निंबार्क वेदांत या द्वैताद्वैत वाद: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 22: | Line 22: | ||
[[रामानुज वेदान्त या विशिष्टाद्वैत | Previous Page]] | [[रामानुज वेदान्त या विशिष्टाद्वैत | Previous Page]] | ||
[[माध्व वेदान्त या द्वैतवाद | Next Page]] | [[माध्व वेदान्त या द्वैतवाद | Next Page]] | ||
Revision as of 17:20, 27 February 2015
- निम्बार्क वेदान्त या द्वैताद्वैत वाद
- सामान्य परिचय
ई. श. १२ में निम्बार्काचार्य ने स्थापना की। वेदान्त पारिजात, सौरभ व सिद्धान्त रत्न इसके प्रमुख ग्रन्थ हैं। भेदाभेद या द्वैताद्वैत वादी हैं। इनके यहाँ शूद्रों को ब्रह्म-विद्या का अधिकार नहीं। पापियों को चन्द्रगति नहीं मिलती। दक्षिणायण में मरने पर विद्वानों को ब्रह्म प्राप्ति होती है। यमालय में जाने वालों को दुख का अनुभव नहीं होता। विष्णु के भक्त हैं। राधा-कृष्ण को प्रधान मानते हैं। रामानुज वेदान्त से कुछ मिलता-जुलता है।– देखें - वेदान्त / ४ ।
- तत्त्व विचार
- तत्त्व तीन हैं–जीवात्मा, परमात्मा व प्रकृति। तीनों को पृथक्-पृथक् मानने से भेदवादी हैं और परमात्मा का जीवात्मा व प्रकृति के साथ सागर तरंगवत् सम्बन्ध मानने से अभेदवादी हैं।
- जीवात्मा तीन प्रकार का है सामान्य, बद्ध व मुक्त। सामान्य जीव सर्व प्राणियों में पृथक्-पृथक् है। बन्ध व मोक्ष की अपेक्षा परमात्मा पर निर्भर है। अणुरूप होते हुए भी इसका अनुभवात्मक प्रकाश सारे शरीर में व्याप्त है, आनन्दमय नहीं है पर नित्य है। शरीर से शरीरान्तर में जाने वाला तथा चतुर्गति में आत्मबुद्धि करने वाला बद्ध-जीव है। मुक्त जीव दो प्रकार का है–नित्य व सादि। गरुड़ आदि भगवान् नित्य मुक्त है। सत्कर्मों द्वारा पूर्व जन्म के कर्मों को भोगकर ज्योति को प्राप्त जीव सादि मुक्त हैं। ईश्वर की लीला से भी कदाचित् संकल्प मात्र से शरीर उत्पन्न करके भोग प्राप्त करते हैं। पर संसार में नहीं रहते।
- परमात्मा स्वभाव से ही अविद्या अस्मिता, राग-द्वेष, तथा अभिनिवेश इन पाँच दोषों से रहित है। आनन्द स्वरूप, अमृत, अभय, ज्ञाता, द्रष्टा, स्वतन्त्र, नियंता विश्व का व जीवों को जन्म, मरण, दुख, सुख का कारण, जीवों को कर्मानुसार फलदायक, पर स्वयं पुण्य पाप रूप कर्मों से अतीत, सर्वशक्तिमान् है। जगत् के आकार रूप से परिणत होता है। वैकुण्ठ में भी जीव इसी का ध्यान करते हैं। प्रलयावस्था में यह जीव इसी में लीन हो जाता है।
- प्रकृति तीन प्रकार है–अप्राकृत, प्राकृत और काल। तीनों ही नित्य व विभु हैं। त्रिगुणों से अतीत अप्राकृत है। भगवान् का शरीर इसी से बना है। त्रिगुणरूप प्राकृत है। संसार के सभी पदार्थ इसी से बने हैं। इन दोनों से भिन्न काल है।
- शरीर व इन्द्रिय
पृथिवी से मांस व मन, जल से, मूत्र, शोणित व प्राण; तेज से हड्डी, मज्जा व वाक् उत्पन्न हेाते हैं। मन पार्थिव है। प्राण अणु प्राण है तथा अवस्थान्तर को प्राप्त वायु रूप है। यह जीव का उपकरण है। इन्द्रिय ग्यारह हैं–पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और मन। स्थूल शरीर की गर्मी का कारण इसके भीतर स्थित सूक्ष्म शरीर है। (विशेष देखें - वेदान्त / २ )।
- सामान्य परिचय