वक्ता: Difference between revisions
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देखें - [[ आगम#5.5 | आगम / ५ / ५ ]](समस्त वस्तु-विषयक ज्ञान को प्राप्त सर्वज्ञ देव के निरूपित होने से ही आगम की प्रमाणता है।) <br /> | |||
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द. पा./टी./२२/२०/८ <span class="SanskritText">केवलज्ञानिभिर्जिनैर्भणितं प्रतिपादितम्। केवलज्ञानं विना तीर्थकरपरमदेवा धर्मोपदेशनं न कुर्वन्ति। अन्यमुनीनामुपदेशस्त्वनुवादरूपी ज्ञातव्यः।</span> = <span class="HindiText">केवलज्ञानियों के द्वारा कहा गया है। केवलज्ञान के बिना तीर्थंकर परमदेव उपदेश नहीं करते। अन्य मुनियों का उपदेश उसका अनुवाद रूप जानना चाहिए। <br /> | द. पा./टी./२२/२०/८ <span class="SanskritText">केवलज्ञानिभिर्जिनैर्भणितं प्रतिपादितम्। केवलज्ञानं विना तीर्थकरपरमदेवा धर्मोपदेशनं न कुर्वन्ति। अन्यमुनीनामुपदेशस्त्वनुवादरूपी ज्ञातव्यः।</span> = <span class="HindiText">केवलज्ञानियों के द्वारा कहा गया है। केवलज्ञान के बिना तीर्थंकर परमदेव उपदेश नहीं करते। अन्य मुनियों का उपदेश उसका अनुवाद रूप जानना चाहिए। <br /> | ||
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कुरल/अधि./श्लो.<span class="SanskritText"> भो भो शब्दार्थवेत्तारः शास्तारः पुण्यमानसाः। श्रोतृणां हृदयं बीक्ष्य तदर्हां बूतभारतीम्। (७२/२)। विद्वदगोष्टयां निजज्ञानं यो हि व्याख्यातुमक्षमः। तस्य निस्सारतां याति पाण्डित्यं सर्वतोमुखम्। (७३/८)। </span>= <span class="HindiText">ऐ शब्दों का मूल जानने वाले पवित्र पुरुषों ! पहले अपने श्रोताओं की मानसिक स्थिति को समझ लो और फिर उपस्थित जनसमूह की अवस्था के अनुसार अपनी वक्तृता देना आरम्भ करो। (७२/२)। जो लोग विद्वानों की सभा में अपने सिद्धान्त श्रोताओं के हृदय में नहीं बैठा सकते उनका अध्ययन चाहे कितना भी विस्तृत हो, फिर भी वह निरुपयोगी ही है। (७३/८)। </span><br /> | कुरल/अधि./श्लो.<span class="SanskritText"> भो भो शब्दार्थवेत्तारः शास्तारः पुण्यमानसाः। श्रोतृणां हृदयं बीक्ष्य तदर्हां बूतभारतीम्। (७२/२)। विद्वदगोष्टयां निजज्ञानं यो हि व्याख्यातुमक्षमः। तस्य निस्सारतां याति पाण्डित्यं सर्वतोमुखम्। (७३/८)। </span>= <span class="HindiText">ऐ शब्दों का मूल जानने वाले पवित्र पुरुषों ! पहले अपने श्रोताओं की मानसिक स्थिति को समझ लो और फिर उपस्थित जनसमूह की अवस्था के अनुसार अपनी वक्तृता देना आरम्भ करो। (७२/२)। जो लोग विद्वानों की सभा में अपने सिद्धान्त श्रोताओं के हृदय में नहीं बैठा सकते उनका अध्ययन चाहे कितना भी विस्तृत हो, फिर भी वह निरुपयोगी ही है। (७३/८)। </span><br /> | ||
आ. अनु./५-६ <span class="SanskritText">प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः, प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः। प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया, ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः।५। श्रुतमविकलं शुद्धा वृत्तिः परप्रतिबोधने, परिणतिरुरुद्योगो मार्गप्रवर्तनसद्विधौ। वुधनुतिरनुत्सेको लोकज्ञता मृदुतास्पृहा, यतिपतिगुणा यस्मिन्नन्ये च सोऽस्तु गुरुः सताम्।६। </span>= <span class="HindiText">जो प्राज्ञ है, समस्त शास्त्रों के रहस्य को प्राप्त है, लोकव्यवहार से परिचित है, समस्त आशाओं से रहित है, प्रतिभाशाली है, शान्त है, प्रश्न होने से पूर्व ही उसका उत्तर दे चुका है, श्रोता के प्रश्नों को वहन करने में समर्थ है, (अर्थात् उन्हें सुनकर न तो घबराता है और न उत्तेजित होता है), दूसरों के मनोगत भावों को तोड़ने वाला है, अनेक गुणों का स्थान है, ऐसा आचार्य दूसरों की निन्दा न करके स्पष्ट एवं मधुर शब्दों में धर्मोपदेश देने का अधिकारी होता है।५। जो समस्त श्रुत को जानता है, जिसके मन वचन काय की प्रवृत्ति शुद्ध है, जो दूसरों को प्रतिबोधित करने में प्रवीण है, मोक्ष मार्ग के प्रचाररूप समीचीन कार्य में प्रयत्नशील है, दूसरों के द्वारा प्रशंसनीय है तथा स्वयं भी दूसरों की यथायोग्य प्रशंसा व विनय आदि करता है, लोकज्ञ है, मृदु व सरल परिणामी है, इच्छाओं से रहित है तथा जिसमें अन्य भी आचार्य पद के योग्य गुण विद्यमान हैं; वही सज्जन शिष्यों का गुरु हो सकता है।६। <br /> | आ. अनु./५-६ <span class="SanskritText">प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः, प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः। प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया, ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः।५। श्रुतमविकलं शुद्धा वृत्तिः परप्रतिबोधने, परिणतिरुरुद्योगो मार्गप्रवर्तनसद्विधौ। वुधनुतिरनुत्सेको लोकज्ञता मृदुतास्पृहा, यतिपतिगुणा यस्मिन्नन्ये च सोऽस्तु गुरुः सताम्।६। </span>= <span class="HindiText">जो प्राज्ञ है, समस्त शास्त्रों के रहस्य को प्राप्त है, लोकव्यवहार से परिचित है, समस्त आशाओं से रहित है, प्रतिभाशाली है, शान्त है, प्रश्न होने से पूर्व ही उसका उत्तर दे चुका है, श्रोता के प्रश्नों को वहन करने में समर्थ है, (अर्थात् उन्हें सुनकर न तो घबराता है और न उत्तेजित होता है), दूसरों के मनोगत भावों को तोड़ने वाला है, अनेक गुणों का स्थान है, ऐसा आचार्य दूसरों की निन्दा न करके स्पष्ट एवं मधुर शब्दों में धर्मोपदेश देने का अधिकारी होता है।५। जो समस्त श्रुत को जानता है, जिसके मन वचन काय की प्रवृत्ति शुद्ध है, जो दूसरों को प्रतिबोधित करने में प्रवीण है, मोक्ष मार्ग के प्रचाररूप समीचीन कार्य में प्रयत्नशील है, दूसरों के द्वारा प्रशंसनीय है तथा स्वयं भी दूसरों की यथायोग्य प्रशंसा व विनय आदि करता है, लोकज्ञ है, मृदु व सरल परिणामी है, इच्छाओं से रहित है तथा जिसमें अन्य भी आचार्य पद के योग्य गुण विद्यमान हैं; वही सज्जन शिष्यों का गुरु हो सकता है।६। <br /> | ||
देखें - [[ आगम#5.9 | आगम / ५ / ९ ]](वक्ता को आगमार्थ के विषय में अपनी ओर से कुछ नहीं कहना चाहिए)। <br /> | |||
देखें - [[ अनुभव#3.1 | अनुभव / ३ / १ ]](आत्म-स्वभाव विषयक उपदेश देने में स्वानुभव का आधार प्रधान है। <br /> | |||
देखें - [[ आगम#6.1 | आगम / ६ / १ ]](वक्ता ज्ञान व विज्ञान से युक्त होता हुआ ही प्रमाणता को प्राप्त होता है।) <br /> | |||
देखें - [[ लब्धि#3 | लब्धि / ३ ]](मोक्षमार्ग का उपदेष्टा वास्तव में सम्यग्दृष्टि होना चाहिए, मिथ्यादृष्टि नहीं है।) <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"> वक्ता की प्रामाणिकता से वचन की | <li><span class="HindiText"> वक्ता की प्रामाणिकता से वचन की प्रामाणिकता।− देखें - [[ आगम#5 | आगम / ५ ]], ६। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> दिगम्बराचार्यों व गृहस्थाचार्यों को उपदेश व आदेश देने का अधिकार | <li><span class="HindiText"> दिगम्बराचार्यों व गृहस्थाचार्यों को उपदेश व आदेश देने का अधिकार है।− देखें - [[ आचार्य#2 | आचार्य / २ ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> हित-मित व कटु संभाषण | <li><span class="HindiText"> हित-मित व कटु संभाषण सम्बन्धी।− देखें - [[ सत्य#3 | सत्य / ३ ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> व्यर्थ संभाषण का | <li><span class="HindiText"> व्यर्थ संभाषण का निषेध।− देखें - [[ सत्य#3 | सत्य / ३ ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> वाद-विवाद करना योग्य नहीं पर धर्म-हानि के अवसर पर बिना बुलाये | <li><span class="HindiText"> वाद-विवाद करना योग्य नहीं पर धर्म-हानि के अवसर पर बिना बुलाये बोले।−देखें - [[ वाद | वाद। ]]</span></li> | ||
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Revision as of 15:25, 6 October 2014
- वक्ता
रा. वा./१/२०/१२/७५/१८ वक्तारश्चाविष्कृतवक्तृपर्याया द्वीन्द्रियादयः। = जिनमें वक्तृत्व पर्यायें प्रगट हो गयी हैं ऐसे द्वीन्द्रिय से आदि लेकर सभी जीव वक्ता हैं। (ध. १/१, १, २/११७/६); (गो. जी./जी. प्र./३६५/७७८/२४)।
- वक्ता के भेद
स. सि./१/२०/१२३/१० त्रयो वक्तारः - सर्वज्ञस्तीर्थंकर इतरो वा श्रुतकेवली आरातीयश्चेति। = वक्ता तीन प्रकार के हैं−सर्वज्ञ तीर्थंकर या सामान्य केवली, श्रुतकेवली और आरातीय।
- जिनागम के वास्तविक उपदेष्टा सर्वज्ञ देव ही हैं
देखें - आगम / ५ / ५ (समस्त वस्तु-विषयक ज्ञान को प्राप्त सर्वज्ञ देव के निरूपित होने से ही आगम की प्रमाणता है।)
देखें - दिव्यध्वनि / २ / १५ (आगम के अर्थकर्ता तो जिनेन्द्र देव हैं और ग्रन्थकर्ता गणधर देव हैं।)
द. पा./टी./२२/२०/८ केवलज्ञानिभिर्जिनैर्भणितं प्रतिपादितम्। केवलज्ञानं विना तीर्थकरपरमदेवा धर्मोपदेशनं न कुर्वन्ति। अन्यमुनीनामुपदेशस्त्वनुवादरूपी ज्ञातव्यः। = केवलज्ञानियों के द्वारा कहा गया है। केवलज्ञान के बिना तीर्थंकर परमदेव उपदेश नहीं करते। अन्य मुनियों का उपदेश उसका अनुवाद रूप जानना चाहिए।
- धर्मोपदेष्टा की विशेषताएँ
कुरल/अधि./श्लो. भो भो शब्दार्थवेत्तारः शास्तारः पुण्यमानसाः। श्रोतृणां हृदयं बीक्ष्य तदर्हां बूतभारतीम्। (७२/२)। विद्वदगोष्टयां निजज्ञानं यो हि व्याख्यातुमक्षमः। तस्य निस्सारतां याति पाण्डित्यं सर्वतोमुखम्। (७३/८)। = ऐ शब्दों का मूल जानने वाले पवित्र पुरुषों ! पहले अपने श्रोताओं की मानसिक स्थिति को समझ लो और फिर उपस्थित जनसमूह की अवस्था के अनुसार अपनी वक्तृता देना आरम्भ करो। (७२/२)। जो लोग विद्वानों की सभा में अपने सिद्धान्त श्रोताओं के हृदय में नहीं बैठा सकते उनका अध्ययन चाहे कितना भी विस्तृत हो, फिर भी वह निरुपयोगी ही है। (७३/८)।
आ. अनु./५-६ प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः, प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः। प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया, ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः।५। श्रुतमविकलं शुद्धा वृत्तिः परप्रतिबोधने, परिणतिरुरुद्योगो मार्गप्रवर्तनसद्विधौ। वुधनुतिरनुत्सेको लोकज्ञता मृदुतास्पृहा, यतिपतिगुणा यस्मिन्नन्ये च सोऽस्तु गुरुः सताम्।६। = जो प्राज्ञ है, समस्त शास्त्रों के रहस्य को प्राप्त है, लोकव्यवहार से परिचित है, समस्त आशाओं से रहित है, प्रतिभाशाली है, शान्त है, प्रश्न होने से पूर्व ही उसका उत्तर दे चुका है, श्रोता के प्रश्नों को वहन करने में समर्थ है, (अर्थात् उन्हें सुनकर न तो घबराता है और न उत्तेजित होता है), दूसरों के मनोगत भावों को तोड़ने वाला है, अनेक गुणों का स्थान है, ऐसा आचार्य दूसरों की निन्दा न करके स्पष्ट एवं मधुर शब्दों में धर्मोपदेश देने का अधिकारी होता है।५। जो समस्त श्रुत को जानता है, जिसके मन वचन काय की प्रवृत्ति शुद्ध है, जो दूसरों को प्रतिबोधित करने में प्रवीण है, मोक्ष मार्ग के प्रचाररूप समीचीन कार्य में प्रयत्नशील है, दूसरों के द्वारा प्रशंसनीय है तथा स्वयं भी दूसरों की यथायोग्य प्रशंसा व विनय आदि करता है, लोकज्ञ है, मृदु व सरल परिणामी है, इच्छाओं से रहित है तथा जिसमें अन्य भी आचार्य पद के योग्य गुण विद्यमान हैं; वही सज्जन शिष्यों का गुरु हो सकता है।६।
देखें - आगम / ५ / ९ (वक्ता को आगमार्थ के विषय में अपनी ओर से कुछ नहीं कहना चाहिए)।
देखें - अनुभव / ३ / १ (आत्म-स्वभाव विषयक उपदेश देने में स्वानुभव का आधार प्रधान है।
देखें - आगम / ६ / १ (वक्ता ज्ञान व विज्ञान से युक्त होता हुआ ही प्रमाणता को प्राप्त होता है।)
देखें - लब्धि / ३ (मोक्षमार्ग का उपदेष्टा वास्तव में सम्यग्दृष्टि होना चाहिए, मिथ्यादृष्टि नहीं है।)
- अन्य सम्बन्धित विषय
- जीव को वक्ता कहने की विवक्षा।− देखें - जीव / १ / ३ ।
- वक्ता की प्रामाणिकता से वचन की प्रामाणिकता।− देखें - आगम / ५ , ६।
- दिगम्बराचार्यों व गृहस्थाचार्यों को उपदेश व आदेश देने का अधिकार है।− देखें - आचार्य / २ ।
- हित-मित व कटु संभाषण सम्बन्धी।− देखें - सत्य / ३ ।
- व्यर्थ संभाषण का निषेध।− देखें - सत्य / ३ ।
- वाद-विवाद करना योग्य नहीं पर धर्म-हानि के अवसर पर बिना बुलाये बोले।−देखें - वाद।