मोहनीय सामान्य निर्देश: Difference between revisions
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स. सि./८/४/३८०/५ <span class="SanskritText">मोहयति मोह्यतेऽनेति वा मोहनीयम्।</span> = <span class="HindiText">जो मोहित करता है या जिसके द्वारा मोहा जाता है वह मोहनीय कर्म है। (रा. वा./८/४/२/५६८/१), (ध. ६/१, ९-१, ८/११/५, ७), (ध. १३/५, ५, १९/२०८/१०), (गो. क./जी. प्र./२०/ १३/१५) । </span><br /> | स. सि./८/४/३८०/५ <span class="SanskritText">मोहयति मोह्यतेऽनेति वा मोहनीयम्।</span> = <span class="HindiText">जो मोहित करता है या जिसके द्वारा मोहा जाता है वह मोहनीय कर्म है। (रा. वा./८/४/२/५६८/१), (ध. ६/१, ९-१, ८/११/५, ७), (ध. १३/५, ५, १९/२०८/१०), (गो. क./जी. प्र./२०/ १३/१५) । </span><br /> | ||
द्र. सं./टी./३३/९२/११ <span class="SanskritText">मोहनीयस्य का प्रकृतिः। मद्यपानवद्धेयोपादेयविचारविकलता। </span>= <span class="HindiText">मद्यपान के समान हेय - उपादेय ज्ञान की रहितता, यह मोहनीयकर्म की प्रकृति है। (और | द्र. सं./टी./३३/९२/११ <span class="SanskritText">मोहनीयस्य का प्रकृतिः। मद्यपानवद्धेयोपादेयविचारविकलता। </span>= <span class="HindiText">मद्यपान के समान हेय - उपादेय ज्ञान की रहितता, यह मोहनीयकर्म की प्रकृति है। (और भी− देखें - [[ प्रकृति बन्ध#3.1 | प्रकृति बन्ध / ३ / १ ]])। <br /> | ||
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ष. ख. ६/१, ९-१/सू. १९-२०/३७ <span class="PrakritText">मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीस पयडीओ।१९। जं तं मोहणीयं कम्मं तं दुविहं, दंसणमोहणीयं चारित्तमोहणीयं चेव।२०।</span> = | ष. ख. ६/१, ९-१/सू. १९-२०/३७ <span class="PrakritText">मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीस पयडीओ।१९। जं तं मोहणीयं कम्मं तं दुविहं, दंसणमोहणीयं चारित्तमोहणीयं चेव।२०।</span> = | ||
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<li class="HindiText"> मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियाँ हैं।१९। (ष. ख. १२/४, २, १४/सूत्र १०/४८२); (ष. ख. १३/५, ५/सूत्र ९०/३५७); (म. ब. १/ ५/२८/२); (विशेष | <li class="HindiText"> मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियाँ हैं।१९। (ष. ख. १२/४, २, १४/सूत्र १०/४८२); (ष. ख. १३/५, ५/सूत्र ९०/३५७); (म. ब. १/ ५/२८/२); (विशेष देखें - [[ आगे दर्शन व चारित्रमोह की उत्तर प्रकृतियाँ | आगे दर्शन व चारित्रमोह की उत्तर प्रकृतियाँ ]])। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> मोहनीयकर्म दो प्रकार का है−दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। (ष. ख. १३/५, ५/सूत्र ९१/३५७); (मू. आ./१२२६); (त. सू./८/९); (पं. सं./प्रा./२/४ व उसकी मूल व्याख्या); (गो. क./जी./प्र./२५/१७/९); (पं. ध./उ./९८५)। </span><br /> | <li><span class="HindiText"> मोहनीयकर्म दो प्रकार का है−दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। (ष. ख. १३/५, ५/सूत्र ९१/३५७); (मू. आ./१२२६); (त. सू./८/९); (पं. सं./प्रा./२/४ व उसकी मूल व्याख्या); (गो. क./जी./प्र./२५/१७/९); (पं. ध./उ./९८५)। </span><br /> | ||
गो. क./जी. प्र./३३/२७/१८ <span class="SanskritText">दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं कषायवेदनीयं नोकषायवेदनीयं इति मोहनीयं चतुर्विधम्।</span> =<span class="HindiText"> दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, कषायवेदनीय और अकषाय वेदनीय, इस प्रकार मोहनीय कर्म चार प्रकार का है। <br /> | गो. क./जी. प्र./३३/२७/१८ <span class="SanskritText">दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं कषायवेदनीयं नोकषायवेदनीयं इति मोहनीयं चतुर्विधम्।</span> =<span class="HindiText"> दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, कषायवेदनीय और अकषाय वेदनीय, इस प्रकार मोहनीय कर्म चार प्रकार का है। <br /> |
Revision as of 15:25, 6 October 2014
- मोहनीय सामान्य निर्देश
- मोहनीय कर्म सामान्य का लक्षण
स. सि./८/४/३८०/५ मोहयति मोह्यतेऽनेति वा मोहनीयम्। = जो मोहित करता है या जिसके द्वारा मोहा जाता है वह मोहनीय कर्म है। (रा. वा./८/४/२/५६८/१), (ध. ६/१, ९-१, ८/११/५, ७), (ध. १३/५, ५, १९/२०८/१०), (गो. क./जी. प्र./२०/ १३/१५) ।
द्र. सं./टी./३३/९२/११ मोहनीयस्य का प्रकृतिः। मद्यपानवद्धेयोपादेयविचारविकलता। = मद्यपान के समान हेय - उपादेय ज्ञान की रहितता, यह मोहनीयकर्म की प्रकृति है। (और भी− देखें - प्रकृति बन्ध / ३ / १ )।
- मोहनीय कर्म के भेद -
- दो. या २८ भेद
ष. ख. ६/१, ९-१/सू. १९-२०/३७ मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीस पयडीओ।१९। जं तं मोहणीयं कम्मं तं दुविहं, दंसणमोहणीयं चारित्तमोहणीयं चेव।२०। =- मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियाँ हैं।१९। (ष. ख. १२/४, २, १४/सूत्र १०/४८२); (ष. ख. १३/५, ५/सूत्र ९०/३५७); (म. ब. १/ ५/२८/२); (विशेष देखें - आगे दर्शन व चारित्रमोह की उत्तर प्रकृतियाँ )।
- मोहनीयकर्म दो प्रकार का है−दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। (ष. ख. १३/५, ५/सूत्र ९१/३५७); (मू. आ./१२२६); (त. सू./८/९); (पं. सं./प्रा./२/४ व उसकी मूल व्याख्या); (गो. क./जी./प्र./२५/१७/९); (पं. ध./उ./९८५)।
गो. क./जी. प्र./३३/२७/१८ दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं कषायवेदनीयं नोकषायवेदनीयं इति मोहनीयं चतुर्विधम्। = दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, कषायवेदनीय और अकषाय वेदनीय, इस प्रकार मोहनीय कर्म चार प्रकार का है।
- असंख्यात भेद
ध. १२/४, २, १४, १०/४८२/६ पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे मोहणीयस्स असंखेज्जलोगमेत्तीयो होंति, असंखेज्जलोगमेत्त-उदयट्ठाणण्णहीणुववत्तीदो। = पर्यायार्थिक नय का अवलम्बन करने पर तो मोहनीय कर्म की असंख्यात लोकमात्र शक्तियाँ हैं, क्योंकि, अन्यथा उसके असंख्यातलोक मात्र उदयस्थान बन नहीं सकते।
- दो. या २८ भेद
- मोहनीय के लक्षण सम्बन्धी शंका
ध. ६/१, ९-१, ८/११/५ मुह्यत इति मोहनीयम्। एवं संते जीवस्स मोहणीयत्तं पसज्जदि त्ति णासंकणिज्जं, जीवादो अभिणम्हि पोग्गलदव्वे कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तधाउत्तीदो। अथवा मोहयतीति मोहनीयम्। एवं संते धत्तूर-सुराकलत्तादीणं पि मोहणीयत्तं पसज्जदीदि चे ण, कम्मदव्वमोहणीये एत्थ अहियारादो। ण कम्माहियारे धत्तूर-सुरा-कलत्तादीणं संभवो अत्थि। = प्रश्न− ‘जिसके द्वारा मोहित होता है, वह मोहनीय कर्म है’ इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर जीव के मोहनीयत्व प्राप्त होता है ? उत्तर−ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जीव से अभिन्न और ‘कर्म’ ऐसी संज्ञा वाले पुद्गल द्रव्य में उपचार से कर्तृत्व का आरोपण करके उस प्रकार की व्युत्पत्ति की गयी है। प्रश्न−अथवा ‘जो मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है’, ऐसी व्युत्पत्ति करने पर धतूरा, मदिरा और भार्या आदि के भी मोहनीयता प्रसक्त होती है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि यहाँ पर मोहनीय नामक द्रव्यकर्म का अधिकार है। अतएव कर्म के अधिकार में धतूरा, मदिरा और स्त्री आदि की सम्भावना नहीं है।
- मोहनीय व ज्ञानावरणी कर्मों में अन्तर
रा. वा./८/४-५/५६८/१३ स्यादेतत्सति मोहे हिताहितपरीक्षणाभावात् ज्ञानावरणादविशेषो मोहस्येति; तन्न; किं कारणम्। अर्थान्तरभावात्। याथात्म्यमर्थस्यावगम्यापि इदमेवेति सद्भूतार्थाश्रद्धानं यतः स मोहः। ज्ञानावरणेन ज्ञानं तथान्यथा वा न गृह्णाति।४। यथा भिन्नलक्षणाङ्कुरदर्शनात् बीजकारणान्यत्वं तथैवाज्ञानचारित्रमोहकार्यान्तरदर्शनात् ज्ञानावरणमोहनीयकारणभेदोऽवसीयते। = प्रश्न−मोह के होने पर भी हिताहित का विवेक नहीं होता, अतः मोह को ज्ञानावरण से भिन्न नहीं कहना चाहिए ? उत्तर−पदार्थ का यथार्थ बोध करके भी ‘यह ऐसा ही है’ इस प्रकार सद्भूत अर्थ का अश्रद्धान (दर्शन) मोह है, पर ज्ञानावरण से ज्ञान तथा या अन्यथा ग्रहण ही नहीं करता, अतः दोनों में अन्तर है।४। (पं. ध./उ./९८९-९९०)। जैसे अंकुररूप कार्य के भेद से कारणभूत बीजों में भिन्नता है उसी तरह अज्ञान और चरित्रभूत इन दोनों में भिन्नता होनी ही चाहिए।५।
- सर्व कर्मों में मोहनीय की प्रधानता
ध. १/१, १, १/४३/१ अशेषदुःखप्राप्तिनिमित्तत्वादरिर्मोहः। तथा च शेषकर्मव्यापारो वैफल्यमुपादेयादिति चेन्न, शेषकर्मणां मोहतन्त्रत्वात्। न हि मोहमन्तरेण शेषकर्माणि स्वकार्यनिष्पत्तौ व्यापृतान्युपलभ्यन्ते येन तेषां स्वातन्त्र्यं जायेत। मोहे विनष्टेऽपि कियन्तमपि कालं शेषकर्मणां सत्त्वोपलम्भान्न तेषां तत्तन्त्रत्वमिति चेन्न, विनष्टेऽरौ जन्ममरणप्रबन्धलक्षणसंसारोत्पादसामर्थ्यमन्तरेण तत्सत्त्वस्यासत्त्व-समानत्वात् केवलज्ञानाद्यशेषात्मगुणाविर्भावप्रतिबन्धनप्रत्ययासमर्थत्वाच्च। = समस्त दुःखों की प्राप्ति का निमित्तकारण होने से मोह को ‘अरि’ अर्थात् शत्रु कहा है। प्रश्न−केवल मोह को ही अरि मान लेने पर शेष कर्मों का व्यापार निष्फल हो जाता है। उत्तर−ऐसा नहीं है, क्योंकि बाकी के समस्त कर्म मोह के ही अधीन हैं। मोह बिना शेष कर्म अपने-अपने कार्य की उत्पत्ति में व्यापार करते हुए नहीं पाये जाते हैं, जिससे कि वे स्वतन्त्र समझे जायें। इसलिए सच्चा अरि मोह ही है और शेष कर्म उसके अधीन हैं। प्रश्न−मोह के नष्ट हो जाने पर भी कितने ही काल तक शेष कर्मों की सत्ता रहती है, इसलिए उनको मोह के अधीन मानना उचित नहीं है। उत्तर−ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि मोहरूप अरि के नष्ट हो जाने पर, जन्म मरण की परम्परा रूप संसार के उत्पादन की सामर्थ्य शेष कर्मों में नहीं रहने से उन कर्मों का सत्त्व असत्त्व के समान हो जाता है। (पं. ध./उ./१०६४-१०७०)।
- मोहनीय कर्म सामान्य का लक्षण