अंत में जहाँ तीसरी पृथिवी समाप्त होती है वहाँ अधोलोक का विस्तार दो रज्जु पूर्ण और एक रज्जु के सात भागों में से पाँच भाग प्रमाण बताया है । तृतीय रज्जु के अंत में जहाँ चौथी पृथिवी समाप्त होती है वहाँ अधोलोक का विस्तार तीन रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से चार भाग प्रमाण बतलाया है ॥18॥ चतुर्थ रज्जु के अंत में जहाँ पांचवीं पृथिवी समाप्त होती है वहाँ अधोलोक का विस्तार चार रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से तीन भाग प्रमाण कहा गया है, पंचम रज्जु के अंत में जहाँ छठी पृथिवी समाप्त होती है वहाँ अधोलोक का विस्तार पाँच रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से दो भाग प्रमाण बतलाया है, षष्ठ रज्जु के अंत में जहाँ सातवीं पृथिवी समाप्त होती है वहाँ अधोलोक का विस्तार छह रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से एक भाग प्रमाण है तथा सप्तम रज्जु के अंत में जहाँ लोक समाप्त होता है वहाँ अधोलोक का विस्तार सात रज्जु प्रमाण कहा गया है ॥19-20꠰꠰
चित्रा पृथिवी के ऊपर डेढ़ रज्जु की ऊँचाई पर जहाँ दूसरा ऐशान स्वर्ग समाप्त होता है वहाँ लोक का विस्तार दो रज्जु पूर्ण और एक रज्जु के सात भागों में से पांच भाग प्रमाण कहा गया है ॥ 21 ॥ उसके ऊपर डेढ़ रज्जु और चलकर जहाँ माहेंद्र स्वर्ग समाप्त होता है वहाँ लोक का विस्तार चार रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से तीन भाग प्रमाण बताया गया है ॥ 22 ॥ उसके आगे आधी रज्जु और चलकर जहाँ ब्रह्मोत्तर स्वर्ग समाप्त होता है वहाँ लोक का विस्तार पांच रज्जु प्रमाण कहा गया है ॥ 23 ॥ उसके ऊपर आधी रज्जु और चलकर जहाँ कापिष्ट स्वर्ग समाप्त होता है वहाँ लोक का विस्तार चार रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से तीन भाग प्रमाण बतलाया गया है ॥24॥ उसके आगे आधी रज्जु और चलकर जहाँ महाशुक्र स्वर्ग समाप्त होता है वहाँ लोक का विस्तार तीन रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से छह भाग प्रमाण कहा गया है ॥25॥ इसके ऊपर आधी रज्जु और चलकर जहाँ सहस्रार स्वर्ग का अंत आता है वहाँ लोक का विस्तार तीन रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से दो भाग प्रमाण बतलाया गया है ॥ 26 ॥ इसके आगे आधी रज्जु और चलकर जहाँ प्राणत स्वर्ग का अंत आता है वहाँ लोक का विस्तार दो रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से पाँच भाग प्रमाण कहा गया है ॥27॥ इसके ऊपर आधी रज्जु और चलकर जहाँ अच्युत स्वर्ग समाप्त होता है वहाँ लोक का विस्तार दो रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से एक भाग प्रमाण बतलाया है और इसके आगे सातवीं रज्जु के अंत में जहाँ लोक की सीमा समाप्त होती है वहाँ लोक का विस्तार एक रज्जु प्रमाण कहा गया है ॥28॥ तीनों लोकों में अधोलोक तो पुरुष की जंघा तथा नितंब के समान है, तिर्यग्लोक कमर के सदृश है, माहेंद्र स्वर्ग का अंत मध्य अर्थात् नाभि के समान है, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग छाती के समान है, तेरहवां, चौदहवाँ स्वर्ग भुजा के समान है, आरण-अच्युत स्वर्ग स्कंध के समान है, नवग्रैवेयक ग्रीवा के समान है, अनुदिश उन्नत दाढ़ी के समान है, पंचानुत्तर विमान मुख के समान है, सिद्धक्षेत्र ललाट के समान है और जहाँ सिद्ध जीवों का निवास है ऐसा आकाश प्रदेश मस्तक के समान है ॥29-31॥ जिसके मध्य में जीवादि समस्त पदार्थ स्थित है ऐसा यह लोकरूपी पुरुष अपौरुषेय ही है― अकृत्रिम ही है ॥32॥ घनोदधि, घनवात और तनुवात ये तीनों वातवलय इस लोक को सब ओर से घेरकर स्थित हैं ॥33॥ आदि का घनोदधिवातवलय गोमूत्र के वर्ण के समान है, बीच का घनवातवलय मूंग के समान वर्ण वाला है और अंत का तनुवातवलय परस्पर मिले हुए अनेक वर्णों वाला है ॥34॥ ये वातवलय दंड के समान लंबे हैं, घनीभूत हैं, ऊपर-नीचे तथा चारों ओर स्थित हैं, चंचलाकृति हैं तथा लोक के अंत तक वेष्टित हैं ॥35॥ अधोलोक के नीचे तीनों वलयों में से प्रत्येक का विस्तार बीस-बीस हजार योजन है और लोक के ऊपर तीनों वातवलय कुछ कम एक योजन विस्तार वाले हैं ॥36॥ अधोलोक के नीचे तीनों वातवलय दंडाकार हैं और ऊपर चलकर जब ये दंडाकार का परित्याग करते हैं अर्थात् लोक के आजू-बाजू में खड़े होते हैं तब क्रमशः सात, पाँच और चार योजन विस्तार वाले रह जाते हैं ॥37॥ तदनंतर प्रदेशों में हानि होते-होते मध्यम लोक के यहाँ इनका विस्तार क्रम से पांच, चार और तीन योजन रह जाता है ॥38॥ तदनंतर प्रदेशों में वृद्धि होने से ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर नामक पाँचवें स्वर्ग के अंत में क्रमशः सात पाँच और चार योजन विस्तृत हो जाते हैं ꠰꠰39꠰꠰ पुनः प्रदेशों में हानि होने से मोक्ष स्थान के समीप क्रम से पाँच, चार और तीन योजन विस्तृत रह जाते हैं ॥40॥ तदनंतर लोक के ऊपर पहुँचकर घनोदधि वातवलय आधा योजन अर्थात् दो कोस, घनवात वलय उससे आधा अर्थात् एक कोस और तनुवातवलय उससे कुछ कम अर्थात् पंद्रह से पचहत्तर धनुष प्रमाण विस्तृत है ॥41॥ तीनों वातवलयों से घिरा हुआ यह लोक ऐसा जान पड़ता है मानो महालोक जीतने की इच्छा से कवचों से ही आवेष्टित हुआ हो ॥42꠰꠰
इस लोक में पहली रत्नप्रभा, दूसरी शर्कराप्रभा, तीसरी बालुकाप्रभा, चौथी पंकप्रभा, पाँचवीं धूमप्रभा, छठवीं तमःप्रभा और सातवीं महातमःप्रभा ये सात भूमियाँ हैं । ये सातों भूमियाँ तीनों वातवलयों पर अधिष्ठित तथा क्रम से नीचे-नीचे स्थित हैं । अंत में चलकर ये सभी अधोलोक के नीचे स्थित धनोदधि वातवलय पर अधिष्ठित हैं ॥43-45꠰꠰ इन पृथिवियों के रूढ़ि नाम क्रम से घर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माधवी भी हैं ॥ 46 ॥ पहली रत्नप्रभा पृथिवी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है तथा खरभाग, पंकभाग और अब्बहुल भाग इन तीन भागों में विभक्त है ॥47॥ पहला खरभाग सोलह हजार योजन मोटा है, दूसरा पंकभाग चौरासी हजार योजन मोटा है और तीसरा अब्बहुल भाग अस्सी हजार योजन मोटा है ॥ 48-49 ॥ पंकभाग को राक्षसों तथा असुरकुमारों के रत्नमयी देदीप्यमान भवन यथाक्रम से सुशोभित कर रहे हैं ॥ 50 ॥ तथा खरभाग को नौ भवनवासियों के महाकांति से युक्त, स्वयं जगमगाते हुए नाना प्रकार के भवन अलंकृत कर रहे हैं ॥51॥ खरभाग के 1 चित्रा, 2 वज्रा, 3 वैडूर्य, 4 लोहितांक, 5 मसारगल्ब, 6 गोमेद, 7 प्रवाल, 8 ज्योति, 9 रस, 10 अंजन, 11 अंजनमूल, 12 अंग, 13 स्फटिक, 14 चंद्राभ, 15 वर्चस्क और 16 बहुशिलामय ये सोलह पटल हैं ॥ 52-54 ॥ इनमें से प्रत्येक पटल को मोटाई एक-एक हजार योजन है तथा देदीप्यमान खरभाग इन सोलह पटल स्वरूप ही है ॥55॥ पंक भाग से शेष छह भूमियों का अपना-अपना अंतर अपनी-अपनी मोटाई से कम एक-एक रज्जु प्रमाण है ॥56॥ समस्त तत्त्वों को प्रत्यक्ष देखने वाले श्री जिनेंद्र देव ने द्वितीयादि पृथिवियों की मोटाई क्रम से बत्तीस हजार, अट्ठाईस हजार, चौबीस हजार, बीस हजार, सोलह हजार और आठ हजार योजन बतलायी है ॥ 57-58॥
प्रथम पृथिवी में असुरकुमार आदि दस भवनवासी देवों के भवनों की संख्या निम्न प्रकार जानना चाहिए― असुरकुमारों के चौंसठ लाख, नागकुमारों के चौरासी लाख, गरुड़ कुमारों के बहत्तर लाख, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, मेघकुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और विद्युत्कुमार इन छह के छिहत्तर लाख तथा वायुकमारों के छियानवे लाख भवन हैं । ये सब भवन श्रेणिरूप से स्थित हैं तथा प्रत्येक में एक-एक चैत्यालय हैं ॥59-61॥ पृथिवी के नीचे भूतों के चौदह हजार और राक्षसों के सोलह हजार भवन यथाक्रम से स्थित हैं ॥62॥ जहाँ मणिरूपी सूर्य की निरंतर आभा फैली रहती है ऐसे पाताल लोक में असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, स्तनितकुमार, विद्युत्कुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार ये दस प्रकार के भवनवासी देव यथा योग्य अपने-अपने भवनों में निवास करते हैं ॥63-65॥ उनमें असुरकुमारों को उत्कृष्ट आयु कुछ अधिक एक सागर, नागकुमारों की तीन पल्य, सुपर्णकुमारों की अढ़ाई पल्य, द्वीपकुमारों की दो पल्य और शेष छह कुमारों की डेढ़ पल्य प्रमाण है ॥66-67॥ असुरकुमारों की ऊँचाई पच्चीस धनुष, शेष नौ प्रकार के भवनवासियों तथा व्यंतरों की दस धनुष और ज्योतिषीदेवों की सात धनुष है ॥68꠰꠰ सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के देवों की ऊँचाई सात हाथ है । उसके आगे एक तथा आधा हाथ कम होते-होते सर्वार्थसिद्धि में एक हाथ की ऊँचाई रह जाती है । भावार्थ― पहले दूसरे स्वर्ग में सात हाथ, तीसरे चौथे स्वर्ग में छह हाथ, पाँचवें, छठवें, सातवें, आठवें स्वर्ग में पाँच हाथ, नौवें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें स्वर्ग में चार हाथ, तेरहवें, चौदहवें में साढ़े तीन हाथ, पंद्रहवें-सोलहवें स्वर्ग में तीन हाथ, अधोग्रैवेयकों में अढ़ाई हाथ, मध्यम ग्रैवेयकों में दो हाथ, उपरि ग्रैवेयकों में तथा अनुदिशविमानों में डेढ़ हाथ और अनुत्तर विमानों में एक हाथ ऊँचाई है ॥69꠰꠰ गौतमस्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! अब इसके आगे संक्षेप से रत्नप्रभा आदि सातों भूमियों के बिलों का यथाक्रम से वर्णन करता हूँ सो सुन ॥70॥
घर्मा नामक पहली पृथिवी के अब्बहुल भाग में ऊपर-नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर नारकियों के बिल हैं । यही क्रम शेष पृथिवियों में भी समझना चाहिए, किंतु सातवीं पृथिवी में पैंतीस कोस के विस्तार वाले मध्य देश में बिल हैं ॥71-72॥ पहली पृथिवी में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पंद्रह लाख, चौथी में दस लाख, पाँचवीं में तीन लाख, छठवीं में पांच कम एक लाख, सातवीं में पांच और सातों में सब मिलाकर चौरासी लाख बिल हैं ॥ 73-74 ॥उन पृथिवियों में क्रम से तेरह, ग्यारह, नौ, सात, पाँच, तीन और एक प्रस्तार अर्थात् पटल हैं ॥75꠰꠰ धर्मा पृथिवी के तेरह प्रस्तारों में क्रम से निम्नलिखित तेरह इंद्रक बिल हैं-1 सीमंतक, 2 नारक, 3 रोरुक, 4 भ्रांत, 5 उद्भ्रांत, 6 संभ्रांत, 7 असंभ्रांत, 8 विभ्रांत, 9 त्रस्त, 10 त्रसित, 11 वक्रांत, 12 अवक्रांत और 13 विक्रांत ॥ 76-77꠰꠰ श्री जिनेंद्र देव ने वंशा नामक दूसरी पृथिवी के ग्यारह प्रस्तारों में निम्नांकित ग्यारह इंद्रक बिल बतलाये हैं-1 स्तरक, 2 स्तनक, 3 मनक, 4 वनक, 5 घाट, 6 संघाट, 7 जिवा, 8 जिह्विक, 9 लोल, 10 लोलुप और 11 स्तनलोलुप ॥78-79꠰꠰ तीसरी मेघा पृथिवी के नौ प्रस्तारों में निम्न प्रकार नौ इंद्रक बिल बतलाये हैं-1 तप्त 2 तपित 3 तपन, 4 तापन, 5 निदाघ, 6 प्रज्वलित, 7 उज्ज्वलित, 8 संज्वलित और 9 संप्रज्वलित ॥ 80-81 ॥ चौथी पृथिवी के सात प्रस्तारों में क्रम से निम्नलिखित सात इंद्रक बिल हैं-― 1 आर, 2 तार, 3 मार, 4 वर्चस्क, 5 तमक, 6 खड और 7 खडखड ॥ 82 ॥ पांचवीं पृथिवी के पाँच प्रस्तारों में निम्नलिखित पाँच इंद्रक बिल हैं-1 तम, 2 भ्रम, 3 झष, 4 अंत और 5 तामिस्र । ये इंद्रक बिल नगरों के आकार हैं ॥ 83 ॥ छठवीं पृथिवी में 1 हिम, 2 वर्दल और 3 लल्लक ये तीन इंद्रक बिल हैं ॥ 84 ॥ सातों पृथिवियों के सब इंद्रक मिलकर उनचास हैं । ऊपर से नीचे की ओर प्रत्येक पृथिवी में दो-दो कम होते जाते हैं और नीचे से ऊपर की ओर प्रत्येक पृथिवी में दो-दो अधिक होते जाते हैं ॥85॥ प्रथम पृथिवी के प्रथम प्रस्तार संबंधी सीमंतक इंद्रक बिल की चारों दिशाओं में प्रत्येक में उनचास उनचास श्रेणिबद्ध बिल हैं और ये परस्पर बहुत भारी अंतर को लिये हुए हैं ॥86॥ इसी सीमंतक बिल की चार विदिशाओं में प्रत्येक में अड़तालीस-अड़तालीस श्रेणिबद्ध बिल हैं । इन श्रेणियों तथा श्रेणिबद्ध बिलों के सिवाय बहुत से प्रकीर्णक बिल भी हैं ॥87꠰꠰ इन सीमंतक आदि नरकों में नीचे-नीचे क्रम-क्रम से एक-एक बिल कम होता जाता है । इस प्रकार सातवीं पृथिवी के अप्रतिष्ठान नामक इंद्रक की चार दिशाओं में एक-एक के क्रम से केवल चार बिल हैं । वहाँ न श्रेणी है और न प्रकीर्णक बिल ही हैं ॥88॥ इस प्रकार प्रथम पृथिवी के प्रथम सीमंतक इंद्रक की चार दिशाओं में एक सौ छियानवे, चार विदिशाओं में एक सौ बानवे और सब मिलाकर तीन सौ अठासी श्रेणीबद्ध बिल हैं ॥ 89॥ दूसरे प्रस्तार के नारक इंद्रक की चार दिशाओं में एक सौ बानवे, चार विदिशाओं में एक सौ अठासी और सब मिलाकर तीन सौ अस्सी श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥ 90 ॥ तीसरे प्रस्तार के रोरुक इंद्रक की चार दिशाओं में एक सौ अठासी, चार विदिशा में एक सौ चौरासी और सब मिलाकर तीन सौ बहत्तर श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥91॥ चौथे प्रस्तार के भ्रांत नामक इंद्रक की चार दिशाओं में एक सौ चौरासी, विदिशाओं में एक सौ अस्सी और सब मिलाकर तीन सौ चौंसठ श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥92 ॥ पाँचवें प्रस्तार के उद्भ्रांत नामक इंद्रक बिल की दिशाओं में एक सौ अस्सी, विदिशाओं में एक सौ छिहत्तर और सब मिलाकर तीन सौ छप्पन श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥93॥ छठवें प्रस्तार के संभ्रांत नामक इंद्रक बिल दिशाओं में एक सौ छिहत्तर विदिशाओं में एक सौ बहत्तर और सब मिलाकर तीन सौ अड़तालीस श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥ 94 ॥ सातवें प्रस्तार के असंभ्रांत नामक इंद्रक बिल की चारों दिशाओं में एक सौ बहत्तर, विदिशाओं में एक सौ अड़सठ और सब मिलाकर तीन सौ चालीस श्रेणीबद्ध बिल हैं ॥ 95 ॥ आठवें प्रस्तार के विभ्रांत नामक इंद्रक बिल की चार दिशाओं में एक सौ अड़सठ, विदिशाओं में एक सौ चौसठ और सब मिलाकर तीन सौ बत्तीस श्रेणीबद्ध बिल हैं ॥96॥ नौवें प्रस्तार के त्रस्त नामक इंद्रक बिल की चार दिशाओं में एक सौ चौसठ, विदिशाओं में एक सौ साठ और सब मिलाकर तीन सौ चौबीस श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥ 97 ॥ दसवें प्रस्तार के त्रसित नामक इंद्रक बिल की चार दिशाओं में एक सौ साठ, विदिशाओं में एक सौ छप्पन और सब मिलाकर तीन सौ सोलह श्रोणिबद्ध बिल हैं ॥98꠰꠰ ग्यारहवें प्रस्तार के वक्रांत नामक इंद्रक बिल की चार दिशाओं में एक सौ छप्पन, विदिशाओं में एक सौ बावन और सब मिलाकर तीन सौ आठ श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥ 99 ॥ बारहवें प्रस्तार के अवक्रांत नामक इंद्रक बिल की चार दिशाओं में एक सौ बावन, विदिशाओं में एक सौ अड़तालीस और सब मिलाकर तीन सौ श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥100॥ और तेरहवें प्रस्तार के विक्रांत नामक इंद्रकबिल को चारों दिशाओं में एक सौ अड़तालीस, विदिशाओं में एक सौ चवालीस और दोनों के सब मिलाकर दो सौ बानवे श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥101-102॥ इस प्रकार तेरहों प्रस्तारों के समस्त श्रेणिबद्ध बिल चार हजार चार सौ बीस, इंद्रक बिल तेरह और श्रेणिबद्ध तथा इंद्रक दोनों मिलाकर चार हजार चार सौ तेंतीस बिल हैं । इनके सिवाय उनतीस लाख पंचानवे हजार पाँच सौ सड़सठ प्रकीर्णक बिल हैं । इस प्रकार सब मिलाकर प्रथम पृथिवी में तीस लाख बिल हैं ॥ 103-104 ॥ द्वितीय पृथिवी के प्रथम प्रस्तार के स्तरक नामक इंद्रकबिल की चारों दिशाओं में एक सौ चवालीस, विदिशाओं में एक सौ चालीस और सब मिलाकर दो सौ चौरासी श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥ 105 ॥ द्वितीय प्रस्तार के स्तनक नामक इंद्रकबिल की चारों दिशाओं में एक सौ चालीस, विदिशाओं में एक सौ छत्तीस और सब मिलाकर दो सौ छिहत्तर श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥106॥ तृतीय प्रस्तार के मनक नामक इंद्रकबिल की चारों दिशाओं में एक सौ छत्तीस, विदिशाओं में एक सौ बत्तीस और सब मिलाकर दो सौ अड़सठ श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥107꠰꠰ चतुर्थ प्रस्तार के वनक नामक इंद्रकबिल की चारों दिशाओं में एक सौ बत्तीस, विदिशाओं में एक सौ अट्ठाईस और सब मिलाकर दो सौ साठ श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥108॥ पंचम प्रस्तार के घाट नामक इंद्रकबिल की चारों दिशाओं में एक सौ अट्ठाईस, विदिशाओं में एक सौ चौबीस और सब मिलाकर दो सौ बावन बिल श्रेणिबद्ध हैं ॥109॥ षष्ठ प्रस्तार के संघाट नामक इंद्रकबिल की चारों दिशाओं में एक सौ चौबीस, विदिशाओं में एक सौ बीस और सब मिलाकर दो सौ चवालीस श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥110॥ सप्तम प्रस्तार के जिह्व नामक इंद्रक की चारों दिशाओं में एक सौ बीस, विदिशाओं में एक सौ सोलह और सब मिलाकर दो सौ छत्तीस श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥111॥ अष्टम प्रस्तार के जिह्वक नामक इंद्रक को चारों दिशाओं में एक सौ सोलह, विदिशाओं में एक सौ बारह और सब मिलाकर दो सौ अट्ठाईस श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥112॥ नवम प्रस्तार के लोल नामक इंद्रक की चारों दिशाओं में एक सौ बारह, विदिशाओं में एक सौ आठ और सब मिलाकर दो सौ बीस श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥113॥ दसम प्रस्तार के लोलुप नामक इंद्रक की चारों दिशाओं में एक सौ आठ, विदिशाओं में एक सौ चार और सब मिलाकर दो सौ बारह श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥114॥ और एकादस प्रस्तार के स्तन-लोलुप नामक इंद्रक की चारों दिशाओं में एक सौ चार, विदिशाओं में सौ और सब मिलाकर दो सौ चार श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥115॥ इस प्रकार इन ग्यारह प्रस्तारों के श्रेणिबद्ध बिल दो हजार छह सौ चौरासी और इंद्रक बिल ग्यारह हैं तथा दोनों मिलाकर दो हजार छह सौ पंचानवें हैं ॥116॥ तथा प्रकीर्णक बिल चौबीस लाख सत्तानवे हजार तीन सौ पांच है । इस तरह सब मिलकर पचीस लाख बिल हैं ॥117॥
तीसरी पृथिवी के पहले प्रस्तार संबंधी तप्त नामक इंद्रक बिल की चारों दिशाओं में सौ, विदिशाओं में छियानवें और सब मिलाकर एक सौ छियानवें श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥118॥ दूसरे प्रस्तार के तपित नामक इंद्रक को चारों दिशाओं में छियानवें, विदिशाओं में बानवें और दोनों के मिलाकर एक सौ अट्ठासी श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥119 ॥ तीसरे प्रस्तार के तपन नामक इंद्रक की चारों दिशाओं में बानवे, विदिशाओं में अट्ठासी और दोनों के मिलाकर एक सौ अस्सी श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥120॥ चौथे प्रस्तार के तापन नामक इंद्रक की चारों महादिशाओं में अट्ठासी, विदिशाओं में चौरासी और दोनों के मिलाकर एक सौ बहत्तर श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥121॥ पांचवें प्रस्तार के निदाघ नामक इंद्रक बिल की चारों दिशाओं में चौरासी, विदिशाओं में अस्सी और दोनों के मिलाकर एक सौ चौंसठ श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥122॥ छठे प्रस्तार के प्रज्वलित नामक इंद्रक को चारों दिशाओं में अस्सी, विदिशाओं में छिहत्तर और दोनों के मिलाकर एक सौ छप्पन श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥123॥ सातवें प्रस्तार के उज्ज्वलित नामक इंद्रक को चारों दिशाओं में छिहत्तर, विदिशाओं में बहत्तर और दोनों के मिलाकर एक सौ अड़तालीस श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥124॥ आठवें संज्वलित नामक इंद्रक की चारों दिशाओं में बहत्तर, विदिशाओं में अड़सठ और दोनों को मिलाकर एक सौ चालीस श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥125॥ और नौवें प्रस्तार के संप्रज्वलित नामक इंद्रक की चारों दिशाओं में अड़सठ, विदिशाओं में चौंसठ और दोनों के सब मिलाकर एक सौ बत्तीस श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥126॥ इस प्रकार नौ प्रस्तारों के समस्त श्रेणिबद्ध बिल एक हजार चार सौ छिहत्तर है । इनमें नौ इंद्रक बिलों की संख्या मिलाने पर एक हजार चार सौ पचासी बिल होते हैं ॥127॥ तीसरी पृथिवी में चौदह लाख, अट्ठानवें हजार पाँच सौ पंद्रह प्रकीर्णक हैं और सब मिलाकर पंद्रह लाख बिल हैं ॥128॥
चौथी पृथिवी के पहले प्रस्तार संबंधी आर नामक इंद्रक की चारों दिशाओं में चौंसठ, विदिशाओं में साठ और दोनों के मिलाकर एक सौ चौबीस श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥129॥ दूसरे प्रस्तार के तार नामक इंद्रक की चारों दिशाओं में साठ, विदिशाओं में छप्पन और दोनों के मिलाकर एक सौ सोलह श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥130॥ तीसरे प्रस्तार के मार नामक इंद्रक की चारों महादिशाओं में छप्पन, विदिशाओं में बावन और दोनों के मिलाकर एक सौ आठ श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥131॥ चौथे प्रस्तार के वर्चस्क नामक इंद्रक की चारों महादिशाओं में बावन, विदिशाओं में अड़तालीस और दोनों के मिलाकर एक सौ श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥132॥ पाँचवें प्रस्तार के तमक नामक इंद्रक की चारों महादिशाओं में अड़तालीस, विदिशाओं में चवालीस और दोनों के मिलाकर बानवे श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥133॥ छठवें प्रस्तार के खड नामक इंद्रक की चारों दिशाओं में चवालीस, विदिशाओं में चालीस और दोनों के मिलाकर चौरासी श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥134॥ और सातवें प्रस्तार के खड-खड नामक इंद्रक की चारों महादिशाओं में चालीस, विदिशाओं में छत्तीस और दोनों के मिलाकर छिहत्तर श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥ 135 ॥ इस प्रकार चौथी भूमि में सात इंद्रक बिलों की संख्या मिलाकर सब इंद्रक और श्रेणिबद्ध बिलों की संख्या सात सौ सात है ॥136॥ इनके सिवाय नौ लाख निन्यानवे हजार दो सौ तिरानवे प्रकोणक बिल हैं तथा सब मिलाकर दस लाख बिल हैं ॥137॥
पांचवीं पृथिवी संबंधी प्रथम प्रस्तार के तम नामक इंद्रक को चारों महादिशाओं में छत्तीस, विदिशाओं में बत्तीस और दोनों के मिलाकर अड़सठ श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥138॥ दूसरे प्रस्तार में भ्रम नामक इंद्रक की चारों महादिशाओं में बत्तीस, विदिशाओं में अट्ठाईस और दोनों के मिलाकर साठ श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥139॥ तीसरे प्रस्तार के ऋषभ नामक इंद्र की चारों महादिशाओं में अट्ठाईस, विदिशाओं में चौबीस और दोनों में मिलाकर बावन श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥140॥ चौथे प्रस्तार के अंध्र नामक इंद्रक की चारों दिशाओं में चौबीस, विदिशाओं में बीस और दोनों के मिलाकर चवालीस श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥141॥ और पांचवें प्रस्तार के तमिस्र नामक इंद्रक की चारों दिशाओं में बीस, विदिशाओं में सोलह और दोनों के मिलाकर छत्तीस श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥142॥ इस प्रकार पाँचवीं पृथिवी में पाँच इंद्रक बिल मिलाकर समस्त इंद्रक और श्रेणिबद्ध बिलों को संख्या दो सौ पैंसठ है तथा दो लाख निन्यानवे हजार सात सौ पैंतीस प्रकीर्णक बिल हैं और सब मिलकर तीन लाख बिल हैं ॥143-144॥ छठवीं पृथिवी संबंधी प्रथम प्रस्तार के हिम नामक इंद्रक की चारों महादिशाओं में सोलह, विदिशाओं में बारह और दोनों के मिलाकर अट्ठाईस श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥145॥ दूसरे प्रस्तार के वर्दल नामक इंद्रक की चारों महादिशाओं में बारह, विदिशाओं में आठ और दोनों के मिलाकर बीस श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥146॥ और तीसरे प्रस्तार के लल्लक नामक इंद्रक की चारों महादिशाओं में आठ, विदिशाओं में चार और दोनों के मिलाकर बारह श्रेणिबद्ध बिल हैं ॥147॥ इस प्रकार छठवीं पृथिवी के तीन प्रस्तारों में तीन इंद्रकों की संख्या मिलाकर त्रैसठ इंद्रक और श्रेणिबद्ध बिल हैं तथा निन्यानवे हजार नौ सौ बत्तीस प्रकीर्णक बिल हैं और सब मिलकर पाँच कम एक लाख बिल हैं । ये सभी बिल प्राणियों के लिए दुःख सहन करने के योग्य हैं ॥ 148-149॥
सातवीं पृथिवी में एक ही प्रस्तार है और उसके बीच में अप्रतिष्ठान नामक इंद्रक है उसकी चारों दिशाओं में चार श्रेणिबद्ध बिल हैं । इसकी विदिशाओं में बिल नहीं हैं तथा प्रकीर्णक बिल भी इस पृथिवी में नहीं हैं । एक इंद्रक और चार श्रेणिबद्ध दोनों मिलकर पाँच बिल हैं ॥150॥
प्रथम पृथिवी के प्रथम प्रस्तार में जो सीमंतक नाम का इंद्रक बिल है उसकी पूर्वदिशा में कांक्ष, पश्चिम दिशा में महाकांक्ष, दक्षिणदिशा में पिपास और उत्तरदिशा में अतिपिपास नाम के चार प्रसिद्ध महानरक हैं । ये महानरक इंद्रक बिल के निकट में स्थित हैं तथा दुर्वर्ण नारकियों से व्याप्त हैं ॥151-152॥ दूसरी पृथिवी के प्रथम प्रस्तार में जो तरक नाम का इंद्रक बिल है उसकी पूर्वदिशा में अनिच्छ, पश्चिम दिशा में महानिच्छ, दक्षिणदिशा में विंध्य और उत्तरदिशा में महाविंध्य नाम के प्रसिद्ध महानरक स्थित हैं ॥153॥ तीसरी पृथिवी के प्रथम प्रस्तार में जो तप्त नाम का इंद्रक बिल है उसको पूर्वदिशा में दुःख, पश्चिम दिशा में महादुःख, दक्षिणदिशा में वेदना और पश्चिम दिशा में महावेदना नाम के चार प्रसिद्ध महानरक हैं ॥154꠰꠰ चौथी पृथिवी के प्रथम प्रस्तार में जो आर नाम का इंद्रक बिल है, उसकी पूर्वदिशा में निःसृष्ट, पश्चिम दिशा में अतिनिःसृष्ट, दक्षिणदिशा में निरोध और उत्तरदिशा में महानिरोध नाम के चार प्रसिद्ध महानरक हैं ॥155॥ पाँचवीं पृथिवी के प्रथम प्रस्तार में जो तम नाम का इंद्रक है उसकी पूर्व दिशा में निरुद्ध, पश्चिम दिशा में अतिनिरुद्ध, दक्षिण में विमर्दन और उत्तर में महाविमर्दन नाम के चार प्रसिद्ध महानरक स्थित हैं ॥156॥छठवीं पृथिवी के प्रथम प्रस्तार में जो हिम नाम का इंद्रक बिल है उसकी पूर्व दिशा में नील, पश्चिम दिशा में महानील, दक्षिण में पंक और उत्तर में महापंक नाम के चार प्रसिद्ध महानरक स्थित हैं ॥157꠰꠰ और सातवीं पृथिवी में जो अप्रतिष्ठान नाम का इंद्रक है उसकी पूर्व दिशा में काल, पश्चिम दिशा में महाकाल, दक्षिण दिशा में रौरव और उत्तर दिशा में महारौरव नाम के चार प्रसिद्ध महानरक हैं ॥158꠰꠰ इस प्रकार सातों पृथिवियों में तेरासी लाख, नब्बे हजार, तीन सौ सैंतालीस प्रकीर्णक, नौ हजार छह सौ श्रेणिबद्ध, उनचास इंद्रक और सब मिलाकर चौरासी लाख बिल हैं ॥ 159-160 ॥
प्रथम पृथिवी के तीस लाख बिलों में छह लाख बिल संख्यात योजन विस्तार वाले हैं और चौबीस लाख बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं ॥161॥ उसके नीचे दूसरी पृथिवी में पाँच लाख संख्यात योजन विस्तार वाले और बीस लाख असंख्यात योजन विस्तार वाले बिल हैं ॥ 162 ॥ तीसरी पृथिवी में तीन लाख संख्यात योजन विस्तार वाले और बारह लाख असंख्यात योजन विस्तार वाले बिल हैं ॥163॥ चौथी पृथिवी में दो लाख बिल संख्यात योजन विस्तार वाले हैं और आठ लाख असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं ॥164॥ पांचवीं पृथ्वी में साठ हजार बिल संख्यात योजन विस्तार वाले हैं और दो लाख चालीस हजार बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं ॥165॥ छठवीं पृथिवी में उन्नीस हजार नौ सौ निन्यानवे बिल संख्यात योजन विस्तार वाले हैं और उन्यासी हजार नौ सौ छियानवे बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं ॥166-167॥ सातवीं पृथिवी में एक अर्थात् बीच का इंद्रक बिल संख्यात योजन विस्तार वाला है और चारों दिशाओं के चार बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं ॥168॥ सातों पृथिवियों में जो इंद्रक बिल हैं वे सब संख्यात योजन विस्तार वाले हैं तथा श्रेणिबद्ध बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं और प्रकीर्णक बिलों में कितने ही संख्यात योजन विस्तार वाले तथा कितने ही असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं इस तरह उभय विस्तार वाले हैं ॥169-170॥
अब सातों पृथिवियों के उनचास इंद्रक बिलों का विस्तार कहते हैं-उनमें से प्रथम पृथिवी के सीमंतक इंद्रक का विस्तार पैंतालीस लाख योजन है ॥171॥ दूसरे नारक इंद्रक का विस्तार चवालीस लाख आठ हजार तीन सौ तैंतीस योजन तथा एक योजन के तीन भागों में से एक भाग प्रमाण है ॥172 ॥ तीसरे रौरव इंद्रक का विस्तार तैंतालीस लाख सोलह हजार छह सौ सड़सठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है ॥173॥ चौथे भ्रांत नामक इंद्रक का विस्तार सब ओर से बयालीस लाख पच्चीस हजार योजन है ॥174॥ पांचवें उद्भ्रांत नामक इंद्रक का विस्तार इकतालीस लाख तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में से एक भाग प्रमाण है ॥ 175 ॥ छठवें संभ्रांत नामक इंद्रक का विस्तार चालीस लाख इकतालीस हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है ॥ 176 ॥ सातवें असंभ्रांत इंद्रक का विस्तार सब ओर से उनतालीस लाख पचास हजार योजन है ।꠰177꠰꠰ आठवें विभ्रांत नामक इंद्रक का विस्तार अड़तीस लाख अठावन हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में से एक भाग प्रमाण है ॥178॥ नौवें त्रस्त नामक इंद्रक का विस्तार सैंतीस लाख छियासठ हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है ॥ 179 ॥ दसवें त्रसित नामक इंद्रक का विस्तार छत्तीस लाख पचहत्तर हजार योजन है ॥180꠰꠰ ग्यारहवें वक्रांत नामक इंद्रक का विस्तार पैंतीस लाख तेरासी हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में से एक भाग प्रमाण है ॥181॥ बारहवें अवक्रांत नामक इंद्रक का विस्तार सब ओर से चौंतीस लाख इकानवे हजार छह सौ छयासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में से दो भाग प्रमाण है ॥ 182 ॥ और तेरहवें विक्रांत नामक इंद्रक का विस्तार चौंतीस लाख योजन है ॥ 183 ॥
द्वितीय पृथिवी के पहले स्तरक नामक इंद्रक का विस्तार तैंतीस लाख आठ हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में से एक भाग प्रमाण है ॥184॥ दूसरे स्तनक नामक इंद्रक का विस्तार बत्तीस लाख सोलह हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग है ॥ 185 ॥ तीसरे मनक इंद्रक का विस्तार इकतीस लाख पच्चीस हजार योजन है ॥186॥ चौथे वनक इंद्रक का विस्तार तीस लाख तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ॥187॥ पांचवें घाट नामक इंद्रक का विस्तार उनतीस लाख इकतालीस हजार छः सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है ॥188꠰꠰ छठवें संघाट नामक इंद्रक का विस्तार अट्ठाईस लाख पचास हजार योजन है ॥189꠰꠰ सातवें जिह्व नामक इंद्रक का विस्तार सत्ताईस लाख अठावन हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ॥190॥ आठवें जिह्विक इंद्रक का विस्तार छब्बीस लाख छियासठ हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है ॥191॥ नौवें लोल इंद्रक का विस्तार पच्चीस लाख पचहत्तर हजार योजन है ॥192॥ दसवें लोलुप नामक इंद्रक का विस्तार चौबीस लाख तेरासी हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ॥193॥ और ग्यारहवें स्तनलोलुप इंद्रक का विस्तार तेईस लाख इकानवे हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है ॥194॥
तीसरी पृथिवी के पहले तप्त नामक इंद्रक का विस्तार तेईस लाख योजन है । दूसरे तपित इंद्रक का विस्तार बाईस लाख आठ हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ॥195॥ तीसरे तपन इंद्रक का विस्तार इक्कीस लाख सोलह हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है ॥196॥ चौथे तापन नामक इंद्रक का विस्तार मुनियों ने सब ओर बीस लाख पच्चीस हजार योजन कहा है ॥197॥ पांचवें निदाघ नामक इंद्रक का विस्तार उन्नीस लाख तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ॥198॥ छठवें प्रज्वलित इंद्रक का विस्तार अठारह लाख इकतालीस हजार छह सौ छियासठ योजन है ॥199॥ सातवें उज्ज्वलित इंद्रक का विस्तार तत्त्वदर्शी आचार्यों ने सत्रह लाख चालीस हजार योजन बतलाया है ॥200॥ आठवें संज्वलित इंद्रक का विस्तार सोलह लाख अठावन हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ॥201॥ और नौवें संप्रज्वलित इंद्रक का विस्तार पंद्रह लाख छियासठ हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ॥202॥
चौथी पृथिवी के आर नामक पहले इंद्रक का विस्तार सब ओर चौदह लाख पचहत्तर हजार योजन कहा है ॥203॥ दूसरे तार इंद्रक का विस्तार तेरह लाख तेरासी हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ॥204॥ तीसरे मार नामक इंद्रक का विस्तार बारह लाख इकानवे हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है ॥205। । चौथे वर्चस्क इंद्रक का विस्तार बारह लाख योजन है । पांचवें तनक इंद्रक का विस्तार ग्यारह लाख आठ हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ॥206॥ छठवें खड इंद्रक का विस्तार दस लाख सोलह हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग है ॥207॥ और सातवें खडखड नामक इंद्रक का विस्तार जानकर आचार्यों ने नौ लाख पच्चीस हजार योजन कहा है ॥208॥
पांचवीं पृथिवी के पहले तम नामक इंद्रक का विस्तार आठ लाख तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ॥209॥ दूसरे भ्रम इंद्रक का विस्तार सात लाख इकतालीस हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग है ॥210॥ तीसरे झष इंद्रक का विस्तार छह लाख पचास हजार योजन कहा गया है ॥211॥ चौथे अंध्र नामक इंद्रक का विस्तार पाँच लाख अठावन हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण वर्णित है ॥212॥ और पाँचवें तमिस्र नामक इंद्रक का विस्तार चार लाख छियासठ हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है ॥213॥
छठवीं पृथिवी के पहले हिम नामक इंद्रक का विस्तार निर्मल केवलज्ञान के धारी अरहंत भगवान् ने तीन लाख पचहत्तर हजार योजन बतलाया है ॥214॥ दूसरे वर्दल इंद्रक का विस्तार दो लाख तेरासी हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ॥215॥ और तीसरे लल्लक इंद्रक का विस्तार एक लाख इकानवे हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है ॥216॥
सातवीं पृथिवी में केवल अप्रतिष्ठान नाम का एक ही इंद्रक है तथा वस्तु के विस्तार को जानने वाले सर्वज्ञ देव ने उसका विस्तार एक लाख योजन बतलाया है ॥217॥
घर्मा नामक पहली पृथिवी के इंद्रक बिलों की मुटाई एक कोस, श्रेणिबद्ध बिलों की एक कोस तथा एक कोस के तीन भागों में एक भाग और प्रकीर्णक बिलों की दो कोस तथा एक कोस के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ॥ 218 ꠰। दूसरी वंशा पृथिवी के इंद्रक बिलों की मुटाई डेढ़ कोस, श्रेणिबद्धों की दो कोस और प्रकीर्णकों की साढ़े तीन कोस है ॥219॥ तीसरी मेघा पृथिवी के इंद्रकों की मुटाई दो कोस, श्रेणिबद्धों की दो कोस और एक कोस के तीन भागों में दो भाग, तथा प्रकीर्णकों की चार कोस और एक कोस के तीन भागों में दो भाग है ॥220॥ चौथी अंजना पृथिवी के इंद्रकों की मुटाई अढ़ाई कोस, श्रेणिबद्धों की तीन कोस और एक कोस के तीन भागों में एक भाग तथा प्रकीर्णकों की पांच कोस और एक कोस के छह भागों में पाँच भाग है ॥ 221 ॥ पाँचवीं अरिष्टा पृथिवी के इंद्रकों की मुटाई तीन कोस, श्रेणिबद्धों की चार और प्रकीर्णकों की सात कोस है ॥222॥ छठी मघवी पृथिवी के इंद्रकों की मुटाई साढ़े तीन कोस, श्रेणिबद्धों की चार कोस और एक कोस के तीन भागों में दो भाग तथा प्रकीर्णकों की आठ कोस और एक कोस के आठ भागों में छह भाग प्रमाण है ॥223 ॥ एवं माधवी नामक सातवीं पृथिवी के अप्रतिष्ठान इंद्रक की मुटाई चार कोस, श्रेणिबद्धों की पाँच कोस और एक कोस के तीन भागों में एक भाग है । सातवीं पृथिवी में प्रकीर्णक बिल नहीं है ॥ 224॥ अब बिलों का परस्पर अंतर कहते हैं-प्रथम पृथिवी के इंद्रक बिलों का अंतर बुद्धिमान् पुरुषों को चौंसठ सौ निन्यानवे योजन (छह हजार चार सौ निन्यानवे योजन) दो कोस और एक कोस के बारह भागों में से ग्यारह भाग जानना चाहिए ॥225-226॥ श्रेणिबद्ध बिलों का चौंसठ सो निन्यानवे योजन दो कोस और एक कोस के नौ भागों में पांच भाग है ॥227॥ तथा प्रकीर्णक बिलों का अंतर चौंसठ सौ निन्यानवे योजन दो कोस और एक कोस के छत्तीस भागों में सत्रह भाग प्रमाण है ॥228꠰꠰ द्वितीय पृथिवी के इंद्रक बिलों का अंतर बहुश्रुत विद्वानों ने दो हजार नौ सौ निन्यानवे योजन और चार हजार सात सौ धनुष कहा है ॥229-230॥ श्रेणिबद्ध बिलों का अंतर दो हजार नौ सौ निन्यानवे योजन और तीन हजार छह सौ धनुष है ॥231॥ एवं प्रकीर्णक बिलों का भी पारस्परिक अंतर उतना ही अर्थात दो हजार नौ सौ निन्यानवे योजन और तीन सौ धनुष है ॥232॥ तीसरी पृथिवी में इंद्रक बिलों का विस्तार बत्तीस सौ योजन और पैंतीस सौ धनुष प्रमाण है ॥233॥ श्रेणीगत बिलों का अंतर विद्वानों ने बत्तीस सौ योजन और दो हजार धनुष बतलाया है ॥234॥ तथा प्रकीर्णकों का अंतर बत्तीस सौ अड़तालीस योजन और पचपन सौ धनुष कहा है ॥ 235 ॥ चौथी पृथिवी में इंद्रक बिलों का विस्तार छत्तीस सौ पैंसठ योजन और पचहत्तर सौ धनुष प्रमाण है ॥ 236 ॥ श्रेणिबद्ध बिलों का अंतर छत्तीस सौ पैंसठ योजन, पचहत्तर सौ धनुष और एक धनुष के नौ भागों में से पांच भाग प्रमाण है ॥237॥ तथा प्रकीर्णक बिलों का विस्तार छत्तीस सौ चौंसठ योजन, सतहत्तर सौ बाईस धनुष और एक धनुष के नौ भागों में दो भाग प्रमाण है ॥238-239॥ पाँचवीं पृथिवी के इंद्रक बिलों का अंतर भेद तथा अंतरों का विस्तार जानने वाले आचार्यों ने चार हजार चार सौ निन्यानवे योजन और पांच सौ धनुष बतलाया है ॥ 240-241 ॥ श्रेणिबद्ध बिलों का अंतर चार हजार चार सौ अठानवें योजन और छह हजार धनुष है । 242 ॥ तथा प्रकीर्णक बिलों का अंतर चार हजार चार सौ सत्तानवे योजन और छह हजार पाँच सौ धनुष है ॥243॥ छठी पृथिवी के इंद्रक बिलों का अंतर छह हजार नौ सो अठानवें योजन और पचपन सौ धनुष प्रमाण है ॥ 244 ॥ अंणिबद्ध बिलों का अंतर छह हजार नौ सौ अठानवें योजन और दो हजार धनुष है ॥245॥ तथा प्रकीर्णक बिलों का अंतर छह हजार नौ सौ छियानवे योजन और सात हजार पाँच सौ धनुष है ॥246꠰꠰ सातवीं पृथिवी में इंद्रक बिल का अंतर ऊपर-नीचे तीन हजार नौ सौ निन्यानवे योजन और एक गव्यूति अर्थात् दो कोस प्रमाण है ॥247꠰꠰ तथा इसी सातवीं पृथिवी में श्रेणिबद्ध बिलों का अंतर तीन हजार नौ सौ निन्यानवे योजन और एक कोस के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ऐसा निश्चय है ॥248॥
अब सातों पृथिवियों में जघन्य तथा उत्कृष्ट आयु का वर्णन करते हैं― पहली पृथिवी के प्रथम सीमंतक नामक प्रस्तार में नारकियों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट नब्बे हजार वर्ष की कही गयी है ॥249 ॥ दूसरे नारक नामक इंद्रक में कुछ अधिक नब्बे हजार वर्ष की जघन्य स्थिति और नब्बे लाख वर्ष को उत्कृष्ट स्थिति है ॥250॥ रौरव नामक तीसरे प्रस्तार में एक समय अधिक नब्बे लाख की जघन्य स्थिति और असंख्यात करोड़ वर्ष को उत्कृष्ट स्थिति है ॥ 251॥ भ्रांत नामक चौथे प्रस्तार में एक समय अधिक असंख्यात करोड़ वर्ष की जघन्य स्थिति और सागर के दसवें भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ॥252॥ उद्भ्रांत नामक पांचवें प्रस्तार में एक समय अधिक सागर का दसवाँ भाग जघन्य स्थिति है और एक सागर के दस भागों में दो भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति तत्त्वज्ञ पुरुषों ने मानी है ॥ 253 ॥ संभ्रांत नामक छठे प्रस्तार में एक सागर के दस भागों में दो भाग तथा एक समय जघन्य स्थिति है और उत्कृष्ट स्थिति सागर के दस भागों में तीन भाग प्रमाण है । असंभ्रांत नामक सातवें प्रस्तार में जघन्य स्थिति सागर के दस भागों में समयाधिक तीन भाग है और उत्कृष्ट स्थिति सागर के दस भागों में चार भाग प्रमाण है ॥254॥ विभ्रांत नामक आठवें प्रस्तार में जघन्य स्थिति एक समय अधिक सागर के दस भागों में चार भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति सागर के दस भागों में पांच भाग प्रमाण है । त्रस्त नामक नौवें प्रस्तार में एक समय अधिक सागर के दस भागों में पांच भाग प्रमाण जघन्य स्थिति है और सागर के दस भागों में छह भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ॥ 255 ॥ त्रसित नामक दसवें प्रस्तार में जघन्य स्थिति एक समय अधिक सागर के दस भागों में छह भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति सागर के दस भागों में सात भाग प्रमाण है । वक्रांत नामक ग्यारहवें प्रस्तार में जघन्य स्थिति एक समय अधिक सागर के दस भागों में सात भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति सागर के दस भागों में आठ भाग प्रमाण है ॥256॥ अवक्रांत नामक बारहवें प्रस्तार में एक समय अधिक सागर के दस भागों में आठ भाग प्रमाण जघन्य स्थिति है और एक सागर के दस भागों में नौ भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति विद्वानों ने कही है । विक्रांत नामक तेरहवें प्रस्तार में जघन्य स्थिति एक सागर के दस भागों में समयाधिक नौ भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति सागर के दस भागों में दसोंदसों भाग अर्थात् एक सागर प्रमाण है । इस प्रकार घर्मा नामक पहली पृथिवी के तेरह प्रस्तारों में जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थिति का कथन किया । अब दूसरी पृथिवी के ग्यारह प्रस्तारों में स्थिति का वर्णन करते हैं ॥257-258॥
दूसरी पृथिवी के स्तरक नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों की जघन्य आयु एक समय अधिक एक सागर और उत्कृष्ट स्थिति एक सागर तथा एक सागर के ग्यारह अंशों में दो अंश प्रमाण है ॥ 259॥ स्तनक नामक दूसरे प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है तथा एक सागर पूर्ण और एक सागर के ग्यारह भागों में चार भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ॥260॥ मनक नामक तीसरे प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है और एक सागर पूर्ण तथा एक सागर के ग्यारह भागों में छह भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ॥ 261 ॥ वनक नामक चौथे प्रस्तार में विद्वानों ने यही जघन्य स्थिति तथा एक सागर पूर्ण और एक सागर के ग्यारह भागों में आठ भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही है ॥262॥ विघाट नामक पांचवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति तथा एक सागर पूर्ण और एक सागर के ग्यारह भागों में दस भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति विज्ञ पुरुषों ने प्रकट की है― बतलायी है ꠰꠰263॥ संघाट नामक छठे इंद्रक अथवा प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है और दो सागर पूर्ण तथा एक सागर के ग्यारह भागों में एक भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ॥264꠰꠰ जिह्व नामक सातवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है और दो सागर पूर्ण तथा एक सागर के ग्यारह भागों में तीन भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ॥ 265 ॥ जिह्विक नामक आठवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है और दो सागर पूर्ण तथा एक सागर के ग्यारह भागों में पाँच भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ॥266॥ लोल नामक नौवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति तथा दो सागर पूर्ण और एक सागर के ग्यारह भागों में सात भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति जानना चाहिए ॥267॥ लोलुप नामक दसवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति और दो सागर पूर्ण तथा एक सागर के ग्यारह भागों में नौ भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ॥ 268꠰꠰ एवं स्तनलोलुप नामक ग्यारहवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति और तीन सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है । इस तरह वंशा नामक दूसरी पृथिवी में सामान्य रूप से तीन सागर प्रमाण स्थिति प्रसिद्ध है ॥269 ॥
तीसरी पृथिवी के तप्त नामक प्रथम इंद्रक में तीन सागर जघन्य और तीन सागर पूर्ण तथा एक सागर के नौ भागों में चार भाग प्रमाण जघन्य स्थिति है ॥270॥ तपित नामक दूसरे इंद्रक में यही जघन्य तथा तीन सागर पूर्ण और एक सागर के नौ भागों में आठ भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति वर्णन करने योग्य है ॥271॥ तपन नामक तीसरे इंद्रक में यही जघन्य और चार सागर पूर्ण तथा एक सागर के नौ भागों में तीन भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है ॥ 272 ॥ तापन नामक चौथे इंद्रक में यही जघन्य स्थिति और चार सागर पूर्ण तथा एक सागर के नौ भागों में सात भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गयी है ॥273॥ निदाघ नामक पांचवें इंद्रक में यही जघन्य और पांच सागर पूर्ण तथा एक सागर के नौ भागों में दो भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति वर्णन की गयी है ॥274॥ प्रज्वलित नामक छठे इंद्रक में यही जघन्य स्थिति तथा पांच सागर पूर्ण और एक सागर के नौ भागों में छह भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ॥275॥ प्रज्वलित इंद्रक को जो उत्कृष्ट स्थिति है वही उज्ज्वलित नामक सातवें इंद्रक की जघन्य स्थिति है तथा छह सागर पूर्ण और एक सागर के नौ भागों में एक भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ॥276꠰꠰ उज्ज्वलित इंद्रक में जो उत्कृष्ट स्थिति है वही संज्वलित नामक आठवें इंद्रक की जघन्य स्थिति है तथा छह सागर पूर्ण और एक सागर के नौ भागों में पाँच भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ॥277॥ संप्रज्वलित नामक नौवें इंद्रक में यही जघन्य स्थिति और सात सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है । इस तरह तीसरे नरक में सामान्य रूप से सात सागर की स्थिति प्रसिद्ध है ॥278꠰꠰
ऊपर संप्रज्वलित नामक इंद्रक में जो सात सागर की उत्कृष्ट स्थिति बतलायी है वह चौथी पृथिवी के आर नामक प्रथम इंद्रक में जघन्य स्थिति कही गयी है तथा सात सागर पूर्ण और एक सागर के सात भागों में से तीन भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गयी है ॥ 279 ॥ और इंद्रक में जो उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है वही तार नामक दूसरे इंद्रक में जघन्य स्थिति बतलायी गयी है, तथा सात सागर पूर्ण और एक सागर के सात भागों में से छह भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है ॥280꠰꠰ तार इंद्रक में जो उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है वही मार नामक तीसरे इंद्रक में जघन्य स्थिति बतलायी गयी है और आठ सागर पूर्ण तथा एक सागर के सात भागों में दो भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है ॥281॥ मार इंद्रक में जो उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है वही वर्चस्क नामक चौथे इंद्रक में जघन्य स्थिति बतलायी गयी है और आठ सागर पूर्ण तथा एक सागर के सात भागों में पाँच भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है ॥282॥ वर्चस्क इंद्रक में जो उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है वही तमक नामक पांचवें इंद्रक में जघन्य स्थिति बतलायी गयी है और नौ सागर पूर्ण तथा एक सागर के सात भागों में एक भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है ॥283॥ तमक इंद्रक में जो उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है वही षड नामक छठे इंद्र की जघन्य स्थिति बतलायी गयी है और नौ सागर पूर्ण तथा एक सागर के सात भागों में चार भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति प्रदर्शित की गयी है ॥284꠰꠰ षड इंद्रक में जो उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है वही षडषड नामक सातवें इंद्रक में जघन्य स्थिति बतलायी गयी है और दस सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है । इस प्रकार चौथी पृथिवी में सामान्य रूप से दस सागर स्थिति प्रसिद्ध है ॥ 285 ॥
ऊपर जो स्थिति कही गयी है वही पांचवीं पृथिवी के तम नामक प्रथम इंद्रक में जघन्य स्थिति बतलायी गयी है और ग्यारह सागर पूर्ण तथा एक सागर के पाँच भागों में दो भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है ॥286॥ भ्रम नामक दूसरे इंद्रक में यही जघन्य स्थिति कही गयी है और बारह सागर पूर्ण तथा एक सागर के पाँच भागों में चार भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गयी है ॥287॥झष नामक तीसरे इंद्रक में यही जघन्य स्थिति कही गयी है और चौदह सागर पूर्ण तथा एक सागर के पाँच भागों में एक भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गयी है ॥288꠰꠰ अंध्र नामक चौथे इंद्रक में सत्यवादी जिनेंद्र भगवान् ने यही जघन्य स्थिति कही है और पंद्रह सागर पूर्ण तथा एक सागर के पाँच भागों में तीन भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी है ॥289॥ तमिस्र नामक पाँचवें इंद्रक में यही जघन्य स्थिति मानी जाती है और सत्रह सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी जाती है । इस प्रकार पाँचवीं पृथिवी में सामान्यरूप से सत्रह सागर की आयु प्रसिद्ध है ॥290॥
छठी पृथिवी के हिम नामक प्रथम इंद्रक में सत्रह सागर प्रमाण जघन्य स्थिति कही गयी है और अठारह सागर पूर्ण तथा एक सागर के तीन भागों में दो भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गयी है ॥291॥ वर्दल नामक दूसरे इंद्रक बिल में यही जघन्य स्थिति कही गयी है और बीस सागर पूर्ण तथा एक सागर के तीन भागों में एक भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गयी है ॥292॥ मुनियों में श्रेष्ठ गणधरादि देवों ने लल्लक नामक तीसरे इंद्रक में यही जघन्य स्थिति कही है तथा बाईस सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी है । इस प्रकार छठी पृथिवी में सामान्यरूप से बाईस सागर प्रमाण आयु कही गयी है ॥293॥
सातवीं पृथिवी में केवल एक अप्रतिष्ठान नाम का इंद्रक है सो उसमें यही जघन्य स्थिति बतलायी गयी है और जो उत्कृष्ट स्थिति है वह तैंतीस सागर प्रमाण है । इस प्रकार सातवीं पृथिवी में सामान्यरूप से तैंतीस सागर प्रमाण आयु प्रसिद्ध है ॥ 294 ॥
अब नारकियों के शरीर को ऊंचाई का वर्णन किया जाता है―
पहली पृथिवी के सीमंतक नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई तीन हाथ है । तरक नामक दूसरे प्रस्तार में एक धनुष एक हाथ तथा साढ़े आठ अंगुल है ॥ 295 ॥ रोरुक नामक तीसरे प्रस्तार में एक धनुष तीन हाथ तथा सत्रह अंगुल है ॥ 296 ॥
भ्रांत नामक चौथे प्रस्तार में दो धनुष दो हाथ और डेढ़ अंगुल है । उद्भ्रांत नामक पांचवें प्रस्तार में तीन धनुष और दस अंगुल है ॥ 297꠰꠰ संभ्रांत नामक छठवें प्रस्तार में तीन धनुष दो हाथ और साढ़े अठारह अंगुल है ॥298॥ असंभ्रांत नामक सातवें प्रस्तार में विशद ज्ञान के धारी आचार्यों ने नारकियों के शरीर की ऊँचाई चार धनुष, एक हाथ और तीन अंगुल बतलायी है ॥ 299॥ भ्रांति रहित आचार्यों ने विभ्रांत नामक आठवें प्रस्तार में नारकियों के शरीर का उत्सेध चार धनुष तीन हाथ और साढ़े ग्यारह अंगुल प्रमाण कहा है ॥300॥ त्रस्त नामक नौवें प्रस्तार में पांच धनुष एक हाथ और बीस अंगुल ऊंचाई कही गयी है ॥ 301॥ जहाँ प्राणी भयभीत हो रहे हैं ऐसे त्रसित नामक दसवें प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई चतुर आचार्यों ने छह धनुष और साढ़े चार अंगुल प्रमाण बतलायी है ॥302॥ वक्रांत नामक ग्यारहवें प्रस्तार में श्रेष्ठ वक्ताओं ने नारकियों का शरीर छ: धनुष दो हाथ और तेरह अंगुल प्रमाण कहा है ॥ 303 ॥ अवक्रांत नामक बारहवें प्रस्तार में विद्वान् आचार्यों ने नारकियों की ऊंचाई सात धनुष और साढ़े इक्कीस अंगुल कही है ॥304꠰꠰ और विक्रांत नामक तेरहवें प्रस्तार में सात धनुष तीन हाथ तथा छः अंगुल प्रमाण ऊँचाई है । इस प्रकार बुद्धिमान् आचार्यों ने प्रथम पृथिवी में ऊँचाई का वर्णन किया है ॥305॥
दूसरी पृथिवी के स्तरक नामक पहले प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई आठ धनुष, दो हाथ, दो अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में दो भाग प्रमाण मानी जाती है ॥306॥ स्तनक नामक दूसरे प्रस्तार में नारकियों का उत्सेध नौ धनुष बाईस अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में चार भाग प्रमाण कहा गया है ॥307॥ मनक नामक तीसरे प्रस्तार में नौ धनुष तीन हाथ अठारह अंगुल तथा एक अंगुल के ग्यारह भागों में छह भाग प्रमाण ऊँचाई बतलायी है ॥ 308 ॥ वनक नामक चौथे प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई दस धनुष दो हाथ चौदह अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में आठ भाग मानी जाती है ॥309꠰꠰ घाट नामक पांचवें प्रस्तार में ग्यारह धनुष, एक हाथ, दस अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में दस भाग शरीर की ऊँचाई कही गयी है ॥310॥ संघाट नामक छठवें प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई बारह धनुष सात अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में एक भाग प्रमाण कही गयी है ॥311॥
जिह्वा नामक सातवें प्रस्तार में बारह धनुष, तीन हाथ, तीन अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में तीन भाग प्रमाण ऊंचाई है ॥312॥ जिह्वक नामक आठवें प्रस्तार में तेरह धनुष, एक हाथ, तेईस अंगुल और एक अंगुल के पांच भागों में एक भाग प्रमाण ऊंचाई इष्ट है ॥313॥ लोल नामक नौवें प्रस्तार में चौदह धनुष, उन्नीस अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में सात भाग प्रमाण ऊँचाई है ॥314॥ लोलुप नामक दसवें प्रस्तार में चौदह धनुष तीन हाथ पंद्रह अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में नो भाग प्रमाण ऊंचाई है ॥ 315॥ और स्तनलोलुप नामक ग्यारहवें प्रस्तार में पंद्रह धनुष, दो हाथ और बारह अंगुल ऊंचाई इष्ट है । इस प्रकार दूसरी पृथिवी में नारकियों के शरीर की ऊंचाई का वर्णन किया ॥316॥
तीसरी पृथिवी के तप्त नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई सत्रह धनुष, एक हाथ, दस अंगुल और एक अंगुल के तीन भागों में दो भाग प्रमाण कही गयी है ॥317॥ स्पष्ट ज्ञान रूपी इष्ट दृष्टि को धारण करने वाले तपित नामक दूसरे प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई उन्नीस धनुष नौ अंगुल और एक अंगुल के तीन भागों में एक भाग प्रमाण बतलायी है ॥318॥ शिष्ट जनों ने तपन नामक तीसरे प्रस्तार में नारकियों के शरीर का उत्सेध बीस धनुष तीन हाथ और आठ अंगुल प्रमाण बतलाया है ॥ 319 ॥ तापन नामक चौथे प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊंचाई बाईस धनुष दो हाथ छ: अंगुल और एक अंगुल के तीन भागों में दो भाग प्रमाण कही गयी है ॥ 320॥ निदाघ नामक पांचवें प्रस्तार में चौबीस धनुष, एक हाथ, पांच अंगुल और एक अंगुल के तीन भागों में एक भाग प्रमाण ऊँचाई विद्वानों ने बतलायी है ॥321 ॥ जिनकी आत्मा ज्ञान के द्वारा देदीप्यमान है ऐसे आचार्यों ने प्प्रज्वलित नामक छठवें प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई छब्बीस धनुष और चार अंगुल प्रमाण बतलायी है ॥ 322 ॥ आगमज्ञान से सुशोभित विद्वज्जनों ने उज्ज्वलित नामक सातवें प्रस्तार में नारकियों का शरीर सत्ताईस धनुष, तीन हाथ, दो अंगुल और एक अंगुल के तीन भागों में दो भाग प्रमाण ऊँचा कहा है ॥323॥ विद्वानों को संज्वलित नामक आठवें प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई उंतीस धनुष, दो हाथ एक अंगुल के तीन भागों में एक भाग प्रमाण जानना चाहिए ॥324॥ और संप्रज्वलित नामक नौवें प्रस्तार में ऊँचाई का प्रमाण इकतीस धनुष तथा एक हाथ प्रमाण कहा जाता है । इस प्रकार तीसरी पृथिवी में नारकियों की ऊँचाई का वर्णन किया ॥325॥
चौथी पृथिवी के आर नामक प्रथम प्रस्तार में पैंतीस धनुष, दो हाथ, बीस अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में चार भाग प्रमाण ऊंचाई कही गयी है ॥ 326 ॥ तार नामक दूसरे प्रस्तार में चालीस धनुष, सत्रह अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में एक भाग प्रमाण नारकियों की ऊँचाई है ॥327॥ मार नामक तीसरे प्रस्तार में चवालीस धनुष, दो हाथ, तेरह अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में पाँच भाग प्रमाण ऊंचाई मानी गयी है ॥ 328॥ वर्चस्क नामक चौथे प्रस्तार में विद्वानों ने शरीर की ऊंचाई उनचास धनुष, दस अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में दो भाग प्रमाण बतलायी है ॥329॥ तमक नामक पाँचवें प्रस्तार में त्रेपन धनुष, दो हाथ, छ: अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में छः भाग प्रमाण ऊंचाई कही गयी है ॥330॥ षड नामक छठवें प्रस्तार में अठावन धनुष, तीन अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में तीन प्रमाण ऊंचाई प्रकट की गयी है॥331 ॥ और षडषड नामक सातवें प्रस्तार में बासठ धनुष, दो हाथ ऊंचाई प्रसिद्ध है । इस प्रकार चौथी पृथिवी में विद्यमान नारकियों की ऊँचाई का वर्णन किया है ॥332॥
पांचवीं पृथिवी के तम नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई पचहत्तर धनुष बतलायी है । भ्रम नामक दूसरे प्रस्तार में सत्तासी धनुष और दो हाथ है ॥333॥ झष नामक तीसरे प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई सौ धनुष कही गयी है । अंध नामक चौथे प्रस्तार में एक सौ बारह धनुष तथा दो हाथ है ॥334॥ और तमिस्र नामक पांचवें प्रस्तार में एक सौ पच्चीस धनुष है । इस प्रकार पांचवीं पृथिवी में विद्वानों ने ऊंचाई का वर्णन किया है ॥ 335 ॥
छठवीं पृथिवी के हिम नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊँचाई एक सौ छियासठ धनुष, दो हाथ तथा सोलह अंगुल बतलायी है ॥336॥ वर्दल नामक दूसरे प्रस्तार में शास्त्ररूपी नेत्रों के धारक विद्वानों ने नारकियों की ऊँचाई दो सौ आठ धनुष, एक हाथ और छ: अंगुल प्रमाण देखी है ॥337॥ और लल्लक नामक तीसरे प्रस्तार में नारकियों की ऊँचाई दो सौ पचास धनुष बतलायी है । इस प्रकार कृतकृत्य सर्वज्ञदेव ने छठवीं पृथिवी में ऊंचाई का वर्णन किया ॥ 338 ꠰꠰ सातवीं पृथिवी में एक ही अप्रतिष्ठान नाम का प्रस्तार है तो उसमें संदेहरहित ज्ञान के धारक आचार्यों ने नारकियों की ऊंचाई पाँच सौ धनुष प्रमाण निश्चित की है ॥339॥
प्रथम पृथिवी को आदि लेकर उन सातों पृथिवियों में यथाक्रम से अवधिज्ञान का विषय इस प्रकार जानना चाहिए ॥340॥ पहली पृथिवी में अवधिज्ञान का विषय एक योजन अर्थात् चार कोस, दूसरी में साढ़े तीन कोस, तीसरी में तीन कोस, चौथी में अढ़ाई कोस, पांचवीं में दो कोस, छठवीं में डेढ़ कोस और सातवीं में एक कोस प्रमाण है ॥341 ॥ प्रथम पृथिवी संबंधी पहले पटल की मिट्टी की दुर्गंध आध कोस तक जाती है और उसके नीचे प्रत्येक पटल के प्रति आधा-आधा कोस अधिक बढ़ती जाती है ॥ 342 ॥ पहली और दूसरी पृथिवी में रहने वाले नारकी कापोत लेश्या से युक्त हैं । तीसरी पृथिवी के ऊर्ध्व भाग में रहने वाले कापोत लेश्या से और अधोभाग में रहने वाले नील लेश्या से सहित हैं ॥ 343 ॥ चौथी पृथिवी के ऊपर-नीचे दोनों स्थानों पर तथा पांचवीं पृथिवी के ऊपरी भाग में नील लेश्या से युक्त हैं और अधोभाग में कृष्ण लेश्या से सहित हैं ॥344॥ छठवीं पृथिवी के ऊर्ध्वभाग में कृष्ण लेश्या से, अधोभाग में परमकृष्ण लेश्या से और सातवीं पृथिवी के ऊपर-नीचे दोनों ही जगह रहने वाले परमकृष्ण लेश्या से संक्लिष्ट हैं अर्थात् संक्लेश को प्राप्त होते रहते हैं ॥345॥ प्रारंभ की चार भूमियों में रहने वाले नारकी उष्ण स्पर्श से, पांचवीं भूमि में रहने वाले उष्ण और शीत दोनों स्पर्शों से तथा अंत की दो भूमियों में रहने वाले केवल शीत स्पर्श से ही पीड़ित रहते हैं ॥ 346 ॥ प्रारंभ की तीन पृथिवियों में नारकियों के उत्पत्ति-स्थान कुछ तो ऊँट के आकार हैं, कुछ कुंभी (घड़िया), कुछ कुस्थली, मुद्गर, मृदंग और नाडी के आकार हैं ॥347॥ चौथी और पांचवीं पृथिवी में नारकियों के जन्मस्थान अनेक तो गौ के आकार हैं, अनेक हाथी, घोड़े आदि जंतुओं तथा धोंकनी, नाव और कमलपुट के समान हैं ॥348 ॥ अंतिम दो भूमियों में कितने ही खेत के समान, कितने ही झालर और कटोरों के समान, और कितने ही मयूरों के आकार वाले हैं ॥ 349॥ वे जन्मस्थान एक कोस, दो कोस, तीन कोस और एक योजन विस्तार से सहित हैं । उनमें जो उत्कृष्ट स्थान हैं वे सौ योजन तक चौड़े कहे गये हैं ॥ 350 ॥ उन समस्त उत्पत्ति स्थानों की ऊंचाई अपने विस्तार से पंचगुनी है ऐसा वस्तु स्वरूप को जानने वाले आचार्य जानते हैं ॥351॥ समस्त इंद्रक विल तीन द्वारों से युक्त तथा तीन कोणों वाले हैं । इनके सिवाय जो श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक निगोद हैं उनमें कितने ही दो द्वार वाले दुकोने, कितने ही तीन द्वार वाले तिकोने, कितने ही पांच द्वार वाले पंचकोने और कितने ही सात द्वार वाले सतकोने हैं ॥352॥ इनमें संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का अपना जघन्य अंतर छः कोस और उत्कृष्ट अंतर बारह कोस है ॥353 ॥ एवं असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का उत्कृष्ट अंतर असंख्यात योजन तथा जघन्य अंतर सात हजार योजन है ॥354॥
धर्मा नामक पहली पृथिवी के उत्पत्ति-स्थानों में उत्पन्न होने वाले नारकी जीव जन्मकाल में जब नीचे गिरते हैं तब सात योजन सवा तीन कोस ऊपर आकाश में उछलकर पुनः नीचे गिरते हैं ॥355 ॥ दूसरी वंशा पृथिवी के निगोदों में जन्म लेने वाले नारकी पंद्रह योजन अढ़ाई कोस आकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं ॥356॥ तीसरी मेघा पृथिवी में जन्म लेने वाले जीव इकतीस योजन एक कोस आकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं ॥357 ॥ चौथी अंजना पृथिवी के निगोदों में जन्म लेने वाले जीव बासठ योजन दो कोस उछलकर नीचे गिरते हैं और तीव्र दुःख से दुःखी होते हैं ॥358꠰꠰ पांचवीं पृथिवी के निगोदों में जन्म लेने वाले नारकी अत्यंत दुःखी हो एक सौ पच्चीस योजन आकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं ॥359 ॥ छठवीं पृथिवी में स्थित निगोदों में जन्म लेने वाले जीव दो सौ योजन आकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं ॥360॥ और सप्तमी पृथिवी में स्थित निगोदों में उत्पन्न हुए जीव पांच सौ धनुष ऊँचे उछलकर पृथिवी तल पर नीचे गिरते हैं ॥361॥ तीसरी पृथिवी तक असुरकुमार देव नारकियों को परस्पर लड़ाते हैं । इसके सिवाय वे, नारकी पुराने वैर भाव को जानकर स्वयं भी लड़ते रहते हैं ॥362 ॥ विक्रिया शक्ति के द्वारा अपने शरीर से ही उत्पन्न होने वाले भाले, करोंत तथा शूल आदि नाना शस्त्रों से उन नारकियों के खंड-खंड कर दिये जाते हैं और परस्पर एक दूसरे को पीड़ा पहुँचाते हैं ॥363॥ खंड-खंड होनेपर भी पारे के समान उनके शरीर के टुकड़ों का पुनः समूह बन जाता है और जब तक उनकी आयु की स्थिति रहती है तब तक उनका मरण नहीं होता ॥364॥ ये नारकी पूर्व कृत पाप कर्म के उदय से निरंतर एक दूसरे के द्वारा दिये हुए शारीरिक एवं मानसिक दुःख को सहते रहते हैं ॥365 ॥ वे खारा, गरम तथा अत्यंत तीक्ष्ण वैतरणी नदी का जल पीते हैं और दुर्गंधि युक्त मिट्टी का आहार करते हैं इसलिए निरंतर असह्य दुःख भोगते रहते हैं ॥366 ॥ रातदिन नरक में पचने वाले नारकियों को निमेष मात्र भी कभी सुख नहीं होता ॥367 । उन नारकियों के निरंतर अत्यंत अशुभ परिणाम रहते हैं तथा नपुंसक लिंग और हुंडक संस्थान होता है ॥368॥ जो आगामी काल में तीर्थकर होने वाले हैं तथा जिनके पापकर्मों का उपशम हो चुका है, देव लोग भक्तिवश छः माह पहले से उनके उपसर्ग दूर कर देते हैं ॥369 ॥ अंतर के जानने वाले आचार्यों ने प्रथम पृथिवी में नारकियों को उत्पत्ति का अंतर अड़तालीस घड़ी बतलाया है ॥370॥ और नीचे की छह भूमियों में क्रम से एक सप्ताह, एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास और छह मास का विरह-अंतरकाल कहा है ॥371 ॥ जो तीव्र मिथ्यात्व से युक्त हैं तथा बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह के धारक हैं ऐसे तिर्यंच और मनुष्य उन पृथिवियों को प्राप्त होते हैं अर्थात् उनमें उत्पन्न होते हैं ॥ 372॥ असंज्ञी पंचेंद्रिय पहली पृथिवी तक जाते हैं, सरकने वाले दूसरी पृथिवी तक, पक्षी तीसरी तक, सर्प चौथी तक, सिंह पाँचवीं तक, स्त्रियां छठवीं तक और तीव्र पाप करने वाले मत्स्य तथा मनुष्य सातवीं पृथिवी तक जाते हैं ॥373-374 ॥ सातवीं पृथिवी से निकला हुआ जीव यदि पुनः अव्यवहित रूप से सातवीं में जावे तो एक बार, छठवीं से निकला हुआ छठवीं में दो बार, पांचवीं से निकला हुआ पांचवीं में तीन बार, चौथी से निकला हुआ चौथी में चार बार, तीसरी से निकला हुआ तीसरी में पांच बार, दूसरी से निकला हुआ दूसरी में छ: बार और पहली से निकला हुआ पहली में सात बार तक उत्पन्न हो सकता है ॥ 375-377 ॥ सातवीं पृथिवी से निकला हुआ प्राणी नियम से संज्ञी तिर्यंच होता है तथा संख्यात वर्ष की आयु का धारक हो फिर से नरक जाता है ॥378॥ छठवीं पृथिवी से निकला हुआ जीव संयम को प्राप्त नहीं होता और पांचवीं पृथिवी से निकला जीव तो संयम को प्राप्त हो सकता है पर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता ॥379 ॥ चौथी पृथिवी से निकला हुआ मोक्ष प्राप्त कर सकता है परंतु निश्चय से तीर्थंकर नहीं हो सकता ॥380॥ तीसरी, दूसरी और पहली पृथिवी से निकला हुआ जीव सम्यग्दर्शन की शुद्धता से तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकता है ॥ 381॥ नरकों से निकले हुए जीव बलभद्र, नारायण और चक्रवर्ती पद छोड़कर ही मनुष्य पर्याय प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् मनुष्य तो होते हैं पर बलभद्र नारायण और चक्रवर्ती नहीं हो सकते ॥382 ॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस प्रकार मैंने संक्षेप से तेरे लिए अधोलोक के विभाग का वर्णन किया । अब तू तिर्यग्लोक― मध्यम लोक के विभाग का वर्णन सुन ॥383॥
बुद्धिमान् मनुष्य सब समय, सर्वत्र व्याप्त रहने वाले, जिनेंद्र भगवान् के वचनरूपी उत्तम दीपकों की सामर्थ्य से सूर्य और चंद्रमा के अगोचर अधोलोक के अंधकार को नष्ट कर वस्तु के यथार्थस्वरूप को देखते हुए प्रभुत्व को प्राप्त होते हैं इसमें क्या आश्चर्य है ? क्योंकि तीन लोक में जिनेंद्ररूपी सूर्य के द्वारा प्रकाश के उत्पन्न होने पर अंधकार का सद्भाव कहाँ रह सकता है ? ॥384 ॥
इस प्रकार जिसमें अरिष्टनेमि के पुराण का संग्रह किया गया है ऐसे जिनसेनाचार्य प्रणीत हरिवंशपुराण में अधोलोक का वर्णन करने वाला चौथा सर्ग समाप्त हुआ ॥4॥