रूपस्थ: Difference between revisions
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Revision as of 15:25, 6 October 2014
- रूपस्थ ध्यान का लक्षण व विधि
वसु. श्रा./४७२ - ४७५ आयास-फलिहसंणिहतणुप्पहासलिलणिहिणिव्वुडंतं। णर-सुरतिरीडमणिकिरणसमूहरंजियपयंबुरहो ।४७२। वर अट्ठपाडिहेरेहिं परिउट्ठो समवसरणमज्झगओ। परमप्पणंतचउट्ठयण्णिओ पवणमग्गट्ठो।४७३। एरिसओच्चिय परिवारवज्जिओ खीरजलहिमज्झे वा। वरखीरवण्णकंदुत्थकण्णियामज्झदेसट्ठो।४७४। रयीरुवहिसलिलधाराहिसेयधवलोकयंग सव्वंगो। जं झाइज्जइ एवं रूवत्थं जाण तं झाणं।४७५। =- आकाश और स्फटिक मणि के समान स्वच्छ एवं निर्मल अपने शरीर की प्रभारूपी सलिल-निधि में निमग्न, मनुष्यों और देवों के मुकुटों में लगी हुई मणियों की किरणों के समूह से अनुरंजित हैं, चरणकमल जिनके, ऐसे तथा श्रेष्ठ आठ महाप्रातिहार्यों से परिवृत्त, समवशरण के मध्य में स्थित, परम अनन्त चतुष्टय से समन्वित, पवन मार्गस्थ अर्थात् आकाश में स्थित अरहन्त भगवान् का ध्यान किया जाता है, वह रूपस्थ ध्यान है ।४७१-४७२। (ज्ञा./३९/१-८); (गुण. श्रा./२४०-२४१)।
- अथवा ऐसे ही अर्थात् उपर्युक्त सर्व शोभा से समन्वित किन्तु समवशरण आदि परिवार से रहित और क्षीर सागर के मध्य में स्थित, अथवा उत्तम क्षीरसागर के समान धवल वर्ण के कमल की कर्णिका के मध्य देश में स्थित क्षीर सागर के जल की धाराओं के अभिषेक से धवल हो रहा है सर्वांग जिनका, ऐसे अरहन्त परमेष्ठी का जो ध्यान किया जाता है, उसे रूपस्थ ध्यान जानना चाहिए।४७२-४७४। (गुण. श्रा./२४२)।
ज्ञा./३९/१४-३६, अनेकवस्तुसम्पूर्णं जगद्यस्य चराचरम्। स्फुरत्यविकलं बोधविशुद्धादर्शमण्डले।१४। दिव्यपुष्पानकाशोकराजितं रागवर्जितम्। प्रातिहार्यमहालक्ष्मीलक्षितं परमेश्वरम्।२३। नवकेवललब्धिश्रीसंभवं स्वात्मसंभवम्। तूर्यध्यानमहावह्नौ हुतकर्मैन्धनोत्करम्।२४। सर्वज्ञं सर्वदं सार्वं वर्धमानं निरामयम्। नित्यमव्ययमव्यक्तं परिपूर्णं पुरातनम् ।३०। इत्यादि सान्वयानेकपुण्यनामोपलक्षितम्। स्मर सर्वगतं देवं वीरममरनायकम्।३१। अनन्यशरणं साक्षात्तत्संलीनैकमानसः। तत्स्वरूपमवाप्नोति ध्यानी तन्मयतां गतः।३२। तस्मिन्निरन्तराभ्यासः वशात्संजातनिश्चलाः। सर्वावस्थासु पश्यन्ति तमेव परमेष्ठिनम्।३६। =- हे मुने ! तू आगे लिखे हुए प्रकार से सर्वज्ञ देव को स्मरण कर कि जिस सर्वज्ञ देव के ज्ञान रूप निर्मल दर्पण के मण्डल में अनेक वस्तुओं से भरा हुआ चराचर यह जगत् प्रकाशमान है।१४। दिव्य पुष्पवृष्टि दुन्दुभि बाजों तथा अशोक वृक्षों सहित विराजमान है, राग रहित है, प्रातिहार्य महालक्ष्मी से चिह्नित है, परम ऐश्वर्य करके सहित है।२३। अनन्तज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र इन नवलब्धिरूपी लक्ष्मी की जिससे उत्पत्ति है तथा अपने आत्मा से ही उत्पन्न है और शुक्लध्यानरूपी महान् अग्नि में होम दिया है कर्मरूप बन्धन का समूह ऐसा है।२४। सर्वज्ञ है, सबका दाता है, सर्व हितैषी है, वर्द्धमान है, निरामय है। नित्य है, अव्यय है, अव्यक्त है, परिपूर्ण है, पुरातन है।३०। इत्यादिक अनेक सार्थक नाम सहित, सर्वगत, देवों का नायक, सर्वज्ञ जो श्री वीर तीर्थंकर हैं उसको हे मुने ! तू स्मरण कर।३१।
- उपर्युक्त सर्वज्ञ देव का ध्यान करने वाला ध्यानी अनन्य शरण हो, साक्षात् उसमें ही संल्लीन है मन जिसका ऐसा ही, तन्मयता को पाकर, उसी स्वरूप को प्राप्त होता है।३२। उस सर्वज्ञ देव के ध्यान में अभ्यास करने के प्रभाव से निश्चल हुए योगीगण सर्व अवस्थाओं में उस परमेष्ठी को देखते हैं।३६।
द्र. सं./टी./४८/२०५ पर ‘उद्धृत रूपस्थं चिद्रूपं’ = सर्व चिद्रूप का चिन्तवन रूपस्थध्यान है। (प. प्र./टी./१/६/६ पर उद्धृत); (भा. पा./टी./८६/२३६ पर उद्धृत)।
- अर्हंत चिंतवन पदस्थादि तीनों ध्यानों में समान हैं−देखें - ध्येय।
- रूपस्थध्यान का फल
ज्ञा./३९/३३ - ३८ यमाराध्यशिवं प्राप्ता योगिनो जन्मनिस्पृहाः। यं स्मरत्यनिशं भव्याः शिवश्रीसंगमोत्सुकाः।३३। तदालम्ब्य परं ज्योतिस्तद्गुणग्रामरंजितः।अविक्षिप्तमनायोगी तत्स्वरूपमुपाश्नुते।३७। = जिस सर्वज्ञदेव को आराधन करके संसार से निस्पृह मुनिगण मोक्ष को प्राप्त हुए हैं तथा मोक्ष लक्ष्मी के संगम में उत्सुक भव्यजीव जिसका निरन्तर ध्यान करते हैं।३३। योगी उस सर्वज्ञदेव परमज्योति को आलम्बन करके गुण ग्रामों में रंजायमान होता हुआ मन में विक्षेप रहित होकर, उसी स्वरूप को प्राप्त होता है।३७।