विकलादेश: Difference between revisions
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<p>रा.वा./४/४२/१३/२५२/२२ <span class="SanskritText">धर्माणां भेदेन विवक्षा तदैकस्य शब्दस्यानेकार्थंप्रत्यायनशक्त्यभावात् क्रमः।....यदा तु कमः तदा विकलादेशः, स एव नय इति व्यपदिक्ष्यते।</span> = <span class="HindiText">जब वस्तु के अस्तित्व आदि अनेक धर्म कालादिकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न विवक्षित होते हैं, उस समय एक शब्द में अनेक अर्थों के प्रतिपादन की शक्ति न होने से क्रम से प्रतिपादन होता है। इसे विकलादेश कहते हैं। और यह नयके आधीन है। | <p>रा.वा./४/४२/१३/२५२/२२ <span class="SanskritText">धर्माणां भेदेन विवक्षा तदैकस्य शब्दस्यानेकार्थंप्रत्यायनशक्त्यभावात् क्रमः।....यदा तु कमः तदा विकलादेशः, स एव नय इति व्यपदिक्ष्यते।</span> = <span class="HindiText">जब वस्तु के अस्तित्व आदि अनेक धर्म कालादिकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न विवक्षित होते हैं, उस समय एक शब्द में अनेक अर्थों के प्रतिपादन की शक्ति न होने से क्रम से प्रतिपादन होता है। इसे विकलादेश कहते हैं। और यह नयके आधीन है। विशेष– देखें - [[ नय#I.2 | नय / I / २ ]]। (श्लो.वा./२/१/६/४५१/१६)। (स.म./२३/२८३/१६)। </span><br /> | ||
रा.वा./४/४२/१६/२६०/१२ <span class="SanskritText">निंरंशस्यापि गुणभेदादंशकल्पना विकलादेशः।१६। स्वेन तत्त्वेनाप्रविभागस्यापि वस्तुनो विविक्तं गुणरूपं स्वरूपोपरञ्जकमपेक्ष्य प्रकल्पितमंशभेदं कृत्वा अनेकात्मकैकत्व व्यवस्थायां नरसिंहसिंहत्ववत् समुदायात्मकमात्मरूपमभ्युपगम्य कालादिभिरन्योन्यविषयानुप्रवेशरहितांशकल्पनं विकलादेशः, न तु केवल सिंहे सिंहत्ववत् एकात्मकैकत्वपरिग्रहात्। यथा वा पानकमनेकखण्डदाडिमकर्पूरादिरसानुविद्धमास्वाद्य अनेकरसात्मकत्वमस्यावसाय पुनः स्वशक्तिविशेषादिदमप्यस्तीति विशेषनिरूपणं क्रियते, तथा अनेकात्मकैकवस्त्वभ्युपगमपूर्वकं हेतु विशेषसामर्थ्यात् अर्पितसाध्यविशेषावधारणं विकलादेशः। कथं पुनरर्थस्याभिन्नस्य गुणो भेदकः? दृष्टो हि अभिन्नस्याप्यर्थस्य गुणस्तत्त्वभेदं कल्पयन् यथा परुत् भवान् पटुरासीत् पटुतर एवम् इति गुणविविक्तरूपस्य द्रव्यासंभवात् गुणभेदेन गुणिनोऽपि भेदः। </span>=<span class="HindiText"> निरंश वस्तु में गुणभेद से अंशकल्पना करना विकलादेश है। स्वरूप से अविभागी अखंड सत्ताक वस्तुएँ विविध गुणों की अपेक्षा अंश कल्पना करना अर्थात् अनेक और एकत्व की व्यवस्था के लिए मूलतः नरसिंह में सिंहत्व की तरह समुदायात्मक वस्तुस्वरूप को स्वीकार करके ही काल आदि की दृष्टि से परस्पर विभिन्न अंशों की कल्पना करना विकलादेश है। केवल सिंह में सिंहत्व की तरह एक में एकांश की कल्पना करना विकलादेश नहीं है। जैसे दाडिम कर्पूर आदि से बने हुए शर्बत में विलक्षण रसकी अनुभूति और स्वीकृति के बाद अपनी पहिचान शक्ति के अनुसार ‘इस शर्बत में इलाइची भी है, कर्पूर भी है’ इत्यादि विवेचन किया जाता है, उसी अनेकान्तात्मक एक वस्तु की स्वीकृति के बाद हेतुविशेष से किसी विवक्षित अंश का निश्चय करना विकलादेश है। <strong>प्रश्न–</strong>गुण अभिन्न अर्थ का भेदक कैसे हो सकता है? <strong>उत्तर–</strong>अखण्ड भी वस्तु में गुणों से भेद देखा जा सकता है, जैसे–‘गतवर्ष आप पटु थे, इस वर्ष पटुतर हैं’ इस प्रयोग में अवस्था भेद से तदभिन्न द्रव्य में भेद व्यवहार होता है । गुणभेद से गुणिभेद का होना स्वाभाविक ही है।–(विशेष | रा.वा./४/४२/१६/२६०/१२ <span class="SanskritText">निंरंशस्यापि गुणभेदादंशकल्पना विकलादेशः।१६। स्वेन तत्त्वेनाप्रविभागस्यापि वस्तुनो विविक्तं गुणरूपं स्वरूपोपरञ्जकमपेक्ष्य प्रकल्पितमंशभेदं कृत्वा अनेकात्मकैकत्व व्यवस्थायां नरसिंहसिंहत्ववत् समुदायात्मकमात्मरूपमभ्युपगम्य कालादिभिरन्योन्यविषयानुप्रवेशरहितांशकल्पनं विकलादेशः, न तु केवल सिंहे सिंहत्ववत् एकात्मकैकत्वपरिग्रहात्। यथा वा पानकमनेकखण्डदाडिमकर्पूरादिरसानुविद्धमास्वाद्य अनेकरसात्मकत्वमस्यावसाय पुनः स्वशक्तिविशेषादिदमप्यस्तीति विशेषनिरूपणं क्रियते, तथा अनेकात्मकैकवस्त्वभ्युपगमपूर्वकं हेतु विशेषसामर्थ्यात् अर्पितसाध्यविशेषावधारणं विकलादेशः। कथं पुनरर्थस्याभिन्नस्य गुणो भेदकः? दृष्टो हि अभिन्नस्याप्यर्थस्य गुणस्तत्त्वभेदं कल्पयन् यथा परुत् भवान् पटुरासीत् पटुतर एवम् इति गुणविविक्तरूपस्य द्रव्यासंभवात् गुणभेदेन गुणिनोऽपि भेदः। </span>=<span class="HindiText"> निरंश वस्तु में गुणभेद से अंशकल्पना करना विकलादेश है। स्वरूप से अविभागी अखंड सत्ताक वस्तुएँ विविध गुणों की अपेक्षा अंश कल्पना करना अर्थात् अनेक और एकत्व की व्यवस्था के लिए मूलतः नरसिंह में सिंहत्व की तरह समुदायात्मक वस्तुस्वरूप को स्वीकार करके ही काल आदि की दृष्टि से परस्पर विभिन्न अंशों की कल्पना करना विकलादेश है। केवल सिंह में सिंहत्व की तरह एक में एकांश की कल्पना करना विकलादेश नहीं है। जैसे दाडिम कर्पूर आदि से बने हुए शर्बत में विलक्षण रसकी अनुभूति और स्वीकृति के बाद अपनी पहिचान शक्ति के अनुसार ‘इस शर्बत में इलाइची भी है, कर्पूर भी है’ इत्यादि विवेचन किया जाता है, उसी अनेकान्तात्मक एक वस्तु की स्वीकृति के बाद हेतुविशेष से किसी विवक्षित अंश का निश्चय करना विकलादेश है। <strong>प्रश्न–</strong>गुण अभिन्न अर्थ का भेदक कैसे हो सकता है? <strong>उत्तर–</strong>अखण्ड भी वस्तु में गुणों से भेद देखा जा सकता है, जैसे–‘गतवर्ष आप पटु थे, इस वर्ष पटुतर हैं’ इस प्रयोग में अवस्था भेद से तदभिन्न द्रव्य में भेद व्यवहार होता है । गुणभेद से गुणिभेद का होना स्वाभाविक ही है।–(विशेष देखें - [[ द्रव्य#4.4 | द्रव्य / ४ / ४ ]]); (और भी बे.सकलादेश)। </span><br /> | ||
श्लो.वा.२/१/६/५६/४६०/२३ <span class="SanskritText">सकलाप्रतिपादकत्वात् प्रत्येकं सदादिवाक्यं विकलादेश इति न समीचीना युक्तिस्त-त्समुदायस्यापि विकलादेशत्वप्रसंगात्। </span>=<span class="HindiText"> सम्पूर्ण वस्तु का प्रतिपादक न होने के कारण प्रत्येक बोला गया सत् असत् आदि वाक्य विकलादेश है, यह युक्ति ठीक नहीं, क्योंकि यों तो उन सातों वाक्यों के समुदाय को भी विकलादेशपने का प्रसंग होगा। सातों वाक्य समुदित होकर भी वस्तुभूत अर्थ के प्रतिपादक न हो सकेंगे। (स.भ.त./१९/२)। </span><br /> | श्लो.वा.२/१/६/५६/४६०/२३ <span class="SanskritText">सकलाप्रतिपादकत्वात् प्रत्येकं सदादिवाक्यं विकलादेश इति न समीचीना युक्तिस्त-त्समुदायस्यापि विकलादेशत्वप्रसंगात्। </span>=<span class="HindiText"> सम्पूर्ण वस्तु का प्रतिपादक न होने के कारण प्रत्येक बोला गया सत् असत् आदि वाक्य विकलादेश है, यह युक्ति ठीक नहीं, क्योंकि यों तो उन सातों वाक्यों के समुदाय को भी विकलादेशपने का प्रसंग होगा। सातों वाक्य समुदित होकर भी वस्तुभूत अर्थ के प्रतिपादक न हो सकेंगे। (स.भ.त./१९/२)। </span><br /> | ||
क.पा.१/171/203/6 <span class="SanskritText">को विकलादेशः। अस्त्येव नास्त्येव अवक्तव्य एव......घट इति विकलादेशः। कथमेतेषां सप्तानां दुर्नयानां विकलादेशत्वम्। न; एकधर्मविशिष्टस्यैव वस्तुनः प्रतिपादनात्।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>विकलादेश क्या है? <strong>उत्तर–</strong>घट है ही, घट नहीं ही है, घट अवक्तव्यरूप ही है.......इस प्रकार यह (सप्तभंगी) विकलादेश है। <strong>प्रश्न–</strong>इन सातों दुर्नयरूप अर्थात् सर्वथा एकान्तरूप वाक्यों को विकलादेशपना कैसे प्राप्त हो सकता है? <strong>उत्तर–</strong>ऐसी आशंका ठीक नहीं, क्योंकि ये सातों वाक्य एकधर्मविशिष्ट वस्तु का ही प्रतिपादन करते हैं, इसलिए ये विकालदेश रूप हैं। </span><br /> | क.पा.१/171/203/6 <span class="SanskritText">को विकलादेशः। अस्त्येव नास्त्येव अवक्तव्य एव......घट इति विकलादेशः। कथमेतेषां सप्तानां दुर्नयानां विकलादेशत्वम्। न; एकधर्मविशिष्टस्यैव वस्तुनः प्रतिपादनात्।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>विकलादेश क्या है? <strong>उत्तर–</strong>घट है ही, घट नहीं ही है, घट अवक्तव्यरूप ही है.......इस प्रकार यह (सप्तभंगी) विकलादेश है। <strong>प्रश्न–</strong>इन सातों दुर्नयरूप अर्थात् सर्वथा एकान्तरूप वाक्यों को विकलादेशपना कैसे प्राप्त हो सकता है? <strong>उत्तर–</strong>ऐसी आशंका ठीक नहीं, क्योंकि ये सातों वाक्य एकधर्मविशिष्ट वस्तु का ही प्रतिपादन करते हैं, इसलिए ये विकालदेश रूप हैं। </span><br /> | ||
स.भ.त./१६/३<span class="SanskritText"> अत्र केचित्.......एक धर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकवाक्यत्वं विकलादेशत्वम् इत्याहुः । तेषां..... नयवाक्यानां च सप्तविधत्वव्याघातः। </span><br /> | स.भ.त./१६/३<span class="SanskritText"> अत्र केचित्.......एक धर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकवाक्यत्वं विकलादेशत्वम् इत्याहुः । तेषां..... नयवाक्यानां च सप्तविधत्वव्याघातः। </span><br /> | ||
स.म.त./१७/१ <span class="SanskritText">यत्तु...........धर्म्यविषयकधर्मविषयकबोधजनकवाक्यत्वं विकलादेशत्वमिति–तन्न।.... धर्मिवृत्ति-त्वाविशेषितस्य धर्मस्यापि तथात्वादुक्तलक्षणस्यासंभवात्। </span>= <span class="HindiText">यहाँ पर कोई ऐसा कहते हैं कि वस्तु के सत्त्व असत्त्वादि धर्मों में से किसी एक धर्म का ज्ञान उत्पन्न कराने वाला वाक्य विकलादेश है। उनके मत में नयवाक्यों के सप्तभेद का व्याघात होगा ( | स.म.त./१७/१ <span class="SanskritText">यत्तु...........धर्म्यविषयकधर्मविषयकबोधजनकवाक्यत्वं विकलादेशत्वमिति–तन्न।.... धर्मिवृत्ति-त्वाविशेषितस्य धर्मस्यापि तथात्वादुक्तलक्षणस्यासंभवात्। </span>= <span class="HindiText">यहाँ पर कोई ऐसा कहते हैं कि वस्तु के सत्त्व असत्त्वादि धर्मों में से किसी एक धर्म का ज्ञान उत्पन्न कराने वाला वाक्य विकलादेश है। उनके मत में नयवाक्यों के सप्तभेद का व्याघात होगा (देखें - [[ सप्तभंगी | सप्तभंगी ]])। और जो कोई ऐसा कहते हैं कि धर्मी को छोड़कर केवल विशेषणीभूत धर्ममात्राविषयक बोधजनक वाक्य विकलादेश है, सो यह भी युक्त नहीं है क्योंकि धर्मों में वृत्तिता रूप से अविशेषित धर्म का भी शाब्दाबोध में भान नहीं होता है। </span><br /> | ||
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Revision as of 15:26, 6 October 2014
रा.वा./४/४२/१३/२५२/२२ धर्माणां भेदेन विवक्षा तदैकस्य शब्दस्यानेकार्थंप्रत्यायनशक्त्यभावात् क्रमः।....यदा तु कमः तदा विकलादेशः, स एव नय इति व्यपदिक्ष्यते। = जब वस्तु के अस्तित्व आदि अनेक धर्म कालादिकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न विवक्षित होते हैं, उस समय एक शब्द में अनेक अर्थों के प्रतिपादन की शक्ति न होने से क्रम से प्रतिपादन होता है। इसे विकलादेश कहते हैं। और यह नयके आधीन है। विशेष– देखें - नय / I / २ । (श्लो.वा./२/१/६/४५१/१६)। (स.म./२३/२८३/१६)।
रा.वा./४/४२/१६/२६०/१२ निंरंशस्यापि गुणभेदादंशकल्पना विकलादेशः।१६। स्वेन तत्त्वेनाप्रविभागस्यापि वस्तुनो विविक्तं गुणरूपं स्वरूपोपरञ्जकमपेक्ष्य प्रकल्पितमंशभेदं कृत्वा अनेकात्मकैकत्व व्यवस्थायां नरसिंहसिंहत्ववत् समुदायात्मकमात्मरूपमभ्युपगम्य कालादिभिरन्योन्यविषयानुप्रवेशरहितांशकल्पनं विकलादेशः, न तु केवल सिंहे सिंहत्ववत् एकात्मकैकत्वपरिग्रहात्। यथा वा पानकमनेकखण्डदाडिमकर्पूरादिरसानुविद्धमास्वाद्य अनेकरसात्मकत्वमस्यावसाय पुनः स्वशक्तिविशेषादिदमप्यस्तीति विशेषनिरूपणं क्रियते, तथा अनेकात्मकैकवस्त्वभ्युपगमपूर्वकं हेतु विशेषसामर्थ्यात् अर्पितसाध्यविशेषावधारणं विकलादेशः। कथं पुनरर्थस्याभिन्नस्य गुणो भेदकः? दृष्टो हि अभिन्नस्याप्यर्थस्य गुणस्तत्त्वभेदं कल्पयन् यथा परुत् भवान् पटुरासीत् पटुतर एवम् इति गुणविविक्तरूपस्य द्रव्यासंभवात् गुणभेदेन गुणिनोऽपि भेदः। = निरंश वस्तु में गुणभेद से अंशकल्पना करना विकलादेश है। स्वरूप से अविभागी अखंड सत्ताक वस्तुएँ विविध गुणों की अपेक्षा अंश कल्पना करना अर्थात् अनेक और एकत्व की व्यवस्था के लिए मूलतः नरसिंह में सिंहत्व की तरह समुदायात्मक वस्तुस्वरूप को स्वीकार करके ही काल आदि की दृष्टि से परस्पर विभिन्न अंशों की कल्पना करना विकलादेश है। केवल सिंह में सिंहत्व की तरह एक में एकांश की कल्पना करना विकलादेश नहीं है। जैसे दाडिम कर्पूर आदि से बने हुए शर्बत में विलक्षण रसकी अनुभूति और स्वीकृति के बाद अपनी पहिचान शक्ति के अनुसार ‘इस शर्बत में इलाइची भी है, कर्पूर भी है’ इत्यादि विवेचन किया जाता है, उसी अनेकान्तात्मक एक वस्तु की स्वीकृति के बाद हेतुविशेष से किसी विवक्षित अंश का निश्चय करना विकलादेश है। प्रश्न–गुण अभिन्न अर्थ का भेदक कैसे हो सकता है? उत्तर–अखण्ड भी वस्तु में गुणों से भेद देखा जा सकता है, जैसे–‘गतवर्ष आप पटु थे, इस वर्ष पटुतर हैं’ इस प्रयोग में अवस्था भेद से तदभिन्न द्रव्य में भेद व्यवहार होता है । गुणभेद से गुणिभेद का होना स्वाभाविक ही है।–(विशेष देखें - द्रव्य / ४ / ४ ); (और भी बे.सकलादेश)।
श्लो.वा.२/१/६/५६/४६०/२३ सकलाप्रतिपादकत्वात् प्रत्येकं सदादिवाक्यं विकलादेश इति न समीचीना युक्तिस्त-त्समुदायस्यापि विकलादेशत्वप्रसंगात्। = सम्पूर्ण वस्तु का प्रतिपादक न होने के कारण प्रत्येक बोला गया सत् असत् आदि वाक्य विकलादेश है, यह युक्ति ठीक नहीं, क्योंकि यों तो उन सातों वाक्यों के समुदाय को भी विकलादेशपने का प्रसंग होगा। सातों वाक्य समुदित होकर भी वस्तुभूत अर्थ के प्रतिपादक न हो सकेंगे। (स.भ.त./१९/२)।
क.पा.१/171/203/6 को विकलादेशः। अस्त्येव नास्त्येव अवक्तव्य एव......घट इति विकलादेशः। कथमेतेषां सप्तानां दुर्नयानां विकलादेशत्वम्। न; एकधर्मविशिष्टस्यैव वस्तुनः प्रतिपादनात्। = प्रश्न–विकलादेश क्या है? उत्तर–घट है ही, घट नहीं ही है, घट अवक्तव्यरूप ही है.......इस प्रकार यह (सप्तभंगी) विकलादेश है। प्रश्न–इन सातों दुर्नयरूप अर्थात् सर्वथा एकान्तरूप वाक्यों को विकलादेशपना कैसे प्राप्त हो सकता है? उत्तर–ऐसी आशंका ठीक नहीं, क्योंकि ये सातों वाक्य एकधर्मविशिष्ट वस्तु का ही प्रतिपादन करते हैं, इसलिए ये विकालदेश रूप हैं।
स.भ.त./१६/३ अत्र केचित्.......एक धर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकवाक्यत्वं विकलादेशत्वम् इत्याहुः । तेषां..... नयवाक्यानां च सप्तविधत्वव्याघातः।
स.म.त./१७/१ यत्तु...........धर्म्यविषयकधर्मविषयकबोधजनकवाक्यत्वं विकलादेशत्वमिति–तन्न।.... धर्मिवृत्ति-त्वाविशेषितस्य धर्मस्यापि तथात्वादुक्तलक्षणस्यासंभवात्। = यहाँ पर कोई ऐसा कहते हैं कि वस्तु के सत्त्व असत्त्वादि धर्मों में से किसी एक धर्म का ज्ञान उत्पन्न कराने वाला वाक्य विकलादेश है। उनके मत में नयवाक्यों के सप्तभेद का व्याघात होगा (देखें - सप्तभंगी )। और जो कोई ऐसा कहते हैं कि धर्मी को छोड़कर केवल विशेषणीभूत धर्ममात्राविषयक बोधजनक वाक्य विकलादेश है, सो यह भी युक्त नहीं है क्योंकि धर्मों में वृत्तिता रूप से अविशेषित धर्म का भी शाब्दाबोध में भान नहीं होता है।